येनेन्द्रान् भुवन-त्रयस्य विलसत्,-केयूर-हाराङ्गदान्,
भास्वन्-मौलि-मणिप्रभा-प्रविसरोत्-तुङ्गोत्तमाङ्गान्नतान्।
स्वेषां पाद-पयोरुहेषु मुनयश्, चक्रु: प्रकामं सदा,
वन्दे पञ्चतयं तमद्य निगदन्,-नाचार-मभ्यर्चितम्॥ १॥
अर्थ-व्यञ्जन-तद्द्वया-विकलता,- कालोपधा-प्रश्रया:,
स्वाचार्याद्यनपह्नवो बहु-मतिश्, चेत्यष्टधा व्याहृतम्।
श्रीमज्ज्ञाति-कुलेन्दुना भगवता, तीर्थस्य कत्र्राऽञ्जसा,
ज्ञानाचार-महं त्रिधा प्रणिपता,-म्युद्धूतये कर्मणाम्॥ २॥
शङ्का-दृष्टि-विमोह-काङ्क्षणविधि,व्यावृत्ति-सन्नद्धतां,
वात्सल्यं विचिकित्सना-दुपरतिं, धर्मोपबृंह-क्रियाम्।
शक्त्या शासन-दीपनं हित-पथाद्, भ्रष्टस्य संस्थापनं,
वन्दे दर्शन-गोचरं सुचरितं, मूध्र्ना नमन्नादरात्॥ ३॥
एकान्ते शयनोपवेशन-कृति:, संतापनं तानवं,
संख्या-वृत्ति-निबन्धना-मनशनं, विष्वाण-मद्र्धोदरम्।
त्यागं चेन्द्रिय-दन्तिनो मदयत:, स्वादो रसस्यानिशं,
षोढ़ा बाह्यमहं स्तुवे शिवगति,- प्राप्त्यभ्युपायं तप:॥ ४॥
स्वाध्याय: शुभकर्मणश्च्युतवत: संप्रत्यवस्थापनं,
ध्यानं व्यापृति-रामया-विनि गुरौ, वृद्धे च बाले यतौ।
कायोत्सर्जन सत्क्रिया, विनय-इत्येवं तप: षड्विधं,
वन्देऽभ्यन्तर-मन्तरङ्ग बलवद्, - विद्वेषि विध्वंसनम्॥ ५॥
सम्यग्ज्ञान विलोचनस्य दधत: श्रद्धान-मर्हन्मते,
वीर्यस्या-विनि-गूहनेन तपसि, स्वस्य प्रयत्नाद्यते:।
या वृत्तिस्तरणीव नौ-रविवरा, लध्वी भवोदन्वतो,
वीर्याचारमहं तमूर्जितगुणं, वन्दे सता-मर्चितम्॥ ६॥
तिस्र: सत्तम-गुप्तयस्तनुमनो, भाषानिमित्तोदया:,
पञ्चेर्यादि-समाश्रया: समितय:, पञ्चव्रतानीत्यपि।
चारित्रोपहितं त्रयोदशतयं पूर्वं न दृष्टं परै-
राचारं परमेष्ठिनो जिनपतेर्, वीरं नमामो वयम् ॥ ७॥
आचारं सह-पञ्चभेद-मुदितं, तीर्थं परं मङ्गलं,
निग्र्रन्थानपि सच्चरित्र-महतो, वन्दे समग्रान्यतीन्।
आत्माधीन सुखोदया मनुपमां लक्ष्मी-मविध्वंसिनीं,
इच्छन्केवलदर्शना-वगमन,प्राज्य-प्रकाशोज्ज्वलाम्॥ ८॥
अज्ञा-नाद्य-दवीवृतं नियमिनोऽ, वर्तिष्यहं चान्यथा,
तस्मिन् नर्जित-मस्यति प्रतिनवं, चैनो निराकुर्वति।
वृत्ते सप्ततयीं निधिं सुतपसा-मृद्धिं नयत्यद्भुतं,
तन्मिथ्या गुरुदुष्कृतं भवतु मे, स्वं निन्दतो निन्दितम्॥ ९॥
संसार-व्यसना-हति-प्रचलिता, नित्योदय-प्रार्थिन:,
प्रत्यासन्न-विमुक्तय: सुमतय:, शान्तैनस: प्राणिन:।
मोक्षस्यैव कृतं विशालमतुलं सोपान-मुच्चैस्तरा,
मारोहन्तु चरित्र-मुत्तम-मिदं, जैनेन्द्र-मोजस्विन:॥ १०॥
अंचलिका
इच्छामि भंते ! चारित्तभत्ति - काउस्सग्गो कओ, तस्सालोचेउं । - सम्मणाणजोयस्स, सम्मत्ताहिट्ठियस्स, सव्वपहाणस्स, णिव्वाणमग्गस्स, कम्मणिज्जरफलस्स, खमाहारस्स, पंचमहव्वय संपण्णस्स, तिगुत्तिगुत्तस्स, पंचसमिदिजुत्तस्स, णाणज्झाण साहणस्स, समया इव पवेसयस्स, सम्पचारित्तस्स णिच्चकालं अच्चेमि, पुज्जेमि, वंदामि, णमस्सामि, दुक्खक्खओ,कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिणगुणसंपत्ति होदु मज्झं। हे भगवन्! जो मैंने चारित्रभक्ति सम्बन्धी कायोत्सर्ग किया है, उसकी ( उसमें लगे दोषों की) आलोचना करना चाहता हूँ। जो सम्यग्ज्ञानरूप उद्योतप्रकाश से सहित है, सम्यग्दर्शन से अधिष्ठित - युक्त है, सबमें प्रधान है, मोक्ष का मार्ग है, कर्म निर्जरा ही जिसका फल है, क्षमा ही जिसका आधार है, जो पाँच महाव्रतों से परिपूर्ण है, तीन गुप्तियों से गुप्त - सुरक्षित है, पाँच समितियों से सहित है, ज्ञान और ध्यान का साधन है तथा आगम आदि में प्रवेश कराने वाला है, (जो चारित्र आराधक के हृदय में समता का प्रवेश कराता है) ऐसे सम्यक्चारित्र की मैं नित्य ही अर्चा करता हूँ, पूजा करता हूँ, वन्दना करता हूँ, नमस्कार करता हूँ। इसके फलस्वरूप मेरे दुःखों का क्षय हो, कर्मों का क्षय हो, मुझे रत्नत्रय की प्राप्ति हो, सुगति में गमन हो, समाधिमरण हो और मुझे जिनेन्द्र भगवान के गुणों की संप्राप्ति हो । -
विशेष - (श्री गौतमस्वामी मुनियों के दुष्षमकाल में दुष्ट परिणामों से प्रतिदिन होने वाले व्रतों में दोषों की आलोचना या अतिचारों की विशुद्धि के लिये दिनों की गणनापूर्वक आलोचना के लक्षण तथा उपाय को बताते हुए लिखते हैं।)
इच्छामि भंते ! अट्टमियम्मि आलोचेउं, अट्ठण्हं दिवसाणं, अट्टण्हं राइणं, अब्भंतरदो, पंचविहो आयारो, णाणायारो, दंसणायारो, तवायारो, वीरियायारो, चरित्तायारो चेदि ।।1।।
