धम्माधम्मा कालो, पुग्गलजीवा य संति जावदिये।
आयासे सो लोगो, तत्तो परदो अलोगुत्तो।।२०।।
जितने आकाश प्रदेशों में, पुद्गल औ जीव सभी रहते।
औ धर्म, अधर्म व काल रहें, बस लोकाकाश उसे कहते।।
उसके बाहर में सभी तरफ, है वृहत् अलोकाकाश रहा।
जिससे बढ़कर नहिं कोई है,फिर भी यह चेतन शून्य कहा।।२०।।
अर्थ - धर्म-अधर्म काल जीव और पुद्गल ये पाँच द्रव्य जितने आकाश में रहते हैं वह लोकाकाश है और उससे परे चारों तरफ अलोकाकाश है।
प्रश्न - लोकाकाश किसे कहते हैं?
उत्तर - जीव और अजीव द्रव्य जितने आकाश में पाये जायें उतने आकाश को लोकाकाश कहते हैं।
प्रश्न - अलोकाकाश किसे कहते हैं?
उत्तर - लोक के बाहर केवल आकाश ही आकाश है। जहाँ अन्य द्रव्यों का निवास नहीं है, इस खाली पड़े हुए आकाश को अलोकाकाश कहते हैं।
प्रश्न - लोकाकाश बड़ा है या अलोकाकाश?
उत्तर - अलोकाकाश बड़ा है। अलोकाकाश का अनन्तवाँ भाग लोकाकाश है।
प्रश्न - इतने छोटे लोकाकाश में अनन्त जीव, जीवों से भी अनन्तगुणे पुद्गल और असंख्यात कालपरमाणु वैâसे समा सकते हैं?
उत्तर - लोकाकाश अलोकाकाश से छोटा होने पर भी उसमें अवगाहन शक्ति बहुत बड़ी है। इसीलिए उसमें सभी द्रव्य समाये हुए हैं।
उदाहरण के लिए-जिस कमरे में एक दीपक का प्रकाश हो रहा है, उसी में अन्य सैकड़ों दीपक रख दिये जायें तो उनका प्रकाश भी पहले वाले दीपक में समा जाता है। आकाश एक अर्मूितक द्रव्य है। उसमें अवगाहन करने वाले सभी द्रव्य मूर्तिक और स्थूल होते तथा आकाश स्वयं भी मूर्तिक होता तो लोकाकाश में इतने द्रव्यों का अवगाहन नहीं होता। परन्तु लोकाकाश में निवास करने वाले अनन्त जीव अमूर्तिक हैं, पुद्गलों में भी कुछ सूक्ष्म हैं और कुछ बादर हैं, कालाणु, धर्म, अधर्म द्रव्य अमूर्तिक ही हैं अत: आकाश में सभी द्रव्य समाये हुए हैं, इसमें कोई विरोध नहीं आता है।