१. जिज्ञासा : घर में चैत्यालय; स्थापना कर सकते हैं क्या ?
समाधान : शास्त्रों में घर में चैत्यालय की स्थापना एवं प्रतिमा की ऊँचाई आदि के बारे में कथन मिलता है। घर में प्रतिमा रखने की प्रेरणा देते हुए आचार्य सकलर्कीित इस प्रकार कहते हैं—
‘यस्य गेहे जिनेन्द्रस्य बिम्बं न स्याच्छुभप्रदम्।
पक्षिगृहसमं तस्य गेहं स्यादतिपापप्रदम्।।’’
—(प्रश्नोत्तर श्रावकाचार, १८५)
अर्थ — जिसके घर में पुण्य उपार्जन करने वाली भगवान जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा नहीं है उसका घर पक्षियों के घोंसले के समान है और वह अत्यन्त पाप उत्पन्न करने वाला है।
न वितस्त्यधिकां जातु प्रतिमां स्वगृहेऽर्चयेत्।
—(प्रतिष्ठासारोद्धार, १/८१)
अपने घर के चैत्यालय में एक विलस्त (१२ अंगुल प्रमाण) से अधिक प्रमाण वाली प्रतिमा नहीं रखे। उक्तं च—
द्वादशांगुलपर्यंतं यवाष्टांशानतिक्रमात्।
स्वगृहे पूजयेद्विबं न कदाचित्ततोधिकम्।।
अर्थ — घर में एक यव के आठवें भाग से कम द्वादश अंगुल वाली प्रतिमा की पूजा करनी चाहिए, उससे अधिक की कभी भी पूजा नहीं करनी चाहिए।
गृह चैत्यालय की प्रतिमा का शुभाशुभ
फलअथात: संप्रवक्ष्यामि गृहबिंबस्य लक्षणम्।
एकांगुलं भवेच्छ्रेष्ठं द्व्यंगुलं धननाशनम्।।
यंगुले जायते वृद्धि: पीडा स्याच्चतुरंगुले।
पंचांगुले तु वृद्धि: स्यादुद्वेगस्तु षडंगुले।।
सप्तांगुले गवां वृद्धिर्हानिरष्टांगुले मता।
नवांगुले पुत्रवृद्धिर्धननाशेत दशांगुले।।
एकादशांगुलं वबं सर्वकामार्थसाधकम्।
एतत्प्रमाणमाख्यातमत ऊर्ध्व न कारयेत्।।
—(प्रतिष्ठासारोद्धार, पृ. ९)
अर्थ — अब गृह में पूजा के योग्य बिम्ब का लक्षण कहूँगा—एक अंगुल का बिम्ब श्रेष्ठ होता है, दो अंगुल का धननाशक, तीन अंगुल का वृद्धिकारक, चार अंगुल का पीड़ाकारक, पाँच अंगुल का वृद्धिकारक, छह अंगुल का उद्वेगकारक, सात अंगुल का गोवृद्धिकारक, आठ अंगुल का हानिकारक, नवांगुल का पुत्रवृद्धिकारक, दस अंगुल का धननाशकारक तथा ग्यारह अंगुल का बिम्ब सभी कार्यों का साधक होता है। इससे ऊँची प्रतिमा नहीं होनी चाहिए। घर के चैत्यालय से पूजा करके जिनमंदिर जाने की प्रतिमा श्रावक की दिनचर्या का वर्णन करते हुए पं. आशाधर लिखते हैं—
ब्राह्मे मुहूर्त उत्थाय वृत्तप चनमस्कृति:।
कोऽहं को मम धर्म: कि व्रतं चेति परामृशेत्।।
