कुछ अन्य मुझको शरण नाहीं,है शरण निज शुद्धता॥ ४६॥
ी पुरुष नहिं षंढ नाहीं अरु पाप पुण्य विभिन्नता।
कुछ अन्य मुझको शरण नाहीं,है शरण निज शुद्धता॥ ४७॥
तेरा नहिं कोई न तू है, बन्धु बान्धव अन्य का।
है शुद्ध एकाकी सदा तूं, आप रहता आपका ॥ ४८॥
जिनधर्म की सेवा तथा, शासन सुप्रेमी बन सदा ।
संन्यासपूर्वक मरण होवे, प्राप्त हो निज सम्पदा ॥ ४९॥
जिनदेव ही इक देव हैं, जिनदेव से ही प्रीत है।
जो दयामय धर्म बस, उस धर्म से ही जीत है ॥ ५०॥
साधू महा साधू महा जो है दिगम्बर साधुजन।
पाऊँ न जब तक मुक्ति तब तक भाव ये होवे सुमन॥ ५१॥
व्यर्थ मेरा काल बीता, दु:ख अनन्तों भोगकर।
जिन कथित नहिं संन्यास पाया, यत्न से सुविचारकर॥५२॥
इस समय जो प्राप्त की आराधना जिनदेव की ।
होगी न मेरी कौन-सी शुभ सिद्धि अब स्वयमेव ही॥ ५३ ॥
सद्धर्म की महिमा बढ़ी है, लब्धि भी निर्मल अहो।
जिससे मिला सम्प्रति मुझे, अनुपम महासुख यह अहो॥५४॥
विधि वन्दना प्रतिक्रमण की, आलोचना भी है यही।
आराधना जो सविधि उसको प्राप्त होती सुख मही॥ ५५ ॥