प्रश्न १- तीनलोक की ऊँचाई व मोटाई का प्रमाण बतालाओ?
उत्तर- तीनलोक की ऊँचाई १४ राजु प्रमाण है एवं मोटाई सर्वत्र ७ राजु है।
प्रश्न २- तीनलोक के जड़भाग से लोक की ऊँचाई का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- अधोलोक की ऊँचाई ७ राजु प्रमाण है। इसमें सात भूमियाँ है ऊर्ध्वलोक की ऊँचाई ७ राजु है। इसमें प्रथम स्वर्ग से लेकर सिद्ध शिला पर्यत्न व्यवस्था है। अधोलोक के तलभाग में लोक की चौड़ाई ७ राजु हैं यह चौड़ाई घटते-२ मध्यलोक में एक राजु रह गयी है। मध्यलोक से बढ़ते-२ ब्रह्ममलोक (५ वें स्वर्ग) तक ५ राजु हो गई हैं पुन: ब्रह्मस्वर्ग के ऊपर घटते-२ सिद्धशिला तक चौड़ाई १ राजु रह गई हैं। इस प्रकार यह लोक पैर फैलाकर खड़े हुये एवं कमर पर हाथ रखे हुये पुरूष के समान बन गया है।
प्रश्न ३- त्रस नाली कहा है, उसकी चौड़ाई व ऊँचाई बतलाओं?
उत्तर- तीनो लोको के बीच में १ राजु चौड़ी तथा १४ राजु ऊँची-लम्बी त्रसनाली है।
प्रश्न ४- त्रसनाली में किन जीवों का निवास है?
उत्तर- त्रसनाली में त्रसजीव-दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव पाये जाते है।
प्रश्न ५- स्थावर जीवों का निवास स्थान कहाँ है?
उत्तर- सम्पूर्ण लोक में स्थावर- एकेन्द्रिय जीव ही रहते हैं।
प्रश्न ६- इस लोक के कितने भेद हैं उनके नाम बतलाओ?
उत्तर- इस लोक के अधोलोक, मध्यलोक और उर्ध्वलोक के भेद से ३ भेद है।
प्रश्न ७- अधोलोक में कितनी पृथ्वी है उनके नाम बतलाओ?
उत्तर- अधोलोक में ७ पृथ्वी हैं उनके नाम- रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा धुमप्रभा तम:प्रभा और महातम:प्रभा ।
प्रश्न ८- नरको के दूसरे नाम बतलाओ?
उत्तर- धम्मो, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवी और माघवी ये इन पृथवियों के अनादि निधन नाम है।
प्रश्न ९- कितने राजु में नरक का समावेश है?
उत्तर- सात राजु नरक का समावेश है-
१ राजु- रत्नप्रभा शर्वâराप्रभा
१ राजु- बालुका प्रभा
१ राजु पंकप्रभा
१ राजु धूमप्रभा
१ राजु तम:प्रभा
१ राजु महातम: प्रभा
१ राजु में नित्यनिगोद ऐसे सात राजु हुये।
प्रश्न १०- तीन लोका का धनफल क्रमश?
उत्तर- अधोलोक १९६ राजु-उर्ध्वलोक घन फल १४७ राजु उक्त १९६ १४७• ३४३ राजु लोक का घन फल है।
प्रश्न ११- राजु किसे कहते है?
उत्तर- असंख्यातो योजन का एक राजु होता है।
प्रश्न ११- प्रथम रत्नप्रभा पृथ्वी के ३ भाग, कौन से है?
उत्तर- रत्नप्रभा पृथ्वी के ३ भाग है, खरभाग, पंकभाग, अब्बहुलभाग।
प्रश्न १२- खरभाग पंकभाग में कौनसे देव निवास करते है?
उत्तर- खरभाग पंकभाग में भवनवासी, व्यन्तरवासी देवो के निवास हैं ।
प्रश्न १३- अब्बहुल भाग में क्या है?
उत्तर- अब्बहुलभाग में प्रथम नरक हैं जिसमें नारकियों के निवास है।
प्रश्न १४- अधोलोक के सबसे नीचे किसका स्थान है?
उत्तर- अधोलोक में सबसे नीचे निगोद स्थान है। वहाँ यह अनादि काल से एकेन्द्रिय अवस्था में है। वहाँ एक श्वास में १८ बार जन्म मरण होता है। इतनी तुच्छ अल्पायु में है। हम और आप सभी वहाँ से आकर त्रस पर्याय को प्राप्त कर मनुष्य हुये है।
प्रश्न १५- निचे निगोदस्थान के पश्चात् क्या है?
उत्तर- पुन: सातवा नरक हैं ऐसे क्रम से छठा, पाँचवा, चौथा तीसरा दूसरा एवं पहला नरक है।
प्रश्न १६- इन नरको में नारकियों को क्या दुख है?
उत्तर- इन नरको में नारकी जीव प्रतिक्षण दुख भोग रहे है। आरे से चीरा जाना, कढ़ाई में तले जान, तिल-२ बराबर टुकड़े किये जान आदि कष्ट आपस में एक दूसरे को देते रहते है।
प्रश्न १७- नरको में जाने का क्या कारण है?
उत्तर- झूठ चोरी, शिकार, व्यभिचार आदि पाप करते है वे नरको में जाकर दुख भोगते हैं। इन नारकियों के दुख देखकर हम पाप करने की प्रतिज्ञा करे।
प्रश्न १८- भवनवासी देव कितने प्रकार के है और कौन से है?
उत्तर- भवनवासी देवो को १० भेद है- असुरकुमार नागकुमार विद्युत कुमार, सुपर्ण कुमार, अग्नि कुमार वातकुमार, सानितकुमार द्वीप कुमार, दिककुमार।
प्रश्न १९- भवनवासी देवो की भवनवासी यह संज्ञा क्या है?
उत्तर- भवनों में रहने के कारण इनको भवनवासी कहते है।
प्रश्न २० – भवनवासी के असुरकुमारादि देवो के भवन कहाँ है?
उत्तर- रत्नप्रभा भूमि के पंकबहुल भाग में असुरकुमार के भवन है और खरभाग में नौ प्रकार के नागकुमारादि के भवन है।
प्रश्न २१- ये नरक ७ भूमियों कैसी है उनमें एक दूसरे कितना अंतराल है?
उत्तर- ये नरक की सातभूमियाँ न तिरछी है न एक दूसरे के ऊपर-२ है। अपितु एक दूसरे के नीचे नीचे है। एक सातो भूमियाँ एक दूसरे से एक राजु प्रमाण अंतराल में स्थित है।
प्रश्न २२- सातो नरकों में कुल कितने पटल है?
उत्तर- कुल ४७ पटल है।
प्रश्न २३- प्रथम रत्नप्रभा भूमि की मोटाई बताओ?
उत्तर- प्रथम रत्नप्रभा भूमि १ लाख ८० हजार योजन मोटी है। इसके तीन भाग पंकभाग, खरभाग, अब्बहुल भाग।
प्रश्न २४- खरभाग कितने हजार योजन का है और वहाँ कौन निवास करता है?
उत्तर- खरभाग १६ हजार योजन का है उसमें सात प्रकार के व्यन्तर और नौ प्रकार के भवनवासी देव रहते है।
प्रश्न २५- पंकभाग कितने हजार योजन का है और वहाँ कौन निवास करता है?
उत्तर- पंकभाग में ८४ हजार योजन में राक्षस और असुरों के भवन हैं
प्रश्न २६- १० प्रकार भवनवासी देवो के भवन कहाँ है और कितने कितने है?
उत्तर- अधोलोक में प्रथम पृथ्वी के ३ भाग में से खरभाग में भवनवासी देवो के भवन है। भवनवासी देवो के १० भेद हैं असुरकुमार आदि । इसके क्रमश: ६४ लाख आदि भवन है। प्रत्येक भवनो में विशाल जिनमन्दिर है।
प्रश्न २७- भवनवासी १० भेदो में, प्रत्येक के भी कुछ भेद है क्या?
उत्तर- इन प्रत्येक भवनवासी देवो में इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिस , पारिषद, आत्मरक्ष, लोकपाल, अनीक प्रकीर्णक, आभियोग्य-किल्विषक, ऐसे १० भेद माने है।
प्रश्न २८- अधोलोक में कुल जिनालय कितने है?
उत्तर- अधोलोक में कुल जिनालय ७ करोड़ ७२ लाख जिनालय है।
प्रश्न २९- भवनवासी देवो के जिनालय की संख्या कितनी है?
उत्तर- भवनवासी देवों के चैत्यालय की संख्या इस प्रकार है- (१) असुरकुमारों के ६४ लाख
(२) नागकुमारों के ८४ लाख
(३) सुपर्णकुमारों के ७२ लाख
(४) द्वीपकुमारों के ७६ लाख
(५) उदधि कुमारों के ७६ लाख
(६) स्तनित कुमारों के ७६ लाख
(७) विद्युतकुमारों के ७६ लाख
(८) दिक्कुमारों के ७६ लाख
(९) अग्निकुमारों के ७६ लाख
(१०) वायुकुमारों के ९६ लाख कुल जिनालय संख्या ७,७२०००००।
प्रश्न ३०- व्यन्तर देवो के जिनालयो की संख्या बतलाइये?
उत्तर- व्यन्तर देवों के संख्यातीत जिनालय है।
प्रश्न ३१- अधोलोक का दूसरा नाम क्या है?
उत्तर- अधोलोक का दूसरा नाम नरकलोक है।
प्रश्न ३२- तीन लोक के आकार बतलाओ?
उत्तर- अधोलोक वेत्रासन के समान है, मध्यलोक झालर के समान है और उर्ध्वलोक मृदंग के आकारवत् है।
प्रश्न ३३- नरक में जाने वाले जीव कौनसी गति के होते है?
उत्तर- कर्मभूमि के पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य ही मरकर नरक जाते है।
प्रश्न ३४- सात नरक के बिलो की संख्या बतलाओ?
उत्तर- सात नरक के बिलो की संख्या ८४ लाख प्रमाण है।
प्रश्न ३५- १० प्रकार के भवनवासी के मुकुट मे कौन कौन से चिन्ह होते है?
उत्तर- दस भवनवासी देवो के मुकुट में क्रम से चुड़ामणि, सूर्य गरूड़, हाथी, मगर, वद्र्धमान, (स्वस्तिक) वङ्का, सिंह, कलश और तुरग ये १० चिंह होते है।
प्रश्न ३६- भवनवासी के १० भेदो में प्रत्येक देव के इन्द्र के कितने भेद है?
उत्तर- भवनवासी के १० भेदो में पृथक पृथक दो-दो इन्द्र होते है। ये सब मिलाकर २० इन्द्र होते है जो अपनी अपनी विभूति से शोभायमान है।
प्रश्न ३७- भवनवासी १० देवों में प्रत्येक के पृथक पृथक वो इन्द्रो नाम बतलाओ?
उत्तर- (१) असुरकुमार में – चरमइन्द्र वैराचन इन्द्र।
(२) नागकुमार में – भूतानंद-धरणानंद।
(३) सुपर्णकुमार में- वेणुदेव वेणुधारी।
(४) द्वीपकुमार में-पूणणर््वशिष्ठि।
(५) उदधिकुमार में- जलप्रभ जलकांत
(६) स्तनित कुमार में- घोष महाघोष
(७) विद्युत् कुमार मे- हरिषेण हरिकांत
(८) दिक्कुमार में – अमितगतिअमितवाहन
(९) अग्निकुमार मे- अग्नि शिखी अग्निवाहन।
(१०) वायुकुमार – वेलंब प्रभंजन।
प्रश्न ३८- भवनवासी देवो के साथ कुमार शब्द का प्रयोग क्यो किया जाता है?
उत्तर- इन सब देवो का वय, स्वभाव, अवस्थित है सो भी इन की वेषभूषा, शस्त्र यान, वाहन और क्रीड़ा आदि कुमारों के समान होती है। इसलिये भवनवासीयों कुमार शब्द लगाया जाता है।
प्रश्न ३९- भवनवासि के १० भेदो के २० इन्द्र बताये उनमें जो दो भेद है वह बतलाइये?
उत्तर- २० इन्द्रो में प्रथम १० इन्द्र दक्षिणेन्द्र कहलाते है आगे के १० इन्द्र उतरइन्द्र कहलाते है।
प्रश्न ४०- १० दक्षिण इन्द्रो के भवनो की मन्दिरों की बतलाओ?
उत्तर- (१) चमरइन्द्रों के भवनो की संख्या- ३४ लाख
(२) भूतानंद इन्द्रो के भवनो की संख्या – ३४ लाख
(३) वेणुइन्द्रो के भवनो की संख्या ३८ लाख
(४) पूर्ण इन्द्रो के भवनो की संख्या- ४० लाख
(५) जलप्रभ इन्द्रो के भवनो की संख्या- ४० लाख
(६) घोष इन्द्रो के भवनो की संख्या- ४० लाख
(७) हरिषेण इन्द्रो के भवनो की संख्या- ४० लाख
(८) अमितगति इन्द्रो के भवनों की संख्या- ४० लाख
(९) अग्निशिखी इन्द्रो के भवनो की संख्या- ४० लाख
(१०) वेलम्ब इन्द्रो के भवनो की – संख्या ५० लाख इन दक्षिण इन्द्रो के भवनों का प्रमाण ४ करोड़ ६० लाख है।
प्रश्न ४१- उत्तर इन्द्रो के भवनो की व उनके मन्दिरों की संख्या बतलाओ?
उत्तर- उत्तरइन्द्रो के नाम- भवन संख्या
वैरोबन- ३० लाख
धरणानंद- ४० लाख
वेणुधारी- ३४ लाख
वशिष्ठ – ३६ लाख
जलकांत- ३६ लाख
महाघोष- ३६ लाख
कहरकांत – ३६ लाख
इन उत्तरइन्द्रो को कुलजोड़ ३ करोड़ ६६ लाख प्रमाण है इस प्रकार ४०,६०००००+ ३६,६०००००= ७,७२००००० हुआ।
प्रश्न ४२- भवनवासी के १० भेदो में एक-एक इन्द्र के भवन में क्या विशेषता है?
उत्तर- भवनवासी के १० भेदो में एक एक इन्द्र के भवन में ओलगशाला के आगे एक एक चैत्यवृक्ष है।
प्रश्न ४३- प्रत्येक १० इन्द्रो (भवनवासी) के प्रत्येक के चैत्यवृक्षों के नाम बतलाओ?
उत्तर- असुरकुमारेन्द्र का चैत्यवृक्ष पीपल है। इसकी कटनी पर जिनप्रतिमाये है। इसे ही नागकुमारेन्द्र का सप्तपर्ण, सुपर्ण का शाल्मलि, द्वीपकुमार का जामुन, उदधि कुमार का वेंतस, सनितकुमार का कदम्ब, विद्युत् कुमार का प्रियंगु, दिक्कुमार का शिरीष, अग्निकुमार का पलाशा, और वायुकुमार का चिरोंजी चैत्यवृक्ष है।
प्रश्न ४४- कुलमिलाकर भवनवासी देवो के भवन, उनमें मन्दिरो की संख्या, और विशेषता बतलाओ?
उत्तर- कुलमिलाकर भवनवासी देवो के भवन ७ करोड़ ७२ लाख हैं इन प्रत्येक भवनो में १-१ जिनमन्दिर है अत: भवनवासी के ७,७२,०००,०० जिनमन्दिर है। इनके चैत्यवृक्षों में भी प्रतिमायें विराजमान है।
प्रश्न ४५- भवनवासी देवों के निवास स्थानो के कितने भेद होते है?
उत्तर- भवनवासी देवो के निवास स्थान, भवन, भवनपुर और आवास के भेद से तीन प्रकार के होते है।
प्रश्न ४६- भवन, भवनपुर और आवास स्थान किसे कहते है?
उत्तर- चित्रापृथ्वी के नीचे जो में स्थित निवासस्थानो को भवन, द्वीप समुद्रो के ऊपर स्थित निवासस्थानों को भवनपूर कहते है। और रमणीय तालाब पर्वत तथा वृक्षादिक के ऊपर स्थित निवास स्थानों को आवास कहते है।
प्रश्न ४७- सभी भवनवासी देवो के निवास स्थान समान हैं क्या? या नहीं हैं।
उत्तर- नागकुमारादि देवों में से किन्हीं के तो भवन, भवनपूर व आवास रूप तीनों प्रकार के निवास स्थान हैं। किन्तु असुर कुमारों के केवल एक भवन रूप ही निवास स्थान है।
प्रश्न ४८- चित्रा पृथ्वी कहाँ है चित्रा पृथ्वी के नाम की सार्थकता बतलाओ?
उत्तर- इस मध्यलोक में सबसे प्रथम चित्रापृथ्वी है जिसके ऊपर के भाग पर ही मध्यलोक की रचना है। इस चित्रा पृथ्वी में अनेक वर्णों से युक्त महीतल, शिलातल उपपाद, बालु, शक्कर शीशा चांदी, सुवर्ण इनके उन्यति स्थान, व्रज, लोहा, तांबा, रांगा मणिशिाला, सिंगरफ, हरिताल, अंजन प्रवाल गोमेद, रूचक, कदंब, स्फटिक मणि, जलकांतमणि, सूर्यकांतमणि, चन्द्रकान्त मणि, वैडूर्य, गेरू चन्दाश्म आदि विविध वर्णवाली अधासूये है इसलिये इस पृथ्वी का चित्र नाम सार्थक है।
प्रश्न ४९- खरभाग पृथ्वी कीतनी भेदो सहित है वे कौन कौन सी है?
उत्तर- खरभाग पृथ्वी भी १६ भेदो से सहित है। चित्रा व्रजा वैडूर्याकामसारकल्पा, गोमेदा, प्रवाला, ज्योतिरसा, अंजना, अंजनमूलिका अंका, स्फटिका, चंदना सर्वाथका, वकुला और शैला ये १६ भेद हैं।
प्रश्न ५०- भवनवासी देवो १० इन्द्र, १० प्रतिन्द्र उनके मुकुट के बारे में क्या विशेषता है?
उत्तर- सब इन्द्रो के चिंह मणियों से खचित किरीट (तीन शिखर वाला मुकुट)और प्रतीन्द्रिादिक चार देवो का चिन्ह साधारण मुकुट ही जानना चाहिये।
प्रश्न ५१- भवनवासी देवो के भवन के आगे चैत्यवृक्ष होते है उनकी क्या विशेषता है?
उत्तर- भवनवासी देवो के भवन ओलगशाला के आगे विविध प्रकार के रत्नो से निर्मित चैत्यवृक्ष होते हैं । चैत्यवृक्ष असुरादिक कुलो से चिंह रूप होते है। प्रत्येक चैत्यवृक्ष के मूलभाग में चारों और पल्यंकासन से स्थित परम रमणीय पाँच पाँच ाqजनेन्द्र भगवान ने आगम में अनेक प्रकार की सम्पत्ति से युक्त भवनवासी देवो के मानस्तम्भ होते है। एक मानस्तम्भ के ऊपर चारों दिशाओं में सिंहासन के विपास से युक्त २८ जिनप्रतिमायें होती है। इसलिये २० मानस्तम्भो की कुल (२८*२०) ५६० प्रतिमायें होती है।
प्रश्न ५२- अल्पऋद्धिक महद्ऋद्धिक मद्धऋद्धिक धारक भवनवासी देवो के भवनो का विस्तार बतलाओ?
उत्तर-ये सब भवन समचतुष्कोण तथा वङ्कामय द्वारो से शोभायमान है ये भवन ऊँचाई में तीन सौ योजन और विसतार में संख्यात असंख्यात योजन प्रमाण होते है। इनमें संख्यात योजन विस्तार वाले भवनो में संख्यात और शेष असंख्यात योजन विस्तार वाले भवनों में असंख्यात भवनवासी देव रहते है।
प्रश्न ५३- भवनवासी देवो का ऐश्वर्य बतलाओ?
उत्तर- नाना प्रकार के मणियों के आभूषणों से दीप्त तथा अष्टगुण ऋद्धियों से विशिष्टा व भवनवासी देव अपने पूर्व तपश्चरण के फलस्वरूप अनेक प्रकार के इष्ट भोग भोगते है।
प्रश्न ५४- भवनवासी देवो में जन्म लेने का कारण क्या है?
उत्तर- जो जीव मनुष्य पर्याय में तपश्चरण कर पुण्यसंचय करते है और जिनके देवायु का बंध हो जाता है तथा जो बाद में सम्यक्तवादि से च्यूत हो जाते है वे जीव अनेक गुण ऋद्धियों से युक्त भवनवासी देव होकर मनोहरण इष्ट भोग भोगते है।
प्रश्न ५५- भवनो को भूमिगृह की उपमा क्यों दी गई?
उत्तर- जैसे यहाँ मकान में पृथ्वी के नीचे जो कमरा बनाते है उसे तलधर तहखाना या भूमिगृह कहते है। वैसे ही भवनवासियों के भवन रत्नप्रभा पृथ्वी में चित्रा पृथ्वी के नीचे खरभाग और पंकभाग में है आना इन्हें भूमिगृह की उपमा दी गई है।
प्रश्न ५६-भवनो की लम्बाई चौड़ाई व ऊँचाई का जघन्य व उत्कृष्ट प्रमाण और उनका आकार बतलाओ?
उत्तर- भवनों का जघन्य विस्तार संख्यात करोड़ योजन, उत्कृष्ट विस्तार असंख्यात करोड़ योजन है।उनका आकार चौकोर है।
प्रश्न ५७- प्रत्येक भवन के ठीक मध्य में क्या है?
उत्तर- प्रत्येक भवन के ठीक मध्य में सौ योजन ऊँचा एक एक पर्वत है और प्रत्येक पर्वत पर चैत्यालय है।
प्रश्न ५८- नरक बिल भी इसीप्रकार रत्नप्रभा पृथ्वी में चित्रादि पृथ्वियाँ के नीचे अब्बहुल भाग में बने हुये है, फिर उन्हें भवन संज्ञा न देकर बिलसंज्ञा क्यो दी गई?
उत्तर- जिस प्रकार यहाँ सर्पादि पापी जीवों के स्थानों को बिल कहते हैं और पुण्यवान मनुष्यों के रहने के स्थानों को भूमिगृह आदि कहते हैं। उसी तरह निकृष्ट पाप के फल भोगने वाले नारकी जीवो के रहने के स्थानों की संज्ञज्ञ बिल है और पुण्यवान देवो के स्थानो की संज्ञा भवन है।
प्रश्न ५९- नरक की प्रथम रत्नप्रभा पृथ्वी में १६ हजार योजन की मोटाई में कितनी पृथ्वियों हैं उनके नाम बतलाओ?
उत्तर- चित्तो, व्रजो, बैडूर्या, लोहितांका, मसारगल्ला, गोमेदका, प्रवौला, ज्योतिरसा, अंजना, अंजनमूलका, अंकौ, स्फटिका चन्दना, वर्चका, (सर्वाथका) बहुलौ (बकुला) शिलामय इस प्रकार तलभाग में १६ हजार योजन की मोटाई में ये १६ पृथिवियाँ है।
प्रश्न ६०- रत्नप्रभा नाम की सार्थकता बतलाओ?
उत्तर- इसके तल व उपरिमभाग में रत्नादि है इसीलिये इसका नाम रत्नप्रभा जानना चाहिये।
प्रश्न ६१- शेष ६ पृथिवियाँ कहाँ है उनका प्रत्येक विस्तार कितना है?
उत्तर- शेष ६ पृथिवियाँ पंकबहुल भाग में जानना चाहिये। उन छहों पृथिवियाँ बाहल्य (विस्तार) इसक्रम से है। बत्तीस हजार, २८ हजार, २४ हजार, बीस हजार, सोलह हजार और आठ हजार इस प्रकार यह नीचे नीचे क्रम से उक्त पृथिवियों का विस्तार जानना चाहिये।
प्रश्न ६२- भवनवासी व व्यन्तरों के रहने के स्थानों को बतलाओ?
उत्तर- पंकबहुल भाग में राक्षसों और असुरकुमारों के आवास तथा खरभाग में शेष व्यन्तर और भवनवासी के आवास जानना चाहिये।
प्रश्न ६३- भवनवासी देवो के १० भेदो के नाम बतलाओं?