अनादौ बम्भ्रमन् घोरे संसारे धर्ममार्हतम्।
श्रावकीयमिमं कृष्छ्रात् किलापं तदिहोत्सहे।।
इत्यास्थायोत्थितस्तल्पाच्दुचिरेकापनोऽर्हन:।
निर्मायाष्टतयीमिष्टं कृतिमकर्म समाचरेत्।।
समाध्युपरमे शान्तिमनुध्याय यथाबलम्।
प्रत्याख्यानं गृहीत्वेष्ट प्राथ्र्यं गन्तु नमेत् प्रभुम्।।
—(सागारधर्मामृत, ६/१—४)
ब्राह्म मुहूत्र्त में उठकर पंचनमस्कार मंत्र को पढ़ने के बाद ‘मैं कौन हूँ, मेरा क्या धर्म है, मेरा क्या व्रत है,’ इस प्रकार से विचार करें। इस अनादि घोर संसार में भटकते हुए मुझे अर्हन्त भगवान के द्वारा कहा गया यह श्रावक सम्बन्धी धर्म बड़े कष्ट से प्राप्त हुआ है, इसलिए इस अत्यन्त दुर्लभ धर्म में मुझे प्रमाद छोड़कर प्रवृत्त होना है। इस प्रकार से प्रतिज्ञा करके शय्या से उठे और स्नानादि करके एकाग्रमन होकर आठ द्रव्यों से देव—शास्त्र—गुरु की पूजा करके पहले वन्दनादि विधानरूप कृतिकर्म को सम्यक््â रीति से करें। अवश्य करणीय धर्मध्यान से निर्वत्त होने पर शान्ति भक्ति का चिन्तवन करके विशेष शक्ति के अनुसार निवृत्त होने पर शान्ति भक्ति का चिन्तवन करके शक्ति के अनुसार भोग—उपभोग सम्बन्धी नियम विशेष लेकर इष्ट की प्रार्थना करें और इस प्रकार क्रिया करके इच्छित स्थान पर जाने के लिए अर्हंत देव को पंचांग नमस्कार करें। अभी तक उसने यह सब प्रात:कालीन र्धािमक कृत्य घर के मन्दिर में किया है। पहले घरों में भी धर्मसाधन के लिए चैत्यालय होते थे। इसलिए पहले घर के चैत्याल्य में पूजन, सामायिक, शान्तिपाठ, इष्टप्रार्थना और विसर्जन कर पश्चात् जिनमन्दिर में जाने का विधान किया है। उक्त र्धािमक कृत्य करने के बाद श्रावक बड़े मन्दिर में जाता था, उसी का आगे कथन करते हैं—
समसाम्यामृतसुधौतान्तरात्मराजज्जिनाकृति:।
दैवादैश्वद्वर्यदौर्गत्ये ध्यायन् गच्छेज्जिनालयम्।।
—(सागरधर्मामृत, ६/५)
समता परिणामरूपी अमृत से अच्छी तरह धोये गये अर्थात् विशुद्धि को प्राप्त हुए अन्तरात्मा में अर्थात् स्व और पर के भेदभान के प्रति उन्मुख हुए अन्त:करण में परमात्मा की मुर्ति को सुशोभित करते हुए श्रावक देवदर्शन के लिए जिनालय में जावें।
२. जिज्ञासा — जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा एवं मन्दिर बनवाने का क्या पुण्य है ?
