संयममार्गणा
(तेरहवाँ अधिकार)
संयम का स्वरूप
वदसमिदिकसायाणं, दंडाण तहिंदियाण पंचण्हं।
धारणपालणणिग्गहचागजओ संजमो भणिओ।।११९।।
व्रतसमितिकषायाणां दण्डानां तथेन्द्रियाणां पंचानाम्।
धारणपालननिग्रहत्यागजय: संयमो भणित:।।११९।।
अर्थ — अहिंसा, अचौर्य, सत्य, शील (ब्रह्मचर्य), अपरिग्रह इन पाँच महाव्रतों का धारण करना, ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण, उत्सर्ग इन पाँच समितियों का पालना, क्रोधादि चार प्रकार की कषायों का निग्रह करना, मन, वचन, कायरूप दण्ड का त्याग तथा पाँच इंद्रियों का जय इसको संयम कहते हैं। अतएव संयम के पाँच भेद हैं।
सामायिक का स्वरूप
संगहिय सयलसंजममेयजममणुत्तरं दुरवगम्मं।
जीवो समुव्वहन्तो, सामाइयसंजमो होदि।।१२०।।
संगृह्य सकलसंयममेकयममनुत्तरं दुरवगम्यम्।
जीव: समुद्वहन् सामायिकसंयमो भवति।।१२०।।
अर्थ —उक्त व्रतधारण आदिक पाँच प्रकार के संयम में संग्रह नय की अपेक्षा से एकयम—भेद रहित होकर अर्थात् अभेद रूप से ‘‘मैं सर्व सावद्य का त्यागी हूँ’’ इस तरह से जो सम्पूर्ण सावद्य का त्याग करना इसको सामायिक संयम कहते हैं। यह संयम अनुपम है, दुर्लभ है और दुर्धर्ष है। इसके पालन करने वाले को सामायिक संयमी कहते हैं।
छेदोपस्थापना संयम का स्वरूप
छेत्तूण य परियायं, पोराणं जो ठवेइ अप्पाणं।
पंचजमे धम्मे सो, छेदोवट्ठावगो जीवो।।१२१।।
छित्वा च पर्यायं पुराणं य: स्थापयति आत्मानम्।
पंचयमे धर्मे स: छेदोपस्थापको जीव:।।१२१।।
अर्थ —प्रमाद के निमित्त से सामायिकादि से च्युत होकर जो सावद्य क्रिया के करने रूप सावद्य पर्याय होती है उसका प्रायश्चित्त विधि के अनुसार छेदन करके जो जीव अपनी आत्मा को व्रतधारणादिक पाँच प्रकार के संयमरूप धर्म में स्थापन करता है उसको छेदोपस्थापनसंयमी कहते हैं।
परिहारविशुद्धि संयमी का स्वरूप
पंचसमिदो तिगुत्तो, परिहरइ सदा वि जो हु सावज्जं।
पंचेक्कजमो पुरिसो, परिहारयसंजदो सो हु।।१२२।।
पंचसमित: त्रिगुप्त: परिहरति सदापि यो हि सावद्यम्।
पंचैकयम: पुरुष: परिहारकसंयत: स हि।।१२२।।
अर्थ —पाँच प्रकार के संयमियों में से सामान्य—अभेदरूप से अथवा विशेष—भेदरूप से सर्व-सावद्य का सर्वथा परित्याग करने वाला जो जीव पाँच समिति और तीन गुप्ति को धारण कर उनसे युक्त रहकर सदा सावद्य का त्याग करता है उस पुरुष को परिहारविशुद्धि संयमी कहते हैं अर्थात् जो इस तरह से सावद्य से सदा दूर रहता है वह जीव पाँच प्रकार के संयमियों में तीसरे परिहारविशुद्धिसंयम का धारक माना जाता है।
सूक्ष्मसांपराय संयम का स्वरूप
अणुलोहं वेदन्तो, जीवो उवसामगो व खवगो वा।
सो सुहुमसांपराओ, जहखादेणूणओ किंचि।।१२३।।
अणुलोभं विदन् जीव: उपशामको वा क्षपको वा।
स सूक्ष्मसाम्पराय: यथाख्यातेनोन: किंचित्।।१२३।।
अर्थ —जिस उपशम श्रेणी वाले अथवा क्षपक श्रेणी वाले जीव के अणुमात्र लोभ—सूक्ष्मकृष्टि को प्राप्त लोभकषाय के उदय का अनुभव होता है उसको सूक्ष्मसांपरायसंयमी कहते हैं इसके परिणाम यथाख्यात चारित्र वाले जीव के परिणामों से कुछ ही कम होते हैं क्योंकि यह संयम दशवें गुणस्थान में होता है और यथाख्यात संयम ग्यारहवें से शुरू होता है।
यथाख्यात संयम का स्वरूप
उवसंते खीणे वा, असुहे कम्मम्मि मोहणीयम्मि।
छदुमट्ठो व जिणो वा, जहखादो संजदो सो दु।।१२४।।
उपशान्ते क्षीणे वा अशुभे कर्मणि मोहनीये।
छद्मस्थो वा जिनो वा यथाख्यात: संयत: स तु।।१२४।।
अर्थ —अशुभरूप मोहनीय कर्म के सर्वथा उपशम हो जाने से ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती जीवों के और सर्वथा क्षीण हो जाने से बारहवें गुणस्थानवर्ती जीवों के तथा तेरहवें, चौदहवें गुणस्थान वाले जीवों के यथाख्यात संयम होता है।
भावार्थ —यथावस्थित आत्मस्वभाव की उपलब्धि को यथाख्यात संयम कहते हैं। यह संयम ग्यारहवें से लेकर चौदहवें तक चार गुणस्थानों में होता है। ग्यारहवें में चारित्र मोहनीय कर्म के उपशम से और ऊपर के तीन गुणस्थानों में क्षय से यह होता है। इस तरह से यह संयम छद्मस्थ और जिन दोनों ही प्रकार के जीवों के पाया जाता है। क्षायोपशमिक ज्ञानी को छद्मस्थ और क्षायिक ज्ञानी को जिन कहते हैं।
देशविरत संयम का स्वरूप
दंसणवयसामाइय, पोसहसच्चित्तरायभत्ते य।
बम्हारंभपरिग्गह, अणुमणमुद्दिट्ठदेसविरदेदे।।१२५।।
दर्शनव्रतसामायिका: प्रोषधसचित्तरात्रिभक्ताश्च।
