दशलक्षण पर्व,पाँचवा दिन,उत्तम सत्य धर्म:♦️
🏳️🙏🏻ॐ हीं उत्तम सत्य धर्मांगाय नमः*🙏🏻
*जैसा देखा-जाना-सुना हो,वैसा ही प्रगट करना उत्तम सत्य धर्म कहलाता है*।
*सत्य स्वरूप को स्वयं पहिचान कर, अनुभव कर, वाणी में भी सत्य वचन का खिरना, सत्य है। वह सत्य जब आत्मा के श्रद्धान (सम्यग्दर्शन) के साथ होता है, तब ‘उत्तम सत्य धर्म’ नाम पाता है*।
*पंडित द्यानतराय जी यही फरमाते हुए श्री दसलक्षण पूजन में लिखते हैं*:
*उत्तम सत्य धर्म*🙏🏻
*कठिन-वचन मत बोल, पर-निंदा अरु झूठ तज*।
*साँच जवाहर खोल, सतवादी जग में सुखी*।।
*उत्तम-सत्य-वरत पालीजे, पर-विश्वासघात नहिं कीजे*।
*साँचे-झूठे मानुष देखो, आपन-पूत स्वपास न पेखो*।।
*पेखो तिहायत पु़रुष साँचे, को दरब सब दीजिए*।
*मुनिराज-श्रावक की प्रतिष्ठा, साँच-गुण लख लीजिये*।।
*ऊँचे सिंहासन बैठि वसु-नृप, धरम का भूपति भया*।
*वच-झूठ-सेती नरक पहुँचा, सुरग में नारद गया*।।
*👍🏻अर्थात*👍🏻
*पंडित जी लिखते हैं, कठिन वचन (कठोर/कर्कश) वचन नहीं बोलना चाहिए। पराई निंदा (बुराई) तथा झूठ, इन दोनों का भी सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। और सत्य वचन, हित-मित-प्रिय वचन को ही बोलना चाहिए क्योंकि जग में भी सत्यवादी जीव ही सुखी दिखाई देते हैं*।
*आगे पंडित जी लिखते हैं, “उत्तम सत्य व्रत का पालन करना चाहिए तथा पर (दूसरे) के साथ विश्वासघात नहीं करना चाहिये। स्वयं झूठ बोलने वाला अपने पुत्र पर भी विश्वास नहीं करता*।”
*[इन पंक्तियों से ऐसा भी तात्पर्य निकलता है, कि “अब तक हम दूसरे मनुष्यों में ही सच्चे-झूठे करते रहे, लेकिन अपने सत्य स्वरूप आत्मा को नहीं पहिचाना।”]*
*आगे लिखते हुए पंडित जी कहते हैं, कि “सच्चे पुरुष को सभी लोग विश्वास कर के द्रव्य (उधार आदि) दे देते हैं तथा मुनिराज और श्रावक की प्रतिष्ठा भी सत्य धर्म से ही होती है।”*
*फिर, “ऊंचे सिंहासन पर बैठकर राजा वसु सत्य धर्म का पालन नहीं करने से नरक गए तथा नारद, उसके मित्र व सत्य वचन बोलने वाले स्वर्ग गए।”*
*👉🏻उत्तम सत्य धर्म की कथा*👈🏻
*[पर्वत, नारद और वसु एक ही गुरु के शिष्य थे। पर्वत गुरु का पुत्र था, तथा गुरु के दीक्षा लेने के पश्चात गुरु बना। वसु, राजा का पुत्र होने से राजा बना तथा नारद आजीविका हेतु अन्य क्षेत्र में गमन कर गया*।
*एक बार, नारद पर्वत की पाठशाला के पास से गुज़र रहा था, जहाँ उसने पर्वत को ‘अजैर्यष्टव्यम’ सूत्र का अर्थ- ‘अज’ अर्थात बकरे से यज्ञ करना चाहिए, करते हुए सुना। जबकि वहाँ ‘अज’ का अर्थ ‘सूखे चावल’ था*।
*यह बात बताने पर अहंकारी पर्वत नहीं माना और वसु जो कि दोनों का सहपाठी और अब राजा था, उसके पास न्याय के लिए चलने का प्रस्ताव रखा; जिसके लिए नारद तैयार हो गया*।
*अपने पुत्र के मान की रक्षा हेतु पर्वत की माँ, राजा वसु से गुरु-दक्षिणा के रूप में अपने पुत्र की बात को सत्य ठहराने का वचन ले आयी*।
*अगले दिन जब नारद ने वसु से ‘अज’ का अर्थ पूछा, तो वचन के अनुसार उसने पर्वत के कथन को सत्य ठहराया*।
*इतना कहने की ही देर थी, कि राजा वसु जो कि स्फटिक मणि के सिंहासन पर बैठने के कारण अधर में बैठा हुआ भासित होता था, सिंहासन सहित जमीन में धंस गया तथा मृत्यु को प्राप्त हो नरक चला गया।]*
*इस प्रकार, यह उदाहरण असत्य का फल तथा सत्य की महिमा बता कर, उत्तम सत्य धर्म को धारण करने की प्रेरणा देता है*।
*और, सत्य स्वरूपी आत्मा को पहिचानकर उसमें ही लीन होना वही ‘उत्तम सत्य धर्म’ की यथार्थ प्रगटता है*.