णमो अरिहंताणं,

णमो सिद्धाणं,

णमो आयरियाणं,

णमो उवज्झायाणं,

णमो लोए सव्व साहूणं ।

एसोपंचणमोक्कारो, सव्वपावप्पणासणो ।

मंगला णं च सव्वेसिं, पडमम हवई मंगलं । 

णमो अरिहंताणं - अरिहंतों को नमस्कार हो।

णमो सिद्धाणं - सिद्धों को नमस्कार हो।

णमो आयरियाणं - आचार्यों को नमस्कार हो।

णमो उवज्झायाणं - उपाध्यायों को नमस्कार हो।

णमो लोए सव्व साहूणं - इस लोक के सभी साधुओं को नमस्कार हो।

एसो पंच णमोक्कारो - यह पाँच परमेष्ठियों को किया हुआ नमस्कार

सव्वपावप्पणासणो - सभी पापो का नाश करने वाला है

मंगलाणं च सव्वेसिं - और सभी मंगलो में

पढमं हवइ मंगलं - प्रथम मंगल है


{ यह मन्त्र महामंत्र क्यों कहा जाता है?

 इसके कई कारण हैं, उनमें से हम कुछ महत्त्वपूर्ण कारणों को यहाँ बताना चाहेंगे }


१. यह अनादि और अनिधन मन्त्र है |


२. यह निष्काम मन्त्र है | इसमें किसी चीज की कामना नहीं है |


३. अन्य सभी मन्त्रों का यह जनक मन्त्र है |


४. इस मन्त्र में व्यक्ति पूजा नहीं है | अर्थात् गुणों और उसके आधार पर उस पद पर आसीन शुद्धात्माओं को नमन किया गया है |


५. यह सांप्रदायिक नहीं है अपितु परम आध्यात्मिक है |


{ णमोकार मंत्र का प्रभाव णमोकार मंत्र का आगम प्रमाण }


हमारे सामने ऐसे अनेक प्राचीन प्रमाण हैं

 जिनसे यह सिद्ध होता है 

कि पौदगलिक मन्त्र अपनी वर्ण संयोजना, अक्षर विन्यास, 

मात्राओं तथा ध्वनियों के वैज्ञानिक संयोजन का ऐसा फार्मूला होता था

 जिसकी शक्ति के प्रभाव से वह मनुष्यों के रोग आदि बाधाओं को भी दूर कर देता था।

धवला में लिखा है कि योनिप्राभृत में कहे गए मंत्र-तंत्ररूप शक्तियों का नाम पुद्गलानुभाग है-

जोनिपाहुडे भिनिदमंत-तंतसत्त्तियो पोग्गलानुभागो तति घेट्टव्वो। (धवला 13/5,5,82/349/8)


ईसा की पहली शती में आचार्य धरसेन ने श्रुत आगम का अवशिष्ट ज्ञान सुरक्षित रखने हेतु |

पुष्पदंत-भूतबली इन दो मुनिराजों की परीक्षा मन्त्र सिद्धि के आधार पर ही की थी। 

उन्हें भी देवियाँ सिद्ध हुईं थीं, उनकी अशुद्ध मन्त्र संशोधन की स्वविवेक बुद्धि ही 

उनकी श्रुत रक्षक की योग्यता का आधार बनी थी। 

ईसा की दूसरी शती के बाद आचार्य समन्तभद्र ने रत्नकरंड

 श्रावकाचार में सम्यक्त्व के आठ अंगों की अनिवार्यता के प्रसंग में मन्त्र का उदाहरण देते हुए कहा -


न हि मंत्रोऽक्षरन्यूनो निहन्ति विषवेदनाम् ॥ (श्लोक 21)


जिस प्रकार किसी मनुष्य को सर्प ने काट लिया और विष की वेदना सारे शरीर में व्याप्त हो गई

 तो उस विष वेदना को दूर करने के लिए अर्थात् विष उतारने के लिए मान्त्रिक मन्त्र का प्रयोग करता है। 