ब्रह्मारम्भपरिग्रहानुमतोदिदष्टदेशविरता एते।।१२५।।
अर्थ —दार्शनिक, व्रतिक, सामायिक, प्रोषधोपवासी, सचित्तविरत, रात्रिभुक्तिविरत, ब्रह्मचारी, आरम्भविरत, परिग्रहविरत, अनुमतिविरत, उद्दिष्टविरत ये देशविरत (पाँचवें गुणस्थान) के ग्यारह भेद हैं।
'भावार्थ— 'नाम के एकदेश से पूर्ण नाम का बोध हो जाता है, इस नियम के अनुसार यद्यपि गाथा में ग्यारह प्रतिमाओं के नाम का एकदेश मात्र ही लिखा है परन्तु उससे पूर्ण नाम ग्रहण कर लेना चाहिए।
असंयत का स्वरूप
जीवा चोद्दसभेया, इंदियविसया तहट्ठबीसं तु।
जे तेसु णेव विरया, असंजदा ते मुणेदव्वा।।१२६।।
जीवाश्चतुर्दशभेदा इंद्रियविषया: तथाष्टाविंशतिस्तु।
ये तेषु नैव विरता असंयता: ते मन्तव्या:।।१२६।।
अर्थ —चौदह प्रकार के जीव समास और अट्ठाईस प्रकार के इंद्रियों के विषय इनसे जो विरक्त नहीं हैं उनको असंयत कहते हैं।
भावार्थ —चौदह जीव समासों के भेद पहले बता चुके हैं और इंद्रिय विषयों के अट्ठाईस भेद आगे की गाथा में बता रहे हैं। जो इनसे विरत हैं वे संयमी हैं। जो विरत नहीं हैं वे असंयमी हैं। संयम दो प्रकार का है—प्राणि संयम और इंद्रिय संयम। जीवों की रक्षा को प्राणि संयम और इंद्रिय विषयों के त्याग को इंद्रिय संयम कहते हैं। जो इस संयम से रहित हैं उनको असंयमी कहते हैं।
संयममार्गणा में जीवसंख्या बताते हैं-
पमदादिचउण्हजुदी, सामयियदुगं कमेण सेसतियं।
सत्तसहस्सा णवसय, णवलक्खा तीहिं परिहीणा।।१२७।।
प्रमत्तादिचतुर्णां युति: सामायिकद्विकं क्रमेण शेषत्रिकम्।
सप्तसहस्राणि नव शतानि नव लक्षाणि त्रिभि: परिहीनानि।।१२७।।
अर्थ —प्रमत्तादि चार गुणस्थानवर्ती जीवों का जितना प्रमाण है उतने सामायिकसंयमी होते हैं और उतने ही छेदोपस्थापनासंयमी होते हैं। परिहारविशुद्धि संयम वाले तीन कम सात हजार (६९९७), सूक्ष्मसांपराय संयम वाले तीन कम नौ सौ (८९७), यथाख्यात संयम वाले तीन कम नौ लाख (८९९९९७) होते हैं।
संयम मार्गणासार
संयममार्गणा का लक्षण—अहिंसादि पंचमहाव्रतों को धारण करना, पाँच समितियों का पालना, क्रोधादि चार कषायों का निग्रह करना, मन वचन, काय रूप दण्ड का त्याग तथा पाँच इंद्रियों का जय इसको संयम कहते हैं।
संयम के पाँच भेद हैं—सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय और यथाख्यात। इसी में संयमासंयम और असंयम के मिलाने से संयममार्गणा के सात भेद हो जाते हैं।
प्रश्न—संयममार्गणा में देशसंयम और असंयम को क्यों लिया ?
उत्तर —उस उस मार्गणा में उसके प्रतिपक्षी को भी ले लिया जाता है अथवा जैसे—वन में आम्र की प्रधानता होने से आम्रवन कहलाता है किन्तु उसमें नींबू आदि के वृक्ष भी रहते हैं। जो संयम की विरोधी नहीं है ऐसी संज्वलन बादर कषाय के उदय से आरंभ के तीन संयम होते हैं। सूक्ष्मसंज्वलन लोभ के उदय से सूक्ष्म सांपराय संयम और सम्पूर्ण मोहनीय कर्म के उपशम या क्षय से यथाख्यात संयम होता है। तीसरी प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से संयमासंयम और दूसरी अप्रत्याख्यानावरण के उदय से असंयम भाव होता है।
सामायिक —‘‘मैं सर्व सावद्य का त्यागी हूँ’’ इस तरह अभेद रूप से जो सम्पूर्ण सावद्य का त्याग करता है वह अनुपम दुर्लभ सामायिक संयम का धारी है।
छेदोपस्थापना —प्रमाद के योग से सामायिकादि से च्युत होकर उसका विधिवत् छेदन करके अपनी आत्मा को पंच प्रकार के व्रतों में स्थापन करना।
परिहारविशुद्धि —जन्म से लेकर तीस वर्ष तक सुखी रहकर पुन: दीक्षा ग्रहण कर तीर्थंकर के पादमूल में आठ वर्ष तक प्रत्याख्यान नामक नवमें पूर्व का अध्ययन करने वाले मुनि के यह संयम प्रगट होता है। इससे वे मुनि तीन संध्याकाल को छोड़कर प्रतिदिन दो कोस गमन करते हैं। इस संयम में वर्षाकाल में विहार का निषेध नहीं है। इसमें प्राणी पीड़ा का परिहार—त्याग होने से विशुद्धि है अत: ये संयमी जीवराशि में विहार करते हुए भी जल से भिन्न कमलवत् हिंसा से अलिप्त रहते हैं।
सूक्ष्मसांपराय —सूक्ष्म लोभ के उदय से दसवें गुणस्थान में सूक्ष्म सांपराय संयम होता है।
यथाख्यात —मोहनीय कर्म के सर्वथा उपशम या क्षय से यह संयम होता है। ग्यारहवें में उपशम से होता है और बारहवें, तेरहवें, चौदहवें गुणस्थान में कषाय के क्षय से होता है।
