दर्शन पाठ (पं. दौलतरामजी कृत)
दर्शन पाठ (पं. दौलतरामजी कृत)
दर्शन पाठ (पं. दौलतरामजी कृत)
दोहा-सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि, निजानन्द रस लीन।
सो जिनेन्द्र जयवन्त नित, अरि रज रहस विहीन।।
पद्धड़ि छन्द
जय वीतराग विज्ञान पूर, जय मोह तिमिर को हरन सूर।
जय ज्ञान अनन्तानन्त धार, दृग सुख वीरज मण्डित अपार।
जय परम शान्ति मुद्रा समेत, भवि जनको निज अनुभूति देत।
भवि भागवन वश जोगे वशाय, तुम ध्वनि है सुनि विभ्रम नशाय।।
तुम गुण चिन्तत निज पर विवेक, प्रगटे विघटे आपद अनेक।
तुम जगभूषण दूषण वियुक्त, सब महिला युक्त विकल्प मुक्त।।
अविरुद्ध शुद्ध चेतन सरूप, परमात्म परम पावन अनूप।
शुभ अशुभ विभाव अभाव कीन, स्वाभाविक परणतिमय अक्षीण।।
अष्टादश दोष विमुक्त धीर, स्व चतुष्टय मय राजत गम्भीर।
मुनि गुणधरादि सेवत महंत, नव केवल लब्धि रमा धरन्त।।
तुम शासन सेय अमेय जीव, शिव गये जाहिं जैहैं सदीव।
भवासागर में दुख क्षार वारि, तारण को और न आप टारि।
यह लख निज दुख गद हरण काज, तुम ही निमित्त कारण इलाज।
जाने तातैं मैं शरण आय, उचरो निज दुख जो चिर लहाय।।
मैं भ्रम्यो अपनपो बिसरि आप, अपनाये विधि फल पुण्य पाप।
निज को पर को कर्ता पिछान, पर में अनिष्टता इष्ट ठान।।
आकुलित भयो अज्ञान धारि, ज्यों मृग मृगतृष्णा जानि वारि।
तन परणति में आपो चितार, कबहूं न अनुभवो स्वपद सार।।
तुमको जाने बिन जो कलेश, पायो सो तुम जानत जिनेश।
पशु नारक गति सुर नर मझार, भव धर धर मर्यो अनंत बार।।
अब काल लब्धि बल तें दयाल, तुम दर्शन पाय भयो खुशाल।
मन शांत भयो मिट सकलद्वंद, चाख्यो स्वातम रस दुख-निकंद।।
तातैं ऐसी अब करो नाथ, बिछुड़े न कभी तुम चरण साथ।
तुम गुणगण को नहिं छेव देव, जग तारण को तुम विरद एव।।
आतम के अहित विषय कषाय, इनमें मेरी परणति न जाय।
मैं रहूँ आप में आप लीन, सो करो होउँ जो निजाधीन।।
मेरे न चाह कुछ और ईश, रत्नत्रय निधि दीजे मुनीश।
मुझ कारज के कारण सु आप, शिव करो हरो मम मोह ताप।।
शशि शांति करण तप हरण हेत। स्वयमेव तथा तुम कुशल देत।
पीवत पियूष ज्येां रोग जाय, त्यों तुम अनुभव ते भव नशाय।।
त्रिभुवन तिहुँ काल मुझार कोय, नहिं तुम बिन निज सुखदाय होय।
मो उर यह निश्चय भयो आज दुःख जलधि उबारन तुम जहाज।।
तुम गुणगण मणि गणपति, गणत न पावहिं पार।
‘‘दौल’’ स्वल्पमति किम कहें, नमौं त्रियोग सम्हार।।
।। इति दौलतराम कृत दर्शन पाठः।।