श्रुत स्तवन / पंचामृताभिषेक सूचना
इस अभिषेक विधि के पश्चात् दो श्रुत स्नवन/पंचामृताभिषेक विधियां दी गई है, जिनमें से प्रथम सकलकीर्ति आचार्य विरचित है और दूसरी पं. प्रवर आशाधरजी विरचित। इस श्रुत स्नवन विधि को या तो श्रुत स्कंध यंत्र पर करना चाहिये या फिर दर्पण के सम्मुख जिनवाणी को विराजमान कर दर्पण दीख रही छवि का करना चाहिये। यदि इस न्हवन को प्रतिदिन न कर पायें, तो अष्टमी चतुर्दशी या अन्य व्रतों के दिन करना चाहिये और यदि वैसा भी संभव न हो तो श्रुत पंचमी के दिन तो महामहोत्सव के रूप में अवश्य करना चाहिये।
।। इति सूचना।।
1. श्रुत स्नवन/पंचामृताभिषेक / सकलकीर्ति आचार्य विरचित
जलाभिषेक
व्यामोपगादितीर्थोद्भवेनातिस्वच्छवारिणा।
जिनेन्द्रमुखजां वाणीं सिंचे विश्वैकमातृकाम्।।
अर्थ: मेघ व नदी आदि तीर्थ से उत्पन्न अत्यन्त स्वच्छ जल से जिनेन्द्र भगवान के ुमुख से प्रकट वाणी जो सम्पूर्ण विश्व की एक माता है का अभिषेक करता है।
ओं ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्ह। वं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं सं तं तं पं पं झं झं ठवीं इवीं क्ष्वीं क्ष्वीं द्रां द्रां द्रीं द्रीं द्रावय द्रावय ओं नमो अर्हत्प्रणीत श्रुतस्य जलाभिषेकं करोमि स्वाहा।
उदकचन्दनतंदुलपुष्पकैश्चरुसुदीपसुधूपफलार्धकैः।
धवलमंगलगानरवाकुले, जिनगृहे जिनशास्त्रमहं यजे।।
ओं ह्रीं अर्हत्प्रणीत श्रुताय जलाभिषेकं करोमि अध्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रसाभिषेक
सद्यः पीलितपुण्ड्रेक्षुरसेन शर्करादिना।
जिनेन्द्रमुखजां वाणीं सिंचे विश्वैकमातृकाम्।।
अर्थ: तत्काल पेले गये गन्ने के रस से व शर्करादिसे जिन मुख से प्रकट वाणी जो सम्पूर्ण विश्व की एक माता है का अभिषेक करता हूँ।
ओं ह्रीं श्रीं क्ली ऐं अर्हं वं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं सं तं तं पं पं झं झं इवीं इवीं क्ष्वीं क्ष्वीं द्रां द्रां द्रीं द्रीं द्रावय द्रावय ओं नमो अर्हत्प्रणीत श्रुतस्य रसाभिषेकं करोमि स्वाहा।
उदकचन्दनतंदुलपुष्पकैश्चरुसुदीपसुधूपफलार्धकैः।
धवलमंगलगानरवाकुले, जिनगृहे जिनशास्त्रमहं यजे।।
ओं ह्रीं अर्हत्प्रणीत श्रुताय रसाभिषेकं करोमि अध्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
घृताभिषेक
कनत्कांचनवर्णेन स़द्यः संतप्तसर्पिषा।
जिनेन्द्रमुखजां वाणीं सिंचे वियश्वैकमातृकाम्।।
अर्थ: तत्काल तपाये गये व सुवर्ण की समान आभावाले घी से जिन मुख से प्रकट वाणी जो सम्पूर्ण विश्व की एक माता है का अभिषेक करता हूँ।
ओं ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं तं तं पं पं झं झं इवीं इवीं क्ष्वीं क्ष्वीं द्रां द्रां द्रीं द्रावय द्रावय ओं नमो अर्हत्प्रणीत श्रुतस्य घृताभिषेक करोमि स्वाहा।
उदकचन्दनतंदुलपुष्पकैश्चरुसुदीपसुधूपफलार्घकैः।
धवलमंगलगानरवाकुले, जिनगृहे जिनशास्त्रमहं यजे।