हे भगवन्! ज्ञानाचार, दर्शनाचार, वीर्याचार, तपाचार और चारित्राचार इस प्रकार पाँच प्रकार का आचार है। आठ दिन और आठ रात्रि के भीतर आठ दिनों में ज्ञानाचार आदि में जो अतिचार लगा है, तत्संबंधी आलोचना करने की मैं इच्छा करता हूँ।
(ज्ञानाचार के दोषों की आलोचना)
तत्थ णाणायारो अट्ठविहो काले, विणए, उवहाणे, बहुमाणे, तहेव अणिण्हवणे, विंजण - अत्थ - तदुभये चेदि । णाणायारो अट्ठविहो परिहाविदो, से अक्खर - हीणं वा, सर-हीणं वा, विंजण-हीणं वा, पद हीणं वा, अत्थ-हीणं वा, गंथ-हीणं वा, थएसु वा, थुइसु वा, अत्थक्खाणेसु वा, अणियोगेसु वा, अणियोग-द्वारेसु वा, अकालेसज्झाओ, कदो वा, कारिदो वा, कीरंतो वा, समणुमण्णिदो, काले वा, परिहाविदो, अच्छाकारिदं वा, मिच्छा- मेलिदं वा, आमेलिदं, वामेलिदं, अण्णहादिण्हं, अण्णहा - पडिच्छिदं, आवासएसु - परिहीणदाए तस्स मिच्छा मे दुक्कडं ।।1।।
उन पाँच प्रकार के आचारों में पहला ज्ञानाचार आठ प्रकार का हैकालाचार, विनयाचार, उपधानाचार, बहुमानाचार तथा अनिह्नवाचार, व्यञ्जनाचार, अर्थाचार और उभयाचार उस आठ प्रकार के ज्ञानाचार का तीर्थंकर, पञ्चपरमेष्ठी या नव देवताओं के गुणों का वर्णन करने वाले स्तवनों में अथवा तीर्थंकर पंचपरमेष्ठी आदि गुणों का वर्णन करने वाली स्तुतियों में अथवा चारित्र और पुराणों रूप अर्थाख्यानों में वा प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोगों में अथवा अनुयोगों में अथवा कृति, वेदना आदि चौबीस अनुयोग द्वारों में अक्षरहीन अथवा स्वरहीन अथवा सुबन्त तिमन्त से रहित व्यंजन हीन (ककारादि व्यञ्जनहीन) अर्थहीन वाक्य, अधिकार रहित अथवा ग्रंथहीन अथवा अकाल में उल्कापात, संध्या काल आदि में स्वाध्याय किया हो अथवा कराया हो अथवा करते हुए की अनुमोदना की हो अथवा अकाल में आगम का स्वाध्याय किया हो, आगम में कथित गोसर्गिकादि काल में स्वाध्याय नहीं किया हो, श्रुत का जल्दी-जल्दी उच्चारण किया हो, किसी अक्षर या शब्द को किसी अक्षर या शब्द के साथ मिलाया हो अथवा शास्त्र के अन्य अवयव को किसी अन्य अवयव के साथ जोड़ा हो, उच्चध्वनि युक्त पाठ को नीच ध्वनि युक्त पाठ के साथ, नीच ध्वनि युक्त पाठ को उच्च ध्वनि युक्त पाठ के साथ जोड़कर पढ़ा हो, अन्यथा कहा हो, अन्यथा ग्रहण किया हो, छह आवश्यक क्रियाओं में परिहीनता / कमी करके ज्ञानाचार का परिहापन किया हो तत्संबंधी मेरे दुष्कृत मिथ्या हों।
(दर्शनाचार के दोषों की आलोचना)
णिस्संकिय णिकंक्खिय, णिव्विदिगिंच्छा अमूढदिट्ठी य । उवगूहण ठिदिकरणं, वच्छल्ल - पहावणा चेदि।।1।।
दसणायारो अट्टविहो परिहाविदो, संकाए, कंखाए, विदिगिंछाए, अण्ण-दिट्ठी- पसंसणाए, परपाखंड - पसंसणाए, अणायदण - सेवणाए, अवच्छल्लदाए, अपहावणाए, तस्स मिच्छा मे दुक्कडं ।। 2 ।। -
दर्शनाचार के निम्न आठ भेद हैं- नि:शंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना इस प्रकार ।
आठ प्रकार के दर्शनाचार के विपरीत आठ दोष हैं- शंका से, कांक्षा से, विचिकित्सा से, अन्यदृष्टि प्रशंसा से, पर पाखंडियों की प्रशंसा से, छह अनायतनों की सेवा से, साधर्मीजनों में प्रीति न करने रूप अवात्सल्य से, पूजा, दान, व्रत, उपवास आदि के द्वारा जिनशासन का माहात्म्य प्रकट न करके अप्रभावना से, दर्शनाचार के परिहापन संबंधी जो दोष लगा हो, तत्संबंधी मेरा दुष्कृत मिथ्या हो अर्थात् दर्शनाचार को दूषित करने वाले मेरे सभी पाप मिथ्या हों। (तपाचार के दोषों की आलोचना)
तवायारो बारसविहो अब्भंतरोछव्विहो, बाहिरो- छव्विहो चेदि । तत्थ बाहिरो अणसणं, आमोदरियं, वित्तिपरिसंखा, रसपरिच्चाओ, सरीरपरिच्चाओ, विवित्त - सयणासयणं चेदि । तत्थ अब्भंतरो पायच्छित्तं, विणओ, वेज्जावच्चं, सज्झाओ, झाणं, विउस्सग्गो चेदि। अब्भंतरं बाहिरं बारसविहं तवोकम्मं, ण कदं, णिसपुणेण पडिक्कतं तस्स मिच्छा मे दुक्कडं ।।3।।
बारह प्रकार का तपाचार है- छह प्रकार का आभ्यंतर तप और छह प्रकार का बाह्य तप । उसमें बाह्यतप - अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान रसपरित्याग, कायक्लेश और विविक्त शयनासन इस प्रकार तथा आभ्यंतर तप-प्रायश्चित, विनय, वैय्यावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग इस प्रकार | बाह्य और आभ्यंतर बारह प्रकार का तप कर्म, परीषह आदि के द्वारा पीड़ित होने से छोड़ दिया हो, नहीं किया हो, उस बारह प्रकार के तप के परिहापन संबंधी मेरे दुष्कृत मिथ्या हों।
