पंचमेरू विधान
पंचमेरू विधान
पंचमेरू विधान
--दोहा--
त्रिभुवनपति सन्मति सकल, विश्ववंद्य भगवान्।
जिनके वंदन से मिले, ऋद्धि सिद्धि सुखखान।।1।।
प्रथम सु जंबूद्वीप में, मेरू सुदर्शन नाम।
पूर्व धातकीखं डमें, विजय मेरू सुखधाम।।2।।
अपरधातकीद्वीप में, अचल मेरू अचलेश।
पुष्करार्ध वर पूर्व में, मंदर मेरू नगेश।।3।।
पश्चिम पुष्कर अर्ध में, विद्युन्माली मेरू।
ढाई द्वीप विषे कहे, पावन पांचों मेरू।।4।।
सोलह सोलह जिनभवन, एक एक में जान।
पंचमेरू के ये सभी अस्सी जिनगृह मान।।5।।
भद्रसाल नंदन तथा वन सौमनस सुरम्य।
चैथा पांडुकवन कहा चारों वन अतिरम्य।।6।।
प्रतिवन के चारों दिशी, चार चार जिनगेह।
प्रतिजिनगृह एकांतरा से उपवास करेय।।7।।
चार चार उपवास पर, इक इक बेला जान।
इस विधि से उपवास सब, हो उस्सी परिमाण।।8।।
वन वन प्रति बेला किये, बेला होवे बीस।
पंच मेरू व्रत की कही, उत्तम विधी मुनीश।।9।।
यदि इतनी शक्ति नहीं, करो शक्ति अनुसार।
व्रत की उत्तम भावना, करे भवोदधि पार।।10।।
--दोहा--
व्रतपूर्ण हेयु उद्यापन विधि, हेतू गुरू के सन्निध जाके।
आज्ञा ले आशिष ले करके, निज शक्ति समान करे आके।।
सुवरन चांदी पाषाणादी, से सुन्दर मेरू बनवाओ।।11।।
यदि इतनी शक्ति नहीं हो तो, मेरू विधान पूजन करिये।
आचार्य निमंत्रण विधिवत् कर याजक की आज्ञा शिरधरिये।।
नानारंग चूर्णों से अथवचा नाना विध रंगे चावलों से।
मंडल बनवाओ आति सुंदर, पांचों मेरू चित्रित करके।।12।।
तोरण ध्वज चंद्रोपक घंटा, किंकिणियां छत्र चामरों से।
वसु मंगल द्रव्य कलश माला, पुष्पों कदली स्तंभो से।।
मंडल अत्यर्थ सजा उस पर, रजतादी के मेरू रखिये।
मंडल के मध्य सिंहासनपर, जिनमूर्ति स्थापित करिये।।13।।
सकलीकरणादि विधी करके, इंद्रादि प्रतिष्ठा विधि करिये।
शास्त्रोक्तपूर्वविधि को करके, मंडल पूजा क्रम से करिये।।
इसविधव्रत का निष्ठापन कर, तुम या शक्ति दानादि करो।
चउ विध संघ की पूजा करके, पिच्छी शास्त्रादि प्रदान करो।।14।।
पूजा पुस्तक या अन्य ग्रंथ, छपवाकर ज्ञानदान दीजे।
औषधि आहार अभय देकर, बहु पुण्य उपार्जित कर लीजे।।
जिन मंदिर में उपकरण दान, जीर्णोद्धारादिक भी करिये।
निजशक्ति के अनुरूप धर्म करके, भव भव का संकट हरिये।।15।।
--दोहा--
पंचमेरू व्रत जो करे, पंचकल्याणक पाय।
पंच परावृत नाशकर, पंचमगति को जाय।।
पुष्पांजलिं क्षिपेत्
(गीता छन्द)
तीर्थंकरों के न्हवन-जल तें, भये तीरथ शर्मदा |
ता तें प्रदच्छन देत सुर-गन, पंच-मेरुन की सदा ||
दो-जलधि ढार्इ-द्वीप में, सब गनत-मूल विराजहीं |
पूजूं अस्सी-जिनधाम-प्रतिमा, होहि सुख दुःख भाजहीं ||
ॐ ह्रीं श्री पंचमेरुसम्बन्धि अस्सी जिन चैत्यालयस्थ जिन प्रतिमा समूह! अत्र अवतर! अवतर! संवौषट्! (आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं श्री पंचमेरुसम्बन्धि अस्सी जिन चैत्यालयस्थ जिन प्रतिमा समूह! अत्र तिष्ठ! तिष्ठ! ठ!: ठ:! (स्थापनम्)
ॐ ह्रीं श्री पंचमेरुसम्बन्धि अस्सी जिन चैत्यालयस्थ जिन प्रतिमा समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्! (सन्निधिकरणम्)
(चौपार्इ आंचलीबद्ध)
शीतल मिष्ट सुवास मिलाय, जल सों पूजूं श्रीजिनराय |
महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ||
पाँचों मेरु अस्सी जिनधाम, सब प्रतिमाजी को करूं प्रणाम |
महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ||
ॐ ह्रीं श्री सुदर्शन-विजय-अचल-मंदर-विद्युन्मालि-पंचमेरुसम्बन्धि अस्सी जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्य: जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।१।
जल केशर करपूर मिलाय, गंध सों पूजूं श्रीजिनराय |
महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ||
पाँचों मेरु अस्सी जिनधाम, सब प्रतिमाजी को करूँ प्रणाम |
महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ||
ॐ ह्रीं श्री पंचमेरुसम्बन्धि अस्सी जिनचैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्य: संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।2|
अमल अखंड सुगंध सुहाय, अच्छत सों पूजूं जिनराय |
महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ||
पाँचों मेरु अस्सी जिनधाम, सब प्रतिमाजी को करूं प्रणाम |
महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ||
ॐ ह्रीं श्री पंचमेरुसम्बन्धि अस्सी जिनचैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्य: अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।३।
वरन अनेक रहे महकाय, फूल सों पूजूं श्रीजिनराय |
महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ||
पाँचों मेरु अस्सी जिनधाम, सब प्रतिमाजी को करूँ प्रणाम |
महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ||
ॐ ह्रीं श्री पंचमेरुसम्बन्धि अस्सी जिनचैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्य: कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।४।
मनवाँछित बहु तुरत बनाय, चरु सों पूजूं श्रीजिनराय |
महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ||
पाँचों मेरु अस्सी जिनधाम, सब प्रतिमाजी को करूँ प्रणाम |
महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ||
ॐ ह्रीं श्री पंचमेरुसम्बन्धि अस्सी जिनचैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्य: क्षुधारोग- विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।५।
तम-हर उज्ज्वल-ज्योति जगाय, दीप सों पूजूं श्रीजिनराय |
महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ||
पाँचों मेरु अस्सी जिनधाम, सब प्रतिमाजी को करूँ प्रणाम |
महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ||
ॐ ह्रीं श्री पंचमेरुसम्बन्धि अस्सी जिनचैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्य: मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।६।
खेऊँ अगर अमल अधिकाय, धूप सों पूजूं श्रीजिनराय |
महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ||
पाँचों मेरु अस्सी जिनधाम, सब प्रतिमाजी को करूँ प्रणाम |
महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ||
ॐ ह्रीं श्री पंचमेरुसम्बन्धि अस्सी जिनचैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्य: अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।७।
सुरस सुवर्ण सुगंध सुभाय, फल सों पूजूं श्रीजिनराय |
महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ||
पाँचों मेरु अस्सी जिनधाम, सब प्रतिमाजी को करूँ प्रणाम |
महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ||
ॐ ह्रीं श्री पंचमेरुसम्बन्धि अस्सी जिन चैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्य: मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।८।
आठ दरबमय अरघ बनाय, ‘द्यानत’ पूजूं श्रीजिनराय |
महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ||
पाँचों मेरु अस्सी जिनधाम, सब प्रतिमाजी को करूँ प्रणाम |
महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ||
ॐ ह्रीं श्री पंचमेरुसम्बन्धि अस्सी जिनचैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्य: अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।९।
(सोरठा छन्द)
प्रथम सुदर्शन-स्वामि, विजय अचल मंदर कहा |
विद्युन्माली नामि, पंचमेरु जग में प्रगट ||
(केसरी छन्द)
प्रथम सुदर्शन मेरु विराजे, भद्रशाल वन भू पर छाजे |
चैत्यालय चारों सुखकारी, मन वच तन वंदना हमारी ||१||
ऊपर पंच-शतक पर सोहे, नंदन-वन देखत मन मोहे |
चैत्यालय चारों सुखकारी, मन वच तन वंदना हमारी ||२||
साढ़े बांसठ सहस ऊँचार्इ, वन-सुमनस शोभे अधिकार्इ |
चैत्यालय चारों सुखकारी, मन वच तन वंदना हमारी ||३||
ऊँचा जोजन सहस-छतीसं, पांडुक-वन सोहे गिरि-सीसं |
चैत्यालय चारों सुखकारी, मन वच तन वंदना हमारी ||४||
चारों मेरु समान बखाने, भू पर भद्रशाल चहुँ जाने |
चैत्यालय सोलह सुखकारी, मन वच तन वंदना हमारी ||५||
ऊँचे पाँच शतक पर भाखे, चारों नंदनवन अभिलाखे |
चैत्यालय सोलह सुखकारी, मन वच तन वंदना हमारी ||६||
साढ़े पचपन सहस उतंगा, वन-सोमनस चार बहुरंगा |
चैत्यालय सोलह सुखकारी, मन वच तन वंदना हमारी ||७||
उच्च अठाइस सहस बताये, पांडुक चारों वन शुभ गाये |
चैत्यालय सोलह सुखकारी, मन वच तन वंदना हमारी ||८||
सुर नर चारन वंदन आवें, सो शोभा हम किह मुख गावें |
चैत्यालय अस्सी सुखकारी, मन वच तन वंदना हमारी ||९||
(दोहा)
पंच-मेरु की आरती, पढ़े सुने जो कोय |
‘द्यानत’ फल जाने प्रभू, तुरत महासुख होय ||
ॐ ह्रीं श्री पंचमेरुसम्बन्धि जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्य: जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
।। इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।।
सुदर्शन मेरू पूजा
--स्थापना-गीता छन्द--
त्रिभुवन भव नके मध्य सर्वोत्तम सुदर्शन मेरू है।
यह प्रथम जंबूद्वीप में सर्वोच्च मेरू सुमेरू है।।
सोलह जिनालय में जिनेश्वर मूर्तियां हैं सासती।
थापूं यहां उनको जजूं, वे सर्व दुख संहारती।।1।।
ऊँ ह्रीं जंबूद्वीपस्थसुदर्शनमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट।
ऊँ ह्रीं जंबूद्वीपस्थसुदर्शनमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।
ऊँ ह्रीं जंबूद्वीपस्थसुदर्शनमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
--अथाष्टकं-अडिल्ल छंद--
गंगानदि को प्रासुक जल घट में भरूं।
जल से पूजा करते सब कलिमल हरूं।।
मेरू सुदर्शन के सोलह जिनगेह को।
पूजूं जिनवर बिंब सभी धर नेह को।।1।।
ऊँ ह्रीं जंबूद्वीपस्थसुदर्शनमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेभ्यः जलं निर्वपामीति स्वाहा।
गंध सुगंधित अष्ट गंध कर में लिया।
जिन पद चर्चत चाह दाह का क्षय किया।।
मेरू सुदर्शन के सोलह जिनगेह को।
पूजूं जिनवर बिंब सभी धर नेह को।।2।।
ऊँ ह्रीं जंबूद्वीपस्थसुदर्शनमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेभ्यः चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
मुक्ता फलसम तंदुल धवल अखंड हैं।
पुंज धरत जिन आगे होत अनंद है।।
मेरू सुदर्शन के सोलह जिनगेह को।
पूजूं जिनवर बिंब सभी धर नेह को।।3।।
ऊँ ह्रीं जंबूद्वीपस्थसुदर्शनमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेभ्यः अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
सुरपादप के सुरभित सुमन मंगायके।
कामजयी जिनपाद जजूं शिर नाय के।।
मेरू सुदर्शन के सोलह जिनगेह को।
पूजूं जिनवर बिंब सभी धर नेह को।।4।।
ऊँ ह्रीं जंबूद्वीपस्थसुदर्शनमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेभ्यः पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मोदक बरफी पुआ सरस चरू ले लिया।
क्षुधाव्याधि हर तुम पद में अर्पण किया।।
मेरू सुदर्शन के सोलह जिनगेह को।
पूजूं जिनवर बिंब सभी धर नेह को।।5।।
ऊँ ह्रीं जंबूद्वीपस्थसुदर्शनमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेभ्यः नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घृत भर दीपक ज्योति सहित आरति करूं।
मोह ध्वांत हर जिन अर्चूं भ्रम तम हरूं।।
मेरू सुदर्शन के सोलह जिनगेह को।
पूजूं जिनवर बिंब सभी धर नेह को।।6।।
ऊँ ह्रीं जंबूद्वीपस्थसुदर्शनमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेभ्यः दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
कृष्णागरू वर धूप अग्नि में खेवते।
दुष्ट कर्म अरि दग्ध हुये तुम सेवते।।
मेरू सुदर्शन के सोलह जिनगेह को।
