1.श्री आदिनाथ विधान
1.श्री आदिनाथ विधान
श्री आदिनाथ विधान
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(स्थापना)
(दोहा)
भूत भविष्यत् आज भी, आदिप्रभु का नाम ।
खुशियाँ दे कमियाँ हरे, अतः नमन अविराम ।।
(शुद्ध गीता )
जिन्हें सुर नर सभी पूजें, जिन्हे ऋषि संत ध्याते हैं ।
जिन्हें मन में वसा करके, भगत भव पार जाते हैं ।।
जिन्होंने एक झटके में, कथा संसार की त्यागी ।
उन्हीं की अर्चना करने, विनत हम हैं चरण रागी ।।
मरुदेवी के नन्दन वो, वही नाभि के लाला हैं।
प्रथम जिनका मिला दर्शन, जिन्होंने धर्म पाला है ।।
पतित भव्यों के जो स्वामी, जिन्होंने कर्म तोड़े हैं।
उन्हीं की वन्दना करने, भगत ने हाथ जोड़े हैं ।।
(दोहा)
आदि ब्रह्म आदीश हैं, आदिनाथ भगवान् ।
हृदय हमारे आइए, हम पूजें धर ध्यान ||
ॐ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् इति आह्वानम् ।
ॐ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनाम् ।
ॐ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम् ।
( पुष्पांजलिं....... )
सभी मानव यहाँ रोगी, दुखी संसार के जल से ।
करो नीरोग हम सबको, तुम्हें हम पूजते जल से ।।
प्रभो! आदीश की चर्या, करें हम आज तन-मन से ।
सुनो ! अब प्रार्थना स्वामी, हरो संकट भगत् जन के ।।
ॐ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्युविनाशनाय जलं.....
जलाता ताप भव का फिर, नमक भी घाव पर छिड़के।
तुम्हारी भक्ति का चन्दन, हरे भव ताप बढ़चढ़ के ||
प्रभो! आदीश की अर्चा, करें हम आज तन-मन से ।
सुनों! प्रार्थना स्वामी, हरो संकट भगत् जन के ।।
ॐ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय संसार-तापविनाशनाय चंदनं...... |
सभी संसार के पद तो, दिये आपद घमाते हैं ।
मिटें आपद बनें अक्षय, तुम्हें तंदुल चढ़ाते हैं ।।
प्रभो! आदीश की अर्चा, करें हम आज तन-मन से ।
सुनों! प्रार्थना स्वामी, हरो संकट भगत् जन के ।।
ॐ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान्..... ।
सुगन्धी काम की पाके, भ्रमर बन मर रहे प्राणी ।
तुम्हारे चरण का सौरभ, हरे दुर्वेदना-कामी ।।
प्रभो! आदीश की अर्चा, करें हम आज तन-मन से
। सुनों! प्रार्थना स्वामी, हरो संकट भगत् जन के ।।
ॐ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं.... |
सभी पापों की जड़ रसना, रिसाने की तमन्ना है।
तुम्हें नैवेद्य कर अर्पण, हमें तुमसा ही बनना है ।।
प्रभो! आदीश की अर्चा, करें हम आज तन-मन से ।
सुनों! प्रार्थना स्वामी, हरो संकट भगत् जन के ।।
ॐ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं.... |
अँधेरा टिक नहीं सकता, तुम्हारा नाम सुन करके ।
करो रोशन हमारा मन, उतारे आरती झुक के ।।
प्रभो! आदीश की अर्चा, करें हम आज तन-मन से ।
सुनों! प्रार्थना स्वामी, हरो संकट भगत् जन के ।।
ॐ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं..... ।
जलायें धूप कर्मों की, चढ़ायें धूप जो स्वामी ।
वही चमकें वही महकें, वसो जिसके हृदय स्वामी ।।
प्रभो! आदीश की अर्चा, करें हम आज तन-मन से ।
सुनों ! प्रार्थना स्वामी, हरो संकट भगत् जन के ।।
ॐ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं..... ।
विषैले फल सभी जग के, सुधा कह खा रहे हम तो ।
प्रभु ! विष वेदना हरलो, चढ़ा हम फल रहे तुमको ||
प्रभो! आदीश की अर्चा, करें हम आज तन-मन से ।
सुनों ! प्रार्थना स्वामी, हरो संकट भगत् जन के ।।
ॐ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं..... । ।
मिलाकर आठ द्रव्यों को बनाया अर्घ्य मनहारी ।
बिठा दो आठवी भू पर, नशें दुख द्वन्द्व दुखकारी ।।
प्रभो! आदीश की अर्चा, करें हम आज तन-मन से ।
सुनों! प्रार्थना स्वामी, हरो संकट भगत् जन के ।।
ॐ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं .... |
श्री पंचकल्याणक अर्घ्य
(दोहा)
दोज कृष्ण आषाढ़ को, सर्वारथ सुर त्याग ।
गर्भ वसे मरुमात के, 'जिन' से है अनुराग ।।
ॐ ह्रीं आषाढ़ कृ ष्णद्वितीययायां गर्भङ्गलमण्डिताय श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं .... | ।
नाभिराय के आँगने, जन्म लिये भगवान्
चैत्र कृष्ण नवमी हुयी, जग में पूज्य महान् ।।
ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णनवम्यां जन्ममङ्गलमण्डिताय श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं..... ।
चैत्र श्याम नवमी दिना, बने दिगम्बर नाथ |
मोह तजा आतम भजा, जिन्हें नमें नत माथ ||
ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णनवम्यां तपोमङ्गलमण्डिताय श्रीवृषभनाथजिनेन्द्रायअर्घ्यं..... ।
ग्यारस फाल्गुन कृष्ण में, घातिकर्म सब नाश ।
बने केवली लोक से, नम्र हुआ बन दास ।।
ॐ ह्रीं फाल्गुन कृष्ण एकादश्यां ज्ञानमङ्गलमण्डिताय श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं ..... । -
माघ कृष्ण चौदश दिना, हरे कर्म का भार ।
हिमगिरि से शिवपुर गये, हम पाये त्यौहार ।।