( वीर्याचार के दोषों की आलोचना )
वीरियायारो पंचविहो परिहाविदो वर-वीरिय- परिक्कमेण, जहत्त-माणेण, बलेण, वीरिएण, परिक्कमेण णिगूहियं, तवो-कम्मं, ण कदं, णिसण्णेण पडिक्कंतं तस्स मिच्छा मे दुक्कडं ॥4॥
वीर्याचार पाँच प्रकार का है- वरवीर्य, परिक्रम, यथोक्तमान बल वीर्य और परिक्रम / पराक्रम | इस पाँच प्रकार तप कर्म का अनुष्ठान करते हुए तप करने के योग्य वीर्य को छिपाया हो, नहीं किया हो, परीषह आदि से पीड़ित हो उस तप कर्म को छोड़ दिया हो, पूर्ण अनुष्ठान नहीं किया हो उस वीर्याचार के परिहापन संबंधी मेरे दुष्कृत्य मिथ्या हों ।
- ( चारित्राचार तथा प्रथम अहिंसा महाव्रत के दोषों की आलोचना) चरित्तायारो तेरसविहो परिहाविदो पंच - महव्वदाणि, पंचसमिदीओ, तिगुत्तीओ चेदि । तत्थ पढमे महव्वदे पाणादिवादादो वेरमणं से पुढवि - काइया जीवा असंखेज्जासंखेज्जा, आऊ-काइया जीवा असंखेज्जासंखेज्जा, तेऊ-काइया जीवा असंखेज्जासंखेज्जा, वाऊ-काइया जीवा असंखेज्जासंखेज्जा, वणप्फदिकाइया जीवा अणंताणंता हरिया, बीआ, अंकुरा, छिण्णा, भिण्णा, एदेसिं उद्दावणं, परिदावणं, विराहणं, उवघादो, कदो वा, कारिदो वा, कीरंतो वा, समणुमण्णिदो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं ।
- बे-इंदियाजीवा असंखेज्जासंखेज्जा कुक्खि - किमि - संख, खुल्लय- वराडय-अक्ख-रिट्ठय- गण्डवाल - संबुक्क - सिप्पि-पुलविकाइया एदेसिं उद्दावणं, परिदावणं, विराहणं, उवघादो, कदो वा, कारिदो वा, वा, समणुमण्णिदो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं । 9
- ते - इंदिया- जीवा असंखेज्जासंखेज्जा कुन्थुद्देहियविंच्छियगोभिंद - गोजुव - मक्कुण - पिपीलियाइया, एदेसिं उद्दावणं, परिदावणं, विराहणं, उवघादो, कदो वा, कारिदो वा, कीरंतो वा, समणुमण्णिदो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं ।
- चउरिंदिया- जीवा असंखेज्जासंखेज्जा दंस-मसय-मक्खिपयंग-कीड - भमरमहुयर-गोमच्छियाइया, एदेसिं उद्दावणं, परिदावणं, विराहणं, उवघादो, कदो वा, कारिदो वा, कीरंतो वा, समणुमण्णिदो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं ।
पंचिंदिया जीवा असंखेज्जासंखेज्जा अंडाइया, पोदाइया, जराइया, रसाइया, संसेदिमा, सम्मुच्छिमा, उब्भेदिमा, उववादिमा, अवि- चउरासीदि - जोणि- पमुह-सद- सहस्सेसु एदेसिं, उद्दावणं, परिदावणं, विराहणं, उवघादो, कदो वा, कारिदो वा, कीरंतो वा, समणुमण्णिदो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं । -
भगवन् ! अहिंसा आदि पाँच महाव्रत, ईर्या आदि पाँच समिति और मन गुप्ति आदि तीन गुप्तियों रूप तेरह प्रकार के चारित्राचार का खंडन किया
हो, तो मैं उस दोष की आलोचना करने की इच्छा करता हूँ। उस तेरह प्रकार के चारित्राचार में जीवों के प्राणों के व्यतिपात से विरक्ति रूप प्रथम अहिंसा महाव्रत है। उस व्रत में पृथ्वीकायिक जीव असंख्यातासंख्यात, जलकायिक जीव असंख्यातासंख्यात, तैजस / अग्निकायिक जीव असंख्यातासंख्यात, वायुकायिक जीव असंख्यातासंख्यात, वनस्पतिकायिक जीव अनन्तानन्त हरित, सचित्त बीज, अंकुर, इनका छेदन - भेदन, उत्तापन, परितापन, विराधन, उपघात मैंने किया हो अथवा कराया हो अथवा करने वाले की अनुमोदना की हो, उस संबंधी मेरे सभी पाप मिथ्या होवें।
दो इन्द्रिय जीव असंख्यातासंख्यात कुक्षि, कृमि / लट, शंख, क्षुल्लक, बाला, वराटक या कौड़ी, अक्ष बाल जाति का विशेष जन्तु, छोटा शंख, सीप, पुलविक अर्थात् पानी के जोंक इनको उत्तापन, परितापन, विराधन, उपघातन मैंने किया हो अथवा कराया हो अथवा करने वाले की अनुमोदना की हो, तत्संबंधी मेरे दुष्कृत्य मिथ्या हों ।
कुन्थु अर्थात् सूक्ष्म अवगाहना धारक कुन्थु जीव, देहिक, बिच्छू, गोभिद, गो, जूँ अर्थात् भैंस आदि के स्तनादि पर लगा रहने वाला “जूँ”, खटमल, चींटी आदि असंख्यातासंख्यात तीन इन्द्रिय जीव उनका उत्तापन, परितापन, विराधन, उपघात मैंने किया हो अथवा दूसरों से करवाया हो अथवा करने वाले की अनुमोदना की हो, तो तत्संबंधी दुष्कृत मेरे मिथ्या होवें ।
