णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।।१।।
षट्खण्डागम की प्रथम पुस्तक सत्प्ररूपणा में सर्वप्रथम ‘णमोकार महामंत्र’ से मंगलाचरण किया है। इसमें १७७ सूत्र हैं। इस ग्रंथ की रचना श्रीमत्पुष्पदंत आचार्य ने की है।
इसके आगे के संपूर्ण सूत्र श्रीमद् भूतबलि आचार्य प्रणीत हैं।
इस मंगलाचरण की धवला टीका में पांचों परमेष्ठी के लक्षण बताये हैं।
यह मंत्र अनादि है या श्री पुष्पदन्ताचार्य द्वारा रचित सादि है ?
मैंने ‘सिद्धान्तचिन्तामणि’ टीका में इसका स्पष्टीकरण कया है। धवला टीका में इसे ‘निबद्धमंगल’ कहकर आचार्यदेव रचित ‘सादि’ स्वीकार किया है। इसी मुद्रित प्रथम
पुस्तक के टिप्पण में जो पाठ का अंश उद्धृत है वह धवलाटीका का ही अंश माना गया है। उसके आधार से यह मंगलाचरण ‘अनादि’ है। आचार्य श्री पुष्पदंत द्वारा रचित नहीं है, ऐसा स्पष्ट होता है। इस प्रकरण को मैंने दिया है। यथा-
अथवा
षट्खण्डागमस्य मु प्रतौ पाठांतरं।
यथा- (मुद्रितमूलग्रन्थस्य प्रथमावृत्तौ)
जो सुत्तस्सादीए सुत्तकत्तारेण णिबद्धदेवदाणमोक्कारो तं णिबद्धमंगलं।
जो सुत्तस्सादीए सुत्तकत्तारेण कयदेवदाणमोक्कारो तमणिबद्धमंगलं’’१।
अस्यायमर्थ:-
य: सूत्रस्यादौ सूत्रकत्र्रा निबद्ध:-संग्रहीत: न च ग्रथित: देवतानमस्कार: स निबद्ध: मंगलं।
य: सूत्रस्यादौ सूत्रकत्र्रा कृत:-ग्रथित: देवतानमस्कार: स अनिबद्धमंगलं।
अनेन एतज्ज्ञायते-अयं महामंत्र: मंगलाचरणरूपेणात्र
संग्रहीतोऽपि अनादिनिधन:, न तु केनापि रचितो ग्रथितो वा।
उत्तर च णमोकारमंत्रकल्पे श्रीसकलकीर्तिभट्टारकै: महापंचगुरोर्नाम नमस्कारसुसम्भवम् महामंत्रं जगज्जेष्ठ-मनादिसिद्धमादिदम्२।।६३।।
महापंचगुरूणां पंचत्रिंशदक्षरप्रमम्।
उच्छ्वासैस्त्रिभिरेकाग्र-चेतसा भवहानये।।६८।।
श्रीमदुमास्वामिनापि प्रोक्तम्-
ये केचनापि सुषमाद्यरका अनन्ता, उत्सर्पिणी-प्रभृतय: प्रययुर्विवत्र्ता:।
तेष्वप्ययं परतरं प्रथितं पुरापि, लब्ध्वैनमेव हि गता: शिवमत्र लोका:४।।३।
यह महामंत्र सादि है अथवा अनादि ?
अथवा, मुद्रित मूल प्रति में (प्रथम आवृत्ति में) पाठान्तर है। जैसे-
जो सूत्र की आदि में सूत्रकत्र्ता के द्वारा देवता नमस्कार निबद्ध किया जाता है, वह निबद्धमंगल है और जो सूत्र की आदि में सूत्रकत्र्ता के द्वारा देवता नमस्कार किया जाता है-रचा जाता है, वह अनिबद्धमंगल है।
इसका अर्थ यह है– सूत्र ग्रंथ के प्रारंभ में ग्रंथकार जो देवता नमस्काररूप मंगल कहीं से संग्रहीत करते हैं, स्वयं नहीं रचते हैं वह तो निबद्धमंगल है और सूत्र के प्रारंभ में ग्रंथकत्र्ता के द्वारा जो देवता नमस्कार स्वयं रचा जाता है, वह अनिबद्धमंगल है। इससे यह ज्ञात होता है कि यह णमोकार महामंत्र मंगलाचरणरूप से यहाँ संग्रहीत होते हुए भी अनादिनिधन है, वह मंत्र किसी के द्वारा रचित या गूँथा हुआ नहीं है। प्राकृतिक- रूप से अनादिकाल से चला आ रहा है।
‘‘णमोकार मंत्रकल्प’’ में श्री सकलकीर्ति भट्टारक ने कहा भी हैै-
श्लोकार्थ– नमस्कार मंत्र में रहने वाले पाँच महागुरुओं के नाम से निष्पन्न यह महामंत्र जगत में ज्येष्ठ-सबसे बड़ा और महान है, अनादिसिद्ध है और आदि अर्थात् प्रथम है।।६३।।
पाँच महागुरुओं के पैंतीस अक्षर प्रमाण मंत्र को तीन श्वासोच्छ्वासों में संसार भ्रमण के नाश हेतु एकाग्रचित्त होकर सभी भव्यजनों को जपना चाहिए अथवा ध्यान करना चाहिए।।६८।।
श्रीमत् उमास्वामी आचार्य ने भी कहा है-
श्लोकार्थ– उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी आदि के जो सुषमा, दु:षमा आदि अनन्त युग पहले व्यतीत हो चुके हैं उनमें भी यह णमोकार मंत्र सबसे अधिक महत्त्वशाली प्रसिद्ध हुआ है। मैं संसार से बहिर्भूत (बाहर) मोक्ष प्राप्त करने के लिए उस णमोकार मंत्र को नमस्कार करता हूँ।।३।।
मैंने ‘सिद्धान्तचिन्तामणि टीका’ में सर्वत्र सूत्रों का विभाजन एवं समुदायपातनिका आदि बनाई हैं। यहाँ मैंने ‘समयसार’ ‘प्रवचनसार’ ‘पंचास्तिकाय’ ग्रंथों की ‘तात्पर्यवृत्ति’ टीका का अनुसरण किया है। श्री जयसेनाचार्य की टीका में सर्वत्र गाथासूत्रों की संख्या एवं विषयविभाजन से स्थल-अन्तरस्थल बने हुए हैं। उनकी टीका के अनुसार ही मैंने यहाँ स्थल-अन्तरस्थल विभाजित किये हैं।
सर्वत्र मंगलाचरण रूप में मैंने कहीं पद्य, कहीं गद्य का प्रयोग किया है। तीर्थ और विशेष स्थान की अपेक्षा से प्राय: वहाँ-वहाँ के तीर्थंकरों को नमस्कार किया है।
यहाँ पर उनके कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं-
जिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गत-गौतमस्वामिमुखकुण्डावतरित-पुष्पदंताचार्यादिविस्तारित-गंगाया: जलसदृशं ‘‘नद्या नवघटे भृतं जलमिव’’ इयं टीका सर्वजनमनांसि संतर्पिष्यत्येवेतिमया विश्वस्यते।अथाधुना श्रीमत्पुष्पदन्ताचार्यदेवविनिर्मिते गुणस्थानादिविंशतिप्ररूपणान्तर्गर्भितसत्प्ररूपणा-नामग्रंथे अधिकारशुद्धिपूर्वकत्वेन पातनिका व्याख्यानं विधीयते। तत्रादौ ‘णमो अरिहंताणं’ इति पंचनमस्कार-गाथामादिं कृत्वा सूत्रपाठक्रमेण गुणस्थानमार्गणा-प्रतिपादनसूचकत्वेन ‘एत्तो इमेसिं’ इत्यादिसूत्रसप्तकं। तत: चतुर्दशगुणस्थाननिरूपणपरत्वेन ‘‘संतपरूवणदाए’’ इत्यादि-षोडशसूत्राणि। तत: परं चतुर्दशमार्गणासु गुणस्थानव्यवस्था-व्यवस्थापन-मुख्यत्वेन ‘‘आदेसेण गदियाणुवादेण’’ इत्यादिना चतु:पञ्चाशदधिक-एकशतसूत्राणि सन्ति। एवं अनेकान्तरस्थलगर्भित-सप्त-सप्तत्यधिक-एकशतसूत्रै: एते त्रयो महाधिकारा भवन्तीति सत्प्ररूपणाया: व्याख्याने समुदायपातनिका भवति। अत्रापि प्रथममहाधिकारे ‘णमो’ इत्यादि मंगलाचरणरूपेण प्रथमस्थले गाथासूत्रमेकं। ततो गुणस्थानमार्गणा-कथनप्रतिज्ञारूपेण द्वितीयस्थले ‘एत्तो’ इत्यादि सूत्रमेकम्। ततश्च चतुर्दशमार्गणानां नामनिरूपणरूपेण तृतीयस्थले सूत्रद्वयं। तत: परं गुणस्थानप्रतिपादनार्थं अष्टानुयोगनामसूचनपरत्वेन चतुर्थस्थले ‘एदेसिं’ इत्यादिसूत्रत्रयं। एवं षट्खण्डागमग्रन्थराजस्य, सत्प्ररूपणाया: पीठिकाधिकारे चतुर्भिरन्तरस्थलै: सप्तसूत्रै: समुदायपातनिका सूचितास्ति। अथ श्रीमद्भगवद्धरसेनगुरुमुखादुपलब्धज्ञानभव्यजनानां वितरणार्थं पंचमकालान्त्य-वीरांगजमुनिपर्यंतं गमयितुकामेन पूर्वाचार्यव्यवहारपरंपरानुसारेण शिष्टाचारपरिपालनार्थं निर्विघ्नसिद्धान्त-शास्त्रपरिसमाप्त्यादिहेतो: श्रीमत्पुष्पदन्ताचार्येण णमोकारमहामन्त्रमंगलगाथा-सूत्रावतार: क्रियते-
णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व-साहूणं।।१।।
जिनेन्द्रदेव के मुखकमल से निकलकर जो गौतमस्वामी के मुखरूपी कुण्ड में अवतरित-गिरी है तथा पुष्पदन्त आचार्य आदि के द्वारा विस्तारित गंगाजल के समान ‘‘नदी से भरे हुए नये घड़े के जल सदृश’’ यह टीका सभी प्राणियों के मन को संतृप्त करेगी, ऐसा मेरा विश्वास है।
अब यहाँ श्रीमान् पुष्पदन्त आचार्यदेव द्वारा रचित गुणस्थान आदि बीस प्ररूपणाओं में अन्तर्गर्भित इस सत्प्ररूपणा नामक ग्रंथ में अधिकारशुद्धिपूर्वक पातनिका का व्याख्यान किया जाता है। उसमें सबसे पहले ‘‘णमो अरिहंताणं’’ इत्यादि इस पञ्च नमस्कार गाथा को आदि में करके सूत्र पाठ के क्रम से गुणस्थान, मार्गणा के प्रतिपादन की सूचना देने वाले ‘‘एत्तो इमेसिं’’ इत्यादि सात सूत्र हैं। उसके बाद चौदह गुणस्थानों के निरूपण की मुख्यता से ‘‘ओघेण अत्थि’’ इत्यादि सोलह सूत्र हैं। पुन: आगे चौदह मार्गणाओं में गुणस्थान व्यवस्था की मुख्यता से ‘‘आदेसेण गदियाणुवादेण’’ इत्यादि एक सौ चौवन (१५४) सूत्र हैं। इस प्रकार अनेक अन्तसर््थलों से गर्भित एक सौ सतहत्तर (१७७) सूत्रों के द्वारा ये तीन महाधिकार हो गए हैं। सत्प्ररूपणा के व्याख्यान में यह समुदायपातनिका हुई।
यहाँ भी प्रथम महाधिकार में ‘‘णमो’’ इत्यादि मंगलाचरण रूप से प्रथम स्थल में एक गाथा सूत्र है पुन: द्वितीय स्थल में गुणस्थान-मार्गणा के कथन की प्रतिज्ञा रूप से ‘‘एत्तो’’ इत्यादि एक सूत्र है और उसके बाद चौदह मार्गणाओं के नाम निरूपण रूप से तृतीय स्थल में दो सूत्र हैं। उसके आगे गुणस्थानों के प्रतिपादन हेतु आठ अनुयोग के नाम सूचना की मुख्यता से चतुर्थ स्थल में ‘एदेसिं’’ इत्यादि तीन सूत्र हैं।
इस प्रकार षट्खण्डागम ग्रंथराज की सत्प्ररूपणा के पीठिका अधिकार में चार अन्तरस्थलों के द्वारा सूत्रों में समुदायपातनिका सूचित-प्रदर्शित की गई है।
अब श्रीमत् भगवान धरसेनाचार्य गुरु के मुख से उपलब्ध ज्ञान को भव्यजनों में वितरित करने के लिए पंचमकाल के अन्त में वीरांगज मुनि पर्यन्त इस ज्ञान को ले जाने की इच्छा से, पूर्वाचार्यों की व्यवहार परम्परा के अनुसार, शिष्टाचार का परिपालन करने के लिए, निर्विघ्न सिद्धान्त शास्त्र की परिसमाप्ति आदि हेतु को लक्ष्य में रखते हुए श्रीमत्पुष्पदन्ताचार्य के द्वारा णमोकार महामंत्र मंगल गाथा सूत्र का अवतार किया जाता है-
णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।।१।।
अतिशय क्षेत्र महावीर जी में मैंने ‘तृतीय महाधिकार’ प्रारंभ किया था अत: श्री महावीर स्वामी को नमस्कार किया है।
यथा-
महावीरो जगत्स्वामी, सातिशायीति विश्रुत:।
तस्मै नमोऽस्तु मे भक्त्या, पूर्णसंयमलब्धये।।१।।
श्री वीरसेनाचार्य ने कहा है-
‘‘सुत्तमोदिण्णं अत्थदो तित्थयरादो, गंथदो गणहरदेवादोत्ति१।।
ये सूत्र अर्थप्ररूपणा की अपेक्षा से तीर्थंकर भगवान से अवतीर्ण हुए हैं और ग्रंथ की अपेक्षा श्री गणधर देव से अवतीर्ण हुए हैं।
अथवा ‘जिनपालित’ शिष्य को निमित्त कहा है।
श्री पुष्पदंताचार्य ने अपने भानजे ‘जिनपालित’ को दीक्षा देकर प्रारंभिक १७७ सूत्रों की रचना करके भूतबलि आचार्य के पास भेजा था। ऐसा ‘धवलाटीका’ में एवं श्रुतावतार में वर्णित है।
इस मंगलाचरण को सूत्र १ संज्ञा दी है। आगे द्वितीय सूत्र का अवतार हुआ है-
एत्तो इमेसिं चोद्दसण्हं जीवसमासाणं मग्गणट्ठदाए तत्थ इमाणि चोद्दस चेवट्ठाणाणि णादव्वाणि भवंति।।२।।
इस द्रव्यश्रुत और भावश्रुतरूप प्रमाण से इन चौदह गुणस्थानों के अन्वेषण रूप प्रयोजन के लिए यहाँ से चौदह ही मार्गणास्थान जानने योग्य हैं।
ऐसा कहकर पहले चौदह मार्गणाओं के नाम बताए हैं। यथा-गति, इंद्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञी और आहार ये चौदह मार्गणा हैं।
पुन: पांचवें सूत्र में कहा है-
इन्हीं चौदह गुणस्थानों का निरूपण करने के लिए आगे कहे जाने वाले आठ अनुयोगद्वार जानने योग्य हैंं।।५।।
इन आठों के नाम- १. सत्प्ररूपणा २. द्रव्यप्रमाणानुगम ३. क्षेत्रानुगम ४. स्पर्शनानुगम ५. कालानुगम ६. अन्तरानुगम ७. भावानुगम और ८. अल्पबहुत्वानुगम।
आगे प्रथम ‘सत्प्ररूपणा’ का वर्णन करते हुए ओघ और आदेश की अपेक्षा निरूपण करने को कहा है।
इसी में ओघ की अपेक्षा चौदह गुणस्थानों का वर्णन है और आगे चौदह मार्गणाओं का वर्णन करके उनमें गुणस्थानों को भी घटित किया है। मार्गणाओं के नाम ऊपर लिखे गये हैं।
गुणस्थानों के नाम- १. मिथ्यात्व २. सासादन ३. मिश्र ४. असंयतसम्यग्दृष्टि ५. देशसंयत ६. प्रमत्तसंयत ७. अप्रमत्तसंयत ८. अपूर्वकरण ९. अनिवृत्तिकरण १०. सूक्ष्मसांपराय ११. उपशांतकषाय १२. क्षीणकषाय १३. सयोगिकेवली और १४. अयोगिकेवली ये चौदह गुणस्थान हैं।
इस ग्रंथ में मैंने तीन महाधिकार विभक्त किये हैं। प्रथम महाधिकार में सात सूत्र हैं जो कि ग्रंथ की पीठिका-भूमिका रूप हैं। दूसरे महाधिकार सत्प्ररूपणा के अंतर्गत १६
सूत्रों में चौदह गुणस्थानों का वर्णन है एवं तृतीय महाधिकार में मार्गणाओं में गुणस्थानों की व्यवस्था करते हुए विस्तार से १५४ सूत्र लिए हैं।
इस प्रथम ग्रन्थ में प्रारंभ में पंच परमेष्ठियों के वर्णन में एक सुन्दर प्रश्नोत्तर धवला टीका में आया है जिसे मैंने जैसे का तैसा लिया है। यथा-
‘‘संपूर्णरत्नानि देवो न तदेकदेश इति चेत् ?
न, रत्नैकदेशस्य देवत्वाभावे समस्तस्यापि तदसत्त्वापत्ते:……। इत्यादि।
शंका-संपूर्णरत्न-पूर्णता को प्राप्त रत्नत्रय ही देव है, रत्नों का एकदेश देव नहीं हो सकता है ?
समाधान-ऐसा नहीं कहना, क्योेंकि रत्नत्रय के एकदेश में देवपने का अभाव होने पर उसकी संपूर्णता में भी देवपना नहीं बन सकता है।
शंका-आचार्य आदि में स्थित रत्नत्रय समस्त कर्मों का क्षय करने में समर्थ नहीं हो सकते, क्योंकि उसमें एकदेशपना ही है, पूर्णता नहीं है ?
समाधान-यह कथन समुचित नहीं है, क्योंकि पलालराशि-घास की राशि को जलाने का कार्य अग्नि के एक कण में भी देखा जाता है इसलिए आचार्य, उपाध्याय और साधु भी देव हैं१।’’
यह समाधान श्री वीरसेनाचार्य ने बहुत ही उत्तम बताया है।
प्रथम पुस्तक ‘सत्प्ररूपणाग्रंथ’ की टीका को पूर्ण करते समय मैंने उस स्थान का विवरण दे दिया है। यथा-
‘‘वीराब्दे द्वाविंशत्यधिकपंचविंशतिशततमे फाल्गुनशुक्लासप्तम्यां खिष्ट्राब्दे षण्णवत्यधि-वैâकोनविंशतिशततमे पंचविशे दिनांके द्वितीयमासि (२५-२-१९९६) राजस्थानप्रान्ते ‘पिडावानाम-ग्रामे’ श्री पाश्र्वनाथसमवसरणमंदिरशिलान्यासस्य मंगलावसरे एतत्सत्प्ररूपणाग्रन्थस्य ‘सिद्धान्त-चिन्तामणिटीकां’ पूरयन्त्या मया महान् हर्षोऽनुभूयते। टीकासहितोऽयं ग्रन्थो मम श्रुतज्ञानस्य पूत्र्यै भूयात्।’’
पुन: वीर निर्वाण संवत् पच्चीस सौ बाईसवें वर्ष में ही फाल्गुन शुक्ला सप्तमी तिथि को ईसवी सन् १९९६ के द्वितीय मास की २५ तारीख को राजस्थान प्रान्त के पिड़ावा ग्राम में श्रीपाश्र्वनाथ समवसरण मंदिर के शिलान्यास के मंगल अवसर पर इस ‘सत्प्ररूपणा’ ग्रंथ की ‘सिद्धान्तचिन्तामणिटीका’ को पूर्ण करते हुए मुझे अत्यंत हर्ष की अनुभूति हो रही है। टीका सहित यह सत्प्ररूपणा नामक ‘षट्खण्डागम’ ग्रंथ मेरे श्रुतज्ञान की पूर्ति के लिए होवे, यही मेरी प्रार्थना है। इसमें सूत्र १७७ तथा पृ. १६४ हैं।
यह द्वितीय ग्रंथ सत्प्ररूपणा के ही अंतर्गत है। इसमें सूत्र नहीं हैं।
‘‘संपहि संत-सुत्तविवरण-समत्ताणंतरं तेसिं परुवणं भणिस्सामो।’’
सत्प्ररूपणा के सूत्रों का विवरण समाप्त हो जाने पर अनंतर अब उनकी प्ररूपणा का वर्णन करते हैं-
शंका– प्ररूपणा किसे कहते हैं ?
समाधान– सामान्य और विशेष की अपेक्षा गुणस्थानों में, जीवसमासों में, पर्याप्तियों में, प्राणों में, संज्ञाओं में, गतियों में, इन्द्रियों में, कायों में, योगों में, वेदों में, कषायों में, ज्ञानों में, संयमों में, दर्शनों में, लेश्याओं में, भव्यों में, अभव्यों में, संंज्ञी-असंज्ञियों में, आहारी-अनाहारियों में और उपयोगों में पर्याप्त और अपर्र्याप्त विशेषणों से विशेषित करके जो जीवों की परीक्षा की जाती है, उसे प्ररूपणा कहते हैं। कहा भी है-
गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, चौदह मार्गणाएँ और उपयोग, इस प्रकार क्रम से बीस प्ररूपणाएँ कही गई हैं।
इनके कोष्ठक गुणस्थानों के एवं मार्गणाओं के बनाये गये हैं।
गुणस्थान १४ हैं, जीवसमास १४ हैं-एकेन्द्रिय के बादर-सूक्ष्म ऐसे २, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय ऐसे ३, पंचेन्द्रिय के संज्ञी-असंज्ञी ऐसे २, ये ७ हुए, इन्हें पर्याप्त-अपर्याप्त से गुणा करने पर १४ हुए। पर्याप्ति ६-आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन। प्राण १० हैं-पाँच इन्द्रिय, मनोबल, वचनबल, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास। संज्ञा ४ हैं-आहार, भय, मैथुन और परिग्रह। गति ४ हैं-नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति। इन्द्रियाँ ५ हैं-एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियजाति। काय ६ हैं-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रसकाय। योग १५ हैं-सत्यमनोयोग, असत्यमनोयोग, उभयमनोयोग, अनुभयमनोयोग, सत्यवचनयोग, असत्यवचनयोग, उभयवचनयोग, अनुभयवचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, आहारक,
आहारकमिश्र और कार्मणकाय योग। वेद ३ हैं- स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद।
कषाय ४ हैं- क्रोध, मान, माया, लोभ।
ज्ञान ८ हैं- मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय, केवलज्ञान, कुमति, कुश्रुत और विभंगावधि।
संयम ७ हैं- सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय, यथाख्यात, देशसंयम और असंयम।
दर्शन ४ हैं– चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन।
लेश्या ६ हैं– कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल।
भव्य मार्गणा २ हैं– भव्यत्व और अभव्यत्व।
सम्यक्त्व ६ हैं- औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक, मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र।
संज्ञी मार्गणा के २ भेद हैं- संज्ञी, असंज्ञी।
आहार मार्गणा २ हैं- आहार, अनाहार।
उपयोग के २ भेद हैं- साकार और अनाकार।
इस ग्रंथ को मैंने दो महाधिकारों में विभक्त किया है। इसमें कुल ५४५ कोष्ठक-चार्ट हैं। उदाहरण के लिए पाँचवें गुणस्थान का एक चार्ट दिया जा रहा है-
नं. १३ संयतासंयतों के आलाप
इनमें से संयतासंयत के कोष्ठक में-
गुणस्थान १ है- पाँचवां देशसंयत।
जीवसमास १ है- संज्ञीपर्याप्त। पर्याप्तियाँ छहों हैं, अपर्याप्तियाँ नहीं हैं। प्राण १० हैं। संज्ञायें ४ हैं। गति २ हैं-मनुष्य, तिर्यंच। इंद्रिय १ है-पंचेन्द्रिय। काय १ है-त्रसकाय। योग ९ हैं-४ मनोयोग, ४ वचनयोग, १ औदारिक काययोग। वेद ३ हैं। कषाय ४ हैं। ज्ञान ३ हैं-मति, श्रुत, अवधि। संयम १ है-संयमासंयम। दर्शन ३ हैं-केवलदर्शन के बिना। लेश्या द्रव्य से-वर्ण से छहों हैं, भावलेश्या शुभ ३ हैं। भव्यत्व १ है। सम्यक्त्व ३ हैं-औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक। संज्ञीमार्गणा १ है-संज्ञी। आहार मार्गणा १ है-आहारक। उपयोग २ हैं-साकार और अनाकार। यही सब चार्ट मेें दिखाया गया है। मेरे द्वारा लिखित पृ. ९० हैं।
इस प्रकार यह दूसरी पुस्तक का सार अतिसंक्षेप में बताया गया है।
इस गं्रथ में श्री भूतबलि आचार्य वर्णित सूत्र हैं अब यहाँ से संपूर्ण ‘षट्खण्डागम’ सूत्रों की रचना इन्हीं श्रीभूतबलि आचार्य द्वारा लिखित है। कहा भी है-
‘‘संपहि चोद्दसण्हं जीवसमासाणमत्थित्तमवगदाणं सिस्साणं तेसिं चेव परिमाणपडिबोहणट्ठं भूदबलियाइरियो सुत्तमाह१-’’
जिन्होंने चौदहों गुणस्थानों के अस्तित्व को जान लिया है, ऐसे शिष्यों को अब उन्हीं के चौदहों गुणस्थानों के-चौदहों गुणस्थानवर्ती जीवों के परिमाण-संख्या के ज्ञान को कराने के लिए श्रीभूतबलि आचार्य आगे का सूत्र कहते हैं-
इसमें प्रथम सूत्र-
‘‘दव्वपमाणाणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य।।१।।
द्रव्यप्रमाणानुगम की अपेक्षा निर्देश दो प्रकार का है, ओघ निर्देश और आदेशनिर्देश। ओघ-गुणस्थान और आदेश-मार्गणा इन दोनों की अपेक्षा से उन-उन में जीवों का वर्णन किया गया है।
इस ग्रंथ में भी मैंने दो अनुयोगद्वार लिये हैंं-द्रव्यप्रमाणानुगम और क्षेत्रानुगम। अत: इन दोनों में चार महाधिकार किये हैं। द्रव्यप्रमाणानुगम में प्रथम महाधिकार में १४ सूत्र हैं एवं द्वितीय में १७८ हैं, ऐसे कुल सूत्र १९२ हैं। क्षेत्रानुगम में तृतीय महाधिकार में ४ सूत्र एवं चतुर्थ महाधिकार में ८८ सूत्र हैं, ऐसे कुल सूत्र ९२ हैं। दोनों अनुयोगद्वारों में सूत्र १९२±९२·२८४ हैं। पृ. १३० हैं।
चौदह गुणस्थानों में जीवों की संख्या बतलाते हैं-
प्रथम गुणस्थान में जीव अनंतानंत हैं। द्वितीय गुणस्थान में ५२ करोड़ हैं। तृतीय गुणस्थान मेें १०४ करोड़ हैं। चतुर्थ गुणस्थान में सात सौ करोड़ हैंं। पाँचवें गुणस्थान में १३ करोड़ हैं।
प्रमत्तसंयत नाम के छठे गुणस्थान से लेकर अयोगकेवली नाम के चौदहवें गुणस्थान के महामुनि एवं अरहंत भगवान ‘संयत’ कहलाते हैं। उन सबकी संख्या मिलाकर ‘तीन कम नव करोड़’ है। धवला टीका में कहा है-
‘‘एवं परुविदसव्वसंजदरासिमेकट्ठे कदे अट्ठकोडीओ णवणउदिलक्खा णवणउदिसहस्स-णवसद-सत्ताणउदिमेत्तो होदि१।’’
इसी तृतीय पुस्तक में दूसरा एक और मत प्राप्त हुआ है-
‘‘एदे सव्वसंजदे एयट्ठे कदे सत्तरसद-कम्मभूमिगद-सव्वरिसओ भवंति। तेसिं पमाणं छक्कोडीओ णवणउइलक्खा णवणउदिसहस्सा णवसयछण्णउदिमेत्तं हवदि२।’’ सर्वसंयतों की संख्या छह करोड़, निन्यानवे लाख, निन्यानवे हजार, नव सौ छ्यानवे है।
इन दोनों मतों को श्री वीरसेनाचार्य ने उद्धृत किया है।
वर्तमान में प्रसिद्धि में ‘तीन कम नव करोड़’ संख्या ही है।
इन सर्वमुनियों को नमस्कार करके यहाँ इस ग्रंथ का विंâचित् सार दिया है। इसकी सिद्धान्तचिंतामणि टीका में मैंने अधिकांश गणित प्रकरण छोड़ दिया है, जो कि धवलाटीका में द्रष्टव्य है।
श्री वीरसेनाचार्य ने आकाश को क्षेत्र कहा है। आकाश का कोई स्वामी नहीं है, इस क्षेत्र की उत्पत्ति में कोई निमित्त भी नहीं है यह स्वयं में ही आधार-आधेयरूप है। यह क्षेत्र अनादिनिधन है और भेद की अपेक्षा लोकाकाश-अलोकाकाश ऐसे दो भेद हैं। इस प्रकार निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान से क्षेत्र का वर्णन किया है।
क्षेत्र में गुणस्थानवर्ती जीवों को घटित करते हुए कहा है-
‘‘ओघेण मिच्छाइट्ठी केवडि खेत्ते ? सव्वलोगे।।२।।
मिथ्यादृष्टि जीव कितने क्षेत्र में हैं ? सर्व लोक में हैं।।२।।
सासणसम्माइट्ठिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति केवडि खेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभाए।।३।।
सासादन सम्यग्दृष्टि से लेकर अयोगिकेवली पर्यंत कितने क्षेत्र में हैं ? लोक के असंख्यातवें भाग में हैं।।३।।
इसमें एक प्रश्न हुआ है-
लोकाकाश असंख्यातप्रदेशी है, उसमें अनंतानंत जीव वैâसे समायेंगे ?
यद्यपि लोक असंख्यात प्रदेशी है फिर भी उसमें अवगाहन शक्ति विशेष है जिससे उसमें अनंतानंत जीव एवं अनंतानंत पुद्गल समाविष्ट हैं। जैसे मधु से भरे हुए घड़े में उतना ही दूध भर दो, उसी में समा जायेगा१।
इस अनुयोगद्वार में स्वस्थान, समुद्घात और उपपाद ऐसे तीन भेदों द्वारा जीवों के क्षेत्र का वर्णन किया है।
इस ग्रंथ की पूर्ति मैंने मांगीतुंगी तीर्थ पर श्रावण कृ. १० को ईसवी सन् १९९६ में की है।
इस चतुर्थ ग्रंथ-पुस्तक में स्पर्शनानुगम एवं कालानुगम इन दो अनुयोगद्वारों का वर्णन है।
इन दोनों की सूत्र संख्या १८५±३४२·५२७ है।
स्पर्शनानुगम- इसमें भी मैंने गुणस्थान और मार्गणा की अपेक्षा दो महाधिकार किये हैं। यह स्पर्शन भूतकाल एवं वर्तमानकाल के स्पर्श की अपेक्षा रखता है। पूर्व में जिसका स्पर्श किया था और वर्तमान में जिसका स्पर्श कर रहे हैं, इन दोनों की अपेक्षा से स्पर्शन का कथन किया जाता है।
स्पर्शन में छह प्रकार के निक्षेप घटित किये हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावस्पर्शन।
‘तत्र स्पर्शनशब्द:’ नाम स्पर्शनं निक्षेप:, अयं द्रव्यार्थिकनयविषय:।
सोऽयं इति बुद्ध्या अन्यद्रव्येण सह अन्यद्रव्यस्य एकत्वकरणं स्थापनास्पर्शनं यथा घटपिठरादिषु अयं ऋषभोऽजित: संभवोऽभिनंदन: इति। एषोऽपि द्रव्यार्थिकनयविषय:१।’’
स्पर्शन शब्द नामस्पर्शन है। यह द्रव्यार्थिकनय का विषय है। यह वही है, ऐसी बुद्धि से अन्य द्रव्य के साथ अन्य द्रव्य का एकत्व करना स्थापनास्पर्शन निक्षेप है जैसे घट
आदि में ये ऋषभदेव हैं, अजितनाथ हैं, संभवनाथ हैं, अभिनंदननाथ हैं इत्यादि। यह भी द्रव्यार्थिक नय का विषय है, इत्यादि निक्षेपों का वर्णन है।
पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से प्ररूपणा करते हुए कहा है-
स्वस्थानस्वस्थान-वेदना-कषाय-मारणांतिक-उपपादगत मिथ्यादृष्टियों ने भूतकाल एवं वर्तमानकाल से सर्वलोक को स्पर्श किया है।
इसी प्रकार गुणस्थान और मार्गणाओं में जीवों के भूतकालीन, वर्तमानकालीन स्पर्शन का वर्णन किया है।
कालानुगम– इसमें भी गुणस्थान और मार्गणा की अपेक्षा दो महाधिकार कहे हैं। काल को नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव ऐसे चार भेद रूप से कहा है पुनश्च-‘नो आगमभावकाल’ से इस ग्रंथ में वर्णन किया है।
यह काल अनादि अनंत है, एक विध है, यह सामान्य कथन है। काल के भूत, वर्तमान और भविष्यत् की अपेक्षा तीन भेद हैं।
एक प्रश्न आया है-
स्वर्गलोक में सूर्य के गति की अपेक्षा नहीं होने से वहां मास, वर्ष आदि का व्यवहार वैâसे होगा ?
तब आचार्यदेव ने समाधान दिया है-
यहाँ के व्यवहार की अपेक्षा ही वहाँ पर ‘काल’ का व्यवहार है। जैसे जब यहाँ ‘कार्तिक’ आदि मास में आष्टान्हिक पर्व आते हैं, तब देवगण नंदीश्वर द्वीप आदि में पूजा करने पहुँच जाते हैं इत्यादि।
नाना जीव की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि का सर्वकाल है।।२।।
एकजीव की अपेक्षा किसी का अनादिअनंत है, किसी का अनादिसांत है, किसी का सादिसांत है। इनमें से जो सादि और सांत काल है, उसका निर्देश इस प्रकार है। एक जीव की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीव का सादिसांत काल जघन्य से अंतर्मुहूर्त है१।।३।।
वह इस प्रकार है-
कोई सम्यग्मिथ्यादृष्टि अथवा असंयतसम्यग्दृष्टि अथवा संयतासंयत अथवा प्रमत्तसंयतजीव परिणामों के निमित्त से मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ। सर्वजघन्य अंतर्मुहूर्त काल रह करके, फिर भी सम्यक्त्व मिथ्यात्व को अथवा असंयम के साथ सम्यक्त्व को अथवा संयमासंयम को अथवा अप्रमत्तभाव के साथ संयम को प्राप्त हुआ। इस प्रकार से प्राप्त होने वाले जीव के मिथ्यात्व का सर्वजघन्य काल होता है२।
इस प्रकार यह कालानुगम का संक्षिप्त सार दिखाया है।
इस गं्रथ की टीका मैंने मांंगीतुंगी क्षेत्र पर भाद्रपद शु. ३, वी.सं. २५२२, दिनाँक १५-९-१९९६ को लिखकर पूर्ण की है। इसमें पृ. १९० हैं।
इस ग्रंथ में अन्तरानुगम में ३९७ सूत्र हैं, भावानुगम में ९३ सूत्र हैं एवं अल्पबहुत्वानुगम में ३८२ सूत्र हैं। इस प्रकार ३९७±९३±३८२·८७२ सूत्र हैं।
अन्तरानुगम-इस ग्रंथ की सिद्धान्तचिन्तामणि टीका में मैंने दो महाधिकार विभक्त किये हैं। प्रथम महाधिकार में गुणस्थानों में अंतर का निरूपण है। द्वितीय महाधिकार में मार्गणाओं में अंतर दिखाया गया है।
नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से छहविध निक्षेप हैं। अंतर, उच्छेद, विरह, परिणामान्तरगमन, नास्तित्वगमन और अन्यभावव्यवधान, ये सब एकार्थवाची हैं। इस प्रकार के अन्तर के अनुगम को अन्तरानुगम कहते हैं।
एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त है।।३।।
जैसे एक मिथ्यादृष्टि जीव सम्यग्मिथ्यात्व, अविरतसम्यक्त्व, संयमासंयम और संयम में बहुत बार परिवर्तित होता हुआ परिणामों के निमित्त से सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ और वहाँ पर सर्वलघु अंतर्मुहूर्त काल तक सम्यक्त्व के साथ रहकर मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ। इस प्रकार सर्वजघन्य अंतर्मुहूर्त प्रमाण मिथ्यात्वगुणस्थान का अंतर प्राप्त हो गया।
मिथ्यात्व का उत्कृष्ट अंतर कुछ कम दो छ्यासठ सागरोपम काल है।।४।।
इन गं्रथों के स्वाध्याय में जो आल्हाद उत्पन्न होता है, वह असंख्यात गुणश्रेणी रूप से कर्मों की निर्जरा का कारण है। यहाँ तो मात्र नमूना प्रस्तुत किया जा रहा है।
भावानुगम-इसमें भी महाधिकार दो हैं। नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इनकी अपेक्षा यह भाव चार प्रकार का है। इसमें भी भावनिक्षेप के आगमभाव एवं नोआगमभाव ऐसे दो भेद हैं। नोआगमभाव नामक भावनिक्षेप के औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक ये पाँच भेद हैं।
असंयतसम्यग्दृष्टि में कौन सा भाव है ?
औपशमिकभाव भी है, क्षायिकभाव भी है और क्षायोपशमिक भाव भी है।।५।।
यहाँ सम्यग्दर्शन की अपेक्षा से ये भाव कहे हैं। यद्यपि यहाँ औदयिक भावों में से गति, कषाय आदि भी हैं किन्तु उनसे सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता इसलिए उनकी यहाँ विवक्षा नहीं है।
अल्पबहुत्वानुगम-इस अनुयोगद्वार के प्रारंभ में मैंने गद्यरूप में श्री महावीर स्वामी को नमस्कार किया है। इसमें भी दो महाधिकार विभक्त किये हैं।
इस अल्पबहुत्व में गुणस्थान और मार्गणाओं में सबसे अल्प कौन हैं ? और अधिक कौन हैं ? यही दिखाया गया है। यथा-
सामान्यतया-गुणस्थान की अपेक्षा से अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानों में उपशामक जीव प्रवेश की अपेक्षा परस्पर तुल्य हैं तथा अन्य सब गुणस्थानों के प्रमाण से अल्पहैं१।।२।।
और ‘मिथ्यादृष्टि सबसे अधिक अनंतगुणे हैें२।।१४।।
इस ग्रंथ में भी बहुत से महत्वपूर्ण विषय ज्ञातव्य हैं। जैसे कि-‘‘दर्शनमोहनीय का क्षपण करने वाले-क्षायिक सम्यक्त्व प्रगट करने वाले जीव नियम से मनुष्यगति में होते हैं।’’
जिन्होंने पहले तिर्यंचायु का बंध कर लिया है ऐसे जो भी मनुष्य क्षायिक सम्यक्त्व के साथ तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं उनके संयमासंयम नहीं होता है, क्योंकि भोगभूमि को छोड़कर उनकी अन्यत्र उत्पत्ति असंभव है३।’’
यह सभी सार रूप अंश मैंने यहाँ दिये हैं। अपने ज्ञान के क्षयोपशम के अनुसार इन-इन गं्रथों का स्वाध्याय श्रुतज्ञान की वृद्धि एवं आत्मा में आनंद की अनुभूति के लिए करना चाहिए।
इस ग्रंथ की टीका की पूर्ति मैंने अंकलेश्वर-गुजरात में मगसिर कृ. ७, वीर नि. सं. २५२३, दिनाँक २-१२-१९९६ को की है। इसमें पृ. १९३ हैं।
इस ग्रंथ में चूलिका के नौ भेद हैं-१. प्रकृतिसमुत्कीर्तन, २. स्थान समुत्कीर्तन ३. प्रथम महादण्डक ४. द्वितीय महादण्डक ५. तृतीय महादण्डक ६. उत्कृष्टस्थिति ७.
जघन्यस्थिति ८. सम्यक्त्वोत्पत्ति एवं ९. गत्यागती चूलिका।
इसमें क्रमश: सूत्रों की संंख्या-४६±११७±२±२±२±४४±४३±१६±२४३·५१५ है। पृ. १८७ हैं।
चूलिका-पूर्वोक्त आठों अनुयोगद्वारों के विषय-स्थलों के विवरण के लिए यह चूलिका नामक अधिकार आया है।
१. प्रकृतिसमुत्कीर्र्तन-इस चूलिका में ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकृतियों का वर्णन करके उनके १४८ भेदों का भी निरूपण किया है।
२. स्थानसमुत्कीर्तन-स्थान, स्थिति और अवस्थान ये तीनों एकार्थक हैं। समुत्कीर्तन, वर्णन और प्ररूपण इनका भी अर्थ एक ही है। स्थान की समुत्कीर्तना-स्थान समुत्कीर्तन है।
पहले प्रकृति समुत्कीर्तन में जिन प्रकृतियों का निरूपण कर आये हैं, उन प्रकृतियों का क्या एक साथ बंध होता है ? अथवा क्रम से होता है ? ऐसा पूछने पर इस प्रकार होता है। यह बात बतलाने के लिए यह स्थान समुत्कीर्तन है।
वह प्रकृतिस्थान मिथ्यादृष्टि के अथवा सासादन के, सम्यग्मिथ्यादृष्टि के, असंयतसम्यग्दृष्टि के, संयतासंयत के और संयत के होता है। ऐसे यहाँ छह स्थान ही विवक्षित हैं क्योंकि ‘संयत’ पद से छठे, सातवें, आठवें, नवमें, दशवें, ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थानवर्ती संयतों को लिया है। अयोगकेवली गुणस्थान में बंध का ही अभाव है अत: उन्हें नहीं लिया है।
जैसे ज्ञानावरण की पाँचों प्रकृतियों का बंध छहों स्थानों में अर्थात् दशवें गुणस्थान तक संयतों में होता है इत्यादि।
३. प्रथम महादण्डक-प्रथमोपशम सम्यक्त्व को ग्रहण करने के लिए अभिमुख मिथ्यादृष्टि जीवों के द्वारा बंधने वाली प्रकृतियों का ज्ञान कराने के लिए यहाँ तीन महादण्डकों की प्ररूपणा आई है।
इसमें प्रथम महादण्डक का कथन सम्यक्त्व के अभिमुख जीवों के द्वारा बध्यमान प्रकृतियों की समुत्कीर्तना करने के लिए हुआ है। विशेषता यह है कि-
‘‘एदस्सवगमेण महापावक्खयस्सुवलंभादो१।’’
क्योंकि इसके ज्ञान से महापाप का क्षय पाया जाता है।
४. द्वितीय महादण्डक-प्रकृतियों के भेद से और स्वामित्व के भेद से इन दोनों दण्डकों में भेद कहा गया है।
५. तृतीय महादण्डक-प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख ऐसा नीचे सातवीं पृथ्वी का नारकी मिथ्यादृष्टि जीव, पाँचों ज्ञानावरण, नवों दर्शनावरण, साता वेदनीय, मिथ्यात्व, अनंतानुबंधी आदि १६ कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा इन प्रकृतियों को बांधता है इत्यादि।
६. उत्कृष्ट कर्मस्थिति-कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति को बांधने वाला जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्व को नहीं प्राप्त करता है, इस बात का ज्ञान कराने के लिए कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति का निरूपण किया जा रहा है।
७. जघन्यस्थिति-उत्कृष्ट विशुद्धि के द्वारा जो स्थिति बंधती है, वह जघन्य होती है। इत्यादि का विस्तार से कथन है।
८. सम्यक्त्वोत्पत्ति चूलिका-जिन प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशों को बाँधता हुआ, जिन प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशों के द्वारा सत्त्वस्वरूप होते हुए और उदीरणा को प्राप्त होते हुए यह जीव सम्यक्त्व को प्राप्त करता है, उनकी प्ररूपणा की गई है।
‘‘प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करने वाला जीव पंचेन्द्रिय, संज्ञी, मिथ्यादृष्टि, पर्याप्त और सर्वविशुद्ध होता है२।।४।।’’
आगे-‘‘दर्शनमोहनीय कर्म का क्षपण करने के लिए आरंभ करता हुआ यह जीव कहाँ पर आरंभ करता है ? अढाई द्वीप समुद्रों में स्थित पंद्रह कर्मभूमियों में जहाँ जिस काल में जिनकेवली और तीर्थंकर होते हैं, वहाँ उस काल में आरंभ करता है१।।११।।’’
ऐसे दो नमूने प्रस्तुत किये हैं।
९. गत्यागती चूलिका-इसमें सम्यक्त्वोत्पत्ति के बाह्य कारणों को विशेष रूप से वर्णित किया है-
प्रश्न हुआ-‘‘तिर्यंच मिथ्यादृष्टि कितने कारणों से सम्यक्त्व उत्पन्न करते हैं ?।।२१।।
तीन कारणों से-कोई जातिस्मरण से, कितने ही धर्मोपदेश सुनकर, कितने ही जिनबिंबों के दर्शन से।।२२।।
पुन: प्रश्न होता है-जिनबिंब दर्शन प्रथमोपशम सम्यक्त्वोत्पत्ति में कारण वैâसे है ? उत्तर देते हैं-
‘‘जिणबिंबदंसणेण णिधत्तणिकाचिदस्स वि मिच्छत्तादिकम्मकलावस्स खयदंसणादो। तथा चोत्तंâ-
दर्शनेन जिनेन्द्राणां पापसंघातवुंâजरम्। शतधा भेदमायाति गिरिर्वङ्काहतो यथा२।।१।।’’
जिनप्रतिमाओं के दर्शन से निधत्त और निकाचित रूप भी मिथ्यात्वादि कर्मकलाप का क्षय देखा जाता है, जिससे जिनबिंब का दर्शन प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति में कारण देखा जाता है। कहा भी है-जिनेन्द्रदेवों के दर्शन से पापसंघातरूपी वुंâजरपर्वत के सौ-सौ टुकड़े हो जाते हैं, जिस प्रकार वङ्का के गिरने से पर्वत के सौ-सौ टुकड़े हो जाते हैं।
२१६ सूत्र की टीका में अन्य ग्रंथों के उद्धरण भी दिये गये हैं। नमूने के लिए प्रस्तुत हैं-
आत्मज्ञातृतया ज्ञानं, सम्यक्त्वं चरितं हि स:। स्वस्थो दर्शनचारित्रमोहाभ्यामनुपप्लुत:३।।
इस प्रथमखण्ड ‘जीवस्थान’ की छठी पुस्तक की टीका मैंने अपनी दीक्षाभूमि ‘‘माधोराजपुरा’’ राजस्थान में पूर्ण की है। उसमें मैंने संक्षेप में तीन श्लोक दिये हैं-
देवशास्त्रगुरुन् नत्वा, नित्य भक्त्या त्रिशुद्धित:।
षट्खण्डागमग्रंथोऽयं, वन्द्यते ज्ञानवृद्धये।।१।।
द्वित्रिपंचद्विवीराब्दे, फाल्गुनेऽसितपक्षके।
माधोराजपुराग्रामे, त्रयोदश्यां जिनालये।।२।।
नम: श्रीशांतिनाथाय, सर्वसिद्धिप्रदायिने।
यस्य पादप्रसादेन, टीकेयं पर्यपूर्यत।।३।।
मैंने शरदपूर्णिमा को वी.सं.२५२१ में हस्तिनापुर में यह टीका लिखना प्रारंभ किया था। मुझे प्रसन्नता है कि फाल्गुन कृष्णा १३, वी. नि. सं. २५२३, दि. ७-३-१९९७ को माधोराजपुरा में मैंने यह प्रथम खंड की टीका पूर्ण की है। यह टीका मांगीतुंगी यात्रा विहार के मध्य आते-जाते लगभग ३६ सौ किमी. के मध्य में मार्ग में अधिक रूप में लिखी गई है।
मैंने इसे सरस्वती देवी की अनुवंâपा एवं माहात्म्य ही माना है। इसमें स्वयं में मुझे ‘आश्चर्य’ हुआ है। जैसा कि मैंने लिखा है-
‘‘पुनश्च हस्तिनापुरतीर्थक्षेत्रे विनिर्मितकृत्रिमजंबूद्वीपस्य सुदर्शनमेर्वादिपर्वतामुपरि विराजमान-सर्वजिनबिंबानि मुहुर्मुहु: प्रणम्य यत् सिद्धान्तचिंतामणिटीकालेखनकार्यं एकविंशत्युत्तरपंचविंशतिशततमे मया प्रारब्धं, तदधुना मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्रस्य यात्राया: मंगलविहारकाले त्रयोविंशत्युत्तरपंचविंशतिशततमे वीराब्दे मार्गे एव निर्विघ्नतया जिनदेवकृपाप्रसादेन महद्हर्षोल्लासेन समाप्यते। एतत् सरस्वत्या देव्य: अनुवंâपामाहात्म्यमेव विज्ञायते, मयैव महदाश्चर्यं प्रतीयते१।’’
इस खंड में कुल सूत्र संख्या १७७±२८४±५२७±८७२±५१५·२३७५ है।
मेरे द्वारा लिखित पेजों की संख्या १६४±९०±१३१±१९०±१९३±१८७·९५५ है।
इस प्रकार ‘जीवस्थान’ नामक प्रथम खण्ड (अंतर्गत छह पुस्तकों) का यह संक्षिप्त सार मैंने लिखा है।
इसे प्राकृत भाषा में ‘खुद्दाबंध’ कहते हैं एवं संस्कृत भाषा में ‘क्षुद्रकबंध’ नाम है।
इसे क्षुद्रक बंध कहने का अभिप्राय यह है कि-
आगे स्वयं भूतबलि आचार्य ने ‘तीस हजार’ सूत्रों में ‘महाबंध’ नाम से छठा खण्ड स्वतंत्र बनाया है इसीलिए १५९४ सूत्रों में रचित यह ग्रंथ ‘क्षुद्रकबंध’ नाम से सार्थक है।
इस ग्रंथ की टीका को मैंने ‘पद्मपुरा’ तीर्थ पर प्रारंभ किया था अत: मंगलाचरण में श्रीपद्मप्रभ भगवान को नमस्कार किया है। यथा-
इस खण्ड में जीवों की प्ररूपणा स्वामित्वादि ग्यारह अनुयोगों द्वारा गुणस्थान विशेषण को छोड़कर मार्गणा स्थानों में की गई है। इन ग्यारह अनुयोग द्वारों के नाम-१.एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व २. एक जीव की अपेक्षा काल ३. एक जीव की अपेक्षा अन्तर ४. नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय ५. द्रव्यप्रमाणानुगम ६. क्षेत्रानुगम ७. स्पर्शनानुगम ८. नाना जीवों की अपेक्षा काल ९. नाना जीवों की अपेक्षा अन्तर १०. भागाभागानुगम और ११. अल्पबहुत्वानुगम। अंत में ग्यारहों अनुयोगद्वारों की चूलिका रूप से ‘महादण्डक’ दिया गया है। यद्यपि इसमें अनुयोगद्वारों की अपेक्षा ११ अधिकार ही हैं फिर भी प्रारंभ में प्रस्तावना रूप में ‘बंधक सत्त्वप्ररूपणा’ और अंत में चूलिका रूप में महादण्डक ऐसे १३ अधिकार भी कहे जा सकते हैं।
बंधक सत्त्वप्ररूपणा-इसमें ४३ सूत्र हैं। जिनमें चौदह मार्गणाओं के भीतर कौन जीव कर्मबंध करते हैं और कौन नहीं करते, यह बतलाया गया है।
१. एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व-इस अधिकार में मार्गणाओं संबंधी गुण व पर्याय कौन से भावों से प्रगट होते हैं, इत्यादि विवेचन है।
२. एक जीव की अपेक्षा काल-इस अनुयोगद्वार में प्रत्येक गति आदि मार्गणा में जीव की जघन्य और उत्कृष्ट कालस्थिति का निरूपण किया गया है।
३. एक जीव की अपेक्षा अंतर-एक जीव का गति आदि मार्गणाओं के प्रत्येक अवान्तर भेद से जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल-विरहकाल कितने समय का होता है ?
४. नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय-भंग-प्रभेद, विचय-विचारणा, इस अधिकार में भिन्न-भिन्न मार्गणाओं में जीव नियम से रहते हैं या कभी रहते हैं या कभी नहीं भीरहते हैं, इत्यादि विवेचना है।
५. द्रव्यप्रमाणानुगम-भिन्न-भिन्न मार्गणाओं में जीवों का संख्यात, असंख्यात और अनंत रूप से अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी आदि काल प्रमाणों की अपेक्षा वर्णन है।
६. क्षेत्रानुगम-सामान्यलोक, अधोलोक, ऊध्र्वलोक, तिर्यक्लोक और मनुष्यलोक, इन पाँचों लोकों के आश्रय से स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, सात समुद्घात और उपपाद की अपेक्षा वर्तमान क्षेत्र की प्ररूपणा की गई है।
७. स्पर्शनानुगम-चौदह मार्गणाओं में सामान्य आदि पाँचों लोकों की अपेक्षा वर्तमान और अतीतकाल के निवास को दिखाया है।
८. नाना जीवों की अपेक्षा कालानुगम-नाना जीवों की अपेक्षा अनादि अनंत, अनादिसांत, सादि अनंत और सादि सान्त काल भेदों को लक्ष्य करके जीवों की काल प्ररूपणा की गई है।
९. नाना जीवों की अपेक्षा अन्तरानुगम-मार्गणाओं में नाना जीवों की अपेक्षा बंधकों के जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल का निरूपण किया गया है।
१०. भागाभागानुगम-इसमें मार्गणाओं के अनुसार सर्व जीवों की अपेक्षा बंधकों के भागाभाग का वर्णन है।
११. अल्पबहुत्वानुगम-चौदह मार्गणाओं के आश्रय से जीवसमासों का तुलनात्मक प्रमाण प्ररूपित किया है।
अनन्तर चूलिका रूप ‘महादण्डक’ अधिकार में गर्भोपक्रांतिक मनुष्य पर्याप्त से लेकर निगोद जीवों तक के जीवसमासों का ‘अल्पबहुत्व’ निरूपित है।
इस प्रकार क्रमश: इस द्वितीय खण्ड में सूत्रों की संख्या-४३±९१±२१६±१५१±२३±१७१±१२४±२७४±५५±६८±८८±२०५±७९·१५९४ है।
मेरे द्वारा सिद्धांतचिंतामणि टीका में पृष्ठ संख्या-२८५ है।
महत्त्वपूर्ण विषय-इस ग्रंथ में एक महत्त्वपूर्ण विषय आया है, जिसे यहाँ उद्धृत किया जा रहा है-
‘‘बादरणिगोदपदिट्ठिदअपदिट्ठिदाणमेत्थ सुत्ते वणप्फदिसण्णा किण्ण णिद्दिट्ठा ?
