श्री त्रिकाल चौबीसी विधान
(श्री रोट-तीज व्रत उद्यापन)
स्थापना (नरेन्द्र छन्द)
त्रयकालिक चौबीस जिनेश्वर, त्रय विध कर्म विनाशे,
वीतराग सर्वज्ञ हितंकर, शाश्वत धर्म प्रकाशे।
आह्वानन थापन सन्निधिकर, मन ही मन हर्षाऊँ,
भरत क्षेत्र के तीन काल के, सब जिनवर को ध्याऊँ।।
ऊँ ह्रीं भूत-वर्तमान-भविष्यत् काल संबंधी चतुर्विंशति तीर्थंकर
समूह अत्र अवतर-अवतर संवौषअ् आह्वाननं।
ऊँ ह्रीं भूत-वर्तमान-भविष्यत् काल संबंधी चतुर्विंशति तीर्थंकर
समूह अत्र तिष्ठ-तिष्ठ ठः-ठः स्थापनम्।
ऊँ ह्रीं भूत-वर्तमान-भविष्यत् काल संबंधी चतुर्विंशति तीर्थंकर
समूह अत्र मम सन्निहितो भव-भव वषट् सन्निधिकरणं।
नरेन्द्र छन्द
द्रव्यभाव नोकर्म जयी जिन, जन्मादिक् त्रय हरते हैं।
उनके सम्मुख त्रय योगों से, जल की धारा करते हैं।।
मैं त्रिकाल चौबीसी व्रत की, पूजा भव्य रचाता हूँ।
पूजन अर्चन कीर्तन करके, सब दुःख शोक मिटाता हूँ।।
ऊँ ह्रीं भूत-वर्तमान-भविष्यत् काल संबंधी चतुर्विंशति तीर्थंकरभ्यो जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।1।।
श्री जिनवर की शीतल छाया, भव संताप मिटाती है।
प्रभु चरणों में चंदन लेपन, अभिनंदन दिलवाती है।।
मैं त्रिकाल.....।।
ऊँ ह्रीं भूत-वर्तमान-भविष्यत् काल संबंधी चतुर्विंशति तीर्थंकरभ्यो संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति सवाहा।।2।।
अक्षय व्रत ले अक्षय तपकर, अक्ष्ज्ञय पद को पाया है।
निज अक्षय सुख की आशा से, अक्षत उन्हें चढ़ाया है।।
मैं त्रिकाल चौबीसी व्रत की, पूजा भव्य रचाता हूँ।
पूजन अर्चन कीर्तन करके, सब दुःख शोक मिटाता हूँ।।
ऊँ ह्रीं भूत-वर्तमान-भविष्यत् काल संबंधी चतुर्विंशति तीर्थंकरभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।।3।।
निज मन वा मन्मथ को वशकर, मदन विजेता कहलाये।
उन्हें चढ़ाने कमल मालती, सुमन मनोहर मँगवाये।।
मैं त्रिकाल.......।।
ऊँ ह्रीं भूत-वर्तमान-भविष्यत् काल संबंधी चतुर्विंशति तीर्थंकरभ्यो कामबाण निवाशनाय पुष्पाणि निर्वपामीति स्वाहा।।4।।
रोट बना घृत खीर सजा, मैं भर-भर थाल चढ़ाऊँगा।
क्षुधा विजेता के चरणों में, क्षुधा रोग विनशाऊँगा।।
मै त्रिकाल.......।
ऊँ ह्रीं भूत-वर्तमान-भविष्यत् काल संबंधी चतुर्विंशति तीर्थंकरभ्यो क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।।5।।
धृत के सुन्दर दीप जलाये, जगमग-जगमग दीप जले।
मोह तिमिर विनशाने वाला, मन में प्रज्ञा दीप जले।।
मै त्रिकाल.......।
ऊँ ह्रीं भूत-वर्तमान-भविष्यत् काल संबंधी चतुर्विंशति तीर्थंकरभ्यो मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।।6।।
कर्मरूप ईंधन को प्रभु ने, ध्यानानल में दहन किया।
सुरभित धूप चढ़ा प्रभु सन्मुख, हमरने दुःख का दहन कियाद्य।।
मैं त्रिकाल चौबीसी ..........।
ऊँ ह्रीं भूत-वर्तमान-भविष्यत् काल संबंधी चतुर्विंशति तीर्थंकरभ्यो अष्टकर्म दहनाय धूपं निर्वमामीति स्वाहा।।7।।
सफल महाव्रत सिद्ध करें जो, शाश्वत शिवफल पाते हैं।
शिवफल की अभिलाषा ले हम, हरे-भरे फल लाते हैं।।
मै त्रिकाल.......।
ऊँ ह्रीं भूत-वर्तमान-भविष्यत् काल संबंधी चतुर्विंशति तीर्थंकरभ्यो महामोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।।8।।
पद अनर्घ के धारक जिनवर, पद अनर्घ मुझको दे दो।
अष्ट द्रव्य का अर्घ चढ़ाता, अष्ट कर्म मेरे हर लो।।
मै त्रिकाल.......।