उत्तर- असुरकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार, द्वीपकुमार, उपधिकुमार, स्तनितकुमार, विद्युतकुमार, दिक्कुमार, अग्निकुमार और वातकुमार ये १० प्रकार के कहे गये है।
प्रश्न ६४- चार प्रकार के देवो के रहने का स्थान बतलाओ?
उत्तर- भवनवासी, व्यन्तरवासी , ज्योतिषी और विमानवासी (कल्पवासी) देव के ४ प्रकार के कहे गये है। भवनवासी व व्यन्तरोें के भवन अधोलोक में है। किन्तु व्यन्तरों गृह आवास मध्यलोक में मेरूपर्वत के अग्रभाग पर्यत्न भी है। कल्पवासी देवो का निवास स्थान उध्र्वलोक में है।
प्रश्न ६५- व्यन्तरों के निवास स्थान कितने प्रकार के है?
उत्तर- त्रिलोकसार में व्यन्तरों के निवास तीन प्रकार कहे गये है। (१) भवनपुर (२) आवास (३) भवन । द्वीप समुद्रो में जो स्थान है उन्हे भवनपुर कहते है। तालाब पर्वत आदि पर जो निवास है उन्हे आवास कहते है। और चित्रा पृथ्वी के नीचे जो स्थित है उन्हें भवन कहते है।
प्रश्न ६६- ज्योतिषी देवो के विमान पृथ्वी की उपरीतल से कितने योजन की ऊँचाई पर है?
उत्तर- ज्योतिषी देवो के विमान पृथिवी के उपरीतल से ७०० योजन की ऊँचाई से लेकर ऊपर ९०० योजन तक है।चित्रा पृथ्वी तल पर देव रहते है इसलिये इसको उध्र्वलोक कहा गया हैं।
प्रश्न ६७- भवनवासी देवो के स्थान का विशेष वर्णन बतलाओ?
उत्तर- चित्रा भूमि को छोड़कर (चित्रा के) नीचे खरभाग में नागकुमार आदि ७ प्रकार के भवनवासी देवो के महान वैभवशाली (विमान) भवन है। और असुरकुमार जाति वाले भवनवासी देवो के रत्नमयी भवन दूसरे पंकभाग में है।
प्रश्न ६८- भवनवासी के उत्तम मध्यम जघन्य ऋद्धि के धारक देवो के निवास स्थान कहाँ है?
उत्तर- चित्रापृथिवी के अधोभाग से २००० योजन नीचेतक अल्पऋद्धिकधारक भवनवासी देवो के शाश्वत भवन है। भूतल में ४२ हजार महाऋद्धिधारक भवनवासी देवो के उत्तमभवन है। और चित्राभूमि के नीचे एक लाख योजन तक मध्यमऋद्धि धारक विमानवासी देवो के विपुल भवन है।
प्रश्न ६९- भवनवासी देवो १० प्रकार के देवो के व वर्ण बतलाओ?
उत्तर- सभी असुर कुमार देव कृष्णवर्ण के, नागकुमार और उदधि कुमार पाण्डु वर्ण के , स्तनित कुमार, दिक्कुमार, और सुपर्णकुमार कांचनवर्ण के विद्युतकुमार, द्वीपकुमार, एवं अग्निकुमार ये सभी देव अत्यन्तसुन्दर नील वर्ण के है और वायुकुमार देव लालवर्ण के होते है। इनमें इस प्रकार वर्णभेद है।
प्रश्न ७०- भवनवासी देवो के भवनो की क्या विशेषता होती है?
उत्तर- भवनवासी के प्रत्येक भवन उन्नत चैत्यालय से अलंकृत रत्नमय है दिव्य चैत्यवृक्षो, मानस्तम्भो, कूटो और ध्वजा समूहो से विभूजित है। देवांगनाओं के समूहो से एवं देवो के सौम्य समूहो से भरे रहते है। गीत, नृत्य एवं वाद्य आदि से और जिनपूजन के करोड़ो उत्सवो से युक्त है। देदीप्यमान उनय मणियों के भितियों से निर्मित है दिव्य आयोदो से परिपूर्ण है और पाँचो इन्द्रियों के सम्पूर्ण सुखो को देने वाले है।
प्रश्न ७१- भवनवासियों के भवनो जघन्य व्यास कितना है?
उत्तर- भवनवासियों के जघन्य भवनो का व्यास १ लाख योजन है। मध्यम भवनो का व्यास संख्यात योजन और उत्कृष्ट भवनो का विस्तार असंख्यात है।
प्रश्न ७२- भवनवासी १० कुलो के प्रत्येक के एक एक चैत्यवृक्ष है इन पर मन्दिर कितने है?
उत्तर- ये चैत्यवृक्ष रत्नपीठ पर स्थित रत्नमय किरणों से देदीप्यमान, प्रकाशमान रत्न के उपकरणों से युक्त अत्यन्त रमणीक और शाश्वत ये १० प्रकार के चैत्यवृक्ष असुरादि १० भेदो में प्रत्येक के एक एक है। उन प्रत्येक चैत्यवृक्षो के मूल में चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में देवसमूह से पूज्य परमोत्कृष्ट पाँच पाँच जिनप्रतिमायें है।
प्रश्न ७३- भवनो के प्रत्येक चैत्यवृक्ष की प्रत्येक दिशाओं कितने मानस्तम्भ है?
उत्तर- सम्पूर्ण भवनो (चैत्यवृक्षो) की प्रत्येक दिशा में तीर्थंकर की सर्वोत्कृष्ट प्रतिमाओं से जिनके शिरोभाग विभूषित है ऐसे देदीप्यमान मणियों से निर्मित स्वर्णमय घंटाओं एवं ध्वजाओं से सुशोभित रत्नपीठ स्थित महाउन्नत पाँच पाँच मानस्तम्भ है।
प्रश्न ७४- असुरकुमार का गमन कितने स्वर्ग तक गमन होता है?
उत्तर- असुरकुमार का गमन ऊपर ऐशान स्वर्ग तक होता है।
प्रश्न ७५- रत्नप्रभा का तीसरा भेद अब्बहुल भाग कितना मोटा है नारकी के बिल कहा है?
उत्तर- तीसरा अब्बहुल भाग ८० हजार मोटा है। इसमें ही नरक माने गये है।स इस पृथ्वी में नीचे अैर ऊपर एक एक हजार योजन छोड़कर नारक पटल स्थित है। इस नरकवासो प्रथम नरक बिल माने गये है। उस रत्नप्रभापृथ्वी के नीचे कम शर्करादि ६ पृथ्वी स्थित है।
प्रश्न ७६- शर्करादि पृथिवियों की मोटाई का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- शर्कराप्रभा ३२,००० बालुकाप्रभा २८,००० पंकप्रभा २४,००० धूमप्रभा, २०,००० तम:प्रभा १६०००, महातम:प्रभा, ८००० योजन प्रमाण इनकी मोटाई है। ये सातो पृथिविया तथा लोकतल के मध्य में तिर्यचलोक के विस्तार प्रमाण अर्थात् एक एक राजु अन्तर है। प्रत्येक भूमि के किनारों पर और अधसतलो पर तीन वातवलय स्थित है।
प्रश्न ७७- तीन वातवलय का अर्थ वर्ण, मोटाई बतलाओ?
उत्तर-(१) घनादधिवातवलय- घनवात-मोटीवायु । घनाम्बुवात-घनोदधि। वातवलय । (२) घनवातवलय (३) तनुवातवलय-तनु याने वातयाने वायु-सूक्ष्मवायु। तनुवातवलय में सिद्धो का निवास है। घनोदधि वातवलय गोमूत्र रंग के समान है। घनवात का रंग मूंगे के ये तीनो वातवलय बीस बीस हजार योजन मोटे है।
प्रश्न ७८- तीनो लोको का आकार बतलाइये?
उत्तर- अधोलोक का आकार वेत्रासन के समान है, मध्यलोक झालर के समान है, उध्र्वलोक मृपंग के आकारवत् है।
प्रश्न ७९- नारकियों के बिलो की संख्या कितनी है?
उत्तर- रत्नप्रभा भूमि में ३० लाख बिल, शर्कराप्रभा में पच्चीस लाख, बालुका प्रभा में १५ लाख, पंकप्रभा में १० लाख, धूमप्रभा ३ लाख, तम:प्रभा में ५ कम १ लाख, महातम:प्रभा में ५ ही बिल है। इस प्रकार कुल बिलसंख्या- ८४ लाख है।
प्रश्न ८०- नरक में नारकी की उत्पत्ति वैâसे होती है?
उत्तर- नारकी जीव पाप से नरक बिल में उमाभ होकर एक मूहूर्त काल में छहो पर्याप्ति को पूर्णकर आकस्मिक भय को प्राप्त होता है। पश्चात् वह नारकी जीव भय से कॉपता हुआ बड़े कष्ट से चलने के लिये प्रस्तुत होकर और ३६ आयुधो (शस्त्रो) के मध्य में गिरकर वहाँ से गेंद के समान उछलता है। नारकी उत्पत्ति के समय पैर ऊपर की और किये तथा मस्तक नीचे।
प्रश्न ८१- इन सातो पृथिवियों में उछलने का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- प्रथम पृथिवी में जीव सात योजन (उत्सेधयोजन) ६ हजार ५०० धनुष प्रमाण ऊपर उछलता है। इसके आगे शेष पृथिवियो के उछलने का प्रमाण क्रम से उत्तरोतर दूना दूना है।
प्रश्न ८२- क्षुधातृषा की वेदना होने पर उन्हें खाने पीने को कुछ मिलता है कि नहीं ?
उत्तर- मेरूप्रमाण अभ खाने की इच्छा करते है परन्तु कणमात्र भी अभ उन्हें प्राप्त नहीं होता। इसीप्रकार समुद्र प्रमाण जल पीने की इच्छा करते हैं परन्तु वहाँ पर पानी की एक बूंद भी प्राप्त नहीं होती है।
प्रश्न ८३- नारकी जीवों के दुख की अधिकता होने पर भी विंâचित् सुख भी तो होता हे या नहीं ?
उत्तर- नहीं । नारकियों को नरको में चक्षु का उन्मेष प्रमाणमात्र काल भी सुख प्राप्त नहीं होता है अर्थात् एक क्षणमात्र भी उनको सुख प्राप्त नहीं होता है।
प्रश्न ८४- सातो नरको में जीव का निरन्तर गमन कितनी बार हो सकता है?
उत्तर- प्रथम नरक में ८ बार, द्वितीय नरक में ७ बार, तृतीयनरक में ६ बार, चौथे नरक में ५ बार, पाँचवे नरक में ४ बार, षङ्गम नरक तीन बार और ७ वे नरक में दो बार जीव अवच्छिभ रूप से उमाभ हो सकते है।
प्रश्न ८५- सातो नरकों में कौन कौन जीव जा सकते है?
उत्तर- असंज्ञी प्रथम नरक तक ही जा सकता है। सरीसृप द्वितीय नरक तक ही जा सकते है। भुजंग चौथे नरक तक जाते हैं सिंह पाँचवे नरक जाते है। स्त्रियां छठे नरक तक जाती है। तथा मगर मच्छ और मानव सातवेनरक तक जाते है।
प्रश्न ८६- सातो नरको से निकलकर जीव कौन कौन हो सकते है?
उत्तर- छठे नरक से निकलानारकी, मनुष्य हो सकता है परन्तु देशव्रती नहीं बन सकता। सम्यग्दृष्टि बन सकता है।
(२) सप्तमनरक से निकला नारकी तिर्यंचगति में ही जन्म लेता है।
(३) पंचमनरक से निकलानारकी जीव मनुष्यभव प्राप्त कर देशव्रती एवं महाव्रती बन सकता हे। परन्तु उस भव से मोक्ष प्राप्त नही कर सकता है।
(४) चतुर्थनरक से निकलकर कोई प्राणी महाव्रती बनकर मोक्षपद प्राप्त कर सकता है परन्तु तीर्थंकर नही हो सकता ।
(५) प्रथम द्वितीय तृतीय नरक से निकला नारकी तीर्थंकर भी हो सकते हैं और उसी भव में मोक्ष भ्ज्ञी जा सकते है।
प्रश्न ८७- जो महात्मा नरक से निकलकर तीर्थंकर होने वाले है उसकी वहाँ क्या स्थिति रहती है?
उत्तर- जो महात्मा आगामी काल में तीर्थंकर होने वाला है तथा जिनके पाप कर्मो का उपशम हो गया है। देवलोग भक्तिवश छ:माह पहले से उनके उपसर्ग दूर कर देते है।
प्रश्न ८८- क्या सभी असुर जाति के नरक में जाकर दुख देते है?
उत्तर- मात्र अम्बाबरीज नाक असुर देव ही ऐसे है जो नारकियों को चतुर्थ नरक के पूर्व याने तीसरे पर्यत्न दुख देते है सब नहीं।
प्रश्न ८९- नारकी जीव इस प्रकार असल दुखों को सहन करते हुये असमय में मरण को प्राप्त होते हैं या नहीं?
उत्तर- मारण ताडन से शरीर के तिल तिल के समान टुकड़े हो जाने पर भी नारकियो का अकाल मरण नहीं होता है। अनपवत्र्य आयु वाले होने से उन नारकियों का शरीर पारे के समान टुकड़े टुकड़े हुआ भी पुन: मिलकर एक हो जाता है।
प्रश्न ९०- नारकियों को कौनसी विक्रिया होती है?
उत्तर- नारकियों की अपृथक विक्रिया होती है एक समय में वे एक ही विक्रिया करते है।
प्रश्न ९१- नारकियों में शीत उष्ण बिलो का प्रमाण बतलाइये?
उत्तर- पहली दूसरी, तीसरी चौथा पृथिवी तथा पाँचवी पृथ्वी के चार भागो में से तीन भाग प्रमाण बिल आयत्न उष्ण होने से वहाँ रहने वाले जीवो को तीव्र गर्मि की पीड़ा पहुँचाने वाले है। पाँचवी पृथ्वी के अवशिष्ट १ ४ मात्र प्रमाण बिल तथा छठी सातवी पृथ्वी में स्थित नारकियों के बिल आयत्न शीत होने से वहाँ रहने वाले जीवों को भयानक शीतवेदना देने वाले है।
प्रश्न ९२- नारकियों के ८४ लाख बिलो में शीत व उष्ण बिलो की संख्या बतलाओ?
उत्तर- नारकियों उपर्युक्त ८४ लाख बिलो में ८२,२५,०० बिल उष्ण एवं १,७५,००० बिल अत्यन्त शीत है।
प्रश्न ९३- नरक की शीत और उष्णता का उदाहरण से स्पष्ट करो?
उत्तर- यदि उष्णबिल में मेरू के बराबर लोहे का शीतल पींड डाल दिया जाय तो वह तल प्रदेश तक न पहुँचकर बीच में ही मोम के टुकड़े के समान पिघलकर नष्ट हो जायेगा। इसी प्रकार मेरूपर्वत के बराबर लोहे का उष्ण पिंड शीत बिलमें डाल दिया जाय तो वह भी तल प्रदेश तक न पहुँचकर बीच में ही नमक के टुकड़े के समान विली हो जायेगा।
प्रश्न ९४- नारकियों के बिल की भयानकता बतलाओ?
उत्तर- बकरी, हाथी, घोड़ा, भैंस, गधा, ऊँट, बिल्ली, सर्प आदि मनुष्यादिक के सड़े हुये मांस की गंध की अपेक्षा नारकियों के बिल अतंनगुणी दुर्गंध से युक्त है। स्वभावत: गाढ़ अंधकार से परिपूर्ण ये नारकियों के बिल क्रकच कृपाण, छुरिका, खेर की आग, अतिसीक्षण सुई और हाथी के चिघाड़ से भी अत्यन्त भयानक है।
प्रश्न ९५- नारकियों के बल कितने प्रकार के और कौन कौन से है?
उत्तर- वे नारकियों के बिल इन्द्रक, श्रेणीबद्ध, और प्रकीर्णक के भेद से ३ प्रकार के है।
प्रश्न ९६- इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिल किसे कहते है?
उत्तर- इन्द्रकबिल- जो अपने पटल के सब बिलो के बीच में हो वह इन्द्रक कहलाता है।(२) श्रेणीबद्ध बिल- जो बिल चारों दिशाओं चारो विदिशाओं में पंक्ति से स्थित रहते है वे श्रेणीबद्ध है। (३) प्रकाीर्णक बिल- श्रेणीबद्ध बिलो के बीच में इधर उधर रहने वाले बिलो का प्रकीर्णक संज्ञा है।
प्रश्न ९७- रत्नप्रभादि ७ पृथिवियो में क्रम से कुल कितने पटल अथवा इन्द्रक बिल है?
उत्तर- रत्नप्रभा आदि सात पृथिवियों मे क्रम १३, ११, ९,७, ५, ३, १, इस प्रकार कुल ४९ इन्द्रक बिल है। इन्हें प्रसार एवं पटल भी कहते है।
प्रश्न ९८- नारकियों के जन्म लेने के उपपाद स्थान कहाँ है?
उत्तर- इन्द्रक श्रेणिबद्ध और प्रकीर्णक बिलो में ऊपर के भाग में (छत में) अनेक प्रकार के तलवारों से युक्त अर्धवृत, अधोमुख वाले जन्म स्थान हैं।
प्रश्न ९९- ये जन्म स्थान धम्मा वंशा और मेघा पृथिवियों में किस प्रकार के है?
उत्तर- ये जन्मस्थान धम्मा, वंशा, और मेघा नाम की तीसरी पृथिवी तक उष्ट्रिका, कोथली, कुंभि मुदगलिका, मुदगर और नाली के समान है।
प्रश्न १००- नारकियो के चौथी, पाँचवी छठी, सांतवी पृथिवी में जन्म भूमियाँ का स्थान किस प्रकार है?
उत्तर- चौथी पाँचवी पृथिवी में जन्मभूमियों के आकार गाय, हाथी, घोड़ा, भस्त्रा, अष्जपुट, अम्बरीष और द्रोणी (नाव) जैसे है। छठी सांतवी पृथिवी की जन्मभूमियाँ झालर द्वीपी चक्रवाक, भृगाल गधा बकरा, ऊट और रीछ के सदृश आकार वाली है। नारकियों की से सब जन्मभूमिया अंत में करोंंत के सदृश चारो तरफ से गोल और भयंकर है। कषाय से अनंरंतिजस प्रवृति को लेश्या कहते है।
प्रश्न १०१- नारकी जीवों में निरन्तर कौनसी लेश्या रहती है?
उत्तर- प्रथम, दूसरी पृथिवी में कापोल लेश्या होती है। तीसरी पृथिवी के ऊपरी भाग में कापोल लेश्या और निचले भाग में नील लेश्या है। चौथी पृथिवी नील लेश्या है। पाँचवी पृथिवी के ऊपर के भाग में नील लेश्या और नीचे के भाग में कृष्ण लेश्या है। छठी पृथवी में कृष्णलेश्या है, सांतवी पृथवी में परम कृष्ण लेश्या होती है।
प्रश्न १०२- नरक के उत्पाद स्थान का विस्तार व ऊँचाई बतलाइये?
उत्तर- इन जन्म्भूमियों का विस्तार एक, दो कोस आदि नीचे लिखे प्रमाण है एवं इनकी ऊँचाई अपने अपने विस्तार से पंचगुणी है।
नरको में उपपाद स्थान का विस्तार ऊँचाई
प्रथम नरक में १ कोस ५ कोस
द्वितीय नरक में २ कोस १० कोस
तृतीय नरक में ३ कोस १५ कोस
चतुर्थ नरक में १ योजन (४ कोस) ५ योजन (२०कोस)
पंचम नरक में २ योजन (८कोस) १० योजन
छठे नरक में ३ योजन (१२ कोस) १५ योजन
सांतवे नरक मे १०० योजन (४००कोस) ५०० योजन
ये सब जन्म स्थान हमेशा ही अनंतगुणित अंधकार से व्याप्त है |
प्रश्न १०३- नारकियों के लेश्या परिणाम देह, वेदना विक्रिया निरन्तर कैसी होती है?
उत्तर-सभी नारकी जीवो के परिणाम लेश्या अशुभतर ही होते है। उनके शरीर भ्ज्ञी अशुभतर नामकर्म के उदय से हुंडक संस्थान वाले बीभत्स और अत्यन्त भयंकर होते है। यद्यपि उनका शरीर वैक्रियक है फिर उसमें मलमूत्र पीव आदि सभी बीभत्स सामग्री रहती है। कदाचित् कोई नारकी सोचते है कि हम शुभ कार्य करे परन्तु कर्योदय से अशुभ ही होता है। वे दुख दूर करने के लिये जिसने भी उपाय करते है उनसे दूना दुख ही बढ़ता जाता है।
प्रश्न १०४- नरको नारकियों को आहार कैसा होता है?
उत्तर- कुत्तो गधे आदि जानवरों के अत्यन्त सड़े हुये मांस और विष्टा आदि की अपेक्षा भी अनंत दुर्गंधि से युक्त ऐसी उस नरक की मिट्टी का धम्मा नामक के नारकी अत्यन्त भूख की वेदना से व्याकुल होकर भक्षण करते है। और दूसरे आदि नरको में उससे भी अधिक दुर्गंधित मिट्टी को खाते है। धम्मा प्रभवी के प्रथम पटल के आहार की मिट्टी को यदि मध्यलोक में डाल दिया जाय तो उसकी दुर्गंधि से १ कोस के जीव मृत्यु को प्राप्त हो सकते है। इससे आगे दूसरे तीसरे पटलों में आधे आधे कोश प्रमाण अधिक होते हुये मारणशक्ति बढ़ती गई और सॉतवे नरक के अतिम ४९ पटल में मिट्टी में मिट्टी की मारण शक्ति २५ कोस प्रमाण हो जाती है।
प्रश्न १०५- तीर्थकर प्रकृति के बंध के पहले नरकायु बंध करने वाला नरकगति में कौन से नरक तक जा सकता है?
उत्तर- कोई कोई जीव इस मध्यलोक में तीर्थंकर प्रकृति के बंध के पहिले येदि नरकायु का बंध कर लेते है तो पहले, दूसरे, तीसरे नरक तक जा सकते है। वे तीर्थंकर प्रकृति से सत्त्व वाले जीव भी वहाँ पर असाधारण दुखो का अनुभव करते रहते है। और सम्यक्तव के माहात्म्य से पूर्वकृत कर्मो के विपाक का चिन्तवन करते रहते है। जब इनकी आयु ६ माह शेष रह जाती है तब स्वर्ग के देव नरक में जाकर चारों तरफ से परकोटा बनाकर उस नारकी के उपसर्ग का निवारण कर देते है। और मध्यलोक में रत्नों की वर्षा माता की सेवा आदि उत्सव होने लगते है।
प्रश्न १०६- नारकियों को कितने प्रकार के दुख होते है?
उत्तर- नरको में नारकियों को ४ प्रकार के दुख होते है। क्षेत्रजनित शारीरिक, मानसिक, और असुरकृत् ।
नरक में उत्पात हुये शीत, उष्ण, वैतरणीनदी, शाल्यत्वि वृभग्दि के निमित्त से होने वाले दुख क्षेत्रज दुख कहलाते है।
शरीर में उताभ हुये रोगो के दुख और मारकाट, वुंâभीपाक आदि के दुख शारीरिक दुख है। संक्लेश, शोक, आकुलता, पश्चाताप, आदि के निमित्त से उत्पाभ दुख मानसिक दुख कहलाते है। एवं तीसरी पृथवी पर्यन्त संक्लेश परिणाम वाले असुर कुमार जाति के भवनवासी देवो के उत्पभ कराये गये दुख असुरकृत दुख कहलाते है।
प्रश्न १०७- असुरकुमार कृत दुखो को बतलाओ?
उत्तर- पूर्व में देवायु का बंध करने वाले मनुष्य या तिर्यंच अनंतानुबंधी में से किसी एक का उदय आ जाने से रत्नत्रय को नष्ट करके असुरकुमार जाति के देव होते है। सिकनामन, असिपत्र, महाबल, रूद्र अंबरीष आदिक असुरकुमार जाति के देव तीसरी बालुकाप्रभा पृथ्वी तक जाकर नारकियों को क्रोध उत्पभ कराकर परस्पर में युद्ध कराते हैं और प्रसन्न होते है।
प्रश्न १०८- नरक में उत्पभ होते ही कौनसा अवधिज्ञान उत्पभ होता है?