असंख्यातासंख्यात डांस-मच्छर-मक्खी-पतंगा-कीड़ा-भौंरामधुमक्खी-गोमक्षिका आदि चतुरिन्द्रिय जीव इनका उत्तापन, परितापन, विराधन, उपघात मैंने किया हो अथवा कराया हो अथवा करते हुए की अनुमोदना की हो, तत्सम्बन्धी दुष्कृत / खोटे कार्य मेरे मिथ्या होवें।
- असंख्यातासंख्यात पंचेन्द्रिय जीव अण्डज, पोतज, जरायुज, रस से उत्पन्न होने वाले संस्वेदिम, संमूर्च्छन, उद्भेदिय, उपपाद जन्म से उत्पन्न देवनारकी और भी चौरासी लाख योनियों में प्रमुख पञ्चेन्द्रिय जीव इनका उत्तापन, परितापन, विराधन, उपघात मैंने किया हो अथवा कराया हो अथवा करते हुए की अनुमोदना की हो, तत्संबंधी मेरे दुष्कृत मिथ्या हों। (द्वितीय सत्य महाव्रत के दोषों की आलोचना)
अहावरे दुव्वे महव्वदे मुसावादादो वेरमणं से कोहेण वा, माणेण वा, मायाए वा, लोहेण वा, राएण वा, दोसेण वा, मोहेण वा, हस्सेण वा, भयेण वा, पदोसेण वा, पमादेण वा, पेम्मेण वा, पेम्मेण वा, पिवासेण वा, लज्जेण वा, गारवेण वा, अणादरेण वा, केण - वि - कारणेण जादेण वा, सव्वो मुसावादो भासिओ, भासाविओ, भासिज्जंतो वि समणुमण्णिदो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं ||2|| -
अब अन्य दूसरे महाव्रत में मृषावाद / असत्य भाषण का त्याग करता हूँ। वह असत्यभाषण क्रोध से अथवा मान से अथवा माया से अथवा लोभ से अथवा राग से अथवा द्वेष से अथवा मोह से अथवा हास्य से अथवा भय से या प्रदोष से या प्रमाद से या प्रेम / स्नेह से या पिपासा से या लज्जा से या गौरव से, अनादर से या किसी भी कारण से उत्पन्न होने पर अथवा असत्य भाषण बोला हो, बुलवाया हो, असत्य भाषण बोलने वालों की अनुमोदना की हो, तो तत्संबन्धी मेरे सभी दुष्कृत / पाप मिथ्या हों ।। 2 ।। (तीसरे अचौर्य महाव्रत के दोषों की आलोचना)
अहावरे तव्वे महव्वदे अदिण्णा-दाणादो वेरमणं से गामे वा, णयरे वा, खेडे वा, कव्वडे वा, मडवे ( मंडवे) वा, मंडले वा, पट्टणे वा, दोणमुहे वा, घोसे वा, आसमे वा, सहाए वा, संवाहे वा, सण्णिवेसे वा, तिण्हं वा, कट्टं वा, वियडिं वा, मणि वा, एवमाइयं अदिण्णं गिहियं, गेण्हावियं, गेण्हिज्जंत वि समणुमण्णिदो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं ।।3।।
अब अन्य तीसरे अदत्तादान से विरक्त होता हूँ अर्थात् तीसरे महाव्रत में, उस महाव्रत में वस्तु के स्वामी या किसी के द्वारा नहीं दी गई वस्तु का ग्रहण करने से विरक्त होना चाहिये । वह अदत्तादान ग्राम में या नगर में या खेट में या कर्वट में या मटंब में या मंडल में या पत्तन में या द्रोणमुख में या घोस में या आश्रम में या सभा में या संवाह में या सन्निवेश में, तृण ग्रहण में या काठ के ग्रहण में हुआ हो या विकृति में हुआ हो, मणि आदि के ग्रहण में हुआ हो, इस प्रकार बिना दी गई वस्तु को ग्रहण किया हो, ग्रहण कराया हो, ग्रहण करते हुए की अनुमोदना की हो, तत्संबंधी मेरे दुष्कृत मिथ्या हों। (चतुर्थ ब्रह्मचर्य महाव्रत के दोषों की आलोचना)
अहावरे चउत्थे महव्वदे मेहुणादो वेरमणं से देविएसु वा, माणुसिएसु वा, तेरिच्छिएसु वा, अचेयणिएसु वा, मणुण्णामणुण्णेसु रूवेसु, मणुण्णामणुण्णेसु सद्देसु, मणुण्णामणुण्णेसु गंधेसु, मणुण्णामणुण्णेसु रसेसु, मणुण्णामणुण्णेसु फासेसु, चक्खिदिय-परिणामे, सोदिंदियपरिणामे, घाणिंदिय- परिणामे, जिब्धिंदिय परिणामे, फासिंदिय परिणामे, णो-इंदिय-परिणामे, अगुत्तेण अगुत्तिंदिएण, णवविहं बंभचरियं, ण रक्खियं, ण रक्खावियं, ण रक्खिज्जंतो वि समणुमण्णिदो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं ।।4।।
अब अन्य चौथे महाव्रत में मैथुन से विरक्त होना चाहिये। उस ब्रह्मचर्य महाव्रत में देवियों के या तिर्यंचनियों के या अचेतन स्त्रियों के या मनोज्ञअमनोज्ञ रूपों में, मनोज्ञ-अमनोज्ञ शब्दों में, मनोज्ञ-अमनोज्ञ गंधों में, मनोज्ञअमनोज्ञ रसों में, मनोज्ञ - अमनोज्ञ स्पर्श में, चक्षु इन्द्रिय के परिणाम में, श्रोत्रेन्द्रिय परिणाम में, घ्राण इन्द्रिय के परिणाम में, जिह्वा इन्द्रिय के परिणाम में, स्पर्शन इन्द्रिय के परिणाम में, नो इंद्रिय के परिणाम में मन-वचन-काय का संवरण न कर और इन्द्रियों को वश में न रखकर मैंने जो नौ प्रकार के ब्रह्मचर्य की रक्षा नहीं की हो, न रक्षा कराई हो और न रक्षा करने वालों की सम्यक् प्रकार अनुमोदना की हो, उस नव प्रकार के ब्रह्मचर्य के रक्षण संबंधी मेरा दुष्कृत मिथ्या हो । -
( पंचम अपरिग्रह महाव्रत के दोषों की आलोचना)