ॐ ह्रीं माघकृष्णचतुर्दश्यां मोक्षमङ्गलमण्डिताय श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं..... ।
जयमाला
गुण-गण पहचानते, वे गाते गुण गीत।
गुण-गण को पहचानने, आदि प्रभु मनमीत ।।
(सखी)
जय आदिनाथ जिन स्वामी, जय सुखदाता शिवधामी ।
जय गीत गान की गाथा, जश् धर्म कथा वरदानी ॥ 1 ॥
जब दुनियाँ भटक रही थी, भोगों को गटक रही थी ।
जब कल्पवृक्ष ना पाये, तो गम में मटक रही थी । ॥ 2 ॥
जब चारों ओर अँधेरा, पग-पग पर दुख का डेरा ।
जब जीवन की नैया को, भव-तूफानों ने घेरा।।3।।
तब ही जिनवर तुम आये, जीवों को धैर्य दिलाये ।
षट्कर्मों को बतला के, हितपथ दे दीप जलाये । ॥ 4 ॥
तुमने सबसे पहले ही, जिन धर्म ध्वाजा फहरायी ।
तब ही तुम प्रथम जिनेशा, हो हम सबको सुखदायी ।।5।।
फिर अंक और अक्षर की, निज बिटियों को दी शिक्षाद्ध
कृषि करो सभी जन अथवा, ऋषि बनो भजो लो दीक्षा || ||
यों शिक्षा देकर ले ली, जिन- दीक्षा पाप हरण को ।
दे मोक्षमार्ग की शिक्षा, सज बैठे मुक्ति वरण को ।।7।।
मुक्ति से ब्याह रचाकर, शिव मोक्ष राज्य को पाये ।
हम चलें आपके पथ पर, सो पूजन पाठ रचायें ।।8।।
हम पूजन पाठ न जानें, नहि भक्ति भाव पहचानें ।
'सुव्रत' हैं भक्त निराले, बस शीश झुकाना जानें । ॥ 9 ॥
शीश झुके तो ईश का, नहीं दूर शिवधाम ।
तभीकरें आदीश को, शत-शत नम्र प्रणाम ।।
ॐ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णा .... ।
आदिनाथ स्वामी करें, विश्वशांति कल्याण |
प्रासुक जल की धार दे, हम पूजत भगवान् ।।
( शांतये शांतिधारा... )
कलपवृक्ष के पुष्प सम, पुष्पांजलि पद लाय
भव दुःखों को मेट दो, आदिनाथ जिनराय
( पुष्पांजलि... )
(प्रथम वलय पूजन )
स्थापना
वृषभदेव भगवान् के हैं अनंत उपकार ।
धर्म धुरन्धर नाथ को, पूजे सब संसार ||
( हरिगीतिका)
हे नाथ! आदीश्वर प्रभो हे !, दुख विनाशी देव जी ।
हम अर्चना करते तुम्हारी, सुख मिले स्वयमेव ही ।।
मन के मनालय आइये, अब हम मनाते भक्ति से ।
बस भावना ये है हमार, हो परीणय मुक्ति से ।।
(दोहा)
मनो वचन व्याकुल हुआ, आकुल हुआ शरीर ।
भक्ति सुमन स्वीकार हो, मिले हमें भवतीर ।।
ॐ ह्रीं समवसरणस्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् इति आह्वानम् ।
ॐ ह्रीं समवसरणस्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनाम्।
ॐ ह्रीं समवसरणस्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम् ।
( पुष्पांजलिं.......)
(चौपाई)
मन-वच - काया के हम रोगी, आप स्वस्थ आतम के भोगी |
बनें निरोगी, समदर्शन दो, आदिप्रभु को जल अर्पण हो । । ।
ॐ ह्रीं समवसरणस्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय जन्म-जरा - मृत्यु विनाशनाय जलं..... ।
राग द्वेष अघ मोह पाप से, हम तपते संसार ताप से ।
शांति सुधा सुख चिदानंद दो, आदिप्रभु को भेंट गंध हो ।।
ॐ ह्रीं समवसरणस्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं..... ।
वैभाविक परिणति में आतम, भूल रहा अपना शुद्धातम ।
आतम को परमातम पद दो, आदिप्रभु को पुंज अर्पण हो ।।
ॐ ह्रीं समवसरणस्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान्.....।
काम भाव का फूल विषैला करे हमारा आतम मैला ।
काम हरण ब्रह्म रमण दो, आदिप्रभु को पुष्प अर्पण हो ||
ॐ ह्रीं समवसरणस्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं.... ।
प्रभु की चाय ज्ञान का नास्ता, आतम भोजन शिव का रास्ता |
भोग चेतना के कारण दो, आदिप्रभु का चरु अर्पण हो ।
ॐ ह्रीं समवसरणस्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशकाय नैवेद्यं..... ।
जब सोये तब हुआ अँधेरा, जब जागे तब हुआ सबेरा ।
हमें जगाओं ज्ञान किरण दो, आदिप्रभु को दीप अर्पण्ण हो ||
ॐ ह्रीं समवसरणस्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं..... ।
धूल धूप जो सह नहिं पाते, कर्म धूप वो कौन? नशाते ।
कर्म नशाते शुभाचरण दो, आदिप्रभु को धूप अर्पण हो ।।
ॐ ह्रीं समवसरणस्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं..... ।
सुख नहिं चाहें दुख नहिं चाहें, चाहें मात्र भक्ति की राहें ।
हमें भक्ति फल शरण दो, आदिप्रभु को फल अर्पण हो ।।
ॐ ह्रीं समवसरणस्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं..... ।
अर्घ सँजोया जिन अर्चन का भाव यही बस निज दर्शन हो ।
निज दर्शन को समवसरण दो, आदिप्रभु का अर्घ अर्पध हो ।।
ॐ ह्रीं समवसरणस्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये अघ्यै .... ।
प्रथम वलय अर्ध्यावली
( समवसरण की बारह सभाओं का वर्णन )
(चौबोला)
प्रथम सभा मुनियों की होती, जहाँ विराजित मुनि जन हों।
दिव्य देशना प्रभु की सुनने, आकुल व्याकुल तन मन हों ।।
तत्त्व भेद - विज्ञान प्राप्त कर, चिदानंद का वरण करें।
चिदानंद को पाने हम भी आदिप्रभु के चरण पड़े ।। 1 ।।
ॐ ह्रीं वैभाविकपरिणतिविनाशनसमर्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं ....