उत्तर- नरक में उताभ्ज्ञ होते ही अंतर्मुहूर्त के बाद छहों पर्याप्तियाँ पूर्ण हो जाती है। और भवप्रायय अवधिज्ञान प्रगट हो जाता है। जो मिथ्यादृष्टि नारकी है उनको अवधिज्ञान विभंगावधि कुअबधि कहलाता है। एवं सम्यकूदृष्टि नारकियों का ज्ञान अवधिज्ञान कहलाता है।
प्रश्न १०९- ७ नरको नारकियों के अवधिज्ञान का प्रमाण बतलाइये?
उत्तर- प्रथम नरक में अवधिज्ञान का विषय एक योजन है। आगे आगे आधे आधे कोस की हानि होकर सांतवे नरक में वह एक कोस मात्र रह जाता है। प्रथम नरक में ४ कोस (१ योजन) द्वितीय नरक में ३ १\२ साड़े तीन कोस तृतीय नरक में ३ कोस । चतुर्थ नरक में २ १\२ (ढाई कोस) पंचमनरक में २ कोस छठे नरक में १-१\२ कोस सातवे नरक में १ कोस।
प्रश्न ११०- नारकियों को अवधिज्ञान के प्रगट होते है तब मिथ्यादृष्टि नारकी क्या करते है?
उत्तर- इस अवधिज्ञान के प्रगट होते ही वे नारकी पूर्वभव के पापो को बैरविरोध को एवं शत्रुओं को जान लेते है। जो मिथ्यादृष्टि है वे पूर्वभव में किसी के द्वारा किये गये उपकार को भी अपकार रूप समझकर यदवासदवा आरोप लगाकर मारकाट करते रहते है।
प्रश्न १११- सम्यग्दृष्टि भद्रमिथ्यादृष्टि जीव अवधिज्ञान के प्रगट होते ही क्या विचार करते है?
उत्तर- जो सम्यग्दृष्टि है वे अपने पापो का पश्चाताप करते रहते है। कोई भद्र मिथ्यादृष्टिस जीव पाप के फल को भोगते हुये अत्यंत दुख से खबड़ाकर पापो का पश्चाताप करते वेदना अनुभव नामक निमित्त से सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर लेते है। तात्पर्य यह है कि यदि कोई नारकी पाप के फल को भोगते हुये यह सोचते है कि हाय! कि मैने परस्त्री सेवन किया था जिसके फल स्वरूप मुझे यहाँ गरम गरम लोहे की पुतली का आलिंगन कराया जाता है। मैने मद्यपान किया था जिसके फल स्वरूप मुझे यहाँ तांबा गलाकर पिलाया जाता है हाय हाय मैने पूर्वजन्म में गुरूओं की शिक्षा नही मानी, भगवान की वाणी पर विश्वास नहीं किया, नियमलेकर मंत्र किया इत्यादि के फल स्वरूप इत्यादि के फलस्वरूप ये यातनायें मुझे यहाँ भोगने को मिली है। अब इनसे छुटकारा कैसे मिले, कहाँ जाये, क्या करे, इत्यादि विलाप करते करते जिनधर्म पर प्रेम करते हुये श्रद्धा से सम्यक्तव रूपी अमूल्य निधि को प्राप्त कर लेते है।
प्रश्न ११२- सातो नरको में सम्यक्तव प्राप्ति के क्या कारण है?
उत्तर- धम्मा आदि तीन पृथवियों में मिथ्यात्वभाव से संयुक्त नारकियों में कोई जातिस्मरण से कोई दुर्वार वेदना से व्यभित होकर , कोई-देवो के सम्बोधन को प्राप्त कर अनेक भवों के चूर्ण करने में निमितत भूत ऐसे सम्यग्दर्शन को ग्रहण कर लेते है। पंकप्रभा आदि शेष चार पृथिवयों में नारकी जीव देवकृत प्रबोध के बिना जातिस्मरण और वेदना के अनुभव मात्र से ही सम्यग्दर्शन को ग्रहण कर सकते है।
प्रश्न ११३- पहले नरकायु का बध कर, पश्चात् सम्यक्तव को प्राप्त किया ऐसे जीव मरकर कितने नरक तक जा सकते है?
उत्तर- प्रथम नरक तक ही जा सकते है अन्यत्र नहीं ।
प्रश्न ११४- क्या सभी नरको नारकी सम्यक्तव को प्राप्त कर सकते है?
उत्तर- हाँ। सभी नरको में सम्यक्तव की कारणभूत साम्रगी मिल जाने से नारकी जीव सम्यक्तव को ग्रहण कर सकते है।
प्रश्न ११५- नरक में जाने के कारण क्या है?
उत्तर- जो शराब पीते है। मांस की अभिलाषा करते है। जीवो का घात करते है। शिकार करते हैं क्षणमात्र के इन्द्रिय सुख के लिये पाप उत्पभ करते है। क्रोधादि कषाय के वशीभूत होकर असत्य वचन बोलते हैं, काम से उन्मत हो जवानी में मदन परस्त्री में आसवन होकर जीव नरको में चिरकाल तक नपुंसक वेदी होते है। और अनंत दुखो को प्राप्त करते है।
प्रश्न ११६- नारकियों के शरीर की अवगाहन का प्रमाण बतलाओ ?
उत्तर – रत्नप्रभा पृथ्वी के प्रथम सीमंतक पटल के नारकियों के शरीर की ऊँचाई ३ हाथ है इसके आगे पटलो में बढ़ते बढ़ते अन्तिम १३ पटल में ७ धनुष ३ हाथ ६ अंगुल है। ऐसे ही बढ़ते बढ़ते बढ़ते सांतवी पृथवी के अन्तिम अवधिस्थान नामक इन्द्रक बिल में ५०० धनुष प्रमाण शरीर अवगाहना है।
प्रश्न ११७- प्रत्येक नरक में नारकियों की शरीर की ऊँचाई का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- रत्नप्रभा प्रथम पृथ्वी में नारकियों ऊँचाईस ३१ (१ ४) हाथ। शर्कराप्रभा, में ६२ (१ २) हाथ। बालुका प्रभा में १२५ हाथ, पंकप्रभा में १५० हाथ, धूमप्रभा में १२५ धनुष। तम:प्रभा में २५० धुनष। महातम: प्रभा में ५०० धनुष उत्सेध ।
प्रश्न ११८- सातो नरको में नारकियों की आयु का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- जघन्य आयु उत्कृष्ट आयु
१ प्रथम नरक मे १०,००० १ सागरोपम
२ द्वितीय नरक में १ सागर ३ सागर
३ तृतीय नरक में ३ सागर ७ सागर
४ चातुर्थनरक में ७ सागर १० सागर
५ पंचमनरक में १० सागर १७ सागर
६ छठे नरक में १७ सागर २२ सागर
७ सातवे नरक में २२ सागर ३३ सागर
प्रश्न ११९- सातो नरक में नारकियों में जन्म लेने का अन्तर कितना है?
उत्तर- इन नरको में यदि कोई नारकी जन्म न लेवे तो तथा वहाँ नारकियों के उत्पभ होने व्यवधान पड़ जावे उसका नाम अन्तर है। यह अंतर प्रथम नरक में २४ मुहूर्त का है। द्वितीय नरक में सात दिन का है। तृतीय नरक १५ दिन, चतुर्थनरक १ मास, पाँचवे नरक में २ मास। छठे नरक में ४ मास, साँतवे नरक में ६ मास का अन्तर हो सकता है।
प्रश्न १२०- नरकगति में किस गति के जीव जन्म ले सकते है?
उत्तर- कर्मभूमि के मनुष्य और पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीव ही इन नरको में उत्पभ हो सकते है। किन्तु नारकी, देव, भोगभूमियाँ, विकलत्रय एकेन्द्रिय जीव नरको में नहीं जा सकते है। इन नरको से निकले जीव वापस नरक में उसी भव में नहीं जा सकते है। न देव न विकलत्रय और न भोगभूमियाँ हो सकते है। मतलब यही है कि नरक से निकले नारकी जीव कर्मभूमियाँ मनुष्य और तिर्यंच ही होते है इनमें भी गर्भज संज्ञी एवं पर्याप्त ही होते है।
प्रश्न १२१- नरक से निकलकर नारकी किन पर्यायों को नही प्राप्त कर सकता है?
उत्तर- नरक से निकलकर कोई भी जीव, अनंतर भव में चक्रवर्ती, बलभद्र नारायण और प्रतिनारायण नहीं हो सकाता है। इस प्रकार संक्षेप्त से नरकलोक का वर्णन किया गया है जो कि भव्यजीवों को नरक के दुखो से भय उत्पभ करने के लिये एवं सुख के साधन धर्म में आदर करने के लिये है। विशेष वर्णन अन्यत्र देखना ।
प्रश्न १२२– भवनवासी देवो १० भेदो के प्रत्येक इन्द्र के परिवार देव कितने व कौन कौन से है?
उत्तर- प्रत्येक इन्द्र के परिवार देव १० प्रकार के है। प्रतीन्द्रे, त्रायशंत्रस, सामानिक लोकपाल, तमुरक्षक, तीनपरिषद, सात अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषक।
प्रश्न १२३- भवनवासी देवो की देवियों की संख्या बतलाइयें?
उत्तर- चमरेन्द्र के कृष्णा, रत्ना, सुमेघा, सुका और सुकाता ये पाँच अग्रमहिषी महादेवियाँ है। इन महादेवियों के प्रत्येक ८००० परिवार देवियाँ है इस प्रकार परिवार देवियाँ ८०००*५= ४०००० है। ये पाँचो महादेवियाँ विक्रिया से अपने आङ्ग आङ्ग हजार रूप बना सकती है। इस इन्द्र के १६००० वल्लभा देवियाँ है।
दूसरा वैरोचन इन्द्र के पद्मा, पभश्री, कनक श्री, कनकमाला, और महापद्मा सये ५ अग्रमहिषिया है इनकी विक्रिया, परिवार देवी आदि का प्रमाण पूर्ववत् होने से इस इन्द्र के भी ५६००० देवियाँ है।
इसी प्रकार से भतानंद ओर धरणानंद के ५०-५० हजार देवांगनाये है। वेणुदेव वेणुधारी इन्द्रों के ४४००० है। शेष इन्द्रो के ३२-३२ हजार देवांगनाये है।
उपर्युक्त कहे गये प्रतीन्द्र सामानिक आदि इन्द्रो के प्रधान परिवार स्वरूप है। इनके अतिरिक्त और अन्य भी अप्रधानरूप देव होते है जो कि असंख्यात कहे गये है।
प्रश्न १२४- स्वर्ग में सबसे निकृष्ट देवो की कितनी देवांगनाये होती है?
उत्तर- सबसे निकृष्ट देव की भी ३२ देवांगनायें अवश्य होती हैं।
प्रश्न १२५- देवों के उच्छवास का काल प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- चमर वैरोचन इन्द्र १५ दिन में उच्छ्वास लेते है। भूतानंद आदि ६ इन्द्र १२ १\ २ मुहूर्त में, जलप्रभ आदि ६ इन्द्र ६ १\२ मुहूर्त में उच्छ्वास लेते है। जो देव १० हजार वर्ष की आयु वाले देव हैं, उनके ७ श्वाशोच्छ्वास प्रमाण काल के बाद एवं पल्योपम प्रमाण आयु धारक देवो के पाँच मुहूर्त के बाद श्वाशोच्छ्वास होता है।
प्रश्न १२६- भवनवासी के १० प्रकार के देवो का वर्ण बतलाओ?
उत्तर- असुरकुमार के शरीर का वर्ण काला, नागकुमार के शरीर का वर्ण अधिक काला, गरूड़ और द्वीपकुमार का काला उदधिकुमार स्तनितकुमार का अधिक काला, विद्युतूकुमार का बिजली के सदृश, दिक्कुमार का काला वर्ण है। अग्निकुमार का अग्नि की कामिन के सदृश एवं वायुकुमार देव का नीलकमल के समान वर्ण है।
प्रश्न १२७- इन्द्रो का वैभव बतलाइये?
उत्तर- ये इन्द्रलोक भक्ति से पंचकल्याणकों के निमित्त ढाईद्वीप एवं जिनेन्द्र भगवान की पूजन के निमित्त नंदीश्वर द्वीप आदि पवित्र स्थानो में जाते है, शीलादि संयुक्त किन्हीं मुनिवर आदि की पूजन परीक्षा के निमित्त एवं क्रीड़ा के लिये यथेच्छ स्थान पर जाते आते रहते है।
प्रश्न १२८- ये असुरादि देव स्वयं, तथा अन्य की सहायता से स्वर्ग में कहाँ तक जा सकते हैं?
उत्तर- ये असुरकुमारादि देव स्वयं अन्य की सहायता के बिना ईशान स्वर्ग तक जा सकते है, तथा अन्यदेवों की सहायता से अच्युत याने १६ वें स्वर्ग तक जा सकते है।
प्रश्न १२९- भवनवासी देव व देवियों की और क्या विशेषता होती है?
उत्तर- देवो की शरीर निम्रलस कामिन के धारक, सुगंधित उच्छ्वास से सहित अनुपम रूप वाले तथा समचतुरस्र संस्थान से युक्त है। देवों के समान इनकी देवियाँ भी वैसे ही गुणों से युक्त होती है। इन देवदेवियों के राग,वृद्धावस्था नहीं है। अनुपम बल वीर्य है। इनका अकालमरण भी नहीं होता है। इनके शरीर वैकियक होने से मल मूत्र आदि सवन धातु से रहित होता है। ये देवगण काय प्रवचार से युक्त है। अर्थात् वेद का उदीरणा होने पर मनुष्य के समान काम सुख का अनुभव कराते हैं ये इन्द्र प्रतीन्द्र विविध प्रकार के छत्रादि विभूतियों को धारण करते है।
प्रतीन्द्र आदि देवो के सिंहाससन, छत्र चमर अपने अपने इन्द्रो की अपेक्षा छोटे रहते है। सामानिक और प्रायसंत्रीश नामक देवों में विक्रिया परिवार ऋद्धि और आयु अपने अपने इन्द्रों के समान है। इन्द्र इन सामानिक देवों की अपेक्षा केवल आज्ञा क्षेत्र सिंहासन और चामरों से अधिक वैभव युक्त होते है।
प्रश्न १३०- देवो में दुख का भी सद्भाव है?
उत्तर- हाँ देवो में भी मानसीक दुख से दुखी रहते है। जैसे चमरइन्द्र सौधर्मइन्द्र से ईष्या करता है। वैरोचन इन्द्र, ईशान इन्द्र से , पेणु, भूतानंद से, वेणुधारी, धरणानंद से ईष्या करते है। नाना प्रकार की विभूतियों को देखकर मात्सर्य से या स्वभाव से ही जलते रहते है।
प्रश्न १३१- भवनवासियों के भवन में जिनमन्दिर कहाँ है?
उत्तर- उनके प्रत्येक भवन के मध्य में १०० योजन ऊँचे एक एक कूट है। इन कूटो के ऊपर पभरागमणिमय कलशों से सुशोभित तथा ४ गोपुर, तीन मणिमय प्राकार, वन ध्वजाओं से एवं मालाओं से संयुक्त जिनगृह विराजते है।
प्रश्न १३२- भवनवासियों के भवन में जिनमन्दिर कहाँ है?
उत्तर- उनके प्रत्येक भवन के मध्य में १०० योजन ऊँचे एक एक कूट है। इन कूटो के ऊपर पभरागमणिमय कलशों से सुशोभित तथा ४ गोपुर, तीन मणिमय प्राकार, वन ध्वजाओं से एवं मालाओं से संयुक्त जिनगृह विराजाते है।
प्रश्न १३३- जिनगृह के चारों तरफ क्या है?
उत्तर- जिनमन्दिरो के चरो तरफ चैत्यवृक्षो सहित और नानावृक्षो से युक्त पवित्र अशोकवन सप्तच्छद वन चम्पक वन और भाम्रवन स्थित है।
प्रश्न १३४- चैत्यवृक्षो का लम्बाई आदि का प्रमाण बतलाइये?
उत्तर- प्रत्येक भवनों के चैत्यवृक्षो का अवगाढ़- जड़ एक कोस, स्कन्ध की ऊँचाई १ योजन और शाखाओं की लम्बाई ४ योजन प्रमाण कहीं गई है।
प्रश्न १३५- चैत्यवृक्षो की विशेषताओें को बताओ?
उत्तर- ये दिव्यवृक्ष विविध प्रकार के उत्तम रत्नों की शाखाओं से युक्त विचित्र पुष्पों से अलंकृत और उत्कृष्ट मणिमय उत्तमयत्रो से व्याप्त होते हुये अतिशय शोभा को प्राप्त है। एवं विविधप्रकार के अंकुरो से मण्डित, अनेक प्रकार के फलों से युक्त, नानाप्रकार के रत्नो से निर्मित छत्र के ऊपर से संयुक्त , घंटा ध्वजा आदि से रमणीय आदि अंत से रहित है। चैत्यवृक्ष पृथ्वीकायिक है स्वरूप है।
प्रश्न १३६- चैत्यवृक्षो पर जिनमन्दिर कहाँ पर है?
उत्तर- चैत्यवक्षो के मूल में चारो दिशाओं मे से प्रत्येक दिशा में पभासन से स्थित और देवो से पूजनीय पाँच पाँच दिव्य प्रतिमायें विराजमान है।
प्रश्न १३७- जिनमन्दिर की प्रतिमायें किन किन वैभवों से सहित होते है?
उत्तर- ये जिन प्रतिमायें चार तोरणो से रमणीय, आठ महामंगल द्रव्यो से सुशोभित और उत्तमोत्तम रत्नों से निर्मित अतिशय शोभायमान होती है।
प्रश्न १३८- जिनालयों की और भी क्या विशेषता है बतलाइये?
उत्तर- इन जिनालयों में चार चार गोपुरों संयुक्त तीन कोट, प्रत्येक वी थी (गली) में एक मानस्तम्भ व वन, सतूप तथा कोटों के अंतराल में क्रम से वनभूमि, ध्वजभूमि और चैत्यभूमि, ऐसे तीन भूमियाँ है।
प्रश्न १३९- जिनालयों की वनभूमि क्या है?
उत्तर- उन जिनालयों के चारों वनो के मध्य में स्थित तीन मेखलाओं से युक्त नंदादिक वापिकायें तीनों पीठ से युक्त धर्म विभव तथा चैत्यवृक्ष शोभायमान होते है।
प्रश्न १४०- उन जिनालयों की ध्वजभूमि में ध्वजाओं की क्या व्यवस्था है?
उत्तर- ध्वजभूमि में सिंह, गज, वृषभ, गरूढ़, मयूर, चंद्र, सूर्य, हंस पद्म और चक्र इन चिंह से अंकित प्रत्येक चिन्हों वाली १०८ महाध्वजायें और एक एक महाध्वजा के आश्रित १०८ क्षुद्र ध्वजायें होती है।
प्रश्न १४१- क्या उन जिनालयों में वंदनमंडपादि क्रीड़ागृह आदि भी होते है?
उत्तर- हाँ होते है। ये जिनालय वंदममंडप, अभिषेकमंडप, नर्तनस मंडप, संगीत मंडप, और प्रेक्षणमण्डप, क्रीड़ागृह, गुणनगृह (स्वाध्याय शाला) एवं विशाल चित्रशाला से युक्त है।
प्रश्न १४२- जिनालयों मंगलादि द्रव्य कितने कितने होते है?
उत्तर- इन जिनालयों में देवच्छंद के भीतर श्री देवी श्रुतदेवी तथा सर्वाण्ह, और सनत्कुमार यथो की मूर्तिया एंव आङ्ग मंगलद्रव्य होते है झारी, कलश, दर्पण, ध्वजा, चामर, छत्र, व्यजन और सुप्रसिष्ट इन आठ मंगल द्रव्यों में से वहाँ प्रत्येक १०८ होते है।
प्रश्न १४३- जिनालयों में धूप, बाजे आदि का वैभव भी है क्या ?
उत्तर- इन भवनो में चकते हुये रत्नदीपक, ५ वर्ण के रत्नो से निर्मित्त चौंक, गोशीर्ष, मलयचंदन, कालागुरू और धूप की गंध तथा भंभा , मृदंग, मर्दल, जयघंटा, कांस्टाताल, सिवली दुन्दभि एवं पटह आदि के शब्द नित्य गुंजायमान होते है। हाथ में चँवर लिये नागकुमार देवो से युक्त, उत्तम उत्तम रत्नो से निर्मित देवो द्वारा वंद्य ऐसी उत्तमप्रतिमाये सिंहासन पर विराजमान है।
प्रश्न १४४- प्रत्येक जिनालय में कितनी कितनी प्रतिमायें है?
उत्तर- प्रत्येक जिनभवनों में ये जिन प्रतिमायें १०८-१०८ प्रमाण है ये अनादि निधन है। भवनवासी देवो के भवनो की संख्या ७ करोड़ बहोत्तर लाख है।
प्रश्न १४५- सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि देव किस भावना उन मन्दिरों की उपासना करते है?
उत्तर- जो देव सम्यग्दर्शन से युक्त है वे कर्म क्षय के निमित्त जिन भगवान की भक्ति से पूजा करते है। इसके अतिरिक्त सम्यग्दृष्टि देवो से संबोधित किये गये अन्य मिथ्यादृष्टि देव भी कुलदेवता मानकर उन जिनेन्द्र प्रतिमाओं की नित्य ही बहोत प्रकार से पूजा करते रहते हे।
हमारा भी भवनवासी देवो की ७ करोड़ ७२ लाख जिनप्रतिमाओंं को त्रिकाल भावसहित नमस्कार हो।
प्रश्न १४६- भवनवासी देवो के भवनो की क्या विशेषताएँ होती है?
उत्तर- कूटो के चारोतरफ, नाना प्रकार की रचनाओं से युक्त उत्तम सुवर्ण और रत्नो से निर्मित भवनवासी देवो के महल है। ये महल सात, आठ नौ, दस, इत्यादि मलो से युक्त है। लटकती हुई रत्नमालाओं से युक्त चकते हुये मणिमय दीपको से सुशोभित , जन्मशाला, अभिषेक शाला भूषणशाला, मैथुनशाला, परिचर्यागृह और मंत्रशाला से रमणीय और मणिमय तोरणो से सुन्दर द्वारो वाले, सामान्यगृह कदलीगृह, गर्भगृह चित्रगृह, आसन गृह, नादगृह, लतागृह इत्यादि गृह विशेषों से सहित सुवर्णमय प्रकार से संयुक्त, विशाल छज्जो से शोभित, फहराती ध्वजाओं से सहित पुष्करिणी वापी, वूâप से सहित क्रीडन युक्त मत्तवारणों से संयुक्त मनोहर गवाक्ष और कपाटो से शोभित नानाप्रकार के पुतलिकाओं से सहित एवं अनादि निधन है। उनभवनों के चारो पाश्र्वनागों में चित्र विचित्र आसन एवं उत्तमरत्नों से निर्मित दिव्य शय्याये स्थित है।
प्रश्न १४७- देवो की अवधिज्ञान का विषय कितना है?
उत्तर- अपने अपने भवन में स्थित भवनवासी देवो का अवधिज्ञान उध्र्वदिशा में उत्कृष्ट रूप से मेरूपर्वत के शिखर पर्वत को स्पर्श करता है। एवं अपने अपने भवनो के नीचे नीचे क्षेत्र में प्रवृत्ति करता है। वही अवधिज्ञान तिरछे क्षेत्र की अपेक्षा अधिक क्षत्र को जानता है।
प्रश्न १४८- भवनवासी देवों के विक्रिया की व्यवस्था है?
उत्तर- वे असुरकुमारादि १० प्रकार के भवनवासी दवे अनेक रूपो की विक्रिया करते हुये अपने अपने अवधिज्ञान के क्षेत्र को पूरित करते है।
प्रश्न १४९- भवनवासी देवों में जन्म लेने के क्या कारण है?
