कषाय मार्गणा
(ग्यारहवाँ अधिकार)
कषाय का स्वरूप
सुहदुखसुबहुसस्सं कम्मक्खेत्तं कसेदि जीवस्स।
संसारदूरमेरं तेण कसाओ त्ति णं बेंति।।८८।।
सुखदु:खसुबहुसस्यं कर्मक्षेत्रं कृषति जीवस्य।
संसारदूरमर्यादं तेन कषाय इतीमं ब्रुवन्ति।।८८।।
अर्थ—जीव के सुख-दु:ख आदि रूप अनेक प्रकार के धान्य को उत्पन्न करने वाले तथा जिसकी संसार रूप मर्यादा अत्यंत दूर है ऐेसे कर्मरूपी क्षेत्र (खेत) का यह कर्षण करता है, इसलिये इसको कषाय कहते हैं।
भावार्थ—कृष विलेखने धातु से यह कषाय शब्द बना है जिसका अर्थ जोतना होता है। कषाय यह किसान के स्थानापन्न है। जिस तरह किसान लम्बे चौड़े खेत को इसलिये जोतता है कि उसमें बोया हुआ बीज अधिक से अधिक प्रमाण में उत्पन्न हो उसी तरह कषाय द्रव्यापेक्षया अनाद्यनिधन कर्मरूपी क्षेत्र को जिसकी कि सीमा बहुत दूर तक है इस तरह से जोतता है कि शुभाशुभ फल इसमें अधिक से अधिक उत्पन्न हों।
कषाय का कार्य एवं भेद
सम्मत्तदेससयलचरित्तजहक्खादचरणपरिणामे।
घादंति वा कसाया, चउसोल असंखलोगमिदा।।८९।।
सम्यक्त्वदेशसकलचरित्रयथाख्यातचरणपरिणामान्।
घातयन्ति वा कषाया: चतु:षोडशासंख्यलोकमिता:।।८९।।
अर्थ—सम्यक्त्व, देशचारित्र, सकलचारित्र, यथाख्यातचारित्ररूपी परिणामों को जो कषे—घाते, न होने दे उसको कषाय कहते हैं। इसके अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण एवं संज्वलन इस प्रकार चार भेद हैं। अनंतानुबंधी आदि चारों के क्रोध, मान, माया, लोभकषाय इस तरह चार-चार भेद होने से कषाय के उत्तर भेद सोलह होते हैं किन्तु कषाय के उदयस्थानों की अपेक्षा से असंख्यात लोकप्रमाण भेद हैं। (जो सम्यक्त्व को रोके उसको अनंतानुबंधी, जो देशचारित्र को रोके उसको अप्रत्याख्यानावरण, जो सकलचारित्र को रोके उसको प्रत्याख्यानावरण, जो यथाख्यातचारित्र को रोके उसको संज्वलन कषाय कहते हैं।
भावार्थ—हिंसार्थक कष धातु से भी कषाय शब्द निष्पन्न होता है अर्थात् सम्यक्त्वादि विशुद्धात्मपरिणामान् कषति हिनस्ति इति कषाय:। इसके भेद ऊपर लिखे अनुसार होते हैं।
शक्ति की अपेक्षा क्रोध के चार भेद
सिलपुढविभेदधूलीजलराइसमाणओ हवे कोहो।
णारयतिरियणरामरगईसु उप्पायओ कमसो।।९०।।
शिलापृथ्वीभेदधूलिजलराजिसमानको भवेत् क्रोध:।
नारकतिर्यग्नरामरगतिषूत्पाद: क्रमश:।।९०।।
अर्थ—क्रोध चार प्रकार का होता है। एक पत्थर की रेखा के समान, दूसरा पृथ्वी की रेखा के समान, तीसरा धूलि रेखा के समान, चौथा जल रेखा के समान। ये चारों प्रकार के क्रोध क्रम से नरक, तिर्यव्, मनुष्य तथा देवगति में उत्पन्न करने वाले हैं।
भावार्थ—ऊपर जो कषाय के अनंतानुबंधी आदि चार भेद बताये हैं वे उसके स्वरूप और विषय को बताते हैं। जिससे उनका जाति भेद और वे आत्मा के किस-किस गुण का घात करते हैं यह मालूम हो जाता है। इस गाथा में सब प्रकार के क्रोधों में से प्रत्येक क्रोध के उसकी शक्ति के तरतम स्थानों की अपेक्षा चार-चार भेद बताये हैं। साथ ही इन तरतम स्थानों के द्वारा बंधने वाले कर्मों और प्राप्त होने वाले संसार फल की विशेषता को भी दिखाया है। शक्ति की अपेक्षा क्रोध के चार भेद इस प्रकार हैं—उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, अजघन्य और जघन्य। इन्हीं चार भेदों को यहाँ पर क्रम से दृष्टांतगर्भित शिला भेद आदि नाम से बताया है। जिस तरह शिला, पृथ्वी, धूलि और जल में की गई रेखा उत्तरोत्तर अल्प-अल्प समय में मिटती है उसी तरह उत्कृष्टादि कषाय स्थानों के विषय में समझना चाहिए तथा वे अपने-अपने योग्य आयु, गति, आनुपूर्वी आदि कर्मों के बंधन की योग्यता रखते हैं।
मान के चार भेद
सेलट्ठिकट्ठवेत्ते, णियभेएणणुहरंतओ माणो।
णारयतिरियणरामरगईसु उप्पायओ कमसो।।९१।।
शैलास्थिकाष्ठवेत्रान् निजभेदेनानुहरन् मान:।
नारकतिर्यग्नरामरगतिषूत्पादक: क्रमश:।।९१।।
अर्थ—मान भी चार प्रकार का होता है। पत्थर के समान, हड्डी के समान, काठ के समान तथा बेंत के समान। ये चार प्रकार के मान भी क्रम से नरक, तिर्यंच, मनुष्य तथा देवगति के उत्पादक हैं।
भावार्थ—जिस प्रकार पत्थर किसी तरह नहीं नमता उसी प्रकार जिसके उदय से जीव किसी भी तरह नम्र न हो उसको शैल समान (पत्थर के समान) मान कहते हैं। ऐसे मान के उदय से नरकगति उत्पन्न होती है। इस ही तरह अस्थि समान (हड्डी के समान) आदिक मान को भी समझना चाहिए।
माया के चार भेद
वेणुवमूलोरब्भयसिगे गोमुत्तए य खोरप्पे।