यदि उस मन्त्र में एक अक्षर भी कम हो जाय तो जिस प्रकार उस

 मन्त्र से विष की वेदना शमित-दूर नहीं हो सकती, 

उसी प्रकार संसार-परिपाटी का उच्छेद करने के लिए

 आठ अंगों से परिपूर्ण सम्यग्दर्शन ही समर्थ है, 

एक दो आदि अंगों से रहित विकलांग सम्यग्दर्शन नहीं-


सारादिदष्टस्य प्रसृतसर्वाङ्गविषवेदनस्य तदपहरणार्थं संयुक्तो मंत्रोऽक्षरेणापि निनो हीनो 'न हि' नैव 'निहन्ति' स्फोतायति विषवेदनाम्। ततः सम्यग्दर्शनस्य संसारोच्छेदसाधनेऽष्टाङ्गोपेतत्वं युक्तमेव.... (आचार्य प्रभुचंद्र की टिप्पणी)


गोम्मटसार जीवकांड की जीवत्त्व दपिका टीका में स्पष्ट लिखा है कि विद्या, मणि, मंत्र, औषधि आदि की अचिंत्य शक्ति का महात्म्य प्रत्यक्ष दर्शन में होता है। स्वभाव तर्क का विषय नहीं, ऐसे विद्वानों को सम्मत है-


अचिंतं हि तपोविद्यामणिमंत्रौषधिशक्त्यतिशयमहात्म्यं दृष्टस्वभावत्वात्। स्वभावोऽतर्कगोचर इति सर्ववादिसंयत्वात्।-(गो.जी.184/419/18)


भगवती आराधना की विजयोदया टीका (306/520/17) में अनेक परिस्थितियों में मंत्र प्रयोग की आज्ञा देते हुए कहते हैं कि जिन मुनियों को चोर से उपद्रव हुआ हो, दुष्ट पशुओं से पीड़ा हुई हो, दुष्ट राजा से कष्ट पहुँचा हो, नदी के द्वारा रुक गये हों, भारी रोग से पीड़ित हो गये हों, तो उनका उपद्रव विद्यादिकों (मंत्रादिकों) से नष्ट करना उनकी वैयावृत्ति है-

साइंस कांग्रेस में टॉप करने वाली एक १४ वर्षीय लड़की अन्वेषा रॉय चौधरी ने कोलकाता के वैज्ञानिकों को 

ॐ के उच्चारण केप्रभाव को सिद्ध करके आश्चर्य में दाल दिया |

 उसने प्रमाणित किया कि ॐ की ध्वनि थकान को मिटाने में कारगर है | 

उसनेसिद्ध किया कि ॐ के लगातार उच्चारण से रक्त में ऑक्सीजन का स्तर बढ़ता है, 

कार्बनडायऑक्साइड और लैक्टिक एसिड का


स्तर घटता है, जिससे थकान का स्तर भी कम होता है और आप ऊर्जा महसूस करते हैं | एक निश्चित फ्रीक्वेंसी में ध्वनि का जब


उच्चारण होता है, तो उसका प्रभाव हमारे न्यूरोट्रांसमीटर्स और डोपामाइन जैसे हार्मोंस पर पड़ता है. यह लैक्टिक एसिड के स्तर


में भी कमी लाता है, जिससे व्यक्ति को थकान कम महसूस होती है | कोलकाता यूनीवर्सिटी के फिज़ियोलॉजी डिपॉर्टमेंट के हेड


देवाशीष बंदोपाध्याय ने कहा कि अन्वेषा की खोज और उसका प्रोजेक्ट काफ़ी रचनात्मक, बिना किसी दोष के है और उसका


आधार भी बेहद ठोस है | (सोर्स-इन्टरनेट)


'ॐ' प्रणवमंत्र में अरहंत, सिद्ध, आचार्य, आचार्य और सर्वसाधु ये पांचों परमेष्ठी समाविष्ट हैं।

 ऐसे 'ॐ' के जाप से, ध्यान से व पूजा से सर्व मनोरथ सफल हो जाते हैं। जैन परंपरा में ओम का अर्थ है-


अरिहंता असरीरा, आइरिया तह उवज्झाय मुणिणो।


पढमक्खरनिपन्नो, ओंकारो पंचपरमिट्ठी।। (द्ववसंगहो /49)


अरिहंत का प्रथम अक्षर 'अ', 

अशरीर (सिद्ध) का 'अ', 

आचार्य का 'आ', 

उपाध्याय का 'उ', 

और मुनि (साधु) का 'म'

 इस प्रकार पंचपरमेष्ठियों के प्रथम अक्षर (अ+अ+अ+ उ + म)

 को लेकर कातंत्र व्याकरण के सूत्र 'समानः

 सावे दीर्घे भवति पूर्व लोपं' और 'उवर्णे ओ' सूत्र से संधि करने पर 'ओम' मंत्र सिद्ध होता है।