उत्तर- जो मनुष्य शंकादि दोषों से रहित है। क्लेश भाव और मिथ्याभावो से युक्त चारित्र को धारण करते है। कलहप्रिय, अविनयी, जिनसूत्र के बहिर्भूत, तीर्थंकर और संघ की असादना करने वाले, कुमार्गगामी एवं कुतप करने वाले तापसी आदि इन भवनवासी देवो में जन्म लेते है|
प्रश्न १५०- भवनवासी देवो में सम्यक्तव प्राप्ति के क्या कारण है?
उत्तर- सम्यक्तव सहित जीव मरकर जीव भवनवासी देवो में उत्पन्न नही हो सकता है। कदाचित् जातिस्मरण, देव ऋद्धि दर्शन, जिनबिम्बदर्शन, और धर्मश्रवण के निमित्तो से ये देव सम्यक्तव रत्न को प्राप्त कर लेते है। इन भवनवासी देवो से निकलकर जीव कर्मभूमि में मनुष्यगति अथवा तिर्यंचगति को प्राप्त करते है। किन्तु ये श्लाका पुरूष नहीं हो सकते है।
प्रश्न १५१- देवो के जन्म स्थान को क्या कहते है?
उत्तर- इन देवो के भवनो के भीतर उत्तम कोमल उपपाद शाला है। देवो के जन्म को उपपाद जन्म कहते है।
प्रश्न १५२- उपपाद शय्या से कितने समय में शरीर पर्याप्ति पूर्ण हो जाती है?
उत्तर- ये देवगति नामकर्म के उदय से उत्पन्न होते है। अंतर्मुहूर्त में छहों पर्याप्ति को पूर्ण कर १६ वर्ष के युवक के समान शरीर को प्राप्त होते है।
प्रश्न १५३- देवो के शरीर में रोद्र क्यों नही होते है?
उत्तर- देवो के शरीर में मल मूत्र चर्य हड्डी मांसादि नही होते है ऐसा दिव्य वैक्रियक शरीर होता है। इसीलिये इन देवों का रोद्र आदि नहीं होते है।
प्रश्न १५४- देवो को भवनो में जन्म लेते ही क्या होता है?
उत्तर- देवो को जन्म लेते ही अनुद्घाटित बंद दोनो ही किवाड़ खुल जाते है। आनंद भेरी का शब्द होने लगता है इस भेरी के शब्द को सुनकर परिवार के देव देवियाँ हर्ष से जय जय कार शब्द करते हुये आते है। जय घंटा पटह आदि वाद्य संगीत नाट्य आदि से चतुर मागधदेव मंगल गीत जाते है।
प्रश्न १५६- इस दृश्य को देखकर नवजात देव आश्चर्य चकित हो क्या सोचता है?
उत्तर- इस दृश्य को देखकर नवजात देव आश्चर्य चकित हो सोचता है कि तत्क्षण उसे अवधिज्ञान नेत्र प्रगट हो जाता है इस अवधि का नाम विभंगावधि है। जब सम्यक्तव प्रगट हो जाता है तब ये अवधि सुअवधि कहलाती है। वे देवगण पूर्व के पुण्य का चिन्तन करते हुये यह भी सोचते है कि मैने सम्यक्तव शून्य धर्म धारण करके यह निम्न योनि पायी है। इसके पश्चात् वे देव अभिषेक योग्य द्रव्यों को लेकर जिन भवनो में स्थित जिन प्रतिमाओं की पूजा करते है।
प्रश्न १५७- सम्यग्दृष्टि देव व मिथ्यादृष्टि देव किन भावों से पूजा करते है?
उत्तर- यहाँ सम्यग्दृष्टि देव समस्त कर्मो के क्षय में एक अद्वितीय कारण जिनपूजा है ऐसा समझकर बड़ी भाव भक्ति से पूजा करते है। एवं मिथ्यादृष्टि देव अन्य देवो की प्रेरणा से इन्हें कुलदेवता मानकर पूजा करते है। पश्चात् अपने अपने भवन में आकर ये देव सिंहासन पर विराजमान हो जाते है। ये देव रूप लावण्य से युक्त अनेक प्रकार की विक्रिया से सहित स्वभाव से ही प्रसन्न मुखवाली देवियों के साथ क्रीड़ा करते है।
प्रश्न १५८- देव लोग कैसे सुख का अनुभव करते है?
उत्तर- वे देव स्पर्श, रस, रूप और सुन्दर शब्दो से प्राप्त हुये सुखो का अनुभव करते हुये क्षणमात्र भी तृप्ति को प्राप्त नहीं होते है।
प्रश्न १५९ – देव लोग क्रीड़ा के लिये कहाँ जाते है?
उत्तर- दीप, कुलाचल, भोगभूमि नंदनवन वन आदि उत्तम उत्तम स्थानो में क्रीड़ा किया करते है।
प्रश्न १६०- देव मरकर कहाँ कहाँ जन्म लेते है?
उत्तर- यदि ये देव ससम्यक्तव सहित मरण करते है तो उत्तम मनुष्य को प्राप्त कर लेते है। यदि मिथ्यात्व के प्रभाव से जीवन भर विषयभोगों में आनंद मानते हुये मरण के ६ महिने पहले अपने मरण काल को जान लेते है तो विलाप करते हुये संक्लेश परिणाम से मरकर एकेन्द्रिय पर्याय में पृथ्वीकायिक जलकायिक और वनस्पतिकायिक श्रीव हो जाते है। उस एकेन्द्रिय पर्याय से निकलकर पुन: त्रस पर्याय प्राप्त करना अत्यन्त कङ्गिन है। इस विषयासक्ति का यह दुषपरिणाम है कि इन देवो को भी ऐकेन्द्रिय पर्याय में गिरा देता है ऐसा सोचकर मिथ्यात्व को छोड़ देना चाहिये
प्रश्न १६१- मध्यलोक कहाँ है उसकी चौड़ाई व ऊँचाई का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- लोकाकाश के मध्य में एक राजु चौड़ा एवं एक लाख ४० योजन ऊँचा मध्यलोक है। अधोलोक के ऊपर मध्य लोक है।
प्रश्न १६२- मध्यलोक का दूसरा नाम क्या है और क्यो?
उत्तर- मध्यलोक का दूसरा नाम तिर्यक लोक है। क्योकि लोक के मध्य में जम्बूद्वीप से लेकर स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त तिर्यक प्रचय विशेषण से अवस्थित असंख्यात द्वीप समुद्र अपस्थित है इसलिये इसको तिर्यक लोक कहते है।
प्रश्न १६३- इस तिर्यकलोक में (मध्यलोक में) क्या है?
उत्तर- इस मध्यलोक को जम्बूद्वीप और लवणसमुद्र से प्रारम्भ करके असंख्यात द्वीप समुद्र है जो कि गोलाकार-थाली के आकार वाले एवं एक दूसरे को वेष्टित किये हुये है।
प्रश्न १६४- असंख्यात भी द्वीप समुद्र कितने है?
उत्तर- २५ कोटि उद्धारपल्यो के जितने रोमखण्ड हो उतनी ही द्वीप समुद्रो की संख्या है।
प्रश्न १६५- जम्बूद्वीप का नाम जम्बूद्वीप क्यों पड़ा ?
उत्तर- जम्बूवृक्ष से उपलक्षित होने से इस द्वीप का नाम जम्बूद्वीप पड़ा है। यह जम्बूवृक्ष शाश्वत है। अकृतिम है पृथ्वीकाय है और अनादि निधन है।
प्रश्न १६६- जम्बूद्वीप का विस्तार बतलाइये?
उत्तर- एक लाख योजन विस्तार वाला है (४०करोड़ मील)
प्रश्न १६७- जम्बूद्वीप की परिधि कितनी है?
उत्तर- जम्बूद्वीप की परिधि, ३ लाख १६ हजार, २२७ योजन, तीनकोश, अट्ठाईस धनुष, और कुछ अधिक साढ़े तेरह अंगुल है। ३,१६२२७, योजन १२८ धनुष कुछ अधिक १३४ अंगुल है।
प्रश्न १६८- जम्बूद्वीप का क्षेत्रफल बतलाओ?
उत्तर- जम्बूद्वीप का क्षेत्रफल सात सो नब्बे करेड़, ५६ लाख चौरानवें हजार एकसौ पचास (७९०, ५३लाख १५०) है।
प्रश्न १६९- जम्बूद्वीप की जगति का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- जम्बूद्वीप की जगति ८ योजन ऊँची, मूल में १२ योजन, मध्य में आठ योजन और ऊपर में ४ महायोजन विस्तार वाली है ।
प्रश्न १७०- जगति किसे कहते है?
उत्तर- जम्बूद्वीप के परकोटे को जगति कहते है।
प्रश्न १७१- यह जगति मूल में, मध्य में व शिखर किससे निर्मित है?
उत्तर- यह जगति मूल में वज्रमय, मध्य में सर्वरत्नमय, और शिखर पर वैडूर्यमणि से निर्मित है ।
प्रश्न १७२ – इस जगति के मूलप्रदेश में क्या है?
उत्तर- इस जगति के मूलप्रदेश में पूर्वपश्चिम की और सात सात गुफाएँ है। तोरणो से रमणीय, अनादि निधन गुफाये महानदियों के लिये प्रवेश द्वार है।
प्रश्न १७३- जगति के उपरमि भाग पर क्या है?
उत्तर- जगति के उपरिम भाग पर ङ्खीक बीच में दिव्य सुवर्णमय वेदिका है।
प्रश्न १७४- वेदिका की ऊँचाई व चौड़ाई का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- यह वेदिका २ कोश ऊँची और ५०० धनुष चौड़ी है।
प्रश्न १७५ – वेदी के पाश्र्वभागों में क्या है?
उत्तर- वेदी के दोनो र्वभागों में उत्तम वापियों से संयुक्त वनखण्ड है। वेदी के अभ्यन्तर भाग में महोरग जाति के व्यन्तर देवो के नगर है। इन व्यन्तर नगरो के भवनो ने अकृतिम जिनमन्दिर शोभित है।
प्रश्न १७६ – जम्बूद्वीप के प्रमुख द्वार कितने व कौन कौन से है?
उत्तर- चारों दिशाओं में क्रम से विजय, वैजयन्त जयन्त और अपराजित ये चार गोपुर द्वार है।
प्रश्न १७७- गोपुर द्वार की ऊँचाई व विस्तार कितना है?
उत्तर- ये गोपुर द्वार ८ महायोजन ऊँचे (३२,००० मील) ऊँचे, और ४ योजन (१६,००० मील) विस्तृत है।
प्रश्न १७८- गोपुर द्वार में क्या है?
उत्तर- सब गोपुर द्वारो में सिंहासन, तीनछत्र भामण्डल चामर आदि से युक्त जिनप्रतिमायें स्थित है। ये द्वार अपने अपने नाम के व्यन्तर देवो से रक्षित है। प्रत्येक द्वार के उपरिम भाग में सत्रह रव ८तलो से युक्त उत्तम द्वार है।
प्रश्न १७९- विजय, वैजयन्त आदि देवो के नगर कहाँ है क्या, वहा पर जिनमंदिर है?
उत्तर- द्वार के ऊपर १२ योजन लम्बा ६ हजार योजन विस्तृत विजय देव का नगर हैं ऐसे ही वैजयन्त आदि के नगर है। इनमें अनेको देवभवनों में जिनमन्दिर शोभित है। विजय आदि देव अपने अपने नगरों में देवियों और परिवार देवो से युक्त निवास करते है।
प्रश्न १८०- भरत क्षेत्र कहाँ है कुल क्षेत्र कितने है?
उत्तर- जम्बूद्वीप के भीतर दक्षिण की ओर भरतक्षेत्र उसके आगे हैमवत हरि, रम्यक हैरण्यवल, और ऐरावत ये सात क्षेत्र है।
प्रश्न १८१- जम्बूद्वीप के ६ कुलाचल पर्वतो के नाम बतलाओ?
उत्तर- हिमवान् , महाहिमवान् , निषध, नील ,रूक्मि और शिखरी ये ६ कुलाचल पर्वत है।
प्रश्न १८२- हिमवान आदि ६ कुलाचलो पर क्रम से छह सरोवर है उनके नाम बतलाओ ?
उत्तर – हिमवान आदि ६ कुलाचलो पर क्रम से पभ: महापभ, सिगिंनध, केशरी, पुण्डरीक और महापुण्डरीक ऐसे छह सरोवर है।
प्रश्न १८३- छह सरोवर से कितनी नदियाँ निकलती है?
उत्तर- इन छह सरोवरों से गंगा-सिंधु, रोहित-रोहितास्या, हरित-हरिकांता, सीता-सीतोदो, नारी-नरकांता, सुवर्णवूâला-रूपयकूला और रक्ता और रक्तादो ये १४ नदियाँ निकलती है। जो कि एक एक क्षेत्र में दो दो नदी बहती हुई सात क्षेत्रो में बहती है।
प्रश्न १८४- भरतक्षेत्रादि, हिमवान पर्वत आदि का विस्तार कितना कितना है बतलाइये?
उत्तर- दक्षिण में भरतक्षेत्र का विस्तार ५२६ ६ १\९ योजन है। भरतक्षेत्र से दूना हिमवान पर्वत है उससे दूना हैमवत पर्वत है ऐसे विदेहक्षेत्र तक दूना दूना विस्तार है। आगे आधा आधा है।
प्रश्न १८५- भरतक्षेत्र के मध्य में क्या है?
उत्तर- भरतक्षेत्र के मध्य में पूर्व पश्चिम लम्बा समुद्र को स्पर्श करता हुआ विजयार्ध पर्वत है।
प्रश्न १८६- छहपर्वतो की ऊँचाई का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- छहपवर्पतो की क्रम से १०० योजन, २०० योजन, ४०० योजन पुन: ४०० योजन, २०० योजन, १०० योजन प्रमाण है।
प्रश्न १८७- इन पर्वतो का वर्ण बतलाइये?
उत्तर- इन पर्वतो के वर्ण क्रमश: सुवर्ण चाँदी, तपाये हुये सुवर्ण के समान, वैडूर्यमणि, रजत और सुवर्ण के समान वर्ण वाले है।
प्रश्न १८८- जम्बूद्वीप ७ क्षेत्रों में कैसे विभक्त हो गया?
उत्तर- जम्बूद्वीप ६ पर्वत है जो कि पूर्व पश्चिम लम्बे है। इन पर्वतो से इस जम्बूद्वीप में ७ क्षेत्र हो गये है।
प्रश्न १८९- हिमवान पर्वत के कितने कूट है? उनके संख्या व नाम बतलाओ?
उत्तर- हिमवान पर्वत पर ११ कूट है। सिद्धायतन हिमवत् भरत इला गंगा श्रीकूट रोहितास्या, सिंधू, संरादेवी हैमवत और वैश्रवण।
प्रश्न १९०- ११ कूटो में कौनसे कूट पर जिनमिन्दर है?
उत्तर- प्रथम सिद्धायतन कूट पूर्व दिशा में है उस पर जिनमन्दिर है।
प्रश्न १९१- ३२ शेष १० कूटों में क्या है?
उत्तर- शेष १० कूटो में से स्त्रीलिंग नामवाची कूटो पर व्यन्तर देवियाँ एवं अवशेष वूâटो पर व्यन्तर देव रहते है।
प्रश्न १९२- हिमवान पर्वत क कूटो की ऊँचाई विस्तार व मध्य का प्रमाण बतलाइये?
उत्तर- सभी कूट पर्वत की ऊँचाई से चौथाई प्रमाण वाले होते है जैसे हिमवान पर्वत १०० योजन ऊँचा है तो इसके सभी वूâट २५-२५ योजन ऊँचे है। मूल में २५ योजन विस्तृत, मध्य में १८ ३ \४ योजन और ऊपर १२ १\२ योजन है विस्तार है। इनके ऊपर देव देवियाँ के भवन बने हुये है।
प्रश्न १९३- महाहिमवान पर्वत पर कूट की संख्या उनके नाम व प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- आठ कूट है- सिद्धकूट, महाहिमवान् , हैमवान, रोहित, ह्रीकूट, हरिकांता, हरिवर्ष, और वैडूर्य, ये आठ कूट है। ये पूण्योजन ऊँचे मूल में ५० योजन और ऊपर में १५ विस्तृत है।
प्रश्न १९४- निषधपर्वत के कूटो की संख्या, नाम, ऊँचाई आदि का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- निषधपर्वत के ९ कूट है। सिद्धकूट, निषध, हरिवर्ष,पूर्वविदेह, हरित, धृसि, सितोदा, अपरविदेह और रूचक, ये ९ कूट है। ये १०० योजन ऊँचे, मूल में १०० योजन विस्तृत, मध्य में ७५ योजन और ऊपर ५० योजन विस्तृत है।
प्रश्न १९५- नीलपर्वत पर कूट की संख्या, नाम, विस्तार आदि का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- नीलपर्वत पर ९ कूट है। सिद्ध, नील, पूर्वविदेह, सीता, कीर्ति नरकान्ता, अपरविदेह, रम्यक और अपदर्शन ये ९ कूट है। ये कूट भी सौ योजन ऊँचे है मूल में १०० योजन विस्तृत ऊपर में पूण्योजन विस्तृत है।
प्रश्न १९६- रूक्मि पर्वत के कूट संख्या, उनके नाम विस्तारादि बतलाओ?
उत्तर- रूक्मिपर्वत ८ कूट है। सिद्ध रूक्मि, रम्यक, नारी, बुद्धि, रूप्यकूला, हैरण्यवान औार मणिकांचन ये ८ कूट है। ये पूण्योजन ऊँचे, पूण्योजन विस्तृत और ऊपर में २५ योजन विस्तृत है।
प्रश्न १९७- शिखरी पर्वत पर कूटसंख्या, नाम, विस्तारादि का प्रमाण बतलाइये?
उत्तर- शिखरी पर्वत पर ११ कूट है। सिद्ध, शिखरी, हैरण्यवत, रसदेवी, रक्ता, लक्ष्मी, सुवर्ण, रक्तवती, गंधवती, ऐरावत और मणिकांचन ये ११ कूट है। ये २५ योजन ऊँचे २५ योजन विस्तृत, मध्य में १८ ३४ योजन और ऊपर १२ १२ योजन विस्तृत है।
विशेष- सभी कूटो में पूर्वदिशा में सिद्धकूट में जिनभवन है। स्त्रीलिंग वाची कूटों में व्यन्तर देवियाँ है। और शेष में व्यन्तर देवो के भवन बने हुये है।
प्रश्न १९८- व्यन्तर देव उनके ऊपर नीचोपपातिक आदि ऊपर के देव उनका चित्रापृथ्वी से क्रम से कितने कितने ऊपर है औरर उनकी आयु का प्रमाण बतलाओ ?
उत्तर- पृथ्वी से ऊपर देवो की जाति आयु का प्रमाण
चित्रा पृथ्वी से १ हाथ ऊपर जाकर नीचोपपासिक १०,००० वर्ष
उससे १०००० हाथ ऊपर दिग्वासी २०,००० वर्ष
उससे १०००० हाथ ऊपर जाकर अन्तर निवासी ३०,००० वर्ष
उससे १०,००० हाथ ऊपर कुष्मांड देव ४०,००० वर्ष
उससे २०,००० हाथ ऊपर उत्पभ ५०,००० वर्ष
उससे २०,००० हाथ ऊपर अनुत्पभ ६०,००० वर्ष
उससे २०,००० हाथ ऊपर प्रमाणक ७०,००० वर्ष
उससे २०,००० हाथ पर गंध ८०,००० वर्ष
उससे २०,००० हाथ ऊपर महागंध ८४००० वर्ष
उससे २०,००० हाथ ऊपर भुजंग १/८ पल्य प्रमाण
उससे २०,००० हाथ ऊपर प्रीतिक १/४ पल्य
उससे २०,००० हाथ ऊपर अकाशोत्पभ १/२ पल्य
प्रश्न १९९- कमल पत्र का विस्तार आदि कितना है?
उत्तर- कमलपत्र एक कोस लम्बा है कर्णिका का विस्तार दो कोश है इसलिये कमल १ योजन लम्बा और १ योजन विस्तार वाला है।
प्रश्न २००- कमल की कर्णिका पर कौनसी देवी निवास है?
उत्तर- इस कमल की कर्णिका पर श्रीदेवी का भवन बना हुआ है।
प्रश्न २०१- श्रीदेवी के भवन की लम्बाई चौड़ाई एवं ऊँचाई बतलाओ?
उत्तर- श्री देवी का भवन १ कोश लम्बा, आधा कोश चौड़ा और पौन कोस ऊँचा है। इसमें श्रीदेवी निवास करती है। इसकी आयु एक पल्यप्रमाण है।
प्रश्न २०२ – श्रीदेवी के परिवार कमलों की संख्या बतलाओ?
उत्तर- श्रीदेवी के परिवार कमल (१,४०,११५) १ लाख ४० हजार एक से पन्द्रह इन कमलों का विस्तार आदि मुख्यकमल से आधा है इनमें रहने परिवार देवो भवनो का प्रमाण भी श्री देवी के प्रमाण से आधा है।
प्रश्न २०३- महापभ सरोवर किस पर्वत पर है, तथा चौड़ाई लम्बाई गहराई बतलाइये?
उत्तर- यह सरोवर महाहिमवान पर्वत पर है यह १००० हजार योजन चौड़ा, २००० योजन लम्बा, और २० योजन गहरा है।
प्रश्न २०४- कमलपत्र का विस्तार कितना है?
उत्तर- महापभसरोवर के मध्य जो कमल है वह दो योजन विस्तृत है।
प्रश्न २०५- कमल की कर्णिका पर कौनसी देवी निवास करती है?
उत्तर- कमल की कर्णिका दो कोस की है और इसमें ह्री देवी का भवन है। वह दो कोश लम्बा, डेढ़ कोश ऊँचा, और १ कोश चौड़ा है।
प्रश्न २०६- ह्री देवी के परिवार कमल संख्यादि बतलाओ?
उत्तर- ह्री देवी के परिवार कमल २,८०,२३० है। इन परिवार कमलों का एवं इनके भवनो का प्रमाण मुख्य कमल से आधा आधा है। इसके मुख्य कमल ह्री देवी का निवास है इस की आयु भी एक पल्यप्रमाण है।
प्रश्न २०७ – सिगिंध सरोवर कहा है उसकी लम्बाई आदि का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- तिगिंध सरोवर निषधपर्वत के मध्य में है। यह २००० योजन चौड़ा, ४००० योजन लम्बा, ४० योजन गहरा है। इस सरोवर में मुख्य कमल है वह ४ योजन विस्तृत है। इसकी कर्णिका ४ कोश की है उसमें घृति देवी का भवन चारकोश लम्बा, २ कोश चौड़ा और ३ कोश ऊँचा है।
प्रश्न २०८ – श्रीदेवी के परिवार कमल की संख्या आदि प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- श्रीदेवी के परिवार कमल ५,६०,४६० है। इन कमलों का प्रमाण तथा इनके भवनो का विस्तार आदि मुख्य कमल से आधा आधा है। इसके मुख्य कमल में धृति देवी रहती है। इनकी आयु भी एक पल्य की है।
प्रश्न २०९- पभसरोवर का क्षेत्रफल कितना है?
उत्तर- पभसरोवर ५०० योजन चौड़ा १००० योजन गहरा ५ लाख योजन क्षेत्रफल है।
प्रश्न २१० – केशरी सरोवर पर कौनसी देवी निवास करती है?
उत्तर-इस सरोवर का सारा वर्णन सिगिंछ सरोवर के समान हैं अन्तर इतना ही है यहाँ बुद्धि नाम की देवी निवास करती है।
प्रश्न २११ – पुंडरीक सरोवर का वर्णन किसके समान है वहाँ निवास करने वाली देवी एवं परिवार कमल की संख्या बतलाओ?
उत्तर- इस सरोवर का सारा वर्णन महापभ के समान है। अन्तर इतना ही है कि इसके कमल पर कीर्ति देवी निवास करती है।
प्रश्न २१२ – महापुंडरीक सरोवर का वर्णन किसके समान है वहाँ निवास करने वाली देवी का नाम बतलाओ?