ओं ह्रीं अर्हत्प्रणीत श्रुताय दुग्धाभिषेकं करोमि अध्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
दध्नाभिषेक
हिमपिण्डसमानेन दध्ना पुण्यफलेन वा।
जिनेन्द्रमुखजां वाणीं सिंचे विश्वैकमातृकाम।।
अर्थ: पुण्यफल के समान अथवा बर्फ के ढेले के समान दही से जिन मुख से प्रकट वाणी जो सम्पूर्ण विश्व की एक माता है का अभिषेक करता हूँ।
ओं ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं तं तं पं पं झं झं इवीं इवीं क्ष्वीं क्ष्वीं द्रां द्रां द्रीं द्रावय द्रावय ओं नमो अर्हत्प्रणीत श्रुतस्य दध्नाभिषेकं करोमि स्वाहा।
उदकचन्दनतंदुलपुष्पकैश्चरुसुदीपसुधूपफलार्घकैः।
धवलमंगलगानरवाकुले, जिनगृहे जिनशास्त्रमहं यजे।
ओं ह्रीं अर्हत्प्रणीत श्रुताय दध्नाभिषेकं करोमि अध्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
कलशाभिषेक
हेमोत्पन्नचतुः कुम्भैर्नानातीर्थाम्बुवारिभिः।
जिनेन्द्रमुखजां वाणीं सिंचे विश्वैकमातृकाम।।
अर्थ: स्वर्णनिर्मित चार कुम्भों से नाना तीर्थ जल से से जिन मुख से प्रकट वाणी जो सम्पूर्ण विश्व की एक माता है का अभिषेक करता हूँ।
ओं ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं तं तं पं पं झं झं इवीं इवीं क्ष्वीं क्ष्वीं द्रां द्रां द्रीं द्रावय द्रावय ओं नमो अर्हत्प्रणीत श्रुतस्य कलशाभिषेकं करोमि स्वाहा।
उदकचन्दनतंदुलपुष्पकैश्चरुसुदीपसुधूपफलार्घकैः।
धवलमंगलगानरवाकुले, जिनगृहे जिनशास्त्रमहं यजे।
ओं ह्रीं अर्हत्प्रणीत श्रुताय कलशांभिषेकं करोमि अध्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्णकलशाभिषेक
दिव्यद्रव्यौघमिश्रेण सुगन्धेनाच्छवारिणा।
जिनेन्द्रमुखजां वाणीं सिंचे विश्वैकमातृकाम।।
अर्थ: मनोहर द्रव्यों के मिश्रण से सुगन्धित निर्मल जल के प्रवाह से जिन मुख से प्रकट वाणी जो सम्पूर्ण विश्व की एक माता है का अभिषेक करता हूँ।
ओं ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं तं तं पं पं झं झं इवीं इवीं क्ष्वीं क्ष्वीं द्रां द्रां द्रीं द्रावय द्रावय ओं नमो अर्हत्प्रणीत श्रुतस्य पूर्णकलशाभिषेकं करोमि स्वाहा।
उदकचन्दनतंदुलपुष्पकैश्चरुसुदीपसुधूपफलार्घकैः।
धवलमंगलगानरवाकुले, जिनगृहे जिनशास्त्रमहं यजे।
ओं ह्रीं अर्हत्प्रणीत श्रुताय पूर्णकलशाभिषेकं करोमि अध्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
अभिषेक का फल
इति श्री भारतीं जैनी येऽभिषिंच्य यजन्ति ते।
विज्ञाय द्वादशांगनि, वै स्युः केवलिनोऽचिरात्।।
अर्थ: इस प्रकार जो जैनी (जिनेन्द्र भगवान के मुख से प्रकट जिनवाणी) भारत का अभिषेक व पूजन करते है वे द्वादशांग के ज्ञाता होकर शीघ्र ही केवलि पद को प्राप्त करते है।
।। इति।।
2. श्रुत स्नवन/पंचामृताभिषेक/आशाधर सूरि विरचित
जलाभिषेक
केवलज्ञानजन्मानं गणेन्द्रकथितां लिपौ।
सूरिभिः स्थापितां जैनीं वाचं सिंचे वराम्बुभिः।।