अहावरे पंचमे महव्वदे परिग्गहादो वेरमणं सो वि परिगहो दुविहो अब्भंतरो बाहिरो चेदि । तत्थ अब्भंतरो परिग्गहो णाणावरणीयं, दसणावरणीयं, वेयणीयं, मोहणीयं, आउग्गं, णामं, गोदं, अंतरायं चेदि अट्टविहो । तत्थ बाहिरो परिग्गहो-उवयरण- भंड- फलह- पीढकमण्डलु - संथार- सेज्ज- उवसेज्ज, भत्तपाणादि-भेदेण अणेयविहो, एदेण परिग्गहेण अट्टविहं कम्मरयं बद्धं, बद्धावियं, बज्झन्तं वि समणुमण्णिदो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं ॥5॥ -
अब अन्य पाँचवें परिग्रह त्याग महाव्रत में परिग्रह से विरक्त / विरमण करना चाहिये। वह परिग्रह भी दो प्रकार का है- आभ्यंतर और बाह्य इस प्रकार। उस दो प्रकार के परिग्रह के मध्य आभ्यंतर परिग्रह-ज्ञान का आवरण करने वाला ज्ञानावरणी है, दर्शन का आवरण करने वाला दर्शनावरणीय है, सुख-दुख का वेदन कराने वाला वेदनीय है, मोहित करने वाला कर्म मोहनीय है, नरक - तिर्यंच आदि भवों को प्राप्त कराने वाला आयु कर्म, जो आत्मा को नमाता है वह नाम कर्म है, उच्च-नीच कुल में उत्पन्न करने वाला गोत्र कर्म है और जो दाता और पात्र के बीच में आ जाता है वह अन्तराय कर्म है इस प्रकार आठ प्रकार के उन दोनों परिग्रहों के मध्य में बाह्य परिग्रह उपकरण उपकरण दो प्रकार के हैं-ज्ञानोपकरण और संयमोपकरण । ज्ञानोपकरण पुस्तकादि और संयमोपकरण पिच्छिका आदि। भाजन-औषध, तैल आदि द्रव्य के भाजन, फलक-सोने के लिये पाय रहित फड काष्ठ आदि बैठने का पाटा, चौकी आदि, कमण्डलु, काष्ठ-तृण आदि का संस्तर, शय्या, वसतिका, उपशय्या देवकुलिका आदि, चावल आदि भोजन तथा दूध, छाछ आदि पेय पदार्थ आदि भेद से परिग्रह अनेक प्रकार का है। इस प्रकार पूर्व में कथित प्रकार से परिग्रह आठ प्रकार का कर्म है, वह कर्म ही शुद्धात्मस्वरूप की प्राप्ति में मलिनता का हेतु होने से रज है, उस कर्म रज को प्रकृति, प्रदेश आदि रूप मैंने स्वयं बाँधा हो, अन्य से बँधवाया हो और बाँधते हुए अन्य की अनुमोदना की हो, उस बाह्यअभ्यंतर परिग्रह से उपार्जित मेरा दुष्कृत पाप मिथ्या हो ।
(छठा अणुव्रत रात्रि भोजन सम्बन्धी दोषों की आलोचना)
अहावरे छट्टे अणुव्वदे राइ-भोयणादो वेरमणं से असणं, पाणं, खाइयं, रसाइयं चेदि । चउव्विहो आहारो से तित्तो वा, कडुओ वा,
कसाइलो वा, अमिलो वा, महुरो वा, लवणो वा, अलवणो वा, दुच्चिंतिओ, दुब्भासिओ, दुप्परिणामिओ, दुस्समिणिओ, रत्तीए भुत्तो, भुंजावियो, भुंज्जिजंतो वि समणुमण्णिदो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं ।।6।। अब षष्ठम अणुव्रत में रात्रि भोजन से विरक्ति है। इस रात्रिभोजनत्याग अणुव्रत में प्राणातिपात हिंसा आदि के समान पूर्णरूप से विरति का अभाव है। यहाँ रात्रि में ही भोजन से निवृत्ति है, दिन में नहीं, यथाकाल भोजन में प्रवृत्ति संभव होने इसे रात्रि भोजन त्याग अणुव्रत कहते हैं। जिस आहार की अपेक्षा रात्रि में भोजन का त्याग होता है, वह चार प्रकार का आहार है। भात, दाल आदि अन्न अशन है, दूध - छाछ आदि पान है, खाद्य-लड्डू आदि और स्वाद्य - रुचि उत्पादक सुपारी, इलायची इस प्रकार । वह चार प्रकार का आहार चरपरा आहार या कड़वा आहार या कषैला आहार या खट्टा आहार या मधुर आहार या लवण या क्षार आहार या अलवण रूप होता है अथवा वह चार प्रकार का आहार खाने-पीने योग्य नहीं होने पर भी खाने-पीने योग्य है ऐसा अशुभ चिंतन किया हो, अयोग्य आहार को भी यह खाने योग्य है, इसे खावें ऐसा कहा गया हो, अयोग्य आहार को मन के द्वारा ग्रहण करने की स्वीकारता दी हो, स्वप्न में खाया हो, रात्रि में खाया हो, दूसरों को खिलाया हो अथवा अन्य रात्रि में खाने वालों की सम्यक् प्रकार से अनुमोदना की हो, इस प्रकार उस रात्रिभोजन त्याग संबंधी मेरे दुष्कृत / पाप मिथ्या हों । ( पाँच समिति के अन्तर्गत ईर्या-समिति सम्बन्धी दोषों की आलोचना)
पंचसमिदीओ, इरियासमिदी, भासासमिदी, एसणासमिदी, आदाण-णिक्खेवणसमिदी, उच्चार-पस्सवण- खेल - सिंहाणयवियडि - पइट्ठावण-समिदी चेदि । -
तत्थ इरियासमिदी पुव्वुत्तर-दक्खिण - पच्छिम चउदिसि, विदिसासु, विहर-माणेण, जुगंतर- दिट्ठिणा, भव्वेण दट्ठव्वा । डवडव-चरियाए, पमाद - दोसेण, पाण-भूद - जीव-सत्ताणं, उवघादो, कदो वा, कारिदो वा, कीरंतो वा, समणुमण्णिदो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं ।।7।।