उत्तर- इस सरोवर का सारा वर्णन पभसरोवर के समान है अन्तर इतना ही है कि यहाँ लक्ष्मी नाम की देवी निवास करती है।
विशेष- सरोवर के चारों और वेदिका से वेष्टित वनखण्ड है वे आधा योजन चौड़े है ।सरोवर के कमल पृथ्वीकायिक है वनस्पतिकायिक नहीं है इनमें बहुत ही उत्तम सुगंधि आती है।
जिनमन्दिर इन सरोवर में जिसने कमल कहे गये है वे महाकमल है इनके अतिरिक्त क्षुद्रकमलों की संख्या बहुत है इन सब कमलों के भवनों में एक एक जिनमन्दिर है। इसलिये जितने कमल है उतने ही जिनमन्दिर है। उन सब जिनमन्दिरों को मरा नमस्कार है।
प्रश्न २१३ – भरतवर्ष का भरतक्षेत्र क्यो है?
उत्तर- भरतक्षत्रिय के योग से इसे भरत क्षेत्र कहते है। अयोध्या नगरी में सर्व राजलक्षणो से सम्पन्न भरान नाम चक्रवर्ती हुआ है। इस अवसर्पिणी के राज्य विभाग काल में उसने ही इस क्षेत्र का उपभोग किया । इसलिये उसके अनुशासन के कारण इस क्षेत्र का नाम भरतक्षेत्र पड़ा है।
प्रश्न २१४ – विजयार्ध पर्वत कहाँ है? उसकी लम्बाई आदि का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- इस भरतक्षेत्र के बिल्कुल मध्यभाग में रजतमय नानाप्रकार के उत्तम रत्नों से रमणीय, विजयार्ध नाम का उन्नत पर्वत स्थित है। इस पर्वत की ऊँचाई २५ योजन, मूलविस्तार ५० योजन एवं नीवं ६- १४ योजन है।
प्रश्न २१५ – विजयार्धपर्वत के दक्षिण तरफ क्या है?
उत्तर- इस पर्वत के दक्षिण उत्तर दोनो तरफ पृथ्वीतल से १० योजन, ऊपर जाकर १० योजन विस्तीर्ण उत्तमश्रेणी है उनमें से दक्षिण श्रेणी में ५० और उत्तम श्रेणी में ६० ऐसे विद्याधरों की ११० नगरियाँ है। उसके ऊपर दोनो तरफ १० योजन जाकर १० योजन विस्तीर्ण श्रेणियाँ है इनमें आभियोग्य जाति के देवो के नगर है। इन आभियोग्य पुरो से पाँच योजन ऊपर जाकर १० योजन विसपीर्ण विजयार्ध पर्वत का उत्तम शिखर है।
प्रश्न २१६ – विजयार्ध पर्वत की समभूमि भाग में क्या है?
उत्तर- समभूमि भाग में सुवर्ण मण्यिों से निर्मित दिव्य नौ कूट है। उन कूटो में पूर्व की और सिद्धकूट, भरतकूट, खंडप्रपात , विजयार्ध, कुमार, पूर्णभद्र, भरतकूट और वैश्रवण और तिमिश्रगुहकूट ऐसे नौ कूट है। ६ योजन योजन ऊँचे, मूल में इतने ही चौड़े और ऊपर भाग में कुछ अधिक तीन योजन चौड़े है ।
प्रश्न २१७ – विजयार्ध पर्वत ९ के कूट में जिनभवन कहाँ है?
उत्तर- सिद्धकूट में जिनभवन एवं शेषकूटो के भवनो में देव देवियो के निवास है।
प्रश्न २१८ – विजयार्ध पर्वत पर कितनी गुफाये है?
उत्तर- इस पर्वत पर दो महागुफायें है इस विजयार्धपर्वत में ८ योजन मोटी, ५० योजन लम्बी और १२ योजन विस्तृत दो गुफायें है। इन गुफाओं के दिव्य युगल कपाट ८०० योजन ऊँचे, ६०० योजन विस्तीर्ण है।
प्रश्न २१९ – विजयार्ध नाम की सार्थकता बतलाइये?
उत्तर- गंगा सिन्धु नदियाँ इन गुफाओं से निकलकर बाहर आकर लवणसमुद्र में प्रवेश करती है। इन गुफाओं के दरवाजे को चक्रवर्ती अपने दंड रत्न से खोलते है। और गुफा के भीतर काकीणी रत्न ये प्रकाश करके सेना सहित उत्तर म्लेच्छो में जाते है चक्रवर्ती की विजयक्षेत्र की अद्र्धसीमा इस पर्वत से मिर्धारित होती है। अत: इसका नाम विजयार्ध सार्थक है। गुण से यह रतसाचल है अर्थात् चाँदी से निमित्त शुभ्रवर्ण है। ऐसी ही ऐरावत क्षेत्र में विजयार्धपर्वत है।
प्रश्न २२० – चक्रवर्ती अपनी प्रशस्ती कहाँ लिखते है?
उत्तर- विजयार्ध से उत्तर में और क्षुद्र हिमवान पर्वत से दक्षिण दिशा में गंगा सिंधू नदियों तथा म्लेच्छ खंडो के मध्य में १०० योजन ऊँचा, ५० योजन लम्बा, जिनमन्दिरों से युक्त, स्वर्ण व रत्नो से निर्मित एक वृषभगिरि नामका पर्वत है। इस पर्वत पर चक्रवर्ती अपनी प्रशस्ती लिखते है।
प्रश्न २२१ – विजयार्ध व म्लेच्छखंडो में कौन सा काल रहता है?
उत्तर- भरतक्षेत्र के म्लेच्छखंड में और विजयार्ध पर्वत पर चातुर्थ काल के आदि और अंत के सदृश काल रहता है।
प्रश्न २२२ – विजयार्ध पर उत्पभ मानव क्या कहलाते है? उनकी आजीविका क्या है?
उत्तर- विजयार्ध पर्वत निवासी मानव यद्यपि भरतक्षेत्र के मानवों के समान षट्कर्मों से ही आजीविका करते है। परन्तु प्रज्ञप्ति आदि विधाओं के धारण करने के कारण विद्याधर कहे जाते है।
प्रश्न २२३ – भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में काल परिवर्तन आदि की विशेषता बतलाइये?
उत्तर- भरत क्षेत्र के ऐरावत क्षेत्र के आर्यखंडो में सुषमासुषमा काल से लेकर षटकाल परिवर्तन होता रहता है। प्रथम द्वितीय तृतीय काल की व्यवस्था में २४ तीर्थंकर १२ चक्रवर्ती नौ बलभद्र नौ नारायण, नौ प्रतिनारायण ऐसे ६३ श्लाका के पुरूष जन्म लेते है। इस बार यहाँ हुंंडवसर्पिणी के दोष से ९ नारद और नौ रूद्र ज्ञी उत्पभ हुये है। पुन: पंचमकाल, छठाकाल आता है।स यहाँ अभी पंचमकाल चल रहा है। इसमें धर्म का हास होते होते छठे काल में धर्म नहीं रहता है। प्राय: मनुष्य पाशविक वृत्ति के बन जाते है।
प्रश्न २२४ – म्लेच्छखंडो में, विद्याधर की दोनो श्रेणियों में काल परिवर्तन की क्या व्यवस्था है?
उत्तर- विद्याधर की दोनों श्रेणियों की ११० नगरियों में ५ म्लेच्छखंडो में चतुर्थ काल की आदि से लेकर अंत तक काल का परिवर्तन होता है।
प्रश्न २२५ – हैमवत और हरि क्षेत्र के ये नाम किस कारण से है?
उत्तर- हिमवान् क्षेत्र के समीप होने से हैमवत क्षेत्र कहलाता है। यह हिमवान् , महाहिमवान् के तथ्ज्ञा पूर्वापर समुद्रो के मध्य में है यह जघन्य भोगभूमि है।
हरित वर्ण के मनुष्य के योग से हरिक्षेत्र कहलाता है। हरि का अर्थसिंह है। सिंह का परिणाम शुक्ल है। सिंह के समान शुक्ल परिणाम वाले जीव जहाँ रहते है वह हरिक्षेत्र है यह मध्यम भोगभूमि है।
प्रश्न २२६ – विदेह क्षेत्र नाम की सार्थकता बताओ?
उत्तर- विदेह में रहने वाले मानव मुनिवर निरत्स्नर विदेह अर्थात् कर्मबंध का उच्छेद करने के लिये व देह रहित होने का निरन्तर प्रयास करते है और विदेहत्व, अशरीरत्व सिद्धत्व को प्राप्त कर लेते है। अत:विदेह मनुष्यों के सम्बंधो से क्षेत्र का नाम भी विदेह प़ड़ गया है। और भी वहाँ जिनधर्म के विनाश का अभाव होने से औस सदा धर्म का प्रवर्तन होने से प्राय: करके मनुष्य शरीर रहित होकर सिद्ध होते है इसलिये भी यह क्षेत्र विदेह कहलाता है।
प्रश्न २२७ – हैरण्यवत क्षेत्र की हैरण्यवत संज्ञा क्यो है?
उत्तर- हिरण्यवाले (सुवर्ण वाले) रूक्मि पर्वत के समीप होने से इसका नाम हैरण्यवत क्षेत्र पड़ा है। यहाँ जघन्य भोगभूमि है।
प्रश्न २२८ – रम्यक क्षेत्र की रम्यक संज्ञा क्यो है?
उत्तर- रमणीय देश नदी वन और पर्वत आदि से युक्त होने के कारण इसे रम्यक क्षेत्र कहते है। यह मध्यम भोगभूमि है।
प्रश्न २२९ – उत्तम भोगभूमि कहाँ है?
उत्तर- पूर्वविदेह के उत्तर दिगवर्ती गजदन्तो के बीच में उत्तरकुरू नाम का उत्तमभोगभूमि है इस उत्तरकुरू में ही जम्बूवृक्ष है। पश्चिम विदेह में दक्षिण दिग्वर्ती गजदंतो के बीच देवकुरू नामक उत्तम भोगभूमि है। देवकुरू के मध्य में एक शाल्मलि वृक्ष है।
प्रश्न २३० – कर्म भूमि कितनी होती है?
उत्तर- पंचमेरू सम्बंधी ५ भरत ५ ऐरावत और पाँच विदेह ये १५ कर्मभूमियाँ है।
प्रश्न २३१ – भोगभूमियाँ कितनी है?
उत्तर- पाँच देवकुरू, पाँचआरकुरू में ये १० उत्तम भोगभूमि पाँच रम्यक, पाँचहरि क्षेत्र में मध्यम भोगभूमि और पाँच हैमवत् पाँच हैरण्य में जघन्य भोगभूमि है। इसलिए कुल भोगभूमियाँ ३० है।
प्रश्न २३२ – विजयार्धपर्वत पर रहने वाले विद्याधर की विशेषता बतलाइये?
उत्तर- विद्याधरों के श्रेष्ठ ११० नगर अनादि निधन, स्वभाव सिद्ध अनेक प्रकार के रत्नमय तथा गोपुर, प्रजाद और तोरणादि से सहित है।इन नगरों में उद्यान वनो से संयुक्त पुषकरिणी कूप एवं वायिकाओं से सहित और फहराती ध्वजा, पताकाओं से सुशोभित रत्नमय प्रसाद है।इन पुरो से रमणीय उत्तम रत्न और सुवर्णमय नानाप्रकार के जिन मन्दिर स्थान स्थान पर शोभायमान है।
इन नगरों में रहने वाले उत्तम विद्याधर मनुष्य कामदेव के समान बहुतप्रकार के विद्याओं से संयुक्त हमेशा ही ६ कर्मो से सहित होते है। विद्याधर की स्त्रियां के सदृश दिव्य लावण्य से रमणीय और बहोत प्रकार की विद्याओं से संयुक्त है।
प्रश्न २३३- चौतिस कर्मभूमि बताओ?
उत्तर- भरतक्षेत्र व ऐरावत क्षेत्र की एक एक कर्मभूमि तथा ३२ विदेहो के आर्यखंड की ३२ कर्मभूमि ऐसे ३४ कर्मभूमि है। भरत और ऐरावत में षट्काल परिवर्तन होने से ये दो अशाश्वत कर्मभूमि है। एवं विदेहो में सदा ही कर्मभूमि की व्यवस्था होने से वे शाश्वत कर्मभूमि है।
प्रश्न २३४ – भोगभूमियाँ जीव क्या कहलाते है?
उत्तर- वहाँ के पुरूष-स्त्री को आर्या और स्त्रीपुरूष को आर्य कहकर बलाती है। अत: वे जीव आर्य कहलाते है।
प्रश्न २३५ – वे जीव किनचीजो का भोग करते है?
उत्तर- वे सब युगल १० कोस ऊँचे १० प्रकार के कल्पवृक्ष से उत्यभ भोगों को भोगते है।
प्रश्न २३६ – कल्पवृक्ष कितने और कौन कौन से है?
उत्तर- कल्पवृक्ष १० हैं (१) मद्यांग, (२) वादित्रांग (३) भूषणांक (४) माल्यांग (५) ज्योतिरांग (६) दीपांग (७) गृहांग (८) भोजनांग (९) वस्त्रांग ।
प्रश्न २३७ – ढाईद्वीप में अयोध्यानगरी कितनी है? अयोध्या के अन्यनाम कौन से है?
उत्तर- ढाईद्वीप में १७० अयोध्या नगरियाँ है। अयोध्या के साकेत, विनीता नाम भी है।
प्रश्न २३८ – सभी तीर्थंकरो के जन्म व मोक्षस्थान का नियम क्या है?
उत्तर- तीर्थंकरो का जन्म अयोध्या में और मोक्ष सम्मेदशिखर से होने का नियम है। अत: ढाईद्वीप में १७० अयोध्या तथा १७० सम्मेदशिखर है।
प्रश्न २३९ – जिन नदियों के द्वारा क्षेत्रों के विभाग होते है उन नदियों के नाम कौन से है? वे कहा बहती है?
उत्तर- गंगा, सिंधू, रोहित-रोहितास्या, हरित हरिकान्ता, सीता सीतादो नारी-नरकांता, सुवर्णकूला, रूप्यकूला, रक्ता रक्तादो, ये १४ नदियाँ भरतादि ७ क्षेत्रो में बहती है। भरत में- गंगा सिन्धू हैमवत- रोहित रोहिताम्या, हरि में, हरित, हरिकांता, विदेह में सीता सातादो, रम्यक में नारी, नरकान्ता, हैरण्यवत में सुवर्ण कूला, रूप्यकूला और ऐरावत में रक्ता-रक्तादो नदियाँ बहती है।
प्रश्न २४० – नदियों के बहने का क्रम क्या है?
उत्तर- दो दो नदियों में से पहली पहली नदी पूर्व समुद्र को जाती है बाकी बची हुई सात नदियाँ पश्चिचम समुद्र की और जाती है।
प्रश्न २४१ – पूर्व समुद्र की और कौन कौन सी नदियाँ जाती है?
उत्तर- गंगो, रोहित, हरित, सीता, नारी, सुवर्णकूला और रक्ता ये सात नदिया पूर्व समुद्र में जाती है।
प्रश्न २४२ – पश्चिम समुद्र की और कौन कौन सी नदियाँ जाती है?
उत्तर- शेष सिन्धू, रोहितास्या, हरिकांता, सीतादो नारीकांता रूपयकूला और रक्तादो ये सात नदियाँ पश्चिम समुद्र को जाती है।
प्रश्न २४३ – महानदियों की सहायक नदियाँ कितनी है?
उत्तर- गंगासिंधु आदि के युगल १४ हजार सहायक नदियाँ से घिरे हुये है।
प्रश्न २४४ – सहायक नदियों का क्रम कैसा है?
उत्तर- सहायक नदियों का क्रम भी विदेह क्षेत्र तक आगे आगे के युगलो में पूर्व के युगलों से दूना दूना है। भरत हैमवत हरि इन तीन क्षेत्रो में दक्षिण तीन क्षेत्रो के समान है।
प्रश्न २४५ – उत्तर भरत के मध्य के खंड में क्या है?
उत्तर- उत्तर भरत के मध्य के खंड में एक पर्वत है। जिसका नाम वृषभ है। यह पर्वत १०० योजन ऊँचा, २५ योजन नींव से युक्त, मूल में १०० योजन मध्य में ७५ योजन और उपरिम भाग ५० योजन विस्तार वाला है, गोल है। इस भवन के ऊपर ‘ऋषभ’ नाम से प्रसिद्ध व्यन्तर देव का भवन है। उसमें जिनमन्दिर है। इस पर्वत के नीचे तथा शिखर पर वेदिका और वनखंड है। चक्रवर्ती ६ खंड को जीतकर गर्व से युक्त होता हुआ इस पर्वत पर जाकर प्रशस्ति लिखता है उस समय इसे सब तरफ से प्रशस्ततियों से भरा हुआ देखकर सोचता है कि मुझ समान अनंत चक्रवर्तियों ने य वसुधा भोगी है अत: अभिमान रहित होता हुआ दण्डरत्न ये एक प्रशस्ति को मिटाकर अपना नाम पर्वत पर अंकित करता है।
प्रश्न २४६ – भरतक्षेत्र के विस्तार कितना है?
उत्तर- भरतक्षेत्र का विस्तार ५२६ ६ १९ योजन है।
प्रश्न २४७ – आगे आगे क्षेत्र पर्वतो का विस्तार कितना है?
उत्तर- विदेह क्षेत्र तक पर्वत और क्षेत्रो का विस्तार दूना दूना है।
प्रश्न २४८ – दूना दूना विस्तार कितना है?
उत्तर- पर्वत और क्षेत्र का।
प्रश्न २४९ – क्या सभी पर्वतो व क्षेत्रो का विस्तार दूना दूना है?
उत्तर- नहीं। मात्र विदेह क्षेत्र पर्यन्त विस्तार दूना दूना है।
प्रश्न२५० – सभी कमलो पर क्या है?
उत्तर- सभी कमलो में जिनभवन है ये सब कमल पृथ्वीकायिक है।
प्रश्न२५१ – नाभिगिरि पर्वत कहाँ है?
उत्तर- हैमवत क्षेत्र बिल्कुल बीचो बीच में एक हजार योजन ऊँचा १००० योजन का विस्तार वाला सदृशगोल शब्दवान नामक नाभिगिरि स्थित है।
प्रश्न २५२ – नाभिगिरि पर्वत की ऊँचाई, मूल में इसका विस्तार बतलाओ?
उत्तर- नाभिगिरि पर्वत की १००० योजन ऊँचा, १००० योजन मूल में और ऊपर विस्तृत हे। इसका नाम श्रद्धावान है यह पर्वत है श्वेत वर्ण का ।
प्रश्न २५३ – इस पर्वत पर और क्या है?
उत्तर- इस पर्वत पर स्वाति नामक शालिनामक व्यन्तर देव का भवन जिनमन्दिर से सनाथ है। इस व्यन्तर देव की आयु १ पल्य प्रमाण है।
प्रश्न २५४ – नाभिगिरि की विशेषता बतलाइये?
उत्तर- कोई आचार्य नाभिगिरि को मध्य और ऊपर से घटता हुआ न मानकर सर्वत्र १००० योजन की मानते है।
प्रश्न २५५ – विदेह क्षेत्र कहाँ है इसका विस्तार बतलाओ?
उत्तर- निषध पर्वत के बाद इस पर्वत से दूने विस्तार वाला विदेह क्षेत्र है। ३३,६८४ योजन है।
प्रश्न २५६ – विदेह क्षेत्र के बीचोबीच सुमेरूपर्वत है उसके पर्याय नाम बतलाओ?
उत्तर- विदेह क्षेत्र के बीचोबीच जो सुमेरूपर्वत है इसके सुदर्शनमेरू मन्दरपर्वत आदि अनेको नाम है।
प्रश्न २५७ – सुमेरूपर्वत के कारण विदेह क्षेत्र कितने भागों में बट गया?
उत्तर- सुमेरूपर्वत के निमित्त से विदेह क्षेत्र के दो भे दहो गये है। पूर्वविदेह और पश्चिम विदेह। पुन: सीतानदी सी तोदो के विदेहक्षेत्र के बीचोबीच में दोना कुरूक्षेत्रो के समीप में निमित्त से पूर्वविदेह के भी दक्षिण उत्तर के भेद से दो भेद हो गये है और पश्चिम विदेह के भी सीतोदा के निमित्त से दो भेद है।
प्रश्न २५८ – सुमेरू पर्वत कहा है?
उत्तर- विदेह क्षेत्र के बीचो बीच सुमेरू पर्वत है।
प्रश्न २५९ – सुमेरू पर्वत की ऊँचाई, नींव, विस्तारादि बतलाइये?
उत्तर- सुमेरूपर्वत की ऊँचाई, पृथ्वीतल से ९९ हजार योजन ऊँचा हे। इसकी नींव पृथ्वी के नीचे १००० योजन गहरी है। इसकी चूलिका १०० योजन है।
प्रश्न २६० – सुमेरू पर्वत का भद्रसल वन के पास का विस्तार बतलाओ?
उत्तर- सुमेरूपर्वत का भद्रसाल वन के पास का विस्तार १०,००० योजन है।
प्रश्न २६१ – भद्रसाल वन से नंदनवन तक की ऊँचाई का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- भद्रसाल से नंदनवन की ऊँचाई ५०० योजन अर्थात् मेरू के ऊपर ५०० योजन जाकर नंदनवन है। इसका विस्तार ५०० योजन प्रमाण है यह नंदनवन मेरूपर्वत के चारों और भीतर भाग में अवस्थित है।
प्रश्न २६२ – नंदनवन से सौमनस वन कितनी ऊँचाई पर है प्रमाण बतलाओं?
उत्तर- नंदनवन से ६२,५०० योजन ऊपर जाकर सौमनस वन है इसका विस्तार चारों तरफ ५०० योजन है।
प्रश्न २६३ – सौमनस वन से कितनी ऊँचाई पर जाकर पांडुकवन है?
उत्तर- सौमनस वन से ३६,००० योजन ऊपर जाकर पांडुकवन है। इस पांडुकवन का विस्तार ४९४ योजन है।
प्रश्न २६४ – पाण्डुक वन के बीचोबीच में क्या है?
उत्तर- पाण्डुक वन के ठीक बीच में सुमेरू की चूलिका है।
प्रश्न २६५ – चूलिका का मूल में विस्तार, मध्य में और अग्रभाग में इसका प्रमाण बतलाओं?
उत्तर- चूलिका का मूल में विस्तार १२ योजन, मध्य में ८ योजन और अग्रभाग में ४ योजन मात्र है। यह ४० योजन ऊँची हैं।
प्रश्न २६६ – मेरूपर्वत का वर्ण बतलाइये?
उत्तर- यह पर्वत मूल में (नींव में) १००० योजन पर्यन्त वज्रमय है।पृथ्वीतल से लेकर ६१,००० योजन तक उत्तम रत्नमय है। नीलवर्णमयवैडूर्य मणिमय है। १०००+ ६१०००+ ३८०००, ४०००० १ लाख ४० हजार योजन।
प्रश्न २६७ – मेरूपर्वत की क्रम हानि रूप होता हुआ, ऊपर तक का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- यह मेरूपर्वत क्रम से हानि रूप होता हुआ पृथ्वी से ५०० योजन ऊपर उस स्थान युगपत ५०० योजन प्रमाण संकुचित हो गया है इस ५०० योजन की कटनी को ही नंदनवन कहते है।
इसके ऊपर ११ योजन तक समान विस्तार है।अर्थात् ५०० योजन के बाद अंदर में ५०० योजन की कटनी हो जाने से ११ योजन हानि का क्रम यहाँ ११,००० योजन तक नही रहा है। पुन: वही घटने का क्रम ५१,५०० योजन तक होता गया है। इस ५१,५०० योजन प्रमाण ऊपर जाने पर पुन: यह पर्वत सब और ये युगपत् ५०० योजन संकुचित हो गया है। इस कटनी का नाम सौमनस वन है।
पुनरपि इसके आगे ११,००० योजन ऊपर तक सर्वत्र विस्तार है फिर क्रम से हानि रूप होकर २५,००० योजन जाने पर वह पर्वत युगपत ४९४ योजन प्रमाण संकुचित हो गया है इस प्रकार समस्त पर्वतो का स्वामी और उत्तम देवो के आलय स्वरूप इस अनादि निधन मेरूपर्वत की ऊँचाई १ लाख ४० योजन प्रमाण है।
नींव नंदनवन समविस्तार सौमनसवन समविस्तार पांडुकवन १०००+ ५००+ ११,०००+ ५१५००+ ११०००+ २५०००= १००००० (१लाख योजन) योजन एवं इसकी चूलिका ४० योजन की है। पांडुक वन में १२ योजन व विस्तृत है क्रम से घटते हुये अग्रभाग में ४ योजन रह गई है।
प्रश्न २६८ – चूलिका का वर्णन बतलाइये?