पूजूं जिनवर बिंब सभी धर नेह को।।7।।
ऊँ ह्रीं जंबूद्वीपस्थसुदर्शनमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेभ्यः धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
पिस्ता काजू द्राक्ष फलों को लाय के।
सरस मोक्ष फल हेतु जजूं हरषाय के।।
मेरू सुदर्शन के सोलह जिनगेह को।
पूजूं जिनवर बिंब सभी धर नेह को।।8।।
ऊँ ह्रीं जंबूद्वीपस्थसुदर्शनमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेभ्यः फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गंधादिक अष्ट द्रव्य भर थाल में।
पूजूं अर्घ चढ़ाऊं नाऊं भाल मैं।।
मेरू सुदर्शन के सोलह जिनगेह को।
पूजूं जिनवर बिंब सभी धर नेह को।।9।।
ऊँ ह्रीं जंबूद्वीपस्थसुदर्शनमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
--सोरठा--
परम शांति के हेतु, शांतिधारा मैं करूं।
सकल जगत में शांति, सकल संघ में हो सदा।।10।।
शांतये शांतिधारा।
चंपक हर सिंगार, पुष्प सुगंधित अर्पिते।
होवे सुख अमलान, दुख दारिद्र पलायते।।11।।
दिव्य पुष्पांजलिः।
--प्रत्येक अघ्र्य-दोहा--
सर्वश्रेष्ठ गिरिराज है, मेरू सुदर्शन नाम।
चारों वन के के जिनभवन, नितप्रति करूं प्रणाम।।1।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-चैबोल छंद-
मेरू सुदर्शन के पृथ्वी पर, भद्रसाल वन रम्य महान।
पूर्व दिशा में जिन मंदिर है, त्रिभुवन तिलक अतुल सुखदान।।
जल फल आदिक अघ्र्य सजाकर, पूजूं जिनप्रतिमा गुणखान।
रोग शोक भय संकट हर कर, पाऊं अविचल सौख्य निधान।।1।।
ऊँ ह्रीं सुदर्शनमेरूसंबंधिभद्रसालवनस्थितपूर्वदिक्जिनालय जिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रथम सुराचल भद्रसाल में, दक्षिण दिश जिन मंदिर जान।
सुर नर किन्नर यक्ष यक्षिणी, विद्याधर गण पूजें आन।।
जल फल आदिक अघ्र्य सजाकर, पूजूं जिनप्रतिमा गुणखान।
रोग शोक भय संकट हर कर, पाऊं अविचल सौख्य निधान।।1।।
ऊँ ह्रीं सुदर्शनमेरूसंबंधिभद्रसालवनस्थितदक्षिणदिक्जिनालय जिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रथम देवगिरि भद्रसाल में, पश्चिमदिश जिन भवन अनूप।
रत्नत्रय निधि के इच्छुक जन, पूजन करत लहें सुखरूप।।
जल फल आदिक अघ्र्य सजाकर, पूजूं जिनप्रतिमा गुणखान।
रोग शोक भय संकट हर कर, पाऊं अविचल सौख्य निधान।।3।।
ऊँ ह्रीं सुदर्शनमेरूसंबंधिभद्रसालवनस्थितपष्चिमदिक्जिनालय जिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रथम मेरू के भद्रसाल में, उत्तर दिश जिनराज निकेत।
भव भय दुःख हरण हेतु भवि, नित प्रति पूजें भक्ति समेत।।
जल फल आदिक अघ्र्य सजाकर, पूजूं जिनप्रतिमा गुणखान।
रोग शोक भय संकट हर कर, पाऊं अविचल सौख्य निधान।।4।।
ऊँ ह्रीं सुदर्शनमेरूसंबंधिभद्रसालवनस्थितउत्तरदिक्जिनालय जिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
--रोला छंद--
मेरू सुदर्शन विषै, सुभग नंदन वन जानो।
सुरनरगण से पूर्व दिक् जिनगृह मानो।।
जल गंधादि मिलाय, अघ्र्य ले पूजों भाई।
रोग शोक मिट जाय, मिले निज संपति आई।।5।।
ऊँ ह्रीं सुदर्शनमेरूसंबंधिनदवनवनस्थितपूर्वदिग्जिनालयसर्वजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नंदन वन के मांहि, जिनालय दक्षिण दिश हैं।
नित्य महोत्सव साज, देवगण पूजन रत हैं।।
जल गंधादि मिलाय, अघ्र्य ले पूजों भाई।
रोग शोक मिट जाय, मिले निज संपति आई।।6।।
ऊँ ह्रीं सुदर्शनमेरूसंबंधिनदवनवनस्थितदक्षिणदिग्जिनालयसर्वजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पष्चिम दिश जिननिलय, मनोहर नंदनवन में।
सुर विद्याधर रहें, सतत भक्तीरत जिन में।।
जल गंधादि मिलाय, अघ्र्य ले पूजों भाई।
रोग शोक मिट जाय, मिले निज संपति आई।।7।।
ऊँ ह्रीं सुदर्शनमेरूसंबंधिनदवनवनस्थितपश्चिमदिग्जिनालयसर्वजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नन्दनवन के उत्तर, जिन मंदिर सुखकारी।
उसमें जिनवर बिंब, दुरितहर मंगलकारी।।
जल गंधादि मिलाय, अघ्र्य ले पूजों भाई।
रोग शोक मिट जाय, मिले निज संपति आई।।8।।
ऊँ ह्रीं सुदर्शनमेरूसंबंधिनदवनवनस्थितउत्तरदिग्जिनालयसर्वजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
--दोहा--
वन सौमनस महान है, मेरू सुदर्शन माहिं।
पूरब दिश में जिन भवन, पूजूं अघ्र्य चढ़ाहिं।।9।।
ऊँ ह्रीं सुदर्शनमेरूसंबंधिसौमनसवनस्थितपूर्वदिक्जिनालयजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वन सौमनस जिनेश गृह, दक्षिण दिशा मंझार।
वसु विधि अघ्र्य संजोय के, पूजों हो भव पार।।10।।
ऊँ ह्रीं सुदर्शनमेरूसंबंधिसौमनसवनस्थितदक्षिणदिक्जिनालयजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पश्चिम दिश सौमनस के स्वर्णमयी जिनधाम।
भक्तिभाव से अघ्र्य ले, पूजों जिनवर धाम।।11।।
ऊँ ह्रीं सुदर्शनमेरूसंबंधिसौमनसवनस्थितपश्चिमदिक्जिनालयजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तरदिश सौमनस में, श्री जिनभवन महान्।
त्रिभुवनतिलक प्रसिद्ध है, जजूं अघ्यं ले आन।।12।।
ऊँ ह्रीं सुदर्शनमेरूसंबंधिसौमनसवनस्थितउत्तरदिक्जिनालयजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
--शंभु छंद--
मेरू पर चैथा पांडुकवन, उसके पूरब दिश सुन्दर है।
रत्नों की मूर्ति से संयु तमणिकनकमयी जिनमंदिर हैं।।
जल गंधादिक वसु द्रव्य लिये, नित पूजा करके अघ्र्य करूं।
संसार जलधि से तिरने को, जिन भक्ती नौका प्राप्त करूं।।13।।
ऊँ ह्रीं सुदर्शनमेरूसंबंधिपांडुकवनपूर्वद्किजिनालयजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पांडुकवन में दक्षिण दिश का, जिन भवन अनुपम कहलात।
जो दर्शन ंन करते हैं, उनको यह अनुपम फलदाता।।
जल गंधादिक वसु द्रव्य लिये, नित पूजा करके अघ्र्य करूं।
संसार जलधि से तिरने को, जिन भक्ती नौका प्राप्त करूं।।14।।
ऊँ ह्रीं सुदर्शनमेरूसंबंधिपांडुकवनदक्षिणद्किजिनालयजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पांडुकवन के पश्चिम दिश में, जिन चैत्यालय महिमाशाली।
सुरनर विद्याधर से पूजित, सब ताप हरे गुणमणिमाली।।
जल गंधादिक वसु द्रव्य लिये, नित पूजा करके अघ्र्य करूं।
संसार जलधि से तिरने को, जिन भक्ती नौका प्राप्त करूं।।15।।
ऊँ ह्रीं सुदर्शनमेरूसंबंधिपांडुकवनपश्चिमद्किजिनालयजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पांडुकवन के उत्तरदिश में शुभ, त्रिभुवनतिलक जिनालय हैं।
नामोचचारण से पाप दहें, भक्तों के लिए सुखालय हैं।।
जल गंधादिक वसु द्रव्य लिये, नित पूजा करके अघ्र्य करूं।
संसार जलधि से तिरने को, जिन भक्ती नौका प्राप्त करूं।।16।।
ऊँ ह्रीं सुदर्शनमेरूसंबंधिपांडुकवनउत्तरद्किजिनालयजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
--पूर्णाघ्र्य-अडिल्ल छंद--
प्रथम मेरू के सोलह जिनगृह नित जजूं।
पूरण अघ्र्य चढ़ाय पूर्ण सुख को भजूं।।
काम विजेता जिनवरबिंब मनोज्ञ हैं।
पूजत ही निष्काम बनूं अतियोग्य मैं।।1।।
ऊँ ह्रीं सुदर्शनमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेभ्यः पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सोलह जिनगृह में जिनप्रतिमा जानिये।
सत्रह सौ अट्ठाइस संख्य बखानिये।।
प्रतिजिनगृह में इक सौ आठ प्रमाण हैं।
पूजूं मैं रूचिधार मुझे सुख खान हैं।।2।।
ऊँ ह्रीं सुदर्शनमेरूसंबंधिषोडशजिनालयमध्यविराजमानएकसहस्र-सप्तशतअष्टाविंशतिजिनप्रतिमाभ्यः पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
--दोहा--
पांडुकवन के विदिक् में शिला चार अभिराम।
पूजूं अर्घ चढ़ाय के मिले स्वात्म विश्राम।।3।।
ऊँ ह्रीं पांडुकादिशिलाभ्यः पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जाप्य- ऊँ ह्रीं पंचमेरूसंबंधिअशीतिजिनालयजिनबिम्बेभ्यो नमः।
(लवंग या पुष्पों से 9 बार, 27 या 108 बार करें)
जयमाला
--दोहा--
सर्वोत्तम सर्वोच्च है, प्रथम मेरू गिरिराज।
उसकी यह जयमालिका, हर्षित गाऊ आज।।1।।
--शंभु छंद--
जय मेरू सुदर्शन है अनुपम, सोलह चैत्यालय से सोहे।
अध्यात्म शिरोमणि योजीजग, उनका भी अतिशय मन मोहे।।
उपवन वापी से कूटों से, परकोटों से सुर भवनों से।
मंडित रमणीक महासुन्दर, कांचन मणिमय शुीारतनों से।।2।।
पृथ्वी पर भ्रदसाल वन है, चंपक तरू आदिक से भाता।
है पांचशतक योजन ऊपर, नन्दनवन अतिशय सुखदाता।।
इससे साढ़े बासठ हजार, योजन ऊपर सौमनस बनी।
छत्तीस हजार महायोजन, ऊपर पांडुकवन सौख्यघनी।।3।।
चारों वन के चारों दिश में, अकृत्रिम चैत्यालय मानो।
प्रति मंदिर इस सौ आठ कही, जिनप्रतिमा अतिशययुत जानो।।
इनके दर्शन से घोर महा, मिथ्यात्व तिमिर भी नश जाता।
सम्यग्दर्शन की ज्योति जगे, आत्मा आत्मा को लख पाता।।4।।
भव भव से संचित पाप राशि, इक क्षण में भस्म हुआ करती।
जिनराज चरण की भक्ती ही, भवि के भव भव दुःख को हरती।।
ये मूर्ति अचेतन होकर भी, चेतन को वांछित फल देतीं।
तीर्थंकर के अभिषव जल से, वे पूज्य हुई सुरवंद्य इला।।5।।
जय भद्रशाल के जिनमंदिर, जय नन्दनवन के जिनगेहा।
जय सौमनसं पांडुकवन के, जिनभवन जजूं मै धरनेहा।।
ये मूर्ति अचेतन होकर भी, चेतन को वांछित फल देतीं।
जो पूजें ध्यावें भक्ति करें, उनके सब संकट हर लेतीं।।6।।
--दोहा--
मेरूसुदर्शन की भविक, पूजा करो पुनीत।
मेरूसदृश उत्तुंग फल, लहो शीघ्र ही मीत।।7।।
ऊँ ह्रीं सुदर्शनमेरूसंबंधिषोडशजिनालयसर्वजिनबिम्बेभ्यः जयमाला अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
--गीता छंद--
जो भव्यजन श्रीपंचमेरू, व्रत करें नित भाव से।
फिर व्रतोद्योतन हित, महा पूजा करें बहुभाव से।।
वे पुण्यमय तीर्थेश हो अभिषेक सुरगिरिपर लहें।
त्रयज्ञानमति चउज्ञान धर फिर अंत में केवल लहें।।1।।
।।इत्याशीर्वादः।।
-विजय मेरू पूजा
--स्थापना-दोहा--
पूर्व धातकी खंड में विजयमेरू अभिराम।
जिसमें सोलह जिनभवन हैं शाश्वतगुणधाम।।1।।
जिनवर प्रतिमा मणिमयी शिवसुखफल दातार।
आह्वानन विधि से यहां पूजूं अष्ट पूकार।।2।।
ऊँ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपस्थविजयमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट।
ऊँ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपस्थविजयमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।
ऊँ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपस्थविजयमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
--अथाष्टकं-चामर छंद--
क्षीरसिंधुनीर लाय स्वर्णभृंग में भरूं।
श्री जिनेन्द्र पाद में चढ़ाय कर्ममल हरूं।।
मेरूविजय के जिनेन्द्रगेह को यहां जजूं।
स्वात्मसिद्धिहेतु मै जिनेन्द्र बिंब को भजूं।।1।।
ऊँ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपस्थविजयमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेभ्यः जलं निर्वपामीति स्वाहा।
अष्टगंध अतिसुगंध हेमपात्र में लिये।
नाथ पाद अच्र के समस्त दाह नाशिये।।
मेरूविजय के जिनेन्द्रगेह को यहां जजूं।
स्वात्मसिद्धिहेतु मै जिनेन्द्र बिंब को भजूं।।2।।
ऊँ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपस्थविजयमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेभ्यः चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
चन्द्रकांति के समान श्वेत शालि लाइया।
नाथ पाद के समीप पुंज को चढ़ाइया।।
मेरूविजय के जिनेन्द्रगेह को यहां जजूं।
स्वात्मसिद्धिहेतु मै जिनेन्द्र बिंब को भजूं।।3।।
ऊँ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपस्थविजयमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेभ्यः अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
पारिपाज मोगरा जुही गुलाब लाइया।
कामनाश हेतु आप पाद में चढ़ाइया।।
मेरूविजय के जिनेन्द्रगेह को यहां जजूं।