" समितियाँ पाँच हैं- ईर्यासमिति, भाषा-समिति, एषणा समिति, आदाननिक्षेपण-समिति और उच्चार प्रस्तवण-क्ष्वेल- सिंहाण - विकृतिप्रतिष्ठापना समिति, उन पाँच समितियों में ईर्यासमिति- प्राणी पीड़ा के परिहार के लिये विवेकपूर्वक प्रवृत्ति । इस ईर्यासमिति में पूर्व और उत्तर, दक्षिणपश्चिम चार दिशाओं में चार विदिशाओं वायव्य, ईशान, नैऋत्य और आग्नेय, इनमें विहार करते हुए मुझको चार हाथ प्रमाण सामने भूमि को देखकर चलना चाहिये, किन्तु इस ईर्यासमिति में सावधान न रहकर प्रमादवश अति जल्दी ऊपर मुख करके इधर-उधर गमन करते हुए विकलेन्द्रिय जीव, वनस्पतिकायिक जीव, पञ्चेन्द्रिय जीव, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायुकायिक जीवों का एकदेश या पूर्ण घात मैंने स्वयं किया हो या कराया हो अथवा करते हुए की अनुमोदना की हो, उस ईर्यासमिति संबंधी मेरे पाप मिथ्या हों। (भाषा - समिति सम्बन्धी दोषों की आलोचना) - - - -
तत्थ भासासमिदी कक्कसा, कडुवा ( कडुआ), परुसा, णिट्टरा, परकोहिणी, मज्झंकिसा, अइ-माणिणी, अणयंकरा, छेयंकरा, भूयाण-वहंकरा चेदि । दसविहा भासा, भासिया, भासाविया, भासिज्जंतो वि समणुमण्णिदो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं ।।8।।
- उनमें भाषा-समिति दस प्रकार की है। उन्हीं दस भेदों को कर्कश आदि रूप में आगे कहा जाता है- कर्कश - सन्ताप उत्पन्न करने वाली भाषा कर्कशा / कक्कसा कहलाती है, जैसे-तू मूर्ख है, कुछ नहीं जानता है, इस प्रकार बोलना । कटुक - दूसरों के मन में उद्वेग करने वाली भाषा है, जैसे-तू जातिहीन है, तू अधर्मी, धर्महीन, पापी है इत्यादि वचन कहना। परुषा अर्थात् कठोर वाणी, मर्मभेदी वचन, जैसे-तू अनेक दोषों से दूषित है इत्यादि । निष्ठुर भाषा जैसे-तुझे मारूँगा, तेरा शिर काट लूँगा इत्यादि वचन । परकोपिनीदूसरों को रोष उत्पन्न करने वाली परकोपिनी भाषा है, जैसे-तेरा तप किसी काम का नहीं है, तू हँसी का पात्र है, निर्लज्ज है, इत्यादि वचन । मध्यंकृशा भाषा - इतनी निष्ठुर, कठोर भाषा जो हड्डियों का मध्यभाग भी छेद दे। अतिमानिनी भाषा-स्वप्रशंसा और परनिंदा कर अपने महत्त्व को प्रसिद्ध करने वाली भाषा। अनयंकरी भाषा - समान स्वभाव वालों में विच्छेद कराने वाली या परस्पर मित्रों में द्वेष, विरोध उत्पन्न करने वाली भाषा । छेदंकरी भाषा वीर्य, शील आदि गुणों को जड़ से नाश करने वाली अथवा असद्भूतदोष अर्थात् जो दोष -
नहीं हैं, उन्हें प्रकट करने वाली भाषा और जीवों की वधकारी भाषा-जीवों के प्राणों का वियोग करने वाली भाषा इस प्रकार दस प्रकार की भाषाएँ स्वयं बोली हों, दूसरों से बुलवाई हों, बोलते हुए दूसरों की मैंने अनुमोदना भी की हो, उस भाषा समिति सम्बन्धी मेरे दुष्कृत / पाप मिथ्या हों ।
(एषणा - समिति संबंधी दोषों की आलोचना ) -
तत्थ एसणासमिदी अहाकम्मेण वा, पच्छाकम्मेण वा, पुराकम्मेण वा, उद्दिट्ठयडेण वा, णिद्दिट्ठियडेण वा, कीडयडेण वा, साइया, रसाइया, संड्गाला, सधूमिया, अइगिद्धीए, अग्गीव, छण्हं जीवणिकायाणं, विराहणं, काऊण, अपरिसुद्धं, भिक्खं, अण्णं, पाणं, आहारियं, आहारावियं, आहारिज्जंतं वि समणुमण्णिदो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं ।।9।। -
उद्गमादि दोषों से रहित योग्य निर्दोष आहार को ग्रहण करना यह एषणा-समिति है। इसके विपरीत जो अशुद्ध आहार है, वह मुनियों को ग्रहण नहीं करना चाहिये। आहार में अशुद्धता संबंधी दोष कैसे होते हैं, उसी को आगे कहते हैं- अध:कर्म से अर्थात् पृथ्वी आदि छः जीवनिकाय की विराधना करके बनाये गये आहार से या पश्चात् कर्म अर्थात् मुनि के आहार करके जाने के बाद पुनः भोजन बनाने से या पुराकर्म अर्थात् मुनि ने आहार नहीं किया उसके पहले पाकादि क्रिया प्रारंभ करने से अथवा उद्दिष्टकृत अर्थात् मुनि को उद्देश्य करके उनका संकल्प करके जो भोजन बनाया अथवा देवता, पाखण्डी आदि का उद्देश्य करके जो भोजन बना है, उसके ग्रहण से अथवा निर्दिष्टकृत अर्थात् आपके लिये यह भोजन बनाया है, ऐसा कहने पर ग्रहण करने से क्रीत दोष से बनाये भोजन को ग्रहण करने से । स्वादिष्ट रसयुक्त / रसीले अति आसक्ति से ग्रहण किये गये दातार