उत्तर- इस मेरूपर्वत की चूलिका की ऊँचाई का प्रमाण ४० योजन, नीचे पांडुकवन में चौड़ाई १२ योजन, मध्य में आङ्ग योजन एवं शिखर क अग्रभाग में ४ योजन मात्र है।
प्रश्न २६९ – एक योजन कितने कोश का होता है?
उत्तर- एक योजन २००० कोश का होता है। यह महायोजन का प्रमाण है।
प्रश्न २७० – एक कोश में मिल का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- एक कोश में २ मील होते है। चूलिका के अग्रभाग का प्रमाण ४ योजन २०००= ८००० कोश ८००० *२ मील = १६००० हजार मील हुआ।
प्रश्न २७१ – मेरूपर्वत की परिधिया कितनी किसप्रकार की है बतलाओ?
उत्तर- मेरूपर्वत ६ परिधियाँ मे से प्रथमपरिधि, हरितालमयी, दूसरी वैडूर्यमणि, तीसरी सर्वरत्नमयी, चौथी वज्रमयी, पाँचवी पॉचवर्ण और छठी लोहित वर्ण है। मेरू के ये जो परिधि भेद है वे भूमि से होते है।
प्रश्न २७२ – प्रत्येक परिधि का विस्तार कितना है बतलाइये ?
उत्तर- प्रत्येक परिधि का विस्तार १६,५०० योजन है। साँतवी परिधि वृक्षो से की गई है।
प्रश्न २७३ – सांतवी परिधि के कितने भेद और कौन कौन से है?
उत्तर- सांतवी परिधि के ११ भेद है। भद्रसालवन, मानुषोत्तरवन, देवरमण, नागरमण, भूतरमण ये पॉचवनं भद्रसाल वन में है। नंदनवेन उपनंदनवन ये दो वन नंदनवन है। सौमनस वन और उपसौमनसवन ये दो वन सौमनसवन मे है। पांडुकवन, उपपांडुकवन ये दो वन पांडुक वन में है। ये सब बाह्मभाग से है।
प्रश्न २७४ – मेरूपर्वत के शिखर का विस्तार कितना है?
उत्तर- शिखर का विस्तार एक योजन और उसकी परिधि ३,१६२ योजन से कुछ अधिक है। यहाँ पांडुक वन की कटनी ४९४ योजन है अत: बीच में बचे १२ योजन जो कि चूलिका की चौड़ाई है।
प्रश्न २७५ – भद्रसाल वन कहाँ है?
उत्तर- भद्रसाल वन सुमेरूपर्वत के चारो तरफ पृथ्वीपर है।
प्रश्न २७६ – भद्रसाल वन की चौड़ाई का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- भद्रसाल वन पूर्व पश्चिम में २२००० योजन तथा दक्षिण और उत्तर में २५० योजन चौड़ा है।
प्रश्न २७७ – भद्रसाल वन की चारो दिशाओं मे क्या है?
उत्तर- भद्रसाल वन की चारो दिशाओं में ४ चैत्यालय है।
प्रश्न २७८ – भद्रसाल वन के चैत्यालय की लम्बाई, चौड़ाई और ऊँचाई का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- ये चैत्यालय १००योजन लम्बे, ५० योजन चौड़े और ७५ योजन ऊँचे है।
प्रश्न २७९ – एक चैत्यालय में प्रतिमाओं का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- एक एक चैत्यालय में १०८-१० प्रतिमायें है जो बहोत ही सुन्दर है।
प्रश्न २८० – भद्रशाल वन के बाह्य व अभ्यन्तर भाग में क्या है?
उत्तर- भद्रशाल वन के बाह्य-अभ्यन्तर दोनो पार्श्वभाग में वेदिका है जो एक योजन ऊँची और अर्धयोजन चौड़ी है।
प्रश्न २८१ – नंदनवन का विस्तार कितना है?
उत्तर- नंदनवन सर्वत्र ५०० योजन विस्तृत है।
प्रश्न २८२ – नंदनवन की चारों दिशाओं में क्या है?
उत्तर- नंदनवन की चारो दिशाओं में भद्रशाल वन के चैत्यालय सदृश चार चैत्यालय है।
प्रश्न २८३ – नंदनवन की ईशान दिशाओं में कितने कूट है उनके नाम आदि बतलाओ?
उत्तर- नंदनवन में ईशान विदिशा में एक बलभद्र नाम का कूट है। यह १०० योजन ऊँचा, १०० योजन, १०० योजन चौड़ा और ऊपर में ५० योजन विस्तृत है। नंदनवन में मंदर, निषध, हिमवान् , रजत, रूचक, सागर और वङ्का ये आठ कूट है।
ये कूट सुवर्णमियी, ५०० योजन ऊँचे, ५०० योजन मूल में विस्तृत और २५० योजन ऊपर में विस्तृत है। बलभद्र कूट में बलभद्र नाम का देव और इन कूटों में दिक्कुमारी देवियां रहती है।
प्रश्न २८४ – सौमनस वन विस्तार आदि कितना है?
उत्तर- पांडुक वन के नीचे ३६ हजार योजन जाकर सौमनस नामक वन मेरू को वेष्टित करके स्थित है। यह सौमनस वन ५०० योजन विस्तृत सुवर्णमय वेदिकाओं से वेष्टित चार गोपुरों से युक्त और क्षुद्र द्वारा से रमणीय है।
प्रश्न २८५ – सौमनस वन के जिनमन्दिर का वर्णन बतलाओं?
उत्तर- सौमनस वन की चारों ही दिशाओं में ४ जिनभवन स्थित है जिनका सारा वर्णन पूर्व में कहे गये जिनभवनों के सहश ही है अन्तर केवल इतना ही है कि ये भवन पांडुक वन के जिनभवनो के विस्तार ऊँचाई लम्बाई आदि प्रमाण से दूने प्रमाण वाले है।
प्रश्न २८६ – प्रत्येक जिनमन्दिर (सौमनस वन के) सम्बंधी कोटो के बाहर पार्श्वभागों में क्या है?
उत्तर- प्रत्येक जिनमन्दिर सम्बंधी कोटो के बाहर पार्श्वभागों में दो दो कूट स्थित है। उनके नंदन, मंदर, निषध, हिमवन् आदि उत्तम उत्तम नाम हे। इन पर स्थित भवन दिक्कुमारियों एवं अन्य एक बलभद्र कूट आदि का विस्तार वर्णन तिलोयपण्णत्ति से देखना चाहिये।
प्रश्न २८७ – पाण्डुकवन कहाँ है और उसका विस्तार बतलाइये?
उत्तर-सौमनस से ३६००० योजन ऊपर मेरू के शिखर पर पांडुकवन स्थित है। इस पांडुकवन की कटनी का विस्तार ४९४ योजन प्रमाण है।
प्रश्न २८८ – पांडुकवन की चारों दिशाओं में क्या है?
उत्तर- पांडुकवन की चारों दिशाओं में ४ मन्दिर है। चैत्यालय है।
प्रश्न २८९ – पांडुकवन की विदिशाओं में क्या है?
उत्तर- पांडुकवन की चारों विदिशाओं ४ शिलायें स्थित है उन शिलाओं के नाम क्रम से पांडुशिला, पांडुकम्बला रक्त शिला और रक्तकम्बला है।
प्रश्न २९० – पांडुकशिला का आकार लम्बाई, चौड़ाई आदि बलाओ?
उत्तर- यह पांडुकशिला अद्र्धचन्द्रमा के सदृश आकार वाली है। पूर्वपश्चिम में १०० योजन लम्बी और दक्षिण उत्तर में ५० योजन चौड़ी है इसके बहुमध्यभाग में दोनों और से क्रमश: हानि होती गई है यह शिला आठ योजन ऊँची है ऊपर समवृत आकार है वनवेदी से संयुक्त सुवर्णमयी है।
प्रश्न २९१ पांडुकशिला के मध्य में क्या है?
उत्तर- पांडुकशिला के मध्य में शरत् कालीन सूर्यमंडल की सदृश प्रकाशमान उभत सिंहासन स्थित है। इसके दोनो तरफ दिव्यरत्नों से रवचित दो भद्रासन है एक सिंहासन दो भद्रासन इन तीनों की ऊँचाई पृथक पृथक ५०० धनुष है छत्र चामर घंटाओं से शोभित एवं पूर्वाभिमुख स्थित है।
प्रश्न २९२ – पांडुकशिला को कौनसे क्षेत्र तीर्थंकर का अभिषेक कौन करता है?
उत्तर- पांडुकशिला पर सौधर्मइन्द्र भरतक्षेत्र में उत्पभ हुये तीर्थंकरो को बड़े वैभव के साथ लाकर मध्यमसिंहासन पर विराजमान करके १००८ कलशो से महान अभिषेक करते है
प्रश्न २९३ – पांडुकवन के आग्नेयदिशा में क्या है उस शिला पर किस क्षेत्र के तीर्थंकर का अभिषेक होता है?
उत्तर- पांडुकवन में आग्नेय दिशा में उत्तर दक्षिण दीर्घ और पूर्वपश्चिम में विस्तीर्ण रजतमयी पांडुक शिाला है। उसका सारा वर्णन पांडुकशिला के समान है। इस शिला पर सौधर्म इन्द्र पश्चिम विदेह के तीर्थंकरो का अभिषेक करते हैं।
प्रश्न २९४ – पांडुकवन के नैऋत्य दिशा में कहाँ कौनसी शिला आदि है?
उत्तर – पांडुकवन के नैऋत्य दिशा में रक्ताशिला नामक सुवर्णमयीशिला है जो पूर्व-पश्चिम में दीर्घ और उत्तर में विस्तृत है इसकी ऊँचाई आदि भी पांडुकशिला के सदृश है। यहाँ पर इन्द्र ऐरावत क्षेत्र में उत्यभ हुये तीर्थंकरो का अभिषेक करते है।
प्रश्न २९५ – पांडुकवन की वायव्य दिशा में कौनसी शिला है और उस पर कहाँ के तीर्थंकर का अभिषेक होता है?
उत्तर- वायव्यदिशा में उत्तर-दक्षिण दीर्घ और पूर्व पश्चिम उत्तीर्ण रक्तकंबला नामक लालवर्ण वाली शिला है इसका वर्णन भी पूर्ववत् है। इस शिला पर इन्द्र पूर्वविदेह के तीर्थंकरो का अभिषेक करते है। नंदन ओर सौमनसवन में सौधर्म इन्द्र के लोकपालो के भवन, अनेको बावड़ियाँ , सौधर्मइन्द्र की सभा आदि अनेको वर्णन है। उक्त वर्णन यहाँ संक्षेप्त मात्र किया है।
प्रश्न २९६ – विदेहक्षेत्र का विस्तार बतलाओ?
उत्तर- विदेहक्षेत्र का विस्तार ३३,६८४- ४ \१९ योजन है इस क्षेत्र के मध्य की लम्बाई १ लाख योजन (४० करोड़ मील है)।
प्रश्न २९७ – गजदंतपर्वत कहाँ कौनसी दिशा में और कितने है?
उत्तर- भद्रशालवन में मेरू की ईशान दिशा में माल्यवान, आग्नेय दिशा में महासौम नस, नैऋत्य दिशा में, विद्युतप्रभ और वायव्य दिशा में विदिशा में गंधमादन ये ४ गजदंत पर्वत है।
प्रश्न २९८ – चारों गजदंतपर्वत का विस्तार आदि कितना है?
उत्तर- दो पर्वत निषध और मेरू का तथा दो पर्वत नील और मेरू का स्पर्श करते है। ये पर्वत सर्वत्र ५०० योजन विस्तृत है। और निषध, नील के पास ४०० योजन ऊँचे हैं। तथा मेरू के पास ५०० योजन ऊँचे है। ये पर्वत ३०,२०९ ६ १\९ योजन लंबे है। सदृश आयात है।
प्रश्न २९९ – गजदंतो में निषध और नील के पास का अंतराल बताओ?
उत्तर- गजदंतो में निषध और नील के पास का अंतराल ५३,००० योजन आता है (२२,००० – ५०० =२१५०० *२ =४३००० +१०००० ५३०००)।
प्रश्न ३०० – चारों गजदंतो का वर्ण बतलाइये?
उत्तर- माल्यवान पर्वत का वर्ण वैडूर्यमणि जैसा है। महासौमनस का रत्नमय, विद्युतप्रभ का तपाये हुये सुवर्ण सदृश और गंधनाधन का सुवर्ण सदृश है।
प्रश्न ३०१ – माल्यवान पर्वत पर कितने कूट है? उनके नाम बतलाओ?
उत्तर- माल्यवान पर्वत पर नवकूट है। सिद्धकूट, माल्यवान, उत्तरकौरव कच्छ, सागर, रजत, पूर्णभिद्र, सीता और हरिसह ये ९ कूट है।
प्रश्न ३०२ – इन ९ कूटो का विस्तार आदि का प्रमाण बलताओ?
उत्तर- सुमेरू के पास का कूट सिद्धकूट है। यह १२५ योजन ऊँचा मूल में १२५ योजन विस्तृत है और ऊपर ६२ १\२ योजन विस्तृत है। अन्तिम हरिसह कूट १०० योजन ऊँचा, १०० योजन मूल में विस्तृत और उपरिमभाग में ५० योजन है। शेषकूट पर्वत की ऊँचाई के चौथाई भागप्रमाण यथायोग्य है।
प्रश्न ३०३ – माल्यवान पर्वत के ९ कूटो में सभी में जिनमन्दिर है क्या?
उत्तर- माल्यवान पर्वत के ९ कूटों में मात्र सिद्धकूट में जिनमन्दिर है शेष कूटो में देव देवियो के आवास है।
प्रश्न ३०४ – महासौमनस पर्वत के कितने कूट और उनके नाम बतलाओ?
उत्तर- महासौमनस पर्वत के ७ कूट है। सिद्ध, सौमनस, देवकुरू, मंगल, विमल, कांचन, वशिष्ठ ये सात कूट है।
प्रश्न ३०५ – विद्युत् प्रभ के ९ कूटो के नाम बतलाओ?
उत्तर- सिद्ध, विद्युत् प्रभ, देवकुरू, पभ, तपन, स्वस्तिक, शतन्वाल, सीतोदा और हरिकूट ये विद्युत् प्रभ पर्वत के ९ कूट है।
प्रश्न ३०६ – गंधमादन के ७ कूटो के नाम बतलाओ?
उत्तर- सिद्ध, गंधमादन, उत्तरकुरू, गंधमालिनी, लोहिता, स्फटिक और आनंद ये सात कूट है।
इनमें सिद्धकूटों में जिनमन्दिर शेष में यथायोग्य देव देवियो के आवास है चारो के सिद्धकूट १२५ योजन ऊँचे एवं अंत के कूट १०० योजन ऊँचे है शेष अपने अपने पर्वतो की ऊँचाई के चातुर्थ भाग प्रमाण ऊँचे है।
प्रश्न ३०७ – बत्तीस विदेहो किस प्रकार होते है?
उत्तर- मेरू की पूर्वदिशा में पूर्वविदेह और पश्चिम दिशा में पश्चिम विदेह है, पूर्व विदेह के बीच में सीता नदी है तथा पश्चिम विदेह के बीच में सीतोदा नदी है। इन दोनों नदियों के दक्षिण उत्तर तट होने से चारविभाग हो जाते है। इन एक एक विभाग ८-८ विदेह है। पूर्व पश्चिम में भद्रशाल वेदी है, उसके आगे वक्षारपर्वत, उसके आगे विभंगानदी, उसके आगे वक्षारपर्वत, उसके आगे विभंगानदी उसके आगे पक्षारपर्वत, उसके आगे विभंगानदी, उसके आगे वक्षार पर्वत उसके आगे देवारण्य और भूतारणय की वेदी ये नव हुये। इन नौ के बीच में ८ विदेह देश है। इस प्रकार सीता सीतोदा के दक्षिण उत्तर तट सम्बंधी बत्तीस विदेह हो जाते है।
प्रश्न ३०८ – १६ वक्षारपर्वत और १२ विभंगानदी के नाम बतलाओ?
उत्तर- सीतानदी के उत्तरतट में भद्रसाल वेदी से लेकर आगे क्रमसे चित्रकूट, पभकूट नलिनकूट और एक शैल ये चार वक्षारपर्वत है। गाधवती, द्रहवती पंकवती ये तीन विभंगानदियाँ है। सीतानदी के दक्षिणतट में पर देवारण्य वेदी से लगाकर क्रम से त्रिकूट, वैभवण, अंजनात्मा, और अंजन ये चार वक्षार पर्वत है। और तृत्तजला, मत्तजला, उन्मत्तजला, ये तीन विभंगानदियाँ है।
पश्चिम विदेह की सीतोदा नदी के दक्षिणतट में भद्रसाल वेदी से लगाकर क्रम से श्रद्धावान् विजटावान, आशीविष, सुखावह ये चार वक्षार और क्षीरोदा, सीतादो, स्रोतोवाहिनी ये तीन विभंगा नदियाँ है। इसी पश्चिम विदेह की सीतादो नदी के उत्तरतट में देवारण्य की वेदी से लगाकर क्रम से चंद्रमाल,सूर्यमाल, नागमाल, देवमाल ये ४ वक्षारपर्वत है। गंभीरमालिनी, फेनमालिनीख् उर्मिमालिनी ये तीन विभंगानदियाँ है।
प्रश्न ३०९ – वक्षारपर्वत का वर्ण और उनका विस्तार आदि बताओ?
उत्तर- ये वक्षारपर्वत सुवर्णमय है। प्रत्येक वक्षारपर्वत का विस्तार ५०० योजन, और लम्बाई १६,५९२ – २ १९ योजन तथा ऊँचाई निषध नील पर्वत के पास, ४०० योजन एवं सीता सीतोदा नदी के पास ५०० योजन है।
प्रश्न ३१० – प्रत्येक वक्षारपर्वत पर कितने कूटादि है?
उत्तर- प्रत्येक वक्षार पर चार चार कूट है। नदी के तरफ के कूट सिद्धकूट है उन पर जिन चैत्यालय है। बचे तीन तीन कूटो में से एक एक कूट वक्षारपर्वत के नाम के है। एवं दो दो कूट अपने अपने वक्षार के पूर्व-पश्चिमपार्श्व के दो विदेह देशो के जो नाम है वे ही नाम है। यथा चित्रकूटवक्षार के ऊपर सिद्धकूट, चित्रकूट, कच्छा, सुकच्छा ये नामधारक कूट है।
प्रश्न ३११ – विभंगानदियों का प्रमाण बतलाइये?
उत्तर- ये नदियाँ निषध नील पर्वत की तलहटी के पास कुंड से निकलती है अपने अपने कुंड के पास उत्यत्ति स्थान में ५० कोस (५०,०००) मील तथा सीता सीतादो नदियों के पास प्रवेशस्थान में ५०० कोस (५,००००० मील) प्रमाण है इन नदियों की परिवार नदियाँ २८-२८ हजार है।
प्रश्न ३१२ -दैवारण्य भूसारण्य वन कहाँ पर तथा वर्णविस्तार बतलाओ?
उत्तर- पूर्वविदेह के अंत में जम्बूद्वीप की जगती के पास सीतानदी के दोनों किनारो पर रमणीय देवारण्य वन स्थित है, अपर विदेह के अंत में जम्बूद्वीप की जगती के पास सीतोदा नदी के दोनो किनारो पर भूतारण्य वन है।
देवारण्य और भूतारण्य का विस्तार पृथक पृथक २९२२ योजन प्रमाण है। इस देवारण्यवन में सुवर्ण रत्न चाँदी से निर्मित, वेदीतोरण, ध्वज पताकादिकों से मंडित विशाल प्रसादस है इन प्रसादो में उपपाद शय्या, अभिषेक गृह क्रीड़न शाला जिनभवन आदि विद्यमान है। यहाँ के प्रसादो से ईशानेन्द्र के परिवार देव बहुत प्रकार से क्रीड़ा करते रहते है। ऐसी ही सम्पूर्ण वर्णन भूतारण्य का भी समझना चाहिये ।
प्रश्न ३१३ – विदेह के बत्तीस देशो के नाम तथा उनका स्थान बतलाओ?
उत्तर- सीता नदी के उत्तर तट में भद्रसाल से लगाकर कच्छा सुकच्छा, महाकच्छा कच्छकावती, आवर्ता, लांगलावर्ता, पुष्कत्ठा पुष्कलवती ये आठ देश है।
सीतानदी के दक्षिण तट में देवारण्यवेदी से इधर क्रम से वत्सा, सुवत्सा, वत्सकावती, रम्या, सुरम्या रमणीय मंगलावती ये आठ देश है।
सीतोदानदी के दक्षिण तट में भद्रसाल वेदी के आगे क्रम से पभा, सुपभा, महापभा, पभमकावती, शंखा, नलिनी, कुमुद सरति ये आठ देश है।
सीतोदा नदी के उत्तर तट में देवारण्य वेदी से लेकर क्रम से व्रपा, सुव्रपा, महाव्रपा , वप्रकावती, गंधा, सुगंधा गंधिला गंधमालिनी ये आठ देश है।
प्रश्न ३१४ – एक एक देश के ६ खंड खंड कैसे हो गये?
उत्तर- प्रत्येक देश में एक विजयार्ध और दो नदियों के निमित्त से छह छह खंड हो जाते है। इनमें एक आर्यखंड और पाँच म्लेच्छ खंड कहलाते है।
प्रश्न ३१५ – इन आर्यखण्डो में क्या है?
उत्तर- पूर्व कच्छादि देशो की मुख्य मुख्य राजधानी इन आर्यखण्डो में है। कच्छादि देश की राजधानियों के नाम, क्षेमा, क्षेत्रपुरी, अरिष्टा अरिपुरी है।
प्रश्न ३१६ – विदेह देश के ५ म्लेच्छखंडो में क्या है?
उत्तर- विदेह देश के ५ म्लेच्छ खंडो में से मध्य के म्लेच्छ खंड में एक एक वृषभाचक पर्वत है। अत: विदेह के ३२ वृषभाचल हो गये है। इन पर वहाँ के चक्रवर्ती अपनी अपनी प्रशस्तियाँ लिखते है। वहाँ विदेह की गंगा सिंधु और रक्ता रक्तादो को परिवार नदियाँ भी १४-१४ हजार है।
प्रश्न ३१७ – आर्यखण्ड की विशेषता बतलाओ?
उत्तर- कच्छादेश के अंतर्गत आर्यखंड में क्षेमा नामक नगरी है इस नगरी में चक्रवर्ती, तीर्थंकर बलदेव वासुदेव, प्रसिवासुदेव आदि महापुरूष उत्पभ होते रहते है। अष्टप्रतिहार्यो से सहित चक्रवर्तियों से नमस्कृत तीर्थंकर देव के समवशरण, सप्तऋद्धि सम्पन्न गणधर सतत ही भव्यजनों को मोक्ष का उपदेश देते रहते है। शरीर की अवगाहना पाँच सौ धनुष है। एवं वहाँ के मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु कोटि पूर्व प्रमाण है। विदेह क्षेत्र में तीन ही वर्ण होते है। क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण है। परकचक्र की नीति, अतिवृष्टि, अनावृष्टि से रहित इन देशो में शिव ब्रह्मा विष्णु बुद्ध आदि के मन्दिर नहीं है।
प्रश्न ३१८ – यमकगिरि किसे कहते है वह कहाँ है और उनका प्रमाण बतलाइये?