सरिसी माया णारयतिरियणरामरगईसु खिवदि जियं।।९२।।
वेणूपमूलोरभ्रकशृंगेण गोमूत्रेण च क्षुरप्रेण।
सदृशी माया नारकतिर्यग्नरामरगतिषु क्षिपति जीवम्।।९२।।
अर्थ—माया भी चार प्रकार की होती है। बाँस की जड़ के समान, मेढे के सींग के समान, गो मूत्र के समान, खुरपा के समान। यह चार तरह की माया भी क्रम से जीव को नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति मेें ले जाती है।
भावार्थमाया के ये चार भेद कुटिलता की अपेक्षा से हैं। जितनी अधिक कुटिलता जिसमें पाई जाये वह उतनी ही उत्कृष्ट माया कही जाती है और वह उक्त क्रमानुसार गतियों की उत्पादक होती है। वेणुमूल में सबसे अधिक वक्रता पाई जाती है इसलिये शक्ति की अपेक्षा उत्कृष्ट माया का यह दृष्टांत है। इसी प्रकार अनुत्कृष्ट माया का मेषशृंग, अजघन्य माया का गोमूत्र और जघन्य माया का खुरपा दृष्टांत समझना चाहिए।
लोभ के चार भेद
किमिरायचक्कतणुुमलहरिद्दराएण सरिसओ लोहो।
णारयतिरिक्खमाणुसदेवेसुप्पायओ कमसो।।९३।।
क्रिमिरागचक्रतनुमलहरिद्रारागेण सदृशो लोभ:।
नारकतिर्यग्मानुषदेवेषूत्पादक: क्रमश:।।९३।।
अर्थ—लोभ कषाय भी चार प्रकार की है। क्रिमिराग के समान, चक्रमल (रथ आदिक के पहियों के भीतर का ओंगन) के समान, शरीर के मल के समान, हल्दी के रंग के समान। यह भी क्रम से नरक, तिर्यंच, मनुष्य एवं देवगति की उत्पादक है।
भावार्थ—जिस प्रकार किरिमिजी का रंग अत्यंत गाढ़ होता है—बड़ी ही मुश्किल से छूटता है उसी प्रकार जो लोभ सबसे अधिक गाढ़ हो उसको किरिमिजी के समान कहते हैं। इससे जो जल्दी-जल्दी छूटने वाले हैंं उनको क्रम से ओंगन, शरीर मल, हल्दी के रंग के सदृश समझना चाहिए।
कषाय रहित जीवों का स्वरूप
अप्पपरोभयबाधणबंधा संजमणिमित्तकोहादी।
जेसिं णत्थि कसाया अमला अकसाइणो जीवा।।९४।।
आत्मपरोभयबाधनबन्धा संयमनिमित्तक्रोधादय:।
येषां न सन्ति कषाया अमला अकषायिणो जीवा:।।९४।।
अर्थ—जिनके स्वयं को, दूसरे को तथा दोनों को ही बाधा देने और बंधन करने तथा असंयम करने में निमित्तभूत क्रोधादिक कषाय नहीं हैं तथा जो बाह्य और अभ्यन्तर मल से रहित हैं ऐसे जीवों को अकषाय कहते हैं।
भावार्थ—यद्यपि गाथा में कषाय शब्द का ही उल्लेख है तथापि यहाँ नोकषाय का भी ग्रहण कर लेना चाहिए। गुणस्थानों की अपेक्षा ग्यारहवें गुणस्थान से लेकर सभी जीव अकषाय हैं।
कषाय मार्गणासार
जीव के सुख-दु:ख आदि रूप अनेक प्रकार के धान्य को उत्पन्न करने वाले तथा जिसकी संसाररूप मर्यादा अत्यन्त दूर है, ऐसे कर्मरूपी क्षेत्र (खेत) का यह कर्षण करता है, इसलिए इसको कषाय कहते हैं।
‘‘सम्यक्त्वादि विशुद्धात्म परिणामान् कषति हिनस्ति इति कषाय:’’ सम्यक्त्व, देशचारित्र, सकलचारित्र, यथाख्यातचारित्ररूपी परिणामों को जो कषे-घाते, न होने दे उसको कषाय कहते हैं। इसके अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण एवं संज्वलन इस प्रकार चार भेद हैं। अनंतानुबंधी आदि चारों के क्रोध, मान, माया, लोभ इस तरह चार-चार भेद होने से कषाय के उत्तर भेद सोलह होते हैं किन्तु कषाय के उदयस्थानों की अपेक्षा से असंख्यात लोक प्रमाण भेद हैं। जो सम्यक्त्व को रोके उसको अनंतानुबंधी, जो देशचारित्र को रोके उसको अप्रत्याख्यानावरण, जो सकलचारित्र को रोके उसको प्रत्याख्यानावरण और जो यथाख्यातचारित्र को रोके उसको संज्वलन कषाय कहते हैं।
क्रोध चार प्रकार का होता है। एक पत्थर की रेखा के समान, दूसरा पृथ्वी की रेखा के समान, तीसरा धूलि रेखा के समान और चौथा जलरेखा के समान। ये चारों प्रकार के क्रोध क्रम से नरक, तिर्यक्, मनुष्य तथा देवगति में उत्पन्न करने वाले हैं। मान भी चार प्रकार का होता है। पत्थर के समान, हड्डी के समान, काठ के समान तथा बेंत के समान। ये चार प्रकार के मान भी क्रम से नरक, तिर्यंच, मनुष्य तथा देवगति के उत्पादक हैं।
माया भी चार प्रकार की होती है। बांस की जड़ के समान, मेढे के सींग के समान, गोमूत्र के समान, खुरपा के समान। यह चार तरह की माया भी क्रम से जीव को नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति में ले जाती है।
लोभ कषाय भी चार प्रकार की होती है। क्रिमिराग के समान, चक्रमल अर्थात् रथ आदिक के पहियों के भीतर के ओंगन के समान, शरीर के मल के समान, हल्दी के रंग के समान। यह भी क्रम से नरक, तिर्यंच, मनुष्य एवं देवगति की उत्पादक है।