संयमासंयम —जो सम्यग्दृष्टि पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत ऐसे बारह व्रतों से युक्त हैं वे देशव्रती अथवा संयमासंयमी हैं। इस देशव्रत से भी जीवों के असंख्यातगुणी कर्मों की निर्जरा होती है। इस देशव्रत में दर्शन प्रतिमा से लेकर उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा तक ग्यारह भेद भी होते हैं।
असंयम —चौदह प्रकार के जीवसमास और अट्ठाईस प्रकार के इंद्रियों से जो विरत नहीं हैं उनको असंयम कहते हैं। जीव१ समास का पहले वर्णन हो चुका है। पाँच रस, पाँच वर्ण, दो गंध, आठ स्पर्श और षड्ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद ये सात स्वर तथा एक मन इस तरह इंद्रियों के अट्ठाईस विषय हैं अर्थात् संयम के प्राणिसंयम, इंद्रियसंयम की अपेक्षा दो भेद हैं। जीवसमासगत प्राणिहिंसा से विरत होना प्राणिसंयम और इंद्रिय विषयों से विरत होना इंद्रिय संयम है। असंयम में दोनों प्रकार की विरति नहीं है। संयमी जीवों की संख्या—छठे गुणस्थान से लेकर चौदहवें तक सब संयमी हैं। उन सबकी संख्या तीन कम नव करोड़ प्रमाण है अर्थात् एक साथ अधिक से अधिक इतने संयमी रह सकते हैं।
प्रमत्त गुणस्थानवर्ती जीव ५,९३,९८,२०६, अप्रमत्त वाले २,९६,९९,१०३, उपशमश्रेणी वाले चारों गुणस्थानवर्ती १,१९६, क्षपकश्रेणी वाले चारों गुणस्थानवर्ती २,३९२, सयोगीजिन ८,९८,५०२, अयोगीजिन ५९८ इन सबका जोड़ ८,९९,९९,९९७ है। इन सबको मैं हाथ जोड़कर सिर झुकाकर त्रिकरणशुद्धि- पूर्वक नमस्कार करता हूँ।
आज पंचमकाल में मिथ्यात्व से लेकर चतुर्थ गुणस्थान तक असंयमी, देशसंयमी तथा मुनि अवस्था में सामायिक, छेदोपस्थापना संयमधारी मुनि होते हैं और पंचम काल के अंत तक होते रहेंगे इसमें कोई संशय नहीं है, ऐसा श्री कुन्दकुन्द भगवान ने कहा है। ऐसा समझकर वर्तमान काल के मुनियों को भी भावलिंगी मानकर नमस्कार, भक्ति, आहारदान आदि करके अपने मनुष्य जीवन को सफल करना चाहिए। हाँ, यदि कोई साधु चारित्रभ्रष्ट हों तो उनका स्थितिकरण उपगूहन करना चाहिए अन्यथा उनकी उपेक्षा कर देना चाहिए, उनकी निंंदा करके अपने सम्यक्त्व को मलिन नहीं करना चाहिए और स्वयं असंयत जीवन से निकलकर देशसंयत या मुनि बनना चाहिए।
दर्शनमार्गणा
(चौदहवाँ अधिकार)
दर्शन का स्वरूप
जं सामण्णं गहणं, भावाणं णेव कट्टुमायारं।
अविसेसदूण अट्ठे, दंसणमिदि भण्णदे समये।।१२८।।
यत् सामान्यं ग्रहणं भावनां नैव कृत्वाकारम्।
अविशेष्यार्थान् दर्शनमिति भण्यते समये।।१२८।।
अर्थ—सामान्य—विशेषात्मक पदार्थ के विशेष अंश को ग्रहण न करके केवल सामान्य अंश का जो निर्विकल्परूप से ग्रहण होता है उसको परमागम में दर्शन कहते हैं।
भावार्थ—यद्यपि वस्तु सामान्य-विशेषात्मक है फिर भी उसमें आकार-भेद न करके जाति गुण क्रिया आकार प्रकार की विशेषता किए बिना ही जो स्व या पर का सत्तामात्र सामान्य ग्रहण होता है वही दर्शनोपयोग है।
चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन का स्वरूप
चक्खूण जं पयासइ, दिस्सइ तं चक्खुदंसणं वेंति।
सेसिंदियप्पयासो, णायव्वो सो अचक्खू त्तिं।।१२९।।
चक्षुषो: यत् प्रकाशते पश्यति तत् चक्षुर्दर्शनं ब्रुवन्ति।
शेषेन्द्रियप्रकाशो ज्ञातव्य: स अचक्षुरिति।।१२९।।
अर्थ—चक्षुरिन्द्रिय संबंधी जो सामान्य प्रकाश—आभास अथवा देखना, अथवा वह ग्रहण विषय का प्रकाशनमात्र जिसके द्वारा हो—जिसके द्वारा वह देखा जाय, यद्वा उसके कर्ता—देखने वाले को चक्षु दर्शन कहते हैं और चक्षु के सिवाय दूसरी चार इंद्रियों के द्वारा अथवा मन के द्वारा जो पदार्थ का सामान्यरूप से ग्रहण होता है उसको अचक्षु दर्शन कहते हैं।
अवधिदर्शन का स्वरूप
परमाणुआदियाइं, अन्तिमखंधं ति मुत्तिदव्वाई।
तं ओहिदंसणं पुण, जं पस्सइ ताइं पच्चक्खं।।१३०।।
परमाण्वादीनि अन्तिमस्कन्धमिति मूर्तद्रव्याणि।
तदवधिदर्शनं पुन: यत् पश्यति तानि प्रत्यक्षम्।।१३०।।
अर्थ—अवधिज्ञान होेने के पूर्व समय में अवधि के विषयभूत परमाणु से लेकर महास्कन्धपर्यन्त मूर्तद्रव्य का जो सामान्यरूप से प्रत्यक्ष—देखना-ग्रहण-प्रकाश-अवभासन होता है। उसको अवधिदर्शन कहते हैं। इस अवधिदर्शन के अनंतर प्रत्यक्ष अवधिज्ञान होता है।
केवलदर्शन का स्वरूप
बहुविहबहुप्पयारा, उज्जोवा परिमियम्मि खेत्तम्मि।
लोगालोगवितिमिरो, जो केवलदंसणुज्जोओ।।१३१।।
बहुविधबहुप्रकारा उद्योता: परिमिते क्षेत्रे।
लोकालोकवितिमिरो य: केवलदर्शनोद्योत:।।१३१।।