दूजी सभा कल्पवासी की, देवी जन की शोभित हों ।
जहाँ देवियाँ कमलापति के, चरण कमल पर मोहित हों ।।
करें अर्चना सुनें देशना, बुद्धि विपर्यय हरण करें।
बुद्धि विपर्यय हरने हम भी, आदि प्रभु के चरण पड़े । ॥ 2 ॥
ॐ ह्रीं बुद्धिविपर्ययविनाशनसमर्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं..... |
तीजी सभा आर्यिकाओं के साथ श्रावकाओं की हो ।
मुक्तिरमा का देख स्वयंवर, आतम सम्पदा पातीं वो ||
नारी बाधाएँ हरने को, मिथ्यदर्शन हरण करें।
नारी बाधा हरने हम भी, आदि प्रभु के चरण पड़े || 3 ||
ॐ ह्रीं नारीबाधाविनाशनसमर्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं ..... |
चौथी सभा भवनवासी की, भरें देवियाँ आकर के ।
प्रभु की अर्चा चर्चा करतीं, नाच-नाच गा-गाकर के ।।
जहाँ उन्हीं के भव-भवनों के, भ्रमण हटें भव-बंध झड़ें।
तन- कारागृह हरने हम भी, आदि प्रभु के चरण पड़े । ॥ 2 ॥
ॐ ह्रीं भवन - भूमिविवादविनाशनसमर्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अ ..... |
पंचम सभा खचाखच भरतीं, व्यन्तर सुर की सुन्दरियाँ |
अपना जीवन धन्य करें वे, खिला-खिला अंतर कलियाँ ||
निरख - निरख चैतन्य धाम वे, खिला वे बाधा संकट हरण करें।
अन्तर बाधा हरने हम भी, आदिप्रभु के चरण पड़े ॥ 5 ॥
ॐ ह्रीं भूतनी - डाकिनीबाधाविनाशनसमर्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं..... ।
छठी सभा में ज्योतिष देवीं, छटा बिखेंरें सज-धज के ।
पुद्गल की पर्यायें भूलें, प्रभु के चरणा भज-भज के ||
प्रभु की उपमातीतचमक को, पाने वे तो मचल पड़ें।
आत्मज्योति को पाने हम भी, आदि प्रभु के चरण पड़े । ॥ 6 ॥
ॐ ह्रीं नवग्रहभयविनाशनसमर्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं ..... |
सप्तम सभा भवनवासी के, देव निरंतर भरते हैं ।
जय-जयकारों के नारों से, बाल-क्रिया वे करते हैं ।।
जड़ - क्रिया का विनम्र छोड़ें अहो ! ज्ञान की क्रिया लखें ।
जड़ - क्रिया विनम्र तज हम भी, आदिप्रभु के चरण पड़े । ॥ 7 ॥
ॐ ह्रीं जड़क्रिया-विभ्रमबाधाविनाशनसमर्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं..... ।
अष्टम सभा भरें व्यन्तर सुर, अपना विचरण वे तजते ।
कौतूहल चेजन का लखकर, कौतूहल अपना तजते ।।
तत्त्व ज्ञान में विचरण को वे, चिन्मय प्रभु के चरण भजें ।
तत्त्व-ज्ञान को पाने हम भी, आदि प्रभु के चरण पड़े । ॥ 8 ॥
ॐ ह्रीं व्यन्तरबाधाविनाशनसमर्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं..... ।
नौवी सभा भरें ज्योतिष सुर, चमक धमक अपनी भूलें ।
निज रत्नों को पाने आतुर, जिनवर के कब पद छूलें ।।
अविनाशी अक्षय सुख पाने नशवर ज्योतिष शरण तजें ।
सुखाभास को तजने हम भी, आदि प्रभु के चरण पड़े । ॥ 9 ॥
ॐ ह्रीं बुद्धिविपर्ययविनाशनसमर्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं..... |
दसवीं सभा कलपवासी के, देव भरें गुणगान करें।
दिव्य द्रव्य ले भजन गीत गा, मन मोहक सम्मान करें ।।
दिव्य दृष्टि का देख समागम, जिन चरणों का वरण करें।
दृष्टि विभ्रम हरने हम भी, आदि प्रभु के चरण पड़े ।।10।।
ॐ ह्रीं द्रव्यगुणपर्यायदृष्टिविभ्रमविनाशनसमर्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं..... ।
ग्यारहवीं जो सभा मनोहर, मानव चक्री भव्य भरें ।
जिनपाले ऐलक - क्षुल्लक, श्रावक जिनगुण काव्य करें
हिल - मिलकर वात्सल्य से, परमेष्ठी की शरण गहें ।
पुद्गल बन्ध हरण को हम भी, आदि प्रभु के चरण पड़े ||11||
ॐ ह्रीं परिवारिककलहविनाशनसमर्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं..... ।
बारहवीं जो सभा सुशोभितम, तिर्यंचों के वर्ग करें।
सर्प नेवला गाय शेर सब, जन्मजात के वैर हरें ।।
संयम का साम्राज्य देखकर, वध - बन्धन के कष्ट हरें ।
छेदन-भेदन हरने हम भी, आदि प्रभु के चरण पड़े । ॥12 ॥
ॐ ह्रीं छेदन-भेदनपीड़ाविनाशनसमर्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं..... । -
प्रथम वलय जयमाला
(दोहा)
समवसरण आसीन हो, दिया तत्त्व उपदेश ।
जयमाला गुणगान हो, जय-जय आदि जिनेश ।।
जयमाला के नाम हम, करें भक्ति गुणगान |
ज्ञान मिले वैराग्य भी, यही मिले वरदान ।।
(ज्ञानोदय)
रंग बिरंगी दुनियाँ में हम, रंग बिरंगे सपने ले
दर-दर ठोकर खाकर भटकें, भाव पराये अपने ले।
जगत् जाल की माया में हम, काया पाकर खुशी हुये ।
माया अपनी हुई न लेकिन, छाया पाकर दुखी हुये ।। 1 ।।
जिसको हमने माना अपना, उससे ही दुख पाया है।
इसमें दोष किसे हम दे दें, कर्मों की सब माया है ।।
नहीं किसी से कोई शिकायत, जो बोया वो काट रहे ।
कुछ भी कह ले दुनियाँ लेकिन, पाप नरक के घाट रहे । २ ॥
पापों में हमें यों फूले कि, समवसरण भी भूल गये ।
भूले बीस हजार सीढ़ियाँ, तोरण द्वारे भूल गये ।।
मिले मोक्ष सीढ़ी फिर कैसे, मोक्ष कपाट खुलें कैसे ?