गोदमो एत्थ पुच्छेयत्वो। अम्हेहि गोदमो बादरणिगोदपदिट्ठिदाणं वणप्फदिसण्णं णेच्छदि त्ति तस्स अहिप्पाओ कहिओ१।’’
शंका-वनस्पति नामकर्म के उदय से संयुक्त जीवों के वनस्पति संज्ञा देखी जाती है। बादरनिगोद प्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित जीवों को यहाँ सूत्र में ‘वनस्पतिसंज्ञा’ क्यों नहीं निर्दिष्ट की ?
समाधान-‘गौतम गणधर से पूछना चाहिए।’ गौतम गणधरदेव बादर निगोद प्रतिष्ठित जीवों की वनस्पति संज्ञा नहीं मानते। हमने यहाँ उनका अभिप्राय व्यक्त किया है।
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जहाँ सूत्रों में जैन ग्रंथों में दो मत आये हैं, वहाँ टीकाकारों ने अपना अभिमत न देकर दोनों ही रख दिये हैं।
इस ग्रंथ की टीका का समापन मैंने हस्तिनापुर में ‘रत्नत्रयनिलय वसतिका’ में मगसिर शुक्ला त्रयोदशी, वीर नि. संवत् २५२४, दिनाँक-१२-१२-१९९७ को पूर्ण की है।
उसकी संक्षिप्त प्रशस्ति इस प्रकार है-
वीराब्दे दिग्द्विखद्वयंके, शांतिनाथस्य सन्मुखे। रत्नत्रयनिलयेऽस्मिन्, हस्तिनागपुराभिधे।।१।।
षट्खण्डागमग्रंथेऽस्मिन्, खण्डद्वितीयकस्य हि। क्षुद्रकबंधनाम्नोऽस्य, टीकेयं पर्यपूर्यत।।२।।
गणिन्या ज्ञानमत्येयं, टीकाग्रन्थश्च भूतले। जीयात् ज्ञानद्र्धये भूयात् भव्यानां मे च संततम्।।३।।
इस तृतीय खण्ड में नाम के अनुसार ही बंध के स्वामी के बारे में विचार किया गया है। यथा-
‘‘जीवकम्माणं मिच्छत्तासंजमकसायजोगेहि एयत्तपरिणामो बंधो१।’’
जीव और कर्मों का मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योगों से जो एकत्व परिणाम होता है, वह बंध है और बंध के वियोग को मोक्ष कहते हैं।
बंध के स्वामित्व के विचय-विचारणा, मीमांसा और परीक्षा ये एकार्थक शब्द हैं।
वर्तमान में जो साधु या विद्वान् मिथ्यात्व को बंध में ‘अविंâचित्कर’ कहते हैं उन्हें इन षट्खण्डागम की पंक्तियों पर ध्यान देना चाहिए। अनेक स्थलों पर आचार्यों ने कहा है-‘‘मिच्छत्तासंजमकसायजोगभेदेण चत्तारि मूलपच्चया२।’’ मिथ्यात्व, असंयम कषाय और योग ये चार बंध के मूलप्रत्यय-मूलकारण हैं।
यहाँ भी गुणस्थानों में बंध के स्वामी का विचार करके मार्गणाओं में वर्णन किया गया है।
सूत्रों में बंध-अबंध का प्रश्न करके उत्तर दिया है। यथा-‘‘पाँच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, यश:कीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अंतराय इनका कौन बंधक है और कौन अबंधक है ?३।।५।।
सूत्र में ही उत्तर दिया है-
‘‘मिथ्यादृष्टि से लेकर सूक्ष्मसांपरायिक शुद्धसंयत उपशमक व क्षपक तक पूर्वोक्त ज्ञानावरणादि प्रकृतियों के बंधक हैं। सूक्ष्मसांपरायिक काल के अंतिम समय में जाकर इन प्रकृतियों का बंध व्युच्छिन्न होता है। ये बंधक हैं, शेष अबंधक हैं४।।६।।
यहाँ पाँचवें प्रश्नवाचक सूत्र में टीकाकार ने इस सूत्र को देशामर्शक मानकर तेईस पृच्छायें की हैं-
१. यहाँ क्या बंध की पूर्व में व्युच्छित्ति होती है ?
२. क्या उदय की पूर्व में व्युच्छित्ति होती है ?
३. या क्या दोनों की साथ में व्युच्छित्ति होती है ?
४. क्या अपने उदय के साथ इनका बंध होता है ?
५. क्या पर प्रकृतियों के उदय के साथ इनका बंध होता है ?
६. क्या अपने और पर दोनों के उदय के साथ इनका बंध होता है ?
७. क्या सांतर बंध होता है ?
८. क्या निरंतर बंध होता है ?
९. या क्या सांतर-निरंतर बंध होता है ?
१०. क्या सनिमित्तक बंध होता है ?
११. या क्या अनिमित्तक बंध होता है?
१२. क्या गति संयुक्तबंध होता है ?
१३. या क्या गति संयोग से रहित बंध होता है ?
१४. कितनी गति वाले जीव स्वामी हैं ?
१५. और कितनी गति वाले स्वामी नहीं हैं ?
१६. बंधाध्वान कितना है-बंध की सीमा किस गुणस्थान से किस गुणस्थान तक है ?
१७. क्या अंतिम समय में बंध की व्युच्छित्ति होती है ?
१८. क्या प्रथम समय में बंध की व्युच्छित्ति होती है ?
१९. या अप्रथम अचरिम समय में बंध की व्युच्छित्ति होती है ?
२०. क्या बंध सादि है ?
२१. या क्या अनादि है ?
२२. क्या बंध ध्रुव ही होता है ?
२३. या क्या अध्रुव होता है ?
इस प्रकार ये २३ पृच्छायें पूछी गर्इं इस पृच्छा में अंतर्भूत हैं, ऐसा जानना चाहिए।
पुन: इनका उत्तर दिया गया है।
इस प्रकार इस ग्रन्थ में कुल ३२४ सूत्र हैं।
इस ग्रंथ की संस्कृत टीका मैंने मार्गशीर्ष कृ. १३ को (दिनाँक १२-१२-९७) हस्तिनापुर में प्रारंभ की थी। उस समय ‘श्री ऋषभदेव समवसरण श्रीविहार’ की योजना बनाई थी।
भगवान ऋषभदेव का धातु का एक सुंदर ८’²८’ पुâट का समवसरण बनवाया गया था। इसके उद्घाटन की तैयारियाँ चल रही थीं। इसी संदर्भ में मैंने मंगलाचरण में तीन श्लोक लिखे थे। यथा-
सिद्धान् नष्टाष्टकर्मारीन्, नत्वा स्वकर्महानये। बंधस्वामित्वविचयो, ग्रंथ: संकीत्र्यते मया।।१।।
श्रीमत्-ऋषभदेवस्य, श्रीविहारोऽस्ति सौख्यकृत्। जगत्यां सर्वजीवाना-मतो देव! जयत्विह।।२।।
यास्त्यनन्तार्थगर्भस्था, द्रव्यभावश्रुतान्विता। सापि सूत्रार्थयुङ्मान्ये! श्रुतदेवि! प्रसीद न:।।३।।
पुन: दिल्ली में मैंने द्वि. ज्येष्ठ शु. ५ श्रुतपंचमी वीर नि.सं. २५२५ को (दि. १८-६-१९९९ को) डेढ़ वर्ष में प्रीतविहार में श्रीऋषभदेव कमलमंदिर में पूर्ण किया है। इसमें मेरे लिखे पृ. २३० हैं।
इस गं्रथ के अंत में मैंने ध्यान करने के लिए १४८ कर्मप्रकृतियों से विरहित १४८ सूत्र बनाये हैं। यथा-
‘‘मतिज्ञानावरणीयकर्मरहितोऽहं शुद्धचिन्मयचिन्तामणिस्वरूपोऽहम् ।।१।।
पूर्णता का अंतिम श्लोक-
ग्रन्थोऽयं बंधस्वामित्व-विचयो मंगलं क्रियात्।
श्री शांतिनाथतीर्थेश:, कुर्यात् सर्वत्र मंगलम् ।।८।।
इस प्रकार संक्षेप में इस तृतीय खण्ड का सार दिया है।
इस चतुर्थ और पंचम खण्ड में जो विषय विभाजित हैं, उनका विवरण इस प्रकार है- अग्रायणीय पूर्व के अर्थाधिकार चौदह हैं-१. पूर्वांत २. अपरान्त ३. ध्रुव ४. अधु्रव ५. चयनलब्धि ६. अध्रुवसंप्रणिधान ७. कल्प ८. अर्थ ९. भौमावयाद्य, १०. कल्पनिर्याण ११. अतीतकाल १२. अनागतकाल १३. सिद्ध और १४. बुद्ध१।
यहाँ ‘चयनलब्धि’ नाम के पाँचवें अधिकार में ‘महाकर्म प्रकृतिप्राभृत’ संगृहीत है। उसमें ये चौबीस अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं। १. कृति २. वेदना ३. स्पर्श ४. कर्म ५. प्रकृति ६. बंधन ७. निबंधन ८. प्रक्रम ९. उपक्रम १०. उदय ११. मोक्ष १२. संक्रम १३. लेश्या १४. लेश्याकर्म १५. लेश्या परिणाम १६. सातासात १७. दीर्घ-ह्रस्व १८. भवधारणीय १९. पुद्गलात्त २०. निधत्तानिधत्त २१. निकाचितानिकाचित २२. कर्मस्थिति २३. पश्चिमस्वंâध और २४. अल्पबहुत्व२।
इन चौबीस अनुयोगद्वारों को षट्खण्डागम की मुद्रित नवमी पुस्तक से लेकर सोलहवीं तक में ‘वेदना’ और ‘वर्गणा’ नाम के दो खंडों में विभक्त किया है। वेदना खण्ड में ९, १०, ११ और १२ ऐसे चार ग्रंथ हैं।
इस नवमी पुस्तक में मात्र प्रथम ‘कृति’ अनुयोग द्वार ही वर्णित है। छियालिसवें सूत्र में कृति के सात भेद किये हैं-१. नामकृति २. स्थापनाकृति ३. द्रव्यकृति ४. गणनकृति ५. ग्रन्थकृति ६. करणकृति और ७. भावकृति।
इन कृतियों का विस्तार से वर्णन करके अंत में कहा है कि-यहाँ ‘गणनकृति’ से प्रयोजन है१।
इस गं्रथ में श्रीभूतबलि आचार्य ने ‘णमो जिणाणं’ आदि गणधरवलय मंत्र लिए हैं जो कि श्री गौतमस्वामी द्वारा रचित हैं। यहाँ ‘‘णमो जिणाणं’’ से लेकर ‘‘णमो वड्ढमाणबुद्धरिसिस्स’’ चवालीस मंत्र लिए हैं। अन्यत्र ‘पाक्षिक प्रतिक्रमण’ एवं ‘प्रतिक्रमणग्रन्थत्रयी’ टीकागं्रथ तथा भक्तामर स्तोत्र ऋद्धिमंत्र आदि में अड़तालीस मंत्र लिये गये हैं।
इन ४८ मंत्रों को ‘श्रीगौतमस्वामी’ द्वारा रचित कृतियों में इसी ग्रंथ में दिया गया है।
इस नवमी पुस्तक में टीकाकार श्री वीरसेनाचार्य ने बहुत ही विस्तार से इन मंत्रों का अर्थ स्पष्ट किया है। अनंतर ‘सिद्धान्त ग्रंथों’ के स्वाध्याय के लिए द्रव्यशुद्धि, क्षेत्रशुद्धि, कालशुद्धि और भावशुद्धि का विवेचन विस्तार से किया है।
इस ग्रंथ की ‘सिद्धान्तचिन्तामणि’ टीका मैंने शरदपूर्णिमा वी.नि.सं. २५२५ को (२४-१०-९९ को) दिल्ली में राजा बाजार के दिगम्बर जैन मंदिर में प्रारंभ की थी।
श्री गौतमस्वामी के मुखकमल से विनिर्गत गणधरवलय मंत्रों की टीका लिखते समय मुझे एक अपूर्व ही आल्हाद प्राप्त हुआ है। इसकी पूर्णता मैंने आश्विन शु.१५-शरदपूर्णिमा वीर.नि.सं. २५२६ को (१३-१०-२००० को) दिल्ली में ही प्रीतविहार-श्रीऋषभदेव कमलमंदिर में की है। जिसका अंतिम श्लोक निम्नलिखित है-
अहिंसा परमो धर्मो, यावद् जगति वत्स्र्यते।
यावन्मेरुश्च टीकेयं, तावन्नंद्याच्च न: श्रियै।।९।।
इसमें ७६ सूत्र हैं एवं मेरे द्वारा लिखित पृ. १४० हैं।
इस प्रकार नवमी पुस्तक का विंâचित् सार लिखा गया है।
इस ग्रन्थ में ‘वेदना’ नाम का द्वितीय अनुयोगद्वार है। इस वेदनानुयोग द्वार के १६ भेद हैं- १. वेदनानिक्षेप २. वेदनानयविभाषणता ३. वेदनानामविधान ४. वेदनाद्रव्यविधान ५. वेदनाक्षेत्रविधान ६. वेदनाकालविधान ७. वेदनाभावविधान ८. वेदनाप्रत्ययविधान ९. वेदनास्वामित्वविधान १०. वेदनावेदनाविधान ११. वेदनागतिविधान १२. वेदनाअनंतरविधान १३. वेदनासन्निकर्षविधान १४. वेदनापरिमाणविधान १५. वेदनाभागाभागविधान और १६. वेदनाअल्पबहुत्वविधान२।
इस दशवीं पुस्तक में प्रारंभ के ५ अनुयोग द्वारों का वर्णन है। सूत्र संख्या ३२३ है। आगे ११वीं और १२वीं पुस्तक में सभी वेदनाओं का वर्णन होने से इस तृतीय खण्ड को वेदनाखण्ड कहा है।
यहाँ प्रथम ‘वेदना निक्षेप’ के भी नामवेदना, स्थापनावेदना, द्रव्यवेदना और भाववेदना ऐसे निक्षेप की अपेक्षा चार भेद हैं।
दूसरे ‘वेदनानयविभाषणता’ में नयों की अपेक्षा वेदना को घटित किया है। तीसरे ‘वेदनानामविधान’ के ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों की अपेक्षा आठ भेद कर दिये हैं१।
वेदना द्रव्यविधान के तीन अधिकार किये हैं-पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व। इस ग्रंथ में इनका विस्तार से वर्णन है।
इस ग्रंथ में वेदनाक्षेत्रविधान के भी पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व ऐसे तीन भेद किये हैं।
आश्विन शु. १५-शरदपूर्णिमा (१३-१०-२०००) को दिल्ली में मैंने टीका लिखना प्रारंभ किया था पुन: इस ग्रंथ की टीका का समापन शौरीपुर भगवान नेमिनाथ की जन्मभूमि में वैशाख कृ. ७, वी.सं. २५२८, दिनाँक ३-५-२००२ को किया है। मेरे द्वारा लिखित पृ. संख्या ११८ हैं।
इस प्रकार संक्षिप्त सार दिया गया है।
इस पुस्तक की टीका का प्रारंभ शौरीपुर में किया है। इस ११वें ग्रंथ में वेदनाकाल विधान और वेदनाभाव विधान का वर्णन है। सूत्र इसमें ५९३ हैं और पृ. संख्या २१२ है। इसके पूर्वाद्र्ध की पूर्णता ‘‘तीर्थंकर ऋषभदेव तपस्थली प्रयाग’’ श्री ऋषभदेव दीक्षा तीर्थ पर की है एवं उत्तरार्ध को अर्थात् पूरे ग्रंथ का समापन पावापुरी-भगवान महावीर की निर्वाणभूमि पर श्रावण शु. ७, वी.सं. २५२९, दिनाँक ४-८-२००३ को किया है।
इस १२वीं पुस्तक की टीका लेखन का प्रारंभ मैंने श्रावण कृ. १०, वीर निर्वाण संवत् २५२९ (दिनाँक-२४-७-२००३) को कुण्डलपुर में प्रारंभ की। इस ग्रन्थ में वेदनाअनुयोगद्वार के १६ भेदों में से ८वें से लेकर १६वें तक भेद वर्णित हैं-८. वेदनाप्रत्ययविधान ९. वेदनास्वामित्वविधान १०. वेदनावेदनाविधान ११. वेदनागतिविधान १२. वेदना-अनंतरविधान १३. वेदना-सन्निकर्षविधान १४. वेदनापरिमाणविधान १५. वेदनाभागाभागविधान और १६. वेदनाअल्पबहुत्वविधान।
इन नव वेदना अनुयोग द्वारों का इस गं्रथ में विस्तार से वर्णन है। इसमें सूत्र संख्या ५३३ है।
‘वेदनाप्रत्ययविधान’ में जीवहिंसा, असत्य आदि प्रत्यय-निमित्त से ज्ञानावरण आदि कर्मों की वेदना होती है। जैसे कि-मुसावादपच्चए।।३।।
……मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और प्रमाद से उत्पन्न वचनसमूह असत् वचन है इत्यादि।
ऐसे संपूर्ण वेदनाओं का वर्णन किया गया है।
इसमें सूत्र ५३३ हैं, पृ. १७५ हैं।
इस ग्रंथ की टीका राजगृही में मार्गशीर्ष शु. १३, वीर निर्वाण संवत् २५३० में पूर्ण की। मैंने राजगृही सिद्धक्षेत्र पर ‘‘भगवान पाश्र्वनाथ तृतीय सहस्राब्दि महोत्सव’’ मनाने के लिए प्रेरणा दी। इस संदर्भ में मैंने लिखा है-
पौषकृष्णैकादश्यां तिथौ काशीदेशे वाराणस्यां नगर्यां महानृपते: अश्वसेनस्य महाराज्ञ्य: वामादेव्यो गर्भात् भगवान् पाश्र्वनाथो जज्ञे। उग्रवंशशिरोमणि: मरकतमणिसन्निभ: त्रयस्त्रिंशत्तमस्तीर्थंकरोऽयं अस्मात् वीरनिर्वाणसंवत्सरात् द्विसहस्र-अष्टशताशीतिवर्षपूर्वं अवततार।
उत्तंâ च तिलोयपण्णत्तिग्रंथे-अट्ठत्तरिअधियाए वेसदपरिमाणवासअदिरित्ते।
पासजिणुप्पत्तीदो उप्पत्तीवड्ढमाणस्स ।।५७७।।
भगवान पाश्र्वनाथ की उत्पत्ति के २७८ वर्ष बाद वर्धमान भगवान की उत्पत्ति हुई है तथा भगवान महावीर को जन्म लिये २६०२ वर्ष हुए अत: २७८ में वह संख्या जोड़ देने से २७८±२६०२·२८८० वर्ष हो गये अत: मैंने यह घोषणा की थी कि आगे आने वाले पौष कृ. ११ (६-१-२००५) को भगवान पाश्र्वनाथ का ‘तृतीय सहस्राब्दि महोत्सव’ प्रारंभ करें पुन: एक वर्ष तक सारे भारत में भगवान पाश्र्वनाथ का गुणगान करें।
इस प्रकार इस बारहवीं पुस्तक का विषय संक्षेप में लिखा है।
नवमीं पुस्तक में चयनलब्धि के ‘महाकर्मप्रकृतिप्राभृत’ के ‘कृति, वेदना, स्पर्श, कर्म, प्रकृति आदि चौबीस अनुयोगद्वार कहे गये हैं। वेदना खण्ड में मात्र ‘कृति और वेदना’ ये दो अनुयोगद्वार आये हैं। शेष २२ अनुयोगद्वार इस ‘वर्गणाखण्ड’ नाम के पांचवें खण्ड में वर्णित हैं। इस खण्ड में भी १३वीं, १४वीं, १५वीं एवं १६वीं ऐसी चार पुस्तवेंâ हैं। इस खण्ड में ‘बंधनीय’ का आलंबन लेकर वर्गणाओं का सविस्तार वर्णन किया गया है अत: इसे ‘वर्गणाखण्ड’ नाम दिया है।
इस ग्रंथ की टीका मैंने वीर निर्वाण संवत् २५३०, पौष कृ. ११ (दिनाँक-१९-१२-२००३) को भगवान महावीर की जन्मभूमि कुण्डलपुर में प्रारंभ की।
इस तेरहवीं पुस्तक में ‘स्पर्श, कर्म और प्रकृति’ इन तीन अनुयोगद्वारों का वर्णन है। सूत्र संख्या २०६ है।
इसमें ‘स्पर्श अनुयोगद्वार’ के सोलह अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं-स्पर्शनिक्षेप, स्पर्शनयविभाषणता, स्पर्शनामविधान, स्पर्शद्रव्यविधान, स्पर्शक्षेत्रविधान, स्पर्शकालविधान, स्पर्शभावविधान, स्पर्शप्रत्ययविधान, स्पर्शस्वामित्वविधान, स्पर्शस्पर्शविधान, स्पर्शगतिविधान, स्पर्शअनंतरविधान, स्पर्शसन्निकर्षविधान, स्पर्शपरिमाणविधान, स्पर्शभागाभागविधान और स्पर्शअल्पबहुत्व।२
पुनश्च प्रथम भेद ‘स्पर्शनिक्षेप’ के १३ भेद किये हैं-नामस्पर्श, स्थापनास्पर्श, द्रव्यस्पर्श, एकक्षेत्रस्पर्श, अनंतरक्षेत्रस्पर्श, देशस्पर्श, त्वक्स्पर्श, सर्वस्पर्श, स्पर्शस्पर्श, कर्मस्पर्श, बंधस्पर्श, भव्यस्पर्श और भावस्पर्श३।
इस तेरहवें गं्रथ में सूत्र की टीका के अनंतर मैंने प्राय: ‘तात्पर्यार्थ’ दिया है। जैसे कि-स्पर्श अनुयोगद्वार में सूत्र २६ में टीका के अनंतर लिखा है।
‘‘अत्र तात्पर्यमेतत्-अष्टसु कर्मसु मोहनीयकर्म एव संसारस्य मूलकारणमस्ति। दर्शनमोहनीय-निमित्तेन जीवा मिथ्यात्वस्य वशंगता: सन्त: अनादिसंसारे परिभ्रमन्ति। चारित्रमोहनीयबलेन तु असंयता: सन्त: कर्माणि बध्नन्ति।
उत्तंâ च श्री पूज्यपादस्वामिना-
बध्यते मुच्यते जीव: समम: निर्मम: क्रमात्।
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन निर्ममत्वं विचिन्तयेत्।।
एतज्ज्ञात्वा कर्मस्पर्शकारणभूतमोहरागद्वेषादिविभावभावान् व्यक्त्वा स्वस्मिन् स्वभावे स्थिरीभूय स्वस्थो भवन् स्वात्मोत्थपरमानंदामृतं सुखमनुभवनीयमिति।’’
कर्म अनुयोगद्वार में भी प्रथम ही १६ अनुयोगद्वार रूप भेद कहे हैं-कर्मनिक्षेप, कर्मनयविभाषणता, कर्मनाम विधान आदि। पुनश्च कर्मनिक्षेप के दश भेद किये हैं-नामकर्म, स्थापनाकर्म, द्रव्यकर्म, प्रयोगकर्म, समवदानकर्म, अध:कर्म, ईर्यापथकर्म, तप:कर्म, क्रियाकर्म और भावकर्म।
इसमें ‘तप:कर्म’ के बारह भेदों का विस्तार से वर्णन किया गया है। इसी प्रकार ‘क्रियाकर्म’ में- ‘‘तमादाहीणं पदाहीणं तिक्खुत्तं तियोणदं, चदुसिरं बारसावत्तं तं सव्वं किरियाकम्मं णाम१।।२८।।’’
यह क्रियाकर्म विधिवत् सामायिक-देववंदना में घटित होता है। इसी सूत्र को उद्धृत करके अनगारधर्मामृत, चारित्रसार आदि ग्रंथों में साधुओं की सामायिक को ‘देववंदना’ रूप में सिद्ध किया है। इसका स्पष्टीकरण मूलाचार, आचारसार आदि ग्रंथों में भी है। ‘क्रियाकलाप’ जिसका संपादन पं. पन्नालाल सोनी ब्यावर वालों ने किया था उसमें तथा मेरे द्वारा संकलित (लिखित) ‘मुनिचर्या’ में भी यह विधि सविस्तार वर्णित है। इन प्रकरणों को लिखते हुए, पढ़ते हुए मुझे एक अद्भुत ही आनंद का अनुभव हुआ है।
तृतीय ‘प्रकृति’ अनुयोगद्वार में भी सोलह अधिकार कहे हैं-प्रकृतिनिक्षेप, प्रकृतिनयविभाषणता, प्रकृतिनामविधान, प्रकृतिद्रव्यविधान आदि।
इसमें प्रथम प्रकृतिनिक्षेप के चार भेद किये हैं-नामप्रकृति, स्थापनाप्रकृति, द्रव्यप्रकृति और भावप्रकृति।
इसमें द्रव्यप्रकृति के दो भेद हैं-आगमद्रव्यप्रकृति और नोआगमद्रव्यप्रकृति। नोआगमद्रव्यप्रकृति के भी दो भेद हैं-कर्मप्रकृति और नोकर्म प्रकृति।
कर्मप्रकृति के ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय कर्म प्रकृति।
इस तेरहवीं पुस्तक में प्रकृति अनुयोगद्वार में व्यंजनावग्रहावरणीय के ४ भेद किये हैं। धवला टीका में श्री वीरसेनस्वामी ने श्रोत्रेन्द्रिय के विषयभूत शब्दों के अनेक भेद करके कहा है- ‘‘सद्दपोग्गला सगुप्पत्तिपदेसादो उच्छलिय दसदिसासु गच्छमाणा उक्कस्सेण जाव लोगंतं ताव गच्छंति।
कुदो एदं णव्वदे ?
सुत्ताविरुद्धाइरियवयणादो। ते विंâ सव्वे सद्दपोग्गला लोगंतं गच्छंति आहो ण सव्वे इति पुच्छिदे सव्वे ण गच्छंति, थोवा चेव गच्छंति।……
जहण्णेण अंतोमुहुत्तकालेण लोगंतपत्ती होदि त्ति उवदेसादो ।’’
शब्द पुद्गल अपने उत्पत्ति प्रदेश से उछलकर दशों दिशाओं में जाते हुए उत्कृष्ट रूप से लोक के अंतभाग तक जाते हैं।
यह किस प्रमाण से जाना जाता है ?
यह सूत्र के अविरुद्ध व्याख्यान करने वाले आचार्यों के वचन से जाना जाता है।
क्या वे सब शब्दपुद्गल लोक के अंत तक जाते हैं या सब नहीं जाते ?
सब नहीं जाते हैं, थोड़े ही जाते हैं। यथा-शब्द पर्याय से परिणत हुए प्रदेश में अनंत पुद्गल अवस्थित रहते हैं। दूसरे आकाश प्रदेश में उनसे अनंतगुणे हीन पुद्गल अवस्थित रहते हैं।
इस तरह वे अनंतरोपनिधा की अपेक्षा वातवलय पर्यंत सब दिशाओं में उत्तरोत्तर एक-एक प्रदेश के प्रति अनंतगुणे हीन होते हुए जाते हैं।
आगे क्यों नहीं जाते ?
धर्मास्तिकाय का अभाव होने से वे वातवलय के आगे नहीं जाते हैं। ये सब शब्दपुद्गल एक समय में ही लोक के अंत तक जाते हैं, ऐसा कोई नियम नहीं है किन्तु ऐसा उपदेश है कि कितने ही शब्द पुद्गल कम से कम दो समय से लेकर अंतर्मुहूर्त काल के द्वारा लोक के अंत को प्राप्त होते हैं।
अष्टसहस्री ग्रंथ में भी शब्द पुद्गलों का आना, पकड़ना, टकराना आदि सिद्ध किया है क्योंकि ये पौद्गलिक हैं-पुद्गल की पर्याय हैं।
इन सभी प्रकरणों के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि-
आज जो शब्द टेलीविजन-दूरदर्शन, रेडियो-आकाशवाणी, टेलीफोन-दूरभाष आदि के द्वारा हजारों किमी. दूर से सुने जाते हैं, टेलीफोन से कई हजार किमी. दूर से वार्तालाप किया जाता है, टेपरिकार्ड, वी.डी.ओ. आदि में भरे जाते हैं, महीनों, वर्षों तक ज्यों की त्यों सुने जाते हैं, यह सब पौद्गलिक चमत्कार है।
वास्तव में ये शब्द मुख से निकलने के बाद लोक के अंत तक पैâल जाते हैं इसीलिए इनका पकड़ना, दूर तक पहुँचाना, भेजना, यंत्रों में भर लेना आदि संभव है।
इन्हीं भावनाओं के अनुसार मैंने ३० वर्ष पूर्व भगवान ‘शांतिनाथ स्तुति’ में यह उद्गार लिखे थे। यथा-सुभक्तिवरयंत्रत: स्पुâटरवा ध्वनिक्षेपकात्। सुदूरजिनपाश्र्वगा भगवत:स्पृशन्ति क्षणात्।
पुन: पतनशीलतोऽवपतिता नु ते स्पर्शनात्। भवन्त्यभिमतार्थदा: स्तुतिफलं ततश्चाप्यते१।।२०।।
हे भगवन्! आपकी श्रेष्ठ भक्ति वो ही हुआ ध्वनिविक्षेपण यंत्र, (रेडियो आदि) उससे स्पुâट-प्रगट हुर्इं शब्द वर्गणाएं बहुत ही दूर सिद्धालय में-लोक के अग्रभाग में विराजमान आपके पास जाती हैं और वहाँ आपका स्पर्श करती हैं। पुन: पुद्गलमयी शब्दवर्गणायें पतनशील होने से यहाँ आकर-भक्त के पास आकर आपसे स्पर्शित होने से ही भव्य जीवों के मनोरथ को सफल कर देती हैं, यही कारण है कि इस लोक में स्तुति का फल पाया जाता है अन्यथा नहीं पाया जा सकता था।
इसमें ज्ञानावरण के अंतर्गत श्रुतज्ञानावरण के विषय में कहते हुए ‘श्रुतज्ञान’ के विषय में बहुत ही विस्तृत वर्णन किया है।
प्रश्न हुआ है-‘‘श्रुतज्ञानावरणीय कर्म की कितनी प्रकृतियाँ हैं ?
उत्तर दिया है-श्रुतज्ञानावरणीय कर्म की संख्यात प्रकृतियाँ हैं।
जितने अक्षर हैं और जितने अक्षर संयोग हैं उतनी प्रकृतियां हैं।२’’
पुनश्च-श्रुतज्ञानावरणीय कर्म के बीस भेद किये हैं-पर्यायावरणीय, पर्यायसमासावरणीय, अक्षरावरणीय, अक्षरसमासावरणीय, पदावरणीय, पदसमासावरणीय आदि से पूर्वसमासावरणीय पर्यंत ये बीस भेद हैं।१ इनसे पहले श्रुतज्ञान के बीस भेद हैं, जिनके ये आवरण हैं।
उन श्रुतज्ञान के नाम-पर्याय, पर्यायसमास, अक्षर, अक्षरसमास, पद, पदसमास, संघात, संघातसमास, प्रतिपत्ति, प्रतिपत्तिसमास, अनुयोगद्वार, अनुयोगद्वारसमास, प्राभृतप्राभृत, प्राभृतप्राभृतसमास, प्राभृत, प्राभृतसमास, वस्तु, वस्तुसमास, पूर्व और पूर्वसमास, ये श्रुतज्ञान के बीस भेद हैं।
इस ग्रंथ की टीका के लेखन में मैंने जो परम आल्हाद प्राप्त किया है, वह मेरे जीवन में अचिन्त्य ही रहा है।
एक तो षट्खण्डागम रूपी परम ग्रंथराज, दूसरे श्रीभूतबलि महान आचार्य के सूत्र, तीसरे श्रीवीरसेनाचार्य की धवला टीका और चौथा भगवान महावीर तीर्थ त्रिवेणी का संगम। यही कारण है कि यह ग्रंथ मेरा यहाँ भगवान महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर, देशनाभूमि राजगृही एवं निर्वाणभूमि पावापुरी ऐसे-‘तीर्थ त्रिवेणी संगम’ में अतिशीघ्र मात्र नव माह में पूर्ण हुआ है।
इस ग्रंथ में श्री वीरसेनाचार्य ने अगणित रत्न भर दिये हैं। यथा-‘श्रुतज्ञानमन्तरेण चारित्रानुत्पत्ते:।’’
‘‘द्वादशांगस्य सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राविनाभाविनो मोक्षमार्गत्वेनाभ्युपगमात्।
श्रुतज्ञान के बिना चारित्र की उत्पत्ति नहीं होती है इसलिए चारित्र की अपेक्षा श्रुत की प्रधानता है।
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के अविनाभावी द्वादशांग को मोक्षमार्ग रूप से स्वीकार किया गया है।
यहाँ पर ५०वें सूत्र में श्रुतज्ञान के इकतालीस (४१) पर्याय शब्द बताये हैं। जैसे-प्रावचन, प्रवचनीय आदि।
इस ग्रंथ में श्रुतज्ञान के पर्याय, पर्यायसमास आदि बीस भेद किये हैं और उन्हीं का विस्तार किया है।
तब प्रश्न यह हुआ है कि-उन्नीसवां ‘पूर्व’ और बीसवां ‘पूर्वसमास’ भेद तो इन बीस भेदों में आ गया है पुन:-अंगबाह्य चौदह प्रकीर्णकाध्याय, आचारांग आदि ग्यारह अंग, परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग और चूलिका, इनका किस श्रुतज्ञान में अन्तर्भाव होगा ?
तब श्रीवीरसेनस्वामी ने समाधान दिया है कि-इनका अनुयोगद्वार और अनुयोगद्वारसमास में अंतर्भाव होता है अथवा प्रतिपत्तिसमास श्रुतज्ञान में इनका अंतर्भाव कहना चाहिए परंतु पश्चादानुपूर्वी की विवक्षा करने पर इनका ‘पूर्वसमास’ श्रुतज्ञान में अंतर्भाव होता है, ऐसा कहना चाहिए२।
इस प्रकार इस ग्रंथ में मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान का बहुत ही सुन्दर विवेचन है।
अनंतर सर्व कर्मों का वर्णन करके अंत में कहा है कि यहाँ ‘कर्म प्रकृति’ से ही प्रयोजन है।
यहाँ तक इन १३ ग्रंथों में ५६३० सूत्रों की मेरे द्वारा लिखित संस्कृत टीका के पृष्ठों की संख्या-२८१±१९१±१४०±८३±१२४±२८७±२५७·१३५६±९४८·२३०४ है।
इस ग्रंथ की टीका मैंने द्वि. श्रावण शु. ७, वीर निर्वाण संवत् २५३०(दिनाँक २२-८-२००४) रविवार को कुण्डलपुर में की है।
इस प्रकार संक्षेप में इस गं्रथ का सार दिया है।
इस ग्रंथ की टीका मैंने आश्विन शु. १५, वीर निर्वाण संवत् २५३० (दिनाँक २८-१०-२००४) को कुण्डलपुर में की है।
इस ग्रंथ में ‘कृति, वेदना’ आदि २४ अनुयोगद्वारों में से छठे बंधन अनुयोगद्वार का निरूपण है। सूत्र संख्या ७९७ है। इसमें बंध, बंधक, बंधनीय और बंधविधान ये भेद किये हैं। पुनश्च बंध के नामबंध, स्थापनाबंध, द्रव्यबंध और भावबंध ये चार भेद कहे हैं।
भावबंध के आगमभावबंध और नोआगमभावबंध दो भेद हैं।
आगम भावबंध के स्थित, जित, परिजित, वाचनोपगत, सूत्रसम, अर्थसम, ग्रंथसम, नामसम और घोषसम ये नव भेद हैं। इनके विषय में वाचना, पृच्छना, प्रतीच्छना, परिवर्तना, अनुपे्रक्षणा, स्तव, स्तुति, धर्मकथा तथा इनसे लेकर जो अन्य उपयोग हैं उनमें भाव रूप से जितने उपयुक्त भाव हैं, वे सब आगमभावबंध हैं।१
नोआगमभावबंध के भी दो भेद हैं-जीव भावबंध और अजीव भावबंध।
इनमें से जीवभावबंध के ३ भेद हैं-विपाकप्रत्ययिक जीवभावबंध, अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबंध और तदुभयप्रत्ययिक जीवभावबंध।
इनमेें देवभाव, मनुष्यभाव आदि विपाकप्रत्ययिक जीव भावबंध हैं।
अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबंध के औपशमिक अविपाकप्रत्ययिकजीवभावबंध और क्षायिकअविपाक-प्रत्ययिक जीवभावबंध, ऐसे दो भेद हैं।
औपशमिक के उपशांत क्रोध, उपशांत मान आदि भेद हैं।
क्षायिक के क्षीणक्रोध, क्षीणमान आदि भेद हैं।
तदुभयप्रत्ययिक जीवभावबंध के क्षायोपशमिक एकेन्द्रियलब्धि, क्षायोपशमिक द्वीन्द्रियलब्धि आदि बहुत भेद हैं।
इस प्रकार सूत्र १३ से १९ तक इन सबका विस्तार है।
ऐसे ही अजीव भावबंध के भी तीन भेद हैं-विपाकप्रत्ययिक, अविपाकप्रत्ययिक और तदुभयप्रत्ययिक अजीवभावबंध। विपाकप्रत्ययिक अजीव भावबंध के प्रयोगपरिणतवर्ण, प्रयोगपरिणतशब्द आदि भेद हैं।
अविपाकप्रत्ययिक अजीव भावबंध के विस्रसापरिणतवर्ण आदि भेद हैं।
तथा तदुभयप्रत्ययिक अजीव भावबंध के प्रयोग परिणत वर्ण और विस्रसापरिणतवर्ण आदि भेद हैं।
इसके अनंतर द्रव्यबंध के आगम, नोआगम आदि भेद-प्रभेद किये हैं।
इस प्रकार ‘बंध’ भेद का प्ररूपण किया गया है।
अनंतर ‘बंधक’ अधिकार में मार्गणाओं में बंधक-अबंधक को विचार करने का कथन है।
अनंतर-
बंधनीय के प्रकरण में-वेदनस्वरूप पुद्गल है, पुद्गल स्वंâधस्वरूप हैं और स्वंâध वर्गणास्वरूप हैं२, ऐसा कहा है।
वर्गणाओं का अनुगमन करते हुए आठ अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं-
वर्गणा, वर्गणाद्रव्य समुदाहार, अनंतरोपनिधा, परंपरोपनिधा, अवहार, यवमध्य, पदमीमांसा और अल्पबहुत्व।
वर्गणा के प्रकरण होने से यहां वर्गणा के १६ अनुयोगद्वार बताये हैं-१. वर्गणा निक्षेप २. वर्गणानय-विभाषणता ३. वर्गणाप्ररूपणा ४. वर्गणानिरूपणा ५. वर्गणाधु्रवाधु्रवानुगम ६. वर्गणासांतरनिरंतरानुगम ७. वर्गणाओजयुग्मानुगम ८. वर्गणाक्षेत्रानुगम ९. वर्गणास्पर्शनानुगम १०. वर्गणाकालानुगम ११. वर्गणाअनंतरानुगम १२. वर्गणाभावानुगम १३. वर्गणाउपनयनानुगम १४. वर्गणापरिमाणानुगम १५. वर्गणाभागाभागानुगम और १६. वर्गणा अल्पबहुत्वानुगम।
आगे इस ग्रंथ में ‘बंधनअनुयोगद्वार’ सूत्र ५८० हैं एवं इसकी चूलिका है जिसमें सूत्र २१७ हैं। कुल सूत्र ७९७ हैं।
बंधन अनुयोगद्वार की चूलिका के अंत में ७९७वें सूत्र में ‘बंध विधान’ के चार भेद किये हैं-प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभागबंध और प्रदेशबंध।।७९७।।
इस सूत्र की टीका में श्री वीरसेनाचार्य ने कह दिया है कि-‘श्री भूतबलिभट्टारक’ ने ‘महाबंध’ खण्ड में इन चारों भेदों को विस्तार से लिखा है अत: मैंने यहाँ नहीं लिखा है। यथा-
यहाँ ‘भट्टारक’ पद से महान पूज्य अर्थ विवक्षित है। ये भूतबलि आचार्य महान दिगम्बर आचार्य थे, ऐसा समझना।
‘‘एदेसिं चदुण्णं बंधाणं विहाणं भूदबलिभडारएण महाबंधे सप्पवंचेण लिहिदं त्ति अम्मेहिं एत्थ ण लिहिदं। तदो सयले महाबंधे एत्थ परूविदे बंधविहाणं समप्पदि१।’’
इस ग्रंथ की टीका की पूर्णता मैंने फाल्गुन कृष्णा ११, वीर निर्वाण संवत् २५३२, भगवान ऋषभदेव के देशनादिवस (दिनाँक २४-२-२००६) को हस्तिनापुर में की है।
इस ग्रंथ की टीका मैंने हस्तिनापुर में फाल्गुन कृ. ११, वीर निर्वाण संवत् २५३२ (दिनाँक २४-२-२००६) के दिन प्रारंभ की है। इस ग्रंथ में चौबीस अनुयोगद्वारों में से ७वाँ निबंधन, ८वाँ प्रक्रम, ९वाँ उपक्रम, १०वाँ उदय और १२वाँ मोक्ष इन ५ अनुयोगद्वारों का कथन है। सूत्र संख्या ‘निबंधन’ अनुयोगद्वार तक है। कुल सूत्र २० हैं।
आगे प्रक्रम, उपक्रम, उदय और मोक्ष अनुयोगद्वारों में सूत्रसंख्या नहीं है।
इसमें मंगलाचरण में श्रीवीरसेनाचार्य ने प्रथम निबंधन अनुयोगद्वार में ‘श्री अरिष्टनेमि’ भगवान को नमस्कार किया है।
द्वितीय ‘प्रक्रम’ अनुयोगद्वार में श्री शांतिनाथ भगवान को, तृतीय ‘उपक्रम’ अनुयोगद्वार में श्री अभिनंदन भगवान को एवं चौथे ‘उदय’ अनुयोगद्वार में पुनरपि श्रीशांतिनाथ भगवान को नमस्कार किया है।
निबंधन-‘निबध्यते तदस्मिन्निति निबंधनम्’ इस निरूक्ति के अनुसार जो द्रव्य जिसमें संबद्ध है, उसे ‘निबंधन’ कहा जाता है। उसके नाम निबंधन, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावनिबंधन ऐसे छह भेद हैंं।
इनमें से नाम, स्थापना को छोड़कर शेष सब निबंधन प्रकृत हैं। यह निबंधन अनुयोगद्वार यद्यपि छहों द्रव्यों के निबंधन की प्ररुपणा करता है तो भी यहाँ उसे छोड़कर कर्मनिबंधन को ही ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि यहाँ अध्यात्म विद्या का अधिकार१ है।
प्रश्न-निबंधनानुयोगद्वार किसलिए आया है ?
उत्तर-द्रव्य, क्षेत्र, काल और योगरूप प्रत्ययों की भी प्ररूपणा की जा चुकी है, उनके मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योगरूप प्रत्ययों की भी प्ररूपणा की जा चुकी है तथा उन कर्मों के योग्य पुद्गलों की भी प्ररूपणा की जा चुकी है। आत्मलाभ को प्राप्त हुए उन कर्मों के व्यापार का कथन करने के लिए निबंधनानुयोग द्वार आया है२।
उनमें मूलकर्म आठ हैं, उनके निबंधन का उदाहरण देखिये-‘‘उनमें ज्ञानावरण कर्म सब द्रव्यों में निबद्ध है और नो कर्म सर्वपर्यायों में अर्थात् असर्वपर्यायों में-कुछ पर्यायों में वह निबद्ध है३।।१।।’’
यहाँ ‘सब द्रव्यों में निबद्ध है’ यह केवल ज्ञानावरण का आश्रय करके कहा गया है क्योंकि वह तीनों कालों को विषय करने वाली अनंत पर्यायों से परिपूर्ण ऐसे छह द्रव्यों को विषय करने वाले केवलज्ञान का विरोध करने वाली प्रकृति है। ‘असर्व-कुछ पर्यायों में निबद्ध है’ यह कथन शेष चार ज्ञानावरणीय प्रकृतियों की अपेक्षा कहा गया है।
इत्यादि विषयों का इस अनुयोग में विस्तार है।
२. प्रक्रम अनुयोगद्वार के भी नाम, स्थापना आदि की अपेक्षा छह भेद हैं। द्रव्य प्रक्रम के प्रभेदों में कर्म- प्रक्रम आठ प्रकार का है। नोकर्म प्रक्रम सचित्त, अचित्त और मिश्र के भेद से तीन प्रकार का है।
क्षेत्रप्रक्रम ऊध्र्वलोक, अधोलोक और तिर्यग्लोकप्रक्रम के भेद से तीन प्रकार का है। इत्यादि विस्तार को धवला टीका से समझना चाहिए।
३. उपक्रम अनुयोगद्वार में भी पहले नाम, स्थापना आदि से छह भेद किये हैं पुन: द्रव्य उपक्रम के भेद में कर्मोपक्रम के आठ भेद, नो कर्मोपक्रम के सचित्त, अचित्त और मिश्र की अपेक्षा तीन भेद हैं पुन: क्षेत्रोपक्रम-जैसे ऊध्र्वलोक उपक्रांत हुआ, ग्राम उपक्रांत हुआ व नगर उपक्रांत हुआ आदि।
काल उपक्रम में-बसंत उपक्रांत हुआ, हेमंत उपक्रांत हुआ आदि। यहाँ ग्रंथ में कर्मोपक्रम प्रकृत होने से उसके चार भेद हैं-बंधन उपक्रम, उदीरणा उपक्रम, उपशामना उपक्रम और विपरिणाम उपक्रम।
इसी प्रकार इन सबका इस अनुयोगद्वार में विस्तार है।
४. उदय अनुयोगद्वार में नामादि छह निक्षेप घटित करके ‘नोआगमकर्मद्रव्य उदय’ प्रकृत है, ऐसा समझना चाहिए।
वह कर्मद्रव्य उदय चार प्रकार का है-प्रकृति उदय, स्थितिउदय, अनुभाग उदय और प्रदेश उदय।
इन सभी में स्वामित्व की प्ररूपणा करते हुए कहते हैं। जैसे-
प्रश्न-पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अंतराय इनके वेदक कौन हैं ?