अर्थ—तीव्र, मंद, मध्यम आदि अनेक अवस्थाओं की अपेक्षा तथा चंद्र-सूर्य आदि पदार्थों की अपेक्षा अनेक प्रकार के प्रकाश जगत में पाये जाते हैं परन्तु वे परिमित क्षेत्र में ही रहते और काम करते हैं किन्तु जो लोक और अलोक दोनों जगह प्रकाश करता है ऐसे आत्मा के सामान्य आभास रूप प्रकाश को केवलदर्शन कहते हैं।
भावार्थ—समस्त पदार्थों का जो सामान्य दर्शन होता है उसको केवलदर्शन कहते हैं।
दर्शन मार्गणासार
दर्शनोपयोग का लक्षण—प्रत्येक वस्तु सामान्य विशेषात्मक है फिर भी उसमें आकार भेद रूप विशेष अंश को ग्रहण करके जो स्व या पर का सत्तारूप सामान्य ग्रहण होता है उसे दर्शन कहते हैं।
उसके चार भेद हैं—चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन।
चक्षुदर्शन—चक्षुइंद्रिय संबंधी जो सामान्य आभास होता है वह चक्षुदर्शन है।
अचक्षुदर्शन—चक्षु के सिवाय अन्य चार इंद्रियों के द्वारा या मन के द्वारा जो पदार्थ का सामान्य रूप से ग्रहण होता है वह अचक्षुदर्शन है।
अवधिदर्शन—अवधिज्ञान के पूर्व समय में अवधि के विषयभूत पदार्थों का जो सामान्यावलोकन है वह अवधिदर्शन है।
केवलदर्शन—जो लोक और अलोक दोनों जगह प्रकाश करता है ऐसे आत्मा के सामान्य आभास रूप प्रकाश को केवलदर्शन कहते हैं।
तीन इंद्रिय जीवों तक अचक्षुदर्शन ही होता है। चार इंद्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों को दोनों दर्शन होते हैं। पंचेन्द्रिय सम्यग्दृष्टि को ही किन्हीं अवधिज्ञानी को अवधिदर्शन और केवली भगवान को ही केवलदर्शन होता है। संसारी जीवों के ज्ञान और दर्शन एक साथ नहीं होते हैं किन्तु केवली भगवान के दोनों एक साथ ही होते हैं।
अत: दर्शनमार्गणा को समझकर समस्त बाह्य संकल्प विकल्प को छोड़कर अंतर्मुख होकर निर्विकल्प समाधि में स्थिरता प्राप्त कर शुद्धात्मा का अवलोकन करना चाहिए।
लेश्यामार्गणा
(पन्द्रहवाँ अधिकार)
लेश्या का स्वरूप
लिपइ अप्पीकीरइ, एदीए णियअपुण्णपुण्णं च।
जीवो त्ति होदि लेस्सा लेस्सागुणजाणयक्खादा।।१३२।।
लिंपत्यात्मीकरोति एतया निजापुण्यपुण्यं च।
जीव इति भवति लेश्या लेश्यागुणज्ञायकाख्याता।।१३२।।
अर्थ—लेश्या के गुण को—स्वरूप को जानने वाले गणधरादि देवों ने लेश्या का स्वरूप ऐसा कहा है कि जिसके द्वारा जीव अपने को पुण्य और पाप से लिप्त करे—पुण्य और पाप के अधीन करे उसको लेश्या कहते हैं।
भावार्थ—लेश्या दो प्रकार की है—द्रव्य लेश्या और भावलेश्या। द्रव्यलेश्या शरीर के वर्ण रूप और भावलेश्या जीव के परिणामस्वरूप है। यहाँ पर भावलेश्या को ही दृष्टि में रखकर यह निरुक्ति सिद्ध कहा गया है।
लेश्या के नाम
किण्हा णीला काऊ, तेऊ पम्मा य सुक्कलेस्सा य।
लेस्साणं णिद्देसा, छच्चेव हवंति णियमेण।।१३३।।
कृष्णा नीला कापोता तेज: पद्मा च शुक्ललेश्या च।
लेश्यानां निर्देशा: षट् चैव भवन्ति नियमेन।।१३३।।
अर्थ—लेश्याओं के नियम से ये छह ही निर्देश—संज्ञायें हैं—कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या (पीतलेश्या), पद्मलेश्या, शुक्ल लेश्या।
'भावार्थ'—इस गाथा में कहे हुए एव शब्द के द्वारा ही नियम अर्थसिद्ध हो जाने से पुन: शब्द का ग्रहण करना व्यर्थ ठहरता है। अतएव वह व्यर्थ ठहरकर ज्ञापन सिद्ध विशेष अर्थ को सूचित करता है कि लेश्या के यद्यपि सामान्यतया नैगम नय की अपेक्षा छह भेद ही हैं तथापि पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से लेश्याओं के असंख्यात लोक प्रमाण अवान्तर भेद होते हैं।
लेश्या के कार्य
पहिया जे छप्पुरिसा, परिभट्टारण्णमज्झदेसम्हि।
फलभरियरूक्खमेगं, पेक्खित्ता ते विचिंतंति।।१३४।।
पथिका ये षट् पुरुषा: परिभ्रष्टा अरण्यमध्यदेशे।
फलभरितवृक्षमेकं प्रेक्षित्वा ते विचिन्तयन्ति।।१३४।।
णिम्मूलखंधसाहुवसाहं छित्तुं चिणित्तु पडिदाइं।
खाउं फलाइं इदि जं, मणेण वयणं हवे कम्मं।।१३५।।
निर्मूलस्कन्धशाखोपशाखं छित्वा चित्वा पतितानि।
खादितुं फलानि इति यन्मनसा वचनं भवेत् कम्र्म।।१३५।।