उत्तर- नीलपर्वत से मेरू की तरफ आगे हजार योजन जाकर सीता नदी के पूर्वतट पर ‘चित्र’ और पश्चिम तट पर ‘विचित्र’ नामक के दो पर्वत है। ऐसे ही निषध पर्वत से मेरू की तरफ आगे हजार जाकर सीतादो के पूर्व तट पर ‘यमक’ और पश्चिम तट पर ‘मेघ’ नामक दो पर्वत है। इन चारों को यमकगिरि कहते है।
ये चारों पर्वत गोल है। इन चित्र, विचित्र के मध्य में ५०० योजन का अंतराल है। उस अंतराल में सीतानदी है। ऐेसे ही यमक और मेघ पर्वत के मध्यभाग में ५०० योजन के अंतराल में सीतादो नदी है।
पर्वतो का प्रमाण- ये पर्वत १ हजार योजन ऊँचे मूल में १००० योजन विस्तृत और ऊपर में ५०० योजन विस्तृत है। इन पर्वतो पर अपने अपने पर्वत के नामवाले व्यन्तर देवो के भवन है।
प्रश्न ३१९ – सीता- सीतोदानदी के २० सरोवर किसप्रकार है?
उत्तर- ययकगिरि जहाँ पर है वहाँ से ५०० योजन जाकर सीता सीतोदो नदी में पाँच पाँच सरोवर है।अर्थात् देवकुरू उतरकुरू, भोगभूमि के दो क्षेत्र है और पूर्व पश्चिम भद्रसाल के दो क्षेत्र है उनमें ५-५ सरोवर है।
प्रश्न ३२० – २० सरोवर की लम्बाई व चौड़ाई का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- सरोवर नदी चौड़ाई प्रमाण चौड़े और १००० योजन लम्बे है। इनकी चौड़ाई ५०० योजन है। इन सरोवर की लम्बाई चौड़ाई नदी के प्रवाह में है।
प्रश्न ३२१ – इन सरोवर के मुख्यकमल तथा परिवार कमलो की संख्या व विस्तार का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- इन सरोवर में मुख्य कमल एक एक है वे एक एक योजन विस्तृत है। शेष परिवार कमल १़ ४०, ११५ है। सभी सरोवर में परिवार कमलों की इतनी ही संख्या है।
प्रश्न ३२२ – इन कमलों पर कौन निवास करती है?
उत्तर- इन कमलो पर नागकुमारी देवियाँ अपने अपने परिवार सहित सहित रहती है। विशेष – ये सरोवर नदी प्रवेश करने और निकलने के द्वार से सहित है। नदी प्रवाह के बीच में इन सरोवरों की तटवेदियाँ बनी हुई है।
इन सभी कमलों में जिनभवन हैं ये सब कमल पृश्वीकायिक है।
प्रश्न ३२३ – कांचनगिरि कहाँ पर और कितने है?
उत्तर- बीस सरोवर के तटों पर पंक्तिरूप से पाँच पाँच कांचनगिरि है। एक तट सम्बंधी २०*५ =१०० दूसरे तट सम्बंधी २०* ५= १०० ऐसे १०० +१०० २०० कांचनगिरि है।
प्रश्न ३२४ – कांचनगिरि पर्वतों की ऊँचाई मूल में व ऊपर विस्तार बतलाओ?
उत्तर- कांचनगिरि पर्वत १०० योजन ऊँचे, मूल में १०० योजन विस्तृत और ऊपर में ५० योजन विस्तृत है।
प्रश्न ३२५ – कांचनगिरि पर्वत पर कौन निवास करते है?
उत्तर- इन पर्वतो के ऊपर अपने अपने पर्वत के नाम वाले देवो के भवन है। इनमें रहने वाले देव तोते के वर्ण वाले है। देवो के भवन के द्वार सरोवरो के सम्मुख है अत: ये सरोवर अपने अपने सरोवर के सन्मुख कहलाते है।
विशेष- सरोवर से आगे २०९२-२\१६ योजन जाकर नदी के प्रवेश करने के द्वार से सहित दक्षिण भद्रसाल और उत्तरभद्रसाल की वेदिका है अर्थात् अन्तिम सरोवर और भद्रसाल की वेदी का इतना अंतराल है।
प्रश्न ३२६ – दिग्गज पर्वत कहाँ है?
उत्तर- देवकुरू – उत्तरकुरू, भोगभूमि में और पूर्व पश्चिम भद्रसाल में महानदी सीता- सीतोदो है। उनके दोनों तरफ पर दो- दो दिग्गजेन्द्र पर्वत है ये पर्वत आठ है।
प्रश्न ३२७ – दिग्गज पर्व की ऊँचाई, मूल में, ऊपर भाग का प्रमाण बतलाइये?
उत्तर- दिग्गज पर्वत १०० योजन ऊँचे, मूल में १०० योजन विस्तृत, और ऊपरभाग में ५० योजन प्रमाण है।
प्रश्न ३२८ – दिग्गज पर्वतो के नाम, तथा उन पर्वतों पर कौन निवास करता है?
उत्तर- पूर्व भद्रसाल में पद्मोत्तर नील, देवकुरू में स्वस्तिक, अंजन, पश्चिम भद्रपाल में कुमुद, पलाश, उत्तरकुरू में अवतंस और रोचन ये नाम है। उन पर्वतो पर दिग्गजेन्द्र देव रहते है।
प्रश्न ३२९ – देवकुरू कहाँ है?
उत्तर- मंदरपर्वत के दक्षिण भाग में स्थित, भद्रसाल वनवेदी से दक्षिण में, निषध से उत्तर विद्युत प्रभ के पूर्व और सौमनस के पश्चिम भाग में सीतोदो के पूर्व-पश्चिम किनारों पर देवकुरू स्थित है।
प्रश्न ३३० – देवकुरू क्षेत्र की लम्बाई व विस्तार बतलाओ ?
उत्तर- मेरू की दक्षिण दिशा में भद्रसाल वेदी के पास उस क्षेत्र की लम्बाई ५३,००० योजन प्रमाण कही गई है। मेरू की दक्षिण दिशा में श्रीभद्रसाल वेदी के पास उस क्षेत्र की लम्बाई ८,४३४ योजन प्रमाण है। इस क्षेत्र का विस्तार उत्तर-दक्षिण में ११ ५९२ – २ \१७ योजन प्रमाण है। दोनों गजदन्तो के समीप में इसका विस्तार वक्र रूप से २५,९९१ योजन है।
प्रश्न ३३१ – देवकुरू की विशेष व्यवस्था बतलाओ ?
उत्तर- देवकुरू में शाश्वत रूप उत्तमभोगभूमि की व्यवस्था है। यहाँ की भूमिधूलि, कंटक हिम आदि से रहित है। यहाँ पर विकलत्रय जीव नहीं रहते है।यहाँ पर युगलरूप से उत्पन्न हुये स्त्रीपुरूष चौथे दिन बैर के प्रमाण आहार ग्रहण करते है। स्त्री-पुरूषों के शरीर की ऊँचाई तीन कोश तथा आयु ३ पल्य प्रमाण होती है। उत्तम संहनन से युक्त इन मनुष्यो के मल मूत्र नहीं होता है। वहाँ के भोगभूमियाँ मनुष्य अकाल मरण से रहित होते हुये आयु पर्यन्त उत्तम सुखों का उपभोग करते है। ये चक्रवर्ती की अपेक्षा, अनंतगुणे सुखों का अनुभव करते है।
प्रश्न ३३२ – उत्तम भोगभूमि कितने प्रकार के कल्पवृक्ष है उनका स्वरूप बतलाओ ?
उत्तर- उत्तमभोगभूमि में १० प्रकार के कल्पवृक्ष होते है। जो इच्छित फल को दिया करते है। पानांग, तूर्यांग, भूषणांग, वस्त्रांग, भोजनांग आलयांग, दीपांग, भाजनांग मालांग और ज्योतिरांग ऐसे कल्पवृक्षो के १० भेद है। ये कल्पवृक्ष यथा नाम वाले फलों को प्रदान करते है। पानांग वृक्ष ३२ प्रकार के पेय पदार्थो को प्रदान करते है। तूर्यांग- वीणा आदि वाद्यो को देते है। भूषणांक- कंकण हार आदि । वस्त्रांग- उत्तमवस्त्रो को , भोजनांग- अनेकप्रकार के भोज्यपदार्थो को आलयांग- दिव्यभवको दीपांग जलते हुये दीपको को, भाजनांग झारी आदि कलशो को देते है। मालांग वृक्ष पुष्पो की मालाओ को देते है। ज्योतिरांग वृक्ष करेड़ो सूर्यो से अधिक कामिन शालीवंद्र सूर्य की कांसि का संहरण करते है। ये कल्पवृक्ष पृथ्वीकायिक होते हुये भी जीवों के पुण्यकर्म के फल को देते है।
प्रश्न ३३३ – उत्तरकुरू कहाँ है ?
उत्तर- मंदरपर्वत के ऊपर उत्तरनील पर्वत के दक्षिण, माल्यवान, गजदंत के पश्चिम और गंधमानधन के पूर्व में सीता नदी के दोनो किनारो पर भोगभूमि इसप्रकार से विख्यात रमणीय उत्तरकुरूक्षेत्र नामक क्षेत्र है। इसका सम्पूर्ण वर्णन देवकुरू के वर्णन के समान है।
प्रश्न ३३४ – जम्बूवृक्ष कहाँ पर है ?
उत्तर-मेरूपर्वत के ईशानकोण में सीतानदी के पूर्वतट पर नीलपर्वत के पास में सुवर्णमय जम्बूवृक्ष का स्थल है।
प्रश्न ३३५ – जम्बूवृक्ष का विशेषवर्णन बतलाइये ?
उत्तर- जम्बूस्थल के ऊपर सब और आधा योजन ऊँची १ १६ योजन, विस्तृत रत्नों से व्याप्त एक वेदिक है। ५०० योजन विस्तार वाले और मध्य में ८ योजन तथा अन्त में दो कोस मौटाई से संयुक्त उस सुवर्णमय उत्तमस्थल के ऊपर मूल में मध्य में और ऊपर यथाक्रम से १२ योजन ८ योजन, ४ योजन, विस्तृत, तथा ८ योजन ऊँची जो पीठीका है उसकी १२ पभवेदिकाये हैं।
प्रश्न ३३६ – पीठीका के मध्यभाग में जम्बूवृक्ष है, उसकी ऊँचाई आदि का प्रमाण बतलाइये ?
उत्तर- इस पीठीका परू बहु मध्यभाग में जम्बूवृक्ष है। यह ८ योजन ऊँचा है इसकी वज्रमय जड़ दो कोस, गहरी है इस वृक्ष का दो कोस मोटा, दो योजनमात्र ऊँचा स्कन्ध है। इस वृक्ष की चारों दिशाओं में महाशाखाये है।
प्रश्न ३३७ – जम्बूवृक्ष की महाशाखायें में प्रत्येक शाखा की लम्बाई व अन्तर का प्रमाण बतलाओ ?
उत्तर- इनमें से प्रत्येक शाखा ६ योजन लम्बी है। और इतने मात्र अन्तर से सहित है। इनके सिवाय क्षुद्रशाखाये अनेको है।
प्रश्न ३३८ – क्या जम्बूवृक्ष वनस्पतिकायिक है ?
उत्तर- जम्बूवृक्ष पृथ्वीकायिक है। जामुन के वुक्ष के समान इनमें गोल फल लटकते है अत: यह जम्बूवृक्ष कहलाता हैं।
प्रश्न ३३९ – जम्बूवृक्ष की ऊँचाई, चौड़ाई आदि बताओ ?
उत्तर- जम्बूवृक्ष १० योजन ऊँचा, मध्य में ६- १ १४ योजन चौड़ा और ऊपर ४ योजन चौड़ा है।
विशेष- सुमेरू के उत्तरभाग में उत्तरकुरू भोगभूमि है इसमें अर्थात् मेरू ईशानदिशा में स्थित जम्बूवृक्ष और उसकी १२ पभवेदिकायें है।
प्रश्न ३४० – शाखाओं पर जिनमन्दिर कहाँ है?
उत्तर- जम्बूवृक्ष की उत्तरदिशा सम्बंधी, नील कुलाचल की तरफ जो शाखा है उस शाखा पर जिनमन्दिर है। शेष तीन दिशाओं के शाखााओं पर आदर अनादर नामक व्यन्तर देवों के भवन है।
प्रश्न ३४१ – इस मुख्यवृक्ष के चारो तरफ क्या है?
उत्तर- इस मुख्यवृक्ष के चारों तरफ जो १२ पद्मवेदिकायें बताई है उनमें प्रत्येक में चार चार तोरण द्वार है। उनमें इस जम्बूद्वीप के परिवार वृक्ष है।
प्रश्न ३४२ – परिवारवृक्ष की कितनी संख्या है?
उत्तर- परिवार वृक्ष की संख्या १,४०,११९ है। इनमें चार देवांगनाओं के ४ वृक्ष अधिक है। अर्थात् पद्मद्रह के परिवार की संख्या १,४०,११५ है। यहाँ ४ देवांगनाये अधिक है। परिवार वृक्षो का प्रमाण मुख्यवृक्षों से आधा आधा है।
प्रश्न ३४३ – शाल्मलिवृक्ष कहाँ है?
उत्तर- सीतोदो नदी के पश्चिम तट में निषध कुलाचल के पास मेरूपर्वत नैऋत्यदिशा में देवकुरू क्षेत्र में रजतमयी स्थल पर शाल्पलिवृक्ष है। इसका सारा वर्णन जम्बूवृक्ष के समान है।
प्रश्न ३४४ – शाल्मलिवृक्ष पर जिनमन्दिर कहाँ है?
उत्तर- शाल्मलिवृक्ष की दक्षिण शाखा पर जिनमन्दिर हैै। शेष तीन शाखाओं पर वेणु वेणुधारी देवो के भवन है। इसके परिवार वृक्ष भी पूर्वोक्त प्रमाण है। विशेष- जितने जम्बूवृक्ष और शाल्मलिवृक्ष है, प्रत्येक की शाखाओं पर एक एक जिनमन्दिर होने से उतने ही जिनमन्दिर है।
प्रश्न ३४५ – रम्यक क्षेत्र का वर्णन कीजिये?
उत्तर- रम्यक क्षेत्र का सारा वर्णन हरिक्षेत्र के सदृश है। यहाँ पर नीलपर्वत के केसरी सरोवर के उत्तर तोरण द्वार से नरकांता नदी निकली है और रूक्मि पर्वत के महापुंडरीक सरोवर से दक्षिण तोरण द्वार से नारी नदी निकली है। ये नदियाँ नारी- नरकांताकुंड में गिरती है। यहाँ के नाभिगिरि का नाम पद्ममवान है। यहाँ पर पद्मनाम का व्यन्तर देव निवास करता है।
प्रश्न ३४६ – हैरण्यवातक्षेत्र का वर्णन कीजिये?
उत्तर- इस हैरण्यवतक्षेत्र का वर्णन हैमवतक्षेत्र के समान है। यहाँ पर रूक्मिपर्वत के महापुण्डरीक सरोवर के उत्तर तोरणद्वार से रूप्यकूला नदी एवं शिखरीपर्वत के पुण्डरीक सरोवर से दक्षिण तोरणद्वार से सुवर्णकूलानदी निकलती है। यहाँ पर नाभिगिरि का गंधवान नाम है। उस पर प्रभास नाम का देव रहता है।
प्रश्न ३४७ – ऐरावतक्षेत्र का वर्णन कीजिये?
उत्तर- रक्ता रक्तोदानदी इस ऐरावतक्षेत्र का सारा वर्णन भरतक्षेत्र के समान है। इसमें बीच में विजयार्धपर्वत है। उस पर नवकूट है। सिद्धकूट, उत्तरार्ध ऐरावत, समिस्रगुह, माणिभद्र, विजयार्धकुमार, पूर्णभद्र, खंडप्रपात, दक्षिणार्थ, ऐरावत, और वैभवण। यहाँ पर शिखरी पर्वत से पुंडरिक सरोवर के पूर्व पश्चिम तोरणद्वार से रक्ता रक्तोदा नदियाँ निकलती है। जो कि विजयार्ध की गुफा से निकलकर पूर्व-पश्चिम् समुद्र में प्रवेश कर जाती है। अत: यहाँ पर भी छहखंड है। उसमें भी मध्य का आर्यखंड है। इसप्रकार संक्षेप्त से ७ क्षेत्रों का वर्णन हुआ।
प्रश्न ३४८ – जम्बूद्वीप के ३११ पर्वत कौन कौन से है?
उत्तर-इस जम्बूद्वीप में ३११ पर्वत है। जिनमें एक मेरू, ६ कुलाचल, चारगजदंत, १६ वक्षार, ३४ विजयार्ध, ३४ वृषभाचल चार नाभिगिरि, ४ यमकगिरि, आठ दिग्गजेन्द्र और २०० कांचनगिरि है- १+ ६+ ४+ १६+ ३४+ ३४+ ४+ ४+ ८+२००+ ३११
प्रश्न ३४९ – जम्बूद्वीप के ३११ पर्वत कहाँ है?
उत्तर- एक सुमेरूपर्वत विदेह के मध्य में हैं।
६ कुलाचल- सात क्षेत्रों की सीमा करते है।
४ गजदंत मेरू की विदिशा में।
१६ वक्षार विदेहक्षेत्र में हैं।
३४ विजयार्ध ३२ विदेह में, दो विजयार्ध, भरत और ऐरावत में एक एक है।
३४ वृषभाचल ३२ विदेह के ३२ भरत व ऐरावत में एक एक है।
४ नाभिगिरि- हैमवत हरि तथा रम्यक और हैरण्यवत में इनमें एक एक नाभिगिरि इसलिये ४ नाभिगिरि ।
४ यतकगिरि- सीता नदी के पूर्व पश्चिमतट पर एक एक ऐसे ४ यमक गिरि है।
८ दिग्ग-देवकुरू, उत्तरकुरू में दो-दो, तथा पूर्वपश्चिमभद्रशाल में दो दो ऐसे आठ दिग्गज पर्वत ।
२०० कांचनगिरि- सीता सीतोदा के बीच, बीस सरोवरों में प्रत्येक सरोवर के दोनों तटो पर पाँच पाँच होने से दो सौ कांचनगिरि है।
प्रश्न ३५० – जम्बूद्वीप के १८ चैत्यालय कौन कौन से है?
उत्तर- सुमेरू के ४ वन सम्बंधी १६, कुलाचल के ६, गजदंत के ४, वक्षार के १६, विजयार्ध के ३४ ७३ ऐसे जिनमन्दिरो में जम्बूशाल्मलि के वृक्ष के २ मन्दिर लेने से ७८ जिनमन्दिर होते है। ये सब जिनमन्दर अकृतिम है। शेष पर्वतो के ऊपर देवभवनों में भी जिनमन्दिर है वे व्यन्तर देवो के जिनमन्दिर कहलाते है। उक्त ७८ जिनमन्दिर में प्रत्येक में १०८-१०८ जिनप्रतिमायें विराजमान है। उनको मेरा मन वचन काय से नमस्कार होवे।
प्रश्न ३५१ – जंबूद्वीप की सम्पूर्ण नदियाँ कितनी है और कहाँ कहाँ है?
उत्तर- भरतक्षेत्र की गंगा-सिंधू २ इनकी महायकनदियाँ २८०००- (१४०००* ८२८०००) हेमवतक्षेत्र की, रोहित –रोहितास्या २ इनकी सहायक नदियाँ – ५६,००० हरिक्षेत्र की, हरित-हरितकान्ता २ इनकी सहायक नदियाँ – १,१२००० (५६०००) विदेहक्षेत्र की, सीतासीतादो २ इनकी सहायक नदियाँ – १,६८०००- (८४००० *२) विभंगानदी १२, इनकी सहायक नदीयाँ ३,३६००० (२८०००* १२) ३२ विदेहो देशो की गंगा- सिंधू और रक्ता- रक्तादो नाम की ६४ इनकी सहायक नदियाँ ८,९६,००० (१४००० ६४)
रम्यक क्षेत्र की नारी नरकांता २ इनकी सहायक नदियाँ १,१२००० हिरण्यक्षेत्र की – सुवर्णकूला, रूप्यकूला २ इनकी सहायक नदियाँ ५६००० है। ऐरावत क्षेत्र की – रक्ता रक्तोदा २ इनकी सहायक नदियाँ २८००० *१७,७२०९० ( ९६ लाख बानवेहजार नब्बे है)
प्रश्न ३५२ – ३४ कर्मभूमियाँ कौन सी है?
उत्तर- भरतक्षेत्र और ऐरावतक्षेत्र की एक एक कर्मभूमि तथा ३२ विदेहो के आर्यखंड की ३२ कर्मभूमियाँ ऐसे ३४ कर्मभूमि है।
प्रश्न ३५३ – जम्बूद्वीप की भोगभमियाँ कहाँ है और भी उनकी विशेषता बतलाइये?
उत्तर- हैमवत और हैरण्यवत में जघन्य कर्मभूमि की व्यवस्था है। वहाँ पर मनुष्यो की शरीर की ऊँचाई एक कोस है, एक पल्य आयु है और युगल ही जन्म लेते है युगल ही मरते है १० प्रकार के कल्पवृक्ष से भोग सामग्री प्राप्त करते है। हरिवर्ष क्षेत्र में और रम्यक क्षेत्र में मध्यमभोगभूमि की व्यवस्था है। वहाँ पर दो कोस ऊँचे, दो पल्य आयु वाले मनुष्य होते है ये भी भोग सामग्री को कल्पवृक्षो से प्राप्त करते है।
देवकुरू उत्तरकुरू क्षेत्र में उत्तमभोगभूमि की व्यवस्था है। यहाँ पर तीन कोेस ऊँचे, तीनपल्य की आयु वाले मनुष्य होते है। ये छहों भोगभूमियाँ शाश्वत् है यहाँ पर परिवर्तन कभी नहीं होता है।
प्रश्न ३५४ – चौतीस आर्यखंड कहाँ है?
उत्तर- एक भरत में, एक ऐरावत में और ३२ विदेह देशों में बत्तीस ऐसे आर्यखंड ३४ है।
प्रश्न ३५५ – चौतीस आर्यखंड कहाँ है?
उत्तर- एक भरत में, एक ऐरावत में और ३२ विदेह देशों मे बत्तीस ऐसे आर्यखंड ३४ है।
प्रश्न ३५६ – एक सौ सत्तर म्लेच्छखंड कहाँ है?
उत्तर- भरत क्षेत्र के ५ ऐरावतक्षेत्र के ५, और बत्तीस विदेह के प्रत्येक ५ +५ +(३५ *५) =१७० म्लेच्छखंड है।
प्रश्न ३५७ – वेदी और वनखंड कहाँ है?
उत्तर- जम्बूद्वीप में ३११ पर्वत है। उनके आजु-बाजू या चारोतरफ मणिमयी वेदिया और वनखंड है।
प्रश्न३५८ – प्रमुख ९० कुं ड कौनसे है?
उत्तर- गंगादि १४ नदियाँ जहाँ गिरती है। वहाँ के १४ विभंगानदियों के १२ विदेह गंगादि रक्तादि ६४ नदियों की उत्पत्ति के ६४ ऐसे १४ १२ ६५ ९० कुंड है। उनके चारों तरफ उतनी ही वेदी और वनखंड है।
प्रश्न ३५९ – २६ सरोवर है कौनसे ?
उत्तर- कुलाचल के ६ सीता सीतोदा के २० २६। इनके चारों तरफ ही वनखंड है। जितनी नदियाँ है उनके दोनों पाश्र्वभागों में अर्थात् १७,९२०९० २ ३५,८४१८० मणिमयी वेदिका है। और उतने ही वनखंड है।
प्रश्न २६१- कहे गये कूटो में जनमन्दिर कौनसे कूट में है?
उत्तर- ६ कुलाचल में एक एक सिद्धकूट, ४ गजदंत के एक एक सिद्धकूट १६ वक्षार के एक एक सिद्धकूट, ३४ विजयार्ध के एक एक सिद्धकूट ६ ४ १६ ३४ ६० ऐसे ६० सिद्धकूटो पर जम्बूद्वीप के ७८ जिनमन्दिर मे से ६० जिनमन्दिर है। शेष सभी कूटो पर देवभवनो के जिनमन्दिर है। उनकी गणना व्यन्तर देवो के मन्दिर में होती है। इन्ही ६० जिनमन्दिरों में सुमेरू के १६, एवं जम्बूवृक्ष, शाल्मलीवृक्ष के २ मिलाने से ७८ जिनमन्दिर जम्बूद्वीप के होते है।
प्रश्न ३६० –जम्बूद्वीप के ७८ चैत्यालय कौन कौन से है?