जिनके स्वयं को, दूसरे को तथा दोनों को ही बाधा देने और बंधन करने तथा असंयम करने में निमित्तभूत क्रोधादिक कषाय नहीं है तथा जो बाह्य और अभ्यंतर मल से रहित हैं ऐसे जीवों को अकषाय कहते हैं।
शक्ति, लेश्या तथा आयु के बंधाबंधगत भेदों की अपेक्षा से क्रोधादि कषायों के क्रम से चार, चौदह और बीस स्थान होते हैं।
यह चारों ही कषाय जीव को चारों गतियों में परिभ्रमण कराने वाली एवं महान दुख को उत्पन्न करने वाली हैं अत: इनका सर्वथा त्याग कर अपनी आत्मा को भगवान आत्मा बनाने का पुरुषार्थ करना चाहिए।
ज्ञानमार्गणा
(बारहवाँ अधिकार)
ज्ञान का स्वरूप
जाणइ तिकालविसए, दव्वगुणे पज्जए य बहुभेदे।
पच्चक्खं च परोक्खं, अणेण णाणं ति णं बेंति।।९५।।
जानाति त्रिकालविषयान् द्रव्यगुणान् पर्यायांश्च बहुभेदान्।
प्रत्यक्ष च परोक्षमनेन ज्ञानमिति इदं ब्रुवन्ति।।९५।।
अर्थ—जिसके द्वारा जीव त्रिकालविषयक भूत, भविष्यत्, वर्तमान काल सम्बंधी समस्त द्रव्य और उनके गुण तथा उनकी अनेक प्रकार की पर्यायों को जाने उसको ज्ञान कहते हैं। इसके दो भेद हैं—एक प्रत्यक्ष दूसरा परोक्ष।
भावार्थ—छह द्रव्य—जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल। पंच अस्तिकाय—काल को छोड़कर बाकी द्रव्य, सात तत्त्व—जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष। नव पदार्थ—पुण्य-पाप सहित सात तत्त्व। इनके गुण और इन द्रव्यों आदि की अनेक प्रकार की पर्यायों—अवस्थाओं के त्रैकालिक स्वरूप को जिसके द्वारा जाना जाय उसको ज्ञान कहते हैं। अवबोधार्थक ज्ञान धातु से यह शब्द निष्पन्न हुआ है। जीव की चैतन्य शक्ति के साकार परिणमन रूप उपयोग को ही ज्ञान कहते हैं। द्रव्य गुण और उनकी त्रैकालिक अवस्थाएं उसके विषय हैं। इस ज्ञान के सामान्यतया दो भेद हैं—प्रत्यक्ष और परोक्ष। आत्मा के सिवाय—उससे भिन्न इंद्रिय और मन की अपेक्षा—सहायता से जो होता है उसको परोक्ष ज्ञान कहते हैं। जो विशद है, स्पष्ट है, इंद्रिय और मन की सहायता के बिना ही अपने विषय को ग्रहण करता है उसको प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं।
कुमतिज्ञान का स्वरूप
विसजंतकूडपंजरबंधादिसु विणुवएसकरणेण।
जा खलु पवट्टइ मई, मइअण्णाणं ति णं बेति।।९६।।
विषयन्त्रकूटपंजरबंधादिषु विनोपदेशकरणेन।
या खलु प्रवर्तते मति: मत्यज्ञानमिति इदं ब्रुवन्ति।।९६।।
अर्थ—दूसरे के उपदेश के बिना ही विष, यन्त्र, कूट, पंजर तथा बंध आदिक के विषय में जो बुद्धि प्रवृत्त होती है उसको सत्यज्ञान कहते हैं।
भावार्थ—जिसके खाने से जीव मर सके उस द्रव्य को विष कहते हैं। भीतर पैर रखते ही जिसके किवाड़ बंद हो जाएँ और जिसके भीतर बकरी आदि को बाँधकर सिंह आदिक को पकड़ा जाता है उसको यंत्र कहते हैं। जिससे चूहे वगैरह पकड़े जाते हैं उसको कूट कहते हैं। रस्सी में गाँठ लगाकर जो जाल बनाया जाता है उसको पंजर कहते हैं। हाथी आदि को पकड़ने के लिए जो गड्ढे आदिक बनाए जाते हैं उनको बंध कहते हैं, इत्यादि पदार्थों में दूसरे के उपदेश के बिना जो बुद्धि प्रवृत्त होती है उसको मत्यज्ञान कहते हैं, क्योेंकि उपदेशपूर्वक होेने से वह ज्ञान श्रुतज्ञान कहा जाएगा।
कुश्रुतज्ञान का स्वरूप
आभीयमासुरक्खं, भारहरामायणादिउवएसा।
तुच्छा असाहणीया, सुयअण्णाणं ति णं बेंति।।९७।।
आभीतमासुरक्षं भारतरामायणाद्युपदेशा:।
तुच्छा असाधनीया श्रुताज्ञानमिति इदं ब्रुवन्ति।।९७।।
अर्थ—चौरशास्त्र तथा हिंसाशास्त्र, भारत रामायण आदि के परमार्थ शून्य अतएव अनादरणीय उपदेशों को मिथ्या श्रुतज्ञान कहते हैं।
भावार्थ—आदि शब्द से सभी हिंसादि पाप कर्मों के विधायक तथा असमीचीन तत्व के प्रतिपादक ग्रंथों को कुश्रुत और उनके ज्ञान को कुश्रुतज्ञान समझना चाहिए।
कुअवधिज्ञान का स्वरूप
विबरीयमोहिणाणं, खओवसमियं च कम्मबीजं च।
वेभंगो त्ति पउच्चइ, समत्तणाणीण समयम्हि।।९८।।
विपरीतमवधिज्ञानं क्षायोपशमिकं च कम्र्मबीजं च।
विभंग इति प्रोच्यते समाप्तज्ञानिनां समये।।९८।।
अर्थ—सर्वज्ञ के द्वारा उपदिष्ट आगम में विपरीत अवधिज्ञान को विभंग कहते हैं। इसके दो भेद हैं—एक क्षायोपशमिक दूसरा भवप्रत्यय।