अर्थ—कृष्ण आदि छह लेश्या वाले कोई छह पथिक वन के मध्य में मार्ग से भ्रष्ट होकर फलों से पूर्ण किसी वृक्ष को देखकर अपने-अपने मन में इस प्रकार विचार करते हैं और उसके अनुसार वचन कहते हैं। कृष्णलेश्या वाला विचार करता है और कहता है कि मैं इस वृक्ष को मूल से उखाड़कर इसके फलों का भक्षण करूँगा। नीललेश्या वाला विचारता है और कहता है कि मैं इस वृक्ष को स्कन्ध से काटकर इसके फल खाऊँगा। कापोतलेश्या वाला विचारता है और कहता है कि मैं इस वृक्ष की बड़ी-बड़ी शाखाओं को काटकर इसके फलों को खाऊँगा। पीतलेश्या वाला विचारता है और कहता है कि मैं इस वृक्ष की छोटी-छोटी शाखाओं को काटकर इसके फलों को खाऊँगा। पद्मलेश्या वाला विचारता है और कहता है कि मैं इस वृक्ष के फलों को तोड़कर खाऊँगा तथा शुक्ललेश्या वाला विचारता है और कहता है कि मैं इस वृक्ष से स्वयं टूटकर पड़े हुए फलों को खाऊँगा। इस तरह जो मन:पूर्वक वचनादि की प्रवृत्ति होती है वह लेश्या का कर्म है। यहाँ पर यह एक दृष्टांत मात्र दिया गया है इसलिए इस ही तरह अन्यत्र भी समझना चाहिए।
कृष्णलेश्या का स्वरूप
चण्डो ण मुंचइ वेरं, भंडणसीलो य धरमदयरहिओ।
दुट्ठो ण य एदि वसं, लक्खणमेयं तु किण्हस्स।।१३६।।
चण्डो न मुंचति वैरं भण्डनशीलश्च धर्मदयारहित:।
दुष्टो न चैति वशं लक्षणमेतत्तु कृष्णस्य।।१३६।।
अर्थ—तीव्र क्रोध करने वाला हो, वैर को न छोड़े, युद्ध करने का (लड़ने का) जिसका स्वभाव हो, धर्म और दया से रहित हो, जो दुष्ट हो, किसी के भी वश न हो ये सब कृष्णलेश्या वाले के चिन्ह—लक्षण हैं।
नीललेश्या का स्वरूप
मन्दो बुद्धिविहीणो, णिव्विण्णाणी य विसयलोलो य।
माणी मायी य तहा, आलस्सो चेव भेज्जो य।।१३७।।
मन्दो बुद्धिविहीनो निर्विज्ञानी च विषयलोलश्च।
मानी मायी च तथा आलस्यश्चैव भेद्यश्च।।१३७।।
णिद्दावंचणबहुलो, धणधण्णे होदि तिव्वसण्णा य।
लक्खणमेयं भणियं, समासदो णीललेस्सस्स।।१३८।।
निद्रावंचनबहुलो धनधान्ये भवति तीव्रसंज्ञश्च।
लक्षणमेतद् भणितं समासतो नीललेश्यस्य।।१३८।।
अर्थ—काम करने में मंद हो अथवा स्वच्छन्द हो, वर्तमान कार्य करने में विवेक रहित हो, कला चातुर्य से रहित हो, स्पर्शनादि पाँच इंद्रियों के विषयों में लम्पट हो, मानी हो, मायाचारी हो, आलसी हो, दूसरे लोग जिसके अभिप्राय को सहसा न जान सके तथा जो अति निद्रालु और दूसरों को ठगने में अतिदक्ष हो और धनधान्य के विषय में जिसकी अति तीव्र लालसा हो ये नीललेश्या वाले के संक्षेप से चिन्ह बताये हैं।
कापोत लेश्या का स्वरूप
रूसइ णिंदइ अण्णे, दूसइ बहुसो य सोयभयबहुलो।
असुयइ परिभवइ परं, पसंसये अप्पयं बहुसो।।१३९।।
रुष्यति निन्दति अन्यं दुष्यति बहुशश्च शोकभयबहुल:।
असूयति परिभवति परं प्रशंसति आत्मानं बहुश:।।१३९।।
णयपत्तियइ परं सो, अप्पाणं यिव परं पि मण्णंतो।
थूसइ अभित्थुवंतो, ण य जाणइ हाणि-विंड्ढ वा।।१४०।।
न च प्रत्येति परं स आत्मानमिव परमपि मन्यमान:।
तुष्यति अभिष्टुवतो न च जानाति हानिवृद्धी वा।।१४०।।
मरणं पत्थेइ रणे, देइ सुबहुगं वि थुव्वमाणो दु।
ण गणइ कज्जाकज्जं, लक्खणमेयं तु काउस्स।।१४१।।
मरणं प्रार्थयते रणे ददाति सुबहुकमपि स्तूयमानस्तु।
न गणयति कार्याकार्य लक्षणमेतत्तु कापोतस्य।।१४१।।
अर्थ—दूसरे के ऊपर क्रोध करना, दूसरे की निंदा करना, अनेक प्रकार से दूसरों को दु:ख देना अथवा औरों से बैर करना, अधिकतर शोकाकुलित रहना या हो जाना, दूसरों के ऐश्वर्यादि को सहन न कर सकना, दूसरे का तिरस्कार करना, अपनी नाना प्रकार से प्रशंसा करना, दूसरे के ऊपर विश्वास न करना, अपने समान दूसरों को भी मानना, स्तुति करने वाले पर सन्तुष्ट हो जाना, अपनी हानि-वृद्धि को कुछ भी न समझना, रण में मरने की प्रार्थना करना, स्तुति करने वाले को खूब धन दे डालना, अपने कार्य-अकार्य की कुछ भी गणना न करना ये सब कापोतलेश्या वाले के चिन्ह हैं।
पीतलेश्या वाले के चिन्ह
जाणइ कज्जाकज्जं, सेयमसेयं च सव्वसमपासी।
दयदाणरदो य मिदू, लक्खणमेयं तु तेउस्स।।१४२।।
जानाति कार्याकार्यं सेव्यमसेव्यं च सर्वसमदर्शी।
दयादानरतश्च मृदु: लक्षणमेतत्तु तेजस:।।१४२।।
अर्थ—अपने कार्य-अकार्य, सेव्य-असेव्य को समझने वाला हो, सबके विषय में समदर्शी हो, दया और दान में तत्पर हो, मन, वचन, काय के विषय में कोमल परिणामी हो ये पीतलेश्या वाले के चिन्ह हैं।
पद्मलेश्या के लक्षण
चागी भद्दो चोक्खो, उज्जवकम्मो य खमदि बहुगं पि।
साहुगुरुपूजणरदो, लक्खणमेयं तु पम्मस्स।।१४३।।
त्यागी भद्र: सुकर: उद्युक्तकर्मा च क्षमते बहुकमपि।
साधुगुरुपूजनरतो लक्षणमेतत्तु पद्मस्य।।१४३।।