उत्तर-इनके वेदक सभी छद्मस्थ जीव होते हैं,४ इत्यादि। इस प्रकार से यहाँ संक्षेप में इन अनुयोगद्वारों के नमूने प्रस्तुत किये हैं।
५. मोक्ष-इसमें श्री मल्लिनाथ भगवान को नमस्कार करके टीकाकार ने मोक्ष के चार निक्षेप कहकर नोआगम द्रव्यमोक्ष के तीन भेद किये हैं-मोक्ष, मोक्षकारण और मुक्त।
जीव और कर्मों का पृथक् होना मोक्ष है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र ये मोक्ष के कारण हैं। समस्त कर्मों से रहित अनंत दर्शन, ज्ञान आदि गुणों से परिपूर्ण, कृतकृत्य जीव को मुक्त कहा गया है।१
इस १५वें ग्रंथ की टीका को मैंने आश्विन शु. १५, वी.सं. २५३२ (दिनाँक ६-१०-२००६) को हस्तिनापुर में पूर्ण किया है।
इस ग्रंथ की टीका मैंने हस्तिनापुर में कार्तिक शु. एकम , नवसंवत्सर के प्रथम दिवस वीर निर्वाण संवत् २५३३ (दिनाँक २३-१०-२००६) को प्रारंभ की है।
‘कृति, वेदना, स्पर्श, कर्म, प्रकृति, बंधन, निबंधन, प्रक्रम, उपक्रम, उदय और मोक्ष ये ग्यारह अनुयोगद्वार नवमी पुस्तक से पंद्रहवीं पुस्तक तक आ चुके हैं। अब आगे के १२. संक्रम, १३. लेश्या, १४. लेश्या कर्म १५. लेश्या परिणाम १६. सातासात १७. दीर्घ-ह्रस्व, १८. भवधारणीय, १९. पुद्गलात्त २०. निधत्तानिधत्त २१. निकाचितानिकाचित २२. कर्मस्थिति २३. पश्चिमस्वंâध और २४. अल्पबहुत्व ये १३ अनुयोगद्वार शेष हैं। इस सोलहवीं पुस्तक में इन सबका वर्णन है।
इस ग्रंथ में सूत्र नहीं हैं, मात्र धवला टीका में ही इन अनुयोगद्वारों का विस्तार है।
१. संक्रम-अनुयोग द्वार के भी छह भेद करके पुन: कर्मसंक्रम के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश संक्रम भेद किये हैं।
विस्तृत वर्णन करते हुए कहा है कि-चार आयु कर्मों का संक्रम नहीं होता है, क्योंकि ऐसा स्वभाव है, आदि।
२. लेश्या-इसके भी नामलेश्या, स्थापनालेश्या, द्रव्यलेश्या और भावलेश्या भेद किये हैं।
कर्म पुद्गलों के ग्रहण में कारणभूत जो मिथ्यात्व, असंयम और कषाय से अनुरंजित योग प्रवृत्ति होती है उसे नो आगमभाव लेश्या कहते हैं।२
भावलेश्या के कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म, शुक्ल ये छह भेद हैं।
३. लेश्याकर्म-इसमें छहों लेश्याओं के लक्षण-‘चंडो ण मुवइ वेरं’ इत्यादि बताये गये हैं।
४. लेश्यापरिणाम-कौन लेश्याएं किस स्वरूप से और किस वृद्धि अथवा हानि के द्वारा परिणमन करती हैं, इस बात के ज्ञापनार्थ ‘लेश्या परिणाम’ अनुयोगद्वार प्राप्त हुआ है।
इसमेें ‘षट्स्थान पतित’ का स्वरूप कहा गया है।
५. सातासात अनुयोगद्वार-इसके समुत्कीर्तना, अर्थपद, परमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व, ऐसे पांच अवान्तर अनुयोगद्वार हैं। समुत्कीर्तना में-एकांत सात, अनेकांत सात, एकांत असात और अनेकांत असात।
अर्थ पद में-सातास्वरूप से बांधा गया जो कर्म संक्षेप व प्रतिक्षेप से रहित होकर सातास्वरूप से वेदा जाता है वह एकांतसात है। इससे विपरीत अनेकांत सात है३ इत्यादि।
६. दीर्घ-ह्रस्व-इन अनुयोगद्वार के भी चार भेद हैं-प्रकृतिदीर्घ, स्थितिदीर्घ, अनुभागदीर्घ और प्रदेशदीर्घ।
आठ प्रकृतियों का बंध होने पर प्रकृति दीर्घ और उनसे कम का बंध होने पर नो प्रकृतिदीर्घ होता है१।
ऐसे ही ह्रस्व में प्रकृति ह्रस्व, स्थिति ह्रस्व आदि चार भेद हैं।
एक-एक प्रकृति को बांधने वाले के प्रकृति ह्रस्व है इत्यादि।
७. भवधारणीय-इस अनुयोगद्वार में भव के तीन भेद हैं-ओघभव, आदेशभव और भवग्रहण भव।
आठ कर्मजनित जीव के परिणाम का नाम ओघभव है। चार गति नामकर्मों को या उनसे उत्पन्न जीव परिणामों को आदेश भव कहते हैं।
भुज्यमान आयु को निर्जीण करके जिससे अपूर्व आयु कर्म उदय को प्राप्त हुआ है, उसके प्रथम समय में उत्पन्न ‘व्यंजन’ संज्ञा वाले जीव परिणाम को अथवा पूर्व शरीर के परित्यागपूर्वक उत्तर शरीर के ग्रहण करने को ‘भवग्रहणभव’ कहा जाता है। उनमें यहाँ भवग्रहण भव प्रकरण प्राप्त है।२
८. पुद्गलात्त-इस अनुयोगद्वार में नामपुद्गल, स्थापनापुद्गल, द्रव्यपुद्गल और भावपुद्गल ऐसे चार भेद हैं।
यहाँ आत्त-शब्द का अर्थ गृहीत है अत: यहाँ ‘पुद्गलात्त’ पद से आत्मसात् किये गये पुद्गलों का ग्रहण है। वे पुद्गल छह प्रकार से ग्रहण किये जाते हैं-ग्रहण से, परिणाम से, उपभोग से, आहार से, ममत्व से और परिग्रह से, इत्यादि।
९. निधत्तानिधत्त-इस अनुयोगद्वार में भी प्रकृतिनिधत्त, स्थितिनिधत्त, अनुभागनिधत्त और प्रदेशनिधत्त ऐसे चार भेद हैं।
जो प्रदेशाग्र निधत्तीकृत हैं-अर्थात् उदय में देने के लिए शक्य नहीं है, अन्य प्रकृति में संक्रमण करने के लिए शक्य नहीं है किन्तु अपकर्षण व उत्कर्षण करने के लिए शक्य हैं ऐसे प्रदेशाग्र की निधत्त संज्ञा है। अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में प्रविष्ट मुनि के सब कर्म अनिधत्त हैं, इत्यादि।
१०. निकाचितानिकाचित-इस अनुयोगद्वार में प्रकृति निकाचित आदि चार भेद हैं। जो प्रदेशाग्र, अपकर्षण, उत्कर्षण, संक्रमण और उदय में देने के लिए भी शक्य नहीं हैं, वे निकाचित हैं। अनिवृत्तिकरणवर्ती मुनि के सर्वकर्म अनिकाचित हैं, इत्यादि।
११. कर्मस्थिति-इस अनुयोग में जघन्य और उत्कृष्ट स्थितियों के प्रमाण की प्ररूपणा कर्मस्थिति ‘प्ररूपणा है, ऐसा श्री ‘नागहस्तीश्रमण’ कहते हैं किन्तु आर्यमंक्षु क्षमाश्रमण का कहना है कि-‘कर्मस्थिति संचित सत्कर्म की प्ररूपणा का नाम ‘कर्मस्थिति’ प्ररूपणा है। यहाँ दोनों उपदेशों के द्वारा प्ररूपणा करना चाहिए, ऐसा श्री वीरसेनस्वामी ने कहा३ है।
१२. पश्चिमस्वंâध-इस अनुयोगद्वार में ओघभव, आदेशभव और भवग्रहणभव ऐसे तीन भेद करके यहाँ भवग्रहण भव प्रकरण प्राप्त है। जो अंतिम भव है उसमें उस जीव के सब कर्मों की बंधमार्गणा, उदयमार्गणा, उदीरणामार्गणा, संक्रममार्गणा और सत्कर्ममार्गणा ये पाँच मार्गणाएं पश्चिम स्वंâध अनुयोगद्वार में की जाती हैं।
प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशाग्र का आश्रय करके इन पांच मार्गणाओं की प्ररूपणा कर चुकने पर तत्पश्चात् पश्चिम भव ग्रहण में सिद्धि को प्राप्त होने वाले जीव की यह अन्य प्ररूपणा करना चाहिए४ इत्यादि।
१३. अल्पबहुत्व-इस अनुयोगद्वार में ‘नागहस्तिमहामुनि’ सत्कर्म की मार्गणा करते हैं और यह उपदेश प्रवाह स्वरूप से आया हुआ परंपरागत है। सत्कर्म चार प्रकार का है-प्रकृतिसत्कर्म, स्थिति सत्कर्म, अनुभाग सत्कर्म और प्रदेश सत्कर्म। इनमें से प्रकृति सत्कर्म के मूल और उत्तर की अपेक्षा दो भेद करके मूल प्रकृतियों के स्वामी को लेकर कहते हैं-‘‘पाँच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पांच अंतराय प्रकृतियों के सत्कर्म का स्वामी कौन है ? इनके सत्कर्म के स्वामी सब छद्मस्थ जीव हैं, इत्यादि रूप से
अल्पबहुत्व का विस्तार से कथन किया गया है।१
इस प्रकार यहाँ सोलहवें ग्रंथ में इन उपर्युक्त कथित शेष १३ अनुयोगद्वारों को पूर्ण किया है।
उपसंहार यह है कि-कृति, वेदना, स्पर्श आदि चौबीस अनुयोगद्वारों में से ‘कृति और वेदना’ नाम के मात्र दो अनुयोगद्वारों में ‘वेदनाखण्ड’ नाम से चौथा खण्ड विभक्त है।
पुनश्च ‘स्पर्श’ आदि से लेकर अल्पबहुत्व तक २२ अनुयोगद्वारों में ‘वर्गणाखण्ड’ नाम से पांचवां खण्ड लिया गया है। यहाँ तक पाँच खंडों को सोलह पुस्तकों में विभक्त किया है। छठे महाबंध खण्ड में सात पुस्तवेंâ विभक्त हैं जो कि हिन्दी अनुवाद होकर छप चुकी हैं।
इस ‘षट्खण्डागम’ ग्रंथराज पर छह टीकायें लिखी गई हैं, ऐसा आगम में उल्लेख है। उनके नाम-
१. श्री कुन्दकुन्ददेव ने तीन खण्डों पर ‘परिकर्म’ नाम से टीका लिखी है जो कि १२ हजार श्लोक-प्रमाण थी।
२. श्री शामकुडाचार्य ने ‘पद्धति’ नाम से टीका लिखी है जो कि संस्कृत, प्राकृत और कन्नड़ मिश्र थी, ये पांच खण्डों पर थी और १२ हजार श्लोकप्रमाण थी।
३. श्री तुंबुलूर आचार्य ने ‘चूड़ामणि’ नाम से टीका लिखी। छठा खण्ड छोड़कर षट्खण्डागम और कषायप्राभृत दोनों सिद्धान्त ग्रंथों पर यह ८४ हजार श्लोकप्रमाण थी।
४. श्री समंतभद्रस्वामी ने संस्कृत में पांच खण्डों पर ४८ हजार श्लोकप्रमाण टीका लिखी।
५. श्री वप्पदेवसूरि ने ‘व्याख्याप्रज्ञप्ति’ नाम से टीका लिखी, यह पांच खण्डों पर और कषायप्राभृत पर थी एवं ६० हजार श्लोकप्रमाण प्राकृत भाषा में थी।
६. श्री वीरसेनाचार्य ने छहों खण्डों पर प्राकृत-संस्कृत मिश्र टीका लिखी, यह ‘धवला’ नाम से टीका है एवं ७२ हजार श्लोकप्रमाण है।
वर्तमान में ऊपर कही हुई पांच टीकाएं उपलब्ध नहीं हैं, मात्र श्री वीरसेनाचार्य कृत ‘धवला’ टीका ही उपलब्ध है जिसका हिंदी अनुवाद होकर छप चुका है। इस ग्रंथ को ताड़पत्र से लिखाकर और हिंदी अनुवाद कराकर छपवाने का श्रेय इस बीसवीं सदी के प्रथमाचार्य चारित्र चक्रवर्ती श्री शांतिसागर जी महाराज को है। उनकी कृपाप्रसाद से हम सभी
इन ग्रंथों के मर्म को समझने में सफल हुये हैं।
यह ‘षट्खण्डागम’ कितना प्रामाणिक है, देखिए श्रीवीरसेनस्वामी के शब्दों में-
लोहाइरिये सग्गलोगं गदे आयार-दिवायरो अत्थमिओ। एवं बारससु दिणयरेसु भरहखेत्तम्मि अत्थमिएसु सेसाइरिया सव्वेसिमंगपुव्वाणमेगदेसभूद-पेज्जदोस-महाकम्म-पयडिपाहुडादीणं धारया जादा। एवं पमाणीभूदमहारिसिपणालेण आगंतूण महाकम्मपयडिपाहुडामियजलपवाहो धरसेणभडारयं संपत्तो। तेण वि गिरिणयरचंदगुहाए भूद-बलि-पुप्फदंताणं महाकम्मपयडिपाहुडं सयलं समप्पिदं। तदो भूदबलिभडारएण सुदणईपवाहवोच्छेदभीएण भवियलोगाणुग्गहट्ठं महाकम्मपयडिपाहुड-मुवसंहरिऊण छखं-डाणि कयाणि। तदो तिकालगोयरासेसपयत्थवि-सयपच्चक्खाणंतकेवलणाण-प्पभावादो पमाणीभूदआइरियपणालेणागदत्तादो दिट्ठिट्ठविरोहाभावादो पमाणमेसो गंथो। तम्हा मोक्खवंâखिणा भवियलोएण अब्भसेयव्वो। ण एसो गंथो थोवो त्ति मोक्खकज्जजणणं पडि असमत्थो,
अमियघडसयवाणफलस्स चुलुवामियवाणे वि उवलंभादो ।
लोहाचार्य के स्वर्गलोक को प्राप्त होने पर आचारांगरूपी सूर्य अस्त हो गया। इस प्रकार भरतक्षेत्र में बारह सूर्यों के अस्तमित हो जाने पर शेष आचार्य सब अंग-पूर्वों के एकदेशभूत ‘पेज्जदोस’ और ‘महाकम्मपयडिपाहुड’ आदिकों के धारक हुए। इस प्रकार प्रमाणीभूत, महर्षि रूप प्रणाली से आकर महाकम्मपयडिपाहुड रूप अमृत जल-प्रवाह धरसेन भट्टारक को प्राप्त हुआ। उन्होंने भी गिरिनगर की चन्द्र गुफा में सम्पूर्ण महाकम्मपयडिपाहुड भूतबलि और पुष्पदन्त को अर्पित किया। पश्चात् श्रुतरूपी नदी प्रवाह के व्युच्छेद से भयभीत हुए भूतबलि भट्टारक ने भव्य जनों के अनुग्रहार्थ महाकम्मपयडिपाहुड का उपसंहार कर छह खण्ड (षट्खण्डागम) किये अतएव त्रिकालविषयक समस्त पदार्थों को विषय करने वाले प्रत्यक्ष अनन्त केवलज्ञान के प्रभाव से प्रमाणीभूत आचार्य रूप प्रणाली से आने के कारण प्रत्यक्ष व अनुमान से चूँकि विरोध से रहित है अत: यह ग्रंथ प्रमाण है। इस कारण मोक्षाभिलाषी भव्य जीवों को इसका अभ्यास करना चाहिए। चूँकि यह ग्रंथ स्तोक है अत: वह मोक्षरूप कार्य को उत्पन्न करने के लिए असमर्थ है, ऐसा विचार नहीं करना चाहिए; क्योंकि अमृत के सौ घड़ों के पीने का फल चुल्लूप्रमाण अमृत के पीने में भी पाया जाता है।
अत: यह ग्रंथराज बहुत ही महान है, इसका सीधा संबंध भगवान महावीर स्वामी की वाणी से एवं श्री गौतम स्वामी के मुखकमल से निकले ‘गणधरवलय’ आदि मंत्रों से है। इस ग्रंथ में एक-एक सूत्र अनंत अर्थों को अपने में गर्भित किये हुए हैं अत: हम जैसे अल्पज्ञ इन सूत्रों के रहस्य को, मर्म को समझने में अक्षम ही हैं। फिर भी श्रीवीरसेनाचार्य ने ‘धवला’ टीका को लिखकर हम जैसे अल्पज्ञों पर महान उपकार किया है।
इस धवला टीका को आधार बनाकर मैंने टीका लिखी है। इसमें कहीं-कहीं धवला टीका की पंक्तियों को ज्यों का त्यों ले लिया है। कहीं पर उनकी संस्कृत (छाया) कर दी है। कहीं-कहीं उन प्रकरणों से संबंधित अन्य ग्रंथों के उद्धरण भी दिये हैं। श्रीवीरसेनाचार्य के द्वारा रचित टीका में जो अतीव गूढ़ एवं क्लिष्ट सैद्धांतिक विषय हैं अथवा जो गणित के विषय हैं उनको मैंने छोड़ दिया है एवं ‘धवला टीकायां दृष्टव्यं’ धवला टीका में देखना चाहिए, ऐसा लिख दिया है अर्थात् इस धवला टीका के सरल एवं सारभूत अंश को ही मैंने लिया है। चूँकि यह श्रुतज्ञान ही ‘केवलज्ञान’ की प्राप्ति के लिए ‘बीजभूत’ है।
जो टीकाएं उपलब्ध नहीं हैं उनके रचयिता सभी टीकाकारों को मेरा कोटि-कोटि नमन है कि जिनके प्रसाद से श्रीवीरसेनस्वामी ने ज्ञान प्राप्त किया होगा। पुनश्च-
श्री वीरसेनस्वामी के हम सभी पर आज अनंत उपकार हैं कि जिनकी इस धवल-शुभ्र-उज्ज्वल-धवलाटीका के विंâचित् मात्र अंश को मैंने समझा है।
इसमें पूर्वजन्म के संस्कार, वर्तमान में सरस्वती की महती कृपा, प्रथम क्षुल्लिका दीक्षागुरु श्री आचार्य देशभूषण जी एवं आर्यिका दीक्षा के गुरु के गुरु इस बीसवीं सदी के प्रथमाचार्य चारित्रचक्रवर्ती श्री शांतिसागराचार्य एवं उनके प्रथम शिष्य पट्टाचार्य श्री वीरसागर जी महाराज (आर्यिका दीक्षा के गुरु) का मंगल आशीर्वाद ही मेरे इस श्रुतज्ञान में निमित्त है, ऐसा मैं मानती हूँ।
इस ग्रंथ की टीका-सिद्धान्तचिंतामणि को मैंने वैशाख कृ. २, वी.नि.सं. २५३३, दिनाँक ४-४-२००७ को पूर्ण की है। इस षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड में २३७५, द्वितीय खण्ड में १५९४, तृतीय खण्ड में ३२४, चतुर्थ खण्ड में १५२५ और पाँचवें खण्ड में १०२३ ऐसे १६ ग्रंथों में कुल ६८४१ सूत्र हैं और मेरे द्वारा लिखित सिद्धांतचिंतामणि टीका के पृष्ठ लगभग ३१२५ हैं। आज (वैशाख कृ. २ को) मैंने अपनी आर्यिका दीक्षा के ५१ वर्ष पूर्ण कर इस चिंतामणि टीका को पूर्ण करके अपने आध्यात्मिक जीवन पर कलशारोहण किया है। भगवान शांतिनाथ की कृपा प्रसाद से साढ़े ग्यारह वर्ष में इस टीका को पूर्णकर आनंद का अनुभव करते हुए भावश्रुत की प्राप्ति के लिए ‘महाग्रंथराज षट्खण्डागम’ को अनंत-अनंत बार नमस्कार करती हूँ।
पर्यावरण का शाब्दिक अर्थ है—चारों ओर का आवरण / घेरा/मंडल। पर्यावरण अपने शाब्दिक अर्थ के अनुरूप मात्र समीपस्थ वातावरण/बाह्य जगत तक ही सीमित नहीं है वरन् इसमें मन, विचार, व्यवहार, तथा जीवन के प्रति दृष्टिकोण भी समाहित है। चाँद, सूरज, नक्षत्र, तारे, पर्वत, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पतियाँ, पशु—पक्षी, मनुष्य, घर परिवार, रीति—रिवाज, परम्पराएँ, दिन—रात, वर्षा आदि चेतन—अचेतन से निर्मित पर्यावरण में उसके प्रत्येक घटक की निश्चित भूमिका होती है। जब तक घटकों में सामंजस्य रहता है, पर्यावरण सन्तुलित रहता है। किन्तु आज कल हर देश, हर समाज आधुनिकता और विकास के नाम पर अपने स्वार्थ की पूर्ति हेतु प्रकृति के घटकों का अनुचित रूप से प्रयोग कर रहा है। स्वार्थ—लिप्सा के कारण मानव का मन प्रदूषित हो गया है। वह भोगवादी संस्कृति की ओर कदम बढ़ा रहा है, व्यसनों में डूबता जा रहा है, वनों की अवैध कटाई, कत्लखानों, कारखानों, उद्योग धंधों की स्थापना, प्राणघातक रसायनों, कीटनाशकों एवं अस्त्र—शस्त्री के निर्माण, विकास और प्रयोग, प्रदर्शन/शौक के लिए सौन्दर्य प्रशाधन व चमड़े से बनी वस्तुओं के प्रमोद्यों द्वारा निरन्तर प्रकृति का दोहन कर रहा है जिससे पर्यावरण असन्तुलित हो गया है फलस्वरूप कहीं कभी अल्प—वृष्टि, अनावृष्टि, असमय वर्षा, कभी तूफान तो कभी दुर्भिक्ष, नित्य नयी—नयी बीमारियाँ आदि जटिल समस्यायें उत्पन्न हो गयी हैं जिससे पृथ्वी पर स्वस्थ जीवन जीना भी कठिन हो गया है। आज की प्रतिकूल परिस्थितियों में प्रकृति को सन्तुलित बनाये रखने का, स्वस्थ जीवन जीने का क्या उपाय हो सकता है ? हम इस बात पर मनन करें, विचार करें, सन्तों, ऋषि—महर्षियों द्वारा प्रणीत आगम ग्रंथों का अवलोकन करें तो समस्याओं का यथोचित समाधान मिलता है। उन्होंने सुख शांतिपूर्ण जीवन जीने हेतु अहिंसात्मक सद्विचार और सदाचार के पालन का संदेश/प्रेरणा दी है। विचार और आचार एक दूसरे से परस्पर आश्रित हैं। निर्मल विचारवान व्यक्ति का ही आचरण जीव दया से परिपूर्ण एवं सन्तोषजनक होता है। ऐसे व्यक्ति ही सर्वांगीण रूप से स्वस्थ होते हैं और पर्यावरण को सन्तुलित और विशुद्ध बनाते हैं। इसके विपरीत हिंसात्मक अशुभ विचार—आचार से जीवन तो प्रदूषित होता ही है पर्यावरण भी असन्तुलित होता है। आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने गोम्मटसार जीवकाण्ड ग्रंथ में मार्गजा प्रकरण में लेश्या प्रकरण के अन्तर्गत ६८ गाथाओं में जीव के विचारों का विस्तृत विवेचन किया है। शुभाशुभ विचारों / परिणामों को ‘‘लेश्या’’ शब्द से अभिहित किया है। ग्रंथकार के अनुसार जिन परिणामों के द्वारा जीव अपने को लिप्त करता है या आत्मा को कर्मों से लिप्त करता है, वह लेश्या है—
लिंपइ अप्पीकीरई एदीए णियअप्पुण्पुण्णं व।
जीवोत्ति होदि लेस्सा लेस्सागुणजाणयक्खादा।।
इसी को और स्पष्ट करते हुए कहा है— कषाय के उदय से अनुरंजित मन, वचन और काय की प्रवृत्ति लेश्या है–जोगपउत्ती लेस्सा कसाय उदयाणुरंजिया होई।।लेश्या के दो भेद हैं—भाव लेश्या और द्रव्य लेश्या। सामान्यतया लेश्या के छह भेद हैं—कृष्ण लेश्या नील लेश्या, कपोत लेश्या, तेजो/पीत लेश्या, पद्म लेश्या और शुक्ल लेश्या। इनमें प्रथम तीन लेश्यायें अशुभ तथा शेष तीन शुभ मानी गयी हैं। ये लेश्यायें पर्यावरण को प्रदूषित करने एवं प्रदूषण मुक्त करने में किस प्रकार सहायक हैं, इसे एक दृष्टान्त द्वारा सरलतया समझ सकते हैं—
पहिया जे छप्पुरिसा परिभट्टारण्ण मज्झदेसम्मि।
फलभरियरुक्खमेगं पेक्खित्ता से विंचतंति।।
णिम्मूलखंधसाहुवसाहं छित्तुं चिणित्तु पडिदाइं।
खाउं पलाइ इति जं मणेण वयणं हवे कम्मं।।
छह पुरुष वन में भ्रमण करते हुए रास्ता भूल जाते हैं। वन के मध्य में फलों से लदे वृक्ष को देखकर वे क्षुधा मिटाने का विचार करते हैं। एक मन में विचारता है कि मैं वृक्ष को जड़ से उखाड़ कर इसके फल खाऊँगा। दूसरा वृक्ष के स्कन्ध को काट कर फल खाने की सोचता है। तीसरा विचार करता है इसकी बड़ी शाखा काटकर फल खा लूँगा। चौथा वृक्ष की छोटी शाखा/ उपशाखा को काटकर फलों के भक्षण का निश्चय करता है। पांचवां वृक्ष को हानि न पहुँचा कर उसके मात्र फलों को तोड़कर उनसे अपनी क्षुधा शान्त करना चाहता है और छठवें पुरुष के मन में वृक्ष से स्वत: गिर हुए जमीन पर स्थित पके फलों के भक्षण का भाव आता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि सब का लक्ष्य है क्षुधा मिटाना, पर लक्ष्य तक पहुँचने/कार्य सम्पन्न करने में सब के भाव भिन्न—भिन्न हैं। मन/भावों के अनुसार जो वचन होता है वह लेश्याओं का कार्य होता है। इनको ही क्रमश: कृष्ण, नील, कपोत, पीत, पद्म और शुक्ल लेश्या कहा जाता है। अंतरंग भावों के अनुसार ही बहिरंग में कार्य होता है। आंतरिक मनोभाव बाहर में प्रकट होने के विविध द्वार है। पथिकों के उदाहरण से आचार्य ने उनके अन्तर्मन के भाव, वचन एवं कार्यों का दिग्दर्शन कराया है। वृक्ष को समूल उखाड़ कर खाने का भाव कलुषतम परिणाम है। ऐसे परिणाम वाले को कृष्ण लेश्यावान कहा जाता है। यह तीव्र क्रोधी होता है, निरन्तर शत्रुता बनाये रखता है। लड़ाई, झगड़ा करने वाला दयाधर्म से रहित, दुष्ट निर्दय होता है, किसी के वश में नहीं आता। इस कृष्ण लेश्याधारी का एकमात्र लक्ष्य होता है—दूसरों का समूल विनाश करके अपने स्वार्थ को सिद्ध करना। इनमें संवेदनशीलता नाम मात्र की नहीं होती। रावण, कंस, हिटलर, सद्दाम हुसैन जैसे व्यक्तियों का इस श्रेणी में अन्तर्भाव होता है। इन्होंने राज्य सत्ता के लिए खून की नदियाँ बहायीं और देश को तहस नहस कर दिया। यह बुद्धिहीन, पंचेन्द्रिय विषयों में लम्पट, अभिमानी, कुटिल वृत्ति वाला, मायाचारी होता है। ग्रंथकार ने कलुषतर परिणाम वाले को नील लेश्या कहा है। इसके मन में तनिक संवेदना होती है इसलिए वह वृक्ष को समूल नष्ट नहीं करना चाहता, तने को काटकर खाना चाहता है। वह दूसरों को कुछ कम क्षति पहुँचा कर अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए अधिक प्रयत्नशील रहता है। यह दूसरों को ठगने वाला एवं धन—धान्य के प्रति तीव्र लालसा रखता है। अकबर, हुमायूँ आदि इस श्रेणी में अन्तर्निहित हैं। इस वर्ग के व्यक्ति भी अपनी इच्छापूर्ति के लिए अनुचित कार्य करने में, प्रकृति का दोहन करने में झिझकते नहीं है। कलुषित मनोभाव वाले की कपोत लेश्या होती है। इसके परिणाम कृष्ण और नील लेश्या वाले की अपेक्षा कुछ निर्मल होते है।। इसलिए वह वृक्ष की बड़ी शाखा काटकर अर्थात् दूसरों को कुछ कम क्षति पहुँचा कर अपनी आकांक्षा पूर्ण करना चाहता है। इसके मन में परनिन्दा और आत्म प्रशंसा का भाव होता है। यह अपनी और पर की हानि वृद्धि की परवाह नहीं करता। मांसाहारी पशु को इस श्रेणी में रखा जा सकता है। कृष्ण आदि अशुभ लेश्यायें ही मानव के मानसिक प्रदूषण/पर्यावरण प्रदूषण का मूल कारण है। मानव मन के विकृत विचार और मानवता के प्रतिकूल आचरण से प्रकृति का सन्तुलन डगमगा गया है। कारखानों, उद्योगों जैसे कागज, स्टील, वनस्पति घी, चमड़ा शोधन आदि एवं शराब उद्योग, वस्त्र रंगाई उद्योग से निकलने वाली गन्दगी, कूड़ा कचरा, और दूषित पानी के कारण जल प्रदूषित हुआ है/ हो रहा है। कारखानों आदि से निकलने वाली गैसों, वाहनों से निकलने वाले धुएं से, वनों की कटाई आदि से वायु मण्डल तेजी से दूषित हो रहा है। मोटर आदि वाहनों, कारखानों, मनोरंजन के साधनों आदि का तीव्र शोर पर्यावरण को अपने कम्पनों द्वारा दूषित करता है जिससे ध्वनि प्रदूषण फैल रहा है। कारखानों से निष्कासित, गन्दगी, उर्वरकों, कीटनाशक दवाओं के प्रयोग से पृथ्वी प्रदूषित हो रही है। वनों की कटाई से मिट्टी का क्षरण एवं कत्लखानों के कारण पृथ्वी प्रदूषित हुई है भूकम्प भी आ रहे हैं। विस थ्योरी के आधार पर अणु, परमाणु, हाइड्रोजन बम आदि के कारण रेडियोधर्मी प्रदूषण बढ़ रहा है। हमारे लिए रक्षा कवच का कार्य करने वाली ओजोन परत में छिद्र हो गये हैं और उसका क्षरण भी हो रहा है। इन प्रदूषणों के फलस्वरूप अनेक रोगों ने मानव/प्राणी को घेर लिया है। इन सब की जड़ है मानव की अर्थ लिप्सा। उसके सिर पर मात्र पैसा कमाने का भूत सवार है माध्यम चाहे कैसा भी हो। इसी के कारण हम अपने खान—पान, सामाजिक, धार्मिक, आध्यात्मिक संस्कृति को भूल गये हैं। हमारी धार्मिक भावनायें मात्र बाह्य आचरण का प्रतीक बन गयी है, आदर्श जीवन समाप्तप्राय है। पर्यावरण के दुष्परिणामों से बचने के लिए सर्वप्रथम मानसिक शुद्धि आवश्यक है। यह तभी संभव है जब अशुभ लेश्याओं के स्वरूप को समझ कर निर्मल भाव रखते हुए उसी के अनुसार आचरण करें। अत: सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्राचार्य द्वारा निरूपित पर्यावरण सन्तुलन में सहायक शुभ लेश्याओं के स्वरूप को जानने का प्रयास करें। पीत लेश्यावान् वृक्ष को अल्प क्षति पहुंचा कर / लघु शाखा तोड़कर उसके फलों से अपनी भूख मिटाना चाहता है। अत: वह विशुद्ध परिणामी एवं अधिक संवेदनशील होता है। ऐसे व्यक्ति दयालु, कार्य—अकार्य, सेवनीय—असेवनीय पदार्थों के जानकार होते हैं। ये सोच विचार कर दूसरों का ध्यान रखते हुए कार्य करते हैं। अपने प्रयोजन की सिद्धि के लिए दूसरों को विशेष क्षति पहुँचाना अनैतिक मानते हैं। गृहस्थ नागरिक को इस श्रेणी में सम्मिलित किया जा सकता है। इनसे पर्यावरण की नगण्य हानि होती है। पद्म लेश्याधारी के विशुद्धतर परिणाम होते हैं। ये वृक्ष को क्षति पहुँचाये बिना अर्थात् अन्य को कष्ट पहुँचाये बिना ही अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं। अत: ऐसे मानव भद्र परिणामी, सरल स्वभावी, शुभ कार्य में उद्यमी, कष्ट एवं अनिष्ट उपद्रवों को सहन करने में समर्थ, त्यागी मुनि और गुरुजन की पूजा में प्रीति रखते हैं। आदर्श श्रावक, आदर्श नागरिक, शाकाहारी प्राणी को इस श्रेणी में अन्तर्निहित कर सकते हैं। इस श्रेणी के व्यक्ति ‘‘जीओ और जीने दो’’ के सिद्धान्त का आचरण करते हुए अपना जीवन बिताते हैं और पर्यावरण को सन्तुलित तथा सुरक्षित बनाते हैं। विशुद्धतम परिणाम वाले की शुक्ल लेश्या होती है। वह वृक्ष को रंचमात्र भी क्षति न पहुँचाते हुए स्वत: जमीन पर पड़े पके फल का सेवन कर अपनी क्षुधा को शान्त करना चाहता है। वृक्ष पर चढ़ना, उसके अवयव/फल आदि तोड़ना भी उसकी दृष्टि में हिंसात्मक तथा अनैतिक कार्य है अत: वह हर प्रकार की हिंसा से बचते हुए अिंहसात्मक रीति से अपने प्रयोजन को साधता है। यह पक्षपात रहित, समताभावी, रागद्वेष रहित, अत्यन्त उदार, परोपकारी, उन्नतिशील होता है। इस श्रेणी में हम भगवान महावीर, बुद्ध, राम, युधिष्ठिर, दिगम्बर जैन साधु आदि की गणना कर सकते हैं। ये ‘‘बसुधैव कुटुम्बकम्’’ की भावना से सम्पन्न होने के कारण प्रकृति/पर्यावरण के सन्तुलन, संरक्षण में पूर्ण योगदान प्रदान करते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि पीत/तेजो, पद्म और शुक्ल लेश्यावान् आत्म संयमी होते हैं। अपने जीवन/परिवार के सुख शांतिपूर्ण संचालन हेतु प्रकृति से मात्र अपनी आवश्यकतानुसार ग्रहण करते हैं, उसका दोहन नहीं। इससे प्रकृति का सन्तुलन बना रहता है। षट्लेश्या के विषय में वनस्पति विज्ञान एवं जैनाचार की दृष्टि से विचार करना भी उचित होगा क्योंकि ये पर्यावरण के सन्तुलन, विकास और संरक्षण हेतु सर्मिपत है। वनस्पति विज्ञान में पौधे के छह अंग माने गये हैं—जड़, तना, पत्ती, फूल, फल एवं बीज। इनमें जड़, तना तथा पत्ती को बंर्धी अंग (बेजीटेटिव पार्टस्) और फूल, फल, बीज को प्रजनन अंग (रिप्रोडिक्टिव पार्टस्) कहा जाता है। इनमें जड़ का कार्य पौधे का स्थितिकरण, जल व खनिज पदार्थों का अवशोषण है। तना पौधे को सहारा देता है तथा जड़ एवं पत्ती द्वारा अवशोषित/ निर्मित पदार्थों का संवहन करता है। पत्तियाँ भोजन निर्माण, श्वसन एवं वाष्पोत्सर्जन का कार्य करती हैं। फूल प्रजनन अंगों का निर्माण, फल तथा बीज जनन क्रिया द्वारा जाति का चिरजीवन बनाये रखते हैं। इनमें कुछ ऐसे विशिष्ट पौधे होते हैं जिनके बर्धी अंग—जड़, तना आदि रूपान्तरित होकर अपने कार्य के अतिरिक्त अन्य कार्य भी करते हैं। उदाहरणार्थ कुछ पौधों की जड़े रूपान्तरित होकर भोजन संग्रह का कार्य करती हैं जैसे गाजर, मूली, शलजम आदि रूपान्तरित जड़ें हैं। इन्हें रूपान्तरित जड़ (मोडिफिइड) कहा जाता है। इसी प्रकार कुछ तने भी रूपान्तरित होकर भोजन संग्रह का कार्य करने लगते हैं। इसे रूपान्तरित तना (मोडिफिइड) कहते हैं जैसे आलू, अरबी आदि। जैन दर्शन/ जैनाचार में गाजर, मूली, अरबी, आदि जमीकंद को न खाने का संदेश मिलता है। इसका मूल प्रयोजन गृहस्थ/श्रावक को कृष्ण लेश्या, नील लेश्या से विरत करना है। क्योंकि मूली, गाजर आदि पौधों की जड़ें हैं। भोजन के रूप में एक मूली उसी समय खाई जा सकती है जब उसे जड़ से उखाड़ें अर्थात् एक मूली के लिये एक पौधे को नष्ट करें। जड़ से पौधा उखाड़ने/काटने वाला कृष्ण लेश्या का धारी/कलुषतम परिणाम वाला होता है। इसी प्रकार आलू, अरबी आदि तने के रूपान्तर होने से उन्हें खाने के लिए तने से वृक्ष का क्षय करना पड़ता है। ऐसा व्यक्ति नील लेश्या का धारी/कलुषतर परिणामी होता है। वह एक मूली आदि खाने के लिए पौधे के साथ जमीन खोदता है इससे पृथ्वी का क्षरण तथा वहाँ स्थित जीवों की हिंसा होती है। इसमें प्रयास अधिक और लाभ कम मिलता है। इसीलिए जैनाचार्यों ने जमीकंद खाने का निषेध कर हमें कलुषतम और कलुषतर परिणामों से बचाने का, वनस्पति, पृथ्वी और जीवों की रक्षा करने का सफल प्रयास किया है जो सम्पूर्ण पर्यावरण के सन्तुलन एवं संरक्षण में सहायक है। पत्तियों का अग्रभाग पौधे की वृद्धि करता है। पत्तियाँ भोजन निर्माण, वाष्पोत्सर्जन के साथ बाहरी वातावरण में प्राणियों द्वारा छोड़ी गयी कार्बन डाईआक्साइड को ग्रहण कर तथा उन्हें सांस लेने के लिए शुद्ध आक्सीजन प्रदान कर पर्यावरण को शुद्ध एवं सन्तुलित बनाती है। उन्हें तोड़ने से पौधों की हानि के साथ पर्यावरण प्रदूषित होता है। पुष्प पौधे का प्रजनन अंग है जिसमें पुंकेशर (नर जननांग) तथा स्त्री केशर (मादा जननांग) होते हैं। इनसे परागण की क्रिया द्वारा भ्रूण का निर्माण एवं विकास होता है और फल व बीज बनते हैं। यदि पौधे से पुष्प तोड़ा जाता है तो भ्रूण हत्या का दोष लगता है। इस दोष से बचने के लिए ही दिगम्बर जैन तेरापंथी आम्नाय के मंदिरों में पूजन में पुष्प का प्रयोग नहीं किया जाता। इसलिए जैनाचार में सब्जी के रूप में पुष्प के प्रयोग का निषेध है। जैनाचार की ये क्रियायें मात्र र्धािमक ही नहीं, वरन् पूर्णत: विज्ञान समस्त अहिंसामय एवं पर्यावरण को स्वच्छ, निर्मल बनाने में सहायक हैं। वृक्ष के शुष्क बीज और फलों का प्रयोग पर्यावरण को सन्तुलित बनाये रखता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनाचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती द्वारा गोम्मटसार जीवकाण्ड में प्रतिपादित षट् लेश्या का प्रकरण प्रकृति/पर्यावरण के प्रदूषित होने के कारणों को स्पष्ट कर उसे सन्तुलित बनाने के उपायों का दिग्दर्शन कराया गया है। कवि ने लेश्याओं के माध्यम से अशुभ भावों के दुष्परिणामों का बोध कराया है और उससे विरत होकर शुभ भाव रखकर उसके अनुरूप आचरण करने की प्रेरणा दी है। इसे अन्य शब्दों में कहें तो तामसिक और राजसिक प्रवृत्तियों को त्याग कर सात्विक बनने हेतु निर्देशित करता है। संक्षेप में कहें तो लेश्यायें अहिंसात्मक ढंग से सभी प्रकार के पर्यावरणों को सन्तुलित करने का विधान प्रस्तुत करती है। इन्हें वर्तमान पर्यावरणीय समस्याओं के सन्दर्भ में समझ कर आचरण में उतारने की आवश्यकता है।
(सिद्धान्तचिंतामणि टीका) से संग्रहीत
णमोकार महामंत्रणमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं,
णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।।१।।
‘‘विगताशेषलेपेषु सिद्धेषु सत्स्वर्हतां सलेपानामादौ किमिति नमस्कार: क्रियते इति चेन्नैष दोष:, गुणाधिकसिद्धेषु श्रद्धाधिक्यनिबंधनत्वात् असत्यर्हति आप्तागमपदार्थावगमो न भवेदस्मदादीनां संजातश्चैतत्प्रसादादित्युपकारापेक्षया वादावर्हन्नमस्क्रियते। न पक्षपातो दोषाय, शुभपक्षवृत्ते: श्रेयोहेतुत्वात्।’’ श्रीमद् गौतम स्वामिभि: उत्तं च- जस्संतियं धम्मपहं णिगच्छे, तस्संतियं वेणइयं पउंजे। सक्कारए तं सिर-पंचएण, काएण वाया मणसा य णिच्चं।।
आचार्योपाध्यायसाधूनामपि देवत्वं पूज्यत्वं च-अरिहंत और सिद्ध का क्रम-
यहाँ पर शंकाकार की शंका है कि ‘‘सर्वप्रकार के कर्म लेप से रहित सिद्ध परमेष्ठी के विद्यमान रहते हुए अघातिया कर्मों के लेप से युक्त अरिहंतों को आदि में नमस्कार क्यों किया जाता है ?’’
इसका समाधान करते हुए कहा है- यह कोई दोष नहीं है। क्योंकि सबसे अधिक गुणवाले सिद्धों में श्रद्धा की अधिकता के कारण अरिहंत परमेष्ठी ही हैं अर्थात् अरिहंत परमेष्ठी के निमित्त से ही अधिक गुण वाले सिद्धों में सबसे अधिक श्रद्धा उत्पन्न होती है। अथवा यदि अरिहंत परमेष्ठी न होते तो हम लोगों को आप्त, आगम और पदार्थ का परिज्ञान नहीं हो सकता था। किन्तु अरिहंत परमेष्ठी के प्रसाद से हमें इस बोध की प्राप्ति हुई है। इसलिए उपकार की अपेक्षा भी आदि में अरिहंतों को नमस्कार किया जाता है। यदि कोई कहे कि इस प्रकार आदि में अरिहंतों को नमस्कार करना तो पक्षपात है? इस पर आचार्य उत्तर देते हैं कि ऐसा पक्षपात दोषोत्पादक नहीं है किन्तु शुभ पक्ष में रहने से वह कल्याण का ही कारण है। कहा भी है- श्लोकार्थ-जिसके समीप धर्ममार्ग प्राप्त करे, उसके समीप विनय युक्त होकर प्रवृत्ति करनी चाहिए तथा उसका शिरपंचक अर्थात् मस्तक, दोनों हाथ और दोनों घुटने इन पंचांगों से एवं काय, वचन, मन से निरन्तर सत्कार-नमस्कार करना चाहिए। आचार्य, उपाध्याय और साधुओं के भी देवपना तथा पूज्यपना है। (षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. १, पृ. २५-२६)
पुनरपि कश्चिदाह- घातिकर्मरहितानां सकलपरमात्मनां अर्हतां अघातिकर्मविप्रमुक्तनिष्कल-परमात्मनां सिद्धानां च त्रैलोक्याधिपतिदेवानां नमस्कारो युक्त:, नाचार्यादीनामष्ट-कर्मसहितानां तेषां देवत्वाभावादिति? न, देवो हि नाम त्रीणि रत्नानि स्वभेदतोऽनन्तभेदभिन्नानि, तद्विशिष्टो जीवोऽपि देव:, अन्यथाशेषजीवानामपि देवत्वापत्ते:। तत् आचार्यादयोऽपि देवा:, रत्नत्रयास्तित्वं प्रत्यविशेषात्। सम्पूर्णरत्नानि देवो न तदेकदेश इति चेन्न, रत्नैकदेशस्य देवत्वाभावे समस्तस्यापि तदसत्त्वापत्ते:। न चाचार्यादिस्थितरत्नानि कृत्स्नकर्मक्षयकतर्¸णि, रत्नैकदेशत्वादिति चेन्न, अग्निसमूहकार्यस्य पलालराशिदाहस्य तत्कणादप्युप-लम्भात्। तस्मादाचार्यादयोऽपि देवा इति स्थितम्।
पुनरपि कोई कहते हैं-
शंका – घातिकर्म से रहित सकल परमात्मा अर्हंतों को तथा अघातिया कर्मों से रहित निकल परमात्मा सिद्धों को तो तीन लोक के अधिपति परम देव मानकर नमस्कार करना ठीक है, किन्तु आचार्य आदि जो अष्टकर्मों से युक्त हैं उन्हें नमस्कार नहीं करना चाहिए क्योंकि इनमें देवत्व का अभाव है ?
समाधान – ऐसा नहीं है, क्योंकि अपने-अपने भेदों से अनन्त भेदरूप रत्नत्रय ही देव है, अतएव रत्नत्रय से युक्त जीव भी देव हैं अन्यथा यदि रत्नत्रय की अपेक्षा देवपना न माना जाये तो सम्पूर्ण जीवों को देवपना प्राप्त होने की आपत्ति आ जाएगी। इसलिए यह सिद्ध हुआ है कि आचार्यादिक भी रत्नत्रय के यथायोग्य धारक होने से देव हैं।
शंका – सम्पूर्ण रत्न अर्थात् पूर्णता को प्राप्त रत्नत्रय ही देव हैं, रत्नों का एक देश देव नहीं हो सकता है?
समाधान – ऐसा कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि रत्नत्रय के एक देश में देवपने का अभाव होने पर उसकी समग्रता में भी देवपना नहीं बन सकता है। अर्थात् जो कार्य जिसके एक देश में नहीं देखा जाता है वह उसकी पूर्णता में कहाँ से आ सकता है ? यहाँ पुन: शंकाकार कहता है कि ‘‘आचार्यादिक में स्थित रत्नत्रय समस्त कर्मों का क्षय करने में समर्थ नहीं हो सकते हैं क्योंकि उनमें एक देशपना ही है, पूर्णता नहीं है ? इसका समाधान करते हुए श्री वीरसेन स्वामी ने कहा है- तुम्हारा यह कथन भी समुचित नहीं है क्योंकि जिस प्रकार पलाल राशि-घास के ढेर का दाहरूप अग्नि समूह का कार्य अग्नि के एक कण से भी होता देखा जाता है, उसी प्रकार यहाँ पर भी आचार्यादिक के विषय में भी समझना चाहिए कि वे आचार्य, उपाध्याय, साधु सभी देव हैं यह बात निश्चित हो जाती है। (षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. १, पृ. २६-२७)
णमोकारमहामंत्रस्याक्षरपदमात्रादयो वण्र्यन्ते- अस्मिन् महामंत्रे पंचत्रिंशदक्षरा:, पंच पदानि, चतुस्त्रिंशत् स्वरा: त्रिंशद् व्यंजनानि सन्ति। अत्र सर्वे वर्णा: अजन्ता:, तर्हि पंचत्रिंशदक्षरेषु चतुस्त्रिंशत्स्वरा: कथमिति चेत्, उच्यन्ते-‘णमो अरिहंताणं’ अस्मिन् पदे सप्ताक्षरा: षट् स्वरा: ज्ञातव्या:। मंत्रशास्त्रस्य व्याकरणानुसारेण ‘अरिहंताणं’ अस्याकारस्य लोप: भवति। प्राकृतव्याकरणे ‘‘एङ:’’ नेत्यनुवर्तते। एङित्येदोतौ। एदोतो: संस्कृतोक्त: सन्धि: प्राकृते तु न भवति। यथा-देवो अहिणंदणो, अहो अच्चरिअं, इत्यादि। उपर्युक्तसूत्रानुसारेण सन्धिर्न भवत्यत: अकारस्यास्तित्वं यथावत् दृश्यते, अकारस्य लोप: खंडाकारो वा नास्ति। किन्तु मंत्रशास्त्रे ‘बहुलम्’ इति सूत्रानुसारेण ‘स्वरयोरव्यवधाने प्रकृतिभावो लोपो वैकस्य’ इति नियमेन ‘अ लोपो’ विकल्पेनात: अस्मिन् पदे षडेव स्वरा:। इति न्यायेन चतुस्त्रिंशत्स्वरा भवन्ति। तथैव अष्टपंचाशन्मात्रा: सन्ति। तावदष्टपंचाशन्मात्रा दर्शयन्ति- । ऽ । । ऽ ऽ ऽ । ऽ । ऽ ऽ । ऽ ऽ । । ऽ ऽ णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं। । ऽ । ऽ ऽ ऽ ऽ । ऽ ऽ ऽ ऽ । ऽ ऽ ऽ णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।। अस्मिन् मंत्रे प्रथमपदे एकादश (११) द्वितीयपदे अष्टौ (८) तृतीय पदे एकादश (११) चतुर्थपदे द्वादश (१२) पंचमपदे षोडश (१६) मात्रा गण्यन्ते (५८) अथवा ‘अरिहंताणं’ अस्य अकारलोपस्य मात्राभावे ‘सिद्धाणं’ इति पदे संयुक्ताक्षरस्य पूर्वो दीर्घ: इति नियमेनापि अष्टपंचाशन्मात्रा: सन्तीति ज्ञातव्यं। अत्र मंत्रस्य विश्लेषणे कृते सति- ण्±अ±म्±ओ±अ±र्±इ±ह्±अं±त्±आ±ण्±अं। ण्±अ±म्±ओ±स्±इ±द्±ध्±आ±ण्±अं। ण्±अ±म्±ओ±आ±इ±र्±इ±य्±आ±ण्±अं। ण्±अ±म्±ओ±उ±व्±अ±ज्±झ्±आ±य्±आ±ण्±अं। ण्±अ±म्±ओ±ल्±ओ±ए±स्±अ±व्±व्±अ±स्±आ±ह्±ऊ±ण्±अं। एषु स्वरव्यञ्जनानां पृथक्करणे चतुस्त्रिंशत्स्वरा: त्रिंशद्व्यञ्जनानि इति चतु:षष्टि: वर्णा: भवन्ति। किं च-‘द्धा ज्झा व्व’ इति संयुक्ताक्षराणां त्रय एव वर्णा गृहीता अत्र। पुनरत्र ‘‘अ, इ, उ, ए’’, ‘‘ज, झ, ण, त, द, ध, य, र, ल, व, स, ह’’ इति मूलस्वरव्यञ्जनानि समाहितानि भवन्ति। तथा च मूलवर्णा अपि चतु:षष्टिरेव। अतएव अस्मिन् महामंत्रे द्वादशांग: समाहितोऽस्ति- ‘‘चउसट्ठिपदं विरलिय, दुगं च दाऊण संगुणं किच्चा। रूऊणं च कए पुण, सुदणाणस्सक्खरा होंति।।’’ इति नियमेन गुणकारे कृते सति- एकट्ठ च च य छस्सत्तयं च च य सुण्णसत्ततियसत्ता। सुण्णं णव पण पंच य, एक्वं छक्केक्कगो य पणयं च।। इति गाथासूत्रेण- ‘‘१८४४६७४४०७३७०९५५१६१५’’ समस्तद्वादशांगश्रुतज्ञानस्याक्षरा: भवन्ति। अतएव णमोकारमहामंत्रे सर्वं द्वादशांगश्रुतज्ञानं समाहितं वर्तते।५ अथवायं मंत्रो द्वादशांगश्रुतज्ञानरूप एव। सर्वमंत्राणामाकरश्च वर्तते। अस्य माहात्म्यं शारदापि वर्णयितुं न शक्नोति। उक्तं च श्रीमदुमास्वामिना- एकत्र पंचगुरु मंत्रपदाक्षराणि, विश्वत्रयं पुनरनन्तगुणं परत्र। यो धारयेत्किल तुलानुगतं तथापि, वंदे महागुरुतरं परमेष्ठिमंत्रम्।। अत्रपर्यन्तं णमोकारमहामंगलगाथासूत्रस्य संक्षिप्तार्थ: कृत:।णमोकार महामंत्र के अक्षर-पद-मात्रा आदि का वर्णन करते हैं- इस महामंत्र में ३५ अक्षर हैं, पाँच पद हैं, चौंतीस स्वर हैं और तीस व्यंजन हैं। यहाँ सभी वर्ण अजन्त हैं तब पैंतीस अक्षरों में चौंतीस स्वर कैसे हो सकते हैं ? ऐसा प्रश्न होने पर उत्तर देते हैं- ‘‘णमो अरिहंताणं’’ इस प्रथम पद में कुल सात अक्षर हैं जिनमें ६ स्वर जानना चाहिए। मंत्र व्याकरण शास्त्र के अनुसार ‘अरिहंताणं’ पद के अकार का लोप हो जाता है। प्राकृत व्याकरण में ‘‘एङ:’’-नेत्यनुवर्तते। एङित्येदोतौ। एदोतो: संस्कृतोक्त: सन्धि: प्राकृते तु न भवति। यथा देवो अहिणंदणो, अहो अच्चरिअं। इत्यादि सूत्र के अनुसार संधि नहीं होती है अत: अकार का अस्तित्व ज्यों का त्यों रहता है, अकार का लोप अथवा खंडाकार (ऽ) नहीं होता है। किन्तु मंत्रशास्त्र में ‘‘बहुलम्’’ इस सूत्र के अनुसार ‘स्वरयोरव्यवधाने प्रकृतिभावो लोपो वैकस्य’ इस नियम से ‘अ’ का लोप विकल्प से हो जाता है, अत: ‘णमो अरिहंताणं’ इस पद में छह स्वर ही माने गये हैं। इस न्याय से पूरे णमोकार मंत्र में चौंतीस स्वर होते हैं। इसी प्रकार से उसमें अट्ठावन मात्रा हैं। उन अट्ठावन मात्राओं का दिग्दर्शन कराते हैं-। ऽ । । ऽ ऽ ऽ । ऽ । ऽ ऽ । ऽ ऽ । । ऽ ऽ णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं। । ऽ । ऽ ऽ ऽ ऽ । ऽ ऽ ऽ ऽ । ऽ ऽ ऽ णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।।इस मंत्र के प्रथम पद में ग्यारह मात्राएँ हैं, द्वितीय पद में आठ, तृतीय पद में ग्यारह, चतुर्थ पद में बारह और पंचम पद में सोलह मात्राएँ ऐसे कुल मिलाकर ११±८±११±१२±१६·५८ मात्राएँ हैं। अथवा अरिहंताणं के अकार का लोप हो जाने पर एक मात्रा का वहाँ अभाव हो गया और ‘‘सिद्धाणं’’ इस पद में ‘‘संयुक्ताक्षर के पूर्व का अक्षर दीर्घ हो जाता है’’ इस नियम से भी अट्ठावन मात्राएँ हो जाती हैं। भावार्थ – यहाँ त्रिविक्रम प्राकृत व्याकरण के अनुसार नियम बताया है कि एकार और ओकार से अवर्ण के आने पर संधि नही होती है इसीलिए णमो अरिहंताणं में ओ के बाद अ ज्यों का त्यों रखा गया है किन्तु मंत्र शास्त्र के विधान से अ का लोप कर देने पर णमो अरिहंताणं पद में १० मात्राएँ ही रह जाती हैं और इसी प्रकार से ५८ मात्राओं का जोड़ भी समुचित बैठता है। तब १०±९±११±१२±१६·५८ का योग बन जाता है। इस मंत्र का विश्लेषण करने पर-ण्±अ±म्±ओ±अ±र्±इ±ह्±अं±त्±आ±ण्±अं। ण्±अ±म्±ओ±स्±इ±द्±ध्±आ±ण्±अं। ण्±अ±म्±ओ±आ±इ±र्±इ±य्±आ±ण्±अं। ण्±अ±म्±ओ±उ±व्±अ±ज्±झ्±आ±य्±आ±ण्±अं। ण्±अ±म्±ओ±ल्±ओ±ए±स्±अ±व्±व्±अ±स्±आ±ह्±ऊ±ण्±अं।इन सभी वर्णों मे स्वर और व्यंजन पृथक् करने पर चौंतीस स्वर और तीस व्यंजन इस प्रकार चौंसठ वर्ण होते हैं। क्योंकि यहाँ ‘‘द्धा ज्झा व्व’’ इन संयुक्ताक्षरों के तीन वर्ण (व्यंजन) ही ग्रहण किए हैं न कि छह, पुन: यहाँ ‘‘अ इ उ ए’’ ‘‘ज झ ण त द ध य र ल व स ह’’ ये स्वर व्यंजन ही मूलरूप से इस मंत्र में समाहित हैं तथा मूलवर्ण भी चौंसठ ही होते हैं।
भावार्थ-इस महामंत्र में समस्त स्वर-व्यंजनों के अक्षर जोड़ने पर तो ६७ वर्ण होते हैं किन्तु जहाँ इसकी व्याख्या मिलती है वहाँ ६४ अक्षर ही माने गये हैं किन्तु कहीं खुलासा नहीं आया कि कौन से वर्णो को इसमे नहीं जोड़ा गया है। अत: संस्कृत टीकाकत्र्री विदुषी आर्यिका पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी ने उपर्युक्त तीन वर्णों के संयुक्ताक्षरों में एक-एक व्यंजन हटा कर ६४ मूलवर्णों की संख्या का दिग्दर्शन कराया है जो समुचित ही प्रतीत होता है। अतएव इस महामंत्र में सम्पूर्ण द्वादशांग श्रुत समाहित है, ऐसा जानना चाहिए। गाथार्थ – उक्त चौंसठ अक्षरों को अलग-अलग लिखकर (विरलन करके) प्रत्येक के ऊपर दो का अंक देकर परस्पर में सम्पूर्ण दो के अंकों का गुणा करने से लब्ध-प्राप्त हुई राशि-संख्या में एक घटा देने से जो प्रमाण रहता है उतने ही श्रुतज्ञान के अक्षर होते हैं। इस नियम से गुणकार करने पर- गाथार्थ – एक, आठ, चार, चार, छह, सात, चार, चार, शून्य, सात, तीन, सात, शून्य, नौ, पाँच, पाँच, एक, छह, एक, पाँच यह संख्या आती है। इस गाथा सूत्र के अनुसार-१८४४६७४४०७३७०९५५१६१५ ये समस्त द्वादशांग रूप श्रुतज्ञान के अक्षर होते हैं। अतएव णमोकार महामंत्र में द्वादशांगरूप समस्त-सम्पूर्ण श्रुतज्ञान समाहित है ऐसा जानना चाहिए अथवा यह मंत्र बारह अंगमयी श्रुतज्ञान रूप ही है, समस्त मंत्रों की यह खानि है अर्थात् इस मंत्र से ही सभी मंत्र उत्पन्न होते हैं अत: ८४ लाख मंत्रों का उद्भव इस णमोकार मंत्र से ही माना जाता है। इसका माहात्म्य-अतिशय शारदा माता-साक्षात् सरस्वती देवी भी वर्णन करने में समर्थ नहीं है। श्री उमास्वामी आचार्यवर्य ने कहा भी है- श्लोकार्थ-यदि कोई व्यक्ति तराजू के एक पलड़े पर पंचपरमेष्ठी के णमोकार के पद और अक्षरों को और दूसरे पलड़े पर अनन्तगुणात्मक तीनों लोकोें को रखकर तुलना करें तो भी वह णमोकार मंत्र वाले पलड़े को ही अधिक भारी (वजनदार) अनुभव करेगा, उस महान गौरवशाली णमोकार मंत्र को मैं नमस्कार करता हूँ।
भावार्थ – णमोकार मंत्र पूजन की जयमाला में भी लिखा है कि- -शेर छंद-इक ओर तराजू पे अखिल गुण को चढ़ाऊँ। इक ओर महामंत्र अक्षरों को धराऊँ।। इस मंत्र के पलड़े को उठा ना सके कोई। महिमा अनन्त यह धरे न इस सदृश कोई।।तात्पर्य यह है कि यह पंचनमस्कार मंत्र तीनों लोकों में सारभूत-महान है, इसके चिन्तन, मनन और ध्यान से परमेष्ठी पदों की प्राप्ति तो परम्परा से होती ही है तथा यह संसार में भी लौकिक सम्पदाओं को प्रदान कराता है। पुराण ग्रंथों में अनेकों उदाहरण मिलते हैं कि इस मंत्र को तिर्यंच प्राणियों को भी मरणासन्न अवस्था में सुनाने से उनको देवगति प्राप्त हो गई। इसका माहात्म्य जानकर योगीजन भी जीवन के अन्तकाल तक इस महामंत्र का आश्रय लेकर अपने समाधिमरण की सिद्धि करते हैं। (षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. १, पृ. २७ से ३०)
इयं द्वादशांगवाणी ग्रन्थेषु श्रुतदेवीरूपेणापि
वर्णिताऽस्ति। उत्तं च प्रतिष्ठातिलकग्रन्थे-
-आर्याछन्द:-
बारहअंगंगिज्जा-दंसणतिलया चरित्तवत्थहरा।
चोद्दसपुव्वाहरणा, ठावे दव्वा य सुयदेवी।।१।। –
अनुष्टुप् छंद:-
आचारशिरसं सूत्र-कृतवक्त्रां सुवंठिकाम्।
स्थानेन समवायांग-व्याख्याप्रज्ञप्तिदोर्लताम् ।।२।।
वाग्देवतां ज्ञातृकथो-पासकाध्ययनस्तनीम्।
अंतकृद्दशसन्नाभि – मनुत्तरदशांगत:।।३।।
सुनितम्बां सुजघनां, प्रश्नव्याकरणश्रुतात्।
विपाकसूत्रदृग्वाद-चरणां चरणाम्बराम्।।४।।
सम्यक्त्वतिलकां पूर्व-चतुर्दशविभूषणाम्।
तावत्प्रकीर्णकोदीर्ण-चारुपत्रांकुरश्रियम्।।५।।
आप्तदृष्टप्रवाहौघ – द्रव्यभावाधिदेवताम्।
परब्रह्मपथादृप्तां, स्यादुत्तिं भुक्तिमुक्तिदाम्।।६।।
-पुनश्च-मालिनीछंद:-
सकलयुवतिसृष्टेरम्ब! चूड़ामणिस्तवं,
त्वमसि गुणसुपुष्टेर्धर्मसृष्टेश्च मूलम्।
त्वमसि च जिनवाणि! स्वेष्टमुक्त्यंगमुख्या।
तदिह तव पदाब्जं भूरिभक्त्या नमाम:।।
श्रीवीरसेनाचार्येणापि प्रोत्तं- बारहअंगंगिज्जा
वियलिय-मल-मूढ-दंसणुत्तिलया।
विविह-वर-चरण-भूसा
पसियउ सुय-देवया सुइरं६।।२।।
अन्यत्र चापि- अंगंगबज्झणिम्मी,
अणाइमज्झंत-णिम्मलंगाए।
सुयदेवय-अंबाए, णमो सया
चक्खुमइयाए७।।४।।
सरस्वतीस्तोत्रेऽपि सरस्वतीदेव्या
लक्षणानि सन्ति।
यथा- चन्द्रार्वकोटिघटितोज्ज्वलदिव्यमूर्ते!