स्वात्मसिद्धिहेतु मै जिनेन्द्र बिंब को भजूं।।4।।
ऊँ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपस्थविजयमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेभ्यः पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मालपूप खज्जिकादि शर्करा विमिश्र ले।
भूख व्याधि नाशहेतु आपको समर्पि ले।।
मेरूविजय के जिनेन्द्रगेह को यहां जजूं।
स्वात्मसिद्धिहेतु मै जिनेन्द्र बिंब को भजूं।।5।।
ऊँ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपस्थविजयमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेभ्यः नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्णपात्र में संजोय दीप आरती करूं।
भेदज्ञान को प्रकाश ज्ञान भारती वरूं।।
मेरूविजय के जिनेन्द्रगेह को यहां जजूं।
स्वात्मसिद्धिहेतु मै जिनेन्द्र बिंब को भजूं।।6।।
ऊँ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपस्थविजयमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेभ्यः दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अग्निपात्र में सद सुगंध धूप खेवते।
पापपुंज को जलाय स्वात्मसौख्य सेवते।।
मेरूविजय के जिनेन्द्रगेह को यहां जजूं।
स्वात्मसिद्धिहेतु मै जिनेन्द्र बिंब को भजूं।।7।।
ऊँ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपस्थविजयमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेभ्यः धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
सेव आम औ अनार लाय थाल में भरे।
मोक्षफल निमित्त आज आप अर्चना करें।।
मेरूविजय के जिनेन्द्रगेह को यहां जजूं।
स्वात्मसिद्धिहेतु मै जिनेन्द्र बिंब को भजूं।।8।।
ऊँ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपस्थविजयमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेभ्यः फलं निर्वपामीति स्वाहा।
नीरगंध अक्षतादि लेय अघ्र्य थाल में।
तीनरत्न प्राप्ति हेतु पूजहूं त्रिकाल में।।
मेरूविजय के जिनेन्द्रगेह को यहां जजूं।
स्वात्मसिद्धिहेतु मै जिनेन्द्र बिंब को भजूं।।9।।
ऊँ ह्रीं पूर्वधातकीखंडद्वीपस्थविजयमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
--सोरठा--
परमशांति के हेतु, शांतिधारा मैं करूं।
सकल विश्व में शांति, सकलसंघ में हो सदा।।10।।
शांतये शांतिधारा।
चंपक हरसिगार, पुष्प सुगंधित अर्पते।
होवे सुख अमलान, दुख दारिद्र पलायते।।11।।
दिव्य पुष्पांजलिः।
अथ प्रत्येक अघ्र्य
--सोरठा--
शुद्ध बुद्ध अविरूद्ध, जिनवर प्रतिमा मैं जजूं।
निज आतम कर शुद्ध, पाऊं परमानंद मैं।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
--नरेन्द्र छंद--
विजय मेरू के पृथ्वी तल पर, भद्रशाल वन सोहे।
उसमें पूरबदिशि जिनमंदिर, सुरनरगण मन मोहे।।
जल फल आदिक अघ्र्य सजाकर, अर्चूं जिनगुण गाके।
नरसुर के सुख भोग अंत में, बसं मोक्षपुर जाके।।2।।
ऊँ ह्रीं विजयमेरूसंबंधिभद्रसालवनस्थितपूर्वदिक्जिनालयजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विजयमेरू के भद्रशाल में दक्षिणदिशा जिनधामा।
शाश्वत जिनवर बिंब मनोहर अतुल अमल अभिरामा।।
जल फल आदिक अघ्र्य सजाकर, अर्चूं जिनगुण गाके।
नरसुर के सुख भोग अंत में, बसं मोक्षपुर जाके।।2।।
ऊँ ह्रीं विजयमेरूसंबंधिभद्रसालवनस्थितदक्षिणदिक्जिनालयजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दुतिया मेंरू के भद्रशाल में पश्चिम दिश जिनगेहा।
जिनप्रतिमा को सुरपति नरपति वंदे भक्ति सनेह।।
जल फल आदिक अघ्र्य सजाकर, अर्चूं जिनगुण गाके।
नरसुर के सुख भोग अंत में, बसं मोक्षपुर जाके।।3।।
ऊँ ह्रीं विजयमेरूसंबंधिभद्रसालवनस्थितपश्चिमदिक्जिनालयजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विजयसुरचाल भद्रशाल में उत्तरदिश जिनधामा।
भवविजयी की प्रतिमा उनमें जजत लहें शिवधामा।
जल फल आदिक अघ्र्य सजाकर, अर्चूं जिनगुण गाके।
नरसुर के सुख भोग अंत में, बसं मोक्षपुर जाके।।4।।
ऊँ ह्रीं विजयमेरूसंबंधिभद्रसालवनस्थितउत्तरदिक्जिनालयजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
--चाल छंद-नन्दीश्वर पूजा--
श्री विजय मेरूवर शैल, जजतें अघ नाशें।
नंदनवन पूरब जैन, मंदिर अति भासे।।
यतिगण जिन ध्यान लगाय, आतम शुद्ध करें।
मैं जजूं सर्व जिनबंबि, कर्म कलंक हरें।।1।।
ऊँ ह्रीं विजयमेरूसंबंधिभद्रसालवनस्थितपूर्वदिक्जिनालयजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इ समेरू दक्षिण माहिं, नंदन वन प्यारा।
जिन भवन अनुपम ताहिं, सब जग में न्यारा।।
यतिगण जिन ध्यान लगाय, आतम शुद्ध करें।
मैं जजूं सर्व जिनबंबि, कर्म कलंक हरें।।2।।
ऊँ ह्रीं विजयमेरूसंबंधिभद्रसालवनस्थितदक्षिणदिक्जिनालयजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नंदनवन पश्चिम माहिं, जिन मंदिर भावे।
इस ही मेरू पर इन्द्र, परिकर सह आवें।।
यतिगण जिन ध्यान लगाय, आतम शुद्ध करें।
मैं जजूं सर्व जिनबंबि, कर्म कलंक हरें।।3।।
ऊँ ह्रीं विजयमेरूसंबंधिभद्रसालवनस्थितपश्चिमदिक्जिनालयजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उत्तर दिश नंदन रम्य, जिनवर आलय है।
इस विजय मेरू के मध्य, धर्म सुधालय है।।
यतिगण जिन ध्यान लगाय, आतम शुद्ध करें।
मैं जजूं सर्व जिनबंबि, कर्म कलंक हरें।।4।।
ऊँ ह्रीं विजयमेरूसंबंधिभद्रसालवनस्थितउत्तरदिक्जिनालयजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
--कुसुमलता छंद--
विजयमेरू नंदनवन ऊपर, वन सौमनस कहा सुखकार।
अकृत्रिम जिनभवन पूर्वदिश, सुरकिन्नर मन हरत अपार।।
मैं पूजें जिनबिंब मनोहर, मन वच तन कर अघ्र्य चढ़ाय।
रोग शोक भय आधि उपाधी, सब भव व्याधी शीघ्र पलाय।।1।।
ऊँ ह्रीं विजयमेरूसंबंधिभदसौमनवनस्थितपूर्वदिक्जिनालयजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विजयमेरू सौमनस वनी के, दक्षिण दिश जिन भवनविशाल।
गर्भालय में मणिमय प्रतिमा, भविजन पूजन करत त्रिकाल।।
मैं पूजें जिनबिंब मनोहर, मन वच तन कर अघ्र्य चढ़ाय।
रोग शोक भय आधि उपाधी, सब भव व्याधी शीघ्र पलाय।।2।।
ऊँ ह्रीं विजयमेरूसंबंधिभदसौमनवनस्थितदक्षिणदिक्जिनालयजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पश्चिम दिश सौमनस वनी में जिनवर सदन मदन मदहार।
’मृत्युजयि की प्रतिमा उनमें, मुनिगण वंदत मुद मनधार।।
मैं पूजें जिनबिंब मनोहर, मन वच तन कर अघ्र्य चढ़ाय।
रोग शोक भय आधि उपाधी, सब भव व्याधी शीघ्र पलाय।।3।।
ऊँ ह्रीं विजयमेरूसंबंधिभदसौमनवनस्थितपश्चिमदिक्जिनालयजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विजयमेरू सौमनस रम्यवन, उसमें उत्तर दिशा मंझार।
श्रीजिनमंदिर में जिन प्रतिमा, नितप्रति वंदूं बारम्बार।।
मैं पूजें जिनबिंब मनोहर, मन वच तन कर अघ्र्य चढ़ाय।
रोग शोक भय आधि उपाधी, सब भव व्याधी शीघ्र पलाय।।4।।
ऊँ ह्रीं विजयमेरूसंबंधिभदसौमनवनस्थितउत्तरदिक्जिनालयजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
--चैपाई छंद--
विजयमेरू पांडुकवन जानो, पूरब दिश जिनभवन बखानो।
सुरपति खगपति नित्य जजें हैं, हम भी अघ्र्य चढ़ाय भजे हैं।।1।।
ऊँ ह्रीं विजयमेरूसंबंधिपांडुकवनस्थितपूर्वदिक्जिनालयजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इस पांडुकवन दक्षिण जानो, शाश्वत श्री जिनभवन महानो।
सुरललना जिनवर गुण गावें, हम भी पजूं जिनपद ध्यावें।।2।।
ऊँ ह्रीं विजयमेरूसंबंधिपांडुकवनस्थितदक्षिणदिक्जिनालयजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
---------------------
1. आयुकर्म से रहित जिनेश्वर।
--------------------- इस वन में पश्चिम दिश माहीं, जिनगृह सम उत्तम कुछ नाहीं।
किन्नरियां वीणा स्वर साजें, हम भी पूजें सब अघ भाजें।।3।।
ऊँ ह्रीं विजयमेरूसंबंधिपांडुकवनस्थितपश्चिमदिक्जिनालयजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विजयमेरू पाडुकवन सोहे, जिनवर भवनसबन मन मोहे।
देव देवियां जिनपद पूजे, हम भी यहां तुम्हें नित पूजें।।4।।
ऊँ ह्रीं विजयमेरूसंबंधिपांडुकवनस्थितउत्तरदिक्जिनालयजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
--दोहा-पूणाघ्र्य--
सोलर जिनवर भवन हैं, विजयमेरू के नित्य।
अर्चूं पूरण अघ्र्य ले, पूर्ण सौख्य हो नित्य।।1।।
ऊँ ह्रीं विजयमेरूसंबंधिषोड़शजिनालयेभ्यः पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनगृह के जिनबिंब को, नमूं भक्ति मन लाय।
सत्रह सौ अठबीस हैं, पूजूं अर्घ चढ़ाय।।2।।
ऊँ ह्रीं विजयमेरूसंबंधिषोड़शजिनालयमध्यविराजमानएकसहस्रसप्त-शताष्टाविंशतिजिनप्रतिमाभ्यः पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मेरू पांडुकवन विदिक् पांडुकशिलादि चार।
नमं नमूं जिनवर न्हवन, पूत शिला सुखकार।।3।।
ऊँ ह्रीं विजयमेरूसंबंधिपांडुकवनविदिक्पांडुकादिशिलाभ्यः पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलिः।
जाप्य-ऊं ह्रीं पंचमेरूसंबंधिअशीतिजिनालयजिनबिम्बेभ्यो नमः।
(लवंग या पुष्पों से 9 बार, 27 या 108 बार करें।)
जयमाला
--शंभ छंद--
यह विजयमेरू चैरासि सहस, योजन उत्तुंग कहाता है।
वन भद्रसाल से पंचशतक, योजन पर नंदन आता है।।
योजन साढ़े पचपन हजार, ऊपर सौमनस सुहाता है।
योजन अट्ठाइस सहस जाय, पांडुकवन सबको भाता है।।1।।
--दोहा--
इसमें सोलह जिनभवन, त्रिभुवन तिलक महान।
उनमें जिनप्रतिमा विमल, नमूं नमूं गुण खान।।2।।
--चाल-हे दीनबन्धु--
देवाधिदेव श्री जिनेन्द्रदेव हो तुम्हीं।
अनादि औ अनंत स्वयंसिद्ध हो तुम्हीं।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान हो गया।
सम्यक्त्व निधि पाय, मैं धनवान हो गया।।3।।
रस गंध सरस रूप से मैं शून्य ही कहा।
इस मोह से भी मेरा संबंध ना रहा।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान हो गया।
सम्यक्त्व निधि पाय, मैं धनवान हो गया।।4।।
ये द्रव्यकर्म आत्मा से बद्ध नहीं हैं।
ये भावकर्म तो मुझे छूते भी नहीं है।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान हो गया।
सम्यक्त्व निधि पाय, मैं धनवान हो गया।।5।।
मैं एकला हूं शुद्ध ज्ञान दरश स्वरूपी।
चैतन्य चमत्कार, ज्योति पुंज अरूपी है।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान हो गया।
सम्यक्त्व निधि पाय, मैं धनवान हो गया।।6।।
मैं नित्य हूं अखंड हूं, आनंद धाम हूं।
शुद्धात्म हूं परमात्म हूं, त्रिभुवन ललाम हूं।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान हो गया।
सम्यक्त्व निधि पाय, मैं धनवान हो गया।।7।।
मैं पूर्ण विमल ज्ञान, दर्श वीर्य स्वभावी।
निज आत्मा से जन्य, परम सौख्य प्रभावी।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान हो गया।
सम्यक्त्व निधि पाय, मैं धनवान हो गया।।8।।
परमाथ नय से मैं तो सदा शुद्ध कहाता।
ये भावना ही एक सर्वसिद्धि प्रदाता।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान हो गया।
सम्यक्त्व निधि पाय, मैं धनवान हो गया।।9।।
व्यवहारनय से यद्यपि, अशुद्ध हो रहा।
संसार पारावार में ही, डूबता रहा।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान हो गया।
सम्यक्त्व निधि पाय, मैं धनवान हो गया।।10।।
फिर भी तो मुझे आज मिले आप खिवैया।
निज हाथ का अवलम्ब दे, भव पार करैया।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान हो गया।
सम्यक्त्व निधि पाय, मैं धनवान हो गया।।11।।
मैं आश यही लेके नाथ पास में आया।
अब वेग हरो जन्म व्याधि, खूब सताया है।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान हो गया।
सम्यक्त्व निधि पाय, मैं धनवान हो गया।।12।।
हे दीन बंधु शीघ्र ही निज पा लीजिए।
भव सिंधु से निकाल, मुक्तिवास दीजिये।।
हे नाथ! तुम्हें पाय मैं महान हो गया।