धूलिसाल का कोट भुलाया, तो फिर खोट नशें कैसे? ।। 3 ।।
भूले मानस्तंभ आपका, मान तभी तो गला नहीं ।
भूले नाटक शालायें तो, जग का नाटक टला नहीं ।।
कूप बावड़ी भूल गये तो, जगत्-कूप में डूब रहे ।
गलियों पर चलना भूले तो, भव गलियों में धूम रहे ।।4।।
आठ भूमियाँ भूल गये तो, अष्टम भू पायें कैसे?
धूप कुंड जब भुला दिया तो, आतम महकायें कैसे ? ।।
बारह सभा भुला डाली तो, सिद्ध सभा पायें कैसे? |
भुला दिया जब धर्मचक्र तो, भव चक्क र नाशें कैसे ? ।।5।।
भूले-भूले तीनों कटनी, विषयों की चटनी चख के |
गणधर गुरु का ज्ञान भुलाया, स्वारथ की मथनी मथ के ।।
कमलासन जिनवर को भूले, प्रातिहार्य अतिशय भूले ।
दिव्य देशना उपकारों को, भूले तत्त्व विषय भूले | ॥ 6 ॥
क्या-क्या कथा कहें पापों की, पाप सदा आबाद रहा ।
जिसे याद रखना था वह तो, भूले बाकी याद रहा ।।
भूले सब बस याद रहे ये, तेल नमक अथवा लकड़ी ।
इनमें आतम ऐसी जकड़ी, जैसे जकड़ी हो मकड़ी ॥ 7 ॥
कृपा हुई या पुण्य भाग्य क्या, इसका हमको ज्ञान नहीं ।
किन्तु आपकी पूजन करके, दिखा मोक्ष सोपान यहीं ।।
'सुव्रत' की बस यही प्रार्थना, मकड़ी जैसा जाल हरो ।
हमें न भूलों क्षमादान दो, निज सम मालामाल करो ॥ 8 ॥
(दोहा)
भला करो तो लाभ हो, याद दया दे दान ।
आदिनाथ चारों दिये, अतः बने भगवान् ।।
ॐ ह्रीं समवसरणस्थ श्री वृषभनाथजिनेन्द्राय जयमालापूर्णा .... ।
आदिनाथ स्वामी करें, विश्वशांति कल्याण |
प्रासुक जल की धार दे, हम पूजत भगवान् ।।
( शांतये शांतिधारा...)
कल्पवृक्ष के पुष्प सम, पुष्पांजलि पद लाय |
भव दुःखों को मेंट दो, आदिनाथ जिनराय ।।
(पुष्पांजलि )
द्वितीय वलय पूजन
स्थापना
(दोहा)
पद पंकज आदीश के, दिये मुक्ति का धाम |
यों आदीश्वर देव को बारम्बार प्रणाम ।।
(शिखरिणि ) ( लय: महावीराष्टकवत् )
करें भक्ति प्राणी, विनय कर पूजें चरण भी ।
मिले युक्ति ऐसी, शिव महल पायें शरण भी ।।
हमारी पूजा को, जगत्-पति स्वीकार कर लो ।
हमारी नैया भी, तुरत भव से पार कर दो।।
ॐ ह्रीं कैवल्यकमलापति श्रीवृषभनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् इति आह्वानम् ।
ॐ ह्रीं कैवल्यकमलापति श्रीवृषभनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनाम् ।
ॐ ह्रीं कैवल्यकमलापति श्रीवृषभनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम् ।
( पुष्पांजलि )
( चमर ) ( लय: पार्श्वनाथपूजन..... नीर गंध अक्षतान्... )
जन्म मृत्यु की व्यथा हरो करो सुखी हमें ।
नीर ये चढ़ा रहे मिले क्षमा सखी हमें
आदिनाथ की विशाल अर्चना रचाइए।
ऋषि - सिद्धि पाय, कष्ट वेदना नशाइए ।
ॐ ह्रीं कैवल्यकमलापति श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जलं..... ।
पाप ताप दूर हो विकार का विनाश हो ।
गंध ये चढ़ा रहे चरित्र का विकास हो ।
आदिनाथ की विशाल अर्चना रचाइए।
ऋषि - सिद्धि पाय, कष्ट वेदना नशाइए ।
ॐ ह्रीं कैवल्यकमलापति श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चंदन..... ।
भार भूत है मिटे विभाव की विभासना ।
अक्षतान को चढ़ा मिले सुभाव साधना ।।
आदिनाथ की विशाल अर्चना रचाइए।
ऋषि - सिद्धि पाय, कष्ट वेदना नशाइए ।
ॐ ह्रीं कैवल्यकमलापति श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान्..... ।
पुष्प को चढ़ा रहे स्वरूप का पराग दो ।
काम बाण नाश होय चित्-स्वरूप बात दो ।।
आदिनाथ की विशाल अर्चना रचाइए।
ऋषि - सिद्धि पाय, कष्ट वेदना नशाइए ||
ॐ ह्रीं कैवल्यकमलापति श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय कामबाण विध्वंसनाय पुष्पं.... ।
भोग-भोग भोग को बढ़ा रहे क्षुधा व्यथा ||
भोग त्याग को मिले सुधा मिटे व्यथा कथा ||
आदिनाथ की विशाल अर्चना रचाइए।
ऋषि - सिद्धि पाय, कष्ट वेदना नशाइए । -
ॐ ह्रीं कैवल्यकमलापति श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं..... ।
दीप का प्रकाश रोज आरती उतारता ।
दो जिनेश जो प्रकाश मोह अंध तारता ॥
आदिनाथ की विशाल अर्चना रचाइए।
ऋषि - सिद्धि पाय, कष्ट वेदना नशाइए ।
ॐ ह्रीं कैवल्यकमलापति श्री वृषभनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं…....।
कर्म दूर हो अतः सुधूप को चढ़ा रहे ।
शुद्ध भाव प्राप्ति को जिनेन्द्र को मना रहे ॥
आदिनाथ की विशाल अर्चना रचाइए।
ऋषि - सिद्धि पाय, कष्ट वेदना नशाइए ॥
ॐ ह्रीं कैवल्यकमलापति श्री वृषभनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं..... ।
धर्म ध्यान तत्त्व - ज्ञान छाँव आपकी मिले।
गुच्छ से फलोंमयी चढ़ा रहे खुशी मिले |
आदिनाथ की विशाल अर्चना रचाइए।
ऋषि-सिद्धि पाय, कष्ट वेदना नशाइए ।
ॐ ह्रीं कैवल्यकमलापति श्री वृषभनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं..... ।