ऊँ ह्रीं भूत-वर्तमान-भविष्यत् काल संबंधी चतुर्विंशति तीर्थंकरभ्यो अर्नापदप्राप्तये अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।।9।।
दोहा
त्रयकालिक चौबीस जिन, करें सकल अघ शांत।
शांतिधार सुमनावली, नाशे कर्मज क्लांत।।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि क्षिपेत्।
अथ मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्
चित्र विचित्र महातप ाकर जो जग को उत्थान करें।
‘चित्रगुप्त‘ जिन की शरणा में हम अपना कल्याण करें।।
भरत क्षेत्र के भावि चौबीस जिनवर को हम ध्याले हैं।
पूजन वंदन कीर्तन करके उत्तम अर्घ चढ़ाते हैं।।17।।
मै त्रिकाल.......।
ऊँ ह्रीं अर्हं श्री ‘चित्रगुप्त‘ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
पूर्वभवों में साध समाधि ‘समाधिगुप्ति‘ नाम वरा।
आत्मसमाधि साधन हेतु हमने उनका ध्यान धरा।।
भरत क्षेत्र ......।।18।।
ऊँ ह्रीं अर्हं श्री ‘समाधिगुप्त‘ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
स्वयं बोध पा दीक्षा देकर देव ‘स्वयंभू‘ कहलाये।
उनकी शिक्षा पथदर्शक बन मोक्षमार्ग पर चलवाये।।
भरत क्षेत्र ......।।19।।
ऊँ ह्रीं अर्हं श्री ‘स्वयंभू‘ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
तीर्थकर ‘अनिवर्तक‘ जिनने षोडशकारण व्रत साधा।
उनके गुण से प्रीत लगाकर हमने उनको आराधा।।
भरत क्षेत्र ......।।20।।
ऊँ ह्रीं अर्हं श्री ‘अनिवर्तक‘ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
जयकारों से जय मिलती है यह ‘जयनाथ‘ बताते हैं।
कर्म विजय हित श्री जिनवर का हम जयनाद लगाते हैं।।
भरत क्षेत्र ......।।21।।
ऊँ ह्रीं अर्हं श्री ‘जय‘ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
‘विमलदेव‘ के विमलज्ञान की आभा मुझको विमल करें।
उनकी अर्चा करके हम सब जिन सूत्रों पर अमल करें।।
भरत क्षेत्र के भावि चौबीस जिनवर को हम ध्याते हैं।
पूजन वंदन कीर्तन करके उत्तम अर्घ चढ़ाते हैं।।22।।
ऊँ ह्रीं अर्हं श्री ‘विमल‘ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
‘देवपाल‘ की दिव्यदेशना मुझमें दिव्य प्रकाश भरे।
स्याद्वाद मय दिव्यज्ञान को मिथ्यातम का नाश करे।
भरत क्षेत्र ......।।23।।
ऊँ ह्रीं अर्हं श्री ‘देवपाल‘ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
आत्मवीर्य की शक्ति पाकर कर्मवीर्य को क्षीण किया।
‘अनंतवीर्य‘ प्रभु के गुण गा हमने भव दुःख क्षीण किया।।
भरत क्षेत्र ......।।24।।
ऊँ ह्रीं अर्हं श्री ‘अनंतवीर्य‘ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
समुच्य अर्घ्य
महापद्म से अनंतवीरज तीर्थंकर सुखकारी हैं।
भरत क्ष्ज्ञेत्र के भावि चौबिस जिनवर धर्म प्रचारी हैं।।
इनको अर्घ चढ़ाकर के हम पद अनर्घ पा जायेंगे।
वंदन, पूजन, कीर्तन करके प्रभु का जाप रचायेंगे।।
ऊँ ह्रीं अर्हं श्री जम्बूद्वीपवतभर्् भरतक्ष्ज्ञेत्रस्थ श्री महापद्मादि अनंतवीर्यपर्यत भविष्यत्काल संबकंधी चतुर्विशति तीर्थंकरेभ्यो नमः पूर्णार्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिं क्षिपेत्
जाप्य मंत्र ..ह्न ह्न ऊँ ह्रीं श्री भूत-वर्तमान-भविष्यत् काल संबंधी चतुर्विंशति तीर्थकरेभ्यो नमो नमः
(9, 27 या 108 बार)
जयमाला
दोहा- चौबिस जिन त्रयकाल के पूजूँ मैं त्रयकाल।
रोट-तीज व्रत की पढँू दुःखहारी जयमाल।।
शंभु छन्द
मैं भरत खेत्र के महापुरुष, तीर्थंकर के गुण गाता हूँ।
श्री भूत भविष्यत् वर्तमान, चौबीसों जिन को ध्याता हूँ।।