 पुनः आरंभ करें 'विरामे वा' सूत्र से म का अनुस्वार 'ॐ' शब्द बनता है।

इसी प्रकार णमोकार महामंत्र का प्रयोग मैंने स्वयं किया |

 विधिपूर्वक २७ श्वास उच्छवास पूर्वक मात्र ९ बार भाव पूर्ण णमोकार के पाठ से मैंने अपना ऑक्सीजन लेबल कई बार अच्छा किया | ओक्सिमीटर से उसकी जाँच की तो आश्चर्य जनक परिणाम सामने आये |

 इस महामारी के दौरान अप्रैल २०२१ में जब पूरे देश में मरीजों में ऑक्सीजन की कमी के चलते मौतें हो रहीं थीं 

तब यह प्रयोग मैंने कई लोगों को बताया और उन्हें इससे प्रत्यक्ष लाभ हुआ | 

यह प्रत्यक्ष सिद्ध तथ्य है | 

वर्तमान में मात्र वैज्ञानिक चिंतन करने वाले लोग बिना प्रत्यक्ष प्रमाण के कोई बात नहीं स्वीकार कर पाते हैं इसलिए वे कभी कभी घाटे में भी रहते हैं |


मन्त्र जप की प्रेरणा और विधि


जैन आचार्यों ने पग-पग पर मन्त्र जप की प्रेरणा दी है उसकी विधियाँ भी समझाई हैं। आचार्य योगिंदु कहते हैं कि यदि तुम्हें वास्तव में मोक्ष की इच्छा है तो सम्पूर्ण मन्त्रों के सारभूत, अत्यंत मनोहारी, सुन्दर प्रकाश की राशि, जगत के सभी आराध्यों से भी आराधित होने योग्य अर्हन्त-अक्षर का संयम में स्थित होकर जप करो -


'हैं' मंत्रसारमतिभास्वर्धामपुंजम्, संपूज्य पूजितसमं जपसंयमस्थः। (कारिका-33)


इसी प्रकार णमोकार महामंत्र की एक सर्वमान्य विधि पंडित आशाधर जी ने बताई है -


जिनेन्द्रमुद्रय गाथां ध्यायेत् प्रियेत्विवस्वरे।


हृतपंकजे प्रवेश्यं अंतरनिरुद्धय मन्सानिलम्।।



नवकृत्वाः पृथौक्तैवं दहत्यंहः नागमहत्।। (अनगरधर्मामृत/9/22-23)


प्राणवायु को भीतर प्रविष्ट करके आनंद से विकसित हृदयकमल में रोककर जिनेंद्र मुद्रा द्वारा णमोकार मंत्र की गाथा का ध्यान करना चाहिए। तथा गाथा के दो दो और एक अंश का क्रम से पृथक् पृथक् चिंतवन करके अंत में उस प्राणवायु का धीरे-धीरे रेचन करना चाहिए। इस प्रकार नौ बार प्राणायाम का प्रयोग करने वाला संयमी महान् पापकर्मों को भी क्षय कर देता है। पहले भाग में (श्वास में) णमो अरहंताणं णमो सिद्धाणं इन दो पदों का, दूसरे भाग में णमो आइरियाणं णमो उवज्झायाणं इन दो पदों का तथा तीसरे भाग में णमो लोए सव्वसाहूणं इस पद का ध्यान करना चाहिए।


णमोकार मंत्र का महत्व – णमोकार मंत्र का महत्व


शास्त्रों में इस जिस महामंत्र की महिमा हजारों प्रकार से गाई गयी है हम उसकी उपेक्षा कैसे कर सकते हैं? उमास्वामि विरचित णमोकार महात्म्य में लिखा है यह मन्त्र सारे भय दूर कर देता है -


बतसागरकरिन्द्रभुजंगसिंह-दुव्याधिवन्हरिपुबन्धनसंभवनि।


चौरग्रहाभ्रमनिषाचरशाकिनीनां, नश्यन्ति पंचपरमेष्ठिपैरभयानि।। (श्लोक 5)


णमोकार मंत्र जपने से युद्ध, समुद्र, गजराज (हाथी) सर्प, सिंह, भयानक रोग, अग्नि, शत्रु, बंधन (जेल आदि) के तथा चोर, दुष्टग्रह, राक्षस चुड़ैल आदि का भय दूर हो जाता है। यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि भय दूर करने की बात है जो श्रावक के मन में मनोवैज्ञानिक रूप से अप्रतिम प्रभाव डालता है ।