श्रीचन्द्रिकाकलितनिर्मलशुभ्रवासे!।
कामार्थदे! च कलहंससमाधिरूढे! वागीश्वरि!
प्रतिदिनं मम रक्ष देवि८।।१।।
अन्यच्च-
सरस्वती मया दृष्टा, दिव्या कमललोचना।
हंसस्वंâधसमारूढा, वीणापुस्तकधारिणी९।।
अस्या: सरस्वतीमातु: षोडशनामान्यपि गीयन्ते- भारती, सरस्वती, शारदा, हंसगामिनी, विदुषांमाता, वागीश्वरी, कुमारी, ब्रह्मचारिणी, जगन्माता, ब्राह्मणी, ब्रह्माणी, वरदा, वाणी, भाषा, श्रुतदेवी गौश्चेति१०। अन्यत्र-अष्टोत्तरशतनाममंत्रा:११ अपि विद्यन्ते। सरस्वतीदेव्या: मूर्तयो जैनमंदिरेषु अपि दृश्यन्ते। नेयं चतुर्णिकायदेवानां देवी। प्रत्युत द्वादशांगजिनवाणी स्वरूपा माता एव अतएव इयं मुनिभिरपि वंद्या भवति इति ज्ञातव्य:। वस्त्रालंकारभूषितापि न सरागिणी वस्त्रवेष्टितशास्त्रमिव सर्वदा पूज्या एव सर्वैस्तस्मान्नाशंकनीयं किचिदपि विद्वद्भि:।यह द्वादशांग वाणी ग्रंथों में श्रुतदेवीरूप से भी वर्णित की गई है। प्रतिष्ठातिलक ग्रंथ में कहा भी है—
गाथार्थ — श्रुतदेवी के बारह अंग हैं, सम्यग्दर्शन यह तिलक है, चारित्र उनका वस्त्र है, चौदह पूर्व उनके आभरण हैं ऐसी कल्पना करके श्रुतदेवी की स्थापना करनी चाहिए। बारह अंगों में से प्रथम जो ‘‘आचारांग’’ है, वह श्रुतदेवी-सरस्वती देवी का मस्तक है, ‘‘सूत्रकृतांग’’ मुख है, ‘‘स्थानांग’’ कण्ठ है, समवायांग और व्याख्याप्रज्ञप्ति ये दोनों अंग उनकी दोनों भुजाएँ हैं, ज्ञातृकथांग और उपासकाध्ययनांग ये दोनों अंग उस सरस्वती देवी के दो स्तन हैं, अंतकृद्दशांग यह नाभि है, अनुत्तरदशांग श्रुतदेवी का नितम्ब है, प्रश्नव्याकरणांग यह जघन भाग है, विपाकसूत्रांग और दृष्टिवादांग ये दोनों अंग उन सरस्वती देवी के दोनों पैर हैं। ‘‘सम्यक्त्व’’ यह उनका तिलक है, चौदह पूर्व अलंकार हैं और ‘‘प्रकीर्णक श्रुत’’ सुन्दर बेल-बूटे सदृश हैं। ऐसी कल्पना करके यहाँ पर द्वादशांग जिनवाणी को सरस्वती देवी के रूप में लिया गया है। श्री जिनेन्द्रदेव ने सर्व पदार्थों की सम्पूर्ण पर्यायों को देख लिया है, उन सर्व द्रव्य पर्यायों की यह ‘‘श्रुतदेवता’’ अधिष्ठात्री देवी हैं अर्थात् इनके आश्रय से पदार्थों की सर्व अवस्थाओं का ज्ञान होता है। परमब्रह्म के मार्ग का अवलोकन करने वाले लोगो के लिए यह स्याद्वाद के रहस्य को बतलाने वाली है तथा भव्यों के लिए भुक्ति और मुक्ति को देने वाली ऐसी यह सरस्वती माता है। हे अम्ब! आप सम्पूर्ण स्त्रियों की सृष्टि में चूड़ामणि हो। आपसे ही धर्म की और गुणों की उत्पत्ति होती है। आप मुक्ति के लिए प्रमुख कारण हो, इसलिए मैं अतीव भक्तिपूर्वक आपके चरणकमलों को नमस्कार करता हू।
श्रीवीरसेनाचार्य ने भी कहा है- गाथार्थ – जो श्रुतज्ञान के प्रसिद्ध बारह अंगों से ग्रहण करने योग्य हैं अर्थात् बारह अंगों का समूह ही जिसका शरीर है, जो सर्व प्रकार के मल (अतीचार) और तीन मूढ़ताओं से रहित सम्यग्दर्शन रूप उन्नत तिलक से विराजमान है और नाना प्रकार के निर्मल चारित्र ही जिनके आभूषण हैं ऐसी भगवती श्रुतदेवता चिरकाल तक प्रसन्न रहो। अन्यत्र भी कहा है- गाथार्थ — जिसका आदि-मध्य और अन्त से रहित निर्मल शरीर, अंग और अंगबाह्य से निर्मित है और जो सदा चक्षुष्मती अर्थात् जागृतचक्षु हैं ऐसी श्रुतदेवी माता को नमस्कार हो। सरस्वती स्तोत्र में भी सरस्वती देवी के लक्षण कहते हैं। जैसे— श्लोकार्थ—करोड़ों सूर्य और चन्द्रमा के एकत्रित तेज से भी अधिक तेज धारण करने वाली, चन्द्र किरण के समान अत्यंत स्वच्छ एवं श्वेत वस्त्र को धारण करने वाली तथा कलहंस पक्षी पर आरूढ़ दिव्यमूर्ति श्री सरस्वती देवी हमारी प्रतिदिन रक्षा करें। अन्यत्र भी कहा है—
श्लोकार्थ—दिव्य कमल के समान नेत्रों वाली, हंस वाहन पर आरूढ़, वीणा और पुस्तक को हाथ में धारण करने वाली सरस्वती देवी मैंने देखी है। उस सरस्वती माता के सोलह नाम भी गाये जाते हैं— १. भारती २. सरस्वती ३. शारदा ४. हंसगामिनी ५. विद्वानों की माता ६. वागीश्वरी ७. कुमारी ८. ब्रह्मचारिणी ९. जगन्माता १०. ब्राह्मिणी ११. ब्रह्माणी १२. वरदा १३. वाणी १४. भाषा १५. श्रुतदेवी १६. गो। अन्यत्र एक सौ आठ नाम मंत्र भी सुने जाते हैं। सरस्वती देवी की मूर्ति जैन मंदिरों में भी देखी जाती हैं, ये चार निकाय वाले देवों में से किसी निकाय की देवी नहीं हैं बल्कि द्वादशांग जिनवाणी स्वरूप माता ही हैं इसलिए मुनियों के द्वारा भी वंद्य हैं ऐसा जानना चाहिए। वस्त्र-अलंकारों से भूषित होने पर भी वे सरागी नहीं हैं। वस्त्र से वेष्टित शास्त्र के समान वे सरस्वती की प्रतिमाएँ भी सभी के द्वारा सर्वदा पूज्य ही हैं इसलिए विद्वानों को इस विषय में किंचित् भी शंका नहीं करनी चाहिए। (षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. १, पृ. ६६-६७-६८) ==
अक्षरज्ञानं कथ्यते- सर्वोत्कृष्टपर्यायसमासज्ञानादनन्तगुणमर्थाक्षरज्ञानं भवति। अस्य विस्तर:- रूपोनैकट्ठमात्रापुनरुक्ताक्षरसंदर्भरूपद्वादशांगश्रुतस्वंकंधजनितार्थज्ञानं श्रुतकेवलमित्युच्यते। तस्य श्रुत-केवलस्य संख्यातभागमात्रं अर्थाक्षरज्ञान-मित्युच्यते। अक्षराज्जातं ज्ञानं अक्षरज्ञानं अर्थविषयं अर्थस्य ग्राहकं ज्ञानं अर्थाक्षरज्ञानं। अथवा त्रिविधमक्षरं-लब्ध्यक्षरं निर्वृत्त्यक्षरं स्थापनाक्षरं चेति। तत्र पर्यायज्ञानावरणप्रभृतिश्रुतकेवलज्ञाना-वरणपर्यंतक्षयोपशमादुद्भूतात्मनोऽर्थग्रहण-शक्तिर्लब्धि: भावेन्द्रियं, तद्रूपं अक्षरं लब्ध्यक्षरं, अक्षर-ज्ञानोत्पत्तिहेतुत्वात्। कंठोष्ठताल्वादिस्थान-स्पष्टतादिकरण-प्रयत्ननिर्वत्त्र्यमानस्वरूपं अकारादि-ककारादि-स्वरव्यञ्जनरूपं मूलवर्णतत्संयोगादिसंस्थानं निर्वृत्त्यक्षरं। पुस्तकेषु तत्तद्देशानुरूपतया लिखितसंस्थानं स्थापनाक्षरम्। एवंविधैकाक्षरश्रवणसंजातार्थ-ज्ञानमेकाक्षरश्रुतज्ञानमिति जिनै: कथितत्वात् किंचित्प्रतिपादितम्। अत्र श्रुतनिबद्धविषयप्रमाणं दश्र्यते— पण्णवणिज्जा भावा अणंतभागो दु अणभिलप्पाणं। पण्णवणिज्जाणं पुण अणंतभागो सुदणिबद्धो।।३३४।। अनभिलाप्यानां अवाग्विषयाणां केवलं केवलज्ञानगोचराणां भावानां जीवाद्यर्थानां अनंतैकभागमात्रा: भावा: जीवाद्यर्था: प्रज्ञापनीया: तीर्थकरसातिशयदिव्यध्वनिप्रतिपाद्या भवन्ति। पुन: प्रज्ञापनीयानां भावानां जीवाद्यर्थानां अनंतैकभाग: श्रुतनिबद्ध: द्वादशांगश्रुतस्वंधस्य निबद्ध: भवतीत्यर्थ:।१३ अक्षरसमासलक्षणं कथ्यते— एकाक्षरजनितार्थज्ञानस्योपरि तु पुन: पूर्वोक्तषट्स्थानवृद्धिक्रमरहिततया एवैकाक्षरेणैव वर्धमाना: द्व्यक्षर-त्र्यक्षरादिरूपोनैकपदाक्षरमात्रपर्यंताक्षरसमुदाय-श्रवणसंजनिताक्षरसमासज्ञानविकल्पा: संख्येया: द्विरूपोनैकपदाक्षरप्रमितागता:। वर्तमानकाले इमे अक्षर-अक्षरसमासज्ञाने एवास्माकं विद्येते इति अवबुध्यते।
अक्षरज्ञान को कहते हैं— सर्वोत्कृष्ट पर्याय समास ज्ञान को अनंत से गुणा करने पर अर्थाक्षर श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है। इसी का विस्तार करते हैं- एक कम एक ही मात्र अपुनरुक्त अक्षरों की रचना रूप द्वादशांग श्रुतस्कन्ध से उत्पन्न हुए ज्ञान को श्रुतकेवलज्ञान कहते हैं। उस श्रुतकेवलज्ञान का संख्यातभागमात्र अर्थाक्षरज्ञान कहलाता है। अक्षर से उत्पन्न हुआ ज्ञान अक्षरज्ञान है, अर्थ के विषय को अथवा अर्थ के ग्राहक ज्ञान को अर्थाक्षरज्ञान कहते हैं। अथवा अक्षर तीन प्रकार का है—लब्ध्यक्षर, निर्वृत्यक्षर और स्थापनाक्षर। उनमें से पर्याय ज्ञानावरण से लेकर श्रुतकेवलज्ञानावरण पर्यन्त के क्षयोपशम से उत्पन्न आत्मा के अर्थ को ग्रहण करने की शक्ति लब्धिरूप भावेन्द्रिय है। उस रूप अक्षर लब्ध्यक्षर है क्योंकि वह अक्षर ज्ञान की उत्पत्ति में कारण है। कण्ठ, ओष्ठ, तालु आदि स्थानों की हलन-चलन आदि रूप क्रिया तथा प्रयत्न से जिनके स्वरूप की रचना होती है वे अकारादि स्वर, ककारादि व्यंजनरूप मूलवर्ण और उनके संयोग से बने अक्षर निर्वृत्यअक्षर हैं। पुस्तकों में उस-उस देश के अनुरूप लिखित अकारादि का आकार स्थापनाक्षर है। इस प्रकार के एक अक्षर के सुनने पर उत्पन्न हुआ अर्थज्ञान एकाक्षर श्रुतज्ञान है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है। उसी के आधार से मैंने किंचित् कहा है। अब श्रुत के विषय को तथा श्रुत में कितना निबद्ध है इसे कहते हैं— गाथार्थ — अनभिलप्य पदार्थों के अनंतवें भाग प्रमाण प्रज्ञापनीय पदार्थ होते हैं और प्रज्ञापनीय पदार्थों के अनंतवें भाग प्रमाण श्रुत में निबद्ध है।।३३४।। जो भाव अनभिलप्य अर्थात् वचन के द्वारा कहने में नहीं आ सकते, मात्र केवलज्ञान के ही विषय हैं ऐसे पदार्थ जीवादि के अनंतवें भाग मात्र प्रज्ञापनीय हैं अर्थात् तीर्थंकर की सातिशय दिव्यध्वनि के द्वारा कहे जाते हैं। पुन: प्रज्ञापनीय जीवादि पदार्थों का अनंतवाँ भाग द्वादशांग श्रुतस्कन्ध के विषयरूप से निबद्ध होता है ऐसा भावार्थ हुआ। अब अक्षर समास का लक्षण कहा जाता है— एक अक्षर से उत्पन्न अर्थज्ञान के ऊपर पूर्वोक्त षट्स्थान पतित वृद्धि के क्रम के बिना एक-एक अक्षर बढ़ते हुए दो अक्षर, तीन अक्षर आदि रूप एक हीन पद के अक्षर पर्यन्त अक्षर समूह के सुनने से उत्पन्न अक्षरसमास ज्ञान के विकल्प संख्यात हैं अर्थात् दो हीन पद के अक्षर प्रमाण हैं। वर्तमान काल में ये अक्षर और अक्षरसमास ज्ञान ही हम लोगों के हैं ऐसा माना जाता है। षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका
स्थापनानिक्षेप:- तत्र स्थापनामंगलं नाम आहितस्य नाम्न: अन्यस्य सोऽयमिति स्थापना स्थापनामंगलं। सा द्विविधा सद्भावासद्भावस्थापना चेति। तत्राकारवति वस्तुनि सद्भावस्थापना यथा चन्द्रप्रभप्रतिमायां सोऽयं चन्द्रप्रभो भगवान्, तद्विपरीते असद्भावस्थापना यथा पूगादिषु क्षेत्रपालस्थापना इति।टीकार्थ – मंगल में स्थापना निक्षेप दिखाते हैं- किसी नाम को धारण करने वाले दूसरे पदार्थ की ‘वह यह है’ इस प्रकार स्थापना करने को स्थापना कहते हैं। वह स्थापना दो प्रकार की है-सद्भावस्थापना, असद्भावस्थापना। इन दोनों में से आकारवान वस्तु में सद्भाव स्थापना होती है और इससे विपरीत असद्भावस्थापना जाननी चाहिए। उनमें स्थापना मंगल में किसी दूसरे नाम को धारण करने वाले पदार्थ में ‘‘यह वही है’’ इस प्रकार स्थापना करने को ‘स्थापना मंगल’ कहते हैं। वह स्थापना दो प्रकार की है-सद्भाव स्थापना और असद्भाव स्थापना। उनमें से किसी आकार वाली वस्तु में सद्भाव स्थापना होती है। जैसे-चन्द्रप्रभ की प्रतिमा में ‘ये चन्द्रप्रभ भगवान् हैं’ ऐसा मानना, इससे विपरीत में-बिना आकार वाली वस्तु में असद्भावस्थापना होती है, जैसे-सुपारी, नारियल आदि में क्षेत्रपाल की स्थापना कर लेना। भावार्थ – इन्हें तदाकार और अतदाकार स्थापना के नाम से भी जाना जाता है। ये दोनों स्थापनाएँ वर्तमान में व्यवहार में प्रचलित हैं। पंचपरमेष्ठी, नवदेवता, पंचबालयति, चौबीस तीर्थंकर, भरत, बाहुबली आदि प्रतिमाओं की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा सद्भाव स्थापना मंगल को ही दर्शाने वाली है तथा क्षेत्रपाल आदि की स्थापना जो नारियल, सुपारी आदि से की जाती है वह असद्भाव स्थापना की प्रतीक है एवं अनेक मंदिरों में इनकी तदाकार प्रतिमाएँ भी देखी जाती हैं। (षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. १, पृ. ३२)
पुन: मानुषीषु शेषगुणस्थानव्यवस्थानिरूपणार्थं सूत्रावतार: क्रियते श्रीपुष्पदन्तभट्टारकेण- सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठि-संजदासंजद-संजद-ट्ठाणे णियमा पज्जत्तियाओ।।९३।। सिद्धान्तचिंतामणिटीका-स्त्रीवेदविशिष्टमानुष्य: सम्यग्मिथ्यादृष्टि-असंयत-सम्यग्दृष्टि-संयतासंयत-संयतगुणस्थानेषु नियमात् पर्याप्तिका: एव भवन्ति। हुण्डावसर्पिण्यां स्त्रीषु सम्यग्दृष्टय: किन्नोत्पद्यन्ते इति चेत् ? नोत्पद्यन्ते। कुतोऽवसीयते ? अस्मादेवार्षात्। अस्मादेवार्षात् द्रव्यस्त्रीणां निर्वृत्ति: सिद्ध्येदिति चेत् ? न, सवासस्त्वादप्रत्याख्यानगुणस्थितानां संयमानुपपत्ते:। भावसंयमस्तासां सवाससामप्यविरुद्ध इति चेत् ? न तासां भावसंयमोऽस्ति, भावासंयमाविनाभाविवस्त्राद्युपादानान्यथानुपपत्ते:। कथं पुनस्तासु चतुर्दश गुणस्थानानीति चेत् ? न, भावस्त्रीविशिष्टमनुष्यगतौ तत्सत्त्वाविरोधात्। भाववेदो बादरकषायान्नोपर्यस्तीति न तत्र चतुर्दशगुणस्थानानां संभव इति चेत् ? न, अत्र वेदस्य प्राधान्याभावात्। गतिस्तु प्रधाना, न साराद्विनश्यति। वेदविशेषणायां गतौ न तानि संभवन्तीति चेत् ? न, विनष्टेऽपि विशेषणे उपचारेण तद्व्यपदेशमादधानमनुष्यगतौ तत्सत्त्वाविरोधात्। मनुष्यापर्याप्तेष्व-पर्याप्तिप्रतिपक्षाभावत: सुगमत्वान्न तत्र वक्तव्यमस्ति।’’१६ एवं श्रीवीरसेनाचार्येण धवलाटीकायां स्पष्टतया कथितं नात्र संदेह: कर्तव्य:। अत्रायमर्थ:-द्रव्यपुरुषवेदी कश्चिद् जीव: भावस्त्रीवेदेन चतुर्दशगुणस्थानानि लभते। श्रीकुंदकुंददेवेनापि सिद्धभक्तौ प्रोत्तं- पुंवेदं वेदंता जे पुरिसा खवगसेढिमारूढा। सेसोदयेण वि तहा झाणुवजुत्ता य ते हु सिज्झंति।।१७ एषा वेदविषमता तिर्यग्गतौ मनुष्यगतौ चैव न देवनारकाणामिति, न च भोगभूमिषु। एतदेव प्रोत्तंâ श्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवत्र्तिना- पुरुसिच्छिसंढवेदोदयेण पुरुसित्थिसंढवो भावे। णामोदयेण दव्वे पाएण समा कहिं विसमा।।२७१।। पुरुषस्त्रीषण्ढाख्यत्रिवेदानां चारित्रमोहभेदनोकषायप्रकृतीनामुदयेन भावे-चित्परिणामे यथासंख्यं पुरुष: स्त्री षण्ढश्च जीवो भवति। निर्माणनामकर्मोदययुक्ता-ङ्गोपाङ्गनामकर्मविशेषोदयेन, द्रव्ये पुद्गलद्रव्यपर्यायविशेषे पुरुष: स्त्री षण्ढश्च भवति। तद्यथा-पुंवेदोदयेन स्त्रियां अभिलाषरूपमैथुनसंज्ञाक्रान्तो जीवो भावपुरुषो भवति। स्त्रीवेदोदयेन पुरुषाभिलाषरूपमैथुनसंज्ञाक्रान्तो जीवो भावस्त्री भवति। नपुंसक-वेदोदयेन उभयाभिलाषरूपमैथुनसंज्ञाक्रान्तो जीवो भावनपुंसकं भवति। पुंवेदोदयेन निर्माणनामकर्मोदय-युक्ताङ्गोपाङ्गनामकर्मोदयवशेन श्मश्रुवूच्र्चशिश्ना-दिलिङ्गाज्र्तिशरीरविशिष्टो जीवो भवप्रथमसमयमादिं कृत्वा तद्भवचरमसमयपर्यन्तं द्रव्यपुरुषो भवति। स्त्रीवेदोदयेन निर्माणनामकर्मोदययुक्ताङ्गोपाङ्गनामकर्मोदयेन निर्लोममुखस्तनयोन्यादिलिङ्गलक्षितशरीरयुक्तो जीवो भवप्रथमसमयमादिं कृत्वा तद्भवचरमसमयपर्यन्तं द्रव्यस्त्री भवति। नपुंसकवेदोदयेन निर्माणनामकर्मोदय-युक्ताङ्गोपाङ्गनामकर्मोदयेन उभयलिङ्गव्यतिरिक्तदेहाज्र्तिो भवप्रथमसमयमािद कृत्वा तद्भवचरमसमयपर्यन्तं द्रव्यनपुंसकं जीवो भवति। एते द्रव्यभाववेदा: प्रायेण-प्रचुरवृत्या देवनारकेषु भोगभूमिसर्वतिर्यग्मनुष्येषु च समा: द्रव्यभावाभ्यां समवेदोदयाज्र्तिा भवन्ति। क्वचित् कर्मभूमिमनुष्यतिर्यग्गतिद्वये विषमा:-विसदृशा अपि भवन्ति। तद्यथा-द्रव्यत: पुरुषे भावपुरुष: भावस्त्री भावनपुंसकं इति विषमत्वं द्रव्यभावयोरनियम: कथित:। कुत: ? द्रव्यपुरुषस्य क्षपकश्रेण्या-रूढ़ानिवृत्ति-करणसवेदभागपर्यन्तं वेदत्रयस्य परमागमे ‘‘सेसोदयेण वि तहा झाणुवजुत्ता य ते दु सिज्झंति।’’ इति प्रतिपादितत्वेन संभवात्।। अस्यायमर्थ:-मनुष्या: कर्मभूमिजा: द्रव्येण पुरुषा: अपि यदि भावेन स्त्रीवेदिन: नपुंसकवेदिनो वा तर्हि अपि मोक्षं प्राप्नुवन्ति। पुन: मनुष्यिनियों में शेष गुणस्थानों की व्यवस्था का निरूपण करने हेतु श्रीपुष्पदंतभट्टारक के द्वारा सूत्र का अवतार किया जाता है— सूत्रार्थ— मनुष्यिनियाँ सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत गुणस्थानों में नियम से पर्याप्तक होती हैं।।९३।।सिद्धान्तिंचतामणिटीका—स्त्रीवेदी मनुष्यिनियाँ तृतीय, चतुर्थ, पंचम और छठे आदि गुणस्थानों में नियम से पर्याप्तक होती हैं।
शंका — हुण्डावसर्पिणी काल के दोष से स्त्रियों में सम्यग्दृष्टि जीव क्यों नहीं उत्पन्न होते हैं ?
समाधान — उनमें सम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होते हैं।
शंका — यह किस प्रमाण से जाना जाता है ?
समाधान — इसी आर्षवचन से जाना जाता है।
शंका — तो इसी आर्षवचन से द्रव्य स्त्रियों का मुक्ति जाना भी सिद्ध हो जाएगा ?
समाधान — नहीं, क्योंकि वस्त्र सहित होने से उनके संयतासंयत गुणस्थान होता है अतएव उनके संयम की उत्पत्ति नहीं हो सकती है।
शंका — वस्त्र सहित होते हुए भी उन द्रव्य स्त्रियों के भाव संयम के होने में कोई विरोध नहीं होना चाहिए ?
समाधान — उनके भावसंयम नहीं है क्योंकि अन्यथा अर्थात् भावसंयम के मानने पर उनके भाव असंयम का अविनाभावी वस्त्रादिक का ग्रहण करना नहीं बन सकता है।
शंका — तो फिर स्त्रियों में चौदह गुणस्थान होते हैं यह कथन कैसे बनेगा ?
समाधान — नहीं, क्योंकि भावस्त्री अर्थात् स्त्रीवेदयुक्त मनुष्यगति में चौदहों गुणस्थानों के सद्भाव मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है।
शंका — बादरकषाय गुणस्थान के ऊपर भाववेद नहीं पाया जाता है इसलिए भाववेद में चौदह गुणस्थानों का सद्भाव नहीं हो सकता है ?
समाधान — नहीं, क्योंकि यहाँ पर अर्थात् गतिमार्गणा में वेद की प्रधानता नहीं है, किन्तु गति प्रधान है और वह पहले नष्ट नहीं होती है।
शंका — यद्यपि मनुष्यगति में चौदह गुणस्थान हो सकते हैं फिर भी उसे वेद विशेषण से युक्त कर देने पर उसमें चौदह गुणस्थान संभव नहीं हो सकते हैं ऐसा क्यों ?
समाधान — नहीं, क्योंकि विशेषण के नष्ट हो जाने पर भी उपचार से उस विशेषण युक्त संज्ञा को धारण करने वाली मनुष्यगति में चौदह गुणस्थानों का सद्भाव होने में कोई विरोध नहीं आता है। मनुष्य अपर्याप्तकों में अपर्याप्ति का कोई प्रतिपक्षी नहीं होने से और उनका कथन सुगम होने से इस विषय में कुछ अधिक कहने योग्य नहीं है। इसलिए इस संबंध में स्वतन्त्ररूप से नहीं कहा गया है। ऐसा श्रीवीरसेनाचार्य ने धवला टीका में स्पष्टरूप से कह दिया है अत: इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं करना चाहिए। यहाँ अभिप्राय यह है कि द्रव्य पुरुषवेदी कोई कर्मभूमियाँ मनुष्य भाव से स्त्रीवेद के द्वारा भी चौदहों गुणस्थानों को प्राप्त करते हैं। श्रीकुन्दकुन्ददेव ने भी सिद्धभक्ति में कहा है—
गाथार्थ — जो पुरुष द्रव्य से पुरुषवेद के द्वारा क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ हैं, वे ही द्रव्यपुरुषवेदी भाव से स्त्री या नपुंसकवेदी होते हुए भी शुक्लध्यान के द्वारा सिद्ध पद को प्राप्त करते हैं। इसी भाव को सिद्धभक्ति के पद्यानुवाद में लिया है-जो भाव पुरुषवेदी मुनिवर वर क्षपकश्रेणि चढ़ सिद्ध हुए। जो भाव नपुंसकवेदी भी थे पुरुषध्यान धर सिद्ध हुए।। जो भाववेद स्त्री होकर भी द्रव्यपुरुष अतएव उन्हें। हो शुक्लध्यान सिद्धि जिससे सब कर्म नाश कर सिद्ध बनें।।यह वेद की विषमता तिर्यंचगति और मनुष्यगति में ही है, देव और नारकियों में नहीं है और भोगभूमि में भी नहीं है। श्री नेमिचंद्रसिद्धान्तचक्रवर्ती ने भी यही बात कही है—
गाथार्थ — पुरुष, स्त्री और नपुंसकवेद कर्म के उदय से भावपुरुष, भावस्त्री, भावनपुंसक होता है और नामकर्म के उदय से द्रव्यपुरुष, द्रव्यस्त्री, द्रव्यनपुंसक होता है। सो यह भाववेद और द्रव्यवेद प्राय: करके समान होता है परन्तु कहीं-कहीं विषम भी होता है।।२७१।। चारित्रमोहनीय का भेद नोकषाय की पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद नामक प्रकृतियों का उदय होने पर जीवभाव अर्थात् चित्परिणाम में पुरुष, स्त्री या नपुंसक होता है। निर्माण नामकर्म के उदय से युक्त आंगोपांगनामकर्म विशेष के उदय से द्रव्य अर्थात् पुद्गलद्रव्य की पर्यायविशेष में पुरुष, स्त्री और नपुंसक होता है। वह इस प्रकार जानना कि पुरुषवेद के उदय से स्त्री में अभिलाषा रूप मैथुन संज्ञा से आक्रान्त जीव भावपुरुष होता है। स्त्रीवेद के उदय से पुरुष की अभिलाषारूप मैथुन संज्ञा से आक्रान्त जीव भावस्त्री होता है। नपुंसकवेद के उदय से स्त्री और पुरुष दोनों की अभिलाषा रूप मैथुन से आक्रान्त जीव भावनपुंसक होता है। पुरुषवेद के उदय से तथा निर्माणनामकर्म के उदय से युक्त आंगोपांग नामकर्म के उदयवश दाढ़ी, मूँछ, शिश्न आदि चिन्हों से अंकित शरीर से विशिष्ट जीव भव के प्रथम समय से लेकर उस भव के अंतिम समय पर्यन्त द्रव्यपुरुष होता है। स्त्रीवेद के उदय से तथा निर्माण नामकर्म के उदय से युक्त आंगोपांग नामकर्म के उदय से रोमरहित मुख, स्तन, योनि आदि चिन्हों से युक्त शरीर वाला जीव भव के प्रथम समय से लेकर उस भव के अंतिम समय पर्यन्त द्रव्यस्त्री होता है। नपुंसकवेद के उदय से तथा निर्माण नामकर्म के उदय से युक्त आंगोपांग नामकर्म के उदय से दोनों लिंगों से भिन्न शरीर वाला जीव भव के प्रथम समय से लेकर उस भव के अंतिम समय पर्यन्त द्रव्यनपुंसक होता है। ये द्रव्यवेद और भाववेद प्राय: देव, नारकियों और भोगभूमि के सब तिर्यंचों तथा मनुष्यों में सम होते हैं किन्तु क्वचित् तिर्यंचगति और मनुष्यगति में विषम होते हैं। जैसे-द्रव्य से पुरुष भाव से पुरुष, स्त्री या नपुंसक होता है। द्रव्य से स्त्री भाव से पुरुष, स्त्री या नपुंसक होता है। द्रव्य से नपुंसक भाव से पुरुष, स्त्री या नपुंसक होता है। इस प्रकार द्रव्य और भाव का अनियम विषम शब्द से कहा है क्योंकि क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ जीव के अनिवृत्तिकरण से सवेद भागपर्यन्त तीनों वेदों का अस्तित्व परमागम में कहा है। शेष वेदों के उदय से भी ध्यान में मग्न जीव मुक्ति प्राप्त करते हैं। इसका अर्थ यह है कि कर्मभूमिज मनुष्य आदि द्रव्य से पुरुषवेदी होते हुए भी भाव से स्त्रीवेदी अथवा नपुंसकवेदी भी हैं तो भी मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं। षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका
१. पंचमेण इति पाठान्तरं।
२. षट्खण्डागम (धवला टीका समन्वित) पुस्तक १, पृ. ५५।
३. षट्खण्डागम (धवला टीका समन्वित) पुस्तक १, पृ. ५४।
४. ‘मंगलमंत्र णमोकार-एक अनुचिन्तन’ पुस्तक, पृ. ४३।
५. ‘मंगलमंत्र णमोकार’ : एक अनुचिन्तन पुस्तक, पृ. ४४।
६. षट्खण्डागम (धवला टीका समन्वित) पुस्तक १, पृ. ६।
७. कसायपाहुड़ पु. १, पृ. ३।
८-९. जिनस्तोत्रसंग्रह (वीर ज्ञानोदय गंरथमाला, जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर से प्रकाशित)।
१०. जिनस्तोत्रसंग्रह (वीर ज्ञानोदय गंरथमाला, जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर से प्रकाशित)।
११. श्रुतस्वंधविधान (वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला, जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर से प्रकाशित)।
१२. गोम्मटसार जीवकाण्ड, जीवतत्त्वप्रदीपिका टीकायां, गाथा ३३४।
१३. गोम्मटसार जीवकाण्ड, पृ. ५३१-५६५।
१४. षट्खण्डागम (धवला टीका समन्वित) पुस्तक १, पृ. २०।
१५. ‘‘संजदासंजदट्ठाणे’’ मु प्रतौ एतावदेव पाठ: उपलभ्यते।
१६. धवला, पुस्तक १, पृ. ३३५।
१७. सद्धभक्ति प्राकृत।
(सिद्धान्तचिंतामणि टीका) से संग्रहीत
मंगलाचरणम्सिद्धिकन्याविवाहार्थं, त्यक्त्वा राजीमतीं सतीम्।
दीक्षां लेभे महायोगिन्! नेमिनाथ! नमोऽस्तु ते।।१।।
श्लोकार्थ- सिद्धि कन्या से विवाह करने हेतु जिन्होंने सती राजमती का त्याग करके जैनेश्वरी-मुनिदीक्षा धारण की थी ऐसे हे महायोगिराज! नेमिनाथ भगवन्! आपको मेरा नमस्कार होवे।।१।।
सम्यग्दृष्टिजीवानां बुद्धिस्थितपरमेष्ठिनां मिथ्यादृष्टिजीवानामिव मरणकाले संक्लेशाभावात्। उत्तं च श्रीवीरसेनाचार्येण धवलाटीकायां- ‘‘सम्माइट्ठीणं बुद्धिट्ठियपरमेट्ठीणं मिच्छाइट्ठीणं मरणकाले संकिलेसाभावादो।’’
शंका – तिर्यंच और मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले सम्यग्दृष्टि देव अन्तर्मुहूर्त तक अपनी पहली लेश्याओं को नहीं छोड़ते हैं, इसका क्या कारण है ?
समाधान – इसका कारण यह है कि बुद्धि में स्थित है परमेष्ठी जिनके अर्थात् परमेष्ठी के स्वरूप चिन्तवन में जिनकी बुद्धि लगी हुई है ऐसे सम्यग्दृष्टि देवों के मरण काल में मिथ्यादृष्टि देवों के समान संक्लेश नहीं पाया जाता है। इसलिए अपर्याप्तकाल में उनकी पहले की शुभलेश्याएं ज्यों की त्यों बनी रहती हैं।
श्रीवीरसेनाचार्य ने धवलाटीका में कहा भी है- ‘‘मरण के समय मिथ्यादृष्टियों को जिस प्रकार संक्लेश होता है उसी प्रकार जिनकी बुद्धि में परमेष्ठी स्थित हैं उन सम्यग्दृष्टि देवों को मरण के समय संक्लेश नहीं होता है।’’
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. २, पृ. २०९)
मनुष्यिनीनां भण्यमाने सन्ति चतुर्दश गुणस्थानानि, द्वौ जीवसमासौ, षट् पर्याप्तयः, षडपर्याप्तयः, दश प्राणाः सप्त प्राणाः, चतस्रः संज्ञाः, क्षीणसंज्ञा अपि अस्ति, मनुष्यगतिः, पञ्चेन्द्रियजातिः, त्रसकायः, एकादश योगाः अयोगोऽप्यस्ति, अत्र आहार-आहारमिश्रकाययोगौ नस्तः। किं कारणम् ? येषां भावः स्त्रीवेदो द्रव्यं पुनः पुरुषवेदः, तेऽपि जीवाः संयंमं प्रतिपद्यन्ते। द्रव्यस्त्रीवेदाः संयमं न प्रतिपद्यन्ते सचेलत्वात्। भावस्त्रीवेदानां द्रव्येण पुंवेदानामपि संयतानां नाहारद्र्धिः समुत्पद्यते द्रव्यभावाभ्यां पुरुषवेदानामेव समुत्पद्यते तेन स्त्रीवेदेऽपि निरुद्धे आहारद्विकं नास्ति, ततः कारणात् एकादशयोगाः भणिताः। स्त्रीवेदोऽपगतवेदोऽप्यस्ति, अत्र भाववेदेन प्रयोजनं न च द्रव्यवेदेन। किं कारणम् ? ‘अवगदवेदो वि अत्थि’ इति वचनात्। चत्वारः कषायाः, अकषायोऽप्यस्ति, मनःपर्ययज्ञानेन विना सप्त ज्ञानानि, परिहारसंयमेन विना षट् संयमाः, चत्वारि दर्शनानि, द्रव्यभावाभ्यां षड्लेश्याः अलेश्याप्यस्ति, भव्यसिद्धिका अभव्यसिद्धिकाः, षट् सम्यक्त्वानि, संज्ञिन्यः, नैव संज्ञिन्यः नैवासंज्ञिन्योऽपि सन्ति, आहारिण्योऽनाहारिण्यः, साकारोपयुक्ता भवन्त्यनाकारोप-युक्ता वा साकारानाकाराभ्यां युगपदुपयुक्ता वा ।अब स्त्रीवेदी मनुष्यों (मनुष्यिनी) के आलाप कहे जाते हैं- उनके चौदहों गुणस्थान होते हैं, दो जीवसमास (संज्ञी पर्याप्त और असंज्ञी पर्याप्त), छहों पर्याप्तियाँ-छहोें अपर्याप्तियाँ , दशों प्राण-सात प्राण, चारों संज्ञाएं तथा क्षीणसंज्ञास्थान भी है। मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रियजाति, त्रसकाय, ग्यारह योग (चारों मनोयोग, चारों वचनयोग, औदारिक- काययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग) तथा अयोगस्थान भी है। इन मनुष्यिनियों के आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोग ये दो योग नहीं होते हैं।
शंका – स्त्रीवेदी मनुष्यों में आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोग नहीं होने का कारण क्या है ?
समाधान – भाव से जिनके स्त्रीवेद होता है और द्रव्य से पुरुषवेद होता है, वे जीव भी संयम को प्राप्त होते हैं किन्तु द्रव्य से स्त्रीवेद वाले जीव पूर्ण संयम को धारण नहीं करते हैं क्योंकि वे सचेल-वस्त्रसहित होते हैं। भावस्त्रीवेदी कोई जीव द्रव्य से यदि पुरुषवेदी भी हैं तो उन संयमियों के आहारकऋद्धि नहीं उत्पन्न होती है किन्तु द्रव्य और भाव दोनों से जो पुरुषवेदी ही होते हैं उनके आहारकऋद्धि उत्पन्न होती है, इसलिए स्त्रीवेद वाले मनुष्यों के आहारकद्विक के बिना ग्यारह योग कहे गये हैं। योग आलाप के आगे स्त्रीवेद तथा अपगत वेदस्थान भी होता है। यहाँ भाववेद से प्रयोजन है, द्रव्यवेद से नहीं।
प्रश्न-ऐसा किस कारण है ?
उत्तर – आगम में अपगतवेद भी होने का वचन आया है। यदि केवल द्रव्यवेद का ही कथन किया जाता तो अपगतवेदस्थान नहीं बन सकता था, क्योंकि द्रव्यवेद चौदहवें गुणस्थान के अंत तक होता है परन्तु ‘‘अपगतवेद भी होता है’’ इस प्रकार का वचन निर्देश नवमें गुणस्थान के अवेदभाग से किया गया है, जिससे प्रतीत होता है कि यहाँ भाववेद से ही प्रयोजन है, द्रव्यवेद से नहीं। वेद आलाप के आगे चारों कषाय तथा अकषायस्थान भी होता है। मनःपर्यय ज्ञान के बिना सात ज्ञान, परिहार विशुद्धि संयम के बिना छह संयम, चारों दर्शन, द्रव्य और भाव से छहों लेश्याएं तथा अलेश्यास्थान भी होता है। भव्यसिद्धिक, अभव्यसिद्धिक, छहों सम्यक्त्व, संज्ञिनी और असंज्ञिनी इन दोनों विकल्पों से रहित स्थान भी होता है। आहारिणी, अनाहारिणी, साकारोपयोगिनी, अनाकारोपयोगिनी तथा साकार और अनाकार दोनों उपयोगों से युगपत् भी होती हैं।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. २, पृ. ९५ से ९६-९७)
अप्कायिकानां पृथिवीकायिकवद् भंगः। विशेषेण सामान्यालापे भण्यमाने पृथिवीकायिकस्थाने अप्कायिको वक्तव्यः, द्रव्येण अपर्याप्तकाले कापोतशुक्ल-लेश्ये पर्याप्तकाले स्फटिकवर्णलेश्या वक्तव्या। तेषामेव सूक्ष्माप्कायिकानां पर्याप्तकाले द्रव्येण कापोतलेश्या तथा च बादराप्कायिकानां द्रव्येण पर्याप्तकाले स्फटिकवर्णशुक्ललेश्या कथयितव्या। कुत एतत् ? घनोदधि-घनवलय-आकाशपतितपानीयानां धवलवर्णदर्शनात् । अत्र केचिदाचार्या वदन्ति-धवल-कृष्ण-नील-पीत-रक्त-आताम्र-वर्णपानीयदर्शनात् न धवलवर्णमेव पानीयमिति चेत् ? तन्न घटते, आकारसद्भावे मृत्तिकायाः संयोगेन जलस्य बहुवर्णव्यवहार-दर्शनात्। अपां स्वभाववर्णः पुनो धवलश्चैव।अप्कायिक जीवों के आलाप पृथिवीकायिक जीवों के समान ही समझना चाहिए। विशेष बात यह है कि उनके सामान्य आलाप कहते समय ‘पृथ्वीकायिक’ के स्थान पर ‘अप्कायिक’ कहना चाहिए और लेश्या के प्रकरण में द्रव्य से अपर्याप्तकाल में कापोत और शुक्ललेश्या और पर्याप्तकाल में स्फटिक वर्ण वाली अर्थात् शुक्ललेश्या कहना चाहिए। उन्हीं सूक्ष्म अप्कायिक जीवों के पर्याप्तकाल में द्रव्य से कापोत लेश्या कहना चाहिए तथा बादर अप्कायिक जीवों के द्रव्य से पर्याप्तकाल में स्फटिकवर्णवाली शुक्ल लेश्या कहनी चाहिए।
प्रश्न-ऐसा क्यों ?
उत्तर – क्योंकि घनोदधिवात और घनवलयवात द्वारा आकाश से गिरे हुए पानी का धवलवर्ण देखा जाता है। यहाँ पर कुछ आचार्य कहते हैं कि धवल, कृष्ण, नील, पीत, रक्त, आताम्रवर्ण का पानी देखा जाने से पानी धवलवर्ण ही होता है ऐसा कहना भी नहीं बनता है ? परन्तु उनका यह कथन ठीक से घटित नहीं होता है क्योंकि आधार के होने पर मिट्टी के संयोग से जल अनेक वर्ण वाला हो जाता है ऐसा व्यवहार देखा जाता है किन्तु जल का स्वाभाविक वर्ण धवल ही है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. २, पृ. ६०९-६१०)
किं कारणम् ? अप्रशस्तवेदाभ्यां सह आहारद्र्धिर्न उत्पद्यते। चत्वारः कषायाः, त्रीणि ज्ञानानि, मनःपर्ययज्ञानं नास्ति। किञ्च, आहारमनः-पर्ययज्ञानयोः सहानवस्थानलक्षणविरोधात्। द्वौ संयमौ, परिहारशुद्धिसंयमो नास्ति, एतेनापि सह आहारशरीरस्य विरोधात्। त्रीणि दर्शनानि, द्रव्येण शुक्ललेश्या, भावेन तेजःपद्मशुक्ललेश्याः, भव्यसिद्धिकाः, द्वे सम्यक्त्वे, उपशमसम्यक्त्वं नास्ति, एतेनापि सह विरोधात्।
प्रश्न-आहारककाययोगी जीवों के उपर्युक्त दोनों वेदों के (स्त्रीवेद व नपुंसक वेदों के) नहीं होने का क्या कारण है?
उत्तर – क्योंकि अप्रशस्त वेदों के साथ आहारक ऋद्धि नहीं उत्पन्न होती है। वेद आलाप के आगे चारों कषाय, आदि के तीन ज्ञान होते हैं। उनके मनःपर्ययज्ञान नहीं होता है क्योंकि आहारकऋद्धि और मनःपर्ययज्ञान का सहानवस्थानलक्षण विरोध है अर्थात् ये दोनों एक साथ एक जीव में नहीं रहते हैं। पुनः उनके दो संयम (सामायिक और छेदोपस्थापना) होते हैं, किन्तु परिहारविशुद्धि संयम नहीं होता है क्योंकि इसके साथ भी आहारकशरीर का विरोध है। संयम आलाप के आगे तीनों दर्शन (आदि के), द्रव्य से शुक्ललेश्या तथा भाव से पीत, पद्म, शुक्ल ये तीन लेश्याएं, भव्यत्व, दो सम्यक्त्व (क्षायिक, क्षायोपशमिक) होते हैं परन्तु उनके उपशम सम्यक्त्व नहीं होता है क्योंकि इसके साथ भी आहारक शरीर का विरोध है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. २, पृ. २१५-२१६)
मनःपर्ययज्ञानिनां औपशमिकसम्यक्त्वं कथं संभवति ? यः कश्चित् वेदकसम्यक्त्वानन्तरं द्वितीयसम्यक्त्वं प्राप्नोति, तस्य सम्यक्त्वस्य प्रथमसमयेऽपि मनःपर्ययज्ञानोपलंभात्। तथा मिथ्यात्वानन्तरं उपशमसम्यग्दृष्टौ मनःपर्ययज्ञानं नोपलभ्यते, मिथ्यात्व पश्चादुत्कृष्टोपशमसम्यक्त्वकालादपि गृहीतसंयमप्रथमसमयात् सर्वजघन्यमनःपर्ययज्ञानोत्पादनसंयमकालस्य बहुत्वोपलंभात्। मनःपर्ययज्ञानेन सह उपशमश्रेण्याः अवतीर्य प्रमत्तगुणस्थानं प्रतिपन्नस्य उपशमसम्यक्त्वेन सह मनःपर्ययज्ञानं लभ्यते, किन्तु मिथ्यात्वपश्चादागत-उपशमसम्यग्दृष्टिप्रमत्तसंयतस्य मनःपर्ययज्ञानं नोत्पद्यते, तत्रोत्पत्तिसंभवाभावात्।
प्रश्न-मनःपर्ययज्ञानी जीवों के औपशमिक सम्यक्त्व कैसे संभव हो सकता है ?
उत्तर – इसका समाधान यह है कि जो कोई मनुष्य वेदक सम्यक्त्व के अनंतर द्वितीय सम्यक्त्व को प्राप्त करता है उनके सम्यक्त्वप्राप्ति के प्रथम समय में भी मनःपर्ययज्ञान की प्राप्ति हो जाती है तथा मिथ्यात्व के पश्चात् उपशमसम्यग्दृष्टि जीव में मनःपर्ययज्ञान नहीं हो सकता है। मिथ्यात्व के पश्चात् उत्पन्न हुए उत्कृष्ट उपशमसम्यक्त्वकाल से भी ग्रहण किया गया संयम प्रथम समय से सर्वजघन्य मनःपर्ययज्ञान के उत्पादन में संयमकाल का बहुत्व देखा जाता है। उपशमसम्यग्दृष्टि के मनःपर्ययज्ञान होता है इसका कारण यह है कि मन:पर्ययज्ञान के साथ उपशमश्रेणी से उतरकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान को प्राप्त हुए जीव के औपशमिकसम्यक्त्व के साथ मनःपर्ययज्ञान पाया जाता है। किन्तु मिथ्यात्व से पीछे आए हुए उपशमसम्यग्दृष्टि प्रमत्तसंयत जीव के मनःपर्ययज्ञान नहीं पाया जाता है, क्योंकि प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टि प्रमत्तसंयत के मनःपर्ययज्ञान की उत्पत्ति संभव नहीं है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. २, पृ. २५३, ३१५)
१८. धवलाटीकासमन्वित षट्खण्डागम पु. २, पृ. ६५७।
१९. धवलाटीकासमन्वित षट्खण्डागम पु. २, पृ. ६०९-६१०।
२०. धवलाटीका समन्वित षट्खंडागम पु. २, पृ. ८२२।
षट्खण्डागम पुस्तक-३
(सिद्धान्तचिंतामणि टीका) से संग्रहीत
मंगलाचरणम्
अनन्तानन्तमाना ये, सिद्धास्तेभ्यो नमो नम:।
द्रव्यप्रमाणज्ञानार्थ-मेतं ग्रन्थमपि स्तुम:।।१।।
श्लोकार्थ-अनंतानंत प्रमाण जो सिद्ध भगवान हैं उनको मेरा बारम्बार नमस्कार होवे। अपने संख्याज्ञान-द्रव्यप्रमाणानुगम ज्ञान की वृद्धि के लिए इस ग्रंथ की भी हम स्तुति करते हैं।
इस प्रकार प्रमत्तसंयत नामक छठे गुणस्थान से लेकर अयोगीजिन (चौदहवें गुणस्थान)पर्यन्त तीन कम नौ करोड़ मुनियों की संख्या हो जाती है। धवला टीका में श्री वीरसेन स्वामी ने कहा है- ‘‘ इस प्रकार प्ररूपण की गई सम्पूर्ण संयत जीवों की राशि को एकत्रित करने पर कुल संख्या आठ करोड़ निन्यानवे लाख निन्यानवे हजार नौ सौ सत्तानवे (८९९९९९९७)होती है।’’ अन्यत्र गंरथ में भी इसी प्रकार का कथन आया है-
गाथार्थ – सात का अंक आदि में और अंत में आठ का अंक लिखकर दोनों के मध्य में छह बार नौ के अंक लिखने पर ८९९९९९९७ तीन कम नौ करोड़ संख्याप्रमाण सब संयमियों को मैं हाथों की अंजलि मस्तक से लगाकर मन-वचन-काय की शुद्धि से नमस्कार करता हूँ।
उसी का स्पष्टीकरण करते हैं – प्रमत्तसंयत मुनियों की संख्या पांच करोड़ तिरानवे लाख अट्ठानवे हजार दो सौ छह (५९३९८२०६) है। अप्रमत्तसंयत मुनियों की संख्या दो करोड़ छियानवे लाख निन्यानवे हजार एक सौ तीन (२९६९९१०३) है। चार गुणस्थानवर्ती (आठवें,नवमें,दशवें और ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती) उपशामक मुनि ग्यारह सौ छियानवे (११९६) होते हैं तथा क्षपक श्रेणी सम्बन्धी चार गुणस्थानवर्ती और अयोगकेवली जीवों की संख्या दश कम तीन हजार (२९९०) है। तेरहवें गुणस्थानवर्ती सयोगकेवली जीव आठ लाख अट्ठानवे हजार पाँच सौ दो (८९८५०२) प्रमाण हैं। इस प्रकार यह सम्पूर्ण संख्या मिलकर आठ करोड़ निन्यानवे लाख निन्यानवे हजार नौ सौ सत्तानवे अर्थात् तीन कम नौ करोड़ प्रमाण हो जाती है और ये सभी प्रमत्तसंयत से लेकर अयोगकेवलीजिनपर्यन्त संयत-मुनि की संज्ञा से जाने जाते हैं। एक समय में एक सौ सत्तर कर्मभूमियों में होने वाले संयत इतनी संख्याप्रमाण होते हैं, ऐसी दक्षिणप्रतिपत्ति है। उपर्युक्त गाथाओं का कथन उचित नहीं है, ऐसा कोई आचार्य युक्ति के बल से बताते हैं। वह कौन सी युक्ति है ? उसे कहते हैं- सभी तीर्थंकरों की अपेक्षा पद्मप्रभ भट्टारक(भगवान)का शिष्य परिवार सबसे अधिक-तीन लाख तीस हजार संख्याप्रमाण है। यह संख्या एक सौ उत्तर से गुणित करने पर पांच करोड़ इकसठ लाख संयतों की संख्या होती है परन्तु यह संख्या पूर्वकथित संयतों की संख्याप्रमाण नहीं प्राप्त होती है। इसलिए पूर्वकथित प्रमाण उचित नहीं है ऐसा कहने पर उसका समाधन किया जाता है-समस्त अवसर्पिणी कालों की अपेक्षा वर्तमान काल में यह हुण्डावसर्पिणी काल चल रहा है इसलिए युग के माहात्म्य से घटकर ह्रस्वभाव को प्राप्त हुए हुण्डावसर्पिणी कालसम्बन्धी तीर्थंकरों के शिष्यपरिवार को ग्रहण करके गाथासूत्र को दूषित करना शक्य नहीं है, क्योंकि शेष अवसर्पिणियों के तीर्थंकरों के बड़ा शिष्यपरिवार पाया जाता है।
अन्य और भी कथन है कि भरत और ऐरावत क्षेत्र में मुनष्यों की अधिक संख्या नहीं पाई जाती है जिससे उन दोनों क्षेत्रसम्बन्धी एक तीर्थंकर के संघ के प्रमाण से विदेहक्षेत्रसम्बन्धी एक तीर्थंकर का संघ समान माना जाय किन्तु भरत और ऐरावत क्षेत्र के मनुष्यों से विदेहक्षेत्र के मनुष्यों की संख्या संख्यातगुणी अधिक है। अन्तद्र्वीपों के मनुष्य सबसे थोड़े हैं। उत्तरकुरु और देवकुरु के मनुष्य उनसे संख्यातगुणे हैं। हरि और रम्यक क्षेत्रों के मनुष्य उत्तरकुरु और देवकुरु के मनुष्यों से संख्यातगुणे हैं। हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्रों के मनुष्य हरि और रम्यव् के मनुष्यों से संख्यातगुणे हैं। भरत और ऐरावत क्षेत्रों के मनुष्य हरि और रम्यक के मनुष्यों से संख्यातगुणे हैं। विदेह क्षेत्र के मनुष्य भरत और ऐरावत के मनुष्यों से संख्यातगुणे हैं। बहुत मनुष्यों में क्योंकि संयत बहुत ही होगे, इसीलिए इस क्षेत्रसम्बन्धी संयतों के प्रमाण को प्रधान करके जो दूषण कहा गया है, वह दूषण प्राप्त नहीं हो सकता है क्योंकि इस कथन का इसी अल्पबहुत्व के साथ विरोध आता है। अब आचार्य श्री वीरसेन स्वामी उत्तरप्रतिपत्ति का दिग्दर्शन कराते हैं- उत्तर प्रतिपत्ति-मान्यता के अनुसार प्रमत्तसंयतों का प्रमाण चार करोड़ छयासठ लाख छयासठ हजार छह सौ चौंसठ (४६६६६६६४) है। अप्रमत्तसंयतों का प्रमाण दो करोड़ सत्ताइस लाख निन्यानवे हजार चार सौ अट्ठानवे (२२७९९४९८)है। उपशामक, क्षपक और अयोगकेवली महामुनियों की संख्या पूर्वोक्त ही है तथा उपशामक संयतों की संख्या ग्यारह सौ छियानवे (११९६)है।
क्षपक संयतों एवं अयोगकेवली जिन संयतों की संख्या दो हजार नौ सौ नब्बे प्रमाण (२९९०) है तथा सयोगकेवली संयतों की संख्या का प्ररूपण करने वाली गाथा निम्न प्रकार है- गाथार्थ – तेरहवें गुणस्थानवर्ती सयोगकेवली जिनों की संख्या पाँच लाख उनतीस हजार छह सौ अड़तालीस है। इन सभी संयतों की संख्या एकत्रित करने पर एक सौ सत्तर कर्मभूमिगत जो सम्पूर्ण ऋषि होते हैं, उन सबका प्रमाण छह करोड़ निन्यानवे लाख निन्यानवे हजार नौ सौ छियानवे (६९९९९९९६) है। यहाँ श्रीवीरसेनाचार्य ने दक्षिण और उत्तर इन दोनों प्रतिपत्तियों के द्वारा दो मतों का व्याख्यान किया है। उन दोनो मतों को भी पूर्वाचार्यों द्वारा निरूपित गाथाओं का उद्धरण दे देकरके ही किया है पुनः धवला टीकाकार के द्वारा दक्षिणप्रतिपत्ति का व्याख्यान प्रवाह्यमान आचार्यपरम्परागत है तथा उत्तरप्रतिपत्ति का व्याख्यान प्रवाहरूप से नहीं आ रहा है तथा आचार्यपरम्परा से अनागत है ऐसा पूर्व में ही कहा गया है । इस प्रकरण से ऐसा ज्ञात होता है कि- श्री वीरसेनाचार्यपर्यन्त दक्षिण की आचार्यपरम्परा अविच्छिन्न परम्परा थी और उत्तर की आचार्य परम्परा व्युच्छिन्न परम्परा है। तात्पर्य यह है कि दक्षिणप्रतिपत्ति के अनुसार ही वर्तमान काल में तीन कम नौ करोड़ संयत-मुनियों की संख्या प्रसिद्ध है। उसी को कहते हैं- सिद्धान्तचक्रवर्ती श्रीनेमिचन्द्राचार्य ने गोम्मटसार ग्रंथ में इसी तीन कम नौ करोड़ संख्या का कथन किया है। श्रीवसुनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य ने मूलाचार की तात्पर्यवृत्ति टीका में यही संख्या लिखी है तथा अन्य अनेक ग्रंथों में भी ऐसा ही सुना जाता है- श्लोकार्थ-ढाई द्वीपों में जो तीन कम नव करोड़ मुनिराज हैं, उन सबकी हम गुरुभक्तिपूर्वक वन्दना करते हैं। (षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ३, पृ. ३३ से ३६)
मनुष्यिनियों में मिथ्यादृष्टि द्रव्यप्रमाण की अपेक्षा कितने हैं ? कोड़ा कोड़ाकोड़ी ऊपर और कोड़ा कोड़ाकोड़ा कोड़ी के नीचे छठे वर्ग के ऊपर और सातवें वर्ग के नीचे मध्य की संख्याप्रमाण हैं ।।४८।।
हिन्दी टीका- इस सूत्र का व्याख्यान मनुष्य पर्याप्त की संख्या प्रतिपादन करने वाले सूत्र के व्याख्यान के समान ही है। अन्तर केवल इतना है कि पंचम वर्ग के त्रिभाग को पाँचवें वर्ग में प्रक्षिप्त कर देने पर मनुष्यिनियों का प्रमाण लाने के लिए अवहारकाल होेता है। उस अवहारकाल से सातवें वर्ग के भाजित करने पर मनुष्यिनियों के द्रव्य का प्रमाण आता है। इस प्रकार जो मनुष्यिनियों की संख्या प्राप्त हो, उसमें से तेरह गुणस्थान के प्रमाण के घटा देने पर मिथ्यादृष्टि मनुष्यिनियों का प्रमाण होता है। पुनः मनुष्यिनियों में सासादन से प्रारम्भ करके अयोगिकेवलीपर्यन्त संख्या निरूपण के लिए सूत्र अवतरित होता है- मनुष्यिनियों में सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान मे जीव द्रव्यप्रमाण की अपेक्षा कितने हैं ? संख्यात हैं ।।४९।।
हिन्दी टीका-मनुष्यों के गुणस्थान में कथित सासादन आदि गुणस्थानवर्तियों का संख्यातवां भाग सासादन आदि गुणस्थानप्रतिपन्न जीवों का प्रमाण मनुष्यिनियों मे होता है।
प्रश्न-ऐसा कैसे ?