त्रय चौबीसी की पूजा से, शुभ रोट तीज व्रत होता है।
जो विधि से इस व्रत को करता, वो नव लब्धिपति होता है।।1।।
प्रभु सन्मति ने नृप श्रेणिक को, यहह मंगल व्रत समझाया है।
जो विघ्न कर्म का विघ्न हरें, युग-युग से होता आया है।।
उज्जैन नगर में सागरदत्त, इक सेठ और सेठानी थे।
छप्पन करोड़ मुद्राधर के, सुत सात सुभग अभिमानी थे।।2।।
निर्ग्रंथ साधु के वचन सुने, इक दिन जिनगृह जा सेठानी।
सबको व्रत लेते देख स्वयं, उसने व्रत लेने की ठानी।।
बोली मुनि ! मुझको वह व्रत दो, जो एक वर्ष में आता हो।
उसमें भी रूखा-सूखा ही, कुछ खाने को मिल जाता हो।।3।।
श्री मुनि ने रोज तीज व्रत दे, उसका निश्छल कल्याण किया।
धन मद में बेटे-बहुओं ने, उस व्रत का भी अपमान किया।।
पापोदय से सेठानी ने, निन्दा सुन व्रत को छोड़ दिया।
तत्क्षण लक्ष्मी धन सुकृत ने, उस धर से नाता तोड़ लिया।।4।।
हीरे पत्थर सोना मिट्टी, मोती जल बनकर नष्ट हुए।
जलयान सभी हो गये लुप्त, नौकर-चाकर भी रूष्ट हुए।।
उज्जैन छोड़ वह सागरदत्त, निज पत्नी पुत्रों संग चला।
पहले उसको हस्तिनपुर में, निज पुत्री का ससुराल मिला।।5।।
बेटी को अपनी व्यथा सुना, बोले हम कुछ दिन यहीं रहें।
बेटी बोली इस दुर्दिन में सब यहाँ नहीं कहीं और रहें।।
फिर भी प्रीति के वश उसने, भोजन संग हीरे भेज दिये।
पर भोजन कृमिकुल युक्त हुआ, हीरे भी पत्थर रूप हुए।।6।।
फिर वे बसंतपुर पहुँच गये, था सेठानी का भ्रात जहाँ।
लज्जावश वे ना गये वहाँ, जबकि था प्रीतिभोज वहाँ।।
व्रत निन्दा का फल भेाग रहे, वे सोलह के सोलह प्राणी।
बह रहा मांड जिस नाली से, मटकी ले पहुँची सेठानी।।7।।
धनहीन ननद को लख भाभी, पत्थर खिसकाये नाली में।
उस गर्म मांड से सेठानी, जल गयी हाय कंगाली में।।
वे नगर अयोध्या पहुँच गये, जहाँ सागरदत्त का मित्र मिला।
चित्राम मोर माला निगले, इनको चोरी का दाग मिला।।8।।
उस वृथारोप से बचने को, वे चम्पापुर नगरी आये।
वहाँ सेठ समुद्रदत्त के घर, सब दास वृत्ति को अपनायें।।
झाडू चौका बतर्न कपड़े, सेठानी बहुओं संग करे।
सागरदत्त सातों पुत्र सहित, धंधे में आठों याम मरे।।9।।
इस दिन घर की सेठानी ने, सागरदत्ता को समझाया।
घर को अच्छे से साफ करो, कल रोट तीज शुभ व्रत आया।।
भादों शुक्ला तृतीय ाके दिन, शुभ रोट तीज व्रत होता है।
इसमें त्रयकालिक चौबीसी, इनका शुभ पूजन होता है।।10।।
निज गृह में अक्षय रोट बना, जो प्रभु को अर्पण करता है।
वो दरिद्रता दुःख को विनशा, निज अक्षय वैभव करता है।।
उस व्रत की महिमा सुन सबने, पूर्वोक्त पाप का स्मरण किया।
निंदा गर्हा आलोचन कर, अपने सब दुःख का हरण किया।।11।।
अगले दिन छोटी बहु ने जा, जिनग्रह में प्रभु का भजन किया।
भक्ति से सुन्दर रोट चढ़ा, रद्धा से प्रभु को नमन किया।।
उसकी श्रद्धा के अतिशय से, वह रोट स्वर्ण में बदल गया।
उसकी चर्चा घर-घर फैली, उन सबका जीवन बदल गया।।12।।
फिर से व्यापार बढ़ा उनका, जलयान मिले सम्मान मिला।
जिनधर्म और व्रत के द्वारा, उनको सम्यक् उत्थान मिला।।
यह रोट तीज व्रत अपनाकर, हम सब अपना उद्धार करें।
त्रय गुप्ति सकल संयम द्वारा, ‘गुप्तिनंदी‘ भवपार करें।।13।।
ऊँ ह्रीं अर्हं श्री भूत-वर्तमान-भविश्यत्काल संबंधी चतुर्विंशति तीर्थंकरेभ्यो जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा
रोट तीज व्रत का मिले, यही हमें वरदान।
त्रय गुप्ति से प्राप्त हो, मुक्ति राज अभियान।।
इत्याशीर्वादः दिव्य पुष्पांजलिं क्षिपेत्।