अर्थ: जिसका जन्म केवलज्ञान से हुआ है, जिसे गणधरदेव ने लिपिबद्ध किया है व आचार्यों ने जिसे स्थापित किया है ऐसी जिनवाणी का उत्कृष्ट जल से अभिषेक करता हूँ।
दध्नाभिषेक
हिमपिण्डसमानेन दध्ना पुण्यफलेन वा।
जिनेन्द्रमुखजां वाणीं सिंचे विश्वैकमातृकाम।।
अर्थ: पुण्यफल के समान अथवा बर्फ के ढेले के समान दही से जिन मुख से प्रकट वाणी जो सम्पूर्ण विश्व की एक माता है का अभिषेक करता हूँ।
ओं ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं तं तं पं पं झं झं इवीं इवीं क्ष्वीं क्ष्वीं द्रां द्रां द्रीं द्रावय द्रावय ओं नमो अर्हत्प्रणीत श्रुतस्य जलाभिषेकं करोमि स्वाहा।
उदकचन्दनतंदुलपुष्पकैश्चरुसुदीपसुधूपफलार्घकैः।
धवलमंगलगानरवाकुले, जिनगृहे जिनशास्त्रमहं यजे।
ओं ह्रीं अर्हत्प्रणीत श्रुताय जलाभिषेकं करोमि अध्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
रसाभिषेक
सद्यः पीलितपुण्ड्रेक्षुप्रकारण्डरसधारया।
जैनीं समरसं लिप्सुरभिषिंचामि भारतीम्।।
अर्थ: हाल ही मे पेले हुए उत्तम प्रकार के इक्षु रस की प्रकाण्ड धारा से समता रस का इच्छुक मैं जिनेन्द्र भगवान के मुख से निकलने से जो जैनी है ऐसी माँ का अभिषेक करता हूँ।
ओं ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं तं तं पं पं झं झं इवीं इवीं क्ष्वीं क्ष्वीं द्रां द्रां द्रीं द्रावय द्रावय ओं नमो अर्हत्प्रणीत श्रुतस्य रसाभिषेक करोमि स्वाहा।
उदकचन्दनतंदुलपुष्पकैश्चरुसुदीपसुधूपफलार्घकैः।
धवलमंगलगानरवाकुले, जिनगृहे जिनशास्त्रमहं यजे।
ओं ह्रीं अर्हत्प्रणीत श्रुताय रसाभिषेकं करोमि अध्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
घृताभिषेक
निष्ठप्तनासिकापेयतप्तभर्माभसर्पिषा।
स्नापयामि जगल्लक्ष्मीस्नेहिनीं भगवद्गिरम्।।
ओं ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं तं तं पं पं झं झं इवीं इवीं क्ष्वीं क्ष्वीं द्रां द्रां द्रीं द्रावय द्रावय ओं नमो अर्हत्प्रणीत श्रुतस्य घृताभिषेकं करोमि स्वाहा।
उदकचन्दनतंदुलपुष्पकैश्चरुसुदीपसुधूपफलार्घकैः।
धवलमंगलगानरवाकुले, जिनगृहे जिनशास्त्रमहं यजे।
ओं ह्रीं अर्हत्प्रणीत श्रुताय घृताभिषेकं करोमि अध्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
अर्थ: तप्तायमान स्वर्ण के समान आभावाले स्वादिष्ट घी (की सुगन्ध से) अनुरक्त नासिका वाला मैं जगत् की लक्ष्मी व जगत् को प्रिय है ऐसी भगवद् गिरम् अर्थात् माँ जिनवाणी का घी से अभिषेक करता हूँ।
दुग्धाभिषेक
रसायनेन पीयूषस्पर्धिनाभिषुणोम्यहम्।
गोक्षीरेण सवर्णेन जिनवाणीं स्वसिद्धये।।
अर्थ: मन को तृप्त व हर्षित करने वाले अमृततुल्य (सवर्णेन) एक ही जाति की गाय से दुहे (गोक्षीरेण) गाय के दूध से मैं अपनी मनोकामना की सिद्धि के लिये अभिषेक करता हूँ।
ओं ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं तं तं पं पं झं झं इवीं इवीं क्ष्वीं क्ष्वीं द्रां द्रां द्रीं द्रावय द्रावय ओं नमो अर्हत्प्रणीत श्रुतस्य दुग्धाभिषेकं करोमि स्वाहा।