भावार्थ—देव नारकियों के विपरीत अवधिज्ञान को भवप्रत्यय विभंग कहते हैं और मनुष्य तथा तिर्यंचों के विपरीत अवधिज्ञान को क्षायोपशमिक विभंग कहते हैं। इस विभंग का अंतरंग कारण मिथ्यात्व आदिक कर्म है। विभंग शब्द का निरुक्तिसिद्ध अर्थ यह है कि मिथ्यात्व या अनंतानुबंधी कषाय के उदय से अवधिज्ञान की विशिष्टता—समीचीनता का भंग होकर उसमें अयथार्थता आ जाती है, इसलिए उसको विभंग कहते हैं। इसको कर्मबीज इसलिए कहा है कि मिथ्यात्वादि कर्मों के बंध का वह कारण है। परन्तु साथ ही च शब्द का उच्चारण करके यह भी सूचित कर दिया गया है कि कदाचित् नरकादि गतियों में पूर्वभव का ज्ञान कराकर वह सम्यक्त्व की उत्पत्ति में भी निमित्त हो जाता है।
मतिज्ञान का स्वरूप
अहिमुहणियमियबोहणमाभिणिबोहियमणिंदिइंदियजं।
अवगहईहावायाधारणगा होंति पत्तेयं।।९९।।
अभिमुखनियमितबोधनमाभिनिबोधिकमनिन्द्रियेन्द्रियजम्।
अवग्रहेहावायधारणका भवन्ति प्रत्येकम्।।९९।।
अर्थ—इन्द्रिय और अनिन्द्रिय (मन) की सहायता से अभिमुख और नियमित पदार्थ का जो ज्ञान होता है उसको आभिनिबोधिक कहते हैं। इसमें प्रत्येक के अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा ये चार-चार भेद हैं।
भावार्थ—स्थूल वर्तमान योग्य क्षेत्र में अवस्थित पदार्थ को अभिमुख कहते हैं और जैसे—चक्षु का रूप विषय नियत है इस ही तरह जिस-जिस इंद्रिय का जो-जो विषय निश्चित है उसको नियमित कहते हैं। इस तरह के पदार्थों का मन अथवा स्पर्शन आदिक पाँच इंद्रियों की सहायता से जो ज्ञान होता है उसको आभिनिबोधिक मतिज्ञान कहते हैं। इस प्रकार मन और इंद्रिय रूप सहकारी निमित्त भेद की अपेक्षा से मतिज्ञान के छह भेद हो जाते हैं। इसमें भी प्रत्येक के अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा ये चार-चार भेद हैं। प्रत्येक के चार-चार भेद होते हैं, इसलिये छह को चार से गुणा करने पर मतिज्ञान के चौबीस भेद हो जाते हैं।
श्रुतज्ञान का स्वरूप
अत्थादो अत्थंतरमुवलंभंतं भणंति सुदणाणं।
आभिणिबोहियपुव्वं, णियमेणिह सद्दजं पमुहं।।१००।।
अर्थादर्थान्तरमुपलभमानं भणन्ति श्रुतज्ञानम्।
आभिनिबोधिकपूर्वं नियमेनेह शब्दजं प्रमुखम्।।१००।।
अर्थ—मतिज्ञान के विषयभूत पदार्थ से भिन्न पदार्थ के ज्ञान को श्रुतज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान नियम से मतिज्ञानपूर्वक होता है। इस श्रुतज्ञान के अक्षरात्मक, अनक्षरात्मक इस तरह अथवा शब्दजन्य और लिंगजन्य इस तरह से दो भेद हैं किन्तु इनमें शब्दजन्य श्रुतज्ञान मुख्य है।
भावार्थ—मतिज्ञान के द्वारा जाने हुए पदार्थ का अवलम्बन लेकर किन्तु उससे भिन्न ही अर्थ को श्रुतज्ञान विषय किया करता है अतएव यह नियम है कि मतिज्ञानपूर्वक ही श्रुतज्ञान हुआ करता है। मतिज्ञान के विषय का अवलम्बन लिये बिना श्रुतज्ञान उत्पन्न नहीं हुआ करता। यद्यपि उसका मूल कारण श्रुतज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम है फिर भी उसको मतिज्ञान के विषय का अवलम्बन चाहिये।
श्रुतज्ञान के यद्यपि अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक अथवा शब्दज और लिंगज, इस तरह दो भेद हैं किन्तु अक्षरात्मक-शब्दजन्य श्रुतज्ञान ही मुख्य माना है क्योंकि प्रथम तो निरुक्त्यर्थ करने पर उसके विषय में शब्द प्रधानता स्वयं व्यक्त हो जाती है। दूसरी बात यह कि नामोच्चारण लेन-देन आदि समस्त लोकव्यवहार में तथा उपदेश, शास्त्राध्ययन, ध्यान आदि की अपेक्षा मोक्षमार्ग में भी शब्द और तज्जन्य बोध—श्रुतज्ञान की ही मुख्यता है। अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक सभी जीवों के पाया जाता है परन्तु वह लोकव्यवहार और मोक्षमार्ग में भी उस तरह उपयोगी न होने के कारण मुख्य नहीं है फिर भी यहाँ आचार्य ने उसके स्वरूप का परिज्ञान कराया है।
दूसरी तरह से श्रुतज्ञान के भेद
पज्जायक्खरपदसंघादं पडिवत्तियाणिजोगं च।
दुगवारपाहुडं च य, पाहुडयं वत्थु पुव्वं च।।१०१।।
पर्यायाक्षरपदसंघातं प्रतिपत्तिकानुयोगं च।
द्विकवारप्राभृतं च च प्राभृतकं वस्तुपूर्वं च।।१०१।।
तेसिं च समासेहि य, वीसविहं वा हु होदि सुदणाणं।
आवरणस्स वि भेदा, तत्तियमेत्ता हवंति त्ति।।१०२।।
तेषां च समासैश्च विंशविधं वा हि भवति श्रुतज्ञानम्।
आवरणस्यापि भेदा: तावन्मात्रा भवन्ति इति।।१०२।।
अर्थ—पर्याय, पर्यायसमास, अक्षर, अक्षरसमास, पद, पदसमास, संघात, संघातसमास, प्रतिपत्तिक, प्रतिपत्तिकसमास, अनुयोग, अनुयोगसमास, प्राभृतप्राभृत, प्राभृतप्राभृतसमास, प्राभृत, प्राभृतसमास, वस्तु, वस्तुसमास, पूर्व, पूर्वसमास इस तरह श्रुतज्ञान के बीस भेद हैं। इस ही लिए श्रुतज्ञानावरण कर्म के भी बीस भेद होते हैं किन्तु पर्यायावरण कर्म के विषय में कुछ भेद है।
पर्याय ज्ञान किसको होता है ?'