आदि की निन्दा करते हुए अति गृद्धता अर्थात् लालसापूर्वक अग्नि की तरह छह प्रकार के जीवनिकाय के समूह की विराधना करके सदोष, अयोग्य भिक्षा में अन्न-पान रूप आहार भोजनादि को स्वयं ग्रहण किया हो, दूसरे को कहकर आहार ग्रहण कराया हो और आहार करते हुए की भी अनुमोदना की हो, उस एषणा-समिति सम्बन्धी दुष्कृत मेरे मिथ्या हों ।
( आदाननिक्षेपण - समिति सम्बन्धी दोषों की आलोचना)
तत्थ आदाण-णिक्खेण-समिदी चक्कलं वा फलहं वा, पोत्थयं वा, पीढं वा, कमण्डलुं वा, वियडिं वा, मणिं वा, एवमाइयं, उवयरणं, अप्पडिलेहिऊण-गेण्हंतेण वा, ठवंतेण वा, पाण- भूदजीव-सत्ताणं, उवघादो, कदो वा, कारिदो वा, कीरंतो वा,
समणुमण्णिदो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं ||10|| उन पाँच समितियों में चतुर्थ आदाननिक्षेपण - समिति में चक्कल या निर्दोष, जीवहिंसा रहित बैठने के लिए फलक / पाट अथवा ज्ञान का उपकरण शास्त्र या आसन या शौच उपकरण कमण्डलु या विकृति - मलादि रूप विकार या मणि अर्थात् मणि आदि की जपमाला या इत्यादि वस्तु रूप उपकरणों को पिच्छि आदि के द्वारा प्रतिलेखना न करके उठाते हुए या धरते हुए मैंने प्राण, भूत, जीव और सत्व का उपघात स्वयं किया हो या दूसरों से कराया हो अथवा करते हुए की अनुमोदना की हो तो उस आदाननिक्षेपण-समिति दुष्कृत / पाप मिथ्या हों । संबंधी मेरे
( प्रतिष्ठापन समिति सम्बन्धी दोषों की आलोचना) -
तत्थ उच्चार-पस्सवण- खेल - सिंहाणय-वियडि - पट्ठावणिया समिदी रत्तीए वा, वियाले वा, अचक्खुविसए, अवत्थंडिले, अब्भोवयासे, सणिद्धे, सवीए, सहरिए, एवमाइयासु, अप्पासु गट्ठाणेसु, पइट्ठावंतेण, पाण- भूद - जीव- सत्ताणं, उवघादो, कदो वा, कारिदो वा, कीरंतो वा, समणुमण्णिदो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं ।।11।।
उन समितियों में प्राणी पीड़ा परिहार रूप प्रतिष्ठापना समिति में उच्चार, प्रस्रवण, क्ष्वेल, सिंहाणक, विकृति इन वस्तुओं के त्यागने में प्रमादवश रात्रि में या संध्या काल में या चक्षु से देखने में न आवे, ऐसे असंस्कारित या संस्कारित अप्रासुक उच्च भूमि प्रदेश में या नीच अप्रासुक भूमि प्रदेश में अभ्रावकाश-पानी वृक्ष आदि से अप्रच्छादित अप्रासुक खुले आकाश प्रदेश। यह उपलक्षण मात्र है, इससे वृक्षादि से अप्रच्छादित और अप्रासुक खुले स्थान का ही ग्रहण होता है, उसमें स्निग्ध- आर्द्र, कोमल भूमि प्रदेश में, बीज सहित हरितकाय युक्त भूमि प्रदेश में, अप्रासुक भूमि प्रदेशों में मल-मूत्र आदि का क्षेपण करते हुए मैंने विकलेन्द्रिय, वनस्पतिकायिक, पञ्चेन्द्रिय और पृथ्वी, जल, अग्नि, वायुकायिक जीवों का उपघात किया हो —
या कराया हो अथवा करते हुए की अनुमोदना की हो, तो उस प्रतिष्ठापनासमिति सम्बन्धी मेरे पाप मिथ्या हों ।
( मनगुप्ति सम्बन्धी दोषों की आलोचना)
तिण्णि-गुत्तीओ मण-गुत्तीओ, वचि-गुत्तीओ, काय-गुत्तीओ चेदि । तत्थ मण-गुत्ती, अट्टे झाणे, रुद्दे झाणे, इह- लोय-सण्णाए, पर - लोए - सण्णाए, आहारसण्णाए, भय - सण्णाए, मेहुण-सण्णाए, परिग्गह-सण्णाए, एवमाइयासु जा मण- गुत्ती, ण रक्खिया, ण रक्खाविया, ण रक्खिज्जंतं वि समणुमण्णिदो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं ।।12।। -
गुप्तियाँ तीन हैं- मनगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति इस प्रकार | मन, वचन, काय इन योगों को सम्यक् प्रकार से निग्रह करना गुप्ति है। उन तीन गुप्तियों में प्रथम मनगुप्ति का आर्त्तध्यान में, रौद्र ध्यान में, इस लोक संबंधी आहार आदि संज्ञा में, परलोक संबंधी सुखादि की अभिलाषा में, आहार की वाञ्छा में, भय संज्ञा में, मैथुन संज्ञा में और परिग्रह संज्ञा में, इस प्रकार इहलोक संज्ञा, परलोक संज्ञा आदि के विषयों में जो मनगुप्ति का मैंने रक्षण नहीं किया हो, रक्षण नहीं कराया हो और रक्षण नहीं करने वालों की अनुमोदना भी की हो, तो मनगुप्ति सम्बन्धी मेरे दुष्कृत मिथ्या हों ।
(वचनगुप्ति संबंधी दोषों की आलोचना)
तत्थ वचि-गुत्ती इत्थि- कहाए, अत्थ- कहाए, भत्त- कहाए, राय - कहाए, चोर-कहाए, चोर-कहाए, वेर- कहाए, परपासंड-कहाए, एवमाइयासु जा वचि-गुत्ती, ण रक्खिया, ण रक्खाविया, ण रखिज्जंतं वि समणुमण्णिदो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं ।।13।।