उदकचन्दनतंदुलपुष्पकैश्चरुसुदीपसुधूपफलार्घकैः।
धवलमंगलगानरवाकुले, जिनगृहे जिनशास्त्रमहं यजे।
ओं ह्रीं अर्हत्प्रणीत श्रुताय दुग्धाभिषेकं करोमि अध्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
दग्ध्नाभिषेक
हिमपिण्डसपिण्डेन रुच्येन स्नेहशालिना।
दध्ना रोचिष्णुना सिंचे जिनवाचं रूचिप्रदाम्।।
जिनेन्द्रमुखजां वाणीं सिंचे विश्वैकमातृकाम।।
अर्थ: बर्फ का पिण्ड सा धवल उज्जवल स्निग्ध दही के पिण्ड से प्रफुल्लित वदन हो मनोकामना पूर्ण करने वाली जिनेन्द्र भगवान की वाणी का अभिषेक करता हूँ।
ओं ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं तं तं पं पं झं झं इवीं इवीं क्ष्वीं क्ष्वीं द्रां द्रां द्रीं द्रावय द्रावय ओं नमो अर्हत्प्रणीत श्रुतस्य दध्नाभिषेकं करोमि स्वाहा।
उदकचन्दनतंदुलपुष्पकैश्चरुसुदीपसुधूपफलार्घकैः।
धवलमंगलगानरवाकुले, जिनगृहे जिनशास्त्रमहं यजे।
ओं ह्रीं अर्हत्प्रणीत श्रुताय दध्नाभिषेकं करोमि अध्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
कलशाभिषेक
विचित्र सुरभिद्रव्यवासितोदकपूरितैः
सौवर्णेः कलशैर्जैनीं गिरमाप्लावयेऽ´्जसा।।
अर्थ: नाना प्रकार के सुगन्धित द्रव्यों से सुवासित जल से परिपूरित सुवणघर्् कलश से जैनी जिनवाणी का विधिवत् अभिषेक करता हूँ।
ओं ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं तं तं पं पं झं झं इवीं इवीं क्ष्वीं क्ष्वीं द्रां द्रां द्रीं द्रावय द्रावय ओं नमो अर्हत्प्रणीत श्रुतस्य कलशाभिषेकं करोमि स्वाहा।
उदकचन्दनतंदुलपुष्पकैश्चरुसुदीपसुधूपफलार्घकैः।
धवलमंगलगानरवाकुले, जिनगृहे जिनशास्त्रमहं यजे।
ओं ह्रीं अर्हत्प्रणीत श्रुताय कलशाभिषेकं करोमि अध्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्ण कलशाभिषेक
मिलद्भ्रमोच्छलत्स्वच्छसीकराकीर्णदिग्दिवा।
गन्धोदकेन वाग्देवीं जैनीं सिंचाम्यहं मुदा।
अर्थ: (सुवासित द्रव्यों से) मिले हुए सुगन्धित जल से मैं उल्लासित होता हुआ माँ जिनवाणी का अभिषेक करता हूँ जिस अभिषेक के स्वच्छ जल प्रवाह से उछलती हुई जल की बूंदों से चारों दिशाएं आप्लावित हो रही है।
ओं ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं तं तं पं पं झं झं इवीं इवीं क्ष्वीं क्ष्वीं द्रां द्रां द्रीं द्रावय द्रावय ओं नमो अर्हत्प्रणीत श्रुतस्य पूर्णकलशाभिषेकं करोमि स्वाहा।
उदकचन्दनतंदुलपुष्पकैश्चरुसुदीपसुधूपफलार्घकैः।
धवलमंगलगानरवाकुले, जिनगृहे जिनशास्त्रमहं यजे।
ओं ह्रीं अर्हत्प्रणीत श्रुताय पूर्णकलशाभिषेकं करोमि अध्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
अभिषेक फलम्
अभिषिंच्येति येऽर्चन्ति जलाद्य़ैर्जिनभारतीम्।
ते भजन्ति श्रियं कीर्तिद्योतिताशाधरां पराम्।।
अर्थ: श्री कीर्ति व मुक्ति के आशाधर जो जिनवाणी का जलादि से अभिषेक व पूजन करते हैं, उन्हें श्री कीर्ति व मुक्ति की प्राप्ति होती है।