उत्तर – क्योंकि, अप्रशस्त वेद के उदय के साथ प्रचुर जीवों को सम्यग्दर्शन का लाभ नहीं होता है।
प्रश्न-यह भी कैसे जाना जाता है?
उत्तर -‘‘नपुंसक वेदी असंयतसम्यग्दृष्टि जीव सबसे स्तोक हैं। स्त्रीवेदी असंयतसम्यग्दृष्टि जीव उनसे असंख्यातगुणे हैं और पुरुषवेदी असंयत सम्यग्दृष्टि उनसे असंख्यातगुणे हैं।’’
इस अल्पबहुत्व के प्रपिपादन करने वाले सूत्र से स्त्रीवेदियों के अल्प होने का कारण जाना जाता है और इसी से सासादन सम्यग्दृष्टि आदिक के भी स्तोकपना सिद्ध हो जाता है परन्तु इतनी विशेषता है कि उन सासादन सम्यग्दृष्टि आदि योनिनियों का प्रमाण इतना है, यह नहीं जाना जाता है क्योंकि इस काल में यह उपदेश नहीं पाया जाता है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ३, पृ. ७२)
अर्थात् कहाँ कम हैं, कहाँ अधिक हैं यह निरूपण है
अधुना चतुर्गत्यपेक्षया सम्यग्दृष्टिषु क्व क्व बहुभागाधिका: क्व क्व हीना: इति दश्र्यंते- सर्वाधिकसम्यग्दृष्टय: सौधर्मैशानयो: सन्ति। ततो बहुखंडहीना: सानत्कुमार-माहेन्द्रयो:, ततो हीना: ब्रह्म-ब्रह्मोत्तरयो:, ततो हीना लांतवकापिष्ठयो:, ततो हीना: शुक्रमहाशुक्रयो:, ततो हीना शतार-सहस्रारयो:, ततो बहुभागहीना: ज्योतिष्कदेवेष, ततो हीना वाणव्यन्तरेषु, ततो हीना भवनवासिदेवेषु, ततो हीना: तिर्यक्षु, ततो हीना: प्रथमनारकपृथिव्यां, ततो हीना: द्वितीयपृथिव्यां, ततो हीना: तृतीयपृथिव्यां, ततो हीना: चतुर्थपृथिव्यां, ततो हीना: पंचमपृथिव्यां, ततो हीना: षष्ठपृथिव्यां, ततो हीना: सप्तमपृथिव्यां। पृनश्च ततो हीना: आनतप्राणतयो:, ततो हीना: आरणाच्युतयो:, ततो हीना: अधस्तनाधस्तन-ग्रैवेयकेषु, ततो हीना: अधस्तनमध्यमग्रैवेयकेषु, ततो हीना: अधस्तनोपरिमग्रैवेयकेषु, ततो हीनाः मध्यमाधस्तनग्रैवेयकेषु, ततो हीना: मध्यममध्यमग्रैवेयकेषु, ततो हीना: मध्यमोपरिमग्रैवेयकेषु, ततो हीना: उपरिमाधस्तनग्रैवेयकेषु, ततो हीना: उपरिममध्यमग्रैवेयकेषु, ततो हीना: उपरिमोपरिमग्रैवेयकेषु। ततो हीना: नवानुदिशषु, ततो हीना: विजयवैजयंत-जयंतापराजितानुत्तरेषु, ततो हीना: सर्वार्थसिद्धिषु, ततोऽपि बहुभागहीना: एकभागमात्रा: वा मनुष्येषु इति ज्ञातव्या:। इमानि द्वात्रिंशत् स्थानानि सम्यग्दृष्टीनां भवन्तीति। अथवा संक्षेपेण-सर्वाधिका: सम्यग्दृष्टयो देवगतिषु, ततो हीना: तिर्यग्गतिषु, ततो हीना नरकगतिषु, ततोऽपि हीना: मनुष्यगतिषु सन्तीति।
अब चतुर्गति की अपेक्षा सम्यग्दृष्टियों में कहाँ-कहाँ बहुभाग अधिक संख्या है और कहाँ-कहाँ हीन हैं? यह प्रदर्शित करते हैं- सौधर्म और ईशान स्वर्ग में सर्वाधिक सम्यग्दृष्टि जीव हैं। उससे बहुख्डहीन सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग में हैं। उससे कम ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर स्वर्ग में हैं, उससे कम लांतव-कापिष्ठ स्वर्ग में हैं, उससे कम शुक्र-महाशुक्र स्वर्ग में हैं,उससे कम शतार-सहस्रार स्वर्ग में हैं, उससे बहुभागहीन ज्योतिषी देवों में सम्यग्दृष्टि होते हैं, उससे कम वाण-व्यंतर देवों मे हैं, उससे कम भवनवासी देवों में हैं, उससे कम सम्यग्दृष्टि तिर्र्यंचों में होते हैं, उससे कम प्रथम नरक में होते हैं, उससे कम द्वितीय नरक पृथिवी में हैं, उससे कम तृतीय नरक पृथिवी में हैं, उससे कम चतुर्थ नरक में हैं, उससे कम पंचम नरकपृथिवी में हैं, उससे कम छठी नरक पृथिवी में और उससे कम सम्यग्दृष्टि सातवीं नरकपृथिवी में पाये जाते हैं। पुनः उससे कम सम्यग्दृष्टि जीव आनत-प्राणत स्वर्ग में होते हैं, उससे कम आरण-अच्युत स्वर्ग में हैं, उससे कम नीचे-नीचे के ग्रैवेयक विमानों में, उससे कम अधस्तन मध्यम ग्रैवेयक में, उससे कम अद्यस्तन उपरिम ग्रैवेयक विमानों में, उससे कम मध्यम अधस्तन ग्रैवेयकों में,उससे कम मध्यम-मध्यम ग्रैवेयकों में,उससे कम मध्यम उपरिम ग्रैवेयकों में , उससे कम उपरिम अधस्तन ग्रैवेयकों में, उससे कम उपरिम मध्यम ग्रैवेयकों में और उससे कम सम्यग्दृष्टि देवों की संख्या उपरिम-उपरिम ग्रैवेयकों में पाई जाती है। इसी प्रकार आगे उससे कम सम्यग्दृष्टि जीव नव अनुदिश विमानों में होते हैं, उससे कम विजय-वैजयंत-जयन्त और अपराजित नामक चार अनुत्तर विमानों में तथा उससे भी कम सर्वार्थसिद्धि नामक अंतिम अनुत्तर विमान में हैं, उससे भी बहुभागहीन अथवा एक भागमात्र सम्यग्दृष्टि जीव मनुष्यों में होते हैं, ऐसा जानना चाहिए। सम्यग्दृष्टियों के ये उपर्युक्त ३२ स्थान होते हैं। अथवा संक्षेप से वर्णन इस प्रकार है कि देवगति में सबसे अधिक सम्यग्दृष्टि होते हैं, उससे कम तिर्यंच गति में, उससे कम नरकगति में और उससे भी कम मनुष्यगति में होते हैं।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ३, पृ. ९०-९१)
कश्चिदाशंकते-असंख्यातप्रदेशिनि लोके अनन्तसंख्याजीवाः कथं तिष्ठन्तीति चेत्? तस्य परिहार: क्रियते-‘‘अवगेज्झमाणजीवाजीवसत्तण्णहाणुववत्तीदो अवगाहण धम्मिओ लोगागासो त्ति इच्छिदव्वो खीरकुंभस्स मधुकुंभो व्व२१।’’ यथा मधुभृते कुंभे तत्प्रमाणदुग्धे प्रक्षिप्ते सति समस्तमपि दुग्धं तस्मिन्नेव सम्माति एतदवगाहन-शक्तिस्तत्र दृश्यते तथैव असंख्यातप्रदेशिनि लोकाकाशे अपि अनन्ताः जीवाः अनन्तानन्त-पुद्गलाश्चापि सम्मान्ति।
यहाँ कोई शंका करता है कि असंख्यात प्रदेश वाले लोक में अनन्त संख्या वाले जीव कैसे रह सकते हैं ? इसका समाधान करते हैं कि अवगाह्यमान जीव और अजीव द्रव्यों की सत्ता अन्यथा न बन सकने से क्षीरकुंभ का मधुकुंभ के समान अवगाहनधर्म वाला लोकाकाश है। जैसे क्षीरकुंभ का मधुकुम्भ में अवगाहन हो जाता है अर्थात् मधु से भरे हुए कलश में तत्प्रमाण वाले दूध से भरे हुए कलश का दूध डाल दिया जाए, तो समस्त दूध उसी में समा जाता है, ऐसी अवगाहनाशक्ति देखी जाती है। उसी के समान आकाश की भी ऐसी अवगाहनाशक्ति है कि असंख्य प्रदेशी होते हुए भी उसमें अनन्त जीव और अनंतानंत पुद्गलों का अवगाहन हो जाता है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ३, पृ. १८३)
५ प्रमत्त संयत के उपशमसम्यक्त्व के साथ तैजस व आहारक नहीं होते हैं विशेषेण तु प्रमत्तसंयतस्य उपशमसम्यक्त्वेन सह तेजसाहारौ न स्तः। प्रमत्तसंयत के उपशमसम्यक्त्व के साथ तैजससमुद्घात और आहारकसमुद्घात नहीं होते हैं।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ३, पृ. २७९)
६ द्रव्यप्रमाणानुगम अर्थात् पुस्तक तीन से आगे के सूत्रों की रचना श्री भूतबली आचार्य ने की है।
प्रारंभ के सत्प्ररूपणा सूत्र श्री पुष्पदंताचार्य ने बनाये हैं
अस्मिन् षट्खण्डागमग्रन्थे सत्प्ररूपणाप्रतिपादकानि सप्तसप्तत्य- धिकशतसूत्राणि श्रीपुष्पदन्ताचार्यविरचितानि सन्ति। तत: परं अत: प्रभृति द्रव्यप्रमाणानुगमादिप्रतिपादकानि सूत्राणि श्रीभूतबल्याचार्यविरचितानि सन्ति इति ज्ञातव्यं भवद्भि:। तथैवोत्तं श्रीवीरसेनाचार्येण- ‘‘संपहि चोद्दसण्हं जीवसमासाणमत्थित्तमवगदाणं सिस्साणं तेसिं चेव परिमाणपडिबोहणट्ठं भूदबलियाइरियो सुत्तमाह२२-’’सिद्धान्तचिंतामणि
टीका-इस षट्खण्डागम ग्रंथ में सत्प्ररूपणा का प्रतिपादन करने वाले एक सौ सतत्तर (१७७) सूत्र श्री पुष्पदंत आचार्य के द्वारा रचित हैं। उसके आगे यहाँ इस द्रव्यप्रमाणानुगम के प्रथम सूत्र से द्रव्यप्रमाणानुगम आदि का प्रतिपादन करने वाले ये सभी सूत्र श्रीभूतबली आचार्य के द्वारा विरचित हैं, ऐसा आप लोगों को जानना चाहिए। उसी बात को श्रीवीरसेन आचार्य ने भी कहा है- ‘‘जिन्होंने चौदहों गुणस्थानों के अस्तित्व को जान लिया है, ऐसे शिष्यों को अब उन्हीं चौदहों गुणस्थानों के अर्थात् चौदहों गुणस्थानवर्ती जीवों के परिमाण (संख्या) का ज्ञान कराने के लिए भूतबलि आचार्य आगे का सूत्र कहते हैं’’- तृतीय पुस्तक के प्रारंभ में यह भूमिका श्री भूतबली आचार्य ने बनाई है इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि आगे के सभी सूत्र श्री भूतबली आचार्य द्वारा बनाये गये हैं।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ३, पृ. ७-८)
अत्रानन्ता: इति प्रमाणे कथिते सति तदपि अनन्तमनेकविधं। नामानन्त-स्थापनानन्त-द्रव्यानन्त-शाश्वतानन्त-गणनानन्त-अप्रदेशिकानन्त-एकानन्त-उभयानन्त-विस्तारानन्त-सर्वानन्त-भावानन्तैरनन्तस्य एकादश भेदा: सन्ति। तत्र कारणनिरपेक्ष संज्ञा इति नामानन्तं। काष्ठादिकर्मसु तदिदमनन्तं इति स्थापनानन्तं। वर्तमानपर्यायनिरपेक्षं द्रव्यानन्तं। न विद्यते अन्तो विनाशो यस्य तदनन्तं द्रव्यं शाश्वतानन्तं। यद् गणनानन्तं तद् बहुवर्णनीयं अनंतरमेव प्रतिपाद्यते। एकप्रदेशे परमाणौ अप्रदेशानन्त:। लोकमध्ये आकाशप्रदेशानां एकश्रेणीं दृश्यमाने अन्ताभावात् एकानंतं। लोकमध्ये आकाशप्रदेशपंक्तीनां उभयदिशो: अवलोक्यमाने अन्ताभावाद् उभयानन्तं। आकाशस्य प्रतररूपेणावलोक्यमाने अन्तो नास्तिइति विस्तारानन्तं। तदेवाकाशस्य घनरूपेणाव-लोक्यमाने अन्तो नास्तीति सर्वानन्तं। त्रिकालजाता-नन्तपर्यायपरिणतजीवादिद्रव्यं भावानन्तमिति।
यहाँ सूत्र में ‘‘अनंत’’ इस प्रमाण शब्द का कथन करने पर वह अनन्त शब्द भी अनेक प्रकार का माना गया है- नाम अनंत, स्थापना अनंत, द्रव्य अनंत, शाश्वत अनंत, गणना अनंत, अप्रदेशिक अनंत, एक अनंत, उभय अनंत, विस्तार अनंत, सर्व अनंत और भाव अनंत इस प्रकार अनंत के ग्यारह भेद हैं। उनमें से कारण के बिना ही संज्ञा का होना नाम अनंत है। काण्ड आदि कर्मो में यह अनंत है, इस प्रकार की स्थापना करना स्थापनानंत है अर्थात् काष्ठकर्म, चित्रकर्म, पुस्तकर्म, लेप्यकर्म, लेनकर्म, शैलकर्म, भित्तिकर्म, गृहकर्म, भेंडकर्म अथवा दन्तकर्म में अथवा अक्ष(पासा) हो या कोड़ी हो अथवा दूसरी कोई वस्तु हो उसमें यह अनंत है, ऐसी स्थापना कर देना स्थापना अनंत कहलाता है । वर्तमान पर्याय की अपेक्षा के बिना ही उसे अनंतरूप कथन करना द्रव्य अनंत है । जिसका कोई अंत नहीं होता,जो कभी नष्ट नहीं होता है वह अनंतद्रव्य शाश्वतानंत कहलाता है। जो गणना में अनंत है, वह बहुवर्णनीय है एक परमाणु को अप्रदेशिकानन्त कहते हैं। लोक के मध्य से आकाश-प्रदेशों की एक श्रेणी को देखने पर उसका अन्त नहीं पाया जाता है, इसलिए उसे एकानन्त कहते हैं। लोक के मध्य से आकाशप्रदेश पंक्ति को दो दिशाओं में देखने पर उसका अन्त नहीं पाया जाता है, इसलिए उसे उभयानन्त कहते हैं। आकाश को प्रतररूप से देखने पर उसका अंत नहीं पाया जाता है अतः उसे विस्तारानंत कहते है उसी आकाश को घनरूप से देखने पर उसका अन्त नहीं पाया जाता है इसलिए उसे सर्वानन्त कहते हैं। त्रिकालजात-तीनों कालों में उत्पन्न होने वाली अनंत पर्यायों से परिणत जीवादि द्रव्य नोआगम भावानन्त हैं।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ३, पृ. १५)
इतो विस्तर:-एकत्र अनंतानंतावसर्पिण्युत्सर्पिणीनाम् समयान् स्थापयित्वा अन्यत्र मिथ्यादृष्टिजीवराशीश्च संस्थाप्य कालेभ्य: एक: समय: मिथ्यादृष्टिराशिभ्य: एको जीवश्च निष्कासयितव्य:। एवं क्रियमाणे अनंतानंतावसर्पिण्युत्सर्पिणीनां सर्वे समया: समाप्तिमवाप्नुवन्ति किन्तु मिथ्यादृष्टिजीवराशिप्रमाणं न समाप्यते इति ज्ञातव्यम्।
एक तरफ अनन्तानन्त अवसर्पिणी और अनन्तानन्त उत्सर्पिणी काल के समयों को स्थापित करके दूसरी तरफ मिथ्यादृष्टि जीवों की राशि करके काल के समयों में से एक-एक समय और उसी के साथ मिथ्यादृष्टि जीवराशि के प्रमाण में से एक-एक जीव कम करते जाना चाहिए-निकालते जाना चाहिए। इस प्रकार करते रहने पर अनंतानंत अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोें के सब समय समाप्त हो जाते हैं, किन्तु मिथ्यादृष्टि जीवराशि का प्रमाण समाप्त नहीं होता है ऐसा जानना चाहिए।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ३, पृ. १७)
खेत्तेण अणंता लोगा।।४।। क्षेत्रापेक्षया मिथ्यादृष्टयो जीवा अनंतलोकप्रमाणा: सन्ति। क्षेत्रप्रमाणेन मिथ्यादृष्टिजीवराशि: कथं माप्यते? बुद्ध्यामाप्यते आगमाधारेणेति। बुद्ध्या पि सा राशि: कथं माप्यते? तदेव कथयन्ति, एवैकस्मिन् लोकाकाशप्रदेशे एकमेकं मिथ्यादृष्टिजीवं निक्षिप्य एको लोक: इति मनसा संकल्पयितव्य:। एवं पुन: पुन: माप्यमाने मिथ्यादृष्टिजीवराशि: अनंतलोकमात्रो भवति।क्षेत्रप्रमाण की अपेक्षा अनन्त लोकप्रमाण मिथ्यादृष्टि जीवराशि का प्रमाण है ।।४।।
हिन्दी टीका-क्षेत्र की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तलोकप्रमाण माने गये हैं।
प्रश्न-क्षेत्रप्रमाण के द्वारा मिथ्यादृष्टि जीवराशि कैसी मापी जाती है ?
उत्तर – आगम के आधार से बुद्धि के द्वारा मिथ्यादृष्टि जीव मापे जाते हैं।
प्रश्न-बुद्धि से वे जीव कैसे मापे जाते हैं ?
उत्तर – उसी को कहते हैं-लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक मिथ्यादृष्टि जीव को निक्षिप्त करके एक लोक हो गया, इस प्रकार मन से संकल्प करना चाहिए। इस प्रकार पुनः पुनः माप करने पर मिथ्यादृष्टि जीवराशि अनन्तलोकप्रमाण होती है। आचार्यदेव के द्वारा कहा भी है-
श्लोकार्थ-लोकालोक के एक-एक प्रदेश पर एक-एक मिथ्यादृष्टि जीव को निक्षिप्त करे, इस प्रकार पूर्वोक्त लोकप्रमाण के क्रम से गणना करते जाने पर अनन्तलोक हो जाते हैं।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ३, पृ. २०)
अत्र कश्चिदाह-यो योजनसहस्रायामो महामत्स्य: स्वयंभूरमणसमुद्रस्य बाह्ये तटे वेदनासमुद्घातेन पीडित: कापोतलेश्यया१-वातवलयेन लग्न: इति एतेन वेदनासूत्रेण सह विरोध: किं न भवति इति चेत? आचार्य: प्राह-न भवति, स्वयंभूरमणसमुद्रस्य बाह्यवेदिकाया: परभागस्थित-पृथिव्या: ग्रहणं भवति ‘बाह्यतट’ इति पदेन। यदि एतत् तर्हि अपि महामत्स्य: कापोतलेश्यया संसक्तो न भवितुं अर्हति? इति चेत्? नैतत् शंकनीयं, किंच पृथिवीस्थितप्रदेशेषु अधस्तन वातवलयानामवस्थानं विद्यते एव। एष अर्थ: यद्यपि पूर्वाचार्यसंप्रदायविरुद्धस्तह्र्यपि आगमयुक्तिबलेन श्रीवीरसेनाचार्येण प्ररूपित:। उत्तं च धवलाटीकायां-‘‘एसो अत्थो जइवि पुव्वाइरियसंपदायविरुद्धो तो वि तंतजुत्तिबलेण अम्हेहिं परुविदो। तदो इदमित्थमेवेत्ति णेहासंगहो कायव्वो, अइंदियत्थविसए छदुमत्थवियप्पिदजुत्तीणं णिण्णयहेउत्ताणुववत्तीदो। तम्हा उवएसं लद्धूण विसेसणिण्णयो एत्थ कायव्वो त्ति।’’
यहाँ कोई कहता है कि जो एक हजार योजन का महामत्स्य है, वह वेदना समुद्घात से पीड़ित हुआ स्वयंभूरमण समुद्र के बाह्य तट पर कापोतलेश्या अर्थात् तनुवातवलय से लगता है, इस वेदनाखंड के सूत्र के साथ पूर्वोक्त व्याख्यान विरोध को क्यों नहीं प्राप्त होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में आचार्यदेव कहते हैं कि नहीं होता है क्योंकि यहां पर ‘‘बाह्यतट ’’इस पद से स्वयंभूरमण समुद्र की बाह्य वेदिका के परभाग में स्थित पृथिवी का ग्रहण किया गया है।
प्रश्न-यदि ऐसा माना जाय तो महामत्स्य कापोत लेश्या से संसक्त नहीं हो सकता है ?
उत्तर – ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए ,क्योंकि पृथिवी स्थित प्रदेशों में अधस्तन वातवलय का अवस्थान रहता ही है। यह अर्थ यद्यपि पूर्वाचार्यों के सम्प्रदाय से विरूद्ध है तो भी आगम के आधार पर युक्ति के बल से श्रीवीरसेनाचार्य द्वारा प्रतिपादित किया गया है। जैसाकि धवला टीका में कहा भी है- ‘‘यद्यपि यह अर्थ पूर्वाचार्यों के सम्प्रदाय से विरुद्ध है, तो भी आगम के आधार पर युक्ति के बल से हमने इस अर्थ का प्रतिपादन किया है। इसलिए यह अर्थ इस प्रकार भी हो सकता है, इस विकल्प का संग्रह यहाँ छोड़ना नहीं, क्योंकि अतीन्द्रिय पदार्थों के विषय में छद्मस्थ जीवों के द्वारा कल्पित युक्तियों के विकल्प रहित निर्णय के लिए हेतुता नहीं पाई जाती है। इसलिए उपदेश को प्राप्त करके इस विषय में विशेष निर्णय लेना चाहिए।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ३, पृ. २१-२२)
सर्वतीर्थकरापेक्षया पद्मप्रभभट्टारकस्य शिष्यपरिवारोऽधिक:, त्रयलक्ष-त्रिंशत्सहस्रसंख्य:। इयं संख्या सप्तत्यधिकशतेन गुणिते सति कोटिपंच एकषष्टिलक्षा: संयता: भवन्ति।
सभी तीर्थंकरों की अपेक्षा पद्मप्रभ भट्टारक(भगवान)का शिष्य परिवार सबसे अधिक-तीन लाख तीस हजार संख्याप्रमाण है। यह संख्या एक सौ सत्तर से गुणित करने पर पांच करोड़ इकसठ लाख संयतों की संख्या होती है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ३, पृ. ३४)
सर्वावसर्पिण्यपेक्षया वर्तमानकाले इयं हुंडावर्सिपणी वर्तते। अतो युगमाहात्म्येन ह्रस्वभावं प्राप्तहुंडावसर्पिणीकालसंबंधितीर्थंकराणां शिष्यपरिवारान् गृहीत्वा पूर्वोक्तगाथासूत्राणि दूषयितुं न शक्यन्ते, शेषावसर्पिणीतीर्थकरेषु बहुशिष्य-परिवारोपलम्भत्वात्। अन्यच्च-न च भरतैरावतक्षेत्रयो: मनुष्याणां बहुत्वमस्ति, येन तदुभयक्षेत्रसंबंधि-एकतीर्थकरशिष्यपरिवारै: विदेहक्षेत्रस्यैकतीर्थकरशिष्यपरिकर: सदृशो भवेत्। किंतु भरतैरावतक्षेत्रयो: मनुष्याणां विदेहक्षेत्रस्य मनुष्या: संख्यातगुणा: सन्ति। ‘‘तं जहा-सव्वत्थोवा अंतरदीवमणुस्सा। उत्तरकुरुदेवकुरुमणुवा संखेज्जगुणा। हरिरम्मयवासेसु मणुआ संखेज्जगुणा। हेमवदहेरण्णवदमणुआ संखेज्जगुणा। भरहेरावदमणुआ संखेज्जगुणा। विदेहे मणुआ संखेज्जगुणा त्ति।’’
समस्त अवसर्पिणी कालों की अपेक्षा वर्तमान काल में यह हुण्डावसर्पिणी काल चल रहा है इसलिए युग के माहात्म्य से घटकर ह्रस्वभाव को प्राप्त हुए हुण्डावसर्पिणी कालसम्बन्धी तीर्थंकरों के शिष्यपरिवार को ग्रहण करके गाथासूत्र को दूषित करना शक्य नहीं है, क्योंकि शेष अवसर्पिणियों के तीर्थंकरों के बड़ा शिष्यपरिवार पाया जाता है। अन्य और भी कथन है कि भरत और ऐरावत क्षेत्र में मुनष्यों की अधिक संख्या नहीं पाई जाती है जिससे उन दोनों क्षेत्रसम्बन्धी एक तीर्थंकर के संघ के प्रमाण से विदेहक्षेत्रसम्बन्धी एक तीर्थंकर का संघ समान माना जाय किन्तु भरत और ऐरावत क्षेत्र के मनुष्यों से विदेहक्षेत्र के मनुष्यों की संख्या संख्यातगुणी अधिक है। अन्तद्र्वीपों के मनुष्य सबसे थोड़े हैं। उत्तरकुरु और देवकुरु के मनुष्य उनसे संख्यातगुणे हैं। हरि और रम्यव् क्षेत्रों के मनुष्य उत्तरकुरु और देवकुरु के मनुष्यों से संख्यातगुणे हैं। हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्रों के मनुष्य हरि और रम्यव् के मनुष्यों से संख्यातगुणे हैं। भरत और ऐरावत क्षेत्रों के मनुष्य हरि और रम्यक के मनुष्यों से संख्यातगुणे हैं। विदेह क्षेत्र के मनुष्य भरत और ऐरावत के मनुष्यों से संख्यातगुणे हैं।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ३, पृ. ३४)
तस्य किंचिदुहारणं दीयते-सामान्येन कथितासंयतसम्यग्दृष्टिजीवराशे: असंख्यातबहुभागप्रमिता देवगतौ असंयतसम्यग्दृष्टिजीवराशि: अस्ति। कथमेतत्? देवेषु बहूनां सम्यक्त्वोत्पत्तिकारणानामुपलम्भात्। देवानां सम्यक्त्वोत्पत्तिकारणानि कानि इति चेत्? उच्यते श्रीवीरसेनाचार्येण- ‘‘जिणबिंबिद्धिमहिमादंसण-जाइस्सरण-महिद्धिंदादिदंसण-जिणपायमूलधम्म-सवणादीणि। तिरिक्खणेरइया पुण गरुवपावभारेणोट्ठद्धत्तादो संकिलिट्ठतरत्तादो मंदबुद्धित्तादो बहूणं सम्मत्तुप्पत्तिकारणाणम-भावादो च सम्माइट्ठिणो थोवा हवंति।’
सामान्य से कही गई असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशि का असंख्यात बहुभागप्रमाण देवगति में असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशि है।
प्रश्न-ऐसा क्यों है ?
उत्तर – क्योंकि देवों में सम्यक्त्व की उत्पत्ति के बहुत से कारण पाये जाते हैं। देवों में सम्यक्त्व उत्पत्ति के कौन-कौन से कारण हैं? ऐसा प्रश्न होने पर श्रीवीरसेनाचार्य ने धवला टीका मे कहा है- जिनबिम्बसम्बन्धी अतिशय की महिमा का दर्शन, जातिस्मरण का होना, महद्र्धिक इन्द्रादिक का दर्शन और जिनेन्द्रभगवान के पादमूल में धर्म का श्रवण आदि कारणों से देवों में सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति होती है। किन्तु चूंकि तिर्यंच और नारकी गुरुतर पापों के भार से व्याप्त रहते हैं, उनके परिणाम अतिशय संक्लिष्ट रहते हैं, वे मन्दबुद्धि होते हैं इसलिए उनमें सम्यक्त्व की उत्पत्ति के बहुत से कारणों का अभाव पाया जाता है और संख्या में भी वहाँ कम जीवों को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ३, पृ. ४३)
तात्पर्यमेतत्-कदाचित् केचित् बद्धायुष्का: मनुष्या: तिर्यक्षु उत्पद्यन्ते तर्हि भोगभूमिष्वेव, मनुष्येषु उत्पद्यन्ते तर्हि भोगभूमिष्वेव इमे स्वल्पप्रमाणा: एव। अत: अत्र टीकायां देवा: नारका: एव गृहीता: तेऽपि मनुष्येषु एव उत्पद्यन्ते अत: संख्याता: एव। किंच मनुष्यराशे: संख्यातत्वात्। तथैव केवलिनां समुद्घाते कपाटे आरोहन्त: विंशतिप्रमाणा: अवरोहन्त: विंशतिप्रमाणा भवन्ति इति कथितं अस्ति। किंच औदारिकमिश्रयोगस्य कपाटसमुद्घाते एव संभवत्वात्।
तात्पर्य यह है कि कदाचित् कोई बध्दायुष्क मनुष्य तिर्यंचगति में उत्पन्न हो जाते हैं तो भोगभूमियाँ तिर्यंचों में ही उत्पन्न होते है, यदि मनुष्यों मे उत्पन्न होते हैं तो भोगभूमियों मेें ही उत्पन्न होते हैं, इनकी संख्या थोड़ी ही है अतः यहाँ टीका में देव और नारकी को ही ग्रहण किया है वे भी मनुष्यों में ही उत्पन्न होते हैं अतः संख्यात ही हैं क्योंकि मनुष्यराशि संख्यात ही है। इसी प्रकार केवलियों के समुद्घात काल में कपाट समुद्घात में चढ़ते हुए बीस की संख्या रहती है और उतरते हुए भी बीस की संख्या रहती है, ऐसा कहा गया है क्योंकि औदारिकमिश्रकाययोग वाले जीव कपाट समुद्घात में ही पाए जाते हैं।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ३, पृ. १२०)
सिद्धान्तचिन्तामणि टीका-वेदानुवादेन स्त्रीवेदराशिषु मिथ्यादृष्टय: द्रव्यप्रमाणेन कियन्त: इति प्रश्ने सति उत्तरं दीयते-देवीभ्य: सातिरेका: इति। देवेभ्य: देव्य: द्वात्रिंशद्गुणा भवन्ति। अस्मिन् प्रमाणे भावस्त्रीवेदमानुषीणां भावस्त्रीवेदतिरश्चीनां संख्यामेलने सति देवीभ्य: सातिरेका:, स्त्रीवेदा: भवन्ति। वेदमार्गणा के अनुवाद से स्त्रीवेदियों में मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाण की अपेक्षा कितने हैं? देवियों से कुछ अधिक है।१२४।।
हिन्दी टीका-वेदमार्गणा की अपेक्षा स्त्रीवेदी जीवराशियों में मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाण की अपेक्षा कितने हैं? ऐसा प्रश्न होने पर उत्तर दिया गया है कि स्त्रीवेदी राशि देवियों से साधिक होती है। देवों से देवियाँ बत्तीसगुणी अधिक होती हैं। इस प्रमाण मे भावस्त्रीवेदी मनुष्यिनियों मेें भावस्त्रीवेदी तिर्यंचों की संख्या मिलाने पर देवियों से स्त्रीवेदी जीवो की संख्या साधिक होती है। अर्थात् देवियां सबसे अधिक हैं उनमें मनुष्यिनी और तिर्यंचिनियों की संख्या मिलाने पर समस्त स्त्रीवेदियों की संख्या हो जाती है। उनमें से यहां मिथ्यादृष्टि स्त्रीवेदियों की संख्या ली है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ३, पृ. १२९)
अथवा सर्व जीवराशि के अनंत खंड करने पर बहुभाग मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव हैं। शेष एक भाग के अनंत खण्ड करने पर बहुभाग केवलज्ञानी जीव हैं। शेष एक भाग के असंख्यात खंड करने पर बहुभाग विभंगज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव हैं। शेष एक भाग के असंख्यात खंड करने पर बहुभाग तीन ज्ञान वाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीव हैं। शेष एक भाग के संख्यात खंड करने पर बहुभाग तीन ज्ञान वाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव हैं। शेष एक भाग के असंख्यात खंड करने पर बहुभाग तीन ज्ञान वाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीव हैं। शेष एक भाग के असंख्यात खण्ड करने पर बहुभाग दो ज्ञान वाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीव हैं। शेष एक भाग के संख्यात खंड करने पर बहुभाग दो ज्ञान वाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव हैं। शेष एक भाग के असंख्यात खंड करने पर बहुभाग दो ज्ञान वाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीव हैं। शेष एक भाग के असंख्यात खंड करने पर बहुभाग दो ज्ञान वाले संयतासंयत जीव हैं। शेष एक भाग के असंख्यात खंड करने पर बहुभाग तीन ज्ञान वाले संयतासंयत जीव हैं। शेष का जानकर कथन करना चाहिए।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ३, पृ. १४६-१४७)
श्रुत-मन:पर्ययज्ञानयो: दर्शनं किन्नोच्यते? न तावत् श्रुतज्ञानस्य दर्शनमस्ति, तस्य मतिज्ञानपूर्वत्वात्। न मन:पर्ययज्ञानस्यापि दर्शनमस्ति, तस्य तथाविधत्वात्।
शंका – श्रुतज्ञान और मनःपर्ययज्ञान का दर्शन क्यों नहीं कहा जाता है ?
समाधान – श्रुतज्ञान का दर्शन तो हो नहीं सकता है, क्योंकि वह मतिज्ञानपूर्वक होता है। उसी प्रकार मनःपर्ययज्ञान का भी दर्शन नहीं है, क्योंकि, मनःपर्ययज्ञान भी उसी प्रकार है अर्थात् मनःपर्ययज्ञान भी मतिज्ञानपूर्वक होता है, इसलिये उसका दर्शन नहीं पाया जाता है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ३, पृ. १५७)
द्रव्यार्थिकनयं प्रतीत्य चैकविधं। अथवा प्रयोजनमाश्रित्य द्विविधं लोकाकाशम-लोकाकाशं चेति। लोक्यन्ते उपलभ्यन्ते यस्मिन् जीवादिद्रव्याणि स लोकः। तद्विपरीतोऽलोकः। अथवा देशभेदेन त्रिविधः, मंदरचूलिकातः ऊध्र्वमूध्र्वलोकः, मंदरमूलादधः अधोलोकः, मंदरपरिच्छिन्नो मध्यलोक इति।
समाधान – द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा क्षेत्र एक प्रकार का है अथवा प्रयोजन के आश्रय से क्षेत्र दो प्रकार का है, लोकाकाश और अलोकाकाश। जिसमें जीवादि द्रव्य अवलोकन किए जाते हैं, पाये जाते हैंं, उसे लोक कहते हैं। इसके विपरीत जहाँ जीवादि द्रव्य नहीं देखे जाते हैं, उसे अलोक कहते हैं। अथवा देश के भेद से क्षेत्र तीन प्रकार का है-मंदराचल (सुमेरूपर्वत)की चूलिका से ऊपर का क्षेत्र ऊध्र्वलोक है, मंदराचल के मूल से नीचे का क्षेत्र अधोलोक है तथा मंदराचल से परिच्छिन्न अर्थात् तत्प्रमाण मध्यलोक है। (षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ३, पृ. १८२)
दण्डसमुद्घातगतकेवलिनः कियत् क्षेत्रे तिष्ठन्ति? चतुर्णां लोकानां असंख्यातभागे, सार्धद्वयद्वीपात् असंख्यातगुणे च निवसन्ति। कपाटगतकेवलिनः कियत् क्षेत्रे? त्रयाणां लोकानामसंख्यातक्षेत्रे, तिर्यग्लोकस्य,संख्यातभागे सार्धद्वयद्वीपात् असंख्यातगुणे च। अत्र केवली भगवान् पूर्वाभिमुखो वा उत्तरामुखो वा यदि पल्यंकेन समुद्घातं करोति, तर्हि कपाटबाहल्यं षट्त्रिंशदंगुलानि भवन्ति। अथ यदि कायोत्सर्गेण कपाटं करोति, तर्हि द्वादशांगुलबाहल्यं कपाटं भवति। प्रतरगतकेवलिनः कियत् क्षेत्रे? लोकस्यासंख्यातभागेषु। तत्र लोकस्य असंख्यातभागं वातवलयरुद्धक्षेत्रं मुक्त्वा शेषबहुभागेषु निवसंति। लोकपूरणगतकेवलिनो भगवन्तः कियत् क्षेत्रे? सर्वलोके इति ज्ञातव्यम्। अत्रापि गणितेन विस्तरः धवलाटीकायां द्रष्टव्योऽस्ति। अन्यत्रापि सरलभाषायां-‘‘दण्डसमुद्घातं कायोत्सर्गेण स्थितश्चेत्-द्वादशांगुलप्रमाणसमवृत्तं मूलशरीरप्रमाणसमवृत्तं वा। उपविष्टश्चेत्-शरीरत्रिगुणबाहुल्यं वायूनलोकोदयं वा प्रथमसमये करोति। कपाटसमुद्घातं धनुःप्रमाणबाहुल्योदयं पूर्वाभिमुखश्चेत् दक्षिणोत्तरतः करोति। उत्तराभिमुखश्चेत् पूर्वापरतः आत्मप्रसर्पणं द्वितीयसमये करोति।………प्रतरावस्थायां सयोगकेवली वातवलयत्रयादर्वागेव आत्मप्रदेशैर्निरंतरं लोकं व्याप्नोति। लोकपूरणावस्थायां वातवलयत्रयमपि व्याप्नोति। तेन सर्वलोकः क्षेत्रम्।’’ तात्पर्यमेतत्-स्वस्थानस्वस्थान-विहारवत्स्वस्थान-केवलिसमुद्घातनामानि त्रीण्येव स्थानानि सयोगिकेवलिभगवतां संभवन्ति। किं च, केवलिसमुद्घातोऽपि सर्वेषां केवलिनां नास्ति केषाञ्चित् केवलिनामेव इति ज्ञात्वा सर्वेभ्यः दशस्थानेभ्यः अनुत्तरं सिद्धस्थानमस्तीति ततः सिद्धपदप्राप्त्यर्थमेव पुरुषार्थो विधेयः अस्माभिर्मुमुक्षुजनैः।
दण्डसमुद्घात को प्राप्त हुए केवलीजीव कितने क्षेत्र में रहते हैं? सामान्यलोक आदि चार लोकों के असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में और अढ़ाईद्वीपसंंबंधी लोक से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। कपाटसमुद्घात को प्राप्त हुए केवली कितने क्षेत्र में रहते हैं? सामान्यलोक आदि तीन लोकों के असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में, तिर्यग्लोक के संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में और अढ़ाईद्वीप से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। केवलीजिन पूर्वाभिमुख अथवा उत्तराभिमुख होकर समुद्घात को करते हुए यदि पल्यंकासन से समुद्घात को करते हैं तो कपाटक्षेत्र का बाहल्य छत्तीस अंगुल होता है और यदि कायोत्सर्ग से कपाटसमुद्घात करते हैं तो बारह अंगुलप्रमाण बाहल्य वाला कपाटसमुद्घात होता है। प्रतरसमुद्घात को प्राप्त हुए केवली जिन कितने क्षेत्र में रहते हैं? लोक के असंख्यात बहुभागप्रमाण क्षेत्र में रहते हैं। लोक के असंख्यातवें भागप्रमाण वातवलय से रुके हुए क्षेत्र को छोड़कर लोक के शेष बहुभागो में रहते हैं। लोकपूरण समुद्घात को प्राप्त केवली भगवान् कितने क्षेत्र में रहते हैं? सम्पूर्ण लोक में रहते हैं, ऐसा जानना चाहिए । यहाँ भी गणित के द्वारा उसका विस्तृत वर्णन धवला टीका में द्रष्टय है। अन्यत्र भी सरल भाषा में कहा है-समुद्घात करने वाले कायोत्सर्ग से स्थित हैं तो दण्ड समुद्घात को बारह अंगुलप्रमाण समवृत्त (गोलाकार) करेंगे अथवा मूल शरीरप्रमाण समवृत्त करेंगे और यदि वह बैठे हुए हैं तो प्रथम समय में शरीर से त्रिगुण बाहुल्य अथवा तीन वातवलय कम लोकप्रमाण करेंगे। कपाट समुद्घात को यदि पूर्वाभिमुख होकर करेंगे तो दक्षिण-उत्तर की ओर एक धनुषप्रमाण विस्तार होगा और उत्तराभिमुख होकर करेगा तो पूर्व-पश्चिम की ओर द्वितीय समय में आत्मप्रसर्पण करेंगे। इसका विशेष व्याख्यान संस्कृत महापुराण पंजिका में है। प्रतर की अपेक्षा लोक का असंख्यातभागप्रमाण क्षेत्र होता है। प्रतर अवस्था में सयोगकेवली तीनों वातवलयों के नीचे ही आत्मप्रदेशों के द्वारा लोक को व्याप्त करते हैं। लोकपूरण अवस्था में तीनों वातवलयों को भी व्याप्त करते हैं अतः लोकपूरण अवस्था में सर्वलोक क्षेत्र है। तात्पर्य यह है कि स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान और केवलिसमुद्घात नाम के तीन स्थान सयोगिकेवली भगवन्तों के होते हैं, क्योंकि केवली समुद्घात भी सभी केवलियों के नहीं होता है, किन्हीं-किन्हीं केवलियों के ही होता है, ऐसा जानकर सभी दश स्थानों से अनुत्तर सिद्धस्थान होेता है इसलिए सिद्धपद की प्राप्ति हेतु ही हम सभी मुमुक्षुजनों को पुरुषार्थ करना चाहिए ।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ३, पृ. १९३-१९४)
विशेषेण तु प्रमत्तसंयते तैजसाहारकौ न स्तः। इन परिहारविशुद्धिसंयम वालों के प्रमत्तसंयत गुणस्थान में तैजस और आहारक समुद्घात नहीं होते हैं।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ३, पृ. २६०)
षट्खण्डागम पुस्तक-4
षट्खण्डागम पुस्तक-४(सिद्धान्तचिंतामणि टीका) से संग्रहीत
मंगलाचरण शुक्लध्यानाग्निा दग्ध्वा, कर्मेन्धनानि संयताः।
सिद्धिं प्रापुर्नमस्तेभ्यः, शुक्लध्यानस्य सिद्धये।।१।।
श्लोकार्थ – शुक्लध्यान की अग्नि के द्वारा जिन संयतों ने कर्मरूपी ईंधन को जलाकर भस्म कर दिया है, उन सभी संयतों को शुक्लध्यान की सिाqद्ध के लिए मेरा नमस्कार है ।।१।।
पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्त जीवों ने अतीत और अनागत काल की अपेक्षा सर्वलोक स्पर्श किया है।।३३।।
हिन्दी टीका –‘वा’ शब्द से यहाँ स्वस्थान स्वस्थान, वेदना और कषायसमुद्घात, इन पदों को प्राप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त जीवों ने सामान्यलोक आदि तीन लोकों का असंख्यातवाँ भाग, तिर्यग्लोक का संख्यातवाँ भाग और अढ़ाई द्वीप से असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है, क्योंकि अढ़ाईद्वीप और दो समुद्रों में तथा कर्मभूमि के प्रतिभाग वाले स्वयंप्रभ पर्वत के परभाग में पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तक जीवों का होना संभव है। अतीतकाल में स्वयंप्रभ पर्वत के सम्पूर्ण परभाग को वे जीव स्पर्श करते हैं इसलिए वह क्षेत्र तिर्यग्लोक का संख्यातवाँ भाग मात्र होता है।
शंका – अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र अवगाहना वाले लब्ध्यपर्याप्तक जीवों के संख्यात अंगुल प्रमाण उत्सेध कैसे पाया जा सकता है?
समाधान – नहीं, क्योंकि, मृत पंचेन्द्रियादि त्रस जीवों के कलेवर में अंगुल के संख्यातवें भाग को आदि करके संख्यात योजनों तक क्रमवृद्धि से स्थित शरीरों में उत्पन्न होने वाले लब्ध्यपर्याप्त जीवों के संख्यात अंगुल उत्सेध के प्रति कोई विरोध नहीं है। अथवा सभी द्वीप और समुद्रों में पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्त जीव होते हैं, क्योंकि पूर्वभव के वैरी देवों के संबंध से एक बंधन में बद्ध षट्कायिक जीवों के समूह से व्याप्त और कर्मभूमि के प्रतिभाग में उत्पन्न हुए औदारिक देह वाले महामच्छादिकों की सर्वद्वीप और समुद्रों में संभावना पाई जाती है।
शंका – महामच्छ की अवगाहना में एक बंधन से बद्ध षट्कायिक जीवों का अस्तित्व कैसे जाना जाता है?