सम्यक्त्व निधि पाय, मैं धनवान हो गया।।13।।
घत्ताछन्द
जय जय सुखकंदा, अमल अखंडा,
त्रिभुवन कंदा तुमहि नमूं।
जय ’’ज्ञानमति’’ मम, शिवतिय अनुपम,
तुरत मिलावो नित प्रणमूं।।14।।
ऊँ ह्रीं पूर्वधातकी खंडीद्वीपस्थविजयमेरूसंबंधिषोड़शजिनालयसर्वजिनबंबेभ्यो जयमाला पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलिः।
--गीता छंद--
जो भव्यजन श्रीपंचमेरू, व्रत करें नित चाव से।
फिर व्रतोद्योतन हित, महापूजा करें बहुभाव से।।
वे पुण्यमय तीर्थेश हो, अभिषेक सुरगिरि पर लहें।
त्रयज्ञानमति चउज्ञान धर, फिर अंत में केवल लहें।।
।।इत्याशीर्वादः।।
अचल मेरू पूजा
--स्थापना-गीता छंद--
श्री अचलचेरू राजता है, अपर धातकि द्वीप में।
सोलह जिनालय तास में, जिनबिंब हैं उन बीच में।
प्रत्यक्ष दर्शन हो नहीं, अतएव पूजूं मैं यहां।
आह्वान विधि करके प्रभो, थापूं तुम्हें आवो यहां।।1।।
ऊँ ह्रीं पश्चिमधातकी खण्डद्वीपस्थअचलमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट।
ऊँ ह्रीं पश्चिमधातकी खण्डद्वीपस्थअचलमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।
ऊँ ह्रीं पश्चिमधातकी खण्डद्वीपस्थअचलमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
--अथाष्टक-गीता छंद--
गंगानदी का स्वच्छ प्रासुक नीर झारी मैं भरूं।
संसार के त्रयताप शांति हेतु त्रयधारा करूं।।
श्री अचल मेरू के जिनालय और जिनेश्वर बिंब को।
मैं पूजहूं नितभक्ति से नाशूं सकल जगद्वंद्व को।।1।।
ऊँ ह्रीं पश्चिमधातकी खण्डद्वीपस्थअचलमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेभ्यः निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूर चंदन पंक शीतल भर कटोरी में लिया।
जिनपाद पंकज पूजते भवतप्त मन शीतल किया।।
श्री अचल मेरू के जिनालय और जिनेश्वर बिंब को।
मैं पूजहूं नितभक्ति से नाशूं सकल जगद्वंद्व को।।2।।
ऊँ ह्रीं पश्चिमधातकी खण्डद्वीपस्थअचलमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेभ्यः चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
दुग्धाब्धि फेन समान उज्ज्वल धौत तंदुल थाल में।
जिनचरण वारिज के निकट धर पुंज नाऊं भाल मैं।।
श्री अचल मेरू के जिनालय और जिनेश्वर बिंब को।
मैं पूजहूं नितभक्ति से नाशूं सकल जगद्वंद्व को।।3।।
ऊँ ह्रीं पश्चिमधातकी खण्डद्वीपस्थअचलमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेभ्यः अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
बेला चमेली मौलसिरि सुमन भर लाइया।
कंदर्प दर्प विनाशने को नाथ चरण चढ़ाइया।।
श्री अचल मेरू के जिनालय और जिनेश्वर बिंब को।
मैं पूजहूं नितभक्ति से नाशूं सकल जगद्वंद्व को।।4।।
ऊँ ह्रीं पश्चिमधातकी खण्डद्वीपस्थअचलमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेभ्यः पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
पकवान फेनी मोदकादिक सरस थाली में भरे।
क्षुध रोग हर तुम पद कमल पूजत क्षुधा डाकिनि हरें।।
श्री अचल मेरू के जिनालय और जिनेश्वर बिंब को।
मैं पूजहूं नितभक्ति से नाशूं सकल जगद्वंद्व को।।5।।
ऊँ ह्रीं पश्चिमधातकी खण्डद्वीपस्थअचलमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेभ्यः नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूर ज्योति जगमगे अंधेर सब जग का हरे।
तुम चरण पूजा दीप से मन ध्वांत को क्षण में हरे।।
श्री अचल मेरू के जिनालय और जिनेश्वर बिंब को।
मैं पूजहूं नितभक्ति से नाशूं सकल जगद्वंद्व को।।6।।
ऊँ ह्रीं पश्चिमधातकी खण्डद्वीपस्थअचलमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेभ्यः दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
दशगंध सुरभित धूप अग्नी पात्र में खेऊं सदा।
अतर कलुष बाहर भगे नहिं स्वप्न में हो भ्रम कदा।।
श्री अचल मेरू के जिनालय और जिनेश्वर बिंब को।
मैं पूजहूं नितभक्ति से नाशूं सकल जगद्वंद्व को।।7।।
ऊँ ह्रीं पश्चिमधातकी खण्डद्वीपस्थअचलमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेभ्यः धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अंगूर आम अनार फल अखरोट आदिक लाइया।
अक्षय सुखद फल हेतु जिनपद पद्म निकट चढ़ाइया।।
श्री अचल मेरू के जिनालय और जिनेश्वर बिंब को।
मैं पूजहूं नितभक्ति से नाशूं सकल जगद्वंद्व को।।8।।
ऊँ ह्रीं पश्चिमधातकी खण्डद्वीपस्थअचलमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेभ्यः फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गंध अक्षत पुष्प नेवज दीप धूपरू फल लिया।
निज संपदा के हेतु भगवन्! अर्घ तव अर्पण किया।।
श्री अचल मेरू के जिनालय और जिनेश्वर बिंब को।
मैं पूजहूं नितभक्ति से नाशूं सकल जगद्वंद्व को।।9।।
ऊँ ह्रीं पश्चिमधातकी खण्डद्वीपस्थअचलमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परम शांति सुख देतु, शांतीधारा मैं करूं।
सकल जगत में शांति, कसल संघ में हो सदा।।10।।
शांतये शांतिधारा।
चंपक हरसिंगार, पुष्प सुगन्धित अर्पिते।
हावे सुख अमलान, दुःख दारिद्र पलायते।।11।।
दिव्य पुष्पांजलिः।
अथ प्रत्येक अघ्र्य
--दोहा--
अचल मेरू के जिनभवन, पूजूं भक्ति समेत।
पुष्पांजलि कर पूजते, जिनमन्दिर भवसेतु।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्
--अडिल्ल छंद--
अचलमेरू में भद्रशाल वन जानिये।
तामें पूरब दिश जिनमन्दिर मानिये।।
अघ्र्य चढ़ाकर मैं पूजूं नित भाव से।
निजगुण संपति हेतु भजूं अति चाव से।।1।।
ऊँ ह्रीं श्रीअचलमेरूसम्बन्धिभद्रसालवनस्थितपूर्वदिक्चैत्यालयजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तृतीय मेरू के भद्रशाल में राजता।
दक्षिणदिश जिनभवन अनूपम शासता।।
अघ्र्य चढ़ाकर मैं पूजूं नित भाव से।
निजगुण संपति हेतु भजूं अति चाव से।।2।।
ऊँ ह्रीं श्रीअचलमेरूसम्बन्धिभद्रसालवनस्थितदक्षिणदिक्चैत्यालयजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अचलमेरू के भद्रशाल में रम्य है।
पश्चिम दिश जिनसदन सकलसुखसद्म हैं।।
अघ्र्य चढ़ाकर मैं पूजूं नित भाव से।
निजगुण संपति हेतु भजूं अति चाव से।।3।।
ऊँ ह्रीं श्रीअचलमेरूसम्बन्धिभद्रसालवनस्थितपश्चिमदिक्चैत्यालयजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अचलमेरू के भद्रशाल उत्तर दिशी।
जिनमंदिर में जिनप्रतिमा अनुपमकृती।।
अघ्र्य चढ़ाकर मैं पूजूं नित भाव से।
निजगुण संपति हेतु भजूं अति चाव से।।4।।
ऊँ ह्रीं श्रीअचलमेरूसम्बन्धिभद्रसालवनस्थितउत्तरदिक्चैत्यालयजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
--नरेन्द्र छंद--
अचलमेरू के नंदनवन में, पूर्व दिशी जिन गेहा।
निज आतम अनुभव रसस्वादी, मुनिगण नमत सनेहा।।
नीरादिक वसुद्रव्य मिलाकर, अर्घ चढ़ाऊं आके।
निज आतम समरस जल पीकर, बसूं मोक्षपुर जाके।।1।।
ऊँ ह्रीं श्रीअचलमेरूसम्बन्धिनंदनवनस्थितपूर्वदिग्जिनालयजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अचलमेरू नंदनवन दक्षिण, सुरवंदित जिनधामा।
इंद्रिय सुख त्यागी वैरागी, यति वंदें निष्कामा1।।
नीरादिक वसुद्रव्य मिलाकर, अर्घ चढ़ाऊं आके।
निज आतम समरस जल पीकर, बसूं मोक्षपुर जाके।।2।।
ऊँ ह्रीं श्रीअचलमेरूसम्बन्धिनंदनवनस्थितदक्षिणदिग्जिनालयजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शुद्धातम ध्यानी मुनि ज्ञानी, जिन का ध्यान धरे हैं।
अचलमेरू नंदन पश्चिम दिश, जिनगृह पाप हरे हैं।।
नीरादिक वसुद्रव्य मिलाकर, अर्घ चढ़ाऊं आके।
निज आतम समरस जल पीकर, बसूं मोक्षपुर जाके।।3।।
ऊँ ह्रीं श्रीअचलमेरूसम्बन्धिनंदनवनस्थितपश्चिमदिग्जिनालयजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अचलमेरू के नंदनवन में, उत्तर दिश जिनगृह हैं।
समरस निर्झर जल अवगाही, गणधर गण वंदत हैं।।
नीरादिक वसुद्रव्य मिलाकर, अर्घ चढ़ाऊं आके।
निज आतम समरस जल पीकर, बसूं मोक्षपुर जाके।।4।।
ऊँ ह्रीं श्रीअचलमेरूसम्बन्धिनंदनवनस्थितउत्तरदिग्जिनालयजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
---------------------
1. इच्छारहित।
--------------------- अचलमेरू वन सौमनस, पूरब दिश जिनधाम।
अघ्र्य चढ़ाकर मैं जजूं, सिद्ध करो सब काम।।1।।
ऊँ ह्रीं श्रीअचलमेरूसम्बन्धिसौमनसवनस्थितपूर्वदिग्जिनालयजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अचलमेरू सौमनस के दक्षिण दिश जिनगेह।
अघ्र्य चढ़ाकर पूजहूं, करो हमें गतदेह1।।2।।
ऊँ ह्रीं श्रीअचलमेरूसम्बन्धिसौमनसवनस्थितदक्षिणदिग्जिनालयजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अचलमेरू सौमनस के, पश्चिम जिनगृह सिद्ध।
अघ्र्य चढ़ाकर मैं जजूं, करूं मोह अरि बिद्ध।।3।।
ऊँ ह्रीं श्रीअचलमेरूसम्बन्धिसौमनसवनस्थितपश्चिमदिग्जिनालयजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अचलमेरू सौमनस के, उत्तर जिनगृह सार।
अघ्र्य चढ़ाकर पूजहूं, होऊं भवदधि पार।।4।।
ऊँ ह्रीं श्रीअचलमेरूसम्बन्धिसौमनसवनस्थितउत्तरदिग्जिनालयजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
--चैपाई छन्द--
अचलमेरू पांडुकवलन जान, पूरब दिश जिननिलय2 महान।
अकृत्रिम जिनबिंब महान, अघ्र्य चढ़ाय करूं गुणगान।।1।।
ऊँ ह्रीं श्रीअचलमेरूसम्बन्धिपांडुकवनस्थितपूर्वदिग्जिनालयजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अचलमेरू पांडुकवन नाम, दक्षिण दिशि अनुपम जिनधाम।
अकृत्रिम जिनबिंब महान, अघ्र्य चढ़ाय करूं गुणगाान।।2।।
ऊँ ह्रीं श्रीअचलमेरूसम्बन्धिपांडुकवनस्थितदक्षिणदिग्जिनालयजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-----------------
1. अशरीरी सिद्ध पद।
2. जिनमंदिर।
---------------- अचलमेरू पांडुकवन कहा, पश्चिम दिश जिनमंदिर रहा।
अकृत्रिम जिनबिंब महान, अघ्र्य चढ़ाय करूं गुणगान।।3।।
ऊँ ह्रीं श्रीअचलमेरूसम्बन्धिपांडुकवनस्थितपश्चिमदिग्जिनालयजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अचलमेरू पांडुकवन सही, उत्तर दिशि जिनगृह सुख मही।
अकृत्रिम जिनबिंब महान, अघ्र्य चढ़ाय करूं गुणगान।।4।।
ऊँ ह्रीं श्रीअचलमेरूसम्बन्धिपांडुकवनस्थितउत्तरदिग्जिनालयजिनबिम्बेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
--पूर्णाघ्र्य-दोहा--
अचलमेरू चउवन विषैं, चार चार जिनधाम।
पूरण अघ्र्य संजोय के, जजूं नित्य निष्काम।।1।।
ऊँ ह्रीं श्रीअचलमेरूसम्बन्धिषोडशजिनालयमध्यजिनबिम्बेभ्यः पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सोलह जिनगृह में अतुल, जिनवर बिंब महान।
सत्रहसौ अठबीस है, झुक झुक करूं प्रणाम।।2।।
ऊँ ह्रीं श्रीअचलमेरूसम्बन्धिषोडशजिनालयमध्यविराजमानएकसहस्त्रसप्त-शतअष्टाविंशतिजिनप्रतिमाभ्यः पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अचलमेरू के विदिश में पांडुकशिलादि वंद्य।
पूजूं अर्घ चढ़ाय के, नमूं नमूं सुखकंद।।3।।
ऊँ ह्रीं श्रीअचलमेरूसम्बन्धिपांडुकवनविदिक्स्थितपांडुकादिशिलाभ्यः पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलिः।
जाप्य- ऊँ ह्रीं पंचमेरूसम्बन्धिअशीतिजिनालयजिबिंबेभ्या नमः।
(लवंग या पुष्पों से 9 बार, 27 या 108 बार करें)
जयमाला
--दोहा--
कल्पवृक्ष चिंतामणी, चिच्चेतन भगवान।
चिन्मूरित ’जिनमूर्ति को, नमूं नमूं धर ध्यान।।
--रोला छंद--
जय जय अचल सुमेरू, शाश्वत सिद्ध महाना।
जय जय पुण्य निकेत अतिश्य सौख्य खजाना।।
जय जय श्री जिनगेह सोलह स्वर्णमयी हैं।
जय जय श्री जिनबिंब नाना रत्नमयी हैं।।1।।
मानस्तंभ ध्वजादि तोरण मणिमालायें।
तीन कोट सिद्धार्थ चैत्य तरू बहु गायें।।
वैभव अतुल असंख्य सहजिक रहें वहां पे।
सुरपति नरपति नित्य पूजन करें तहां पे।।2।।
चारण ऋषिगण आय आतम ध्यान धरे हैं।
कर्मकलंक नशाय उत्तम सौख्य भरे हैं।।
