श्री शीतलनाथ जिनपूजा
श्री शीतलनाथ जिनपूजा
श्री शीतलनाथ जिनपूजा
है नगर भद्दिल भूप दृढ़रथ सुष्ट नन्दा ता त्रिया।
तजि अचुत्तत-दिवि अभिराम शीतलनाथ सुत ताके प्रिया।।
इक्ष्वाकुवंशी अंक श्रीतरु हेम-वरण शरीर है।
धनु नवे उन्नत पूर्व लख इक आयु-सुभाग पूरी रहे।।
सोरठा
सो शीतल सुख-कन्द, तजि परिग्रह शिव-लोक गे।
छूट गयो जग-धन्द, करियत तौ आह्नान अब।।
ओं ह्रीं श्री शीतलनाथ जिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्नननम्।
ओं ह्रीं श्री शीतनलाथ जिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्।
ओं ह्रीं श्री शीतनलाथ जिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्।
नित तृषा-पीड़ा करत अधिकी दाव अबके पाइयो।
शुभ कुम्भ कंचन-जड़ित गंगा-नीर भरि ले आइयो।।
तुम नाथ शीतल करो शीतल मोहि भव की तापसों।
मैं जजौं युग पद जोरि करि मो काज सरसी आपसों।ं।
ओं ह्रीं श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
जाकी महक सों नीम आदिक होत चन्दन जानिये।
सो सूक्ष्म घिसके मिला केसर भरि कटोरा आनिये।। तुम नाथ.
ओं ह्रीं श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय भवताप विनाशनराय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
मैं जीव संसारी भयो अरु मर्यो ताको पार ना।
प्रभु पास अक्षत ल्याय धारे अखयपद के कारना।। तुम नाथ.
ओं ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तयेऽक्षतान् नि. स्वाहा।
इन मदन मोरी सकति थोरी रह्यो सब जग छायके।
ता ताश कारन सुमन ल्यायो महाशुद्ध चुनाय के।। तुम नाथ.
ओं ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंशनाय पुष्पं नि. स्वाहा।
क्षुधा-रोग मेरे पिण्ड लागी देत मांगे ना धरी।
ताके नसावन काज स्वामी लेय चरू आगे धरी।। तुम नाथ.
ओं ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं नि. स्वाहा।
अज्ञान तिमिर महान अन्धकार करि राखो सबै।
निज पर सुभेद पिछान कारण दीप ल्यायो हूँ अबै।। तुम नाथ.
ओं ह्रीं श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं नि. स्वाहा।
जे अष्ट कर्म महान अतिबल घेरि मो चेरा कियो।
तिन केर नाश विचारि के ले धूप प्रभु ढ़िग क्षेपियो।। तुम नाथत्र
ओं ह्रीं श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
शुभ मोक्ष मिलन अभिलाष मेरे रहत कबकी नाथ जू।
फल मिष्ट नाना भांति सुधरे ल्याइयौ निज हाथ जू।। तुम नाथ.
ओं ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गंध अक्षत फूल चरु दीपक सुधूप कही महा।
फल ल्याय सुन्दर अरघ कीन्हों दोष सों वर्जित कहा।। तुम नाथ.
ओं ह्रीं श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक के अघ्र्य
चैत वदी दिन आठें, गर्भावतार लेत भये स्वामी।
सुर नर असुरन जानी, जजहूँ सीतल प्रभु नामी।।
ओं ह्रीं चैत्र कृष्णाष्टम्यां गर्भकल्याणक प्राप्ताय श्री शीतनलाथ जिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
माघ वदी द्वादशि को, जन्मे भगवान सकल सुखकारी।
मति श्रुत अवधि विराजे, पूजो जिन-चरण हितकारी।।
ओं ह्रीं माघ कृष्णा द्वादश्यां जन्मकल्याणक प्राप्ताय श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
द्वादशि माघ वदी में, परिग्रह तजि वन बसे जाई।
पूजत तहां सुासुर, हम यहां पूजत गुणगाई।।
ओं ह्रीं माघ कृष्णा द्वादश्यां तपोकल्याणक प्राप्ताय श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
चैदशि पौष वदी में, जग-गुरु केवल पाय भये ज्ञानी।
सो मूरति मनमानी, मैं पूजों जिन-चरण सुखखानी।।
ओं ह्रीं पौषकृष्णाचतुर्दश्यां ज्ञानकल्याणक प्राप्ताय श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
आश्विनी सुदी अष्टम दिन, मुक्ति पधारे सम्मेदगिरि सेती।
पूजा करत तिहारी, नसत उपाधि जगत को जेती।।
ओं ह्रीं आश्विन शुक्लाष्टम्यां मोक्षकल्याणक प्राप्ताय श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