आठ द्रव्य ठाठ से सजाए भक्ति भाव से।
अर्घ भेंटने किया विहार दूर गाँव से ||
आदिनाथ की विशाल अर्चना रचाइए।
ऋषि - सिद्धि पाय, कष्ट वेदना नशाइए ॥
ॐ ह्रीं कैवल्यकमलापति श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये
अर्घ्यं..... ।
द्वितीय वलय अर्ध्यावली
( 10 बाह्य परिग्रह ) ( विष्णु - लय: बड़ी बारहभावना )
बीज धान्य की फसल जहाँ हो, उसे क्षेत्र माना ।
सुख-दुख के वे बुनते रहते, नित ताना-बाना ॥
बनें आप सम हम भी त्यागी, ऐसी शिक्षा दो ।
आदिनाथ निग्रंथ पंथ की, हमको दीक्षा दो ॥ 1 ॥
ॐ ह्रीं क्षेत्रसमस्याविनाशनसमर्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं ..... ।
भवन- मकानों की रचनाएँ, वास्तु कहीं जातीं ।
इसमें फँसकर आत्माएँ फिर, मोक्ष नहीं पातीं ॥
तजें आप सम हम भी वास्तु, ऐसी शिक्षा दो ।
आदिनाथ निग्रंथ पंथ की, हमको दीक्षा दो ॥ 2 ॥
ॐ ह्रीं वास्तु - भवननिवास- समस्याविनाशनसमर्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं..... ।
चाँदी के आभूषण सिक्के, वो हिरण्य सारे ।
आदिनाथ सम चाँदी तजकर, चिदानंद पा रे ॥
पग- यात्री कर-पात्री हों हम, ऐसी शिक्षा दो ।
आदिनाथ निग्रंथ पंथ की, हमको दीक्षा दो ॥ 3 ॥
ॐ ह्रीं रजतसमस्याविनाशनसमर्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं ..... |
सोने में फँसकर सोने सी, आतम को भूले
सोने को खोने पर आतम, परमातम छू ले !
नाथ आप सम स्वर्ण तजें हम, ऐसी शिक्षा दो ।
आदिनाथ निग्रंथ पंथ की, हमको दीक्षा दो ॥ 4 ॥
ॐ ह्रीं स्वर्णसमस्याविनाशनसमर्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं .... |
गौधन गजधन आदिक धन हैं, यह आगम कहता ।
यही पुण्य फल इनमें फँसकर, दुख आतम सहता ॥
बनें आप सम हम भी त्यागी, ऐसी शिक्षा दो
आदिनाथ निग्रंथ पंथ की, हमको दीक्षा दो ॥ 5 ॥
ॐ ह्रीं गोधन समस्या विनाशनसमर्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अर्ध्या ..... ।
ज्वार बाजरा गेहूँ आदिक, बीज धान्य होते ।
इनके त्यागी इस दुनियाँ में, जगत् मान्य होते ॥
नाथ ! आप सब धान्य तजें हम, ऐसी शिक्षा दो ।
आदिनाथ निग्रंथ पंथ की, हमको दीक्षा दो ॥ 6 ॥
ॐ ह्रीं धान्यखादबीजसमस्याविनाशनसमर्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं..... ।
नौकरानियाँ पत्नी आदिक, विष बेली दासीं ।
पुण्य प्रसाद इन्हें अपनाना, झंझट की राशीं ॥
तुम सम दासी त्याग सकें हम, ऐसी शिक्षा दो ।
आदिनाथ निग्रंथ पंथ की, हमको दीक्षा दो ॥ 7 ॥
ॐ ह्रीं स्त्री-दासीप्रथाविनाशनसमर्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं.... ।
नौकर सेवक पति आदिक सब, दास कहाते हैं ।
'पुण्यफला' सांसारिक सुख जो त्रास बढ़ाते हैं ।
नाथ! आप दास तजें हम, ऐसी शिक्षा दो
आदिनाथ निग्रंथ पंथ की, हमको दीक्षा दो ॥ 8 ॥
ॐ ह्रीं पुरुष-दाससमस्याविनाशनसमर्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं .... |
ऊनी रेशम कपासादि के, वस्त्र कुप्य मानो ।
वस्त्रों में गड्ढ्द्दी पर कैसे, आत्म ध्यान जानो ॥
अंबर तजकर बनें दिगम्बर, ऐसी शिक्षा दो ।
आदिनाथ निग्रंथ पंथ की, हमको दीक्षा दो ॥ 9 ॥
ॐ ह्रीं कुप्य (वस्त्र ) समस्याविनाशनसमर्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं..... ।
सोना पीतल ताम्र आदि के, बर्तन भाण्ड कहे ।
मिर्च मसालों में आतम रस, किसने कहो चखे ॥
नाथ ! आप सम भाण्ड तजें हम, ऐसी शिक्षा दो ।
आदिनाथ निग्रंथ पंथ की, हमको दीक्षा दो ॥ 10 ॥
ॐ ह्रीं भाण्ड ( स्थानान्तरण ) समस्याविनाशनसमर्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं ..... ।
( अंतरंग परिग्रह 14 )
देव-शास्त्र - गुरु तत्त्व विषय की उल्टी श्रद्धाएँ ।
मिथ्यादर्शन परिग्रह बन के, भाव गिरा जायें ॥
तुम सम बस निर्दोश बनें हम, ऐसी शिक्षा दो ।
आदिनाथ निग्रंथ पंथ की, हमको दीक्षा दो ॥ 11॥
ॐ ह्रीं मिथ्यात्वविनाशनायसमर्थ श्री वृषभनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं .... |
क्रोध कषायों की ज्वाला से, आतम कली जली ।
तब चैतन्य क्रोध से जलकर, फिरती गली-गली ॥
तुम सम क्रोध | कालिमा त्यागें, ऐसी शिक्षा दो ।
आदिनाथ निग्रंथ पंथ की, हमको दीक्षा दो ॥ 12 ॥
ॐ ह्रीं क्रोधासर्प-विष - विनाशनसमर्थ श्री वृषभनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं .... |
मान शिखर से रावण कौरव, कंश गिरे नीचे |
रहे न इनके वंश जगत् में, हम क्या-क्या सीखे ? ॥
नाथ! आप सम मान तजें हम, ऐसी शिक्षा दो । ।
आदिनाथ निग्रंथ पंथ की, हमको दीक्षा दो ॥ 13 ॥
ॐ ह्रीं मान-ईर्ष्याभावविनाशनसमर्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं .....