सुहमणिगोदअपज्जत्तयस्स जादस्स पढमसमयम्हि।
हवदि हु सव्वजहण्णं णिच्चुग्घाडं णिरावरणं।।१०३।।
सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तकस्य जातस्य प्रथमसमये।
भवति हि सर्वजघन्यं नित्योद्घाटं निरावरणम्।।१०३।।
अर्थ—सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव के उत्पन्न होने के प्रथम समय में सबसे जघन्य ज्ञान होता है। इसी को पर्याय ज्ञान कहते हैं। इतना ज्ञान हमेशा निरावरण तथा प्रकाशमान रहता है।
ग्यारह अंगों के नाम और उनके पदों की संख्या बताते हैं-
आयारे सुद्दयडे, ठाणे समवायणामगे अंगे।
तत्तो विक्खापण्णत्तीए णाहस्स धम्मकहा।।१०४।।
आचारे सूत्रकृते स्थाने समवायनामके अंगे।
ततो व्याख्याप्रज्ञप्तौ नाथस्य धर्मकथायां।।१०४।।
तोवासयअज्झयणे, अंतयडे णुत्तरोववाददसे।
पण्हाणं वायरणे, विवायसुत्ते य पदसंखा।।१०५।।
तत उपासकाध्ययने अन्तकृते अनुत्तरौपपाददशे।
प्रश्नानां व्याकरणे विपाकसूत्रे च पदसंख्या।।१०५।।
अर्थ-आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, धर्मकथांग, उपासकाध्ययनांग, अन्त:कृद्दशांग, अनुत्तरौपपादिकदशांग, प्रश्नव्याकरण और विपाकसूत्र इन ग्यारह अंगों के पदों की संख्या क्रम से निम्नलिखित है। अर्थात् पूर्वोक्त ग्यारह अंगों के पदों का जोड़ चार करोड़ पन्द्रह लाख दो हजार (४१५०२०००) होता है।
बारहवेें अंग के भेद और उनके पदों का प्रमाण बताते हैं-
चंदरविजंबुदीवयदीवसमुद्दयवियाहपण्णत्ती।
परियम्मं पंचविहं सुत्तं पढमाणिजोगमदो।।१०६।।
चन्द्ररविजम्बूद्वीपकद्वीपसमुद्रकव्याख्याप्रज्ञप्तय:।
परिकर्मपंचविधं सूत्रं प्रथमानुयोगमत:।।१०६।।
पुव्वं जलथलमाया आगासपरूवगयमिमा पंच।
भेदा हु चूलियाए तेसु पमाणं इणं कमसो।।१०७।।
पूर्वं जलस्थलमायाकाशकरूपगता इमे पंच।
भेदा हि चूलिकाया तेषु प्रमाणमिदं क्रमश:।।१०७।।
अर्थ-बारहवें दृष्टिवाद अंग के पाँच भेद हैं-परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका। इसमें परिकर्म के पाँच भेद हैं-चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति और व्याख्याप्रज्ञप्ति। सूत्र का अर्थ सूचित करने वाला है। इस भेद में जीव अबंधक ही है, अकत्र्ता ही है, निर्गुण ही हैं, अभोक्ता ही है, स्वप्रकाशक ही है, परप्रकाशक ही है, अस्तिरूप ही है, नास्तिरूप ही है, इत्यादि क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञान, विनयरूप ३६३ मिथ्यामतों को पूर्वपक्ष में रखकर दिखाया गया है। प्रथमानुयोग का अर्थ है कि प्रथम अर्थात् मिथ्यादृष्टि या अव्रतिक अव्युत्पन्न श्रोता को लक्ष्य करके जो प्रवृत्त हो। इसमें ६३ शलाका पुरुषों आदि का वर्णन किया गया है। पूर्वगत के चौदह भेद हैं, जिनके नाम का वर्णन आगे करेंगे। चूलिका के पाँच भेद हैं-जलगता, स्थगलता, मायागता, आकाशगता और रूपगता। अब इनके पदों का प्रमाण क्रम से बताते हैं।
पाँचों भेद सहित इस बारहवें अंग में एक अरब आठ करोड़ अड़सठ लाख छप्पन हजार पाँच पद (१०८६८५६००५) होते हैं।
चौदह पूर्व के नाम-
उप्पायपुव्वगाणियविरियपवादत्थिणत्थियपवादे।
णाणासच्चपवादे आदाकम्मप्पवादे य।।१०८।।
उत्पादपूर्वाग्रायणीयवीर्यप्रवादास्तिनास्तिकप्रवादानि।
ज्ञानसत्यप्रवादे आत्मकर्मप्रवादे च।।१०८।।
पच्चक्खाणे विज्जाणुवादकल्लाणपाणवादे य।
किरियाविसालपुव्वे कमसोथ तिलोयविंदुसारे य।।१०९।।
प्रत्याख्यानं वीर्यानुवादकल्याणाप्राणवादानि च।
क्रियाविशालपूर्वं क्रमश: अथ त्रिलोकविन्दुसारं च।।१०९।।
अर्थ-उत्पादपूर्व, आग्रायणीयपूर्व, वीर्यप्रवाद, अस्तिनास्तिप्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यान, वीर्यानुवाद, कल्याणवाद, प्राणावाद, क्रियाविशाल, त्रिलोकबिन्दुसार, इस तरह ये क्रम से पूर्वज्ञान के चौदह भेद हैं।
द्वादशांग के समस्त पदों की संख्या बताते हैं-
बारुत्तरसयकोडी, तेसीदी तहय होंति लक्खाणं।
अट्ठावण्णसहस्सा, पंचेव पदाणि अंगाणं।।११०।।
द्वादशोत्तरशतकोट्य: त्र्यशीतिस्तथा भवन्ति लक्षाणाम्।
अष्टापंचाशत्सहस्राणि पंचैव पदानि अङ्गानाम्।।११०।।
अर्थ-द्वादशांग के समस्त पद एक सौ बारह करोड़ त्र्यासी लाख अट्ठावन हजार पाँच (११२८३५८००५) होते हैं।
भावार्थ-एक पद में सोलह सौ चौंतीस करोड़, तिरासी लाख, सात हजार आठ सौ अठासी (१६३४८३०७८८८) अक्षर होते हैं। ऐसे द्वादशांग के पदों का प्रमाण कहा है। अंगबाह्य में एक भी पद न होने से अक्षरों की संख्या बताई है।