समाधान – वर्गणाखंड में कहे गये अल्पबहुत्वानुयोगद्वार से जाना जाता है। वह इस प्रकार है-‘महामत्स्य के शरीर में सबसे कम जगत् प्रतर के असंख्यातवें भागमात्र त्रसकायिक जीव होते हैं। उन त्रसकायिक जीवों के तेजस्कायिक जीव असंख्यातगुणे होते हैं। तेजस्कायिक जीवों से पृथिवीकायिक जीव विशेष अधिक होते हैं। इसी प्रकार से पृथिवीकायिक जीवों से अप्कायिक जीव विशेष अधिक होते हैं। अप्कायिक जीवों से वायुकायिक जीव विशेष अधिक होते हैं और वायुकायिक जीवों से वनस्पतिकायिक जीव अनन्तगुणे होते हैं। वे सभी पर्याप्त ही हों, ऐसा नहीं है। क्योंकि उस महामत्स्य के शरीर में त्रस अपर्याप्तक और तेजस्कायिक जीव संभव है। मृत शरीर में ही पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त जीव संभव है ऐसा भी कहना युक्त नहीं है, क्योंकि इस बात के विधायक सूत्र का अभाव है। किन्तु महामच्छादि के देह में उन अपर्याप्त जीवों के अस्तित्व का सूचक यही उक्त अल्पबहुत्व सूत्र है। त्रसपर्याप्तराशि से त्रसअपर्याप्तराशि असंख्यातगुणी होती है, इसलिए जहाँ पर त्रस जीवों की संभावना होती है वहाँ पर सर्वत्र पर्याप्त जीवों से अपर्याप्त जीव असंख्यातगुणे होते हैं ऐसा जानना चाहिए। अतएव संख्यात अंगुल बाहल्य वाले तिर्यक्प्रतर के उनंचास खण्ड करके प्रतराकार से स्थापित करने पर तिर्यग्लोक के संख्यातवां भागमात्र पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्त जीवों का स्वस्थान, वेदना और कषायसमुद्घातगत क्षेत्र होता है। इस प्रकार से ‘वा’ शब्द का अर्थ समाप्त हुआ। मारणान्तिकसमुद्घात और उपपादपद को प्राप्त पंचेन्द्रियतिर्यंच लब्ध्यपर्याप्त जीवों ने सर्वलोक स्पर्श किया है, क्योंकि उनके सर्वलोक में गमनागमन के प्रति विरोध का अभाव है। तात्पर्य यह है कि ये महामत्स्य आदि उत्कृष्ट अवगाहना से सहित जीव तिर्यंच होते हैं, उनके शरीरों में स्थित वायुकायिक, तेजस्कायिक आदि पर्याप्त और अपर्याप्त तिर्यंचों का यहाँ संक्षेप में वर्णन किया गया है। अपर्याप्त जीवों के द्वारा सम्पूर्ण लोक का भी स्पर्श किया गया है। किन्तु उनका वह स्पर्श किंचित् भी कार्यकारी नहीं है। यदि ये महामत्स्य आदि कदाचित् जातिस्मरण के निमित्त से, कदाचित् देवों के सम्बोधन से सम्यग्दर्शन को उत्पन्न कर लेते हैं अथवा कदाचित् संयतासंयत गुणस्थान में जाकर अणुव्रत ग्रहण कर लेते हैं, तब वे स्वर्गलोक में जाते हैं। इसलिए संसार में सम्यग्दर्शन, अणुव्रत और महाव्रत का पालन ही सारभूत है, ऐसा समझकर हम सभी को सम्यग्दर्शन सहित अणुव्रत अथवा महाव्रत ग्रहण करके मनुष्यपर्याय को सफल करना चाहिए तथा यह भावना भी करनी चाहिए कि मुझे कभी भी तिर्यंचगति में जन्म न लेना पड़े, यही इस ग्रंथ के पठन का सार है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ४, पृ. ४९ से ५१)
उपपादपरिणतासंयतसम्यग्दृष्टिभिः षट् चतुर्दशभागाः स्पृष्टाः, तिर्यगसंयत-सम्यग्दृष्टीनां शुक्ललेश्यया सह देवेषूपपादोपलंभात्। स्वस्थान-विहार-वेदना-कषाय-वैक्रियिकपरिणत शुक्ललेश्या-संयतासंयतैः त्रिलोकानामसंख्यातभागः, तिर्यग्लोकस्य संख्यातभागः, सार्धद्वयद्वीपादसंख्यातगुणः, मारणान्तिकपरिणतैः षट् चतुर्दशभागाः स्पृष्टाः, तिर्यक् संयतासंयतानां शुक्ललेश्यया सह अच्युतकल्पे उपपादोपलम्भात्। सम्यग्मिथ्यादृष्टेः मारणान्तिकोपपादौ न स्तः।उपपादपदपरिणत शुक्ललेश्या वाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीवों ने कुछ कम छह बटे चौदह भाग (६/१४) स्पर्श किए हैं क्योंकि तिर्यंच असंयतसम्यग्दृष्टि जीवों का शुक्ललेश्या के साथ देवों में उपपाद पाया जाता है। स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकपदपरिणत शुक्ललेश्या वाले संयतासंयतों ने सामान्यलोक आदि तीन लोकों का असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोक का संख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीप से असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। मारणान्तिक पद परिणत उक्त जीवों ने छह बटे चौदह (६/१४) भाग स्पर्श किए हैं क्योंकि तिर्यंच संयतासंयतों का शुक्ललेश्या के साथ अच्युतकल्प में उपपाद पाया जाता है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ४, पृ. १२८)
पूर्व तिर्यग्बद्धायुष्काः मनुष्याः क्षायिकसम्यग्दृष्टयः असंख्यातद्वीपेषु तिर्यक्षु उत्पद्यन्ते। तत्र भोगभूमिभ्यः निर्गत्य सौधर्मैशानकल्पयोः उत्पद्यमानक्षायिकसम्यग्दृष्टिस्पर्शितक्षेत्रं मनुष्येषूत्पद्यमानक्षायिकसम्यग्दृष्टिस्पर्शितक्षेत्रं च गृहीत्वा लभ्यते।तिर्यंचों में उत्पन्न होने वाले बद्धायुष्क अर्थात् जिन्होंने पहले तिर्यंच आयु का बंध कर लिया है ऐसे क्षायिक सम्यग्दृष्टि मनुष्य असंख्यात द्वीपों में तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं वहाँ भोगभूमि से मरण करके सौधर्म और ईशान कल्पों में ही उत्पन्न होते हैं उन क्षायिक सम्यग्दृष्टियों से स्पर्शित क्षेत्र को तथा वहाँ से चयकर मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले क्षायिक सम्यग्दृष्टियों के स्पर्शित क्षेत्र को ग्रहण करके तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग प्रमाण स्पर्शनक्षेत्र पाया जाता है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ४, पृ. १३४)
अनाहारकेषु सासादनस्य षष्ठपृथिवीतो निःसृत्य तिर्यग्लोके प्रादुर्भावात् पंचरज्जवः, अच्युतादागत्य तिर्यग्लोके प्रादुर्भावात् षडित्येकादश। अनाहारक सासादनसम्यग्दृष्टि छठी नरक पृथिवी से निकलकर मध्यलोक में उत्पन्न होते हैं। छठे नरक से लेकर मध्य लोक तक पांच राजू है तथा सासादनसम्यग्दृृष्टि १६वें अच्युत स्वर्ग से च्युत होकर मध्यलोक में उत्पन्न होते हैं १६वें स्वर्ग से मध्यलोक छह राजु है अत: दोनों को मिलाने से ग्यारह राजू स्पर्श होता है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ४, पृ. १४५)
देवलोके कालाभावे तत्र कथं काल व्यवहार:? न, अत्रस्थेनैव कालेन तेषां व्यवहारात्।
शंका – देवलोक में तो दिन-रात्रिरूप काल का अभाव है, फिर वहाँ पर काल का व्यवहार कैसे होता है?
समाधान – नहीं, क्योंकि, यहाँ के काल से देवलोक में काल का व्यवहार होता है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ४, पृ. १५६)
अभव्यसिद्धिकजीवानां प्रतीत्य मिथ्यात्वकालः अनाद्यपर्यवसितः। अभव्य-मिथ्यात्वस्य आदिमध्यान्ता-भावात्। भव्यसिद्धिकमिथ्यात्वकालः अनादिः सपर्यवसितः, यथा विवर्धनकुमारस्य मिथ्यात्वकालः। अन्यैको मिथ्यात्वकालः सादिः सपर्यवसितः, यथा नारायणकृष्णमिथ्यात्वकाल:। तत्र यः सः सादिसपर्यवसितो मिथ्यात्वकालस्तस्यायं निर्देशः।अभव्यसिद्धिक जीवों की अपेक्षा उनका मिथ्यात्वकाल अनादि-अनन्त है, क्योंकि अभव्य जीव के मिथ्यात्व का आदि, मध्य और अन्त का अभाव पाया जाता है। भव्यसिद्धिक जीव के मिथ्यात्व का काल एक तो अनादि और सान्त होता है, जैसा कि विवर्धनकुमार का मिथ्यात्व काल तथा एक और प्रकार का भव्यसिद्धिक जीवों का मिथ्यात्व काल है, जो कि सादि और सान्त होता है, जैसे-कृष्ण का मिथ्यात्वकाल। उनमें से जो सादि और सान्त मिथ्यात्वकाल होता है उसका यह निर्देश है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ४, पृ. १५८-१५९)
अप्रमत्तसंयतः सम्यग्मिथ्यात्वं किमिति न गच्छति? न, तस्य संक्लेशविशुद्धिभ्यां सह प्रमत्तापूर्वकरणगुणस्थाने मुक्त्वा गुणस्थानांतरगमनाभावात्। अप्रमत्तस्य मृतस्यापि असंयतसम्यग्दृष्टिव्यतिरिक्त-गुणस्थानांतरगमनाभावात्।शंका – यहाँ पर अप्रमत्तसंयत जीव को सम्यग्मिथ्यात्व को क्यों नहीं प्राप्त कराया? समाधान – नहीं, क्योंकि यदि अप्रमत्तसंयत जीव के संक्लेश की वृद्धि हो, तो प्रमत्तसंयत गुणस्थान को और यदि विशुद्धि की वृद्धि हो, तो अपूर्वकरण गुणस्थान को छोड़कर दूसरे गुणस्थान में गमन का अभाव है। यदि अप्रमत्तसंयत जीव का मरण भी हो, तो असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान को छोड़कर दूसरे गुणस्थानों में गमन नहीं होता है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ४, पृ. १७५)
उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि।।१५।। सिद्धान्तचिन्तामणिटीका-एकः प्रमत्तोऽप्रमत्तो वा चतुर्णामुपशामकानामेकतरो वा समयोन- त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमायुःस्थितिकेषु अनुत्तरविमानवासिदेवेषु उपपन्नः। एवं असंयमसहितसम्यक्त्वस्य आदिर्जातः। ततः च्युत्वा पूर्वकोट्यायुष्केषु मनुष्येषु उत्पन्नः। तत्र असंयतसम्यग्दृष्टिः भूत्वा तावत् स्थितः यावत् अंतर्मुहूर्तमात्रायुष्वं शेषमिति।ततोऽप्रमत्तभावेन संयमं प्रतिपन्नः
(१) ततः प्रमत्ताप्रमत्तसहस्रपरावर्तं कृत्वा
(२) क्षपकश्रेणिप्रायोग्य-विशुद्ध्या विशुद्ध: अप्रमत्तो जातः
(३) अपूर्वक्षपकः
(४) अनिवृत्तिक्षपकः
(५) सूक्ष्मसांपरायक्षपकः
(६) क्षीणकषायः
(७) सयोगी
(८) अयोगी
(९) भूत्वा सिद्धो जातः। एतैः नवभिः अंतर्मुहूर्तैः ऊनपूर्वकोटिकालेन अतिरिक्तानि समयोनत्रयस्त्रिंशत्सागरोपमानि असंयतसम्यग्दृष्टेः उत्कृष्टकालो भवति। असंयतसम्यग्दृष्टि जीव का उत्कृष्टकाल सातिरेक तेतीस सागरोपम है।।१५।।
एक प्रमत्तसंयत अथवा अप्रमत्तसंयत अथवा चारों उपशामकों में से कोई एक उपशामक जीव एक समय कम तेतीस सागरोपम आयु कर्म की स्थिति वाले अनुत्तर विमानवासी देवों में उत्पन्न हुआ और इस प्रकार असंयमसहित सम्यक्त्व की आदि हुई। इसके पश्चात् वहाँ से च्युत होकर पूर्वकोटि वर्ष की आयु वाले मनुष्यों मे उत्पन्न हुआ। वहाँ पर वह अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आयु के शेष रह जाने तक असंयतसम्यग्दृष्टि होकर रहा। तत्पश्चात् अप्रमत्तभाव से संयम को प्राप्त हुआ
(१) पुन: प्रमत्त और अप्रमत्तगुणस्थान में सहस्रों परिवर्तन करके
(२) क्षपकश्रेणी के प्रायोग्य विशुद्धि से विशुद्ध अप्रमत्त हुआ
(३) पुन: अपूर्वकरणक्षपक
(४) अनिवृत्तिकरणक्षपक
(५) सूक्ष्मसाम्परायक्षपक
(६) क्षीणकषायवीतराग-छद्मस्थ
(७) सयोगिकेवली
(८) और अयोगिकेवली
(९) होकर के सिद्ध हो गया। इन नौ अन्तर्मुहूर्तों से कम पूर्वकोटि काल से अधिक तेतीस सागरोपम असंयतसम्यग्दृष्टि का उत्कृष्ट काल होता है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ४, पृ. १७८-१७९)
उक्कस्सेण पुव्वकोडी देसूणा।।१८।।
सिद्धान्तचिन्तामणिटीका-एकः तिर्यङ् मनुष्यो वा अष्टाविंशतिप्रकृतिसत्त्वयुतः मिथ्यादृष्टिः संज्ञिपंचेन्द्रियतिर्यक्संमूर्छिमपर्याप्तेषु मत्स्य-कच्छप-मंडूकादिषु उत्पन्नः। सर्वलघु-अंतर्मुहूर्तकालेन सर्वाभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्तको जातः (१)। विश्रान्तः (२) विशुद्धो (३) भूत्वा संयमासंयमं प्रतिपन्न:। पूर्वकोटिकालं संयमासंयमं अनुपाल्य मृतः, सौधर्मादि-आरणाच्युतान्तेषु देवेषु उत्पन्नः। नष्टः संयमासंयमः। एवं आदित्रि-अंतर्मुहूर्तैः ऊनं पूर्वकोटिप्रमाणं संयमासंयमकालो भवति। संयतासंयत जीव का उत्कृष्टकाल कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण है।।१८।।एक तिर्यंच अथवा मनुष्य मिथ्यादृष्टि जीव, संज्ञी पंचेन्द्रिय और पर्याप्तक ऐसे संमूच्र्छन तिर्यंच मच्छ, कच्छप, मेंढक आदि में उत्पन्न हुआ, सर्व लघु अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा सर्व पर्याप्तियों से पर्याप्तपने को प्राप्त हुआ (१)। पुन: विश्राम लेता हुआ (२), विशुद्ध हो करके (३), संयमासंयम को प्राप्त हुआ। वहाँ पर पूर्वकोटी काल तक संयमासंयम को पालन करके मरा और सौधर्मकल्प आदि से आरण अच्युतपर्यन्त कल्पों के देवों में उत्पन्न हुआ। तब संयमासंयम नष्ट हो गया। इस प्रकार आदि के तीन अन्तर्मुहूर्तों से कम पूर्वकोटिप्रमाण संयमासंयम का काल होता है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ४, पृ. १८०-१८१)
सजोगिकेवली केवचिरं कालादो होंति? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा।।३०।। सिद्धान्तचिन्तामणिटीका-त्रिष्वपि कालेषु येन एकोऽपि समयः सयोगिविरहितः नास्ति, तेन सर्वकालत्वं युज्यते। एकजीवापेक्षया जघन्यकालकथनाय सूत्रमवतार्यते- एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं।।३१।। सिद्धान्तचिन्तामणिटीका-एकः क्षीणकषायः सयोगी भूत्वा अंतर्मुहूर्तं स्थित्वा समुद्घातं कृत्वा पश्चात् योगनिरोधं कृत्वा अयोगी जातः। एवं सयोगिनः जघन्यकालप्ररूपणा एकजीवमाश्रित्य गता। उत्कृष्टकालनिरूपणाय सूत्रमवतरति- उक्कस्सेण पुव्वकोडी देसूणा।।३२।। सिद्धान्तचिन्तामणि टीका-एकः क्षायिकसम्यग्दृष्टिः देवो वा नारको वा पूर्वकोट्यायुष्केषु मनुष्येषु उत्पन्नः। सप्तमासे गर्भे स्थित्वा गर्भप्रवेशनजन्मना अष्टवार्षिको जातः। अप्रमत्तभावेन संयमं प्रतिपन्नः (१)। पुनः प्रमत्ताप्रमत्तपरावर्तसहस्रं कृत्वां (२) अप्रमत्तस्थाने अधः प्रवृत्तकरणं कृत्वा (३) अपूर्वकरणः (४) अनिवृत्तिकरणः (५) सूक्ष्मक्षपकः (६) क्षीणकषायः (७) भूत्वा सयोगी जातः। अष्टवर्षैः सप्तभिरन्तर्मुहूर्तैः ऊनपूर्वकोटिकालं विहरमाणः अयोगी जातः (८)। एवं अष्टभिः वर्षैः अष्टभिरन्तर्मुहूर्तश्च ऊनपूर्वकोटिप्रमाणं सयोगिकेवलिकालं भवति। तात्पर्यमेतत्-सयोगिकेवलिनां भगवतां यः कालः स एव महिमावान् एतज्ज्ञात्वा मिथ्यात्वासंयम-कषायादिकालं परिहृत्य स्वात्मनि स्थिरीभवितुं प्रयत्नो विधेयः। तथा च श्रीशुभचन्द्राचार्यवाक्यं प्रत्यहं स्मर्तव्यं- ‘‘क्षणिकत्वं वदन्त्यार्या घटीघातेन भूभृताम्। क्रियतामात्मनः श्रेयः गतेयं नागमिष्यति२७।। किञ्च-यत्कालो व्यतीतः, स त्रैलोक्यसम्पद्भिरपि न प्रत्यागच्छति, इत्थं अमूल्यं कालं विज्ञाय एकापि कालस्य कलिका प्रमादेन न गमयितव्या।
सयोगिकेवली जिन कितने काल तक होते हैं? नाना जीवों की अपेक्षा सर्वकाल होते हैं।।३०
।हिन्दी टीका – चूँकि तीनों ही कालों में एक भी समय सयोगिकेवली भगवान् से विरहित नहीं है, इसलिए सर्वकालपना बन जाता है। अब एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल बतलाने हेतु सूत्र अवतरित होता है- एक जीव की अपेक्षा सयोगिकेवली का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है।।३१।। एक क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ संयत मुनि सयोगिकेवली होकर अन्तर्मुहूर्त काल रहकर समुद्घात कर, पीछे योगनिरोध करके अयोगिकेवली हुआ। इस प्रकार सयोगिजिन के जघन्य काल की प्ररूपणा एक जीव का आश्रय करके कही गई है।
अब उत्कृष्ट काल का निरूपण करने हेतु सूत्र अवतरित होता है- एक जीव की अपेक्षा सयोगिकेवली का उत्कृष्टकाल कुछ कम पूर्व कोटि है।।३२।। एक क्षायिकसम्यग्दृष्टि देव अथवा नारकी जीव पूर्वकोटी की आयु वाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। सात मास गर्भ में रह करके गर्भ में प्रवेश करने वाले जन्म दिन से आठ वर्ष का हुआ, आठ वर्ष का होने पर अप्रमत्तभाव से संयम को प्राप्त हुआ (१)। पुन: प्रमत्त और अप्रमत्तसंयतगुणस्थान संबंधी सहस्रों परिवर्तनों को करके (२), अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में अध:प्रवृत्तकरण को करके (३), क्रमश: अपूर्वकरण (४), अनिवृत्तिकरण (५), सूक्ष्मसाम्पराय क्षपक (६), और क्षीणकषायवीतराग छद्मस्थ होकर (७), सयोगिकेवली हुआ। पुन: वहाँ पर उक्त आठ वर्ष और सात अन्तर्मुहूर्तों से कम पूर्वकोटी काल प्रमाण विहार करके अयोगिकेवली हुआ (८), इस प्रकार आठ वर्ष और आठ अन्तर्मुहूर्तों से कम पूर्वकोटि वर्षप्रमाण सयोगिकेवली का काल होता है। तात्पर्य यह है कि सयोगिकेवली भगवन्तों का जो काल है उसकी अचिन्त्य महिमा है ऐसा जानकर मिथ्यात्व, असंयम, कषाय आदि काल को (नष्ट) समाप्त करके अपनी शुद्ध आत्मा में स्थिर होने का प्रयत्न करना चाहिए तथा श्रीशुभचन्द्राचार्य के ये वाक्य प्रतिक्षण स्मरण करना चाहिए।
श्लोकार्थ – राजाओं के यहाँ जो घंटा बजता है, वह कहता है कि हे आर्यों! समय क्षणिक है। अत: शीघ्र ही आत्मा का कल्याण करो, क्योंकि बीती हुई काल की कला वापस नहीं आएगी। अर्थात् जो काल बीत गया है, वह तीनों लोकों की सम्पत्ति देने पर भी पुन: वापस नहीं प्राप्त हो सकता है इस प्रकार समय की अमूल्यता जानकर काल-समय की एक भी घड़ी (पल) प्रमाद में व्यर्थ नहीं गंवाना चाहिए।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ४, पृ. १८६ से १८८ तक)
”’एको मनुष्यो बद्धतिर्यगायुष्कः सम्यक्त्वं गृहीत्वा दर्शनमोहनीयं क्षपयित्वा देवकुरूत्तरकुरुभोगभूमितिरश्चोः उत्पन्नः। त्रीणि पल्योपमानि तत्र सम्यक्त्वेन सह स्थित्वा मृतो देवो जातः। एवं तिर्यक्षु असंयतसम्यग्दृष्टेः उत्कृष्टकालः प्ररूपितः।बद्ध तिर्यगायुष्क एक मनुष्य सम्यक्त्व को ग्रहण करके और दर्शनमोहनीय का क्षय कर, देवकुरु या उत्तरकुरु के तिर्यंचों में उत्पन्न हुआ। वहाँ पर तीन पल्योपम कालप्रमाण सम्यक्त्व के साथ रहकर मरा और देव हो गया। इस प्रकार से तिर्यंचों में असंयतसम्यग्दृष्टि का उत्कृष्टकाल रहा।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ४, पृ. १९९)
उक्कस्सेण पुव्वकोडी देसूणा।।५६।। एकः तिर्यङ् मनुष्यो वा मिथ्यादृष्टिः अष्टाविंशतिप्रकृतिसत्त्वसहितः संज्ञिपंचेन्द्रिय-तिर्यक्संंमूर्छिम-पर्याप्तमंडूक-मत्स्य-कच्छपादिषु उत्पन्नः। षट्पर्याप्तिभिः पर्याप्तकः (१) विश्रान्तः (२) विशुद्धः (३) संयमासंयमं प्रतिपन्नः। एतत्त्रिभिरन्तर्मुहूर्तैः ऊनपूर्वकोटिकालं संयमासंयमं अनुपाल्य मृतो देवो जातः। एक जीव की अपेक्षा संयतासंयत तिर्यंच का उत्कृष्टकाल कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण है।।५६।।मोहनीयकर्म की अट्ठाईस कर्मप्रकृतियों की सत्ता वाला एक तिर्यंच या मनुष्य मिथ्यादृष्टि संज्ञी, पंचेन्द्रिय सम्मूचछम पर्याप्तक मेंढक, मछली, कछुआ आदि तिर्यंचों में उत्पन्न हुआ। छहो पर्याप्तियों से पर्याप्त होता हुआ (१), विश्राम लेकर (२) और विशुद्ध होकर (३) संयमासंयम को प्राप्त हुआ। इन तीन अन्तर्मुहूर्तों से कर्म पूर्वकोटि कालप्रमाण संयमासंयम को परिपालन करके मरा और देव हो गया।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ४, पृ. २००)
उक्कस्सं तिण्णि पलिदोवमाणि पुव्वकोडिपुधत्तेण अब्भहियाणि।।५९।। एको देवो नारको मनुष्यो वा अर्पितपंचेन्द्रियतिर्यक्व्यतिरिक्ततिर्यङ् वा अर्पितपंचेन्द्रियतिर्यक्षु उत्पन्नः। संज्ञि-स्त्री-पुरुष-नपुंसकवेदेषु क्रमेण अष्टाष्टपूर्वकोटि-कालप्रमाणं भ्रमित्वा असंज्ञि-स्त्री-पुरुष-नपुंसकवेदेषु अपि एवं चैव अष्टाष्टपूर्वकोटिप्रमाणं परिभ्रम्य ततः पंचेन्द्रियतिर्यगपर्याप्तकेषु उत्पन्नः। तत्रान्तर्मुहूर्तं स्थित्वा पुनः पंचेन्द्रियतिर्यगसंज्ञि-पर्याप्तकेषु उत्पद्य तत्रतनस्त्री-पुरुष-नपुंसकवेदेषु पुनरपि अष्टाष्टकोटिप्रमाणं परिभ्रमणं कृत्वा पश्चात् संज्ञिपंचेन्द्रियतिर्यक्पर्याप्तस्त्री-नपुंसकवेदयोः अष्टाष्टपूर्वकोटिप्रमाणं पुरुषवेदे सप्तपूर्वकोटिप्रमाणं भ्रमित्वा ततः देवकुरु-उत्तरकुरुतिर्यक्षु पूर्वायुर्वशेन स्त्रीवेदेषु वा पुरुषवेदेषु वा उत्पन्नः तत्र त्रीणि पल्योपमानि जीवित्वा मृतो देवो जातः। एताः पंचनवतिपूर्वकोट्यः पूर्वकोटिद्वादशपृथक्त्वसंज्ञिताः अतः आसां पूर्वकोटिपृथक्त्वव्यपदेशः सूत्रनिर्दिष्टः न युज्यते? नैष दोषः, अस्य पृथक्त्वशब्दस्य वैपुल्यवाचित्वात्। द्वादशानां पूर्वकोटिपृथक्त्वानां कथमेकत्वं? न, जातिमुखेन सहस्राणामपि एकत्वविरोधाभावात्। विशेषेण तु- पंचेन्द्रियतिर्यक्पर्याप्तकेषु सप्तचत्वारिंशत्पूर्वकोटिप्रमाणं भ्रामयित्वा पश्चात् त्रिपल्योपमिकेषु तिर्यक्षु उत्पादयितव्यः।
उक्त तीनों प्रकार के पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टियों का उत्कृष्टकाल पूर्वकोटि पृथक्त्व से अधिक तीन पल्योपम है।।५९।। कोई एक देव, नारकी, मनुष्य अथवा अर्पित-विवक्षित पंचेन्द्रिय तिर्यंच से विभिन्न अन्य तिर्यंच जीव, विवक्षित पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में उत्पन्न हुआ। वहाँ पर संज्ञी स्त्री, पुरुष और नपुंसक वेदों में क्रम से आठ-आठ पूर्वकोटि काल प्रमाण भ्रमण करके असंज्ञी स्त्री, पुरुष और नपुंसक वेदों मेें भी इसी प्रकार से आठ-आठ पूर्वकोटि कालप्रमाण परिभ्रमण करके, इसके पश्चात् पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकों में उत्पन्न हुआ। वहाँ पर अन्तर्मुहूर्त रहकर पुन: पंचेन्द्रिय तिर्यंच असंज्ञी पर्याप्तकों में उत्पन्न होकर स्त्री, पुरुष और नपुंसकवेदी उन तिर्यंचों में फिर भी आठ-आठ पूर्वकोटियों तक परिभ्रमण करके, पीछे संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्तक स्त्री और नपुंसक वेदियों में आठ-आठ पूर्वकोटियाँ तथा पुरुषवेदियों में सात पूर्वकोटियाँ भ्रमण करके उसके पश्चात् देवकुरु अथवा उत्तरकुरु के तिर्यंचों में पूर्व बांधी हुई आयु के वश से स्त्रीवेदियों में अथवा पुरुषवेदियों में उत्पन्न हुआ। वहाँ पर तीन पल्योपम तक जीवित रहकर मरा और देव हो गया।
शंका – ये पूर्व में कही गई पंचानवे पूर्वकोटियां पूर्वकोटिद्वादशपृथक्त्व संज्ञारूप हैं, इसलिए इनकी पूर्वकोटिपृथक्त्व ऐसी संज्ञा नहीं बनती है?
समाधान – यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यह पृथक्त्व शब्द वैपुल्यवाची है, (इसलिए कोटिपृथक्त्व से यथासंभव विवक्षित अनेक कोटियाँ ग्रहण की जा सकती हैं।)
शंका – बारह पूर्वकोटि पृथक्त्वों में एकपना कैसे बन सकता है?
समाधान – नहीं, क्योंकि जाति के मुख से अर्थात् जाति की अपेक्षा सहस्रों के भी एकत्व होने में विरोध का अभाव है। विशेष बात यह है कि पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्तकों में सैंतालीस पूर्वकोटियों तक भ्रमण कराके पीछे तीन पल्योपम वाले तिर्यंचों में उत्पन्न कराना चाहिए।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ४, पृ. २०१-२०२)
लब्ध्यपर्याप्तकेषु कथं स्त्रीवेदस्य संभवः? न, लब्ध्यपर्याप्त-स्त्रीवेदयोः अन्योन्यविरोधाभावात्। पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिनीषु पंचदशपूर्वकोटिकालप्रमाणं भ्रामयित्वा पश्चात् देवकुरु-उत्तरकुरुभोगभूम्योः उत्पादयितव्यः। कुतः? वेदान्तरसंक्रान्तेरभावात्। नास्यन्यः कोऽपि विशेषोऽत्र।
शंका – लब्ध्यपर्याप्तकों में स्त्रीवेद कैसे संभव है?
समाधान – नहीं, क्योंकि लब्ध्यपर्याप्त और स्त्रीवेद इन दोनों अवस्थाओं में परस्पर कोई विरोध नहीं है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिनियों में पन्द्रह पूर्वकोटियों तक भ्रमण कराके पश्चात् देवकुरु और उत्तरकुरु में उत्पन्न कराना चाहिए। प्रश्न – ऐसा क्यों? उत्तर – क्योंकि, वेद-परिवर्तन का अभाव है। इसके सिवाय अन्य कोई विशेषता नहीं है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ४, पृ. २०२)
भोगभूमिज तिर्यंच और तिर्यंचिनी का उत्कृष्टकाल एवं भोगभूमि में दो मास गर्भकाल है बद्धतिर्यगायुष्कस्य मनुष्यस्य सम्यक्त्वं गृहीत्वा दर्शनमोहनीयं क्षपयित्वा देवोत्तरकुरुभोगभूम्योः पंचेन्द्रियतिर्यक्षु उत्पद्य आत्मनः आयुस्थितिमनुपाल्य देवेषु उत्पन्नस्य संपूर्णत्रिपल्योपममात्रं असंयमसहित-सम्यक्त्वकालोपलम्भात् । पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिनीषु देशोनत्रिपल्योपमानि। तिरश्चः मनुष्यस्य वा अष्टाविंशति-प्रकृतिसत्त्वसहितमिथ्यादृष्टेः देवकुरु-उत्तरकुरुपंचेन्द्रियतिर्यग्योनिनीषु उत्पद्य द्विमासपर्यंतं गर्भे स्थित्वा जायमानस्य मुहूर्तपृथक्त्वेन विशुद्धो भूत्वा वेदकसम्यक्त्वं प्रतिपद्य मुहूर्तपृथक्त्वाधिकद्विमासहीनत्रिपल्योपमप्रमाणं सम्यक्त्वमनुपाल्य देवेषूत्पन्नस्य देशोनत्रिपल्योपममात्रसम्यक्त्वकालोपलंभात्।क्योंकि, बद्धतिर्यगायुष्क मनुष्य के सम्यक्त्व को ग्रहण करके, दर्शनमोहनीय का क्षपण कर, देवकुरु या उत्तरकुरु के पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में उत्पन्न होकर, अपनी आयु स्थिति को परिपालन कर, देवों में उत्पन्न होने वाले जीव के तो संपूर्ण तीन पल्योपम मात्र असंयमसहित सम्यक्त्व का काल पाया जाता है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिनियो में कुछ कम तीन पल्योपम काल है। क्योंकि मोहकर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्ता वाले तिर्यंच अथवा मनुष्य मिथ्यादृष्टि जीव के देवकुरु अथवा उत्तरकुरु के पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिनियों में उत्पन्न होकर और दो मास गर्भ में रहकर जन्म लेने वाले और मुहूर्तपृथक्त्व से विशुद्ध होकर वेदकसम्यक्त्व को प्राप्त करके मुहूर्तपृथक्त्व से अधिक दो मास कम तीन पल्योपम तक सम्यक्त्व को अनुपालन करके देवों में उत्पन्न होने वाले जीव के कुछ कम तीन पल्योपम सम्यक्त्व का काल पाया जाता है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ४, पृ. २०४)
उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियट्टं।।१०९।। सिद्धान्तचिन्तामणिटीका-द्वीन्द्रियादिषु एकतरः कश्चिद् जीवः एकेन्द्रियेषु उत्पद्य अतिबहुल कालं यदि तिष्ठति तर्हि आवलिकायाः असंख्यातभागमात्राणि चैव पुद्गलपरिवर्तनानि तिष्ठति। कुतः? एतस्मात् उपरि अवस्थानशत्तेरभावात्। एक जीव की अपेक्षा एकेन्द्रिय जीवों का उत्कृष्ट काल अनंतकालात्मक असंख्यात पुद्गलपरिर्वतन है।।१०९।।
हिन्दी टीका — एकेन्द्रियों से भिन्न अन्य कोई जीव एकेन्द्रियो में उत्पन्न होकर यदि अत्यधिक काल रहता है, तो आवली के असंख्यातवें भागमात्र ही पुद्गलपरिवर्तन रहता है।
प्रश्न — क्यों?
उत्तर — क्योंकि इस उक्त काल से ऊपर एकेन्द्रियों में रहने की शक्ति का अभाव है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ४, पृ. २२६-२२७)
एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं।।११४।। सिद्धान्तचिन्तामणिटीका-क्षुद्रभवग्रहणं संख्यातावलिमात्रं, एकं मुहूर्तं षट्षष्टिसहस्र-त्रिशत-षट्त्रिंशद्रूपमात्रखण्डानि कृत्वा एकखण्डमात्रत्वात्। एतदपि कथं ज्ञायते? तिण्णि सया छत्तीसा, छावट्ठि सहस्स चेव मरणाइं। अंतोमुहुत्तकाले, तावदिया होंति खुद्दभवा।।१।। इति गाथासूत्रादेव ज्ञायते। एक जीव की अपेक्षा बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीवों का जघन्य काल अंतर्मुहूर्त है।।११४।।क्षुद्रभवग्रहण का काल संख्यात आवली प्रमाण होता है, क्योंकि एक मुहूर्त का छ्यासठ हजार तीन सौ छत्तीसरूपप्रमाण खंड करने पर एक खंड प्रमाण क्षुद्रभव का काल होता है।
शंका — यह कैसे जाना है?
समाधान — (गाथार्थ)—एक अन्तर्मुहूर्त काल के छ्यासठ हजार तीन सौ छत्तीस मरण होते हैं, और इतने ही क्षुद्रभव होते हैं।।१।। इस गाथासूत्र से जाना जाता है कि क्षुद्रभव का काल अन्तर्मुहूर्त का छ्यासठ हजार तीन सौ छत्तीसवां भाग है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ४, पृ. २२९)
उक्तलक्षणमुहूर्तमध्ये तावदेकेन्द्रियो भूत्वा कश्चिद् जीवः षट्षष्टिसहस्रद्वात्रिंशदधिक शतपरिमाणानि (६६१३२) जन्ममरणानि अनुभवति, तथा स एव जीवः तस्यैव मुहूर्तस्य मध्ये द्वित्रिचतुरिन्द्रियपंचेन्द्रियो भूत्वा यथासंख्यमशीतिषष्टि-चत्वारिंशत्-चतुर्विंशतिजन्ममरणान्यनुभवति। सर्वेऽप्येते समुदिताः क्षुद्रभवाः एतावन्त एव भवन्ति-६६३३६। यदा यैवान्तर्मुहूर्तस्य मध्ये एतावन्ति जन्ममरणानि भवन्ति तदैकस्मिन्नुच्छ्वासे अष्टादश जन्ममरणानि लभ्यन्ते। तत्रैकस्य क्षुद्रभवसंज्ञा२८।’’
प्रश्न — क्षुद्रभवग्रहण का क्या स्वरूप है?
उत्तर — पूर्व कथित लक्षण वाले अंतर्मुहूर्त के मध्य में कोई एकेन्द्रिय होकर छ्यासठ हजार एक सौ बत्तीस (६६१३२) बार जन्म मरण के दु:ख का अनुभव करता है। वही जीव अंतर्मुहूर्त के मध्य में दो इन्द्रिय के अस्सी (८०), तीन इन्द्रिय के साठ (६०), चतुरिन्द्रिय के चालीस (४०) और पंचेन्द्रिय के चौबीस (२४) बार जन्म-मरण को प्राप्त होता है। इस प्रकार अंतर्मुहूर्त में होने वाले सारे जन्म-मरणों की गणना छ्यासठ हजार तीन सौ छत्तीस है। जब एक अंतर्मुहूर्त में छ्यासठ हजार तीन सौ छत्तीस बार जन्म-मरण होते हैं, तब एक श्वास में अठारह बार जन्म-मरण करता है। उसमें एक भव (जन्म) की क्षुद्रभव संज्ञा है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ४, पृ. २३०-२३१)
उक्कस्सेण संखेज्जाणि वाससहस्साणि।।११५।। सिद्धान्तचिन्तामणिटीका-पृथिवीकायिकेषु द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि उत्कृष्टायुः सूत्रसिद्धमस्ति। बादरैकेन्द्रियपर्याप्तभवस्थितिः असंख्यातवर्षमात्रा किं न भवति? न भवति, तत्रासंख्यातवारं एकजीवस्य उत्पत्तेरसंभवात्। यदि कश्चिद् जीवः बादरैकेन्द्रियेषु उत्कृष्टसंख्यातप्रमाणवारं अथवा तस्य संख्यातभागमात्रवारं उत्पद्यते तर्हि असंख्यातवर्षाणि भवन्ति? न भवन्ति, संख्यातानि वर्षसहस्राणि इति सूत्रस्यान्यथानुपपत्तेः, अतः तत्प्रायोग्यसंख्यातवारोत्पत्तिसिद्धेः। अविवक्षितः कश्चिद् जीवः बादरैकेन्द्रियपर्याप्तकेषु संख्यातानि वर्षसहस्राणि उत्कृष्टेन तत्र भ्रमित्वा पुनः अविवक्षितेषु निश्चयेन उत्पद्यते इति भणितं भवति।एक जीव की अपेक्षा बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीवों का उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है।।११५।।
हिन्दी टीका — पृथिवीकायिक जीवों में उत्कृष्ट आयु बाईस हजार वर्ष प्रमाण होती है ऐसा सूत्र से सिद्ध है।
प्रश्न — बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवों की भवस्थिति असंख्यातवर्ष प्रमाण क्यों नहीं होती है?
उत्तर — नहीं होती है, क्योंकि उनमें असंख्यातबार एक जीव की उत्पत्ति असंभव है।
शंका — यदि कोई जीव बादर एकेन्द्रियों में उत्कृष्ट संख्यातप्रमाण बार अथवा उसके संख्यातवें भागप्रमाण बार उत्पन्न होता है, तो भी असंख्यात वर्ष तो हो ही जाते हैं?
समाधान — नहीं होते हैं, क्योंकि बादर एकेन्द्रिय जीवों का उत्कृष्ट काल ‘संख्यात हजार वर्ष प्रमाण हैं’ यह सूत्र वचन नहीं बन सकता है। इसलिए तत्प्रायोग्य-उनके योग्य संख्यातबार ही बादर एकेन्द्रियों की उत्पत्ति सिद्ध होती है। अविवक्षित कोई जीव बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकों में उत्पन्न होकर संख्यात-सहस्र वर्ष प्रमाण अधिक से अधिक काल तक उनमें परिभ्रमण करके पुन: अविवक्षित जीवों में निश्चय से उत्पन्न होता है,यह अर्थ कहा गया समझना चाहिए।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ४, पृ. २३१)
न, क्षुद्रभवग्रहणापेक्षया मिथ्यात्वस्य जघन्यकालस्य स्तोकत्वात्। उत्कृष्टकालेन कश्चिदेको जीवः स्थावरकायादागत्य सामान्यत्रसकायिकेषु उत्पन्नः,स पूर्वकोटि-पृथक्त्वाभ्यधिकद्विसागरसहस्रे तत्र भ्रमित्वा स्थावरकायं गतः। इतश्च कश्चिद् जीवः स्थावरकायादागत्य द्विसहस्रसागरौ परिभ्रम्य स्थावरं गतः। एतस्मादुपरि तत्र त्रसकायिकेषु अवस्थानसंभवाभावात्।उत्कृष्टकाल की अपेक्षा कोई एक जीव स्थावरकाय से आकर एक तो सामान्य त्रसकायिक जीवों में और दूसरा त्रसकायिक पर्याप्तकों में उत्पन्न हुआ। उनमें जो सामान्य त्रसकायिक जीवों में उत्पन्न हुआ, वह जीव पूर्वकोटीपृथक्त्व से अधिक दो हजार सागरोपम काल उनमें परिभ्रमण करके स्थावरकाय को प्राप्त हुआ तथा दूसरा कोई जीव भी स्थावरकाय से आकर दो हजार सागरोपमप्रमाण उनमें परिभ्रमण करके स्थावरकाय में चला गया, क्योंकि इसके ऊपर त्रसकाय में रहना संभव नहीं है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ४, पृ. २४७)
अप्रमत्तसंयतस्य किमर्थं व्याघातो नास्ति? अप्रमाद-व्याघातयोः सहानवस्थानलक्षणविरोधात्।
शंका – अप्रमत्तसंयत के व्याघात किसलिए नहीं है?
समाधान – क्योंकि, अप्रमाद और व्याघात इन दोनों का सहानवस्थालक्षण विरोध है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ४, पृ. २५३)
सर्वार्थसिद्धिविमानवासिदेवस्य त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमानि सुखलालितस्य प्रमुक्तदुःखस्य मानुषगर्भे विष्टा-मूत्रान्त्र-पित्त-श्लेष्मा-वसा-सिंघाण-रक्त-शुक्रापूरिते अतिदुर्गन्धे कुत्सितरसे दुर्वर्णे दुःस्पर्शे चर्मकारकुण्डोपमे उत्पन्नस्य, तत्र मंदो योगो भवतीति आचार्यपरंपरागतोपदेशात्। मंदयोगेन स्तोकान् पुद्गलान् गृण्हतः जीवस्य औदारिकमिश्रकालं दीर्घं भवतीति कथितं भवति। अथवा योगोऽत्र महान् चैव भवतु, योगवशेन बहुकाः पुद्गलाः आगच्छन्तु, तर्हि अपि अस्य जीवस्य अपर्याप्तकालं दीर्घं भवति, विलासेन दूषितस्य जीवस्य लघुकालेन पर्याप्तिपूर्णस्य असामथ्र्यत्वात्।तेतीस सागरोपमकाल तक सुख से लालित-पालित हुए तथा दु:खों से रहित सर्वार्थसिद्धिविमानवासी देव के विष्टा, मूत्र, आतड़ी, पित्त, खारिस (कफ) चर्वी, नासिका मल, लोहू और शुक्र व्याप्त, अति दुर्गन्धित, कुत्सितरस, दुर्वर्ण और दुष्ट स्पर्श वाले चमार के कुंडके सदृश मनुष्य के गर्भ में उत्पन्न होने पर उसके विग्रहगति में तथा उसके पश्चात् भी मंदयोग होता है, इस प्रकार का आचार्य परम्परागत उपदेश है। मंदयोग से अल्प पुद्गलों को ग्रहण करने वाले जीव के औदारिक मिश्रकाययोग का काल दीर्घ होता है, यह अर्थ कहा गया है। अथवा यहाँ पर चाहे योगकाल बड़ा ही रहा आवे और योग के वश से पुद्गल भी बहुत से आते रहें, तो भी उक्त प्रकार के जीव के अपर्याप्तकाल बड़ा ही होता है, क्योंकि विलास से दूषित जीव के शीघ्रतापूर्वक पर्याप्तियों के सम्पूर्ण करने में सामथ्र्य नहीं है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ४, पृ. २६४)
स्त्रीवेदे संयतासंयतस्य उत्कृष्टकालेऽस्ति विशेषः-एकः अष्टाविंशतिमोहनीय-कर्मप्रकृतिसत्त्वसहितः स्त्रीवेदेषु कुक्कुट-मर्वटादिषु उत्पद्य द्वौ मासौ गर्भे स्थित्वा निर्गत्य मुहूर्तपृथक्त्वस्योपरि सम्यक्त्वं संयमासंयमं वा युगपत् गृहीत्वा द्विमासमुहूर्तपृथक्त्वोन-पूर्वकोटिसंयमासंयमं अनुपाल्य मृतो देवो जातः इति। पुनः ओघे-अंतर्मुहूर्तोन-पूर्वकोटिसंयतासंयत-उत्कृष्टकालः संज्ञिसन्मूच्र्छिम-पर्याप्तमत्स्य-कच्छप-मंडूकादिषु लब्धः, अत्र स्त्रीवेदे स न लभ्यते, सम्मूच्र्छिमेषु स्त्रीवेदाभावात्। तात्पर्यमेतत्-देशोनपूर्वकोटिकालस्य द्वौ भेदौ स्तः, द्विमासमुहूर्तपृथक्त्वहीन-पूर्वकोटिवर्षकालः स्त्रीवेदे कुक्कुटमर्वâटादिषु लभ्यते। अंतर्मुहूर्तोनपूर्वकोटिवर्षकालः सम्मूच्र्छिम-मत्स्य-कच्छपमंडूकादिषु नपुंसकवेदे जायते इमे तिर्यञ्चोऽपि स्वयंभूरमण-द्वीपसमुद्रवर्तिनश्चैव।स्त्रीवेद में संयतासंयत गुणस्थान के उत्कृष्टकाल में कुछ विशेषता बतलाते हैं-मोहनीय कर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्ता वाला कोई एक जीव स्त्रीवेदी, कुक्कुट, मर्वâट आदि में उत्पन्न होकर दो मास गर्भ में रहकर वहाँ से निकल करके मुहूर्त पृथक्त्व के ऊपर सम्यक्त्व और संयमासंयम को युगपत् ग्रहण करके दो मास और मुहूर्तपृथक्त्व से कम पूर्वकोटीवर्षप्रमाण संयमासंयम को परिपालन करके मरा और देव हो गया। पुन: ओघकाल-गुणस्थान की समय प्ररूपणा में-जो अन्तर्मुहूर्त कम पूर्वकोटी वर्ष संयतासंयत का उत्कृष्टकाल कहा है, वह संज्ञी सम्मूच्र्छिम पर्याप्त मच्छ-मछली, कच्छप-कछुवा, मंडूकादिकों-मेंढक आदि में पाया जाता है, वह यहाँ पर नहीं पाया जाता है क्योंकि सम्मूच्र्छन जन्म वाले जीवों में स्त्रीवेद का अभाव है।
तात्पर्य यह है कि देशोनपूर्वकोटि काल के दो भेद हैं- १. द्विमासमुहूर्तहीनपूर्वकोटिवर्षकाल-यह स्त्रीवेदी कुक्कुट-मुर्गा, बंदर आदि में पाया जाता है। २. अन्तर्मुहूर्तऊनपूर्वकोटिवर्षकाल-यह सम्मूच्र्छन जन्म वाले मत्स्य, कछुवा, मेंढक आदि नपुंसकवेदी जीवों में होता है। ये तिर्यंच भी स्वयंभूरमणद्वीप और स्वयंभूरमण समुद्र में जन्म लेने वाले हैं, क्योंकि अन्य स्थानों के जीवों में इस काल से गणना नहीं होती है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ४, पृ. २८०)
एको मिथ्यादृष्टिः अन्यकषायेन स्थितः, तस्य कालक्षयेन क्रोधकषायी जातः। एकसमयं क्रोधेन सह दृष्टः। द्वितीयेन मृतः अन्यकषायेषु उत्पन्न:, एष मरणेन एकसमयः। क्रोधेन मृतः नरकगत्यां उत्पादयितव्यः, तत्रोत्पन्नजीवानां प्रथमं क्रोधोदयस्योपलम्भात्। मानेन मृतः मनुष्यगत्यां उत्पादयितव्यः, तत्रोत्पन्नानां प्रथमसमये मानोदयनियमोपदेशात्। मायया मृतः तिर्यग्गत्यां उत्पादयितव्यः, तत्रोत्पन्नानां प्रथमसमये माययोदय-नियमोपदेशात्। लोभेन मृतः देवगत्यां उत्पादयितव्यः, तत्रोत्पन्नानां प्रथमं चैव लोभोदयो भवतीति आचार्यपरंपरागतोपदेशात्। एक कोई मिथ्यादृष्टि जीव अन्य कषाय में विद्यमान था। उस कषाय के कालक्षय से वह क्रोधकषायी हो गया। एक समय क्रोधकषाय के साथ दृष्टिगोचर हुआ पुन: द्वितीय समय में मरा और अन्य कषायों में उत्पन्न हुआ, यह मरण की अपेक्षा एक समय हुआ। क्रोधकषाय के साथ मरा हुआ जीव नरकगति में उत्पन्न कराना चाहिए, क्योंकि नरकों में उत्पन्न होने वाले जीवों के सर्वप्रथम क्रोधकषाय का उदय पाया जाता है। मानकषाय से मरा हुआ जीव मनुष्यगति में उत्पन्न कराना चाहिए, क्योंकि मनुष्यों में उत्पन्न हुए जीवों के प्रथम समय में मानकषाय के उदय के नियम का उपदेश देखा जाता है। माया कषाय से मरे हुए जीव को तिर्यग्गति में उत्पन्न कराना चाहिए, क्योंकि तिर्यंचों के उत्पन्न होने के प्रथम समय में मायाकषाय के उदय का नियम देखा जाता है। लोभकषाय से मरा हुआ जीव देवगति में उत्पन्न कराना चाहिए, क्योंकि उनमें उत्पन्न होने वाले जीवों के सर्वप्रथम लोभकषाय का उदय होता है, ऐसा आचार्य परम्परागत उपदेश है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ४, पृ. २८७)
एकः अष्टाविंशतिसत्कर्मिजीवः संज्ञिसम्मूच्र्छिमपर्याप्तकेषु उत्पन्नः। षट्पर्याप्तिभिः पर्याप्तगतः विश्रम्य विशुद्धः संयमासंयमं प्रतिपद्य मतिश्रुतज्ञानी जातः। ततः अंतर्मुहूर्तं गत्वा अवधिज्ञानमुत्पादयति।अवधिज्ञानी संयतासंयत गुणस्थानसंबंधी एक जीव के उत्कृष्टकाल में विशेषता है। वह इस प्रकार है-मोहकर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्ता रखने वाला कोई एक जीव संज्ञी, सम्मूच्र्छिम, पर्याप्तकों में उत्पन्न हुआ और छहों पर्याप्तियों से पर्याप्त हो, विश्राम करता हुआ, विशुद्ध होकर, संयमासंयम को प्राप्त कर, मति-श्रुतज्ञानी हो गया पुन: अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् अवधिज्ञान को उत्पन्न करता है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ४, पृ. २९४)
निर्वृत्त्यपर्याप्तकानामिव लब्ध्यपर्याप्तकेषु चक्षुर्दर्शनं किं नोच्यते? न, तस्मिन् भवे तत्र चक्षुर्दर्शनोपयोगाभावात्। किन्तु निर्वृत्त्यपर्याप्तानां तस्मिन् भवे नियमेन चक्षुर्दर्शनोपयोगोपलंभात्।शंका – निर्वृत्यपर्याप्तकों के समान लब्ध्यपर्याप्तकों में चक्षुदर्शन क्यों नहीं कहा? समाधान – नहीं, क्योंकि लब्ध्यपर्याप्तकों के उसी भव में चक्षुदर्शनोपयोग का अभाव पाया जाता है किन्तु निर्वृत्यपर्याप्तकों के तो उसी भव में नियम से ही चक्षुदर्शनोपयोग पाया जाता है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ४, पृ. ३००)
निर्वृत्तिं गच्छन्नपि न व्युच्छिद्यते भव्यराशि: इति कथमेतद् ज्ञायते? तस्य अनन्तत्वात्। स: राशिरनन्त उच्यते, य: सत्यपि व्यये न समाप्यते, अन्यथा अनन्तव्यपदेशोऽनर्थको भवेत्। तस्मात् त्रिविधेन भव्यत्वेन भवितव्यमिति। न च सूत्रेण सह विरोध:, शक्तिमपेक्ष्य सूत्रे अनादिसान्तत्वोपदेशात्।
शंका – निवृत्ति (मोक्ष) को जाते हुए जीवों के भी नित्य व्ययात्मक भव्यराशि विच्छेद को प्राप्त नहीं होती है, यह कैसे जाना जाता है?