।। इति।।
गणधरपादुका स्नवन/पंचामृताभिषेक सूचना
श्रुत स्नवन विधि की ही तरह आचार्य भगवंतों के चरणों के स्नवन की विधि आचार्यों ने बतलाई है। यदि आचार्य भगवंत साक्षात् उपस्थित हों, तो उनकी साक्षात् और यदि साक्षात् उपस्थित न हों तो उनके स्थापित चरणों का स्नवन अवश्य करना चाहिये। यदि इस न्हवन को प्रतिदिन न कर पायें, तो अष्टमी चतुर्दशी या अन्य व्रतों के दिन करना ही करना चाहिये और यदि वैसा भी संभव न हो तो गुरू पूर्णिमा के दिन तो महामहोत्सव के रूप में अवश्य करना चाहिये।
।। इति सूचना।।
सकलकीर्ति आचार्य विरचित
गणधरपादुका स्नवन/पंचामृताभिषेक
जलाभिषेक
व्योमापगादितीर्थोद्भवेनातिस्वच्छवारिणा।
अभिषि´्वे जगत्पूज्यान् गणेन्द्रचरणान् मुदा।।
अर्थ: मेघ व नदी आदि से उत्पन्न अत्यन्त निर्मल जल से हर्षित होता हुआ जगत्पूज्य गणधर भगवान के चरणों का अभिषेक करता हूँ
ओं ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं तं तं पं पं झं झं इवीं इवीं क्ष्वीं क्ष्वीं द्रां द्रां द्रीं द्रावय द्रावय ओं नमो अर्हत्प्रणीत श्रुतस्य जलाभिषेकं करोमि स्वाहा।
उदकचन्दनतंदुलपुष्पकैश्चरुसुदीपसुधूपफलार्घकैः।
धवलमंगलगानरवाकुले, जिनगृहे जिनशास्त्रमहं यजे।
ओं ह्रीं अर्हत्प्रणीत श्रुताय जलाभिषेकं करोमि अध्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
रसाभिषेक
व्योमापगादितीर्थोद्भवेनातिस्वच्छवारिणा।
अभिषि´्वे जगत्पूज्यान् गणेन्द्रचरणान् मुदा।।
अर्थ: तत्काल पेले गये गन्ने के रस से व शर्करादि से हर्षित होता हुआ जगत्पूज्य गणधर भगवान के चरणों का अभिषेक करता हूँ
ओं ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं तं तं पं पं झं झं इवीं इवीं क्ष्वीं क्ष्वीं द्रां द्रां द्रीं द्रावय द्रावय ओं नमो गणधरचरणयोः रसाभिषेकं करोमि स्वाहा।
उदकचन्दनतंदुलपुष्पकैश्चरुसुदीपसुधूपफलार्घकैः।
धवलमंगलगानरवाकुले, जिनगृहे जिनशास्त्रमहं यजे।
ओं ह्रीं गणधरचरणेभ्यो रसाभिषेकं करोमि अध्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
घृताभिषेक
कनत्कांचनवर्णेन सद्यः संतप्तसर्पिषा।
अभिषि´्चे जगत्पूज्यान् गणेन्द्रचरणान् मुदा।
अर्थ: तत्काल तपाये गये व सुवर्ण की समान आभावाले घी से हर्षित होता हुआ जगत्पूज्य गणधर भगवान के चरणों का अभिषेक करता हूँ
ओं ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं तं तं पं पं झं झं इवीं इवीं क्ष्वीं क्ष्वीं द्रां द्रां द्रीं द्रावय द्रावय ओं नमो गणधरचरणयोः घृताभिषेक करोमि स्वाहा।
उदकचन्दनतंदुलपुष्पकैश्चरुसुदीपसुधूपफलार्घकैः।
धवलमंगलगानरवाकुले, जिनगृहे जिनशास्त्रमहं यजे।
ओं ह्रीं गणधरचरणेभ्यो घृताभिषेकं करोमि अध्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
दुग्धाभिषेक
सद्गोक्षीरप्रवाहेन शुूक्लध्यानाकरेण वा।
अभिषि´्चे जगत्पूज्यान् गणेन्द्रचरणान् मुदा।।