अंगबाह्य अक्षर कितने हैं, उनका प्रमाण बताते हैं-
अडकोडिएयलक्खा अट्ठसहस्सा य एयसदिगं च।
पण्णत्तरि वण्णाओ, पइण्णयाणं पमाणं तु।।१११।।
अष्टकोट्येकलक्षाणि अष्टसहस्राणि च एकशतकं च।
पंचसप्तति: वर्णा: प्रकीर्णकानां प्रमाणं तु।।१११।।
अर्थ-आठ करोड़ एक लाख आठ हजार एक सौ पचहत्तर (८०१०८१७५) प्रकीर्णक (अंगबाह्य) अक्षरों का प्रमाण है अर्थात् एक पद में ये अक्षर बहुत कम हैं अत: इनका पद नहीं बना है।
अंगबाह्य श्रुत के भेद
सामइयचउवीसत्थयं तदो वन्दणा पडिक्कमणं।
वेणइयं किदियम्मं दसवेयालं च उत्तरज्झयणं।।११२।।
सामायिकं चतुर्विशस्तवं ततो वंदना प्रतिक्रमणम्।
वैनयिकं कृतिकर्म दशवैकालिकं च उत्तराध्ययनम्।।११२।।
कप्पववहारकप्पाकप्पियमहकप्पियं च पुंडरियं।
महपुंडरीयणिसिहियमिदि चोद्दसमंगबाहिरयं।।११३।।
कल्प्यव्यवहार-कल्पाकल्प्यिक-महाकल्प्यं च पुंडरीकम्।
महापुंडरीकं निषिद्धिका इति चतुर्दशांगबाह्यम्।।११३।।
अर्थ—सामायिक, चतुर्विंशस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प्य, महाकल्प, पुंडरीक, महापुंडरीक, निषिद्धिका ये अंगबाह्यश्रुत के चौदह भेद हैं।
श्रुतज्ञान का माहात्म्य
सुदकेवलं च णाणं, दोण्णि वि सरिसाणि होेंति बोहादो।
सुदणाणं तु परोक्खं, पच्चक्खं केवलं णाणं।।११४।।
श्रुतं केवलं च ज्ञानं द्वेऽपि सदृशे भवतो बोधात्।
श्रुतज्ञानं तु परोक्षं प्रत्यक्षं केवलं ज्ञानम्।।११४।।
अर्थ—ज्ञान की अपेक्षा श्रुतज्ञान तथा केवलज्ञान दोनों ही सदृश हैं परन्तु दोनों में अंतर यही है कि श्रुतज्ञान परोक्ष है और केवलज्ञान प्रत्यक्ष है।
भावार्थ—जिस तरह श्रुतज्ञान सम्पूर्ण द्रव्य और पर्यायों को जानता हैै उस ही तरह केवलज्ञान भी सम्पूर्ण द्रव्य और पर्यायों को जानता है। विशेषता इतनी ही है कि श्रुतज्ञान इंद्रिय और मन की सहायता से होता है इसलिये परोक्ष—अविशद अस्पष्ट है। इसकी अमूर्त पदार्थों में और उनकी अर्थपर्यायों तथा दूसरे सूक्ष्म अंशों में स्पष्टरूप से प्रवृत्ति नहीं होती किन्तु केवलज्ञान निरावरण होेने के कारण समस्त पदार्थों और उनके सम्पूर्ण गुणों तथा पर्यायों को स्पष्टरूप से विषय करता है।
अवधिज्ञान का स्वरूप
वहीयदित्ति ओही, सीमाणाणेत्ति वण्णियं समये।
भवगुणपच्चयविहियं, जमोहिणाणेत्ति णं बेंति।।११५।।
अवधीयत इत्यवधि: सीमाज्ञानमिति वर्णितं समये।
भवगुणप्रत्ययविधिकं यदवधिज्ञानमिति इदं ब्रुवन्ति।।११५।।
अर्थ—द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से जिसके विषय की सीमा हो उसको अवधिज्ञान कहते हैं। इस ही लिये परमागम में इसको सीमाज्ञान कहा है तथा इसके जिनेन्द्रदेव ने दो भेद कहे हैं—एक भवप्रत्यय दूसरा गुणप्रत्यय।
भावार्थ—नारकादि भव की अपेक्षा से अवधिज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होकर जो अवधिज्ञान हो उसको भवप्रत्यय अवधि कहते हैं। जो सम्यग्दर्शनादि कारणों की अपेक्षा से अवधिज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होकर अवधिज्ञान होता है उसको गुणप्रत्यय अवधि कहते हैं। इसके विषय के परिमित होने से इस ज्ञान को अवधिज्ञान अथवा सीमाज्ञान कहते हैं। यद्यपि दूसरे मतिज्ञानादि के विषय की भी सामान्य से सीमा है इसलिये दूसरे ज्ञानों को भी अवधिज्ञान कहना चाहिए, तथापि समभिरूढनय की अपेक्षा से ज्ञानविशेष को ही अवधिज्ञान कहते हैं।
दोनों प्रकार के अवधिज्ञान के स्वामी
वपच्चइगो सुरणिरयाणं तित्थे वि सव्वअंगुत्थो।
गुणपच्चइगो णरतिरियाणं संखादिचिण्हभवो।।११६।।
भवप्रत्ययकं सुरनारकाणां तीर्थेपि सर्वागोत्थम्।
गुणप्रत्ययकं नरतिरश्चां शंखादिचिन्हभवम्।११६।।
अर्थ—भवप्रत्यय अवधिज्ञान देव, नारकी तथा तीर्थंकरों के भी होता है और यह ज्ञान सम्पूर्ण अंग से उत्पन्न होता है। गुणप्रत्यय अवधिज्ञान पर्याप्त मनुष्य तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के भी होता है और यह ज्ञान शंखादि चिन्हों से होता है।