ओ! री! माया तेरी छाया, सबको घुमा रही
पिला - पिला कर विषयों का विष, सबको डुबा रही ॥ ।
तुम सब निश्चल हों तज माया, ऐसी शिक्षा दो ।
आदिनाथ निग्रंथ पंथ की, हमको दीक्षा दो ॥ 14 ॥
ॐ ह्रीं माया-वातारोग(गठिया) विनाशनसमर्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अ...
लोभ बना जब लोक प्रदर्शन, निज दर्शन भूला । ।
लोभी की क्या ? दुनियाँ होगी, क्यों रे तू फूला ॥
नाथ! आप सम लोभ तजें हम, ऐसी शिक्षा दो ।
आदिनाथ निग्रंथ पंथ की, हमको दीक्षा दो ॥ 15 ॥
ॐ ह्रीं लोभस्वार्थभावविनाशनसमर्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं......
हास्यनाम का नो-कषाय जो, सबको हँसा रहा ।
हँसने से जग हम पर हँसता, परिग्रह वसा रहा ॥
नाथ ! आप सम हास्यस तजें हम, ऐसी शिक्षा दो ।
आदिनाथ निग्रंथ पंथ की, हमको दीक्षा दो ॥ 16 ॥
ॐ ह्रीं हास्यपरिग्रहविनाशनसमर्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं ..... ।
पंचेन्द्रिय के विषय सुखों में, जो आसक्त हुआ।
राग रूप रति नो-कषाय वह, परिग्रह बना हुआ ।
नाथ ! आप सम रति हम, ऐसी शिक्षा दो ।
आदिनाथ निग्रंथ पंथ की, हमको दीक्षा दो ॥ 17 ॥
ॐ ह्रीं रति आसक्तिभावविनाशनसमर्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं..... ।
द्वेष भाव अलगाव रहा जो, कहो अरति उसको ।
परिग्रह भाव बना दुख देता, दे सद्गति किसको ॥
नाथ ! आप सम अरति तजें हम, ऐसी शिक्षा दो ।
आदिनाथ निग्रंथ पंथ की, हमको दीक्षा दो ॥ 18 ॥
ॐ ह्रीं अरतिबहिष्कारभावविनाशनसमर्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं..... ।
उपकारक के विरह भाव को, शोक कहा जाता ।
परिग्रह बनकर शोक क्लेश दे, आर्त्त रौद्र दाता ॥
नाथ ! आप सम शोक तजें हम, ऐसी शिक्षा दो ।
आदिनाथ निग्रंथ पंथ की, हमको दीक्षा दो ॥ 19 ॥
ॐ ह्रीं शोक-आकुलव्याकुलभावविनाशनसमर्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं.....
सात तरह के डर से डरना, भय की यह गीता ।
मिथ्यादृष्टि डरकर मरता, समदृष्टि जीता ॥
नाथ! आप सम अभय तजें हम, ऐसी शिक्षा दो ।।
आदिनाथ निग्रंथ पंथ की, हमको दीक्षा दो ॥ 20 ॥
ॐ ह्रीं भय-अहितभावविनाशनसमर्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अयं...... ।
देख घिनौना घृणा हुई जो, वही जुगुप्सा है।
परिग्रह बनकर प्रेम हरे वह, अद्भुत किस्सा है।
नाथ ! आप सम तजें जुगुप्सा, ऐसी शिक्षा दो ।
आदिनाथ निग्रंथ पंथ की, हमको दीक्षा दो ॥ 21 ॥
ॐ ह्रीं जुगुप्साघृणाभाव विनाशनसमर्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं..... ।
जिन भावों से पुरुष जनों में, रमण-भावना हो ।
रमें पुरुष जन में तो कैसे, श्रमण- साधना हो ॥
तुम सम नारी वेद तजें हम, ऐसी शिक्षा दो ।
आदिनाथ निग्रंथ पंथ की, हमको दीक्षा दो ॥ 22 ॥
ॐ ह्रीं स्त्रीवेद- स्त्रीपर्यायविनाशनसमर्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अ .... |
जिन भावों से नारी जन में, रमण- भावना हो ।
रमें नारियों में तो कैसे, श्रमण- साधना हो ॥
तुम सम पुरुषवेद हम त्यागें, ऐसी शिक्षा दो ।
आदिनाथ निग्रंथ पंथ की, हमको दीक्षा दो ॥ 23 ॥ । -
ॐ ह्रीं पुरुषवेदबाधाविनाशनसमर्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं..... ।
जिन भावों से नर नारी में, रमण भावना हो ।
बने नपुंसक तो फिर कैसे, श्रमण- साधना हो ॥
तुम सम वेद नपुंसक त्यागें, ऐसी शिक्षा दो ।
आदिनाथ निग्रंथ पंथ की, हमको दीक्षा दो ॥ 24 ॥
ॐ ह्रीं नपुंसकवेद( असफलता) विनाशनसमर्थ श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय अ... |
द्वितीय वलय जयमाला
भरी पालड़ी झुक गयी, खाली ऊपर ओर ।
पतन हमारा रोकने, अब तो थामो डोर ॥
आदिनाथ सर्वोच्च हैं, तजकर परिग्रह संग ।
गुण गाकर हम भक्त की, उड़ती रहे पतंग ॥
( लय: अहो जगत् गुरुदेव...)