इसीलिए वे पग पग पर इस मन्त्र पाठ की प्रेरणा देते हुए कहते है -


दुःखे सुखे भयस्थाने, पथि दुर्गे रणेपि वा।


श्रीपंचगुरुमंत्रस्य, पाठः कार्यः पदे पदे।। (श्लोक 12)


मनुष्य को दुख में, सुख में, भयभीत स्थान में, मार्ग में, वन में, युद्ध में पग-पग पर पंचनमस्कार मंत्र का पाठ करना चाहिए। एक प्राकृत के णमोकार महात्म्य ग्रन्थ में लिखा है (पंडित हीरालाल, अनेकांत त्रैमासिक, जन. मार्च १२)-


जिनसाणस्स सारो चौदस- पुववै जो समुधारो।


जस्स मने नव्यारो संसारो तस्स किं कुणै।। (गाथा-25)


जिन-शासन के सार और चौदह पूर्व-महार्णव का समुद्धार रूप णमोकार जिसके मन में बसा है, संसार उसका क्या बिगाड़ लेगा ?


निकृष्ट जीवों तक को दुर्गति से बचाने वाला है महामंत्र – -


हम प्रथमानुयोग के उन हज़ारों दृष्टांतों को एक सिरे से झुठला नहीं सकते जिसमें दूसरे के मुख से भी अंत समय में णमोकार मंत्र मात्र सुन लेने से निकृष्ट से निकृष्ट जीव भी दुर्गति से बच गया -


*मरणक्षणलब्धेन येन श्वा देवताऽजनि।


पंचमंत्रपदं जप्यमिदं केन न धीमता

*मरणक्षणलब्धेन येन श्वा देवताऽजनि।


पंचमंत्रपदं जप्यमिदं केन न धीमता


।।* (क्षत्रचूड़ामणि 4/10)


अर्थात् मरणोन्मुख कुत्ते को भी जीवंधर स्वामी ने करुणावश णमोकार मंत्र सुनाया, इस मंत्र के प्रभाव से वह पापाचारी श्वान देवता के रूप में उत्पन्न हुआ ।


जीवंधर स्वामी क्या यह नहीं जानते थे कि

 "मणि-मंत्र-तंत्र बहु होई, मरते न बचावे कोई"? 

निश्चित जानते थे और मानते भी थे ।

 उन्हें इस बात पर तनिक भी अश्रद्धान नहीं था

 कि 'आयुक्खयेण मरणं' (वारसाणुवेक्खा, 

२८) आयु कर्म के क्षय से ही मरण होता है। 

यदि किसी की आयु आ ही गई है तो उसे बचा कोई भी नहीं सकता।

 फिर भी सुनाया। क्यों ? मुझे नहीं लगता श्वान णमोकार का भाव भी समझता होगा |

 मात्र शब्द ही उसके कान में गए थे |

 ऐसे अनेक उदाहरण आपको शास्त्रों में मिल जायेंगे 

जिसमें ऐसे जीव भी दुर्गति से बच गए जिन्हें इसका भावभासन भी नहीं था |

 अब इससे हम क्या प्रेरणा लें ? हम श्वान और अंजन चोर जैसे तो नहीं हैं | 

उनसे तो उत्कृष्ट ही हैं, फिर हमारे कान में पड़ जाये तो हम भी दुर्गति से बच जायेंगे?

 यहाँ उत्कृष्ट और निकृष्ट की परिभाषा तो मैं नहीं करना चाहता

 किन्तु इतना अवश्य जानता और मानता हूँ कि यहाँ आचार्य यह अवश्य सिखाना चाह रहे हैं कि 'जब ऐसों का कल्याण हो सकता है तो तुम्हें तो मनुष्य भव, जैन कुल, जिनवाणी का समागम महापुण्य उदय से प्राप्त हुआ है, तुम्हें सिर्फ सुनना नहीं हैं, उसका भाव भी समझना है, पञ्च परमेष्ठी का स्वरुप भी समझना है, उनका ध्यान भी करना है, उनका जप भी करना है, उनके उपदेशों को समझना उसका पालन भी करना है | सिर्फ दुर्गति से बचना ही तुम्हारा एक मात्र उद्देश्य नहीं है बल्कि तुम्हें अपनी शुद्धात्मदशा भी प्राप्त करनी है, इस भव भ्रमण का अभाव भी करना है समझे' |