भावार्थ—नाभि के ऊपर शंख, पद्म, वज्र, स्वस्तिक, कलश आदि जो शुभ चिन्ह होते हैं, उस जगह के आत्मप्रदेशों से प्रगट होने वाले अवधिज्ञानावरण तथा वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से गुणप्रत्यय अवधिज्ञान होता है किन्तु भवप्रत्यय अवधिज्ञान सम्पूर्ण आत्मप्रदेशों से प्रगट होता है। भवप्रत्यय अवधिज्ञान सभी देव और नारकियों के होता है क्योंकि उसमें भव प्रधान कारण है। गुणप्रत्यय अवधिज्ञान मनुष्य, तिर्यंचों के ही होता है परन्तु सबके नहीं होता क्योंकि इसके होने में मुख्य कारण गुण हैं।
मन:पर्ययज्ञान का स्वरूप
चिंतियमचिंतियं वा, अद्धं चिंतियमणेयभेयगयं।
मणपज्जवं ति उच्चइ, जं जाणइ तं खु णरलोए।।११७।।
चिन्तितमचिन्तितं वा अर्घं चिन्तितमनेकभेदगतम्।
मन:पर्यय इत्युच्यते यज्जानाति तत्खलु नरलोके।।११७।।
अर्थ—जिसका भूतकाल में चिंतवन किया हो अथवा जिसका भविष्यत्काल में चिंतवन किया जाएगा अथवा अर्धचिन्तित—वर्तमान में जिसका चिंतवन किया जा रहा है, इत्यादि अनेक भेद स्वरूप दूसरे के मन में स्थित पदार्थ जिसके द्वारा जाना जाय उस ज्ञान को मन:पर्यय कहते हैं। यह मन:पर्यय ज्ञान मनुष्य क्षेत्र में ही उत्पन्न होता है, बाहर नहीं।
भावार्थ—निरुक्ति के अनुसार दूसरे के मन में स्थित पदार्थ को मन कहते हैं। इस तरह के मन को जो पर्येति अर्थात् जानता है—मन के अवलम्बन से त्रिकालविषयक पदार्थों—चिंतित, चिन्त्यमान, चिन्तिष्यमान विषय को जानता है उसको मन:पर्यय ज्ञान कहते हैं।
केवलज्ञान का स्वरूप
संपुण्णं तु समग्गं, केवलमसवत्त सव्वभावगयं।
लोयालोयवितिमिरं, केवलणाणं मुणेदव्वं।।११८।।
सम्पूर्णं तु समग्रं केवलमसपत्नं सर्वभावगतम्।
लोकालोकवितिमिरं केवलज्ञानं मन्तव्यम्।।११८।।,
अर्थ—यह केवलज्ञान सम्पूर्ण, समग्र, केवल, प्रतिपक्षरहित, सर्वपदार्थगत और लोकालोक में अंधकार रहित होता है।
भावार्थ—यह ज्ञान समस्त पदार्थों को विषय करने वाला है और लोकालोक के विषय में आवरण रहित है तथा जीवद्रव्य की ज्ञानशक्ति के जितने अंश हैं वे यहाँ पर सम्पूर्ण व्यक्त हो गये हैं इसलिये उसको (केवलज्ञान को) सम्पूर्ण कहते हैं। मोहनीय और वीर्यान्तराय का सर्वथा क्षय हो जाने के कारण वह अप्रतिहत शक्तियुक्त है और निश्चल है अतएव उसको समग्र कहते हैं। इंद्रियों की सहायता की अपेक्षा नहीं रखता इसलिये केवल कहते हैं। चारों घाति कर्मों के सर्वथा क्षय से उत्पन्न होने के कारण वह क्रम करण और व्यवधान से रहित है फलत: युगपत् और समस्त पदार्थों के ग्रहण करने में उसका कोई बाधक नहीं है इसलिये उसको असपत्न (प्रतिपक्षरहित) कहते हैं।
ज्ञान मार्गणासार
जिसके द्वारा जीव त्रिकालविषयक भूत, भविष्यत्, वर्तमान संबंधी समस्त द्रव्य और उनके गुण तथा उनकी अनेक पर्यायों को जाने उसको ज्ञान कहते हैं।
ज्ञान के पाँच भेद हैं—मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय तथा केवल। इनमें से आदि के चार ज्ञान क्षायोपशमिक और केवलज्ञान क्षायिक है तथा मति, श्रुत दो ज्ञान परोक्ष और शेष तीन प्रत्यक्ष हैं।
आदि के तीन ज्ञान मिथ्या भी होते हैं।
मति अज्ञान—दूसरे के उपदेश के बिना ही विष, यन्त्र, कूट, पंजर तथा बंध आदि के विषय में जो बुद्धि प्रवृत्त होती है उसको मति अज्ञान कहते हैं।श्रुत अज्ञान—चोर शास्त्र,हिंसा शास्त्र, भारत, रामायण आदि परमार्थ-शून्य शास्त्र और उनका उपदेश कुश्रुतज्ञान है।
विभंग ज्ञान—विपरीत अवधिज्ञान को विभंगज्ञान या कुअवधि ज्ञान कहते हैं।
मतिज्ञान—इंद्रिय और मन के द्वारा होने वाला ज्ञान मतिज्ञान है। उसके अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा ये चार भेद हैं। इनको पाँच इंद्रिय और मन से गुणा करके बहु आदि बारह भेदों से गुणा कर देने से २८८ भेद होते हैं तथा व्यंजनावग्रह को चक्षु और मन बिना चार इंद्रिय से और बहु आदि बारह भेद से गुणा करने से ४८ ऐसे २८८+४८·३३६ भेद होते हैं।
श्रुतज्ञान—मतिज्ञान के विषयभूत पदार्थ से भिन्न पदार्थ का ज्ञान श्रुतज्ञान है।
इस श्रुतज्ञान के अक्षरात्मक, अनक्षरात्मक अथवा शब्दजन्य और लिंगजन्य ऐसे दो भेद हैं। इनमें शब्दजन्य श्रुतज्ञान मुख्य हैं। दूसरी तरह से श्रुतज्ञान के भेद हैं—पर्याय, पर्याय समास, अक्षर, अक्षर समास, पद, पद समास, संघात, संघात समास, प्रतिपत्तिक, प्रतिपत्तिक समास, अनुयोग, अनुयोग समास, प्राभृत प्राभृत, प्राभृत प्राभृत समास, प्राभृत, प्राभृत समास, वस्तु, वस्तु समास, पूर्व, पूर्व समास इस तरह श्रुतज्ञान के बीस भेद हैंं।
प्रश्न—पर्याय ज्ञान किसे कहते हैं ?