सग्यग्दर्शन पाय भविजन तृप्त सु होते।
आत्म स्वरूप विचार भव भव का भय खेते।।3।।
मैं नारक तिर्यंच देव मनुष्य नहीं हूं।
पुरूष नपुंसक रूप स्त्रीरूप नहीं हूं।।
सब पुद्गल पर्याय उपज उपज कर विनशे।
कर्म उदय से जीव इनहीं में नित विलसे।।4।।
निश्चय नय से नित्य परमानंद स्वभावी।
मैं अनंतगुण पुंज केवलज्ञान प्रभावी।।
मैं मुझमें थिर होय निज में ही निज पाऊं।
प्रभु वह दिन कब होय जब मैं ध्यान लगाऊं।।5।।
तुम भक्ति से नाथ शक्ति प्रगट हो मेरी।
करूं कर्म का नाश छूटे भव भव फेरी।।
जब तक मुक्ति न होय तब तक भक्ति हृदय में।
रहे आपकी देव! ’’ज्ञानमती’’ रूचि मन में।।6।।
--दोहा-
जो पूजें जिनवर भवन, भक्ति भाव से नित्य।
जो जिनगुण संपति लहें, अनुक्रम से भवभिद्य।।7।।
ऊँ ह्रीं श्रीअचलमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिंबेभ्यो जयमाला पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलिः।
--गीता छंद--
जो भव्यजन श्रीपंचमेरू, व्रत करें नित चाव से।
फिर व्रतोद्योतन हित, महा पूजा करें बहुभाव से।।
वे पुण्यमय तीर्थेश हो, अभिषेक सुरगिरि पर लहें।
त्रय ज्ञानमति चउज्ञान धर, फिर अंत में केवल लहें।
।।इत्याशीर्वादः।।
मंदर मेरू पूजा
--स्थापना-नरेन्द्र छंद--
पुष्करार्ध वर द्वीप पूर्व में मंदर मेरू सोहे।
उसके सोलह जिनमंदिर में जिनप्रतिमा मन मोहे।।
भक्ति भाव से आह्वानन कर पूजा पाठ रचाऊं।
भव भव के संताप नाश कर स्वातम सुख को पाऊं।।1।।
ऊँ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपस्थमंदरमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट।
ऊँ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपस्थमंदरमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।
ऊँ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपस्थमंदरमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
--अथाष्टक-गीता छंद--
पयोराशि को नीर झारी भराऊं।
प्रभो के पदाम्भोज धारा कराऊं।।
जजूं मेरू मंदर जिनालय अभी मैं।
न पाऊं पुनर्जन्म को फिर कभी मैं।।1।।
ऊँ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपस्थमंदरमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेम्यः जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलय चंदनादि सुवासीत लाऊं।
प्रभो आपके पाद में नित चढ़ाऊं।।2।।
जजूं मेरू मंदर जिनालय अभी मैं।
न पाऊं पुनर्जन्म को फिर कभी मैं।।1।।
ऊँ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपस्थमंदरमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेम्यः चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
धवल शालि तंदुल लिया थाल भरके।
चढ़ाऊं तुम्हें पुंज सद्भाव धर के।।
जजूं मेरू मंदर जिनालय अभी मैं।
न पाऊं पुनर्जन्म को फिर कभी मैं।।2।।
ऊँ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपस्थमंदरमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेम्यः अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
जुही केतकी पुष्पमाला बनाऊं।
महा काम शत्रुंजयी को चढ़ाऊं।।
जजूं मेरू मंदर जिनालय अभी मैं।
न पाऊं पुनर्जन्म को फिर कभी मैं।।4।।
ऊँ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपस्थमंदरमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेम्यः पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
कलाकंद लाडू इमरती बनाके।
क्षुधा व्याधि नाशूं प्रभू को चढ़ाके।।
जजूं मेरू मंदर जिनालय अभी मैं।
न पाऊं पुनर्जन्म को फिर कभी मैं।।5।।
ऊँ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपस्थमंदरमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेम्यः नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शिखा दीप की लोक उद्योतकारी।
तुम्हें पूजते ज्ञान प्रद्योत भारी।
जजूं मेरू मंदर जिनालय अभी मैं।
न पाऊं पुनर्जन्म को फिर कभी मैं।।6।।
ऊँ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपस्थमंदरमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेम्यः दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अगनि पात्र मं धूप खेऊं सदा मैं।
करम की भसम को उड़ाऊं मुदा मैं।।
जजूं मेरू मंदर जिनालय अभी मैं।
न पाऊं पुनर्जन्म को फिर कभी मैं।।7।।
ऊँ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपस्थमंदरमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेम्यः धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अनंनास अमरूद अमृत फलों से।
जजूं मैं बचूं कम्र अरि के छलों से।।
जजूं मेरू मंदर जिनालय अभी मैं।
न पाऊं पुनर्जन्म को फिर कभी मैं।।8।।
ऊँ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपस्थमंदरमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेम्यः फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जलादी वसू द्रव्य से अर्घ करके।
चढ़ाऊं तुम्हें सर्वदा प्रीति धर के।।
जजूं मेरू मंदर जिनालय अभी मैं।
न पाऊं पुनर्जन्म को फिर कभी मैं।।9।।
ऊँ ह्रीं पूर्वपुष्करार्धद्वीपस्थमंदरमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिम्बेम्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
--सोरठा--
परम शांति के हेतु, शांतीधारा मैं करूं।
सकल विश्व में शांति, सकल संघ में हो सदा।।10।।
शांतये शांतिधारा।
चंपक हरसिंगार, पुष्प सुगंधित अर्पिते।
होवे निज सुखसार, दुख दारिद्र पलायते।।11।।
दिव्य पुष्पांजलिः।
अथ प्रत्येक अघ्र्य
--दोहा--
मंदरमेरू जिनभवन, सर्वसौख्य भंडार।
पुष्पांजली चढ़ाय के, जजूं नित्य चित धार।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
--दोहा--
पुष्करार्धवर पूर्व में, मंदर मेरू महान।
भद्रसाल पूरवदिशी, जजूं जिनालय आन।।1।।
ऊँ ह्रीं मन्दरमेरूसंबंधिभद्रसालवनस्थितपूर्वदिक्जिनालयजिनबिम्बेम्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भद्रसाल दक्षिण दिशा, जिनगृह शाश्वत सिद्ध।
तिनमें जिनवर बिंब को, जजूं मिले सब सिद्ध।।2।।
ऊँ ह्रीं मन्दरमेरूसंबंधिभद्रसालवनस्थितदक्षिणदिक्जिनालयजिनबिम्बेम्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भद्रसाल में अपरदिश, जिन मंदिर सुखकार।
जिन प्रतिमा को पूजहूं, मिले भवोदधि पार।।3।।
ऊँ ह्रीं मन्दरमेरूसंबंधिभद्रसालवनस्थितपश्चिमदिक्जिनालयजिनबिम्बेम्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मंदरमेरू भूमि में, भद्रसाल वन जान।
उत्तर दिश जिन भवन को, जजूं मोक्ष हित मान।।4।।
ऊँ ह्रीं मन्दरमेरूसंबंधिभद्रसालवनस्थितउत्तरदिक्जिनालयजिनबिम्बेम्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
--गीता छंद--
वर द्वीप पुष्कर अर्ध में मंदरगिरि कनकाभ है।
जिनवर न्हवन से पूज्य उत्तम, सुरगिरी विख्यात है।।
नंदन विपिन1 पूरब दिशी, जिनगेह अनुपम मणिमयी।
पूजूं सकल जिनबिंब को, जो वीतरागी छविमयी।।1।।
ऊँ ह्रीं मन्दरमेरूसंबंधिनंदनवनस्थितपूर्वदिक्जिनालयजिनबिम्बेम्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज और पर का करें अंतर, जो निरंतर मुनिवरा।
विचरण करें जिनवंदना हित, वे सदैव दिगंबरा।।
नंदन विपिन दंिक्षण दिशी, जिनगेह अनुपम मणिमयी।
पूजूं सकल जिनबिंब को, जो वीतरागी छविमयी।।2।।
ऊँ ह्रीं मन्दरमेरूसंबंधिनंदनवनस्थितदक्षिणदिक्जिनालयजिनबिम्बेम्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
यमराज का भय नाशते, सब कामना पूरी करें।
शुद्धात्म रस प्यासे मुनी की, भावना पूरी करें।।
नंदन विपिन पश्चिम दिशी, जिनगेह अनुपम मणिमयी।
पूजूं सकल जिनबिंब को, जो वीतरागी छविमयी।।3।।
ऊँ ह्रीं मन्दरमेरूसंबंधिनंदनवनस्थितपश्चिमदिक्जिनालयजिनबिम्बेम्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भव राग आग बुझावने, तुम भक्ति गंगा नीर है।
स्नाना जो इसमें करें, उनकी हरे सब पीर हैं।।
---------------
1. वन
--------------- नंदन विपिन1 उत्तर दिशी, जिनगेह अनुपम मणिमयी।
पूजूं सकल जिनबिंब को, जो वीतरागी छविमयी।।4।।
ऊँ ह्रीं मन्दरमेरूसंबंधिनंदनवनस्थितउत्तरदिक्जिनालयजिनबिम्बेम्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
--रोला छंद--
मंदरमेरू माहिं, वन सौमनस सुहावे।
पूरव दिा जिनगेह, पूजत सौख्य उपाये।।
राग द्वेष अर मोह, शत्रु महा दुःख देते।
तुम भक्ती परसाद, तुरत नशें त्रय एते।।1।।
ऊँ ह्रीं मन्दरमेरूसंबंधिसौमनसवनपूर्वदिग्जिनालयस्थजिनबिम्बेम्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मेरू चतुर्थ महान, वन सौमनस बखाना।
दक्षिण दिश जिनधाम, मृत्युंजय परधाना।।
राग द्वेष अर मोह, शत्रु महा दुःख देते।
तुम भक्ती परसाद, तुरत नशें त्रय एते।।2।।
ऊँ ह्रीं मन्दरमेरूसंबंधिसौमनसवनदक्षिणदिग्जिनालयस्थजिनबिम्बेम्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मंदरमेरू माहिं, वन सौमनस कहा है।
उत्तर दिश जिनधाम, शाश्वत शोभ रहा है।।
राग द्वेष अर मोह, शत्रु महा दुःख देते।
तुम भक्ती परसाद, तुरत नशें त्रय एते।।4।।
ऊँ ह्रीं मन्दरमेरूसंबंधिसौमनसवनउत्तरदिग्जिनालयस्थजिनबिम्बेम्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
--नाराच छन्द (चाल-पाश्र्वनाथ देव सेव.......)--
पुष्करार्ध पूर्व खंड द्वीप में सुमेरू है।
तास पांडुके वनी, सुपूर्व दिक्क में रहे।।
जैन वेश्म शासता जिनेश बिंब सोहने।
पूजहूं चढ़ाव अघ्र्य कर्म कीच धोवने।।1।।
ऊँ ह्रीं मन्दरमेरूसंबंधिपांडुकवनपूर्वदिग्जिनालयस्थजिनबिम्बेम्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मंदराद्रि पांडुकेसु दक्षिणी दिशा तहां।
साधु वृंद वंदना जिनेश की करे वहां।।
जैन वेश्म शासता जिनेश बिंब सोहने।
पूजहूं चढ़ाव अघ्र्य कर्म कीच धोवने।।2।।
ऊँ ह्रीं मन्दरमेरूसंबंधिपांडुकवनदक्षिणदिग्जिनालयस्थजिनबिम्बेम्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मेरू जो चतुर्थ है चतुर्थ रम्य जो वनी।
पश्चिम दिशी सुकल्प वृक्ष पंक्तियां घनी।।
जैन वेश्म शासता जिनेश बिंब सोहने।
पूजहूं चढ़ाव अघ्र्य कर्म कीच धोवने।।3।।
ऊँ ह्रीं मन्दरमेरूसंबंधिपांडुकवनपश्चिमदिग्जिनालयस्थजिनबिम्बेम्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मंदराचले चतुर्थ, जो वनी प्रसिद्ध है।
उत्तरी दिशा तहां मनोज्ञता विशिष्ट है।।
जैन वेश्म शासता जिनेश बिंब सोहने।
पूजहूं चढ़ाव अघ्र्य कर्म कीच धोवने।।4।।
ऊँ ह्रीं मन्दरमेरूसंबंधिपांडुकवनउत्तरदिग्जिनालयस्थजिनबिम्बेम्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-- पूर्णाघ्र्य -सोरठा --
सोलह श्री जिनधाम, मंदर मेरू में कहे।
जिनवर बिंब महान, अर्चूं पूरण अघ्र्य ले।।1।।
ऊँ ह्रीं मन्दरमेरूसंबंधिषोडशजिनालयस्थजिनबिम्बेम्यः पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सत्रह सौ अठबीस, जिनवर प्रतिमा नित नमूं।
नित्य नमाऊं शीश, पूरण अर्घ चढ़ाय के।।2।।
ऊँ ह्रीं मन्दरमेरूसंबंधिषोडशजिनालयमध्यविराजमानएकसहस्रसप्तशत-अष्टाविंशतिजिनप्रतिमाभ्यः पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मंदर मेरू विदिक्क, पांडुक आदि शिला कहीं।
नमूं नमूं प्रत्येक, जिन अभिषेक पवित्र है।।3।।
ऊँ ह्रीं मन्दरमेरूपांडुकवनविदिक्सिातपांडुकादिशिलाभ्यः पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलिः।
जाप्य-- ऊँ ह्रीं पंचमेरूसंबंधितअशीतिजिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
(लवंग या पुष्पों से 9 बार, 27 बार या 108 बार करें)
जयमाला
--दोहा--
जय जय मंदर मेरू नित, जय जय री जिनदेव।
गाऊं तुम जयमालिका, करो विघन घन छेय।।1।।