अर्थ: जो शुक्ल ध्यान के समान उत्कृष्ट मनोहर दूध की धारा से हर्षित होता हुआ जगत्पूज्य गणधर भगवान के चरणों का अभिषेक करता हूँ
ओं ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं तं तं पं पं झं झं इवीं इवीं क्ष्वीं क्ष्वीं द्रां द्रां द्रीं द्रावय द्रावय ओं नमो गणधरचरणयोः दुग्धाभिषेकं करोमि स्वाहा।
उदकचन्दनतंदुलपुष्पकैश्चरुसुदीपसुधूपफलार्घकैः।
धवलमंगलगानरवाकुले, जिनगृहे जिनशास्त्रमहं यजे।
ओं ह्रीं गणधरचरणेभ्यो दुग्धाभिषेकं करोमि स्वाहा।
दध्नाभिषेक
हिमपिण्डसमानेन दध्ना पुण्यफलेन वा।
अभिषि´्चे जगत्पूज्यान् गणेन्द्रचरणान् मुदा।।
अर्थ: पुण्यफल के समान अथवा बर्फ के ढेले के समान दही से हर्षित होता हुआ जगत्पूज्य गणधर भगवान के चरणों का अभिषेक करता हूँ
ओं ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं तं तं पं पं झं झं इवीं इवीं क्ष्वीं क्ष्वीं द्रां द्रां द्रीं द्रावय द्रावय ओं नमो गणधरचरणयोः दध्नाभिषेक करोमि स्वाहा।
उदकचन्दनतंदुलपुष्पकैश्चरुसुदीपसुधूपफलार्घकैः।
धवलमंगलगानरवाकुले, जिनगृहे जिनशास्त्रमहं यजे।
ओं ह्रीं गणधरचरणेभ्यो दध्नाभिषेक करोमि स्वाहा।
कलशाभिषेक
हेमोत्पन्नचतुः कुम्भैर्नानातीर्थाम्बुवारिभिः।
अभिषि´्चे जग्त्पूज्यान् गणेन्द्रचरणान् मुद्रा।।
अर्थ: स्वर्णनिर्मित चार कुम्भों से नाना तीर्थ जल से हर्षित होता हुआ जगत्पूज्य गणधर भगवान के चरणों का अभिषेक करता हूँ
ओं ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं तं तं पं पं झं झं इवीं इवीं क्ष्वीं क्ष्वीं द्रां द्रां द्रीं द्रावय द्रावय ओं नमो गणधरचरणयोः कलशाभिषेक करोमि स्वाहा।
उदकचन्दनतंदुलपुष्पकैश्चरुसुदीपसुधूपफलार्घकैः।
धवलमंगलगानरवाकुले, जिनगृहे जिनशास्त्रमहं यजे।
ओं ह्रीं गणधरचरणेभ्यो कलशाभिषेकं करोमि स्वाहा।
पूर्णकलशाभिषेक
दिव्यद्रव्यौघमिश्रेण सुगन्धेनाच्छवारिणा।
अभिषि´्चे जगत्पूज्यान् गणेन्द्रचरणान् मुदा।
अर्थ: मनोहर द्रव्यों के मिश्रण से सुगन्धित निर्मल जल के प्रवाह से हर्षित होता हुआ जगत्पूज्य गणधर भगवान के चरणों का अभिषेक करता हूँ
ओं ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं तं तं पं पं झं झं इवीं इवीं क्ष्वीं क्ष्वीं द्रां द्रां द्रीं द्रावय द्रावय ओं नमो गणधरचरणयोः पूर्ण कलशाभिषेकं करोमि स्वाहा।
उदकचन्दनतंदुलपुष्पकैश्चरुसुदीपसुधूपफलार्घकैः।
धवलमंगलगानरवाकुले, जिनगृहे जिनशास्त्रमहं यजे।
ओं ह्रीं गणधरचरणेभ्यो पूर्णकलशाभिषेकं करोमि स्वाहा।
अभिषेक फलम्
स्नापयित्वेति तोयाद्यैर्येऽर्चयन्ति गणिं क्रमात्।
प्राप्य विश्वोद्भवा भूतीर्भवन्ति तत्समाः क्रमात्।।
अर्थ: इस प्रकार जलादि से क्रमशः न्हवन कराकर गणधर की अर्चना करते हैं वे विश्व के समस्त वैभवों को प्राप्त कर क्रमशः (परम्परा से) उनके समान बन जाते हैं।
।। इति आशीर्वादः परिपुष्पांजलिं क्षिपेत् त्रय शांतिधारा।।