समाधान – क्योंकि, यह राशि अनन्त है और वही राशि अनन्त कही जाती है जो व्यय के होते रहने पर भी समाप्त नहीं होती है। अन्यथा फिर उस राशि की अनन्त संज्ञा निरर्थक हो जाएगी। इसलिए भव्यत्व तीन प्रकार का हो जाना चाहिए तथा सूत्र के साथ भी कोई विरोध नहीं आता है, क्योंकि शक्ति की अपेक्षा सूत्र में भव्यत्व के अनादिसान्तता का उपदेश दिया गया है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ४, पृ. ३२५)
एको देवो नारको वा सम्यग्दृष्टि: मनुष्येषु उत्पद्य अंतर्मुहूर्ताभ्यधिकगर्भादिअष्टवर्षान् गमयित्वा संयमासंयमं प्रतिपद्य अंतर्मुहूर्तं विश्रम्य अंतर्मुहूर्तेन दर्शनमोहनीयं क्षपयित्वा क्षायिक सम्यग्दृष्टि: जात:। एवं चतुर्भिरन्तर्मुहूर्तै: अभ्यधिकाष्टवर्षै: ऊनं पूर्वकोटिकालं संयमासंयमं अनुपाल्य मृतो देवो जात:। कोई एक देव अथवा नारकी सम्यग्दृष्टि जीव मनुष्यों में उत्पन्न होकर और अन्तर्मुहूर्त अधिक गर्भ से लेकर आठ वर्ष बिताकर संयमासंयम को प्राप्त होकर और अन्तर्मुहूर्त विश्राम करके, एक अन्तर्मुहूर्त से दर्शनमोहनीय का क्षपण कर, क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो गया। इन चार अन्तर्मुहूर्तों से अधिक आठ वर्षों से कम पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण संयमासंयम को परिपालन करके मरा और देव हुआ।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ४, पृ. ३२८-३२९)
वर्तमानकाले अस्मिन् भरतक्षेत्रे पंचमकाले केवलिश्रुतकेवलिभगवतोरभावात् क्षायिकसम्यक्त्वं नास्ति, उपशमसम्यक्त्वस्य कालं अंतर्मुहूर्तमात्रमेव, अतोऽद्यत्वे वेदकसम्यक्त्वमेवास्मावंâ। अस्य कालमुत्कृष्टं षट्षष्टिसागरोपमप्रमाणं अस्ति। क्षायिकसम्यक्त्वं यावन्न भवेत्तावदिदं न नश्येत् एषैव मम भावना वर्तते।इस भरतक्षेत्र के अन्दर वर्तमान काल में पंचमकाल (दु:षमकाल) चल रहा है अत: यहाँ केवली-श्रुतकेवली का अभाव होने से क्षायिकसम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं हो सकती है तथा उपशम सम्यक्त्व का काल मात्र अन्तर्मुहूर्त ही है, अत: आज हम सभी को वेदक-क्षयोपशम सम्यक्त्व ही है। इस वेदकसम्यक्त्व का उत्कृष्टकाल छ्यासठ सागर प्रमाण है। जब तक क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त न होवे, तब तक मेरा क्षयोपशम सम्यक्त्व नष्ट न होवे, यही मेरी भावना है। अर्थात् क्षायिक सम्यक्त्व होने तक मेरा क्षयोपशम सम्यक्त्व बना रहे, पुन: क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करके शीघ्र मोक्ष की प्राप्ति हो जावे, ऐसी भावना सभी को करना चाहिए।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ४, पृ. ३२९)
आचार्यः प्राह-नैष दोषः, उपरि योजनलक्षमात्रगमने संभवाभावात्। मेरुमस्तकारोहणसमर्थानां ऋषीणां किमिति लक्षयोजनस्योपरि गमनं न संभवेत्? भवतु नाम मेरुपर्वतस्योध्र्वप्रदेशे ऋषीणां गमनस्य शक्तिः किन्तु सर्वत्र गमनस्य नास्ति।शंका – सुमेरुपर्वत के मस्तक (शिखर) पर चढ़ने में समर्थ ऋषियों के एक लाख योजन ऊâपर गमन करने की संभावना क्यों नहीं है? समाधान – सुमेरुपर्वत के ऊध्र्वप्रदेश में ऋषियों के गमन करने की वह शक्ति भले ही होवे किन्तु मानुषक्षेत्र के भीतर एक लाख योजन ऊपर जाने की वह शक्ति सर्वत्र नहीं है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ४, पृ. ३१)
महापुराण में भी कहा है- सानन्दं त्रिदशेश्वरै: सचकितं देवीभिरुत्पुष्करै: सत्रासं सुरवारणै: प्रणिहितैरात्तादरं चारणै:। साशज्र्ं गगनेचरै: किमिदमित्यालोकितो य: स्पुरन् मेरोर्मूदर््िघ्न स नोऽवताज्जिनविभोर्जन्मोत्सवाम्भ: प्लव:।।२१६।।मेरु पर्वत के मस्तक पर स्पुâरायमान होता हुआ, जिनेन्द्र भगवान के जन्माभिषेक का वह जल-प्रवाह हम सबकी रक्षा करे जिसे कि इन्द्रों ने बड़े आनन्द से, देवियों ने आश्चर्य से, देवों के हाथियों ने सूँड ऊँची उठाकर बड़े भय से, चारण ऋद्धिधारी मुनियों ने एकाग्रचित्त होकर बड़े आदर से और विद्याधरों ने ‘यह क्या है’ ऐसी शंका करते हुए देखा था।।२१६।।
(आदिपुराण, भाग-१, पृ. ३०३)
णवगेवज्जविमाणवासियदेवेसु मिच्छादिट्ठिप्पहुडि जाव असंजदसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं? लोगस्स असंखेज्जदिभागो।।५५।। सिद्धांतचिंतामणिटीका-एतस्य सूत्रस्य वर्तमानातीतप्ररूपणासु स्पर्शनं क्षेत्रवत्। अत्र सर्वेऽपि देवा अहमिन्द्रा एव। विशेषेण तु-सुदर्शनामोघसुप्रबुद्ध-यशोधरसुभद्र-विशाल-सुमन सौमनसप्रीतिंकराख्याः नवग्रैवेयकाः सन्ति, एष्वपि त्रयोऽधोग्रैवेयकाः, त्रयोमध्यमग्रैवेयकाः त्रयश्चोपरिमग्रैवेयकाः भवन्ति। एतेषु मिथ्यात्वादिचतुर्गुणस्थानानि विद्यन्ते। अत्र द्रव्यवेषेण दिगंबरमुनय एव, भावेन कदाचित् मिथ्यादृष्टयः केचित्, सासादनाः, सम्यङ्मिथ्यादृष्टयः, असंयतसम्यग्दृष्टयोऽपि संयतासंयताः वा तत्र गंतुं शक्नुवन्ति। केचित् च द्रव्येण मुनयो भावेनापि षष्ठसप्तमादिगुणस्थानवर्तिनः तत्र उत्पद्यन्ते किन्तु तत्र देवगतौ चत्वार्येव गुणस्थानानि भवन्ति। नवग्रैवेयक विमानवासी देवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक विमान के गुणस्थानवर्ती देवों ने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है? लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श किया है।।५५।।
हिन्दी टीका – इस सूत्र की वर्तमानकालीन और अतीतकालीन प्ररूपणाओं में स्पर्शन को क्षेत्रप्ररूपणा के समान जानना चाहिए। इन नवग्रैवेयकों में सभी देव अहमिन्द्र ही होते हैं। विशेष बात यह है कि सोलह स्वर्गों के ऊपर सुदर्शन, अमोघ, सुप्रबुद्ध, यशोधर, समुद्र, विशाल, सुमन, सौमनस और प्रीतिंकर नाम वाले नवग्रैवेयक विमान होते हैं। उनमें तीन अधोग्रैवेयक हैं, तीन मध्यम ग्रैवेयक हैं और तीन उपरिम ग्रैवेयक हैं। इन सभी विमानों में रहने वाले देवों के मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र और असंयतसम्यग्दृष्टि ये चार गुणस्थान पाये जाते हैं। द्रव्यवेष से दिगम्बर मुनि ही वहाँ जन्म लेते हैं, भाव से कदाचित् मिथ्यादृष्टि जीव भी वहाँ जन्म ले लेते है और भाव की अपेक्षा ही सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि अथवा संयतासंयत
षट्खण्डागम पुस्तक-5
सिद्धान्तचिंतामणि टीका) से संग्रहीत
मंगलाचरणं सिद्धा: सिद्ध्यन्ति सेत्स्यन्ति, त्रैकाल्ये ये नरोत्तमा:।
सर्वार्थसिद्धिदातार:, ते मे कुर्वन्तु मंगलम्।।१।।
श्लोकार्थ – जो महापुरुष तीनों कालों में-भूतकाल में सिद्ध हो चुके हैं, वर्तमान में सिद्ध हो रहे हैं और भविष्य में सिद्धपद को प्राप्त करेंगे, वे सर्वार्थसिद्धि को प्रदान करने वाले-सम्पूर्ण मनोरथों की सिद्धि करने वाले सिद्धपरमेष्ठी भगवान मेरा और तुम्हारा मंगल करें अर्थात् हम सभी के लिए मंगलकारी होवें।
एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीव ने तीनों करण करके प्रथमोपशम सम्यक्त्व को ग्रहण करते हुए अनन्त संसार छेदकर सम्यक्त्व ग्रहण करने के प्रथम समय में संसार को अर्धपुद्गलपरिवर्तनमात्र कर लिया।
पुन: उपशमसम्यक्त्व के साथ अन्तर्मुहूर्तकाल रहकर
(१) उपशमसम्यक्त्व के काल में छह आवलियाँ अवशेष रह जाने पर सासादन गुणस्थान को प्राप्त होकर अन्तर को प्राप्त हुआ। पुन: मिथ्यात्व के साथ अर्धपुद्गलपरिवर्तन परिभ्रमण कर अंतिम भव में संयम को अथवा संयमासंयम को प्राप्त होकर कृतकृत्य वेदक सम्यक्त्वी होकर अन्तर्मुहूर्तकाल प्रमाण संसार के अवशेष रह जाने पर परिणामों के निमित्त से असंयतसम्यग्दृष्टि हो गया। इस प्रकार सूत्रोक्त अन्तरकाल प्राप्त हुआ ।
(२) पुन: अप्रमत्तभाव के साथ संयम को प्राप्त होकर
(३) प्रमत्त-अप्रमत्त गुणस्थान संबंधी सहस्रों परावर्तनों को करके
(४) क्षपक श्रेणी के योग्य विशुद्धि से विशुद्ध होकर
(५) अपूर्वकरणसंयत
(६) अनिवृत्तिकरण
(७) सूक्ष्मसाम्परायसंयत
(८) क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ
(९) सयोगिकेवली
(१०) और अयोगिकेवली
(११) होकर निर्वाण को प्राप्त हो गया। इस प्रकार से इन ग्यारह अन्तर्मुहूर्तों से कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल असंयतसम्यग्दृष्टि जीवों का उत्कृष्ट अन्तर होता है। (षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ५, पृ. १५)
अब संयतासंयत जीवों का उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं-एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीव ने तीनों करण करके सम्यक्त्व ग्रहण करने के प्रथम समय में सम्यक्त्वगुण के द्वारा अनन्त संसार छेदकर अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण किया। पुन: सम्यक्त्व के साथ ही ग्रहण किये गये संयमासंयम के साथ अन्तर्मुहूर्तकाल रहकर, उपशमसम्यक्त्व के काल में छह आवलियाँ अवशेष रह जाने पर सासादनगुणस्थान को प्राप्त हो
(१) अन्तर को प्राप्त हो गया और मिथ्यात्व के साथ अर्धपुद्गलपरिवर्तन परिभ्रमण कर अंतिम भव में असंयम से सहित सम्यक्त्व को अथवा संयमासंयम को प्राप्त होकर कृतकृत्य वेदकसम्यक्त्वी हो परिणामों के निमित्त से संयमासंयम को प्राप्त हुआ
(२) इस प्रकार से इस गुणस्थान का अन्तर प्राप्त हो गया। पुन: अप्रमत्तभाव के साथ संयम को प्राप्त होकर
(३) प्रमत्त-अप्रमत्त गुणस्थान संबंधी सहस्रों परिवर्तनों को करके
(४) क्षपकश्रेणी के योग्य विशुद्धि से विशुद्ध होकर
(५) अपूर्वकरण
(६) अनिवृत्तिकरण
(७) सूक्ष्मसाम्पराय
(८) क्षीणकषाय
(९) सयोगिकेवली
(१०) और अयोगिकेवली
(११) होकर निर्वाण को प्राप्त हुआ। इस प्रकार से इन ग्यारह अन्तर्मुहूर्तों से कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल संयतासंयत का उत्कृष्ट अन्तर होता है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ५, पृ. १६)
अब प्रमत्तसंयत का अन्तर कहते हैं-एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीव ने तीनों ही करण करके उपशमसम्यक्त्व और संयम को एक साथ प्राप्त होते हुए अनन्त संसार छेदकर अर्धपुद्गल परिवर्तन मात्र किया। पुन: उस अवस्था में अन्तर्र्मुहूर्त रहकर
(१) प्रमत्तसंयत हुआ
(२) इस प्रकार से यह अर्धपुद्गलपरिवर्तन की आदि दृष्टिगोचर हुई। पुन: उपशमसम्यक्त्व के काल में छह आवलियाँ अवशेष रह जाने पर सासादनगुणस्थान में जाकर अन्तर को प्राप्त होकर मिथ्यात्व के साथ अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल परिभ्रमण कर अंतिम भव में असंयमसहित सम्यक्त्व को अथवा संयमासंयम को प्राप्त होकर कृतकृत्यवेदक सम्यक्त्वी हो अप्रमत्तभाव के साथ संयम को प्राप्त होकर प्रमत्तसंयत हो गया
(३) इस प्रकार से इस गुुणस्थान का अन्तर प्राप्त हो गया। पश्चात् क्षपकश्रेणी के योग्य अप्रमत्तसंयत हुआ
(४) पुन: अपूर्वकरणसंयत
(५) अनिवृत्तिकरण संयत
(६) सूक्ष्मसाम्परायसंयत
(७) क्षीणकषाय वीतरागछद्मस्थ
(८) सयोगिकेवली
(९) और अयोगिकेवली
(१०) होकर निर्वाण को प्राप्त हुआ। इस प्रकार से दश अन्तर्मुहूर्तों से कम अर्धपुद्गल परिवर्तनकाल प्रमत्तसंयत का उत्कृष्ट अन्तर होता है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ५, पृ. १६-१७ )
अब अप्रमत्तसंयत का अन्तर कहते हैं-एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीव ने तीनों ही करण करके उपशमसम्यक्त्व को और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान को एक साथ प्राप्त होकर सम्यक्त्व ग्रहण करने के प्रथम समय में ही अनन्त संसार छेदकर अर्धपुद्गलपरिवर्तन मात्र किया। उस अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में अन्तर्मुहूर्त रहकर
(१) प्रमत्तसंयत हुआ और अन्तर को प्राप्त होकर मिथ्यात्व के साथ अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल परिवर्तन कर अंतिम भव में सम्यक्त्व अथवा संयमासंयम को प्राप्त होकर दर्शनमोह की तीन और अनन्तानुबंधी की चार इन सात प्रकृतियों का क्षपणकर अप्रमत्तसंयत हो गया
(२) इस प्रकार अप्रमत्तसंयत का अन्तरकाल उपलब्ध हुआ। पुन: प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थान में सहस्रों परावर्तनों को करके
(३) अप्रमत्तसंयत हुआ
(४) पुन: अपूर्वकरण
(५) अनिवृत्तिकरण
(६) सूक्ष्मसाम्पराय
(७) क्षीणकषाय
(८) सयोगिकेवली
(९) और अयोगिकेवली
(१०) होकर निर्वाण को प्राप्त हुआ। इस प्रकार दश अन्तर्मुहूर्त कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल प्रमाण अप्रमत्तसंयत का उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त हो गया।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ५, पृ. १७)
असंयतसम्यग्दृष्टेरूच्यते-एक: तिर्यङ् मनुष्यो वा अष्टाविंशतिसत्कर्मी मिथ्यादृष्टि: अध: सप्तम्यां पृथिव्यां नारकेषु उत्पन्न:। षट्पर्याप्तिभि: पर्याप्तो जात:
(१) विश्रान्त:
(२) विशुद्ध:
(३) वेदकसम्यक्त्वं प्रतिपन्न:
(४) संक्लिष्ट: मिथ्यात्वं गत्वान्तरित:। अवसाने तिर्यगायु: बद्ध्वा अंतर्मुहूर्तं विश्रम्य विशुद्धो भूत्वा उपशमसम्यक्त्वं प्रतिपन्न:
(५) लब्धमन्तरं। भूय: मिथ्यात्वं गत्वा निर्गत:
(६) एवं षडन्तर्मुहूर्तै: त्रयस्त्रिंशत्सागरप्रमाणम-संयतसम्यग्दृष्टेरूत्कृष्टान्तरं भवति।
अब असंयतसम्यग्दृष्टि नारकी का अन्तर कहते हैं-मोहकर्म की अट्ठाईस कर्मप्रकृतियों की सत्ता वाला कोई एक तिर्यंच, अथवा मनुष्य मिथ्यादृष्टि जीव नीचे सातवीं पृथिवी के नारकियों में उत्पन्न हुआ और छहों पर्याप्तियों से पर्याप्त होकर
(१) विश्राम लेकर
(२) विशुद्ध होकर
(३) वेदक सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ
(४) पुन: संक्लिष्ट हो मिथ्यात्व को प्राप्त होकर अन्तर को प्राप्त हुआ। आयु के अंत में तिर्यंचायु बांधकर पुन: अन्तर्मुहूर्त विश्राम करके विशुद्ध होकर उपशमसम्यक्त्व को प्राप्त हुआ
(५) इस प्रकार इस गुणस्थान का अन्तर लब्ध हुआ। पुन: मिथ्यात्व में जाकर नरक से निकला
(६) इस प्रकार छह अन्तर्मुहूर्तों से कम तेंतीस सागरोपमकाल असंयतसम्यग्दृष्टि का उत्कृष्ट अन्तर होता है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ५, पृ. २६)
अप्रमत्तस्योत्कृष्टान्तरमुच्यते-एक: अष्टाविंशतिसत्ताक: अन्यगतेरागत्य मनुष्येषु उत्पद्य गर्भाद्यष्टवार्षिको जात:। सम्यक्त्वं अप्रमत्तगुणस्थानं च युगपत् प्रतिपन्न:
(१) प्रमत्तो भूत्वान्तरित: अष्टचत्वािंरशत्पूर्वकोटी: परिभ्रम्य अपश्चिमायां पूर्वकोट्यां बद्धदेवायुष्क: सन् अप्रमत्तो जात:। लब्धमन्तरं
(२) तत: प्रमत्तो भूत्वा
(३) मृतो देवो जात:। त्रिभिरन्तर्मुहूर्तैै: अभ्यधिवै: अष्टवर्षै: ऊना अष्टचत्वािंरशत्पूर्वकोट्य: उत्कृष्टान्तरं।
अब अप्रमत्तसंयत का उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं-मोहनीयकर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्ता रखने वाला कोई एक जीव अन्य गति से आकर मनुष्यों में उत्पन्न होकर गर्भ काल से लेकर आठ वर्ष का हुआ और सम्यक्त्व तथा अप्रमत्त गुणस्थान को एक साथ प्राप्त हुआ
(१) पुन: प्रमत्तसंयत गुणस्थान में आकर अन्तर को प्राप्त हुआ और अड़तालीस पूर्वकोटि काल तक परिभ्रमण कर अंतिम पूर्वकोटि में बद्धदेवायु से सहित होता हुआ अप्रमत्तसंयत हो गया। इस प्रकार से अन्तर प्राप्त हुआ
(२) तत्पश्चात् प्रमत्तसंयत होकर
(३) मरा और देव हो गया। ऐसे तीन अन्तर्मुहूर्तों से अधिक आठ वर्षों से कम अड़तालीस पूर्वकोटि प्रमाण उत्कृष्ट अन्तर होता है। (षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ५, पृ. ५६) ==(७) संयतासंयत मनुष्य का उत्कृष्ट अंतर बतलाते हैं
संयतासंयतस्य उत्कर्षेण-एक: पूर्वकोट्यायुष्केषु मनुष्येषु उत्पन्न:। गर्भाद्यष्टवर्षाणामुपरि अंतर्मुहूर्तेन
(१) क्षायिकं सम्यक्त्वं प्रतिष्ठाप्य
(२) विश्रम्य
(३) संयमासंयमं प्रतिपद्य
(४) संयमं प्रतिपन्न:। पूर्वकोटिकालं गमयित्वा मृत: समयोनत्रयस्त्रिंशत्सागरायु:-स्थितिकेषु देवेषु उत्पन्न:। ततश्च्युत: पूर्वकोट्यायुष्केषु मनुष्येषु उत्पन्न:। स्तोकावशेषे जीविते संयमासंयमं गत:
(५) तत: अप्रमत्तादिनवान्तर्मुहूर्तै: सिद्धो जात:। अष्टवर्षै: चतुर्दशान्तर्मुहूर्तैश्च न्यूनं द्वाभ्यां पूर्वकोटीभ्यां सातिरेकं त्रयस्त्रिंशत्सागरप्रमाणमुत्कृष्टान्तरं। संयतासंयत का उत्कृष्ट अंतर कहते हैं-एक जीव पूर्वकोटि वर्ष की आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। वहाँ गर्भ को आदि लेकर आठ वर्षों के पश्चात् अंतर्मुहूर्त से
(१) क्षायिकसम्यक्त्व को प्राप्त कर
(२) विश्राम लेकर
(३) संयमासंयम को प्राप्तकर
(४) संयम को प्राप्त हुआ। वहाँ संयमसहित पूर्वकोटीकाल बिताकर मरा और एक समय कम तेंतीस सागरोपम की आयुस्थिति प्रमाण वाले देवों में उत्पन्न हुआ। वहां से च्युत होकर पूर्वकोटी की आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। जीवन के अल्प अवशेष रह जाने पर संयमासंयम को प्राप्त हुआ
(५) इसके पश्चात् अप्रमत्तादि गुणस्थानसंबंधी नौ अंतर्मुहूर्तों से सिद्ध हो गया। इस प्रकार आठ वर्ष और चौदह अंतर्मुहूर्तों से कम दो पूर्वकोटियों से कुछ अधिक तेंतीस सागरोपमकाल क्षायिकसम्यग्दृष्टि संयतासंयत का उत्कृष्ट अंतर होता है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ५, पृ. १५८)
सम्यग्दृष्टे: औपशमिक: क्षायिक: क्षायोपशमिको वा। औदयिकेन भावेन पुन: असंयतोभाव:, संयतासंयत: इति क्षायोपशमिको भाव:। अस्ति किञ्चिद्विशेष:-पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिनीषु असंयतसम्यग्दृष्टिषु औपशमिक: क्षायोपशमिको वा न च क्षायिक:, क्षायिकसम्यग्दृष्टीनां बद्धायुष्कानां स्त्रीवेदेषु उत्पत्तेरभावात्, मनुष्यगतिव्यतिरिक्तशेषगतिषु दर्शनमोहनीयक्षपणाभावाच्च। सम्यग्मिथ्यादृष्टि के क्षायोपशमिक भाव होता है, सम्यग्दृष्टि के औपशमिक-क्षायिक अथवा क्षायोपशमिक में से कोई भी भाव होता है। औदयिक भाव से युक्त असंयतभाव, संयतासंयत भाव ये क्षायोपशमिक भाव होते हैं। यहाँ कुछ विशेष कथन करते हैं-पंचेन्द्रिययोनिमती तिर्यंचों में असंयतसम्यग्दृष्टि जीवों में औपशमिक अथवा क्षायोपशमिक भाव होता है, क्षायिक भाव नहीं होता है, क्योंकि बद्धायुष्क क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवों का स्त्रीवेदियों में उत्पत्ति का अभाव पाया जाता है और मनुष्यगति को छोड़कर शेष गतियों में दर्शनमोहनीय के क्षपण का अभाव देखा जाता है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ५, पृ. २०८)
(९) भाववेद की अपेक्षा तीनों वेदों में नव गुणस्थान होते हैं। यहाँ द्रव्य से पुरुषवेदी ही हैं ऐसा जानना।
वेदाणुवादेण इत्थिवेद-पुरिसवेद-णउंसयवेदएसु मिच्छादिट्ठिप्पहुडि जाव अणियट्टि त्ति ओघं।।४१।।
अवगदवेदएसु अणियट्टिप्पहुडि जाव अजोगिकेवली ओघं।।४२।।
वेदमार्गणा के अनुवाद से स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और नपुंसकवेदी में मिथ्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक भाव गुणस्थान के समान होते हैं।।४१।।
अपगतवेदियों में अनिवृत्तिकरण से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक भाव गुणस्थान के समान हैं।।४२।।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ५, पृ. २१८)
असंजदसम्मादिट्ठिट्ठाणे सव्वत्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी।।४६।।
खइयसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा।।४७।।
वेदगसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा।।४८।।
संजदासंजदट्ठाणे सव्वत्थोवा उवसमसम्माइट्ठी।।४९।।
वेदगसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा।।५०।।
तिर्यंचों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं।।४६।।
तिर्यंचों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टियों से क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं।।४७।।
तिर्यंचों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं।।४८।।
तिर्यंयों में संयतासंयत गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं।।४९।।
तिर्यंचों में संयतासंयत गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं।।५०।।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ५, पृ. २६४-२६५)
देवगदीए देवेसु सव्वत्थोवा सासणसम्मादिट्ठी।।८१।।
सम्मामिच्छादिट्ठी संखेज्जगुणा।।८२।।
असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा।।८३।।
मिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा।।८४।।
असंजदसम्मादिट्ठिट्ठाणे सव्वत्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी।।८५।।
खइयसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा।।८६।।
वेदगसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा।।८७।।
भवणवासिय-वाणवेंतर-जोदिसियदेवा देवीओ सोधम्मीसाणकप्प-वासियदेवीओ च सत्तमाए पुढवीए भंगो।।८८।।
सोहम्मीसाण जाव सदर-सहस्सारकप्पवासियदेवेसु जहा देवगइभंगो।।८९।।
आणद जाव णवगेवज्जविमाणवासियदेवेसु सव्वत्थोवा सासण-सम्मादिट्ठी।।९०।।
सम्मामिच्छादिट्ठी संखेज्जगुणा।।९१।।
मिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा।।९२।।
असंजदसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा।।९३।।
असंजदसम्मादिट्ठिट्ठाणे सव्वत्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी।।९४।।
खइयसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा।।९५।।
वेदगसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा।।९६।।
अणुदिसादि जाव अवराइदविमाणवासियदेवेसु असंजदसम्मादिट्ठिट्ठाणे सव्वत्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी।।९७।।
खइयसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा।।९८।।
वेदगसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा।।९९।।
सव्वट्ठसिद्धिविमाणवासियदेवेसु असंजदसम्मादिट्ठिट्ठाणे सव्वत्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी।।१००।।
खइयसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा।।१०१।।
वेदगसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा।।१०२।।
देवगति में देवों में सासादनसम्यग्दृष्टि सबसे कम हैं।।८१।।
सासादनसम्यग्दृष्टियों से सम्यग्मिथ्यादृष्टि देव संख्यातगुणित हैं।।८२।।
सम्यग्मिथ्यादृष्टियों से असंयतसम्यग्दृष्टि देव असंख्यातगुणित हैं।।८३।।
देवों में असंयतसम्यग्दृष्टियों से मिथ्यादृष्टि असंख्यातगुणित हैं।।८४।।
देवों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टि सबसे कम हैं।।८५।।
देवों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टियों से क्षायिकसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणित हैं।।८६।।
देवों में क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणित हैं।।८७।।
देवों में भवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क देव और देवियाँ तथा सौधर्म-ईशान कल्पवासिनी देवियाँ, इनका अल्पबहुत्व सातवीं पृथिवी के अल्पबहुत्व के समान है।।८८।।
सौधर्म-ईशान कल्प से लेकर शतार-सहस्रार कल्प तक कल्पवासी देवों में अल्पबहुत्व देवगति सामान्य के अल्पबहुत्व के समान है।।८९।।
आनत-प्राणत कल्प से लेकर नवग्रैवेयक विमानों तक विमानवासी देवों में सासादनसम्यग्दृष्टि सबसे कम हैं।।९०।।
उक्त विमानों में सासादनसम्यग्दृष्टियों से सम्यग्मिथ्यादृष्टि देव संख्यातगुणित हैं।।९१।।
उक्त विमानों में सम्यग्मिथ्यादृष्टियों से मिथ्यादृष्टि देव असंख्यातगुणित हैं।।९२।।
उक्त विमानों में मिथ्यादृष्टियों से असंयत-सम्यग्दृष्टि देव संख्यातगुणित हैं।।९३।।
आनत-प्राणत कल्प से लेकर नवग्रैवेयक तक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टि देव सबसे कम हैं।।९४।।
उक्त विमानों में उपशमसम्यग्दृष्टियों से क्षायिक सम्यग्दृष्टि देव असंख्यातगुणित हैं।।९५।।
उक्त विमानों में क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि देव संख्यातगुणित हैं।।९६।।
नव अनुदिशों को आदि लेकर अपराजित नामक अनुत्तरविमान तक विमानवासी देवों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टि सबसे कम हैं।।९७।।
उक्त विमानों में उपशमसम्यग्दृष्टियों से क्षायिकसम्यग्दृष्टि देव असंख्यातगुणित हैं।।९८।।
उक्त विमानों में क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि देव संख्यातगुणित हैं।।९९।।
सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देवों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में उपशमसग्यग्दृष्टि सबसे कम हैं।।१००।।
उपशमसम्यग्दृष्टियों से क्षायिकसम्यग्दृष्टि देव संख्यातगुणित हैं।।१०१।।
क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि देव संख्यातगुणित हैं।।१०२।।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ५, पृ. २७४ से २७८ तक)
असंजदसम्माइट्ठिट्ठाणे सव्वत्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी।।३१।।
खइयसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा।।३२।।
वेदगसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा।।३३।।
नारकियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टि सबसे कम हैं।।३१।।
नारकियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टियों से क्षायिकसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणित हैं।।३२।।
नारकियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणित हैं।।३३।।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ५, पृ. २५७)
ओरालियमिस्सकायजोगीसु सव्वत्थोवा सजोगिकेवली।।१२२।।
असंजदसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा।।१२३।।
सासणसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा।।१२४।।
मिच्छादिट्ठी अणंतगुणा।।१२५।।
असंजदसम्मादिट्ठिट्ठाणे सव्वत्थोवा खइयसम्मादिट्ठी।।१२६।।
वेदगसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा।।१२७।।
औदारिकमिश्रकाययोगी जीवों में सयोगिकेवली सबसे कम हैं।।१२२।।
औदारिकमिश्रकाययोगियों में सयोगिकेवली जिनों से असंयतसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं।।१२३।।
औदारिकमिश्रकाययोगियों में असंयतसम्यग्दृष्टियों से सासादनसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं।।१२४।।
औदारिकमिश्रकाययोगियों में सासादनसम्यग्दृष्टियों से मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तगुणित हैं।।१२५।।
औदारिकमिश्रकाययोगियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं।।१२६।।
औदारिकमिश्रकाययोगियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि संख्यातगुणित हैं।।१२७।।
सिद्धान्तचिंतामणिटीका-कपाट समुद्घात के समय आरोहण और अवतरणक्रिया में संलग्न चालीस केवलियों के अवलम्बन से औदारिकमिश्रकाययोगियों में सयोगिकेवली सबसे कम हो जाते हैं। देव, नारकी और मनुष्यों से आकर तिर्यंच और मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीव औदारिकमिश्रकाययोग में सयोगिकेवली जिनों से संख्यातगुणित पाये जाते हैं। सासादन जीव असंख्यातगुणे हैं। यहाँ पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग गुणकार है। गुणकार क्या है ? मिथ्यादृष्टि जीव अनंतगुणे हैं। यहाँ अभव्यसिद्धों से अनन्तगुणित और सिद्धों से भी अनन्तगुणित राशि गुणकार है, ऐसा जानना चाहिए। चतुर्थ गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टि सबसे कम हैं, क्योंकि दर्शनमोहनीयकर्म के क्षय से उत्पन्न हुए श्रद्धान वाले जीवों का होना अति दुर्लभ है। क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि संख्यातगुणा हैं, क्योंकि क्षायोपशमिक सम्यक्त्व वाले जीव बहुत पाये जाते हैं। संख्यात समय यहाँ गुणकार है। इस प्रकार द्वितीय स्थल में औदारिकमिश्रयोग में अल्पबहुत्व का प्रतिपादन करने वाले छह सूत्र पूर्ण हुए।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ५, पृ. २८६ व २८७)
असंजदसम्मादिट्ठिट्ठाणे सव्वत्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी।।१३२।।
खइयसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा।१३३।।
वेदगसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा।।१३४।।
वैक्रियिकमिश्रकाययोगियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं।।१३२।।
वैक्रियिकमिश्रकाययोगियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टियों से क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं।।१३३।।
वैक्रियिकमिश्रकाययोगियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं।।१३४।।
सिद्धान्तचिंतामणिटीका-जिस प्रकार का अल्पबहुत्व देवगति में कहा गया है उसी प्रकार की व्यवस्था वैक्रियिककाययोगियों में जानना चाहिए। शेष सूत्रों का अर्थ सुगम है। असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में वैक्रियिकमिश्रकाययोग में उपशमसम्यग्दृष्टि सबसे कम होते हैं, क्योंकि उपशमसम्यक्त्व के साथ उपशमश्रेणी में मरे हुए जीवों का प्रमाण अत्यन्त अल्प होता है। क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव उनसे संख्यातगुणे हैं, क्योंकि उपशमश्रेणी में मरे हुए उपशामकों से संख्यातगुणित असंयतसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानों की अपेक्षा क्षायिकसम्यग्दृष्टियों का संचय संभव है। उनसे असंख्यातगुणे अधिक वेदकसम्यग्दृष्टि होते हैं, क्योंकि तिर्यंचों से पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र वेदकसम्यग्दृष्टि जीवों का देवों में उत्पन्न होना संभव है। यहाँ गुणकार पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग मानना चाहिए।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ५, पृ. २८७ से २८८)
असंजदसम्मादिट्ठिट्ठाणे सव्वत्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी।।१४१।।
खइयसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा।।१४२।।
वेदगसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा।।१४३।।
कार्मणकाययोगियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं।।१४१।।
कार्मणकाययोगियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टियों से क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं।।१४२।।
कार्मणकाययोगियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं।।१४३।।
सिद्धान्तचिंतामणिटीका-प्रतर और लोकपूरण समुद्घात में अधिक से अधिक मात्र साठ सयोगिकेवली जिन पाये जाने के कारण उनकी संख्या सबसे कम होती है। चतुर्थ गुणस्थान में सबसे कम उपशमसम्यग्दृष्टि होते हैं, क्योंकि उपशमश्रेणी में उपशमसम्यक्त्व के साथ मरे हुए संयतों का प्रमाण संख्यात ही पाया जाता है। कार्मणकाययोग में क्षायिकसम्यग्दृष्टि संख्यातगुणे होते हैं।
शंका-पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से असंख्यात जीव विग्रह क्यों नहीं करते हैं ?
समाधान-ऐसी आशंका पर आचार्य कहते हैं कि न तो असंख्यात क्षायिकसम्यग्दृष्टि देव एक साथ मरते हैं, अन्यथा मनुष्यों में असंख्यात क्षायिकसम्यग्दृष्टियों के होने का प्रसंग आ जायेगा। न मनुष्यों में ही असंख्यात क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव मरते हैं क्योंकि उनमें असंख्यात क्षायिकसम्यग्दृष्टियों का अभाव है। न असंख्यात क्षायिकसम्यग्दृष्टि तिर्यंच ही मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, क्योंकि उनमें आपके अनुसार व्यय होता है। इसलिए विग्रहगति में क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यात ही होते हैं तथा संख्यात होते हुए भी वे उपशमसम्यग्दृष्टियों से संख्यातगुणित होते हैं, क्योंकि उपशमसम्यग्दृष्टियों के आय का कारण से क्षायिकसम्यग्दृष्टियों के आय का कारण संख्यातगुणा हैं। वेदकसम्यग्दृष्टि इनसे असंख्यातगुणे होते हैं। यहाँ पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग गुणकार है, जो पल्योपम के असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है और प्रतिभाग क्षायिकसम्यग्दृष्टि राशि से गुणित असंख्यात आवली प्रमाण है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ५, पृ. २९०-२९४)
वेदाणुवादेण इत्थिवेदएसु दोसु वि अद्धासु उवसमा पवेसणेण तुल्ला थोवा।।१४४।।
खवा संखेज्जगुणा।।१४५।।
अप्पमत्तसंजदा अक्खवा अणुवसमा संखेज्जगुणा।।१४६।।
पमत्तसंजदा संखेज्जगुणा।।१४७।।
संजदासंजदा असंखेज्जगुणा।।१४८।।
सासणसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा।।१४९।।
सम्मामिच्छादिट्ठी संखेज्जगुणा।।१५०।।
असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा।।१५१।।
मिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा।।१५२।।
वेदमार्गणा के अनुवाद से स्त्रीवेदियों में अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन दोनों ही गुणस्थानों में उपशामक जीव प्रवेश की अपेक्षा तुल्य और अल्प हैं।।१४४।।
स्त्रीवेदियों में उपशामकों से क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं।।१४५।।
स्त्रीवेदियों में क्षपकों से अक्षपक और अनुपशामक अप्रमत्तसंयत जीव संख्यातगुणित हैं।।१४६।।
स्त्रीवेदियों में अप्रमत्तसंयतों से प्रमत्तसंयत जीव संख्यातगुणित हैं।।१४७।।
स्त्रीवेदियों में प्रमत्तसंयतों से संयतासंयत जीव असंख्यातगुणित हैं।।१४८।।
स्त्रीवेदियों में संयतासंयतों से सासादनसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं।।१४९।।
स्त्रीवेदियों में सासादनसम्यग्दृष्टियों से सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं।।१५०।।
स्त्रीवेदियों में सम्यग्मिथ्यादृष्टियों से असंयतसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं।।१५१।।
स्त्रीवेदियों में असंयतसम्यग्दृष्टियों से मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं।।१५२।।
सिद्धान्तचिंतामणिटीका-भावस्त्रीवेद को धारण करने वाले द्रव्य पुरुषवेदियों में अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवर्ती मुनियों की संख्या मात्र दस होने के कारण प्रवेश की अपेक्षा वे एक समान और सबसे कम होते हैं। इन दोनों गुणस्थानों में क्षपक श्रेणी वाले मुनियों की संख्या बीस प्रमाण होने से वह भी कम ही है।
असंजदसम्मादिट्ठि-संजदासंजदट्ठाणे सव्वत्थोवा खइयसम्मादिट्ठी।।१५३।।
उवसमसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा।।१५४।।
वेदगसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा।।१५५।।
पमत्त-अप्पमत्तसंजदट्ठाणे सव्वत्थोवा खइयसम्मादिट्ठी।।१५६।।
उवसमसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा।।१५७।।
वेदगसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा।।१५८।।
एवं दोसु अद्धासु।।१५९।।
सव्वत्थोवा उवसमा।।१६०।।
खवा संखेज्जगुणा।।१६१।।
स्त्रीवेदियों में असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं।।१५३।।
स्त्रीवेदियो में असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से उपशम सम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं।।१५४।।
स्त्रीवेदियों में असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं।।१५५।।
स्त्रीवेदियों में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं।।१५६।।
क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से उपशमसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं।।१५७।।
उपशमसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं।।१५८।।
इसी प्रकार अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन दोनों गुणस्थानों में स्त्रीवेदियों का अल्पबहुत्व है।।१५९।।
स्त्रीवेदियों में उपशामक जीव सबसे कम हैं।।१६०।।
स्त्रीवेदियों में उपशामकों से क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं।।१६१।।
सिद्धान्तचिंतामणिटीका-उपर्युक्त सूत्रों का अर्थ सरल है। भावस्त्रीवेदी मुनि श्रेणी में अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण गुणस्थानों में क्षायिकसम्यग्दृष्टि सबसे कम होते हैं, उपशमसम्यग्दृष्टि उनसे संख्यातगुणे अधिक हैं। सबसे कम उपशामक मुनियों की संख्या है और क्षपक मुनि संख्यातगुणे होते हैं।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ५, पृ. २९२-२९३-२९४)
संजदासंजदा असंखेज्जगुणा।।१६६।।
पुरुषवेदियों में अप्रमत्तसंयतों से संयतासंयत जीव असंख्यातगुणित हैं।।१६६।।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ५, पृ. २९५)
संजदासंजदा असंखेज्जगुणा।।१७९।।
सासणसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा।।१८०।।
सम्मामिच्छादिट्ठी संखेज्जगुणा।।१८१।।
असंजदसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा।।१८२।।
नपुंसकवेदियों में प्रमत्तसंयतों से संयतासंयत जीव असंख्यातगुणित हैं।।१७९।।
नपुंसकवेदियों में संयतासंयतों से सासादनसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं।।१८०।।
नपुंसकवेदियों में सासादनसम्यग्दृष्टियों से सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं।।१८१।।
नपुंसकवेदियों में सम्यग्मिथ्यादृष्टियों से असंयतसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं।।१८२।।
सिद्धान्तचिंतामणिटीका-भावनपुंसकवेदी, द्रव्यपुरुषवेदी जीवों में आठवें-नवमें दोनों गुणस्थानों में प्रवेश की अपेक्षा उपशमसम्यग्दृष्टि जीव एक समान और सबसे कम हैं, क्योंकि उनका प्रमाण पाँच की संख्यामात्र है। क्षपकों की संख्या दश प्रमाण है। अप्रमत्तसंयत संचयराशि को ग्रहण करने के कारण संख्यातगुणे हैं। प्रमत्तसंयत उनसे संख्यातगुणे हैं। संयतासंयत जीवो का गुणकार पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग है अत: उनकी संख्या असंख्यातगुणी है। सासादनसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणे हैं, यहाँ आवली का असंख्यातवाँ भाग गुणकार है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि उनसे संख्यातगुणे हैं, यहाँ संख्यात समय गुणकार है। असंयतसम्यग्दृष्टि उनसे असंख्यातगुणे हैं, यहाँ गुणकार आवली का असंख्यातवाँ भाग है। इनसे अनंतगुणी संख्या मिथ्यादृष्टि जीवों की है, यहाँ अभव्यों से अनन्तगुणा गुणकार है और सिद्धों से भी अनंतगुणा है, जो सर्वजीवराशि के अनन्त प्रथम वर्गमूलप्रमाण है। तात्पर्य यह है कि प्रथम गुणस्थान से लेकर पंचम गुणस्थान तक द्रव्य से नपुंसकवेदी होते हैं, किन्तु छठे गुणस्थान से लेकर ऊपर के सभी गुणस्थानों में मनुष्य भाव से तो नपुंसक वेदी हो सकते हैं किन्तु द्रव्य से उनके पुरुषवेद ही जानना चाहिए।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ५, पृ. २९७)
असंयतसम्यग्दृष्टियों में उपशमसम्यदृष्टि सबसे कम हैं। क्षायिकसम्यग्दृष्टि उनसे असंख्यातगुणे हैं, यहाँ गुणकार आवली का असंख्यातवाँ भाग है, क्योंकि यहाँ पर प्रथम पृथिवी के क्षायिक सम्यग्दृष्टि नारकी जीवों की प्रधानता रहती है। वेदकसम्यग्दृष्टि उनसे असंख्यातगुणे हैं, यहाँ गुणकार आवली का असंख्यातवाँ भाग है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ५, पृ. २९९)
संयतासंयतों में क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं, क्योंकि मनुष्यपर्याप्त नपुंसकवेदी जीवों को छोड़कर उनका अन्यत्र अभाव है। नपुंसकवेदी संयतासंयत क्षायिकसम्यग्दृष्टि से उपशमसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं। गुणकार पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण है, अर्थात् वह पल्योपम के असंख्यातप्रथम वर्गमूलप्रमाण है। नपुंसकवेदी संयतासंयत उपशमसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं। गुणकार आवली के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टि सबसे कम हैं, क्योंकि अप्रशस्त वेद के उदय के साथ दर्शनमोहनीय कर्म के क्षपण करने वाले बहुत जीवों का वहाँ अभाव पाया जाता है। दोनों श्रेणी वाले गुणस्थानों में सबसे कम क्षायिक सम्यग्दृष्टि होते हैं, उनसे संख्यातगुणे उपशमसम्यग्दृष्टि होते हैं। उपशमश्रेणी पर चढ़ने वाले उपशामक मुनि सबसे कम हैं, उनसे संख्यातगुणे क्षपकश्रेणी पर चढ़ने वाले मुनियों की संख्या होती है ऐसा जानना चाहिए।
षट्खण्डागम पुस्तक-6
(सिद्धान्तचिंतामणि टीका) से संग्रहीत
सिद्धान् भूम्यष्टमीप्राप्तान्, अष्टगुणसमन्वितान्।
अष्टाङ्गेन नुमो नित्य-मष्टकर्मविमुक्तये।।१।।
श्लोकार्थ- जो आठ गुणों से सहित हैं, आठवीं-ईषत्प्राग्भारा नाम की पृथ्वी को प्राप्त हो चुके हैं ऐसे सिद्ध भगवन्तों को हम आठों कर्मों से छूटने के लिये नित्य ही अष्टांग नमस्कार करते हैं।
इदं सूत्रं प्रथममहादण्डकप्रतिपादनपरत्वेनास्ति। तत्र सम्यक्त्वाभिमुखजीवै: बध्यमानप्रकृतीनां समुत्कीर्तनायां त्रिषु महादण्डकेषु एष: प्रथमो महादण्डक: कर्तव्य:-वक्तव्य: इति। कथमेतस्य महत्त्वं कथितम् ? एतस्यावगमेन महापापस्य क्षयोपलंभात्, प्रथमसम्यक्त्वाभिमुखत्वेन महत्त्वं संप्राप्तजीवै: बध्यमानत्वाद्वा।
यहाँ यह सूत्र प्रथम महादण्डक के प्रतिपादनरूप है। प्रकृत में सम्यक्त्व के अभिमुख जीवों के द्वारा बध्यमान प्रकृतियों की समुत्कीर्तना करने पर प्रथम महादण्डक का कथन करना चाहिए।
शंका – इसे बड़ापना किस कारण से है ?
समाधान – क्योंकि इसके ज्ञान से महापाप का क्षय पाया जाता है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ६, पृ. ११४)
प्रवचने अनुमानस्य प्रमाणस्य प्रमाणत्वाभावात्। उत्तं च-‘‘आगमो हि णाम केवलणाणपुरस्सरो पाएण अणिंदियत्थविसओ अचिंतियसहावो जुत्तिगोयरादीदो। तदो ण लिंगबलेण किंचि वोत्तुं सक्किज्जदि तम्हा सुत्तमिदमाढवेदव्वं चेव।’’
प्रवचन (परमागम) में अनुमान प्रमाण से प्रमाणता नहीं मानी गई है। श्री वीरसेन स्वामी ने धवला टीका में कहा है कि-‘‘जो केवलज्ञानपूर्वक उत्पन्न हुआ है, प्राय: अतीन्द्रिय पदार्थों को विषय करने वाला है, अचिन्त्य-स्वभावी है और युक्ति के विषय से परे है, उसका नाम आगम है।’’ अतएव उस आगम में िंलग अर्थात् अनुमान के बल से कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। इसलिए यह सूत्र बनाना ही चाहिये।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ६, पृ. १३६)
आवलियं आबाहा उदीरणमासिज्ज सत्तकम्माणं। परभविय-आउगस्स य उदीरणा णत्थि णियमेण३२।।१५९।।
अत्रायमर्थ:-वर्तमानकाले भुज्यमानायुष: उदीरणा भवितुं शव्नति किंतु बध्यमानागामिभवस्यायुष: उदीरणा नास्ति। राज्ञ: श्रेणिकस्य बद्ध नरकायुष: अपकर्षणं जातं चतुरशीतिसहस्रवर्षमात्रं इति ज्ञातव्यं। भुज्यमानायुषां उदीरणाविषये सूत्रं प्ररूपितं श्रीमदुमास्वामिना तत्त्वार्थसूत्रग्रन्थे- औपपादिकचरमोत्तमदेहाऽसंख्येयवर्षायुषोऽनपवत्त्र्यायुष:।।५३।। चरमशब्दस्यान्तवाचित्वात्तज्जन्मनि निर्वाणार्हग्रहणं। उत्तमशब्दस्योत्कृष्टवाचित्वा-च्चक्रधरादिग्रहणं। बाह्यस्योपघातनिमित्तस्य विषशस्त्रादे: सति सन्निधाने ह्रासोऽपवर्त इत्युच्यते। उत्तमदेहाश्चक्रधरादयोऽनपवत्र्यायुष: इत्येतल्लक्षणमव्यापि। कुत:? अन्तस्य चक्रधरस्य ब्रह्मदत्तस्य वासुदेवस्य च कृष्णस्य अन्येषां च तादृशानां बाह्यनिमित्त-वशादायुरपवर्तदर्शनात् ? न वैष दोष:। किं कारणं ? चरमशब्दस्योत्तमविशेषणत्वात्। पुनरपि कश्चिदाशंकते- अप्राप्तकालस्य मरणानुपलब्धेरपवर्ताभाव: इति चेत्, न; दृष्टत्वादाम्रफलादिवत् ।१०। यथा अवधारितपाककालात् प्राक् सोपायोपक्रमे सत्याम्रफलादीनां दृष्ट: पाकस्तथा परिच्छिन्नमरणकालात् प्रागुदीरणाप्रत्यय आयुषो भवत्यपवर्त:। आयुर्वेदसामथ्र्याच्च।११। यथा अष्टाङ्गायुर्वेदविद् भिषक् प्रयोगे अतिनिपुणो यथाकालवाताद्युदयात् प्राक् वमनविरेचनादिना अनुदीर्णमेव श्लेष्मादि निराकरोति, अकालमृत्युव्युदासार्थं रसायनं चोपदिशति, अन्यथा रसायनोपदेशस्य वैयथ्र्यं। न चादोऽस्ति ? अत: आयुर्वेदसामथ्र्यादस्त्यकालमृत्यु:। स्यान्मतं-दु:खप्रतीकारोऽर्थ: आयुर्वेदस्येति ? तन्न, किं कारणं ? उभयथा दर्शनात्। उत्पन्नानुत्पन्नवेदनयोर्हि चिकित्सादर्शनात्। स्यान्मतं-यद्यकालमृत्युरस्ति कृतप्रणाश: प्रसज्येत इति ? तन्न, किं कारणं ? दत्वैव फलं निवृत्ते:, नाकृतस्य कर्मण: फलमुपभुज्यते, न च कृतकर्मफलविनाश: अनिर्मोक्षप्रसंगात्, दानादिक्रियारम्भाभावप्रसंगात् च। किंतु कृतं कर्म फलं दत्वैव निवर्तते वितताद्र्रपट शोषवत् अयथाकालनिर्वृत्त: पाक: इत्ययं विशेष:३३।
अस्यैव तत्त्वार्थसूत्रमहाग्रन्थस्य श्लोकवार्तिकमहाभाष्ये ग्रन्थे श्रीमदाचार्य-विद्यानन्दमहोदयेनापि३४ प्रोक्तं- ‘‘सत्यप्यसद्वेद्योदयेऽन्तरंगे हेतौ दु:खं बहिरंगे वातादिविकारे तत्प्रतिपक्षौषधौ-पयोगोपनीते दु:खस्यानुत्पत्ते: प्रतिकार: स्यात्’’- कटुकादिभेषजौपयोगजपीडामात्रं स्वफलं दत्वैवासद्वेद्यस्य निवृत्तेर्न कृतप्रणाश:३५।’’ अकालमृत्युविषये श्रीकुन्दकुन्ददेवेनापि प्रोत्तं- विसवेयणरत्तक्खय-भयसत्थग्गहणसंकिलेसाणं। आहारुस्सासाणं णिरोहणा खिज्जदे आऊ३६।।२५।। पुरा षडशीतिसहस्रपंचशतवर्षपूर्वं महाभारतयुद्धकाले सर्वाधिकाकालमृत्यु: संजात: इति उत्तरपुराणे श्रीगुणभद्रसूरिणा कथितं- तत्र वाच्यो मनुष्याणां मृत्योरुत्कृष्टसञ्चय:। कदलीघातजातस्येत्युक्तिमत् तद्रणाङ्गणम्३७।।१०९।। वर्तमानकालेऽपि आकस्मिक् दुर्घटना नानाविधा श्रूयते-क्वचित् भूकंपदुर्घटनायां सहस्राणि मनुष्या: पशवश्च सार्धमेव म्रियन्ते, क्वचिद् नदीपूरप्रवाहेण अनेकग्रामा: जलमग्ना: जायन्ते, तत्रापि शतानि सहस्राणि च परिवारा: नश्यन्ति। कुत्रचिद् वायुयानपतनदुर्घटनायां शतानि मनुष्या: उपरितनादधो पतित्वा मृत्युं प्राप्नुवन्ति। कदाचित् एवमेव वाष्पयान-विद्युद्यान-चतुश्चक्रिका-त्रिचक्रिका-द्विचक्रिकादिपतन-परस्पर-संघट्टनादिदुर्घटनासु अनेके मनुष्या: म्रियन्ते, क्वचित् बमविस्फोटकेन वा कालं कुर्वन्ति, एतत्सर्वं प्रत्यक्षेण दृश्यते, अत्रापि नानादुर्घटनाभिर्ये म्रियन्ते तेषामधिकांशत: अकालमृत्युना एव मरणं, न च सर्वेषां युगपदेव मृत्युमागच्छति, अतो जिनवचनस्योपरि श्रद्धानं कर्तव्यम्। तथा च संप्रत्यपि अकालमृत्युनिवारणं श्रूयते-केषांचित् संघट्टनादिदुर्घटनाभि: अधिकरूपेण रक्तस्रावे संजाते आंग्लवैद्या: परस्य रत्तंâ तस्य मरणासन्नस्य शरीरे प्रवेश्य जीवनदानं ददति।
हृदयरोगस्यापि शल्यचिकित्सां कृत्वा आरोग्यं जीवनं च यच्छन्ति। केषांचित् रुग्णानां नेत्रादीन् अवयवानपि परिवत्र्य स्वस्थं कुर्वन्ति, न चैषामपलापं कर्तुं शक्यते। जिनभक्त्या महद्जाप्याद्यनुष्ठानेन सिद्धचक्र कल्पद्रुम-इन्द्रध्वजादिमहामण्डल-विधानैश्च बहूनि दु:खानि नश्यन्ति अकालमृत्युमपि जित्वा पूर्णायु: भुञ्जन्ति जना:। एका कथापि श्रीशांतिनाथपुराणे पठ्यते- एकदा श्रीविजयनरेशस्य सभायामागत्य केनचित् निमित्तज्ञेन कथितं-अस्य पोदनपुरनरेशस्य अद्यप्रभृति सप्तमे दिवसे अशनिपातेन मृत्युर्भविष्यति। राज्ञा तस्यापमृत्योर्निवारणार्थं राज्यं त्यक्त्वा जिनालयं गत्वा महतीं जिनपूजां चकार। तत: तस्याकालमृत्युरभूत्वा राज्यसिंहासनस्थमूत्र्ते: शतखण्डानि बभूव। उत्तं च- ‘‘एकदागामुक: कश्चिद् दृष्ट्वा श्रीविजयं द्विज:। सिंहासनस्थमित्याह रहसि प्राप्य चासनम्।।५२।। इत: पौदननाथस्य सप्तमे वासरे दिव:। मूध्र्नि प्रध्वनन्नुच्चैरशनै: पतिताशनि:।।५३।। इत्युक्त्वा विरते वाणीं तस्मिन् पप्रच्छ स स्वयं। कस्त्वं किमभिधानो वा कियज्ज्ञानं तवेति तम् ।।५४।। इति पृष्ट: स्वयं राज्ञा ततोऽवादीत्स धीरधी:। बंधुरं सिंधुदेशेऽस्ति पद्मिनीखेटकं पुरम्।।५५।। तस्मादमोघजिह्वाख्यस्त्वां द्विजातिरिहागमम्। पुत्रो विशारदस्याहं ज्योतिज्र्ञानविशारद:।।५६।। इत्थमात्मानमावेद्य स्थितिमन्तं विसज्र्य तं। अप्राक्षीत्सचिवान् राजा स्वरक्षामशनेस्तत:।।५७।। रक्षोपायेषु बहुषु प्रणीतेष्वथ मंत्रिभि:। प्रत्याचिख्यासुरित्याह तां कथां मतिभूषण:।।५८।। कुंभकारकटं नाम शैलेन्द्रोपत्यकं पुरं। अस्ति तत्रावसद् विप्रो दुर्गतश्चंडकौशिक:।।५९।। अभूत्प्रणयिनी तस्य सोमश्रीरिति विश्रुता। भूतान्याराध्य सा प्रापदपत्यं मुण्डकौशिकम् ।।६०।। जिघत्सो रक्षस: कुंभाद्रक्षितुं पुत्रमन्यदा। भूतानामर्पयद् विप्रो गुहायां तैन्र्यधायि स:।।६१।। तं तत्राप्यघद् भीष्म: शिशुमाकस्मिक: शयु:। को वा त्रातुमलं मृत्योर्धर्मं मुक्त्वा शरीरिणां।।६२।। तत: शांतिं विधायासो रक्षोपायो न विद्यते। अस्यापि पौदनेशित्वं निरस्यामो महीपते:।।६३।। इत्युक्त्वा विरते तस्मिन् राज्यं वैश्रवणे प्रजा:। ताम्रीये स्थापयामास राजा चास्थाञ्जिनालये।।६४।। सप्तमेऽहनि संपूर्णे पपाताशनिरम्बरात्। मुकुटालंकृते मूध्र्नि धनदस्य महीक्षित:।।६५।। तत: श्रीविजयस्तस्मै तन्मनोरथवाञ्छितं। दिदेशामोघजिह्वाय पद्मिनीखेटमेव स:३८।।६६।। अद: कथानकं श्रुत्वा ज्योतिर्विद: शरणं न गन्तव्यं, न च पुरुषार्थविहीनेन भवितव्यं। प्रत्युत जिनभक्ति-पूजा-जाप्यानुष्ठानादिभि: असाताकर्मणां उदय: कृशीकरणीय:।
अकालमृत्योरुपरि अपि विजय: प्राप्तव्य: इति सार: गृहीतव्य:।
उदीरणा की अपेक्षा सात कर्मों की आबाधा एक आवलीमात्र है और परभव संबंधी बध्यमान आयु की उदीरणा नियम से नहीं होती है।।१५९।। इसका अर्थ यह है कि वर्तमानकाल की भुज्यमान आयु की उदीरणा होना शक्य है किन्तु बध्यमान आगामी भव की आयु की उदीरणा नहीं होती है। राजा श्रेणिक के नरकायु का बंध हो गया था ऐसे बंधी आयु का अपकर्षण हुआ है जो कि चौरासी हजार वर्ष मात्र रह गया है, ऐसा समझना। भुज्यमान आयु की उदीरणा के विषय में श्रीमान् उमास्वामी आचार्य ने तत्त्वार्थसूत्र ग्रंथ में कहा है- उपपाद जन्म वाले देव और नारकी चरमोत्तम देहधारी और असंख्यात वर्ष की आयु वाले जीव परिपूर्ण आयु वाले होते हैं अर्थात् इनकी आयु का घात नहीं होता है।।५३।। चरम शब्द अन्तवाची है, इसलिए उसी जन्म में निर्वाण के योग्य हो उसका ग्रहण करना चाहिए। उत्तम शब्द उत्कृष्टवाची है, इससे चक्रवर्ती आदि का ग्रहण होता है। बाह्य उपघात के निमित्त विष, शस्त्रादि के कारण आयु का ह्रास होता है, वह अपवत्र्य है-अपवत्र्य आयु जिनके है वे अपवत्र्य आयु वाले कहलाते हैं।
प्रश्न – उत्तम देह वाले अंतिम चक्रवर्ती आदि के आयु का अपवर्तन देखा जाता है इसलिए यह लक्षण अव्याप्त है। अंतिम चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त, वासुदेव कृष्ण आदि के आयु का बाह्य के निमित्तवश अपवर्तन देखा गया है अर्थात् इनकी अकालमृत्यु सुनी जाती है और अन्य भी ऐसे लोगों की आयु का बाह्य निमित्तों से ह्रास हुआ है इसलिए यह अव्याप्ति दोष से दूषित है ? समाधान – यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यहाँ चरम शब्द में उत्तम विशेषण दिया गया है।
यहाँ कोई पुन: शंका करता है- अप्राप्त काल में मरण की अनुपलब्धि होने से अकालमरण नहीं है, ऐसा नहीं कहना क्योंकि फलादि के समान-जैसे-कागज, पयाल आदि उपायों के द्वारा आम्र आदि फल अवधारित (निश्चित) परिपाक काल के पूर्व ही पका दिये जाते हैं या परिपक्व हो जाते हैं, ऐसा देखा जाता है। उसी प्रकार परिच्छिन्न (अवधारित) मरणकाल के पूर्व ही उदीरणा के कारण से आयु की उदीरणा होकर अकालमरण हो जाता है। आयुर्वेद के सामथ्र्य से अकालमरण सिद्ध होता है। जैसे-आयुर्वेद को जानने वाला अतिनिपुण वैद्य यथाकाल वातादि के उदय के पूर्व ही वमन, विरेचन आदि के द्वारा अनुदीर्ण ही कफ आदि दोषों को बलात् निकाल देता है-दूर कर देता है तथा अकालमृत्यु को दूर करने के लिए रसायन आदि का उपदेश देता है। अन्यथा यदि अकालमरण नहीं है तो रसायन आदि का उपदेश व्यर्थ हो जायेगा, किन्तु रसायन आदि का उपदेश है अत: आयुर्वेद के सामथ्र्य से भी अकालमरण सिद्ध होता है।
शंका – केवल दु:ख के प्रतीकार के लिए ही औषध दी जाती है ?