-शेर छंद-चाल-हे दीन बंधु-
जैवंत मूतिमंत मेरू मंदराचला।
जैवंत कीर्तिमान जैन बिंब अविचला।।
जैवंत ये अनंतकाल तक भि रहेंगे।
जैवंत मुझ अनंत सुख निमित्त बनेंगे।।1।।
जै भ्रदसाल आदि चार वन के आलया।
जै जैन जिनेंद्र मुर्तियों से वे शिववालया।।
जै नाममंत्र भी उन्हों का सारभूत है।
जो नित्य जपे वो लखे आतम स्वरूप हैं।।2।।
भव भव में दुःख सहे अनंत काल तक यहां।
ना जाने कितने काल मैं निगोद में रहा।।
तिर्यंचगति में असंख्य वेदना सही।
नरको के दुःख को कहें तो पार ही नहीं।।3।।
मानुष गति में आयके भी सौख्य न पाया।
नाना प्रकार व्याधियों ने खूब सताया।।
अनिष्ट योग इष्ट का वियेग सब हुआ।
तब आर्त रौद्र ध्यान बार बार कर मुआ।।4।।
संक्लेश से मर बार बार जन्म का धरा।
आनंत्य बार गर्भवास दुःख को भरा।।
मैं देव भी हुआ यदि सम्यक्त्व बिन रहा।
संक्लेश से मरा पुनः एकेंद्रि हो गया।।5।।
हे नाथ सभी दुःख से मैं ऊब चुका हूं।
अत्र आपकी शरणागती में आके रूक हूं।।
करके कृपा स्वहाथ का अवलंब दीजिये।
मुझ ’ज्ञानमती’ को प्रभो! अनत1 कीजिये।।6।।
-धत्ता छंद-
गुण गण मणिमाला, परम रसाला, जो भविजन निज कंठ धरें।
वे भव दावानल शीघ्र शमन कर, मुक्ति रमा को स्वयं वरें।।7।।
ऊँ ह्रीं मन्दरमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिनबिंबेभ्यो जयमाला पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा दिव्य पुष्पांजलिः।
--गीता छंद--
जो भव्यजन श्रीपंचमेरू, व्रत करें नित चाव से।
फिर व्रतोद्योतन हित महा, पूजा करें बहुभाव से।।
वे पुण्यमय तीर्थेंश हो, अभिषेक सुरगिरि पर लहें।
त्रय ज्ञानमति चउज्ञान धर, फिर अंत में केवल लहें।।
।।इत्याशीर्वादः।।
विद्युन्माली मेरू पूजा
--स्थापना-गीता छंद--
श्री मेरू विद्युन्मालि पंचम, द्वीप पुष्कर अपर में।
तीर्थंकर का न्हवन होता है सदा तिस उपरि में।।
सोलह जिनालय हैं वहां, सुरवंद्य जिन प्रतिमा तहां।
आह्वान कर पूजूं सदा, मैं भक्ति श्रद्धा से यहां।।1।।
ऊँ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपस्थविद्युन्मालिमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिन-बिम्बसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट।
ऊँ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपस्थविद्युन्मालिमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिन-बिम्बसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।
ऊँ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपस्थविद्युन्मालिमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिन-बिम्बसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
--अथाष्टक-गीता छंद--
क्षीरोदधि का शुचि जल लेकर तुम चरण चढ़ाने आया हूं।
भव भव का कलिमल धोने को श्रद्धा से अति हरषाया हूं।।
विद्युन्माली मेरू पंचम उसमें सोलह जिन आलय हैं।
उन सबमें भवविजयमी प्रतिमा पूजत ही मिले सुखालय हैं।।1।।
ऊँ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपस्थविद्युन्मालिमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिन-बिम्बेभ्यः जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
हरि चंदन कुंकुम गंध लिये जिन चरण चढ़ाने आया हूं।
मोहारिताप संतप्त हृदय प्रभु शीतल करने आया हूं।।
विद्युन्माली मेरू पंचम उसमें सोलह जिन आलय हैं।
उन सबमें भवविजयमी प्रतिमा पूजत ही मिले सुखालय हैं।।2।।
ऊँ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपस्थविद्युन्मालिमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिन-बिम्बेभ्यः संसारतापविनाशनाय चंदन निर्वपामीति स्वाहा।
क्षीरांबुधि फेन सदृश उज्ज्वल अक्षत धोकर के लाया हूं।
क्षय विरहित अक्षय सुख हेतु प्रभु पुंज चढ़ाने आया हूं।।
विद्युन्माली मेरू पंचम उसमें सोलह जिन आलय हैं।
उन सबमें भवविजयमी प्रतिमा पूजत ही मिले सुखालय हैं।।3।।
ऊँ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपस्थविद्युन्मालिमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिन-बिम्बेभ्यः अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
बेला चंपक अरविंद कुमुद सुरभित पुष्पों को लाया हूं।
मदनारिजयी तव चरणों में मैं अर्पण करने आया हूं।।
विद्युन्माली मेरू पंचम उसमें सोलह जिन आलय हैं।
उन सबमें भवविजयमी प्रतिमा पूजत ही मिले सुखालय हैं।।4।।
ऊँ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपस्थविद्युन्मालिमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिन-बिम्बेभ्यः कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
पूरणपोली खाजा गूझा मोदक आदिक बहुत लाया हूं।
निज आतम अनुभव अमृत हित नैवेद्य चढ़ाने आया हूं।।
विद्युन्माली मेरू पंचम उसमें सोलह जिन आलय हैं।
उन सबमें भवविजयमी प्रतिमा पूजत ही मिले सुखालय हैं।।5।।
ऊँ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपस्थविद्युन्मालिमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिन-बिम्बेभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मणिमय दीपक में ज्योति जले सब अंधकार क्षण में नाशे।
दीपक से पूजा करते ही सज्ज्ञान ज्योति निज में भासे।।
विद्युन्माली मेरू पंचम उसमें सोलह जिन आलय हैं।
उन सबमें भवविजयमी प्रतिमा पूजत ही मिले सुखालय हैं।।6।।
ऊँ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपस्थविद्युन्मालिमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिन-बिम्बेभ्यः मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
दशगंध विमिश्रित धूप सुरभि धूपायन में खेते क्षण ही।
कटुकर्म दहन हो जाते हैं मिलता समरस सुख तत्क्षण ही।।
विद्युन्माली मेरू पंचम उसमें सोलह जिन आलय हैं।
उन सबमें भवविजयमी प्रतिमा पूजत ही मिले सुखालय हैं।।7।।
ऊँ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपस्थविद्युन्मालिमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिन-बिम्बेभ्यः अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
एला केला अंगूरों के गुच्छे अति सरस मधुर लाया।
परमानंदामृत चखने हित फल से पूजन कर सुख पाया।।
विद्युन्माली मेरू पंचम उसमें सोलह जिन आलय हैं।
उन सबमें भवविजयमी प्रतिमा पूजत ही मिले सुखालय हैं।।8।।
ऊँ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपस्थविद्युन्मालिमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिन-बिम्बेभ्यः मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चंदन अक्षत पुष्प चरू वर दीप धूप फल लाया हूं।
निज गुण की प्राप्ति हेतु तुम अघ्र्य चढ़ाने आया हूं।।
विद्युन्माली मेरू पंचम उसमें सोलह जिन आलय हैं।
उन सबमें भवविजयमी प्रतिमा पूजत ही मिले सुखालय हैं।।9।।
ऊँ ह्रीं पश्चिमपुष्करार्धद्वीपस्थविद्युन्मालिमेरूसंबंधिषोडशजिनालयजिन-बिम्बेभ्यः अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
--सोरठा--
परम शांति के हेतु, शांतीधारा मैं करूं।
सकल विश्व में शांति, सकल संघ में हो सदा।।10।।
शांतये शांतिधारा।
चंपक हरसिंगार, पुष्प सुगन्धित अर्पिते।
होवे सुख अमलान, दुख दारिद्र पलायते।।11।।
दिव्य पुष्पांजलिः।
अथ प्रत्येक अघ्र्य
-दोहा-
पंचममेरू जिन भवन, शाश्वत नित शोभंत।
पुष्पांजलि कर पूजते, मिले स्वात्म आनन्द।।1।।
इति मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
--गीता छंद--
श्री मेरू पंचम की धरा पर भ्रसाल सुवन कहा।
ता पूर्व जिनधाम शाश्वत मूर्ति से शोभित अहा।।
जल गंध आदिक अघ्र्य लेकर मैं करूं नित अर्चना।
स्वातंत्र्य सुख साम्राज्य हेतु मैं करूं नित वंदना।।1।।
ऊँ ह्रीं विद्युन्मालिमेरूसंबंधिभ्रदसालवनस्थितपूर्वदिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इ समेरू विद्यन्मालिमें वन भद्रसाल जु सोहता।
दक्षिण दिशा में जिनभवन निज विभव से मन मोहता।।
जल गंध आदिक अघ्र्य लेकर मैं करूं नित अर्चना।
स्वातंत्र्य सुख साम्राज्य हेतु मैं करूं नित वंदना।।2।।
ऊँ ह्रीं विद्युन्मालिमेरूसंबंधिभ्रदसालवनस्थितदक्षिणदिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इ समेरू प्रथमहि ’’वन विषे’’ पश्चिम दिशा में जिनभवन।
उसमें जिनेश्वर बिंब शाश्वत, राजते भव भय मथन।।
जल गंध आदिक अघ्र्य लेकर मैं करूं नित अर्चना।
स्वातंत्र्य सुख साम्राज्य हेतु मैं करूं नित वंदना।।3।।
ऊँ ह्रीं विद्युन्मालिमेरूसंबंधिभ्रदसालवनस्थितपश्चिमदिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इ समेरू के भूवन विषै उत्तरदिशी जिन सद्म हैं।
उसमें महामहनीय जिनवर, बिंब के पदपद्म हैं।।
जल गंध आदिक अघ्र्य लेकर मैं करूं नित अर्चना।
स्वातंत्र्य सुख साम्राज्य हेतु मैं करूं नित वंदना।।4।।
ऊँ ह्रीं विद्युन्मालिमेरूसंबंधिभ्रदसालवनस्थितउत्तरदिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
--गीता छंद--
वर द्वीप पुष्कर अर्ध में है, पांचवां सुरगिरि कहा।
नंदन विपिन में पूर्वदिक्, जिनगृह अनूपम छवि लहा।।
चंचल मनोमर्कटविजेता1, साधुगण वंदन करें।
हम पूजते नित अघ्र्य ले, भवसंतती खंडन करें।।1।।
ऊँ ह्रीं विद्युन्मालिमेरूसंबंधिनन्दनवनपूर्वदिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुरशैल पंचम में सदा, नंदन सुवन विख्यात है।
दक्षिण दिशा में जिनभवन, पूजें भविक हरषात हैं।।
चंचल मनोमर्कटविजेता, साधुगण वंदन करें।
हम पूजते नित अघ्र्य ले, भवसंतती खंडन करें।।2।।
ऊँ ह्रीं विद्युन्मालिमेरूसंबंधिनन्दनवनदक्षिणदिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
1. मनरूपी बन्दर को वश में करने वाले।
पंचम सुराचल1 में विपिन2, नंदन अतुल महिमा धरे।
पश्चिम दिशा में जैनगृह, अतिशयभरी प्रतिमा धरे।।
चंचल मनोमर्कटविजेता, साधुगण वंदन करें।
हम पूजते नित अघ्र्य ले, भवसंतती खंडन करें।।3।।
ऊँ ह्रीं विद्युन्मालिमेरूसंबंधिनन्दनवनपश्चिमदिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुरशैल विद्युन्मालि में, नंदनवनी तरू पंक्ति से।
जन मन हरे उत्तरदिशा के, मणिमयी जिनसद्म3 से।।
चंचल मनोमर्कटविजेता, साधुगण वंदन करें।
हम पूजते नित अघ्र्य ले, भवसंतती खंडन करें।।4।।
ऊँ ह्रीं विद्युन्मालिमेरूसंबंधिनन्दनवनोत्तरदिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
--दोहा--
कनकाचल4 पंचम विषे, वनसौमनस रसाल।
पूरबदिश में जिनभवन, अर्च हरूं जंजाल।।1।।
ऊँ ह्रीं विद्युन्मालीमेरूसंबंधिसौमनसवनपूर्वदिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुरगिरि वन सौमनस में, दक्षिण दिश जिनधाम।
तिनकी जिनप्रतिमा जजूं, पूर्ण होय सब काम।।2।।
ऊँ ह्रीं विद्युन्मालीमेरूसंबंधिसौमनसवनदक्षिणदिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्णाचल5 वन सौमनस, पश्चिम दिश जिनगेह।
इन्द्रवंद्य जिनबिंब को, पूजूं धर मन नेह।।3।।
ऊँ ह्रीं विद्युन्मालीमेरूसंबंधिसौमनसवनउत्तरदिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विद्युन्माली मेरू में, वन सौमनस अनूप।
उत्तरदिश जिनवेश्म को, जजत मिले निजरूप।।4।।
ऊँ ह्रीं विद्युन्मालीमेरूसंबंधिसौमनसवनउत्तरदिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
--------------------------- 1. मेरू।
2. वन।
3. मेरू।
5. मेरू।
---------------------------
--मोतीदाम छंद--
सुराचल पंचम में अभिराम, वनी पांडुक अतिरम्य ललाम।
जिनालय पूरबदिश में जान, जजूं कर जोड़ करो शिवथान।।1।।
ऊँ ह्रीं विद्युन्मालीमेरूसंबंधिपांडुकवनपूर्वदिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुराद्री1 विद्युन्माली नाम, सरस वन पांडुक मुनि विश्राम।