जय शीतल जिनवर, परम धरमधर, छंविके मन्दिर शिव भरता।
जय पुत्र सुनन्दा, के गुण वृन्दा, सुख के कन्दा, दुख-हरता।।
जय नासादृष्टी हो परमेष्ठी, तुम पदनेष्ठी, अलख भये।
जय तपो चरनमा रहत चरनमा, सु आ चरणमा, कलुष गये।।
सृग्विणी छन्द
जय सुनन्दाके नन्दा तिहारी कथा, भाषिको पार कहावे यथा।
नाथ तेरे कभी होते भव-रोग ना, इष्ट-वियोग अनिष्ट-संयोग ना।।
अग्नि कुण्ड में वल्लभा रामकी, नाम तेरे बची सो सती कामकी।
नाथ तेरे कभी होते भव-रोग ना, इष्ट-वियोग अनिष्ट-संयोग ना।।
द्रौपदी चीर बाढ़ो तिहारी सही, देव जानी सबो में सुलज्जा रही।।
नाथ तेरे कभी होते भव-रोग ना, इष्ट-वियोग अनिष्ट-संयोग ना।।
कुष्ठ राखो न श्रीपाल को जो महा अब्धि से काढ़ लीनों सिताबी तहाँ।
नाथ तेरे कभी होते भव-रोग ना, इष्ट-वियोग अनिष्ट-संयोग ना।।
अंजना कोटि फासी गिरो जो हतो, औ सहाई तहां तो बिना को हतो।
नाथ तेरे कभी होते भव-रोग ना, इष्ट-वियोग अनिष्ट-संयोग ना।।
शैल फूटो गिरो अंजनीपूत के, चोट जाके लगी ना तिहारे तके।
नाथ तेरे कभी होते भव-रोग ना, इष्ट-वियोग अनिष्ट-संयोग ना।।
कूदियों शीघ्र ही नाम तो गाय के, कृष्ण काली न थो कुंडमें जाय के।
नाथ तेरे कभी होते भव-रोग ना, इष्ट-वियोग अनिष्ट-संयोग ना।।
पांडवा जे घिरे थे लखागार में, राह दीन्हीं जिन्हें तू महाप्यार में।
नाथ तेरे कभी होते भव-रोग ना, इष्ट-वियोग अनिष्ट-संयोग ना।।
सेठ को शूलिका पै धरो देख के, कीन्ह सिंहासन आपनो लेख के।
नाथ तेरे कभी होते भव-रोग ना, इष्ट-वियोग अनिष्ट-संयोग ना।।
जो गनाये इन्हें आदि देके सबै, पाद परसाद ते भे सुखारी सबै।
नाथ तेरे कभी होते भव-रोग ना, इष्ट-वियोग अनिष्ट-संयोग ना।।
बार मेरी प्रभु देर कीन्हीं कीजिये दृष्टि दया की मोपे अहा।
नाथ तेरे कभी होते भव-रोग ना, इष्ट-वियोग अनिष्ट-संयोग ना।।
धन्य तू धन्य तू धन्य तू मैन हा, जो महा पंचमो ज्ञान नीके लहा।
नाथ तेरे कभी होते भव-रोग ना, इष्ट-वियोग अनिष्ट-संयोग ना।।
कोटि तीरथ हैं तेरे पदों के तले, रोज ध्यावें मुनि सो बतावें भले।
नाथ तेरे कभी होते भव-रोग ना, इष्ट-वियोग अनिष्ट-संयोग ना।।
जानिके यों भली भांति ध्याऊँ तुझे, भक्ति पाऊँ यही देव दीजे मुझे।
नाथ तेरे कभी होते भव-रोग ना, इष्ट-वियोग अनिष्ट-संयोग ना।।
गाथा
आपद सब दीजे भार झोकि यह पढ़त सुनत जयमाला।
होय पुनीत करण अरु जिव्हा वरते आनंद जाल।।
पहुँचे जहँ कबहूँ नही नहि पाई सो पावे हाल।
नहीं भयो कभी सो होय सबेरे भाषत मनरंगलाल।।
ओं ह्रीं श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय महाघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
सोरठा
भो शीतल भगवान, तो पद पक्षी जगत में।
हैं जेते परवान, पक्ष रहे तिन पर बनी।।
इत्याशीर्वादः- शांतये त्रय शांतिधारा - परिपुष्पांजलिं क्षिपेत्
ब्रह्मेश्वर यक्ष का अर्घ
शीतलजिन के शासन रक्षक, ब्रह्म को आह्नानन है।
आओ तिष्ठो पास हमारे, करते यही निवेदन है।।
स्वीकारो स्वीकारो मेरा अर्घ देव तुम स्वीकारो।
जिनवर के मुझ श्रद्धानी को ले अपने संग में तारो।।
ओं आं क्रौं ह्रीं शीतलनाथ जिनस्य ब्रह्मेश्वर देवतेभ्यो जलादि अघ्र्य समर्पयामीति स्वाहा।
मानवी यक्षी का अर्घ
शीतलजिन के शासन यक्षी मानवी को को आह्नानन है।
आओ तिष्ठो पास हमारे, करते यही निवेदन है।।
स्वीकारो स्वीकारो मेरा अर्घ देव तुम स्वीकारो।
जिनवर के मुझ श्रद्धानी को ले अपने संग में तारो।।
ओं आं क्रौं ह्रीं शीतनलाथ जिनस्य मानवीयभ्क्षिदेवये जलादि अघ्र्य समर्पयामीति स्वाहा।
क्षेत्रपालजी का अर्घ
शीतलजिन के क्षेत्रपालजी सुनो सुनो आह्नानन है।
आओ तिष्ठो पास हमारे, करते यही निवेदन है।।
स्वीकारो स्वीकारो मेरा अर्घ देव तुम स्वीकारो।
जिनवर के मुझ श्रद्धानी को ले अपने संग में तारो।।
ओं आं क्रौं ह्रीं अत्रस्थ शीतलनाथ जिनस्य क्षेत्रपाल, भूमिपाल आदि सचित्त अचित्त मिश्र देवतेभ्यो जलादि अघ्र्य समर्पयामीति।