आत्मा और कर्म का सम्बन्ध क्षीर – नीर की भाँति अनादि अनन्त है| आत्मा और कर्म – पद्गलों का परस्पर सम्बन्ध स्थापित होना बन्ध कहलाता है| कर्मों का यह बन्ध मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग पाँच प्रकारों से होता है जिसके कारण कर्मबन्ध के चार भेद बताए गए हैं- 1.प्रकृतिबन्ध, 2.स्थितिबन्ध, 3.रसबन्ध या अनुभावबन्ध, 4.प्रदेशबन्ध| इन चारों में प्रकृति और स्थितिबन्ध योग के कारण तथा स्थितिबन्ध और अनुभावबन्ध कषाय के कारण होते हैं| योग के कारण इसलिए है क्योंकि योग के तरतम भाव पर ही प्रकृति और प्रदेशबन्ध का तरतम भाव निर्भर करता है| इसी प्रकार कषाय के कारण इसलिए है कि कषायों की तीव्रता – मंदता पर ही बन्ध की स्थिति और अनुभाव की अल्पता – अधिकता निर्भर करती है| ये चारों प्रकार के कर्मबन्ध अलग – अलग नहीं, एक साथ आत्मा में विभिन्न रूपों में बँधते हैं|

1.प्रकृतिबन्ध – प्रकृति का अर्थ है स्वभाव| कुल आठ कर्म हैं, इनकी 148 उत्तर प्रकृतियाँ हैं| प्रत्येक का स्वभाव अलग – अलग है| कर्मों का जो स्वभाव है उसी के अनुरूप कर्म बँधता है अर्थात् बन्धन होते ही यह निश्चित हो जाता है कि यह कर्मवर्गणा आत्मा की किस शक्ति को आवृत करेगी| जैसे ज्ञानावरण कर्म का स्वाभाव ज्ञान गुण को आच्छादित करना है| यह इस कर्म का प्रकृतिबन्ध है| उदाहरण के लिए, मेथी का लड्डू वात – पित्त – कफ का नाशक है तो अजवाईन का लड्डू पाचन में सहायक है| यह लड्डू की प्रकृति या स्वभाव है| इसी प्रकार विभिन्न कर्मों का स्वभाव आत्मा के विभिन्न गुणों को आच्छादित करना है, यह प्रकृतिबन्ध है|

2.स्थितिबन्ध – बँधे हुए कर्मों का कुछ समय तक आत्मा के साथ रहना स्थितिबन्ध है| प्रत्येक कर्म की आत्मा के साथ रहने की काल मर्यादा या स्थिति भिन्न – भिन्न है| बन्ध होने के समय यह निश्चित हो जाता है कि यह कर्मवर्गणा कितने समय तक आत्मा के साथ बन्धित रहेगी| उदाहरणार्थ लड्डू के अंश एक निश्चित समय अर्थात् सप्ताह, पन्द्रह दिन, एक मासादि तक लड्डू में चिपके रहते हैं और लड्डू रूप में रहते हैं, किन्तु बाद में ये बिखर जाते हैं, अलग – अलग हो जाते हैं और इस प्रकार लड्डू रूप समाप्ता हो जाता है| उसी प्रकार निश्चित समय तक कर्म परमाणु आत्मा से चिपके रहते हैं, उसके बाद अलग हो जाते हैं या बिखर जाते हैं, यह कर्मों का स्थितिबन्ध है| विभिन्न कर्मों के बन्ध की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति भिन्न – भिन्न है|

3.रसबन्ध या अनुभावबन्ध – कर्मों को फल देने की स्थिति अनुभाग या रसबन्ध है| कर्म आत्मा के साथ जब बँधते हैं तब उनके फल देने की शक्ति मन्द या तीव्र तथा शुभाशुभ रस या विपाक से युक्त होती है| इस प्रकार की शक्ति या विशेषता रसबन्ध या अनुभावबन्ध कहलाती है| शुभ प्रकृति का रस मधुर और अशुभ प्रकृति का रस कटु होता है| उदाहरण के लिए, जिस प्रकार किसी लड्डू में मधुर रस होता है और किसी में कटु रस होता है या कोई लड्डू कम मीठा और कोई अधिक मीठा होता है| उसी प्रकार किसी कर्म का विपाक फल तीव्र, तीव्रतर और तीव्रतम होता है तो किसी का मंद, मंदतर और मंदतम होता है|

4.प्रदेशबन्ध – कर्म परमाणु का समूह प्रदेशबन्ध है| प्रदेशों की न्यूनाधिक संख्या के आधार पर प्रदेशबन्ध होता है| जैसे कोई लड्डू छोटा है, बड़ा है वैसे ही किसी कर्म में प्रदेश अधिक होते हैं, किसी में कम होते हैं| सबसे कम प्रदेश आयुष्य कर्म का होता है और सबसे अधिक प्रदेश वेदनीय कर्म का माना गया है|