जिनालय दक्षिणदिश में सार, जजूं कर जोड़ करो भव पार।।2।।
ऊँ ह्रीं विद्युन्मालीमेरूसंबंधिपांडुकवनदक्षिणदिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कनकपर्वत2 पंच शिवकार, सुवन पांडुक में सुर परिवार।
जिनालय पश्चिमदिश रत्नाभ, जजूं जिननाथ करो शिवलाभ।।3।।
ऊँ ह्रीं विद्युन्मालीमेरूसंबंधिपांडुकवनपश्चिमदिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
--पूर्णाघ्र्य-दोहा--
विद्युन्माली मेरू में सोलह जिनवर धाम।
पूरण अघ्र्य संजोय के, जजूं लहूं शिवधाम।।1।।
ऊँ ह्रीं विद्युन्मालीमेरूसंबंधिषोडशजिनालयेभ्यः पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सत्रह सौ अठबीस हैं, जिनवर बिंब महान।
पूरण अर्घ चढ़ाय के, नमूं नमूं गुण खान।।2।।
ऊँ ह्रीं विद्युन्मालीमेरूसंबंधिषोडशजिनालयमध्यविराजमानएकसहस्रसप्त-शतअष्टाविंशतिजिनप्रतिमाभ्यः पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पांडुक वन के विदिक् में, पांडुशिलादि प्रसिद्ध।
नमूं नमूं नित भाव से, लहूं आत्म सुख सिद्ध।।3।।
ऊँ ह्रीं विद्युन्मालीमेरूविदिक्पांडुकादिशिलाभ्यः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलिः।
जाप्य- ऊँ ह्रीं पंचमेरूसम्बन्धिअशीतिजिनालयजिनबिम्बेभ्यो नमः।
(लवंग यापुष्प से 9 बार, 27 बार या 108 बार करें)
---------- 1. मेरू
2. मेरू।
----------
जयमाला
--शंभु छंद--
जय जय विद्युन्माली मेरू, जय जय सुवरनमय जिनगेहा।
जय जय मृत्युंजयि जिनप्रतिमा, जय जय सुर पूजें धर नेहा।।
जय जय कृषि गगन गमनचारी, श्रद्धा से वंदन करते हैं।
जय जय मुनि समरस आस्वादी स्वात्मा का चिंतन करते हैं।।1।।
मैं शुद्ध बुद्ध अविरूद्ध एक, चित्ंपंड अखंड अरूपी हूं।
स्वाभाविक दर्शन ज्ञान वीर्य, सुखरूप अचिन्त्य स्वरूपी हूं।।
मैं हूं अनंत गुण रत्नराशि मैं परम ज्योतिमय परमात्मा।
मैं सकल विमल औ अकल अमल हूं परमानन्दमयी आत्मा।।2।।
यद्यपि व्यवहारनयापेक्षा में दीन दुखी संसारी हूं।
इन कमो्र। का कर्ता भोक्ता नाना प्रकार तनुधारी हूं।।
भव पंच परावर्तन कर कर चहुंगति में घूमा करता हूं।
बस जन्म मरा के चक्कर में निशदिन ही झूमा करता हूं।।3।।
फिर भी निश्चयनय से मैं ही नित शुद्ध परमात्मा हूं।
रस गंध वर्ण स्पर्श रहित चिन्मूरति चैतन्यात्मा हूं।
ये राग रू द्वेष विभाव भाव सब कर्मोदय से आते हैं।
जब कर्म बंध सम्बंध नही तब कैसे ये रह पाते हैं।।4।।
निश्चय व्यवहार उभयनय से मैं तत्वों का ज्ञाता होऊं।
फिर नय का आश्रय छोड़ सभी इस निर्विकल्प में रत होऊं।।
मैं ध्याता हूं तुय ध्येय ध्यान फल आदिक भेद समाप्त करूं।
बस एकाकी एकत्व लिये निज में ही निज को प्राप्त करूं।।5।।
प्रभु ऐसी स्थित आने तक तुम चरण कमल का ध्यान करूं।
पूणैंक ’ज्ञानमति’ पाने तक पूजूं वंदू गुणगान करूं।।
हे नाथ! तुम्हारी भक्ति का मुझको फल केवल यही मिले।
बस पास तुम्हारे आ जाऊं ऐसा मेरा सौभग्य खिले।।6।।
--दोहा--
पश्चिम पुष्कर द्वीप में, विद्युन्माली मेरू।
पूजत ही निज सुख मिले, मिटे जगत का फेर।।7।।
ऊँ ह्रीं विद्युन्मालीमेरूसम्बन्धिषोडशजिनालयजिनबिम्बेभ्यो जयमाला पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलिः।
--गीता छंद--
जो भव्यजन श्री पंचमेरू, व्रत करें नित चाव से।
फिर व्रतोद्योतन हित महा, पूजा करें बहुभाव से।।
वे पुण्यमय तीर्थेश हो, अभिषेक सुरगिरि पर लहें।
त्रय ’’ज्ञानमति’’ चउज्ञान धर फिर अंत में केवल लहें।।
।।इत्याशीर्वादः।।
महाघ्र्य जयमाला
--दोहा--
चिन्मय चिच्चितामणी, चिदानंद चिद्रूप।
अमल निकल परमात्मा, परमानंद स्वरूप।।1।।
नमूं नमूं सिद्ध औ, स्वयंसिद्ध जिनबिंब।
पंचमेरू वंदन करूं, हरूं जगत दुख निंद्य।।2।।
--चाल-हे दीनबन्धु--
जैवंत पंचमेरू ये सौ इन्द्र वंद्य हैं।
जैवंत ये मुनीन्द्र वृंद से भि वंद्य है।।
जैवंत जैनसद्म ये अस्सी सु संख्य हैं।
जैवंत मूर्तियां अनंत गुण धरंत हैं।।3।।
सुदर्शनाद्रि तुंग एक लक्ष योजना।
चउमेरू तुंगलक्ष चुरासी सुयोजना।।
भूपरसुमेरू दश हजार योजनों रहा।
योजन चुरान्नवे सहस है चार का कहा।।4।।
प्रत्येक में हैं भद्रसाल आदि चार वन।
प्रत्येक वन में चार चार रम्य जिन भवन।।
लंबे ये कोश चार सौ ऊंचे हैं तीन सौ।
उत्कृष्ट ये जिनेन्द्र गेह चोड़े हैं। द्विसौ।।5।।
मध्यम प्रमाण इससे अर्ध जैन वेश्य का।
इसे भी अर्ध है जघन्य जैन सद्म का।
वन भद्रसाल नंदनों के भवन उत्तमा।
पांडुक के हैं जघन्य सौमनस के माध्यमा।।6।।
पांडुकवनी ईशान में पांडुक शिला कहीं।
अभिषेक भरत क्षेत्र के तीर्थेश का यहीं।।
वायव्य दिशा में पांडुकंबला शिला कहीं।
पश्चिम विदेह के जिनेन्द्र का न्हवन यहीं।।7।।
रक्तशिला नैऋत विदिश में मानिये सही।
अभिषेक ऐरावत जिनेन्द्र का सदा यहीं।।
आग्नेय दिश में रक्तकंबला शिला सही।
पूरब विदेह तीर्थकृत का हो न्हवन यहीं।।8।।
ये सब शिलायें अर्धचन्द्र के समान हैं।
सौ योजनों लंबी तथा चैडी पचास हैं।।
मोटी हैं योजनाष्ट इनके मध्य सिंहासन।
सौधर्म और ईशान इन्द्रहेतू भद्रसान।।9।।
तीर्थंकरों के जन्मते हि इन्द्र आयके।
प्रभु को उन्हीं शिला पे लेके सुजाय के।।
पय से भरे कलश हजार आठ अधिक से।
जन्माभिषेक नाथ का करते सुविभव से।।10।।
सब पांच भरत पांच ऐरावत सुक्षेत्र हैं।
सब इक सौ साठ पूर्व औ पश्चिम विदेह हैं।।
ये एक सौ सत्तर कहीं हैं कर्मभूमियां।
तीर्थंकरों के जन्म से पवित्र भूमियां।।11।।
ये पांच मेरू ढाई द्वीप में प्रसिद्ध हैं।
अनादि औ अनंत काल तक स्वतंत्र हैं।।
भूकायिके सुरत्न बहुत वर्ण के बने।
वे रत्न ही इन मेरू रूप स्वयं परिणमें।।12।।
इन मेरू के वनों की तो अद्भुत बहार है।
चंपक अशोक आम्र सप्तच्छद प्रकार है।।
चंदन सु पारिजात और घनसार महकते।
श्रीफली सुपारी जायपत्रि तरू लवंग के।।13।।
नारंग आद विविध कल्पवृक्ष शोभते।
पक्षी गणों के मंजु ख से मन को मोहते।।
देवों के भवन कूट वापियां अनेक हैं।
वैभव असंख्य और सभी रचना विशेष हैं।।14।।
चारण मुनी सदा वहां करते विहार हैं।
एकांत में स्वतत्त्व का करते विचार हैं।।
जिनवंदना से पापपुंज को विनाशते।
शुद्धातमा के ध्यान से निज को प्रकाशते।।15।।
मैं भी सुमेरू पर्वतों की वंदना करूं।
चैत्यालयों की बार बार अर्चना करूं।।
जिन मूर्तियों को नित्य ही मैं चित्त में धरूं।
निज ज्ञानमती पूर्ण करके सिद्धि को वरूं।।16।।
--घत्ता छंद--
जय जय श्री जिनवर, शाश्वत मंदिर, तुम गुण पार न कोई पावे।
जो तव गुण गावे, भक्ति बढ़ावे, सो भी जिनगुण निधि पावे।।17।।
ऊँ ह्रीं पंचमेरूसम्बन्धिअशीतिजिनालयस्थसर्वजिनबिम्बेभ्यो महाजयमाला अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलिः।
--गीता छंद--
जो भव्यजन श्री पंचमेरू, व्रत करें नित चाव से।
फिर व्रतोद्योतन हित, महा पूजा करें बहु भाव से।।
वे पुण्यमय तीर्थेश हो, अभिषेक सुरगिरि पर लहें।
त्रय ’ज्ञानमति’ चउज्ञान धर, फिर अंत में केवल लहें।।
।।इत्याशीर्वादः।।
प्रशस्ति
--दोहा--
वृषभदेव से वीर तक, श्री चैबीस जिनेश।
नमूं नमूं उनको सदा, मिटे सकल भव क्लेश।।1।।
मूल संघ आचार्य श्री, कुंदकुंद गुरूदेव।
इनके अन्वय में हुआ, नंदिसंघ दुःख छेव।।2।।
बलात्कार गण भारती, गच्छ प्रसिद्ध महान।
इसमें सूरीश्वर हुए शांतिसिंधु गुणखान।।3।।
वीरसागराचार्य थे, उनके पट्टाधीश।
श्रमणी दीक्षा दे मुझे, किया कृतार्थ मुनीश।।4।।
शांति कुंथु अरनाथ की, जन्म भूमि जगतीर्थं।
कुरूजांगल शुभ देश में, हस्तिनागपुर तीर्थं।।5।।
तीन अधिक पच्चीस सौ, वीर अब्द शुभ मान।
माघ शुक्ल सप्तमि तिथी, रचना पूरण जान।।6।।
’’ज्ञानमती’’ मैं आर्यिका, व्रत उद्यापन हेतु।
पंचमेरू पूजा रची, भक्त्ी भाव समेत।।7।।
जो भवि नित पूजा करें, पढ़ें सुनें एकाग्र।
इंद्र चक्रि सुख भोग के, वे पहुंचे लोकाग्र।।8।।
यावत् जग में मेरू हैं, यावत् श्री जिनधर्म।
तावत् यह पूजा विधी, प्रगट करो शिववत्र्म।।9।।
।।इति शंभूयात्।।
पंचमेरू की अस्सी जाप्य
विशेष-
यदि कोई पंचमेरू पंक्ति व्रत करने में मात्र अस्सी उपवास करे तो सबसे पहले प्रथम मेरू के व्रत में क्रमशः इन सोलह जाप्यों को करें। ऐसे क्रम ही क्रम से आगे के चार मेरू सम्बन्धी जाप्यों को क्रम से करते हुए अस्सी चैत्यालय के अस्सी उवासन सम्बन्धी अस्सी जाप्य करें।
सुदर्शनमेरू सम्बन्धी सोलह व्रत की 16 जाप्य
1. ऊँ ह्रीं अर्हं जंबूद्वीपस्थसुदर्शनमेरूसंबंधिभद्रशालवनस्थितपूर्वदिक्-जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
2. ऊँ ह्रीं अर्हं जंबूद्वीपस्थसुदर्शनमेरूसंबंधिभद्रशालवनस्थितदक्षिणदिक्-जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
3. ऊँ ह्रीं अर्हं जंबूद्वीपस्थसुदर्शनमेरूसंबंधिभद्रशालवनस्थितपश्चिमदिक्-जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
4. ऊँ ह्रीं अर्हं जंबूद्वीपस्थसुदर्शनमेरूसंबंधिभद्रशालवनस्थितउत्तरदिक्-जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
5. ऊँ ह्रीं अर्हं जंबूद्वीपस्थसुदर्शनमेरूसंबंधिनंदनवनस्थितपूर्वदिक्-जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
6. ऊँ ह्रीं अर्हं जंबूद्वीपस्थसुदर्शनमेरूसंबंधिनंदनवनस्थितदक्षिणदिक्-जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
7. ऊँ ह्रीं अर्हं जंबूद्वीपस्थसुदर्शनमेरूसंबंधिनंदनवनस्थितपश्चिमदिक्-जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
8. ऊँ ह्रीं अर्हं जंबूद्वीपस्थसुदर्शनमेरूसंबंधिनंदनवनस्थितउत्तरदिक्-जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
9. ऊँ ह्रीं अर्हं जंबूद्वीपस्थसुदर्शनमेरूसंबंधिसौमनवनस्थितपूर्वदिक्-जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
10. ऊँ ह्रीं अर्हं जंबूद्वीपस्थसुदर्शनमेरूसंबंधिसौमनवनस्थितदक्षिणदिक्-जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
11. ऊँ ह्रीं अर्हं जंबूद्वीपस्थसुदर्शनमेरूसंबंधिसौमनवनस्थितपश्चिमदिक्-जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
12. ऊँ ह्रीं अर्हं जंबूद्वीपस्थसुदर्शनमेरूसंबंधिसौमनवनस्थितउत्तरदिक्-जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
13. ऊँ ह्रीं अर्हं जंबूद्वीपस्थसुदर्शनमेरूसंबंधिपांडुकवनस्थितपूर्वदिक्-जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
14. ऊँ ह्रीं अर्हं जंबूद्वीपस्थसुदर्शनमेरूसंबंधिपांडुकवनस्थितदक्षिणदिक्-जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
15. ऊँ ह्रीं अर्हं जंबूद्वीपस्थसुदर्शनमेरूसंबंधिपांडुकवनस्थितपश्चिमदिक्-जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
16. ऊँ ह्रीं अर्हं जंबूद्वीपस्थसुदर्शनमेरूसंबंधिपांडुकवनस्थितउत्तरदिक्-जिनालयजिनबिंबेभ्ये नमः।
विजयमेरू सम्बन्धी 16 उपवास की 16 जाप्य
1. ऊँ ह्रीं अर्हं धातकीखण्डद्वीपस्थविजयमेरूसंबंधिभद्रशालवनस्थितपूर्व-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
2. ऊँ ह्रीं अर्हं धातकीखण्डद्वीपस्थविजयमेरूसंबंधिभद्रशालवनस्थितदक्षिण-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
3. ऊँ ह्रीं अर्हं धातकीखण्डद्वीपस्थविजयमेरूसंबंधिभद्रशालवनस्थितपश्चिम-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
4. ऊँ ह्रीं अर्हं धातकीखण्डद्वीपस्थविजयमेरूसंबंधिभद्रशालवनस्थितउत्तर-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
5. ऊँ ह्रीं अर्हं धातकीखण्डद्वीपस्थविजयमेरूसंबंधिनंदनवनस्थितपूर्व-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
6. ऊँ ह्रीं अर्हं धातकीखण्डद्वीपस्थविजयमेरूसंबंधिनंदनवनस्थितदक्षिण-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