समाधान — भव्य जीव ही जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा एवं मन्दिर का निर्माण करा सकते हैं। आगम शास्त्रों में इनका अचिन्त्य फल बताया है, जो कि इस प्रकार है—
प्रसादे जिनबिम्बे च बिम्बमानं यवोन्नतिम्।
य: कारयति गतिस्तेषां पुण्यं वत्तुमलं न हि।।
प्रसादे कारिते जैने कि कि पुण्यं कृतं न तै:।
दानं पूजा तप: शीलं यात्रा तीर्थस्य च स्थिति:।।
—(धर्मसंग्रह श्रावकाचार, ६/८०—८१)
अर्थ — जो भव्य पुरुष जिनमन्दिर तथा जौ बराबर भी जिनबिम्ब बनवाते हैं उन पुण्यशाली पुरुषों के पुण्य का वर्णन करने में हमारी वाणी किसी प्रकार भी समर्थ नहीं है। जिन पुरुषश्रेष्ठों ने जिनमंदिर बनवाया है संसार में फिर ऐसा कौन पुण्य कर्म बाकी है जिसे उन्होंने न किया। अर्थात् उन लोगों ने दान, पूजन, तप, शील, यात्रा तथा तीर्थों की बहुत काल पर्यन्त स्थिति आदि पुण्यकर्म किए हैं।
चैत्यगेहं विधत्ते यो जिनबिम्बसमन्वितम्।
फलं तस्य न जानामि नित्यं धर्मप्रवद्र्धनात्।।
जिनगेहसमं पुण्यं न स्याच्च सद्गृहिणां क्वचित्।
स्वर्गसोपानमादौ च मुक्तिस्त्रीदायवंâ क्रमात्।।
यावन्ति जिनबिम्बानि पूजां नित्यं श्रयन्ति वै।
प्रतिष्ठायां च तत्कर्ता तद्धर्मा सम्भजेत् सदा।।
—(प्रश्नोत्तर श्रावकाचार, सकलर्कीत, २/१६८, १७०, १९२)
अर्थ — जो धनी जिनबिम्ब के साथ—साथ जिनमन्दिर बनवाता है वहां पर पूजा, स्वाध्याय आदि नित्य कर्म सदा होते रहते हैं इसलिए उसके पुण्यरूप फलों को हम जान भी नहीं सकते। गृहस्थों को जिनभवन बनवाने के समान अन्य कोई पुण्य नहीं है। यह प्रथम तो स्वर्ग की सीढ़ी है और फिर अनुक्रम से मुक्तिरूपी स्त्री को देने वाला है। प्रतिष्ठा में जितनी प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा होती है और उनकी जब तक नित्य पूजादि होती रहती है तब तक उसके कर्ताओं को धर्म की प्राप्ति होती रहती है।
कुस्तुम्बरखण्डमात्रं यो निर्माप्य जिनालयम्।
स्थापयेत् प्रतिमां स स्यात् त्रैलोक्यस्तुतिगोचर:।।
यस्तु निर्मापयेत्तुङ्गं जिनं चैत्यं मनोहरम्।
वक्तुं तस्य फलं शक्त: कथं सर्वविदोऽपर:।।
—(गुणभूषण श्रावकाचार, ३/१३७—१३८)
अर्थ — जो पुरुष कुस्तुम्बर (कुलथी) के खण्ड प्रमाण जिनालय को बनवाकर उसमें सरसों के बराबर प्रतिमा को स्थापित करता है, वह तीन लोक के जीवों की स्तुति का विषय होता है। फिर जो अति उन्नत जिनालय बनवा करके उसमें विशाल मनोहर प्रतिमा को स्थापित करता है, उसके पुण्य का फल तो सर्वज्ञदेव के सिवाय और दूसरा कौन पुरुष कहने के लिए समर्थ हो सकता है। ऐसा ही वर्णन वसुनन्दि श्रावकाचार में मिलता है—
कुत्थुंभरिदलमेत्ते जिणभवणे जो ठवेह जिणपडिमं।
सरिसवमेत्तं पि लहेदि सो णरो तित्थयरपुण्णं।।४८।।
जो पुण जिणिंदभवणं समुण्णयं परिहि तोरणसमग्गं।
णिम्मावदि तस्स फलं को सक्कदि वण्णिदुं सयलं।।४८२।।
अर्थ — जो मनुष्य कुन्थुम्भरी (धनिया) के दल मात्र अर्थात् पत्र बराबर जिनभवन बनवाकर उसमें सरसों के बराबर भी जिनप्रतिमा को स्थापन करता है, वह तीर्थंकर पद पाने के योग्य को प्राप्त करता है, तब जो कोई अति उन्नत और परिधि, तोरण आदि से संयुक्त जिनेन्द्र—भवन बनवाता है उसका समस्त फल वर्णन करने के लिए कौन समर्थ हो सकता है ?
बिम्बादलोन्नति यवोन्नतिमेव भक्त्या, ये कारयन्ति जिनसद्य जिनाकृतिं च।
पुण्यं तदीयमिह वागपि नैव शक्ता, स्तोतुं परस्य किमु कारयितुद्र्वयस्य।।
—(श्रावकाचार संग्रह, भाग—२, पृ. ४९४)
अर्थ — जो मनुष्य बिम्बापत्र की ऊँचाई वाले जिनभवन को और जौ की ऊँचाई वाली जिनप्रतिमा को भक्ति से बनवाते हैं, उनके पुण्य को कहने के लिए सरस्वती भी समर्थ नहीं है। फिर दोनों को कराने वाले मनुष्य के पुण्य का तो कहना ही क्या है!