आदिनाथ जिनदेव, पाकर कृपा तुम्हारी ।
पूजन कर जयमाल, गायें बने पुजारी ॥
किन्तु परिग्रह राग, तुमसा छोड़ न पायें |
अतः अधोगति पात्र, बनकर दुख हम पायें ॥ 1 ॥
कभी-कभी दस बाह्य, चौदह अंतर वाले ।
पूरे हैं चौबीस, परिग्रह काले काले ॥
इनसे करके मोह, मोही हम कहलाये।
करें नवग्रह राज, हमको भव- भटकाये ॥ 2 ॥
- पुरा ही संसार, परिग्रह जोड़े जोड़े।
तभी धधकता आज, खाये कोड़े-कोड़े ॥
परिग्रह करके त्याग, सुलझे सभी समस्या |
छोड़ो जग जंजाल, सम्यक् करो तपस्या ॥ 3 ॥
पर, निज वैभव भूल, पर-परिणति में उलझे ।
परिग्रह की फिर गाँठ, कैसे अपनी सुलझे ॥
जिन दर्शन कर आज, निज की अब सुध आयी ।
खोलें अंतर गाँठ, सो जिन पूजन भायी ॥ 4 ॥
पूजन का परिणाम, साक्षात् दर्शन पायें ।
प्रभु चरणों में बैठ, रत्नत्रय अपनायें ॥
धर कर भेदा - भेद, निज चैतन्य सँभालें ।
हो निज में लवलीन, झट मोक्षालय, पालें ॥ 5 ॥
(दोहा)
चाहेहम अनुकूल हों, चाहे हों प्रतिकूल |
आदिप्रभु सम हम रहें, यथा कमल के फूल ॥
ॐ ह्रीं कैवल्यकमलापति श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय द्वितीयवलयजयमालापूर्णार्घ्यं..... ।
आदिनाथ स्वामी करें, विश्वशांति कल्याण |
प्रासुक जल की धार दे, हम पूजत भगवान् ॥
(शांतये शांतिधारा... )
कल्पवृक्ष के पुष्प सम, पुष्पांजलि पद लाय |
भव दुःखों को मेंट दो, आदिनाथ जिनराय ॥
(पुष्पांजलि )
जाप्यमंत्र : नैं ह्रीं णमो अरिहंताणं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय नमो नमः
समुच्च जयमाला
(दोहा)
आदिनाथ भगवान् की, महिमा अपरंपार ।
पूजे जो धर ध्यान वह, रा-द्वेष से पार ॥
(ज्ञानोदय)
वृषभदेव या आदिदेव जो, ब्रह्मदेव पुरुदेव रहे ।
मरुदेवी या नाभिराय सुत, प्रथमदेव जिनदेव कहे ॥
जिनके सहस्त्रनाम हुये जो, आदि प्रवर्तक कहलाये ।
ऐसे पहले तीर्थंकर के गुण गाने हम भी आये ॥ 1 ॥
वृषभनाथ दसवें भव में नृप, रहे महाबल विद्याधर ।
एक माह जब उम्र शेष तक, नंदीश्वर का उत्सव कर ॥
बाइस दिन की कर सल्लेखन, प्रथम स्वर्ग ललितांग हुये ।
धर्मसहित ललितांग मरण कर, वज्रजंघ प्रिय पुत्र हुये ॥ 2 ॥
वज्रजंघ श्रीमती रानी ने, दो चारण मुनि सत्कारे ।
जो उनके ही अंतिम सुत थे, दिये पूज कर आहारे ।
इसी समय चारों मंत्री भी, नकुल व्याघ्र वानर शूकर । ।
मुनि से सुनकर जनम कथा सब खुश थे मुनि चरणा छूकर || 3 ||
आप आठवें भव तीर्थंकर, बन जब मोक्ष विराजेंगे।
तब श्रीमती श्रेयांस बनेगी, आठों भी शिव पायेंगे ॥
वज्रजंघ श्रीमती इक रात्रि, दम घुटने से मरण किये ।
पात्रदान से भोगभूमि में, दोनों आर्या आर्य हुये ॥ 4 ॥
पात्रदान के अनुमोदन से, कहीं चार उत्पन्न हुये।
पात्रदान की महिमा सुनकर, हम सब भक्त प्रसन्न हुये |
आर्य गया ऐशान स्वर्ग में, देव हुआ श्रीधर नामी ।
उसी स्वर्ग में चारों जन्में, उसी स्वर्ग आर्या जन्मी ॥ 5 ॥
श्रीधर हुआ सुविधि केशव फिर, वज्रनाभि चक्रेश हुआ।
आठों जीव वहीं फिर जन्मे, श्रीमती तब धनदेव हुआ ।
वज्रनाभि मुनि बन गुरु पद में, भावनाएँ सोलह भाये ।
तीर्थंकर पद बाँध मरण कर, सुर सर्वार्थ सिद्धि पाये ॥ 6 ॥
तज सर्वार्थसिद्धि सुर आलय, वह अहमिन्द्र यहाँ आये ।
भरत क्षेत्र के अंतिम कुलकर, नाभिराय सुत बन भाये ॥
हुण्डा अवसर्पिणी काल में, माँ को सोलह स्वप्न दिये ।
रत्नवृष्टि देवों ने की तब, नगर अयोध्या जन्म लिये ॥ 7 ॥
तीन लोक के जीवों को तब, मिली शांति केवल पल भर ।
इन्द्राज्ञा से शचि ने तब ही, मरुदेवी को मूर्च्छित कर ॥