7. ऊँ ह्रीं अर्हं धातकीखण्डद्वीपस्थविजयमेरूसंबंधिनंदनवनस्थितपश्चिम-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
8. ऊँ ह्रीं अर्हं धातकीखण्डद्वीपस्थविजयमेरूसंबंधिनंदनवनस्थितउत्तर-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
9. ऊँ ह्रीं अर्हं धातकीखण्डद्वीपस्थविजयमेरूसंबंधिसौमनवनस्थितपूर्व-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
10. ऊँ ह्रीं अर्हं धातकीखण्डद्वीपस्थविजयमेरूसंबंधिसौमनवनस्थितदक्षिण-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
11. ऊँ ह्रीं अर्हं धातकीखण्डद्वीपस्थविजयमेरूसंबंधिसौमनवनस्थितपश्चिम-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
12. ऊँ ह्रीं अर्हं धातकीखण्डद्वीपस्थविजयमेरूसंबंधिसौमनवनस्थितउत्तर-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
13. ऊँ ह्रीं अर्हं धातकीखण्डद्वीपस्थविजयमेरूसंबंधिपांडुकवनस्थितपूर्व-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
14. ऊँ ह्रीं अर्हं धातकीखण्डद्वीपस्थविजयमेरूसंबंधिपांडुकवनस्थितदक्षिण-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
15. ऊँ ह्रीं अर्हं धातकीखण्डद्वीपस्थविजयमेरूसंबंधिपांडुकवनस्थितपश्चिम-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
16. ऊँ ह्रीं अर्हं धातकीखण्डद्वीपस्थविजयमेरूसंबंधिपांडुकवनस्थितउत्तर-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
अचलमेरूसम्बन्धी 16 व्रत की 16 जाप्य
1. ऊँ ह्रीं अर्हं धातकीखण्डद्वीपस्थाचलमेरूसंबंधिभद्रशालवनस्थितपूर्व-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
2. ऊँ ह्रीं अर्हं धातकीखण्डद्वीपस्थाचलमेरूसंबंधिभद्रशालवनस्थितदक्षिण-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
3. ऊँ ह्रीं अर्हं धातकीखण्डद्वीपस्थाचलमेरूसंबंधिभद्रशालवनस्थितपश्चिम-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
4. ऊँ ह्रीं अर्हं धातकीखण्डद्वीपस्थाचलमेरूसंबंधिभद्रशालवनस्थितउत्तर-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
5. ऊँ ह्रीं अर्हं धातकीखण्डद्वीपस्थाचलमेरूसंबंधिनंदनवनस्थितपूर्व-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
6. ऊँ ह्रीं अर्हं धातकीखण्डद्वीपस्थाचलमेरूसंबंधिनंदनवनस्थितदक्षिण-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
7. ऊँ ह्रीं अर्हं धातकीखण्डद्वीपस्थाचलमेरूसंबंधिनंदनवनस्थितपश्चिम-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
8. ऊँ ह्रीं अर्हं धातकीखण्डद्वीपस्थाचलमेरूसंबंधिनंदनवनस्थितउत्तर-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
9. ऊँ ह्रीं अर्हं धातकीखण्डद्वीपस्थाचलमेरूसंबंधिसौमनवनस्थितपूर्व-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
10. ऊँ ह्रीं अर्हं धातकीखण्डद्वीपस्थाचलमेरूसंबंधिसौमनवनस्थितदक्षिण-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
11. ऊँ ह्रीं अर्हं धातकीखण्डद्वीपस्थाचलमेरूसंबंधिसौमनवनस्थितपश्चिम-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
12. ऊँ ह्रीं अर्हं धातकीखण्डद्वीपस्थाचलमेरूसंबंधिसौमनवनस्थितउत्तर-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
13. ऊँ ह्रीं अर्हं धातकीखण्डद्वीपस्थाचलमेरूसंबंधिपांडुकवनस्थितपूर्व-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
14. ऊँ ह्रीं अर्हं धातकीखण्डद्वीपस्थाचलमेरूसंबंधिपांडुकवनस्थितदक्षिण-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
15. ऊँ ह्रीं अर्हं धातकीखण्डद्वीपस्थाचलमेरूसंबंधिपांडुकवनस्थितपश्चिम-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
16. ऊँ ह्रीं अर्हं धातकीखण्डद्वीपस्थाचलमेरूसंबंधिपांडुकवनस्थितउत्तर-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
मंदरमेरू सम्बन्धी 16 व्रत की 16 जाप्य
1. ऊँ ह्रीं अर्हं पुष्करर्धद्वीपस्थमन्दरमेरूसंबंधिभद्रशालवनस्थितपूर्व-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
2. ऊँ ह्रीं अर्हं पुष्करर्धद्वीपस्थमन्दरमेरूसंबंधिभद्रशालवनस्थितदक्षिण-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
3. ऊँ ह्रीं अर्हं पुष्करर्धद्वीपस्थमन्दरमेरूसंबंधिभद्रशालवनस्थितपश्चिम-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
4. ऊँ ह्रीं अर्हं पुष्करर्धद्वीपस्थमन्दरमेरूसंबंधिभद्रशालवनस्थितउत्तर-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
5. ऊँ ह्रीं अर्हं पुष्करर्धद्वीपस्थमन्दरमेरूसंबंधिनंदनवनस्थितपूर्व-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
6. ऊँ ह्रीं अर्हं पुष्करर्धद्वीपस्थमन्दरमेरूसंबंधिनंदनवनस्थितदक्षिण-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
7. ऊँ ह्रीं अर्हं पुष्करर्धद्वीपस्थमन्दरमेरूसंबंधिनंदनवनस्थितपश्चिम-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
8. ऊँ ह्रीं अर्हं पुष्करर्धद्वीपस्थमन्दरमेरूसंबंधिनंदनवनस्थितउत्तर-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
9. ऊँ ह्रीं अर्हं पुष्करर्धद्वीपस्थमन्दरमेरूसंबंधिसौमनवनस्थितपूर्व-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
10. ऊँ ह्रीं अर्हं पुष्करर्धद्वीपस्थमन्दरमेरूसंबंधिसौमनवनस्थितदक्षिण-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
11. ऊँ ह्रीं अर्हं पुष्करर्धद्वीपस्थमन्दरमेरूसंबंधिसौमनवनस्थितपश्चिम-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
12. ऊँ ह्रीं अर्हं पुष्करर्धद्वीपस्थमन्दरमेरूसंबंधिसौमनवनस्थितउत्तर-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
13. ऊँ ह्रीं अर्हं पुष्करर्धद्वीपस्थमन्दरमेरूसंबंधिपांडुकवनस्थितपूर्व-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
14. ऊँ ह्रीं अर्हं पुष्करर्धद्वीपस्थमन्दरमेरूसंबंधिपांडुकवनस्थितदक्षिण-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
15. ऊँ ह्रीं अर्हं पुष्करर्धद्वीपस्थमन्दरमेरूसंबंधिपांडुकवनस्थितपश्चिम-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
16. ऊँ ह्रीं अर्हं पुष्करर्धद्वीपस्थमन्दरमेरूसंबंधिपांडुकवनस्थितउत्तर-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
विद्युन्मालीमेरू सम्बन्धी 16 व्रत की 16 जाप्य
1. ऊँ ह्रीं अर्हं पुष्करर्धद्वीपस्थस्थविद्युन्मालीमेरूसंबंधिभद्रशालवनस्थितपूर्व-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
2. ऊँ ह्रीं अर्हं पुष्करर्धद्वीपस्थस्थविद्युन्मालीमेरूसंबंधिभद्रशालवनस्थितदक्षिण-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
3. ऊँ ह्रीं अर्हं पुष्करर्धद्वीपस्थस्थविद्युन्मालीमेरूसंबंधिभद्रशालवनस्थितपश्चिम-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
4. ऊँ ह्रीं अर्हं पुष्करर्धद्वीपस्थस्थविद्युन्मालीमेरूसंबंधिभद्रशालवनस्थितउत्तर-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
5. ऊँ ह्रीं अर्हं पुष्करर्धद्वीपस्थस्थविद्युन्मालीमेरूसंबंधिनंदनवनस्थितपूर्व-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
6. ऊँ ह्रीं अर्हं पुष्करर्धद्वीपस्थस्थविद्युन्मालीमेरूसंबंधिनंदनवनस्थितदक्षिण-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
7. ऊँ ह्रीं अर्हं पुष्करर्धद्वीपस्थस्थविद्युन्मालीमेरूसंबंधिनंदनवनस्थितपश्चिम-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
8. ऊँ ह्रीं अर्हं पुष्करर्धद्वीपस्थस्थविद्युन्मालीमेरूसंबंधिनंदनवनस्थितउत्तर-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
9. ऊँ ह्रीं अर्हं पुष्करर्धद्वीपस्थस्थविद्युन्मालीमेरूसंबंधिसौमनवनस्थितपूर्व-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
10. ऊँ ह्रीं अर्हं पुष्करर्धद्वीपस्थस्थविद्युन्मालीमेरूसंबंधिसौमनवनस्थितदक्षिण-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
11. ऊँ ह्रीं अर्हं पुष्करर्धद्वीपस्थस्थविद्युन्मालीमेरूसंबंधिसौमनवनस्थितपश्चिम-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
12. ऊँ ह्रीं अर्हं पुष्करर्धद्वीपस्थस्थविद्युन्मालीमेरूसंबंधिसौमनवनस्थितउत्तर-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
13. ऊँ ह्रीं अर्हं पुष्करर्धद्वीपस्थस्थविद्युन्मालीमेरूसंबंधिपांडुकवनस्थितपूर्व-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
14. ऊँ ह्रीं अर्हं पुष्करर्धद्वीपस्थस्थविद्युन्मालीमेरूसंबंधिपांडुकवनस्थितदक्षिण-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
15. ऊँ ह्रीं अर्हं पुष्करर्धद्वीपस्थस्थविद्युन्मालीमेरूसंबंधिपांडुकवनस्थितपश्चिम-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
16. ऊँ ह्रीं अर्हं पुष्करर्धद्वीपस्थस्थविद्युन्मालीमेरूसंबंधिपांडुकवनस्थितउत्तर-दिक्जिनालयजिनबिंबेभ्यो नमः।
मेरूपंक्ति व्रत विधि
जम्बूद्वीप का एक, धातकीखण्ड पूर्व दिशा का एक, धातकीखण्ड पश्चिम दिशा का एक, पुष्करार्ध पूर्व दिशा का एक और पुष्करार्ध पश्चिम दिशा का एक इस प्रकार कुल पांच मेरूपर्वत हैं। प्रत्ये कमेरूपर्वत पर भद्रशाल, नन्दन, सौमनस और पाण्डुक ये चार वन हैं। एक-एक वन में चार-चार चैत्यालय हैं। मेरूपंक्ति व्रत में वनों को लक्ष्य कर बला और चैत्यालयों को लक्ष्य कर उपवास करने पड़ते हैं। इस प्रकार इस व्रत में पांचों मेरू संबंधी अस्सी चैत्यालयों के अस्सी उपवास और बीस वन सम्बन्धी बीस बेला करने पड़ते हैं। तथा सौ स्थानों की सौ पारणाएं होती हैं। इसमें दो सौ बीस दिन लगते हैं। व्रत, जम्बूद्वीप के मेरू से शुरू होता है। इसमें प्रथम ही भद्रशाल वन के चार चैत्यालयों के चार उपवास, चार पारणायें और वन सम्बन्धी एक बेला, एक पारणा होती है। फिरसौमनस वन के चार चैत्यालयों के चार उपवास, चार पारणाएं ओरवन सम्बन्धी एक बेला, एक पारणा होी हैं। इसी क्रम से धातकीखण्ड द्वीप के पूर्व और पश्चिम मेरू तथा पुष्करार्धद्वीप के पूर्व और पश्चिम मेरू सम्बन्धी उपवास, बेला और पारणाएं होनी चाहिए। यह मेरूपंक्ति व्रत मेरूपर्वत पर महाभिषेक को प्राप्त कराता है अर्थात् इस व्रत का पालन करने वाला पुरूष तीर्थंकर होता है।
मेरूपंक्तिव्रत की समुच्चय जाप्य-
ऊँ ह्रीं पंचमेरूसम्बन्धि-अशीतिजिनालयस्थसर्वजिनबिम्बेभ्या नमः।
नोट-
कोई-कोई एक-एक चैत्यालय सम्बंधी एक-एक उपवास ऐसे अस्सी उपवास भी करते हैं। उसमें एकांतर और बेला का नियम नहीं रखते हैं। शक्ति होने से पूर्वोक्त विधि से करना चाहिए अन्यथा शक्ति अनुसार भी कर सकते हैं।
ऊँ जय श्री मेरूजिनं, स्वामी जय श्री मेरूजिनं।
ढाई द्वीपों में हैं-2, पंचमेरू अनुपम।। ऊँ जय।।
मेरू सुदर्शन प्रथम द्वीप के, मध्य विराज रहा।।स्वामी.।।
सोलह चैत्यालय से-2, पीते परमामृत।। ऊँ जय।।2।।
अपर धातकी अचलमेरू से, सुन्दर शोभ रहा।।स्वामी.।।
तीर्थंकर जन्माभिषेक भी-2, करते इन्द्र जहा।। ऊँ जय।।3।।
पुष्करार्ध के पूर्व अपर में, मेरू द्वय माने।।स्वामी.।।
मंदर विद्यन्माली-2, नामों से जाने।। ऊँ जय।।4।।
पंचमेरू के अस्सी, जिनमन्दिर शोभें।स्वामी.।
इस सौ अठ जिनप्रतिमा, सुर नर मन मोहें।। ऊँ जय।।5।।
जो जन श्रद्धा रूचि से, प्रभु आरति करते।स्वामी.।
वही ’’चंदनामति’’ क्रम से, भव आरत हरते।। ऊँ जय.।।6।।
श्री पंचमेरू का पाठ, करो सब ठाट बाट से प्राणी।
प्रभू जन्म न्हवन करते गिरि पर,
श्रृंगार प्रभू का किया शची इन्द्राणी,
निज आत्मरमण कर सफल करें जिन्दगानी,
वे पा लेते निर्वाण कहे जिनवाणी,
भक्ती गंगा ’चंदनामति’ कल्याणी,