अर्थ—दान देने वाला हो, भद्र परिणामी हो, जिसका उत्तम कार्य करने का स्वभाव हो, कष्ट रूप तथा अनिष्ट रूप उपद्रवों को सहन करने वाला हो, मुनिजन, गुरुजन आदि की पूजा में प्रीतियुक्त हो ये सब पद्मलेश्या वाले के लक्षण हैं।
शुक्ललेश्या वाले के लक्षण
ण य कुणइ पक्खवायं, ण वि य णिदाणं समो य सव्वेसिं।
णत्थि य रायद्दोसा, णेहो वि य सुक्कलेस्सस्स।।१४४।।
न च करोति पक्षपातं नापि च निदानं समश्च सर्वेषाम्।
न स्त: च रागद्वेषी स्नेहीऽपि च शुक्ललेश्यस्य।।१४४।।
अर्थ—पक्षपात न करना, निदान को न बांधना, सब जीवों में समदर्शी होना, इष्ट से राग और अनिष्ट से द्वेष न करना, स्त्री, पुरुष, मित्र आदि में स्नेहरहित होना ये सब शुक्ललेश्या वाले के लक्षण हैं। इस प्रकार सोलह अधिकारों के द्वारा लेश्याओं का वर्णन करके अब लेश्यारहित जीवों का वर्णन करते हैं-
किण्हादिलेस्सरहिया, संसारविणिग्गया अणंतसुहा।
सिद्धिपुरं संपत्ता, अलेस्सिया ते मुणेयव्वा।।१४५।।
कृष्णादिलेश्यारहिता: संसारविनिर्गता अनंतसुखा:।
सिद्धिपुरं संप्राप्ता अलेश्यास्ते ज्ञातव्या:।।१४५।।
अर्थ—जो कृष्ण आदि छहों लेश्याओं से रहित हैं, अतएव जो पंच परिवर्तनरूप संसारसमुद्र के पार को प्राप्त हो गये हैं तथा जो अतीन्द्रिय अनन्त सुख से तृप्त हैं, आत्मोपलब्धिरूप सिद्धिपुरी को जो प्राप्त हो गये हैं, उन जीवों को अयोगकेवली या सिद्ध भगवान कहते हैं।
भावार्थ-जो अनन्त सुख को प्राप्तकर संसार से सर्वथा रहित होकर सिद्धिपुरी को प्राप्त हो गये हैं वे जीव सर्वथा लेश्याओं से रहित होते हैं, अतएव उनको अलेश्य-सिद्ध कहते हैं, क्योंकि लेश्याओं का संबंध कषाय और योग से है अतएव जहाँ तक कषायों के उदयस्थान और योगप्रवृत्ति पाई जाती है वहाँ तक लेश्याएँ भी मानी जाती हैं, इनके ऊपर चौदहवें गुणस्थान एवं सिद्ध अवस्था में इनका सर्वथा अभाव है, अतएव ये दोनों ही स्थान अलेश्य हैं।
लेश्या मार्गणासार
लेश्या का लक्षण—जो आत्मा को पुण्य पाप से लिप्त करे ऐसी कषायोदय से अनुरक्त योग (मन, वचन काय) की प्रवृत्ति लेश्या है। लेश्या के दो भेद हैं—द्रव्यलेश्या, भावलेश्या। द्रव्यलेश्या शरीर के वर्णरूप है और भावलेश्या आत्मा के परिणामस्वरूप है। लेश्या के छह भेद हैं—कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म, शुक्ल। इनके अवांतर भेद असंख्यात लोक प्रमाण हैं।
द्रव्यलेश्या का वर्णन—वर्ण नामकर्म के उदय से जीव के शरीर का वर्ण द्रव्यलेश्या है। सम्पूर्ण नारकी कृष्ण वर्ण हैं। कल्पवासी देवों की द्रव्यलेश्या, भावलेश्या सदृश है। भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी, मनुष्य, तिर्यंच इनकी द्रव्य लेश्या छहों हैं। विक्रिया से रहित देवों के शरीर छहों वर्ण के हो सकते हैंं। उत्तम भोगभूमियों-उत्तर कुरु के मनुष्य तिर्यंचों का वर्ण सूर्य के समान, मध्यम भोगभूमि-हरि-रम्यक् वालों का चंद्र के समान, जघन्य भोगभूमि-हैमवत-हैरण्यवत् वालों का हरित वर्ण है।
भावलेश्या का वर्णन—अशुभ तीन लेश्या में तीव्रतम, तीव्रतर और तीव्र ये तीन स्थान होते हैं। शुभ लेश्या में मंद, मन्दतर, मन्दतम ये तीन स्थान होते हैं।
कृष्णलेश्या—तीव्र क्रोधी, वैर न छोड़े, युद्धाभिलाषी, धर्मदया से शून्य, दुष्ट और किसी के वश में न होवे यह कृष्णलेश्या के लक्षण हैं।
नीललेश्या—काम करने में मंद हो, स्वच्छंद हो, विवेक, चतुरता रहित हो, इंद्रियलम्पट, मानी, मायाचारी, आलसी हो, गूढ़ अभिप्रायी, निद्रालु, वंचक, विषयों का लोलुपी हो ये सब नीललेश्या के लक्षण हैं।
कापोतलेश्या—दूसरे पर क्रोध करना, निंदा करना, दु:ख देना, वैर करना, शोकाकुलित रहना, भयग्रस्त होना, दूसरों के ऐश्वर्यादि को न सह सकना, दूसरे का तिरस्कार करना, अपनी प्रशंसा करना, स्तुति में संतुष्ट होना आदि इस लेश्या के लक्षण हैं।
पीतलेश्या—अपने कार्य-अकार्य, सेव्य-असेव्य को समझना, सबके विषय में समदर्शी होना, दया और दान में तत्पर होना, मन वचन काय से कोमल परिणामी होना ये सब पीतलेश्या के चिन्ह हैं।
पद्मलेश्या—दान देने वाला हो, भद्र परिणामी, उत्तम कार्य करने का स्वभावी हो, कष्टरूप व अनिष्ट उपसर्गों का सहन करने वाला हो, मुनिजन, गुरुजन की पूजा में प्रीतियुक्त हो ये सब पद्मलेश्या के लक्षण हैं।
शुक्ललेश्या—पक्षपात न करना, निदान को न बाँधना, सब जीवों में समदर्शी होना, इष्ट से राग अनिष्ट से द्वेष न करना, स्त्री, पुत्र आदि में स्नेह रहित होना ये सब शुक्ललेश्या के लक्षण हैं।