समाधान – यह बात नहीं है, अपितु उत्पन्न रोग को दूर करने के लिए और अनुत्पन्न को हटाने के लिए भी दी जाती है। जैसे-औषधि से असाता कर्म दूर किया जाता है, उसी प्रकार विष आदि के द्वारा आयु ह्रास और उसके अनुकूल औषधि से आयु का अपवर्तन देखा जाता है।
शंका – यदि अकालमृत्यु है तो कृतप्रणाश दोष आता है अर्थात् किये हुए का फल नहीं भोगा गया, अकाल में आयु नष्ट हो गई ?
समाधान – ऐसी आशंका भी नहीं है। न तो अकृत कर्म का फल भोगना पड़ता है और न कृत कर्म का नाश ही होता है, अन्यथा मोक्ष नहीं हो सकेगा और न दानादि क्रियाओं के करने का उत्साह ही होगा। दानादिक्रिया के आरंभ के अभाव का प्रसंग आयेगा। किन्तु कृत कर्म कत्र्ता को अपना फल देकर के ही नष्ट होता है। जैसे-गीला कपड़ा फैला देने पर जल्दी सूख जाता है और वही कपड़ा इकट्ठा रखा रहे तो सूखने में बहुत समय लगता है, उसी तरह उदीरणा के निमित्तों से समय के पहले ही आयु झड़ जाती है, यही अकालमृत्यु है। इसी तत्त्वार्थसूत्र महाग्रंथ के श्लोकवार्तिक महाभाष्य ग्रंथ में श्रीमान् आचार्य विद्यानंद महोदय४ ने भी कहा है- अंतरंग में असाता वेदनीय का उदय होने पर और बहिरंग में वात, पित्त आदि विकार के होने पर दु:ख-रोग आदि होते हैं, उनके प्रतिपक्षी औषधि के देने पर दु:ख-रोग की अनुत्पत्ति-दूर होना रूप प्रतीकार देखा जाता है। कडुवी आदि औषधि का उपयोग करने से उतने मात्र से पीड़ारूप फल देकर ही असातावेदनीय का उदय खत्म हो जाता है अत: किये हुए कर्म का फल नहीं भोगा-नष्ट हो गया, ऐसा ‘कृतप्रणाश’ दोष नहीं आता है। अकाल मृत्यु के विषय में कुन्दकुन्ददेव ने भी कहा है- विष के भक्षण से, अधिक वेदना से, रक्तक्षय हो जाने से, भय से, शस्त्र लग जाने से-शस्त्रों के घात से, संक्लेश परिणामों से, आहार-भोजन न मिलने से, श्वासोच्छ्वास के रुक जाने से-या रोक लेने से आयु छिद जाती है-अकाल में मरण हो जाता है।।२५।।
पहले छियासी हजार पाँच सौ वर्ष पूर्व महाभारत के युद्ध के समय सबसे अधिक अकालमृत्यु हुई हैं, ऐसा श्री गुणभद्रसूरि ने उत्तरपुराण ग्रंथ में कहा है- ‘‘आगम में जो मनुष्यों का कदलीघात नाम का अकालमरण बतलाया गया है, उसकी अधिक से अधिक संख्या यदि हुई भी तो उस महाभारत के युद्ध में ही हुई थी, ऐसा उस युद्ध के विषय में कहा जाता है।।१०९।।’’ वर्तमानकाल में भी नाना प्रकार की आकस्मिक दुर्घटनाएँ सुनी जाती हैं-कहीं भूकंप की दुर्घटना में हजारों मनुष्य और पशु एक साथ मर जाते हैं। कहीं नदी पूर-नदियों के बाढ़ से अनेक गाँव जल में डूब जाते हैंं, तब सैकड़ों, हजारों परिवार नष्ट हो जाते हैं। कहीं पर हवाई जहाज के गिरने से ऊपर से नीचे गिरकर सैकड़ों मनुष्य मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। कहीं-कहीं इस प्रकार रेलगाड़ी, हवाई जहाज, बसें, स्कूटर, साइकिल आदि के गिरने, परस्पर टकराने (एक्सीडेंट) आदि की दुर्घटनाओं में अनेकों मनुष्य मर जाते हैं, कहीं बम विस्फोट से मरते हैं, यह सब प्रत्यक्ष में देखा जाता है। यहाँ पर भी जो मनुष्य नाना प्रकार की दुर्घटनाओं से मरते हैं, उनमें तो अधिकांश लोगों का मरण अकालमृत्यु से ही होता है, क्योंकि सभी मरने वालों की एक साथ मृत्यु नहीं आती है, अत: जिनेन्द्रदेव के वचनों पर श्रद्धान करना चाहिए। इसी प्रकार वर्तमान में अकालमृत्यु के निवारण-दूर करने के उपाय भी सुने जाते हैं-किन्हीं लोगों के संघट्टन-एक्सीडेंट आदि दुर्घटनाओं से अधिकरूप से रक्तस्राव हो जाने से डाक्टर दूसरे का खून उस मरणासन्न के शरीर में चढ़ाकर जीवनदान दे देते हैं-बचा लेते हैं। हृदय रोग की भी शल्य चिकित्सा-आप्रेशन करके स्वस्थता एवं जीवन देते हैं। किन्हीं रोगियों के नेत्र आदि अवयवों का प्रत्यारोपण करके स्वस्थ कर देते हैं, इनका अपलाप करना-झुठलाना भी शक्य नहीं है।
जिनेन्द्र भगवान की भक्ति से, महान् जाप्य आदि के अनुष्ठान से, सिद्धचक्र, कल्पद्रुम, इन्द्रध्वज आदि महामण्डल विधानों से बहुत से दु:ख नष्ट हो जाते हैं, वे लोग अकालमृत्यु को जीतकर पूरी आयु का उपभोग कर लेते हैं। एक कथा श्री शांतिनाथ पुराण में पढ़ी जाती है- एक समय श्री विजयनरेश की सभा में आकर किसी निमित्तज्ञानी ने कहा-इस पोदनपुर के राजा की आज से सातवें दिन वङ्कापात से मृत्यु होगी। राजा ने अपमृत्यु के निवारण के लिए राज्य का त्याग करके जिनमंदिर में जाकर विशाल-महती जिनेन्द्रदेव की पूजा की। तब उस पूजानुष्ठान के प्रभाव से राजा की अकालमृत्यु न होकर राज्यसिंहासन पर स्थापित पाषाण मूर्ति के सौ टुकड़े हो गये। शांतिनाथ पुराण में यह कथा इस प्रकार है-एक दिन किसी आगन्तुक ब्राह्मण ने श्रीविजय को सिंहासन पर स्थित देख एकान्त में आसन प्राप्त कर इस प्रकार कहा। आज से सातवें दिन पोदनपुर नरेश के मस्तक पर जोर से गरजता हुआ वङ्का वेगपूर्वक आकाश से गिरेगा। इतना कहकर जब वह चुप हो गया तब श्रीविजय ने उससे स्वयं पूछा कि तुम कौन हो ? किस नाम के धारक हो और तुम्हें कितना ज्ञान है ? इस प्रकार राजा के द्वारा स्वयं पूछे गये, धीर बुद्धि वाले उस आगन्तुक ब्राह्मण ने कहा कि सिंधु देश में एक पद्मिनीखेट नाम का सुन्दर नगर है। वहाँ से मैं तुम्हारे पास यहाँ आया हूँ अमोघजिह्व मेरा नाम है, मैं विशारद का पुत्र हूँ तथा ज्योतिष ज्ञान का पण्डित हूँ। इस प्रकार अपना परिचय देकर बैठे हुए उस ब्राह्मण को राजा ने विदा किया। पश्चात् मंत्रियों से वङ्का से अपनी रक्षा का उपाय पूछा।
तदनन्तर मंत्रियों ने बहुत सारे रक्षा के उपाय बतलाये, परन्तु उन उपायों का खंडन करने की इच्छा रखते हुए मतिभूषण मंत्री ने इस प्रकार एक कथा कही- गिरिराज के निकट एक कुंभकारकट नाम का नगर है। उसमें चण्डकौशिक नाम वाला एक दरिद्र ब्राह्मण रहता था। ‘सोमश्री’ इस नाम से प्रसिद्ध उसकी स्त्री थी। उसने भूतों की आराधना कर एक मुण्डकौशिक नाम का पुत्र प्राप्त किया। कुंभ नाम का राक्षस उस पुत्र को खाना चाहता था अत: उससे रक्षा के लिए ब्राह्मण ने वह पुत्र भूतों को दे दिया और भूतों ने उसे गुहा में रख दिया। परन्तु वहाँ भी अकस्मात् आये हुए एक भयंकर अजगर ने उस पुत्र को खा लिया अत: ठीक ही है क्योंकि धर्म को छोड़कर मृत्यु से प्राणियों की रक्षा करने के लिए कौन समर्थ है ? इसलिए शांति को छोड़कर रक्षा का अन्य उपाय नहीं है। फिर भी हम इनके पोदनपुर के स्वामित्व को दूर कर दें अर्थात् इनके स्थान पर किसी अन्य को राजा घोषित कर दें। इस प्रकार कहकर जब मतिभूषण मंत्री चुप हो गया तब प्रजा ने ताम्बे की प्रतिमा बनाकर उसे राज्य सिंहासन पर स्थापित कर दिया और राजा जिनालय में स्थित हो गया। सातवां दिन पूर्ण होते ही राजा की प्रतिमा के मुकुटविभूषित मस्तक पर आकाश से वङ्का गिरा अर्थात् वह राज्यसिंहासन की प्रतिमा वङ्कापात से नष्ट हो गई। तदनन्तर (मंदिर में अनुष्ठान करते हुए सुरक्षित रहे राजा) श्रीविजय ने उस अमोघजिह्व नामक आगन्तुक ब्राह्मण के लिए उसका मनचाहा पद्मिनीखेट नगर ही दे दिया। इस कथानक को सुनकर ज्योतिषियों की शरण में नहीं जाना चाहिए और न पुरुषार्थहीन होना चाहिए, प्रत्युत् जिनेन्द्रदेव की भक्ति, पूजा-विधानानुष्ठान, जाप्यानुष्ठान आदि से असाता कर्मों के उदय को कम करना चाहिए और अकालमृत्यु पर भी विजय प्राप्त करना चाहिए, यहाँ यही सार लेना है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ६, पृ. १७३ से १७८)
प्रथमस्थिते: द्वितीयस्थितेश्च तावत् आगालप्रत्यागालौ यावत् आवलिकाप्रत्यावलिके च शेषे इति। प्रथमस्थिति से और द्वितीयस्थिति से तब तक आगाल और प्रत्यागाल होते रहते हैं जब तक कि आवली और प्रत्यावलीमात्र काल शेष रह जाता है। विशेषार्थ-अपकर्षण के निमित्त से द्वितीयस्थिति के कर्मप्रदेशों का प्रथमस्थिति में आना आगाल कहलाता है। उत्कर्षण के निमित्त से प्रथमस्थिति के कर्मप्रदेशों का द्वितीयस्थिति में जाना प्रत्यागाल कहलाता है। ‘आवली’ ऐसा सामान्य से कहने पर भी प्रकरणवश उसका अर्थ उदयावली लेना चाहिये तथा उदयावली से ऊपर के आवलीप्रमाण काल को द्वितीयाली या प्रत्यावली कहते हैं। जब अन्तरकरण करने के पश्चात् मिथ्यात्व की स्थिति आवलि-प्रत्यावलीमात्र रह जाती है, तब आगाल-प्रत्यागालरूप कार्य बन्द हो जाते हैं।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ६, पृ. २०६)
अनादिमिथ्यादृष्टे: सम्यक्त्वस्य प्रथमवारं लाभ: सर्वोपशमेन भवति। तथा विप्रकृष्टसादिमिथ्यादृष्टे: जीवस्यापि प्रथमोपशमसम्यक्त्वस्य लाभ: सर्वोपशमेनैव। किन्तु यो जीव: सम्यक्त्वात् प्रच्युत्य पुन: सत्त्वरं सम्यक्त्वं गृण्हाति, स: सर्वोपशमेन देशोपशमेन वा भजितव्य:।
अनादि मिथ्यादृष्टि जीव के सम्यक्त्व का प्रथम बार लाभ सर्वोपशम से होता है। इसी प्रकार विप्रकृष्ट जीव के अर्थात् जिसने पहले कभी सम्यक्त्वप्रकृति एवं सम्यग्मिथ्यात्व कर्म की उद्वेलना कर बहुत काल तक मिथ्यात्व सहित परिभ्रमण कर पुन: सम्यक्त्व को प्राप्त किया है, ऐसे जीव के प्रथमोपशमसम्यक्त्व का लाभ भी सर्वोपशम से होता है किन्तु जो जीव सम्यक्त्व से गिरकर अभीक्ष्ण अर्थात् जल्दी ही पुन:-पुन: सम्यक्त्व को ग्रहण करता है वह सर्वोपशम और देशोपशम से भजनीय है। मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति, इन तीनों कर्मों के उदयाभाव को सर्वोपशम कहते हैं तथा सम्यक्त्वप्रकृतिसम्बन्धी देशघाती स्पर्धकों के उदय को देशोपशम कहते हैं। अनादि मिथ्यादृष्टि के प्रथमोपशमसम्यक्त्व के अनन्तर मिथ्यात्व का उदय होता है, किन्तु सादि मिथ्यादृष्टि के मिथ्यात्व भजितव्य है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ६, पृ. २१० )
अथवा ‘जिणा’ इति उत्ते ‘चोद्दसपुव्वहरा’ गृहीतव्या:। केवली इति भणिते केवलज्ञानिन: तीर्थकर-कर्मोदयविरहिता: गृहीतव्या:, ‘तित्थयरा’ इति उत्ते तीर्थकरनामकर्मोदयजनिताष्टमहा-प्रातिहार्य-चतुस्त्रिंशदतिशयसहितानां ग्रहणं। एतेषां त्रयाणामपि पादमूले दर्शनमोहक्षपणं प्रस्थापयन्ति इति। अत्र जिनशब्दस्य आवत्र्तिं कृत्वा जिना: दर्शनमोहक्षपणं प्रस्थापयन्ति इति वक्तव्यं, अन्यथा तृतीयपृथिवीत: विनिर्गतानां कृष्णादीनां२ तीर्थकरत्वानुपपत्ते: इति केषांचित् आचार्याणां व्याख्यानं। एतेन व्याख्यानाभिप्रायेण दु:षमा-अतिदु:षमा-सुषमासुषमा-सुषमाकालेषु उत्पन्नानां एव दर्शनमोहनीयक्षपणा नास्ति, अवशेषद्वयोरपि कालयो: उत्पन्नानामस्ति, एकेन्द्रियात् आगत्य तृतीयकालोत्पन्नवद्र्धनकुमारादीनां३९ दर्शनक्षपणदर्शनात्। इदं चैवात्र व्याख्यानं प्रधानं कर्तव्यं।
यहाँ पर ‘जिन’ शब्द की आवृत्ति करके अर्थात् दुबारा ग्रहण करके, जिन दर्शनमोहनीयकर्म का क्षपण प्रारंभ करते हैं, ऐसा कहना चाहिए, अन्यथा तीसरी पृथिवी से निकले हुए कृष्ण आदिकों के तीर्थंकरत्व नहीं बन सकता है, ऐसा किन्हीं आचार्यों का व्याख्यान है। इस व्याख्यान के अभिप्राय से दु:षमा, अतिदु:षमा, सुषमा-सुषमा और सुषमा कालों में उत्पन्न हुए जीवों के ही दर्शनमोहनीय की क्षपणा नहीं होती है, अवशिष्ट दोनों कालों में उत्पन्न हुए जीवों के दर्शनमोह की क्षपणा होती है। इसका कारण यह है कि एकेन्द्रिय पर्याय से आकर (इस अवसर्पिणी के) तीसरे काल में उत्पन्न हुए वद्र्धनकुमार आदिकों के दर्शनमोह की क्षपणा देखी जाती है। यहाँ पर यह व्याख्यान ही प्रधानतया ग्रहण करना चाहिए।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ६, पृ. २१४)
अकर्मभूमिजस्य-पंचम्लेच्छखंडनिवासिनां संयमं प्रतिपद्यमानस्य जघन्यं संयमस्थानमनन्तगुणं। तस्यैवोत्कृष्टं संयमं प्रतिपद्यमानस्य संयमस्थानमनन्तगुणं। कर्मभूमिजस्य संयमं प्रतिपद्यमानस्य उत्कृष्टं संयमस्थानमनन्तगुणं।
संयम को प्राप्त करने वाले अकर्मभूमिज, अर्थात् पाँच म्लेच्छ खंडों में रहने वाले, मनुष्य का जघन्य संयमस्थान अनन्तगुणा है। संयम को प्राप्त करने वाले उसका ही उत्कृष्ट संयमस्थान अनन्तगुणा है। संयम को प्राप्त करने वाले कर्मभूमिज (आर्य) मनुष्य का उत्कृष्ट संयमस्थान अनन्तगुणा है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ६, पृ. २२१)
उपशमश्रेणिं कतिवारां लब्धुं शक्नोति इति पृच्छायां कथ्यते- चत्तारि वारमुवसमसेढिं समरुहदि खविदकम्मंसो। बत्तीसं वाराइं, संजममुवलहिय णिव्वादि।।६१९।। भगवान् ऋषभदेव: पूर्वभवे द्विवारं उपश्रेणिमारुरोह।
उपशमश्रेणी कितनी बार प्राप्त करना शक्य है ? ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं- कर्मों के अंश का क्षपण करने वाले ऐसे क्षपितकर्मांश मुनि उपशम श्रेणी पर अधिक से अधिक चार बार ही चढ़ सकते हैं। सकल संयम को उत्कृष्टरूप से बत्तीस बार प्राप्त कर सकते हैं पुन: नियम से मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं।।६१९।। भगवान ऋषभदेव पूर्व भव में दो बार उपशम श्रेणी में चढ़े हैं।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ६, पृ. २२४)
बहुषु दिवसपृथक्त्वगतेषु गर्भोपपन्ना: पर्याप्ता: पंचेन्द्रियतिर्यञ्च: प्रथमसम्यक्त्व-मुत्पादयितुं योग्या भवन्ति। इमे च असंख्यातेषु अपि द्वीपेषु असंख्यातेषु समुद्रेष्वपि प्रथमसम्यक्त्वग्रहणयोग्या भवंति। सार्धद्वयद्वीपेषु कर्मभूमिजा भोगभूमिजा तिर्यञ्च: संति। लवणोदधि-कालोदसमुद्रयो: तिर्यञ्च: सन्ति। शेषद्वीपेषु भोगभूमिजा: तिर्यञ्च: सन्ति। अंतिमार्धापरद्वीपे अन्तिमसमुद्रे च कर्मभूमिजा: तिर्यञ्च: सन्ति। भोगभूमिप्रतिभागिकेषु समुद्रेषु मत्स्या मकरा वा न सन्ति, आर्षेषु तत्र त्रसजीवप्रतिषेध: कृत: पुनस्तत्र प्रथमसम्यक्त्वोत्पत्तिर्न युज्यते ? नैष दोष:, पूर्ववैरिदेवै: कर्मभूमिजतिरश्च: उत्थाप्य तत्र इमे मत्स्यमकरादय: प्रक्षिप्यन्ते कदाचित् अतस्तेषां क्षिप्तपंचेन्द्रियतिरश्चां तत्र संभवोऽस्ति इति ज्ञातव्यं।
यहाँ पर ‘दिवस पृथक्त्व’ कहने से सात या आठ दिवस नहीं लेना। यहाँ यह पृथक्त्व शब्द विपुलता का वाचक है, इसलिए बहुत से दिवस पृथक्त्व के जाने पर गर्भ से उत्पन्न, पर्याप्तक, पंचेन्द्रिय तिर्यंच प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करने के योग्य होते हैं। ये असंख्यातों भी द्वीपों में और असंख्यातों समुद्रों में भी प्रथम सम्यक्त्व के ग्रहण के योग्य होते हैं। ढाई द्वीपों में कर्मभूमिज और भोगभूमिज दोनों प्रकार के तिर्यंच हैं। लवणोदधि और कालोदधि समुद्रों में तिर्यंच हैं। शेष द्वीपों में भोगभूमिज तिर्यंच होेते हैं। अंतिम आधे उधर के द्वीप में और अंतिम समुद्र में कर्मभूमिज तिर्यंच होते हैं।
शंका – चूँकि ‘भोगभूमि के प्रतिभागी समुद्रों में मत्स्य या मगर नहीं हैं’, ऐसा वहाँ त्रस जीवों का प्रतिषेध किया गया है, इसलिए उन समुद्रों में प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति मानना उपयुक्त नहीं है ?
समाधान – यह कोई दोष नहीं, क्योंकि पूर्वभव के बैरी देवों के द्वारा उन समुद्रों में डाले गये मछली, मगर आदि पंचेन्द्रिय तिर्यंचों की संभावना है। कदाचित् उन डाले गये पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में सम्यक्त्व संभव है, ऐसा जानना चाहिए।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ६, पृ. २४३)
जिनमहिमदर्शने तस्यान्तर्भावात्, किंच जिनबिंबेन विना जिनमहिमा अनुपपत्ते:। स्वर्गावतरण-जन्माभिषेक-परिनिष्क्रमणजिनमहिमा: जिनबिंबेन विना क्रियमाणा: दृश्यन्ते, अत: जिनमहिमादर्शने जिनबिंबदर्शनस्य अविनाभावो नास्ति ? एतन्नाशंकनीयं, तत्रापि भावि जिनबिंबस्य दर्शनोपलंभात् । अथवा एतासु महिमासु उत्पद्यमान-प्रथमोपशमसम्यक्त्वं न जिनबिंबदर्शननिमित्तं, किंतु जिनगुणश्रवणनिमित्तमिति।
जिनबिम्बदर्शन का जिनमहिमादर्शन में ही अन्तर्भाव हो जाता है, कारण कि जिनबिम्ब के बिना जिनमहिमा की उपपत्ति बनती नहीं हैं।
शंका – स्वर्गावतरण, जन्माभिषेक और परिनिष्क्रमणरूप जिनमहिमाएं जिनबिम्ब के बिना की जाने वाली देखी जाती हैं, इसलिए जिनमहिमादर्शन में जिनबिम्बदर्शन का अविनाभाव नहीं है ?
समाधान – ऐसी आशंका नहीं करना चाहिए, क्योंकि स्वर्गावतरण, जन्माभिषेक और परिनिष्क्रमणरूप जिनमहिमाओं में भी भावी जिनबिम्ब का दर्शन पाया जाता है। अथवा, इन महिमाओं में उत्पन्न होने वाला प्रथम सम्यक्त्व जिनबिम्बदर्शननिमित्तक नहीं है, किन्तु जिनगुणश्रवणनिमित्तक है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ६, पृ. २५१)
देवद्र्धिदर्शनं जातिस्मरणे किन्न प्रविशति ? न प्रविशति, आत्मन: अणिमादिऋद्धी: दृष्ट्वा एता: ऋद्धय: जिनप्रज्ञप्तधर्मानुष्ठानात् जाता: इति प्रथमसम्यक्त्वप्राप्ति: जातिस्मरणनिमित्ता भवति। किंतु यदा सौधर्मैद्रादिदेवानां महद्र्धी: दृष्ट्वा एता: सम्यग्दर्शनसंयुक्तसंयमफलेन जाता:, अहं पुन: सम्यग्दर्शनविरहितद्रव्यसंयमफलेन वाहनादिनीचदेवेषु उत्पन्न:, इति ज्ञात्वा यत् प्रथमसम्यक्त्वग्रहणं जायते तत् देवद्र्धिदर्शननिमित्तकं। तन्न द्वयोरेकत्वमिति। किं च जातिस्मरणं तु उत्पन्नप्रथमसमयप्रभृति अन्तर्मुहूर्तकालाभ्यन्तरे एव भवति। देवद्र्धिदर्शनं पुन: कालान्तरे चैव भवति-अन्तर्मुहूर्तानन्तरमेव, तेन न द्वयोरेकत्वं।
शंका – देवर्द्धिदर्शन का जातिस्मरण में समावेश क्यों नहीं होता ?
समाधान – नहीं होता, क्योंकि अपनी अणिमादिक ऋद्धियों को देखकर जब यह विचार उत्पन्न होता है कि ये ऋद्धियाँ जिन भगवान द्वारा उपदिष्ट धर्म के अनुष्ठान से उत्पन्न हुई हैं, तब प्रथम सम्यक्त्व की प्राप्ति जातिस्मरण निमित्तक होती है। किन्तु जब सौधर्मेन्द्रादिक देवों की महाऋद्धियों को देखकर यह ज्ञान उत्पन्न होता है कि ये ऋद्धियाँ सम्यग्दर्शन से संयुक्त संयम के फल से प्राप्त हुई हैं, किन्तु मैं सम्यक्त्व से रहित द्रव्यसंयम के फल से वाहनादिक नीच देवों में उत्पन्न हुआ हूँ तब प्रथम सम्यक्त्व का ग्रहण देवद्र्धिदर्शननिमित्तक होता है। इससे जातिस्मरण और देवर्द्धिदर्शन, ये प्रथम सम्यक्त्वोत्पत्ति के दोनों कारण एक नहीं हो सकते तथा जातिस्मरण उत्पन्न होने के प्रथम समय से लगाकर अन्तर्मुहूर्त काल के भीतर ही होता है। किन्तु देवद्र्धिदर्शन उत्पन्न होने के समय से अन्तर्मुहूर्तकाल के पश्चात् ही होता है। इसलिए भी उन दोनों कारणों में एकत्व नहीं है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ६, पृ. २५१)
संज्ञिन: पर्याप्ता: पंचेंद्रियतिर्यञ्च: मिथ्यादृष्टय: तिर्यक्पर्यायेभ्य: कालगतसमाना: विनष्टा: सन्त:, तत्पर्यायेभ्य: मृत्वा चतस¸: अपि गती: प्राप्नुवन्ति। देवगतिषु भवनत्रिकेषु गच्छंति, सौधर्मादिसहस्रारकल्पपर्यंतं गन्तुं शक्नुवन्ति नोपरि, सम्यक्त्वाणुव्रतै: विना आनतादिषु कल्पेषु गमनाभावात्।
संज्ञी, पर्याप्त, पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टी तिर्यंच तिर्यंचपर्याय से काल-मरण करके चारों ही गतियों को प्राप्त करते हैं। देवगति में भवनत्रिकों में जाते हैं, सौधर्म स्वर्ग से लेकर सहस्रार स्वर्ग पर्यंत जा सकते हैं। इसके ऊपर नहीं, क्योंकि आगे के आनत आदि कल्पों में सम्यक्त्व सहित अणुव्रतों के बिना जाना संभव नहीं है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ६, पृ. २७२)
एवमेव श्रीअकलंकदेवेन कथितं- तैर्यग्योनेषु असंज्ञिन: पर्याप्ता: पंचेन्द्रिया: संख्येयवर्षायुष्षु अल्पशुभपरिणामवशेन पुण्यबंधमनुभूय भवनवासिषु व्यन्तरेषु च उत्पद्यन्ते। तत्त्वार्थवार्तिक ग्रंथ में श्री अकलंकदेव ने भी कहा है- तिर्यंच योनि में रहने वाले असंज्ञी, पर्याप्त, पंचेन्द्रिय जीव अल्पशुभ परिणाम के वश से पुण्यबंध का अनुभव करके संख्यात वर्ष की आयु वाले भवनवासी और व्यंतर देवों में उत्पन्न हो जाते हैं।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ६, पृ. २७३)
तिरिक्खेसु उववण्णल्लया तिरिक्खा केइं छ उप्पाएंति।।२१९।। मणुसेसु उववण्णल्लया मणुस्सा केइमेक्कारस उप्पाएंति-केइमाभिणि-बोहिय-णाणमुप्पाएंति, केइं सुदणाणमुप्पाएंति, केइं मणपज्ज-वणाणमुप्पा-एंति, केइमोहिणाण-मुप्पाएंति, केइं केवलणाणमुप्पाएंति, केइं सम्मामिच्छत्त-मुप्पाएंति, केइं सम्मत्तमुप्पाएंति, केइं संजमासंजममुप्पाएंति, केइं संजममुप्पाएंति। णो बलदेवत्तं णो वासुदेवत्तमुप्पाएंति, णो चक्कवट्टि-मुप्पाएंति। केइं तित्थयरत्तमुप्पाएंति, केइमंतयडा होदूण सिज्झंति बुज्झंति मुच्चंति परिणिव्वाणयंति सव्वदुक्खाणमंतं परिविजाणंति।।२२०।। सिद्धान्तचिंतामणिटीका-सूत्राणामर्थ: सुगमोऽस्ति। उपरि तिसृभ्य: उद्वर्तिता: तिर्यक्षु उत्पन्ना: केचित् मतिश्रुतावधिज्ञानानि सम्यग्मिथ्यात्वसम्यक्त्वसंयमा-संयमांश्चोत्पादयन्ति। मनुष्येषु उत्पन्ना: केचित् एकादशगुणान् उत्पादयन्ति। मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलज्ञानानि, सम्यग्मिथ्यात्वं सम्यक्त्वं संयमासंयमं संयमं च तीर्थकरत्वं मोक्षं चापि, किंतु नरकेभ्य: निर्गत्य केचिदपि बलदेववासुदेव चक्रधरत्वानि नोत्पादयन्ति।
ऊपर की तीन पृथिवियों से निकलकर तिर्यंचों में उत्पन्न होने वाले तिर्यंच कोई छह गुणों को उत्पन्न करते हैं।।२१९।।
ऊपर की तीन पृथिवियों से निकलकर मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य कोई ग्यारह गुणों को उत्पन्न करते हैं-कोई आभिनिबोधिक ज्ञान उत्पन्न करते हैं, कोई श्रुतज्ञान उत्पन्न करते हैं, कोई मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न करते हैं, कोई अवधिज्ञान उत्पन्न करते हैं, कोई केवलज्ञान उत्पन्न करते हैं, कोई सम्यग्मिथ्यात्व उत्पन्न करते हैं, कोई सम्यक्त्व उत्पन्न करते हैं, कोई संयमासंयम उत्पन्न करते हैं और कोई संयम उत्पन्न करते हैं। किन्तु वे जीव न बलदेवत्व उत्पन्न करते, न वासुदेवत्व उत्पन्न करते, और न चक्रवर्तित्व उत्पन्न करते हैं। कोई तीर्थकरत्व उत्पन्न करते हैं, कोई अन्तकृत् होकर सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिर्वाण को प्राप्त होते हैं, वे सर्व दु:खों के अन्त होने का अनुभव करते हैं।।२२०।। ऊपर की तीन पृथिवियों से निकलकर तिर्यंचों में उत्पन्न हुए कोई जीव मति, श्रुत, अवधिज्ञान, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और संयमासंयम इन छह गुणों को उत्पन्न करते हैं। मनुष्यों में उत्पन्न हुए कोई जीव ग्यारहों गुणों को उत्पन्न कर लेते हैं-मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय, केवलज्ञान, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, संयमासंयम, संयम, तीर्थकरत्व और मोक्ष, इन ग्यारह स्थानों को भी प्राप्त कर सकते हैं, किन्तु नरक से निकलकर कोई भी बलभद्र, नारायण और चक्रवर्ती नहीं हो सकते हैं।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ६, पृ. ३०५-३०६)
संसारिणां जीवानां सर्वश्रेष्ठं सुखं सर्वार्थसिद्धौ सर्वाधिकं दु:खं च सप्तमीपृथिवीगतनारकाणां। उत्तं श्रीजिनसेनाचार्येण- सुकृतफलमुदारं विद्धि सर्वार्थसिद्धौ, दुरितफलमुदग्रं सप्तमीनारकाणाम्। शमदमयमयोगैरग्रिमं पुण्यभाजां, अशमदमयमानां कर्मणा दुष्कृतेन।।२२०।।
संसारी जीवों में सर्वश्रेष्ठ सुख सर्वार्थसिद्धि में है और सबसे अधिक दु:ख सातवें नरक में रहने वाले नारकी जीवों में होता है। श्री जिनसेनाचार्य देव ने कहा भी है- पुण्यकर्मों का उत्कृष्ट फल सर्वार्थसिद्धि में और पापकर्मों का उत्कृष्ट फल सप्तम पृथिवी के नारकियों के जानना चाहिए। पुण्य का उत्कृष्ट फल परिणामों को शान्त रखने, इन्द्रियों का दमन करने और निर्दोष चारित्र पालन करने से पुण्यात्मा जीवों को प्राप्त होता है और पाप का उत्कृष्ट फल परिणामों को शान्त नहीं रखने, इन्द्रियों का दमन नहीं करने तथा निर्दोष चारित्र पालन नहीं करने से पापी जीवों को प्राप्त होता है।
सिद्धान् सिद्ध्यर्थमानम्य, सर्वांस्त्रैलोक्यमूर्धगान् ।
इष्ट: सर्वक्रियान्तेऽसौ, शान्तीशो हृदि धार्यते।।१।।
संपूर्ण अंग और पूर्वों के एकदेश ज्ञाता, श्रुतज्ञान को अविच्छिन्न बनाने की इच्छा रखने वाले, महाकारुणिक भगवान श्रीधरसेनाचार्य हुए हैं। उनके मुखकमल से पढ़कर सिद्धान्तज्ञानी श्री पुष्पदंत और श्रीभूतबलि आचार्य हुए हैं। उन्होंने ‘अग्रायणीय पूर्व’ नामक द्वितीय पूर्व के ‘चयनलब्धि’ नामक पांचवीं वस्तु के ‘कर्मप्रकृति प्राभृत’ नामक चौथे अधिकार से निकले हुए जिनागम को छह खण्डों में विभाजित करके ‘षट्खण्डागम’ यह सार्थक नाम देकर सिद्धान्त सूत्रों को लिपिबद्ध किया है।
छह खंड के नाम-१. जीवस्थान २. क्षुद्रकबंध ३. बंधस्वामित्वविचय ४. वेदनाखण्ड ५. वर्गणाखण्ड ६. महाबंध ये नाम हैं।
इनमें से पाँच खण्डों में छह हजार सूत्र हैं और छठे खण्ड में तीस हजार सूत्र हैं, ऐसा ‘श्रुतावतार’ ग्रंथ में लिखा है।
वर्तमान में मुद्रित सोलह पुस्तक-वर्तमान में छपी हुई सोलह पुस्तकों में पाँच खण्ड माने हैं। उनके सूत्रों की गणना छह हजार, आठ सौ, इकतालिस (६८४१) हैं।
प्रथम खण्ड में दो हजार तीन सौ पचहत्तर सूत्र हैं। दूसरे खण्ड में पंद्रह सौ चौरानवे, तृतीय खण्ड में तीन सौ चौबीस, चतुर्थ खंड में पंद्रह सौ पच्चीस और पांचवें खण्ड में एक हजार तेईस हैं। २३७५±१५९४±३२४± १५२५±१०२३·६८४१ हैं।
मुद्रित सोलह पुस्तकों में पाँच खण्डों का विभाजन-छपी हुई धवला टीका समन्वित प्रथम पुस्तक से लेकर छह पुस्तकों तक प्रथम खण्ड है। सातवीं पुस्तक में द्वितीय खण्ड है। आठवीं पुस्तक में तृतीय खण्ड है। नवमी से लेकर बारहवीं ऐसे चार पुस्तकों में चतुर्थ खण्ड है और तेरहवीं से लेकर सोलहवीं तक चार पुस्तकों में पाँचवां खंड है।
प्रथम खण्ड के विषय-प्रथम खण्ड में आठ अनुयोगद्वार हैं एवं अंत में एक चूलिका अधिकार है, इस चूलिका के भी नव भेद हैं।
आठ अनुयोगद्वार के नाम-१. सत्प्ररूपणा, २. द्रव्यप्रमाणानुगम, ३. क्षेत्रानुगम ४. स्पर्शनानुगम ५. कालानुगम ६. अन्तरानुगम ७. भावानुगम और ८. अल्पबहुत्वानुगम।
चूलिका के नाम और भेद-१. प्रकृतिसमुत्कीर्तन चूलिका २. स्थानसमुत्कीर्तन चूलिका ३. प्रथम महादण्डक ४. द्वितीय महादण्डक ५. तृतीय महादण्डक ६. उत्कृष्टस्थितिबंध ७. जघन्यस्थितिबंध ८. सम्यक्त्वोत्पत्तिचूलिका और ९. गत्यागती चूलिका।
छह पुस्तकों में प्रथम खण्ड का विभाजन-प्रथम पुस्तक में सत्प्ररूपणा है, द्वितीय पुस्तक में ‘आलाप अधिकार’ नाम से इसी सत्प्ररूपणा का विस्तार है। तृतीय पुस्तक में द्रव्यप्रमाणानुगम और क्षेत्रानुगम है।
चतुर्थ पुस्तक में स्पर्शनानुगम और कालानुगम का वर्णन है। पंचम पुस्तक में अंतरानुगम, भावानुगम और अल्पबहुत्वानुगम है। छठी पुस्तक में नव चूलिकायें हैं।
सातवीं पुस्तक में ‘क्षुद्रकबंध’ नाम से द्वितीय खण्ड है। आठवीं पुस्तक में ‘बंध स्वामित्वविचय’ नाम से तृतीय खण्ड है।
चतुर्थ-पंचम खण्ड का विभाजन-
अग्रायणीय पूर्व के अर्थाधिकार चौदह हैं-१. पूर्वान्त २. अपरान्त ३. ध्रुव ४. अध्रुव ५. चयनलब्धि ६. अधु्रवसंप्रणिधान ७. कल्प ८. अर्थ ९. भौमावयाद्य १०. कल्पनिर्याण ११. अतीतकाल १२. अनागतकाल १३. सिद्ध और १४. बुद्ध१।
यहाँ ‘चयनलब्धि’ के अधिकार में ‘महाकर्म प्रकृतिप्राभृत’ संगृहीत है। उसमें चौबीस अनुयोगद्वार हैं-
१. कृति २. वेदना ३. स्पर्श ४. कर्म ५. प्रकृति ६. बंधन ७. निबंधन ८. प्रक्रम ९. उपक्रम १०. उदय ११. मोक्ष १२. संक्रम १३. लेश्या १४. लेश्याकर्म १५. लेश्या परिणाम १६. सातासात १७. दीर्घ ह्रस्व १८. भवधारणीय १९. पुद्गलात्त २०. निधत्तानिधत्त २१. निकाचितानिकाचित २२. कर्मस्थिति २३. पश्चिमस्कंध २४. अल्पबहुत्व२।
चतुर्थ वेदनाखण्ड में ९, १०, ११, १२ ऐसी ४ पुस्तकें हैं।
नवमी पुस्तक में उपर्युक्त २४ अनुयोगद्वारों में से प्रथम ‘कृति’ नाम का अनुयोगद्वार है।
दशवीं पुस्तक में वेदना अनुयोगद्वार का वर्णन करते हुए वेदना के १६ भेद किये हैं-
१. वेदनानिक्षेप २. वेदनानयविभाषणता ३. वेदनानामविधान ४. वेदनाद्रव्यविधान ५. वेदनाक्षेत्रविधान ६. वेदनाकालविधान ७. वेदनाभावविधान ८. वेदनाप्रत्ययविधान ९. वेदनास्वामित्वविधान १०.वेदनावेदनाविधान ११. वेदनागतिविधान १२. वेदनाअनंतरविधान १३. वेदनासन्निकर्षविधान १४. वेदनापरिमाणविधान १५. वेदनाभागाभागविधान और १६. वेदनाअल्पबहुत्वविधान।
दसवीं पुस्तक में-आदि के पाँच अनुयोग द्वार हैं-
१. वेदनानिक्षेप २. वेदनानयविभाषणता ३. वेदनानामविधान और ४. वेदनाद्रव्यविधान और ५. वेदनाक्षेत्रविधान।
ग्यारहवीं पुस्तक में-वेदनाकालविधान, वेदनाभावविधान ये दो अनुयोगद्वार हैं।
बारहवीं पुस्तक में-‘वेदनाप्रत्यय विधान’, ‘वेदनाअल्पबहुत्वविधान’ तक ये ९ अनुयोगद्वार हैं। इस प्रकार इन तीन ग्रंथों में ‘वेदना अनुयोगद्वार’ का ही वर्णन होने से यह चौथा खण्ड ‘वेदनाखण्ड’ नाम से विभक्त है।
वर्गणाखण्ड-तेरहवीं पुस्तक में-चौबीस अनुयोगद्वार में से स्पर्श, कर्म और प्रकृति इन तीसरे, चौथे और पाँचवें अनुयोगद्वारों का वर्णन है।
चौदहवीं पुस्तक में-‘बंधन’ नाम के छठे अनुयोगद्वार का कथन है।
पंद्रहवीं पुस्तक में-निबंधन, प्रक्रम, उपक्रम, उदय और मोक्ष इन अनुयोगद्वारों का कथन है।
सोलहवीं पुस्तक में-संक्रम, लेश्या आदि से लेकर अल्पबहुत्वपर्यंत १३ अनुयोगद्वार वर्णित हैं।
इन चार ग्रंथों में वर्णित विषय ‘वर्गणाखण्ड’ नाम से कहा गया है।
संक्षेप में षट्खण्डागम के इन पांच खण्डों का १६ पुस्तकों में विभाजन एवं सूत्रसंख्या दी जा रही है।
षट्खण्डागम (१६ ग्रंथों-पुस्तकों में)
पुस्तक संख्या विषय सूत्र संख्या
प्रथम खण्ड-जीवस्थान (इसमें छह पुस्तकें हैं)
पुस्तक १ सत्प्ररूपणा (१४ गुणस्थान, १४ मार्गणा) १७७
पुस्तक २ आलाप अधिकार ०
पुस्तक ३ द्रव्यप्रमाणानुगम (संख्या), क्षेत्रानुगम २८४
पुस्तक ४ स्पर्शन-कालानुगम ५२७
पुस्तक ५ अंतर-भाव-अल्पबहुत्वानुगम ८७२
पुस्तक ६ जीवस्थान चूलिका (नव चूलिकायें) ५१५
द्वितीय खण्ड-क्षुद्रकबंध
पुस्तक ७ क्षुद्रकबंध १५९४
तृतीय खण्ड-बंधस्वामित्वविचय
पुस्तक ८ बंधस्वामित्वविचय ३२४
चतुर्थ खण्ड-वेदनाखण्ड
पुस्तक ९ ‘कृति’ अनुयोगद्वार (वेदनाखंड) ७६
पुस्तक १० ‘वेदना’ के १६ भेदों में ५ भेद ३२३
पुस्तक ११ वेदनाकालविधान व वेदनाभावविधान ५९३
पुस्तक १२ वेदना के ८वें भेद से १६ तक वर्णन ५३३
पंचम खण्ड-वर्गणाखण्ड
पुस्तक १३ स्पर्श, कर्म, प्रकृति अनुयोगद्वार २०६
पुस्तक १४ बंधन अनुयोगद्वार, बंधन अधिकार की चूलिका ७९७
पुस्तक १५ निबंधन, प्रक्रम, उपक्रम, उदय और मोक्ष अनुयोगद्वार २०
पुस्तक १६ १२वें अनुयोगद्वार से २४वें तक, इसमें सूत्र नहीं हैं। ०
षट्खण्डागम की टीकायें
इस ‘षट्खण्डागम’ ग्रंथराज पर छह टीकायें लिखी गई हैं, ऐसा आगम में उल्लेख है। उनके नाम-
१. श्री कुन्दकुन्ददेव ने तीन खण्डों पर ‘परिकर्म’ नाम से टीका लिखी है जो कि १२ हजार श्लोकप्रमाण थी।
२. श्री शामकुंडाचार्य ने ‘पद्धति’ नाम से टीका लिखी है जो कि संस्कृत, प्राकृत और कन्नड़ मिश्र थी, ये पांच खण्डों पर थी और १२ हजार श्लोकप्रमाण थी।
३. श्री तुंबुलूर आचार्य ने ‘चूड़ामणि’ नाम से टीका लिखी। छठा खण्ड छोड़कर षट्खण्डागम और कषायप्राभृत दोनों सिद्धान्त ग्रंथों पर यह ८४ हजार श्लोकप्रमाण थी।
४. श्री समंतभद्रस्वामी ने संस्कृत में पांच खण्डों पर ४८ हजार श्लोकप्रमाण टीका लिखी।
५. श्री वप्पदेवसूरि ने ‘व्याख्याप्रज्ञप्ति’ नाम से टीका लिखी, यह पांच खण्डों पर और कषायप्राभृत पर थी एवं ६० हजार श्लोकप्रमाण प्राकृत भाषा में थी।
६. श्री वीरसेनाचार्य ने छहों खण्डों पर प्राकृत-संस्कृत मिश्र टीका लिखी, यह ‘धवला’ नाम से टीका है एवं ७२ हजार श्लोकप्रमाण है।
वर्तमान में ऊपर कही हुई पांच टीकाएं उपलब्ध नहीं हैं, मात्र श्री वीरसेनाचार्य कृत ‘धवला’ टीका ही उपलब्ध है जिसका हिंदी अनुवाद होकर छप चुका है। इस ग्रंथ को ताड़पत्र से लिखाकर और हिंदी अनुवाद कराकर छपवाने का श्रेय इस बीसवीं सदी के प्रथमाचार्य चारित्र चक्रवर्ती श्री शांतिसागर जी महाराज को है। उनकी कृपाप्रसाद से हम सभी इन ग्रंथों के मर्म को समझने में सफल हुये हैं।
सिद्धान्तचिन्तामणि टीका-
मैंने सरल संस्कृत भाषा में ‘सिद्धान्तचिंतामणि’ नाम से टीका लिखी है। भगवान शांतिनाथ, कुंथुनाथ और अरनाथ की जन्मभूमि हस्तिनापुर ‘जंबूद्वीप’ तीर्थ पर आश्विन शुक्ला पूर्णिमा, वीर नि. सं. २५२१ दिनाँक ८-१०-१९९५ को मैंने यह टीका लिखना प्रारंभ किया था।
अनंतर बराबर मेरा टीका लेखन कार्य चलता रहा। पुन: हस्तिनापुर में सन् २००७ में वैशाख कृ. दूज (४ अप्रैल) को मैंने सोलहवीं पुस्तक की संस्कृत टीका पूर्ण की है।
इस टीका को लिखने का मेरा भाव केवल ‘षट्खण्डागम’ महाग्रन्थराज के रहस्य को समझने का, अपने ज्ञान के क्षयोपशम की वृद्धि का एवं परिणामों की विशुद्धि का ही है।
यह ‘षट्खण्डागम’ कितना प्रामाणिक है, देखिए श्रीवीरसेनस्वामी के शब्दों में-
लोहाइरिये सग्गलोगं गदे आयार-दिवायरो अत्थमिओ। एवं बारससु दिणयरेसु भरहखेत्तम्मि अत्थमिएसु सेसाइरिया सव्वेसिमंगपुव्वाणमेगदेसभूद-पेज्जदोस-महाकम्मपयडिपाहुडादीणं धारया जादा। एवं पमाणीभूदमहारिसिपणालेण आगंतूण महाकम्मपयडिपाहुडामियजलपवाहो धरसेणभडारयं संपत्तो। तेण वि गिरिणयरचंदगुहाए भूदबलि-पुप्फदंताणं महाकम्मपयडिपाहुडं सयलं समप्पिदं। तदो भूदबलिभडारएण सुदणईपवाहवोच्छेदभीएण भवियलोगाणुग्गहट्ठं महाकम्मपयडिपाहुड-मुवसंहरिऊण छखंडाणि कयाणि। तदो तिकालगोयरासेसपयत्थवि-सयपच्चक्खाणंतकेवलणा-णप्पभावादो पमाणीभूदआइरियपणालेणागदत्तादो दिट्ठिट्ठविरोहाभावादो पमाणमेसो गंथो। तम्हा मोक्खकंखिणा भवियलोएण अब्भसेयव्वो। ण एसो गंथो थोवो त्ति मोक्खकज्जजणणं पडि असमत्थो, अमियघडसयवाणफलस्स चुलुवामियवाणे वि उवलंभादो१।
लोहाचार्य के स्वर्गलोक को प्राप्त होने पर आचारांगरूपी सूर्य अस्त हो गया। इस प्रकार भरतक्षेत्र में बारह सूर्यों के अस्तमित हो जाने पर शेष आचार्य सब अंग-पूर्वों के एकदेशभूत ‘पेज्जदोस’ और ‘महाकम्मपयडिपाहुड’ आदिकों के धारक हुए। इस प्रकार प्रमाणीभूत, महर्षिरूप प्रणाली से आकर महाकम्मपयडिपाहुडरूप अमृत जल-प्रवाह धरसेन भट्टारक को प्राप्त हुआ।
उन्होंने भी गिरिनगर की चन्द्र गुफा में सम्पूर्ण महाकम्मपयडिपाहुड भूतबलि और पुष्पदन्त को अर्पित किया। पश्चात् श्रुतरूपी नदी प्रवाह के व्युच्छेद से भयभीत हुए भूतबलि भट्टारक ने भव्यजनों के अनुग्रहार्थ महाकम्मपयडिपाहुड का उपसंहार कर छह खण्ड (षट्खण्डागम) किये।
अतएव त्रिकालविषयक समस्त पदार्थों को विषय करने वाले प्रत्यक्ष अनन्त केवलज्ञान के प्रभाव से प्रमाणीभूत आचार्यरूप प्रणाली से आने के कारण प्रत्यक्ष व अनुमान से चूँकि विरोध से रहित है अत: यह ग्रंथ प्रमाण है। इस कारण मोक्षाभिलाषी भव्य जीवों को इसका अभ्यास करना चाहिए।
चूँकि यह ग्रंथ स्तोक है अत: वह मोक्षरूप कार्य को उत्पन्न करने के लिए असमर्थ है, ऐसा विचार नहीं करना चाहिए; क्योंकि अमृत के सौ घड़ों के पीने का फल चुल्लूप्रमाण अमृत के पीने में भी पाया जाता है।
अत: यह ग्रंथराज बहुत ही महान है, इसका सीधा संबंध भगवान महावीर स्वामी की वाणी से एवं श्री गौतम स्वामी के मुखकमल से निकले ‘गणधरवलय’ आदि मंत्रों से है। इस ग्रंथ में एक-एक सूत्र अनंत अर्थों को अपने में गर्भित किये हुए हैं अत: हम जैसे अल्पज्ञ इन सूत्रों के रहस्य को, मर्म को समझने में अक्षम ही हैं। फिर भी श्रीवीरसेनाचार्य ने ‘धवला’ टीका को लिखकर हम जैसे अल्पज्ञों पर महान उपकार किया है।
इस धवला टीका को आधार बनाकर मैंने टीका लिखी है। इसमें कहीं-कहीं धवला टीका की पंक्तियों को ज्यों का त्यों ले लिया है। कहीं पर उनकी संस्कृत (छाया) कर दी है। कहीं-कहीं उन प्रकरणों से संबंधित अन्य ग्रंथों के उद्धरण भी दिये हैं। श्रीवीरसेनाचार्य के द्वारा रचित टीका में जो अतीव गूढ़ एवं क्लिष्ट सैद्धांतिक विषय हैं अथवा जो गणित के विषय हैं उनको मैंने छोड़ दिया है एवं ‘धवला टीकायां दृष्टव्यं’ धवला टीका में देखना चाहिए, ऐसा लिख दिया है। अर्थात् इस धवला टीका के सरल एवं सारभूत अंश को ही मैंने लिया है। चूँकि यह श्रुतज्ञान ही ‘केवलज्ञान’ की प्राप्ति के लिए ‘बीजभूत’ है।
जैसाकि मैंने लिखा है-
सिद्धांतचिंतामणिनामधेया, सिद्धान्तबोधामृतदानदक्षा।
टीका भवेत्स्वात्मपरात्मनोर्हि, वैâवल्यलब्ध्यै खलु बीजभूता१।।१७।।
‘षट्खण्डागम’ में-पाँच खण्डों में सूत्र संख्या छह हजार आठ सौ इकतालिस (६८४१) है। इस प्रकार इन सोलह पुस्तकों की संस्कृत टीका मैंने वैशाख कृ. दूज, ४ अप्रैल २००७ को लिखकर पूर्ण की है। यह टीका समस्त विज्ञजनों के लिए श्रुतज्ञान के क्षयोपशम का कारण बने, यही मेरी मंगलकामना है।