लिया गोद में ज्यों जिन बालक, तब सम्यग्दर्शन पाके ।
दिये इन्द्र को भावी भगवन् , पुण्यफला' के गुण गाके ॥ 8 ॥
ऐरावत हाथी पर लेकर, चला इन्द्र सौधर्म वहाँ ।
सुमेरु पर्वत पाण्डुक वन में, मणिमय पाण्डुकशिला जहाँ ॥
एक हजार आठ कलशों में, क्षीर सिन्धु का जल भर के ।
किया जन्म अभिषेक वहाँ पर, पूर्व दिशा में मुख करके ॥ १॥
फिर सौधर्म इन्द्र ताण्डव कर, 'वृषभ' नाम रक्खा उनका ।
हुआ सुनन्दा यशस्वती से विवाह बंधन फिर जिनका ॥
ब्राह्मी भरत सहित सौ सुत को, यशस्वती ने फिर जन्मा ।
और सुन्दरी बाहुबली को, सुनों! सुनन्दा ने जन्मा ॥ 10 ॥
बाह्मी तथा सुन्दरी को दे, अंक तथा लिपि विधायें । ।
पुत्र भरत वा बाहुबली को, दी बाकी सब शिक्षायें ॥
वर्णाश्रम षट्कर्म बनाकर, पूज्य जिनालय बनवाये ।
पिता राज्य अभिषेक करा के, तुमको राजा बनवाये ॥ 11 ॥
नीलांजना अप्सरा का जब नृत्य देख वैराग्य हुआ।
दिया भरत को राज्य तथा फिर, लौकान्तिक आगमन हुआ |
देवों ने वैराग्य सराहा, फिर दीक्षा अभिषेक हुआ।
बैठ सुदर्शन नाम पालकी, सिद्धार्थक वन गमन हुआ ॥ 12॥
अहो ! नमः सिद्धेभ्यः कहकर, पंचमुष्टि केशलौंच किये ।
संग चार हजार राजा के, जिन दीक्षा ले धन्य हुये ॥
ज्ञान मनःपर्यय प्रकटा तब, छह माहों का योग धरा ।
मरीचि ने मत कपिल बनाया, सभी भ्रष्ट थे हाल बुरा ॥ 13 ॥
अन्तराय जब हुआ वर्ष भर, तो श्रेयांस सोम राया ।
अक्षय तृतीया को इक्षु रस, देकर दानतीर्थ पाया ॥
पंचाश्चर्य हुये दाता घर, सबने जय जयघोष किये ।
एक हजार वर्ष करके, घातिकर्म प्रभु नाश दिये ॥ 14 ॥
समवसरण में तीर्थंकर प्रभु, केवलज्ञानी धरम दिये
रत्न त्याग तब प्रथम भरत जी, जिन अर्चन कर नमन किये ॥
भव्य पुण्य से विहार करके, धर्म चक्र को चला दिया।
फिर कैलाश धाम पर जाकर, मोक्ष स्वयं को दिला दिया ॥ 15 ॥
काल दोष से समय पूर्व में लेकर जन्म मोक्ष पाये
करके उत्सव भक्त आपकी, पदवी पाने ललचाये ॥
हम भी नाथ! आपके गुण गा, मना रहे आनंद अहो ।
रागद्वेष भी मंद हुआ है, मुखर भक्ति का छंद प्रभो ॥ 16
हे स्वाम! बस नाम आपका, हरता संकट द्वन्द्व यहां
हरे दुराग्रह संग्रह परिग्रह, दे चैतन्यानंद महा
पर स्वार्थी तव नाम बाँधते, गुरु ग्रह के परिहारों से ।
वे क्या जाने गुरु ग्रह टलता, बस तेरे जयकारों से ॥ 17
गुण गाने का मात्र प्रयोजन, आपस में वात्सल्य फले ।
तत्त्व स्वरूप विचारें सब जन, राग-द्वेष की शल्य टले ॥
'विद्या-सुव्रत' सब स्वीकारें, रहे सभी का मन चंगा ।
विश्व शांति हो, सभी मुक्त हों, बहती रहे धर्म गंगा ॥ 18 ॥
आदिनाथ भगवान् सम, उतरे कार्मिक भार ।
यह पाने वरदान हम, बोलें जय जयकार ॥
ॐ ह्रीं श्रीवृषभनाथजिनेन्द्राय समुच्चयजयमालापूर्णा ..... ।
आदिनाथ स्वामी करें, विश्वशांति कल्याण |।
प्रासुक जल की धार दे, हम पूजत भगवान् ॥
( शांतये शांतिधारा )
कलपवृक्ष के पुष्प सम पुष्पांजलि पद लाय ।
भव दुःखों को मेंट दो, आदिनाथ जिनराय ॥
( पुष्पांजलिं...)
॥ इति श्री वृषभनाथविधान सम्पूर्णम् ||
प्रशस्ति
थूबौन के आदीश जी, भेजे पिपरई गाँव ।
जहाँ पार्श्व प्रभु की रही, हम पर मंगल छाँव ॥
गर्मी वर्षा शीत में, भक्त भक्ति का वास ।
वृषभनाथ विधान से, दुख दरिद्र हो नाश ॥
दो हजार ग्यारह रहा, शनिदिन थर्टी फर्स्ट |
पिपरई में पूरा हुआ, हटे कर्म की डस्ट फट
विद्या' गुरु को सौंप कर, जीवन का हर गीत ।
'मुनिसुव्रतसागर' रचे, आदिनाथ संगीत ॥
पढ़ो सुनो अथवा करो, श्री आदीश विधान ।
विश्व शांति का भाव हो, फिर अपना कल्याण ॥ ॥
इति शुभं भूयात् ॥