किस लेश्या वाले के कैसे भाव होते हैं इसका दृष्टांत से स्पष्टीकरण—
कृष्णादि लेश्या वाले छह पथिक वन में मार्ग भूल जाने से एक फलों के भार से युक्त वृक्ष के पास जाकर इस प्रकार क्रिया करते हैं। कृष्ण लेश्या वाला इस वृक्ष को जड़ से उखाड़कर फल खाने का इच्छुक होकर वृक्ष को जड़ से काटने लगा। नीललेश्या वाला वृक्ष के स्कंध को काटकर फल खाने का इच्छुक हो स्कंध काटने लगा। कापोतलेश्या वाला बड़ी-बड़ी शाखाओं को काटकर फल खाने लगा। पीतलेश्या वाला छोटी-छोटी शाखाओं को काटकर फल लेकर खाने लगा। पद्मलेश्या वाला फलों को वृक्ष से तोड़कर खाने लगा और शुक्ललेश्या वाला वृक्ष से स्वयं टूट कर पड़े हुए फलों को उठाकर खाने लगा। इस प्रकार से लेश्या के और भी उदाहरण समझना।
लेश्याओं का काल—सभी लेश्याओं का जघन्य काल अंतर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल तैंतीस सागर आदि है।लेश्याओें के छब्बीस अंश और आयुबंध का अपकर्ष कालछहों लेश्याओं के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेद की अपेक्षा अठारह भेद होते हैं। इनमें आठ अपकर्षकाल संबंधी अंशों के मिलाने पर छब्बीस भेद हो जाते हैं। जैसे—किसी कर्मभूमिया मनुष्य की भुज्यमान आयु का प्रमाण ‘‘छह हजार पाँच सौ इकसठ’’ वर्ष है। इसके तीन भाग में से दो भाग के बीतने पर और एक भाग शेष रहने पर, इस एक भाग के प्रथम समय से लेकर अंतर्मुहूर्त पर्यंत प्रथम अपकर्ष काल कहा गया है। इस अपकर्षकाल में परभव संबंधी आयु का बंध होता है। यदि यहाँ आयु न बंधी तो अवशिष्ट आयु के तीन भाग में से एक भाग शेष रहने पर दूसरा अपकर्ष काल आता है। यदि यहाँ भी आयु न बंधी तो शेष आयु के तीन भाग में से शेष एक भाग के रहने पर अपकर्षकाल आता है। यदि यहाँ भी न बंधी तो ऐसे ही चौथे, पाँचवें, छठे, सातवें, आठवें अपकर्ष में से परभव संबंधी आयु का बंध होता है। यदि इन आठ अपकर्ष कालों में से किसी में भी बंध न हुआ तो भुज्यमान आयु के अंतिम आवली के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल से पूर्व के अन्तर्मुहूर्त में अवश्य ही आयु का बंध होता है यह नियम है। अगली आयु के बंध के बिना मरण असंभव है।
इन आठ अपकर्ष काल में से किसी में भी लेश्याओं के आठ मध्य- मांशों में से जो अंश होगा उसके अनुसार आयु का बंध होगा, अपकर्ष काल में होने वाले लेश्याओं के आठ मध्यम अंशों को छोड़कर बाकी के आठ अंश चारों गतियों के गमन के कारण होते हैं। यह सामान्य कथन है। शुक्ललेश्या के उत्कृष्ट अंश से संयुक्त जीव मरकर नियम से सर्वार्थसिाद्ध को जाते हैं।
विशेष—कर्मभूमियाँ मनुष्य और तिर्यंच के लिये आयु के तीन भाग में से एक भाग शेष रहने पर ही आयु बंध के कारणभूत आठ अपकर्ष काल होते हैं। देव, नारकियों के आयु का छह महिना शेष रहने पर आठ अपकर्ष काल आते हैं। भोगभूमिया मनुष्य या तिर्यंच के आयु के नौ महीना शेष रहने पर ये आठ अपकर्ष काल आते हैं। इस प्रकार लेश्याओं के ये आठ अंश आयु बंध के कारण कहे गये हैं। सिद्ध भगवान द्रव्यभाव लेश्या से रहित हैं—
जो कृष्णादि छहों लेश्याओं से रहित हैं अत: पंचपरिवर्तनरूप संसार समुद्र के पार हो गये हैं, अतीन्द्रिय, अनंतसुख से तृप्त, आत्मोपलब्धि रूप सिद्धपुरी को पहुँच चुके हैं वे अयोेगीकेवली या सिद्ध भगवान हैं।
लेश्याओं के प्रकरण को समझकर अशुभ लेश्या से बचकर शुभ लेश्या को धारण करते हुए लेश्यारहित शुद्धात्मा स्वरूप में स्थिर होने के लिये बार-बार प्रयत्न करना चाहिये। यह आत्मा वर्णादि से रहित शुद्ध परम स्वच्छ है। उसी का नित्य प्रति चिंतवन करना चाहिए।
भव्यत्व मार्गणा
(सोलहवाँ अधिकार)
भव्य और अभव्य का स्वरूप
भविया सिद्धी जेसिं, जीवाणं ते हवंति भवसिद्धा।
तव्विवरीयाऽभव्वा, संसारादो ण सिज्झंति।।१४६।।
भव्या सिद्धिर्येषां जीवानां ते भवन्ति भवसिद्धा:।
तद्विपरीता अभव्या: संसारान्न सिध्यन्ति।।१४६।।
अर्थ—जिन जीवों की अनंत चतुष्टयरूप सिद्धि होने वाली हो अथवा जो उसकी प्राप्ति के योग्य हों उनको भवसिद्ध कहते हैं। जिनमें इन दोनों में से कोई भी लक्षण घटित न हो उन जीवों को अभव्यसिद्ध कहते हैं।