उन तीन गुप्तियों में विकथा के विषय में वचनों का गोपन / रक्षण करना वचनगुप्ति है तथा उत्सूत्र अर्थात् आगमविरुद्ध भाषा का रोकना तथा गृहस्थों जैसी व्यर्थ भाषा को रोकना या मौन रहना वचन - गुप्ति है । किन-किन विकथाओं में वचन का रक्षण करना चाहिये, उसी को आगे कहते हैं। स्त्री कथा में-उन स्त्रियों के नयन, नाभि, नितम्ब आदि के वर्णन रूप कथा में, धन के उपार्जन, रक्षण आदि के कथन रूप अर्थकथा में, भोजन का वर्णन करने रूप भक्त कथा में, राजा की कथा रूप राजकथा में चोरों का वर्णन करने वाली चोर कथा में और विद्वेष या बैर बढ़ाने वाली बैर कथा में, दूसरे
कुलिंगी, मिथ्यादृष्टियों की चर्चा या कथन करने रूप परपाखंड कथा इस प्रकार की कथाओं में जो वचनों का गोपन, वचनों का रक्षण स्वयं मैंने नहीं किया हो, दूसरों से रक्षण नहीं कराया हो, वचनगुप्ति का रक्षण नहीं करने वालों की अनुमोदना की हो तो उस वचन - गुप्ति सम्बन्धी मेरे दुष्कृत मिथ्या हों।
( कायगुप्ति संबंधी दोषों की आलोचना )
तत्थ काय - गुत्ती चित्त-कम्मेसु वा, पोत्त-कम्मेसु वा, कट्ठकम्मेसु वा, लेप्प-कम्मेसु वा, लय-कम्मेसु वा, एवमाझ्यासु जा कायगुत्ती, ण रक्खिया, ण रक्खाविया, ण रक्खिज्जंतं वि समणुमण्णिदो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं ॥14॥
चित्र आदि स्त्रियों के रूप आदि में अपने हाथ-पैरों का रक्षण करना तथा अपने हाथ-पैर आदि की यथेष्ट प्रवृत्ति रोकना कायगुप्ति है। चेतन स्त्री के रूप आदि में तो ब्रह्मचर्य व्रत होने से काय - गुप्ति सिद्ध ही है, अचेतन के विषय में किस-किस में काय का गोपन करना चाहिये उसे आगे कहते हैंकार्यों में अर्थात् स्त्री की फोटो आदि में अथवा पुस्तकर्म अर्थात् ग्रंथलेखन कार्यों में अथवा काष्ठ की बनी पुत्तलिका आदि कार्यों में, लेपकर्म संबंधी कार्यों में या लयन कर्म में इस प्रकार स्त्री के प्रतिबिंब आदि में मैंने जो कायगुप्ति का रक्षण स्वयं नहीं किया हो, कायगुप्ति का रक्षण नहीं कराया हो और संरक्षण नहीं करने वालों की भी अनुमोदना की हो, उस कायगुप्ति संबंधी मेरे दुष्कृत मिथ्या हों। " -
(आलोचनाओं का उपसंहार तथा कालाकांक्षा संबंधी विवेचन)
- दोसु अट्ट - रुद्द - संकिलेस - परिणामेसु, तीसु अप्प-सत्थसंकिलेस-परिणामेसु, मिच्छाणाण-मिच्छादंसण-मिच्छाचरित्तेसु, चउसु उवसग्गेसु, चउसु सण्णासु, चउसु पच्चएसु, पंचसु चरित्तेसु, छसु जीव-णिकाएसु, छसु आवासएसु, सत्तसु भयेसु, अट्ठसु सुद्धीसु, णवसु बंभचेर - गुत्तीसु, दससु समण - धम्मेसु, दससु धम्मज्झाणेसु, दससु मण्डेसु, बारसेसु संजमेसु, बावीसाए परीसहेसु, पणवीसाए भावणासु, पणवीसाए किरियासु, अट्ठारस - सील - सहस्सेसु, चउरासीदि-गुणसय-सहस्सेसु, मूलगुणेसु उत्तरगुणेसु, ( अट्टमियम्मि) अदिक्कमो (अदिक्कम्मो), वदिक्कमो ( वदिक्कम्मो), अइचारो, अणाचारो, -
आभोगो, अणाभोगो जो तं पडिक्कमामि । मए पडिक्कंतं तस्स मे
सम्मत्तमरणं, पंडियमरणं, वीरिय-मरणं, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइ-गमणं, समाहि-मरणं, जिणगुण-सम्पत्ति होदु मज्झं । दो भेद रूप आर्त्त रौद्र संक्लेश परिणाम, माया, मिथ्या, निदान रूप तीन अप्रशस्त संक्लेश परिणामों में, मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्रों में, चार प्रकार के उपसर्गों में, चार प्रकार की संज्ञाओं में, चार प्रकार के आस्रवों में, पाँच प्रकार के चारित्रों में, छह प्रकार के जीवों के समूह में, छह प्रकार के आवश्यकों में, सात प्रकार के भयों में, आठ प्रकार की शुद्धियों में, नव-प्रकार की ब्रह्मचर्य गुप्तियों में, दस प्रकार के श्रमण धर्मों में, दस प्रकार के धर्मध्यानों में, दस प्रकार के मुंडों में, बारह प्रकार के संयमों में, बावीस प्रकार के परीषहों में, पच्चीस प्रकार की भावनाओं में, पच्चीस प्रकार की क्रियाओं में, अठारह हजार शीलों में, चौरासी लाख गुणों में, मूलगुणों में, उत्तरगुणों में, आठ दिनों में, एक पक्ष में, चातुर्मास में, एक वर्ष में, अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार, आभोग, अनाभोग जो हुआ, उसका मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। व्रत संबंधी दोषों का प्रतिक्रमण मेरे द्वारा किया गया। मेरा सम्यक्मरण हो, पंडित मरण हो, वीर मरण हो, दुःखों का क्षय हो, कर्मों का क्षय हो, बोधिलाभ हो, सुगति में गमन हो, समाधिमरण हो, जिनेन्द्र गुणों की सम्पत्ति मुझे प्राप्त हो ।
(इदि चारित्त भत्ति )