इस प्रकार कर्मबन्ध की पध्दति या विधि को जान लेने पर मनुष्य अपनी जीवनचर्या को कषाय और योगों से दूर रखकर कर्मबन्ध से मुक्त होने का सतत प्रयास करने हैं

जम्बूद्वीप

मध्यलोक के असंख्य द्वीप समुद्रों के बीचोंबीच जम्बूद्वीप स्थित है| यह सबसे छोटा द्वीप है| इस द्वीप में जम्बू सुदर्शन नामक वृक्ष है इसके कारण यह जम्बूद्वीप कहलाता है| जम्बूद्वीप का आकार थाली के समान गोल है| यह पूर्व से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण तक एक लाख योजन में फैला हुआ है|

जम्बूद्वीप के पूर्व – पश्चिम दिशा में छह वर्षधर पर्वत स्थित हैं| ये पर्वत एक वृत के जीवा के रूप में फैले हुए हैं| इनके नाम इस प्रकार हैं –

इन पर्वतों के कारण जम्बूद्वीप सात क्षेत्रों में बँटा हुआ है| इन क्षेत्रों की गणना इस प्रकार से की गई है –

हम लोग जम्बूद्वीप के भारत क्षेत्र में निवास करते हैं| भरत क्षेत्र मेरू पर्वत की दक्षिण दिशा के सबसे नीचे तल भाग में स्थित है| इसका आकार अर्ध्द – चन्द्र के समान है| इसकी तीन दिशाओं – पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिण में लवण समुद्र है जो दो लाख योजन में फैला हुआ है|

भरत क्षेत्र के उत्तर दिशा में चुल्ल हिमवंत पर्वत है| इस पर्वत से दो नदियाँ – गंगा और सिन्धु निकलकर सम्पूर्ण भरत क्षेत्र में प्रवाहित होती हुई पूर्व और पश्चिम दिशा में लवण समुद्र में जाकर गिरती हैं| चुल्ल हिमवंत पर्वत के समानन्तर वैताढ़्य पर्वत स्थित है| यह पर्वत भरत क्षेत्र को उत्तरार्ध और दक्षिणार्ध दो भागों में विभाजित किए हुए है| प्रत्येक भाग में तीन खण्ड हैं| इस प्रकार भरत क्षेत्र छह खण्डों में विभक्त हैं| जो सम्राट इन छह खण्डो को जीत लेता है, वह चक्रवर्ती सम्राट् कहलाता है| सिंधु व गंगा के पास वैताढ़्य पर्वत के नीचे पूर्व – पश्चिम में दो विशाल गुफाएँ हैं –

वैताढ़्य पर्वत से उत्तर में चुल्ल हिमवंत पर्वत की तलहटी में ‘ऋषभकूट’ नाम का एक रमणीय लघु पर्वत है| भरत क्षेत्र का कुल विस्तार 526 योजन छह कला है, जो जम्बूद्वीप का 190 वाँ भाग है|

भरत क्षेत्र की भाँति अन्य क्षेत्रों की स्थिति इस प्रकार है – हिमवंत पर्वत के उत्तर दिशा में हिमवंत और हरिवर्ष क्षेत्र स्थित हैं| इन क्षेत्रों में क्रमश: रोहिताशां, रोहिता, हरिकान्ता तथा हरिसलिला नामक नदियाँ बहती हैं| इन क्षेत्रों में युगलिक मनुष्य निवास करते हैं|

हरिवर्ष क्षेत्र की उत्तर दिशा में महाविदेह क्षेत्र है| इस क्षेत्र में सीतोदा, सीता नामक नदियाँ बहती है| नीलवंत पर्वत की उत्तर दिशा में रम्यक्‍ क्षेत्र है| इस क्षेत्र में नरकान्ता (नारीकान्त) नामक नदी बहती है| रूक्मी पर्वत के उत्तर में हैरण्यवत नामक क्षेत्र स्थित है| इसमें रूप्यकूला और सुवर्णकूला नामक नदियाँ बहती हैं|

शिखरी पर्वत के उत्तर दिशा में ऐरवत क्षेत्र है| इस में रक्ता और रक्तवती नदियाँ बहती हैं| जम्बूद्वीप के इन सात क्षेत्रों को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है| यथा-

इस प्रकार जम्बूद्वीप की भौगोलिक स्थिति को जान लेने के उपारान्त हम यह समझ सकते हैं कि यहाँ मनुष्य कहाँ पर स्थित है, इसके साथ ही यह कल्पना कर सकते हैं| कि यह जम्बूद्वीप कहाँ, कैसा और किस प्रकार का है?