भावार्थ—कितने ही भव्य ऐसे हैं जो मुक्ति प्राप्ति के योग्य हैं परन्तु कभी मुक्त न होंगे, जैसे—बन्ध्यापने के दोष से रहित विधवा सती स्त्री में पुत्रोत्पत्ति की योग्यता है परन्तु उसके कभी पुत्र उत्पन्न नहीं होगा। इसके सिवाय कोई भव्य ऐसे हैं जो नियम से मुक्त होंगे, जैसे—बन्ध्यापने के दोष से रहित स्त्री के निमित्त मिलने पर नियम से पुत्र उत्पन्न होगा। इस तरह योग्यता भेद के कारण भव्य दो प्रकार के हैं। इन दोनों योग्यताओं से जो रहित हैं उनको अभव्य कहते हैं। जैसे—बन्ध्या स्त्री के निमित्त मिले चाहे न मिले परन्तु पुत्र उत्पन्न नहीं हो सकता है।
भव्य का स्वरूप
भव्वत्तणस्स जोग्गा, जे जीवा ते हवंति भवसिद्धा।
ण हु मलविगमे णियमा, ताणं कणओवलाणमिव।।१४७।।
भव्यत्वस्य योग्या ये जीवास्ते भवन्ति भवसिद्धा:।
न हि मलविगमे नियमात् तेषां कनकोपलानामिव।।१४७।।
अर्थ—जो जीव अनंतचतुष्टयरूप सिद्धि की प्राप्ति के योग्य हैं उनको भवसिद्ध कहते हैं। किन्तु यह बात नहीं है कि इस प्रकार के जीवों का कर्ममल नियम से दूर होवे ही। जैसे—कनकोपलका।
भावार्थ—ऐसे भी बहुत से कनकोपल हैं जिनमें कि निमित्त मिलाने पर शुद्ध स्वर्णरूप होने की योग्यता तो है परन्तु उनकी इस योग्यता की अभिव्यक्ति कभी नहीं होगी अथवा जिस तरह अहमिन्द्र देवों में नरकादि में गमन करने की शक्ति है परन्तु उस शक्ति की अभिव्यक्ति कभी नहीं होती। इस ही तरह जिन जीवों में अनंत चतुष्टय को प्राप्त करने की योग्यता है परन्तु उनको वह कभी प्राप्त नहीं होगी उनको भी भवसिद्ध कहते हैं। ये जीव भव्य होते हुए भी सदा संसार में ही रहते हैं।
मुक्त जीव का स्वरूप
ण य जे भव्वाभव्वा, मुत्तिसुहाती दणंतसंसारा।
ते जीवा णायव्वा, णेव य भव्वा अभव्वा य।।१४८।।
न च ये भव्या अभव्या मुक्तिसुखा अतीतानन्तसंसारा:।
ते जीवा ज्ञातव्या नैव च भव्या अभव्याश्च।।१४८।।
अर्थ—जिनका पाँच परिवर्तन रूप अनंत संसार सर्वथा छूट गया है और इसीलिये जो मुक्तिसुख के भोक्ता हैं उन जीवों को न तो भव्य समझना और न अभव्य समझना चाहिए क्योंकि अब उनको कोई नवीन अवस्था प्राप्त करना शेष नहीं रही है इसलिये वे भव्य भी नहीं हैं और अनंत चतुष्टय को प्राप्त हो चुके हैं इसलिये अभव्य भी नहीं हैं।
भावार्थ—जिसमें अनंत चतुष्टय के अभिव्यक्त होने की योग्यता ही न हो उसको अभव्य कहते हैं अत: मुक्त जीव अभव्य भी नहीं हैं क्योंकि उन्होंने अनंत चतुष्टय को प्राप्त कर लिया है और ‘‘भवितुं योग्या भव्या’’ इस निरुक्ति के अनुसार भव्य उनको कहते हैं जिनमें कि अनंत चतुष्टय को प्राप्त करने की योग्यता है किन्तु अब वे उस अवस्था को प्राप्त कर चुके इसलिये उनके भव्यत्व—उनकी उस योग्यता का परिपाक हो चुका अतएव अपरिपक्व अवस्था की अपेक्षा से भव्य भी नहीं हैं।
भव्य मार्गणासार
जिन जीवों की अनंतचतुष्टय रूप सिद्धि होने वाली हो अथवा जो उसकी प्राप्ति के योग्य हों उनको भव्य कहते हैं। जनमें इन दोनों में से कोई लक्षण घटित न हो उनको अभव्य कहते हैं अर्थात् कितने ही भव्य ऐेसे हैं जो मुक्ति प्राप्ति के योग्य हैं परन्तु कभी भी मुक्त न होंगे। जैसे—विधवा सती स्त्री में पुत्रोत्पत्ति की योग्यता है परन्तु उसके कभी पुत्र उत्पन्न नहीं होगा। कोई भव्य ऐसे हैं जो नियम से मुक्त होंगे। जैसे-बन्ध्यापने से रहित स्त्री के निमित्त मिलने पर नियम से पुत्र उत्पन्न होगा। इस तरह स्वभाव भेद के कारण भव्य दो प्रकार के हैं। इन दोनों स्वभावों से रहित अभव्य हैं जैसे— बन्ध्या स्त्री के निमित्त मिले चाहे न मिले किन्तु पुत्र उत्पन्न नहीं हो सकता है।
जघन्य युक्तानन्त प्रमाण अभव्य राशि है और भव्य राशि इससे बहुत ही अधिक है। काल के अनंत समय हैं फिर भी ऐसा कोई समय नहीं आयेगा कि जब भव्य राशि से संसार खाली हो जाए। अनंतानंत काल के बीत जाने पर भी अनंतानंत भव्यराशि संसार में विद्यमान ही रहेगी क्योंकि यह राशि अक्षय अनंत है।
यद्यपि छह महीना आठ समय में ६०८ जीव मोक्ष चले जाते हैं और छह महीना आठ समय में इतने ही जीव निगोदराशि से निकलते हैं फिर भी कभी संसार का अंत नहीं हो सकता है न निगोद राशि में ही घाटा आ सकता है।
जिनका पंचपरिवर्तन रूप अनंत संसार सर्वथा छूट गया है और इसलिये जो मुक्ति सुख के भोक्ता हैं उन जीवों को न तो भव्य समझना और न अभव्य समझना क्योंकि अब उनको कोई नवीन अवस्था प्राप्त करना शेष नहीं रहा इसलिये भव्य नहीं हैं और अनंत चतुष्टय को प्राप्त हो चुके इसलिये अभव्य भी नहीं हैं। ऐसे मुक्त जीव भी अनंतानंत हैं।