उत्तर—सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक के जो सबसे जघन्य ज्ञान होता है उसको पर्याय ज्ञान कहते हैंं। इनको ढकने वाले आवरण कर्म का फल इस ज्ञान में नहीं होता अन्यथा ज्ञानोपयोग का अभाव होकर जीव का ही अभाव हो जावेगा। वह हमेशा प्रकाशमान, निरावरण रहता है अर्थात् इतना ज्ञान का अंश सदैव प्रगट रहता है।
इसके आगे पर्यायसमास के बाद अक्षर ज्ञान आता है यह अर्थाक्षर सम्पूर्ण श्रुत केवल रूप है। इसमें एक कम एकट्ठी का भाग देने से जो लब्ध आया उतना ही अर्थाक्षर ज्ञान का प्रमाण है।
प्रश्न—श्रुत निबद्ध विषय कितना है ?
उत्तर—जो केवलज्ञान से जाने जाएँ किन्तु जिनका वचन से कथन न हो सके ऐसे पदार्थ अनंतानंत हैं। उनके अनंतवें भाग प्रमाण पदार्थ वचन से कहे जा सकते हैं, उन्हें प्रज्ञापनीय भाव कहते हैं। जितने प्रज्ञापनीय पदार्थ हैं उनका भी अनंतवां भाग श्रुत निरूपित है।
अक्षर ज्ञान के ऊपर वृद्धि होते-होते अक्षर समास, पद, पद समास आदि बीस भेद तक पूर्ण होते हैं। इनमें जो उन्नीसवां ‘‘पूर्व’’ भेद है उसी के उत्पाद पूर्व आदि चौदह भेद होते हैं।
इन बीस भेदों में प्रथम के पर्याय, पर्याय समास ये दो ज्ञान अनक्षरात्मक हैं और अक्षर से लेकर अठारह भेद तक ज्ञान अक्षरात्मक हैं। ये अठारह भेद द्रव्य श्रुत के हैं। श्रुतज्ञान के दो भेद हैं—द्रव्यश्रुत और भाव श्रुत। उसमें शब्दरूप और ग्रंथरूप द्रव्यश्रुत हैं और ज्ञानरूप सभी भावश्रुत हैंं।
ग्रंथरूप श्रुत की विवक्षा से आचारांग आदि द्वादश अंग और उत्पाद पूर्व आदि चौदह पूर्व रूप भेद होते हैं अथवा अंग बाह्य और अंग प्रविष्ट में दो भेद करने से अंग प्रविष्ट के बारह और अंग बाह्य के सामायिक आदि चौदह प्रकीर्णक होते हैं।
द्वादशांग के नाम—आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्या-प्रज्ञप्ति, धर्मकथांग, उपासकाध्ययनांग, अंत:कृद्दशांग, अनुत्तरोपपादिकदशांग, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवादांग ऐसे बारह अंग हैं।
बारहवें दृष्टिवाद के पाँच भेद हैं—परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत, चूलिका। परिकर्म के पाँच भेद हैं—चंद्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति और व्याख्याप्रज्ञप्ति। सूत्र और प्रथमानुयोग में भेद नहीं हैं। पूर्वगत के चौदह भेद हैं। चूलिका के पाँच भेद हैं—जलगता, स्थलगता, मायागता, आकाशगता, रूपगता।
चौदह पूर्वोंं के नाम—उत्पादपूर्व, अग्रायणीय, वीर्यप्रवाद, अस्ति-नास्तिप्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यान, विद्यानुवाद, कल्याणवाद, प्राणवाद, क्रियाविशाल और लोकबिन्दुसार ये चौदह भेद हैं।
द्वादशांग के समस्त पद एक सौ बारह करोड़, तिरासी लाख, अट्ठावन हजार पाँच होते है । १,१२,८३,५८,००५ हैं। अंग बाह्यश्रुत के भेद—सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प्य, महाकल्प्य, पुंडरीक, महापुंडरीक, निषिद्धिका ये अंग बाह्यश्रुत के चौदह भेद हैं।
‘‘ज्ञान की अपेक्षा श्रुतज्ञान तथा केवलज्ञान दोनों ही सदृश हैं। दोनों में अंतर यही है श्रुतज्ञान परोक्ष है और केवलज्ञान प्रत्यक्ष है।’’
अवधिज्ञान—द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से जिसका विषय सीमित हो वह अवधिज्ञान है। उसके भव प्रत्यय, गुण प्रत्यय यह दो भेद हैं। प्रथम भवप्रत्यय देव नारकी और तीर्थंकरों के होता है तथा द्वितीय गुणप्रत्यय मनुष्य और तिर्यंचों के भी हो सकता है।
मन:पर्यय ज्ञान—चिंतित, अचिंतित और अर्धचिंतित इत्यादि अनेक भेद रूप दूसरे के मन में स्थित पदार्थ को मन:पर्यय ज्ञान जान लेता हैै। यह ज्ञान वृद्धिंगत चारित्र वाले किन्हीं महामुनि के ही होता है। इसके ऋजुमति, विपुलमति नाम के दो भेद हैं।