३. जिज्ञासा — जिनमंदिर बनवाने, जिनप्रतिष्ठादि महोत्सवों के करवाने में हिंसा होती है। तो क्या फिर यह कार्य उचित है ?
समाधान — धवलाकार ने भी इसी बात की शंका उठाई है। धर्मसंग्रह श्रावकाचार (३/११) में भी इस शंका का समाधान इस प्रकार दिया है—
‘‘चेदिय बंधं मोक्खं, दुक्खं सुक्खं च अप्पयं तस्स।
चेदिहारं जिणमग्गे, छक्काय हिदकरं भणिदं।।९।।’’
—(आचार्य कुन्दकुन्द, बोधपाहुड, पृष्ठ १५०)
अर्थ — जो चैत्यगृह के प्रति दुष्ट प्रवृत्ति करता है उसे वह बन्ध तथा उसके फलस्वरूप दु:ख उत्पन्न करता है और जो चैत्यगृह के प्रति उत्तम प्रवृत्ति करता है उसे वह मोक्ष तथा उसके फलस्वरूप सुख प्रदान करता है। जैन मार्ग में चैत्यगृह को षट्कायिक जीवों का हितकारी कहा गया है।
जिनालयकृतौ तीर्थयात्रायां बिम्बपूजने।
हिंसा चेतत्र दोषांश: पुण्यराशौ न पापभाक्।।
अर्थ — जिनमंदिर के बनवाने में तीर्थों की यात्रा करने में तथा प्रतिष्ठादि महोत्सवों के करवाने में यदि हिंसा होती है तो वह दोष का अंश बहुत पुण्य के समूह में पाप नहीं कहलाता है। और भी कहा है—
जिनार्चानेकजन्मोत्थं किल्विषं हन्ति याकृता।
सा किन्न यचनाचारैर्भवं सावद्यमग्निाम्।।
—(धर्मसंग्रह श्रावकाचार, ३/७३)
अर्थ — जिन भगवान का पूजन करने से जन्म—मरण में उपार्जन किये हुए पापकर्म क्षणमात्र में नाश हो जाते हैं, तो क्या उसी पूजन से पूजन सम्बन्धी आचार से उत्पन्न जीवों का अत्यल्प सावद्य कर्म नाश नहीं होगा ? अवश्य होगा।
जिनधर्मोद्यतस्यैव सावद्यं पुण्यकारणम्।।
रमणीयस्तत: कार्य: प्रसादो हि जिनेशिनाम्।
हेमपाषाणमृत्काष्ठमयै: शक्त्याऽऽमनो भुवि।।
—(धर्मसंग्रह श्रावकाचार, ६/७८—७९)
अर्थ — जिनधर्म की प्रभावना करने में तत्पर भव्य पुरुषों के आरम्भ भी पुण्योत्पत्ति का कारण है। जिनधर्म की वृद्धि के अर्थ किया गया आरम्भ भी अच्छे कर्मबन्ध का हेतु है—ऐसा समझकर भव्यपुरुषों को अपनी सामथ्र्य के अनुसार संसार में सुवर्ण, पाषाण, मुत्तिका तथा काष्ठादि र्नििमत मनोहर जिनमन्दिर बनवाने चाहिए। और भी—
सारंभइं ण्हवणाइयहं जे सावज्ज भणंति।
दंसणु तेहि विणासियउ इत्थु ण कायउ भंति।।
—(सावयधम्मदोहा, २०४)
अर्थ — जो अभिषेक, पूजन, जिनभवन—निर्माणादि के समारम्भ को सावद्य (पापयुक्त) कहते हैं, उन्होंने सम्यग्दर्शन का विनाश कर दिया, इसमें कोई भ्रान्ति नहीं है।
( प्राकृतविद्या ,अप्रैल- जून २०१३ से )