उत्तर- सुमेरू के चारवन सम्बंधी १६ ६ कुलाचल के ६ चारगंजदंत के ४ १६ वक्षार के सोलह चौतीस विजयार्ध के ३४ जंबू-शाल्मलीवृक्ष के २ ७८ ये जम्बूद्वीप के ७८ चैत्यालय है। इनमें प्रत्येक में १०८-१०८ जिनप्रतिमायें विराजमान है।उनका मेरा मन वचन काय से मेरा नमस्कार होवे।
प्रश्न ३६१ – यह भरतक्षेत्र कितना योजन प्रमाण है?
उत्तर- यह भरतक्षेत्र जम्बूद्वीप के १९० वें भाग ५२६ ६\ १९ योजन प्रमाण है। इसके ६ खंड में पूम्लेच्छ खंड व १ आर्य खंड है।
प्रश्न ३६२ – आर्यखंड का क्षेत्रफल का प्रमाण कितने योजन व मिल प्रमाण है?
उत्तर- आर्यखंड का क्षेत्रफल ४ लाख ७६ हजार योजन प्रमाण है। इसके मिल बनाने से ४,७६०००* ४०००= १९०,४०,००,००० (२००० कोस का १ महायोजन और १ कोश में रमील इसलिये कुल ४००० हजार) एक सौ नब्बे करोड़ ४० लाख मील प्रमाण क्षेत्र हो जाता है।
प्रश्न ३६३ – इस आर्यखण्ड के मध्य में और चारों दिशाओं में क्या है?
उत्तर- इस आर्यखण्ड के मध्य में अयोध्या नगरी है। इस अयोध्या के दक्षिण ११९ योजन की दूरी पर लवण समुद्र की वेदी है। उत्तर की तरफ ११९ योजन की दूरी पर विजयार्ध पर्वत की वेदिका है। अयोध्या के पूर्व १००० योजन दूरी पर गंगानदी की तट वेदी हे। पश्चिम दिशा सिंधूनदी है अथात् आर्यखंड के दक्षिण दिशा में लवणसमुद्र, उत्तरदिशा में विजयार्ध, पूर्व दिशा में गंगानदी एवं पश्चिम में सिंधू नदी है। ये चारो आर्यखंड की सीमारूप है।
प्रश्न ३६४ – आर्यखंड की चारो दिशाओं में लवणसमुद्र आदि का प्रमाण कितना है?
उत्तर- अयोध्या के दक्षिण में ४,७६००० मील जाने पर लवणसमुद्र है और उत्तर में ४७६००० मील जाने पर विजयार्ध पर्वत है। उसीप्रकार अयोध्या के पूर्व में ४०,००००० ४०,००००० लाख मील दूर गंगानदी, और पश्चिम में इतनी ही दूर पर सिंधू नदी है।
आज का सारा विश्व इस आर्यखंड मे है। हम और आप इसी आर्यखंड में भारतवर्ष में रहते है।
प्रश्न ३६५ – लवणसमुद्र कहाँ है?
उत्तर- लवण समुद्र जंबूद्वीप के चारों और से घेरे हुये खाई के सदृश गोल है।
प्रश्न ३६६ – लवणसमुद्र का विस्तार बतलाइये?
उत्तर- लवणसमुद्र का विस्तार दो लाख योजन प्रमाण है।
प्रश्न ३६७ – लवणसमुद्र का आकार बतलाइये?
उत्तर- एक नाव के ऊपर अधोमुखी दूसरी नाव रचाने से जैसा आकार होता है। उसी प्रकार वह समुद्र चारों और आकाश में मण्डलाकार में स्थित है।
प्रश्न ३६८ – लवणसमुद्र का विस्तार ऊपर आदि कितना है?
उत्तर- लवणसमुद्र का विस्तार ऊपर १० हजार योजन और चित्रा पृथ्वी के समभाग में दो लाख योजन है। समुद्र के नीचे दोनों तटों में से प्रत्येक तट से पंचानवें हजार योजन प्रवेश करने पर दोनों और से एक हजार योजन की गहराई में तल विस्तार १० हजार योजन मात्र है।
प्रश्न ३६९ – अमावस्या के दिन जलशिखा की ऊँचाई का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- समभूमि से आकाश में इसकी जलशिखा है वह अमावस्या के दिन समभूति से ११,००० योजन प्रमाण ऊँची रहती है।
प्रश्न ३७० – र्पूणिमा के दिन जलशिखा की ऊँचाई कितनी बढ़ जाती है?
उत्तर- अमावस्या के दिन उक्त जलशिखा की ऊँचाई ११,००० योजन होती है। र्पूणिमा के दिन उक्त जलशिखा की ऊँचाई उससे ५००० योजन बढ़ जाती है। अत: ५००० के १५ वें भाग प्रमाण क्रमश: प्रतिदिन ऊँचाई में वृद्धि होती है। १६०००- ११००० १५* ५००० १५= ३३३ १\३ योजन तीनसौ तेतीस से कुछ अधिक प्रमाण प्रतिदिन वृद्धि होती है।
प्रश्न ३७१ – प्रतियोजन की ऊँचाई पर होने वाली वृद्धि का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- जल के विस्तार में १६००० योजन की ऊँचाई पर दोनो और समान रूप से १,९०,००० योजन की हानि हो गई है। यहाँ प्रति योजन की ऊँचाई पर होने वाली वृद्धि का प्रमाण ११ ७८ योजन प्रमाण है।
प्रश्न ३७२ – लवणसमुद्र का जल गहराई की अपेक्षा, क्या व्यवस्था है?
उत्तर- गहराई की अपेक्षा रत्नवेदिका से ७५ प्रदेश आगे जाकर एक प्रदेश की गहराई है। ऐसे ७५ अंगुल जाकर एक अंंगुल, ७५ हाथ जाकर एकहाथ, ७५ कोस जाकर एक कोस, एवं ७५ योजन जाकर एक योजन की गहराई हो गई है। इसीप्रकार ७५ योजन जाकर १००० योजन की गहराई हो गई है।
अर्थात् लवणसमुद्र के समजल भाग से समुद्र का जल एक योजन नीचे जाने पर एक तरफ से विस्तार में ७५ योजन हानिरूप हुआ हैं। इसीक्रम से १ प्रदेश के नीचे जाकर प्रदेशों की, एक अंगुल नीचे जाकर ७५ अंगुलो की एक हाथ नीचे जाकर ७५ हाथों की भी हानि समझ लेना चाहिये।
प्रश्न ३७३ – लवणसमुद्र के मध्यभाग में क्या है?
उत्तर- लवणसमुद्र के मध्य भाग में चारों और उत्कृष्ट मध्यम और जघन्य ऐसे १००८ पाताल है।
प्रश्न ३७४ – उत्कृष्ट, मध्यम व जघन्य पाताल, कितने है?
उत्तर- उत्कृष्ट पाताल ४, मध्यम, ४, और जघन्यपाताल १००८ है।
प्रश्न ३७५ – उत्कृष्ट मध्यम व जघन्य पाताल कहाँ होते है?
उत्तर- उत्कृष्ट पाताल चारों दिशाओें में ४ है, ४ विदिशाओं में ४ पाताल के उपरिम त्रिभाग में सदा जल रहता है। एवं उत्कृष्ट और मध्य के बीच में ८ अन्तर दिशाओं में १००० जघन्य पाताल है।
प्रश्न ३७६ – उत्कृष्ट चार पातालों के नाम बतलाइये?
उत्तर- लवणसमुद्र के मध्यभाग में पूर्वादि दिशाओं में क्रम से, पाताल कदम्बक, वड़वामुख और यूपकेसर नामक ४ पाताल है।
प्रश्न ३७७ – उत्कृष्ण पातालों की विस्तार गहराई, ऊँचाई, मध्य विस्तार आदि बतलाओ?
उत्तर- उत्कृष्ट पातालो का विस्तार मूल में और मुख में १००० योजन प्रमाण है। इनकी गहराई, ऊँचाई, और मध्यविस्तार, मूल विस्तार से दस गुणा (१००० *१० = १०००००) १ लाख योजन प्रमाण है।
प्रश्न ३७८- पातालो भित्तिका का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- पातालो की वज्रमय भित्तिका ५०० योजन मोटी है।
प्रश्न ३७९ – ये पाताल जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कैसे कहे गये है?
उत्तर- ये पाताल जिनेन्द्र भगवान के द्वारा अरंजन-घट विशेष के समान कहे गये है।
प्रश्न ३८० – पातालों के उपरिम मूल आदि में क्या रहता है?
उत्तर- पातालों के मूल के त्रिभाग में घनी वायु, और मध्यत्रिभाग में क्रम से जल वायु दोनों रहते है।
प्रश्न ३८१ – पातालों की वायु के शुक्लपक्ष व कृष्णपक्ष में बढ़ने व घटने का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- सभी पातालों के पवन सर्वकाल शुक्लपक्षो में स्वभाव से बढ़ते है एवं कृष्णपक्ष में स्वभाव से घटते है।
प्रश्न ३८२ – पातालों में (शुक्लपक्ष) की र्पूणिमा तक कितने योजन प्रमाण पवन की वृद्धि होती है?
उत्तर- शुक्लपक्ष से र्पूणिमा तक प्रतिदिन २,२२२ २९ योजन पवन की वृद्धि होती है। र्पूणिमा के दिन पातालों के अपने अपने तीन भागों में से नीचे के दो भागों में वायु और ऊपर के तृतीय भाग में केवल जल रहता है।
प्रश्न ३८३ – अमावस्या के दिन में उक्त तीन भागों में जल व वायु क्या व्यवस्था है?
उत्तर- अमावस्या के दिन अपने अपने तीन भागों में से क्रमश: ऊपर के दो भागों में जल और नीचे के तीसरे भाग में केवल वायु स्थित रहता है।
प्रश्न ३८४ – पातालों के अंत में क्या विशेषता है?
उत्तर- पातालों के अंत में अपने अपने मुख विस्तार को ५ से गुणा करने पर जो प्राप्त हो, उतने प्रमाण आकश मै, अपने अपने पार्श्वभागों मे जलकण जाते है।
प्रश्न ३८५ – पातालों में जलवृद्धि का कारण बतलाइये?
उत्तर- तत्वार्थराजवार्तिक ग्रंथ में जलवृद्धि का कारण किन्नरियाँ का नृत्य बतलाया है। रत्नप्रभापृथ्वी की खरभाग मे रहने वाली वातकुमार देवियों की क्रीड़ा से क्षुब्ध वायु के कारण ५०० योजन जल की वृद्धि होती है । अर्थात् वायु और जल का निष्क्रम और प्रवेश होता है। और दोनो तरफ रत्नवेदिका पर्यन्त सर्वत्र दो गव्यति प्रमाण (१ कोस)जलवृद्धि होती है।
प्रश्न ३८६ – पाताल में जलहानि का कारण बतलाओ?
उत्तर- पाताल में उन्मीलन के वेग की शक्ति से जल की हानि होती है।
प्रश्न ३८७ – पातालों के तीसरा भाग कितने योजन प्रमाण है?
उत्तर- पातालों का तीसरा भाग १००००० *३ ३३३३३ १\३ योजन प्रमाण है।
प्रश्न ३८८ – पातालो का आकार बतलाओ?
उत्तर- ज्येष्ठपाताल-सीमंत बिल के उपरिम भाग से संलग्न हैं अर्थात् ये पाताल भी मृदंग के आकार के गोल है। समभूमि से नीचे की गहराई का जो प्रमाण है वह इन पातालों की ऊँचाई है।
प्रश्न ३८९ – मध्यपाताल कहाँ है? इनका मुख, मूल विस्तार आदि का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- विदिशाओं में भी इनके समान ४ पाताल है। उनका मुखविस्तार और मूलविस्तार १००० योजन तथा मध्य में और ऊँचाई गहराई में १०,००० योजन है।
इनकी वज्रमय भीत्ति का प्रमाण ५० योजन है। इन पातालों के उपरिम तृतीय भाग में जल, नीचे के तृतीयभाग में वायु, मध्य के तृतीय भाग में जल, वायु दोनों ही रहते है।पातालों की गहराई-ऊँचाई १०,००० योजन है। १०,०००\३ =३३३३ -१\३ पातालों का तृतीयभाग तीन हजार तीन सौ तेंतीस से कुछ अधिक है। इनमें प्रतिदिन होने वाली जलवायु की हानिवृद्धि का प्रमाण २२२ २७ योजन प्रमाण है।
प्रश्न ३९० – जघन्यपाताल पाताल कहाँ है और कितने है?
उत्तर- उत्तम मध्यम जघन्य पातालों के मध्य में आङ्ग अन्तर दिशाओं में १००० जघन्य पाताल है।
प्रश्न ३९१ – जघन्यपाताल का मुख, मूल, का विस्तारादि का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- मध्यम पातालों की अपेक्षा १०वें भाग मात्र है। अर्थात् मुख और मूल में ये पाताल १०० योजन है। मध्य में चौड़े और गहरे १००० योजन प्रमाण है। इनमें उपरिम त्रिभाग में जल, नीचे में वायु, और मध्य में जल वायु दोनो है इनका त्रिभाग ३३३ १\३ योजन है। और प्रतिदिन जल वायु की हानि २२२ २\७ योजन प्रमाण है।
प्रश्न ३९२ – जघन्यपाताल कहाँ और कितने है?
उत्तर- उत्तम मध्यम पातालो के मध्य में आङ्ग अन्तर दिशाओं में १००० हजार जघन्य पाताल है।
प्रश्न ३९३ – नागकुमार देवो के नगर कहाँ कहाँ है बतलाइये?
उत्तर- लवणसमुद्र के बाह्यभाग में ७२००० शिखरपर २८००० और आथ्यन्तर भाग में ४२००० नगर अवस्थित है। समुद्र के अथ्यन्तर भाग की वेला की रक्षा करने वाले वेलंधर नागकुमार देवो के नगर ४२,००० है। जलशिखा को धारण करने वाले नागकुमार देवो के २८,००० नगर हैं एवं समुद्र के बाह्यभाग की रक्षाकरने वाले नागकुमार देवो के ७२,००० नगर है। (७२०००+ २८०००+ ४२००० =१,४२०००)
प्रश्न ३९४ – ये नगर कहाँ स्थित है तथा विस्तार आदि का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- ये नगर लवणसमुद्र के दोनों तरो से ७०० योजन जाकर तथा शिखर से ७००-१\२ योजन जाकर आकाशतल में स्थित है। इनका विस्तार १०,००० योजन प्रमाण है।
प्रश्न ३९५ –नगरियों के तट आदि का विशेष वर्णन बतलाओ?
उत्तर- नगरों के तट उतमरत्नो से निर्मित समान गोल है। प्रत्येक नगरियों में ध्वजाओं से और तोरणों से सहित दिव्यतट वेदियाँ है। उन नगरियों में उतमवैभव सहित वेलंधर भुंजग देवो के प्रासाद स्थित है। जिनमन्दिरों से रमणीय, वापी, उपवनो से सहित इन नगरियों का वर्णन बहुत ही सुन्दर है। ये नगरियाँ अनादि निधन है।
प्रश्न ३९६ – उत्कृष्ट पाताल के आस पास क्या है?
उत्तर- उत्कृष्ट पाताल के आस पास ८ पर्वत है। समुद्र के दोनो किनारो में बयालीस हजार योजन प्रमाण प्रवेश करके पातालो के पार्श्वभागों में आठ पर्वत है।
प्रश्न ३९७ – ये पर्वत के नाम ऊँचाई व आकारादि बतलाइये?
उत्तर- लवणसमुद्र क तट से ४२,००० योजन आगे समुद्र में जाकर ‘पाताल’ के पश्चिम दिशा में कौस्तुभ और पूर्वदिशा में कौस्तुभास नाम के दो पर्वत है। ये दोनों पर्वत रजतमय, धवल १००० योजन ऊँचे, अर्धघट के समान आकार वाले वज्रमय, मूल भाग से सहित, नानारत्नमय अग्रभाग से सुशोभित है
प्रश्न ३९८ – प्रत्येक पर्वत तिरघा विस्तार आदि बतलाओ?
उत्तर- प्रत्येक पर्वत का तिरघा विस्तार १ लाख १६ हजार योजन है। इस प्रकार जगती (कोट) से पर्वतो तक तथा पर्वतो का विस्तार मिलाकर दो लाख योजन होता है।
प्रश्न ३९९ –उक्त लाख योजन कैसे होता है?
उत्तर-पर्वत का विस्तार १ लाख १६ हजार है। जगती से पर्वत का अंतराल ४२००० +४२०००+ ८४०००-११६०००+ ८४००० २ लाख ।
प्रश्न ४०० – पर्वत की और क्या विशेषतायें है बतलाइये?
उत्तर- ये पर्वत मध्य में रजतमय है इनके ऊपर इन्हीं के नामवाले कौस्तुभ और कौस्तुभास देव रहते है। इनकी आयु अवगाहनादि विजयदेव के समान है। कदम्ब पाताल की उत्तरदिशा में उदकनाम का पर्वत और दक्षिण दिशा उदकाभास नामकपर्वत है ये दोनो पर्वत है ये दोनो पर्वत नीलमणी जैसे वर्ण वाले है। इन पर्वतो के ऊपर क्रम से शिव और शिवदेव निवास करते है। इनकी आयु आदि कौस्तुभ देव के समान है।
प्रश्न ४०१ – बड़वानल पाताल की पूर्व और दिशा में स्थित पर्वतो के नाम व वर्ण के नाम बतलाओ?
उत्तर- बड़वानल पाताल की पूर्व दिशा में शंख, और पश्चिम दिशा में महाशंख नामक पर्वत है। ये दोनो ही शंख के समान वर्ण वाले है। इन पर उदक, उदकावास देव स्थित है। इनका वर्णन पूर्वोक्त सदृश है। यूपकेसरी के दक्षिणभाग में दक नामक पर्वत है और उत्तरभाग में दकवास नामक पर्वत है। ये दोनो पर्वत वैडूर्यमणिमसय है। इनके ऊपर क्रम से लोहित लोहितांक देव रहते है।
प्रश्न ४०२ – सूर्यद्वीप कहाँ पर है?
उत्तर- जंबूद्वीप की जगती से ४२ हजार योजन जाकर सूर्य नाम से प्रसिद्ध आङ्ग द्वीप है। ये द्वीप पूर्व में कहे हुये कोस्तुभ आदि पर्वतो के दोनो पाश्र्वभागों में स्थित होकर निकले हुये मणिमय दीपको युक्त शोभायमान है।
प्रश्न ४०३ – त्रिलोकसार के अनुसार कितने द्वीप माने गये है?
उत्तर- त्रिलोकसार में १६ चन्द्रद्वीप माने गये है।
प्रश्न ४०४ – ये १६ द्वीप कहाँ और कैसे है? स्पष्ट करो?
उत्तर- अभ्यन्तर तट और बाहयतट से ४२,००० योजन छोड़कर चारों विदिशाओं के दोनो पाश्र्वभागों में दो दो, ऐसे आङ्ग सूर्यद्वीप है। और दिशा और विदिशाओं के बीच में आङ्ग अन्तर दिशायें है उनके दोनो पाश्र्वभागो में दो-दो ऐसे १६ चन्द्रद्वीप नामक द्वीप है।
प्रश्न ४०५ – उक्त द्वीपो का व्यास व आकार कितना है?
उत्तर- ये सब द्वीप ४२००० योजन व्यास वाले और गोल आकार वाले है यहाँ द्वीप से ‘टापू’ समझना।
प्रश्न ४०६ – गौतम द्वीप कहाँ है उसकी ऊँचाई, व्यास, व आकारादि बतलाइये?
उत्तर- लवणसमुद्र के अभ्यन्तर तट से १२,००० योजन आगे जाकर १२,००० योजन ऊँचा, एवं इतने ही प्रमाण व्यास वाला, गोलाकार गौतम नामक द्वीप है जो कि समुद्र में वायव्यदिशा में है।
प्रश्न ४०७ – उक्त द्वीपो की और क्या विशेषतायें है बतलाइये?
उत्तर- उपर्युक्त सभी द्वीप वन उपवन वेदिकाओं से रम्य है और जिनमन्दिर से सहित है। उन द्वीपों के स्वामी वेलंधर जानि के नागकुमार देव है। वे अपने अपने द्वीप के समान नाम के धारक है।
प्रश्न ४०८ – मागधद्वीप कहाँ है?
उत्तर- भरतक्षेत्र के पास समुद्र दक्षिण तट से संख्यात योजन जाकर आगे मागध, वरतनु और प्रभास नाम के तीन द्वीप है। अर्थात् गंगा नदी के तोरण द्वार से आगे कितने ही योजन प्रमाण समुद्र में जाने पर मागध द्वीप है। जम्बूद्वीप के दक्षिणवैजयन्त द्वार से कितने ही योजन समुद्र में जाने पर वरतनु द्वीप है । एवं सिंधु नदी के तोरण से कितने ही योजन जाकर प्रभास द्वीप है।
प्रश्न ४०९ – उक्त द्वीपो में कौन निवास करता है?
उत्तर- इन द्वीपों में इन्ही नाम के देव रहते है। इन देवो को भरतक्षेत्र के चक्रवर्ती वश में करते है।
प्रश्न४१० – ऐरावत क्षेत्र में भी भरतक्षेत्र के समान ही द्वीप है?
उत्तर- ऐसे ही ऐरावत क्षेत्र के उत्तर भाग में रक्तादो नदी के पाश्र्वभाग में समुद्र के अन्दर मागधद्वीप अपराजित द्वार से आगे वरतनु द्वीप एवं रक्तानदी के आगे कुछ दूर जाकर प्रभासद्वीप है। जो कि ऐरावत क्षेत्र के चक्रवर्तियों के द्वारा जीते जाते है।
प्रश्न ४११ – लवणसमुद्र कुमानुषा के द्वीप कितने है कहाँ पर है?
उत्तर- लवणसमुद्र में कुमानुषो के ४८ द्वीप है। इनमें से २४ द्वीप तो अभ्यन्तर भाग में है एवं २४ द्वीप बाह्यभाग में स्थित है।
प्रश्न ४१२ – लवणसमुद्र के ४८ द्वीपो के अतिरिक्त अन्य द्वीप कहाँ है?
उत्तर- जंबूद्वीप की जगती से ५००० योजन आगे जाकर ४ द्वीप चारो दिशाओं में और इतने ही योजन जाकर चार द्वीप चारों विदिशाओं में है। जंबूद्वीप की जगती से ५५० योजन आगे जाकर दिशा-विदिशाओं की अन्तरदिशाओं में ८ द्वीप है। हिमवन् विजयार्ध के दोनों किनारों में जगती से ६००० योजन जाकर ४ द्वीप एवं उत्तर में शिखरी और विजयार्ध के दोनों पार्श्वभागों में ६०० योजन अन्तर समुद्र में ४ द्वीप है।
प्रश्न ४१३ – दिशागत विदिशागत आदि द्वीपो के विस्तार का प्रमाण बतलाइये?
उत्तर- दिशागत द्वीप १०० योजन प्रमाण विस्तार वाले है। ऐसे ही विदिशागत द्वीप ५५ योजन विस्तृत है। अन्तर दिशागत द्वीप ५० योजन विस्तृत एवं पर्वत के पार्श्वभाग गत द्वीप २५ योजन विस्तृत है।
प्रश्न ४१४ – लवणसमुद्र के ४८ कुमानुष द्वीप की और क्या विशेषता है?
उत्तर- ये सब उत्तम द्वीपवनखंड, तालाबों से रमणीय फल फूलो के भार से संयुक्त तथा मधुररस एवं जल से परिपूर्ण है। यहाँ कुभोगभूमि के व्यवस्था है। यहाँ पर जन्म लेने वाले मनुष्य कुमानुष कहलाते है। और विकृत आकार वाले होते है।
प्रश्न ४१५ – पूर्वादिक दिशाओं में स्थित ४ द्वीपों में किसप्रकार के होते है?
उत्तर- पूर्वोदिक दिशाओं में स्थित चार द्वीपो के कुमानुष क्रम से एक जंघा वाले, पूंछवाले, सींग वाले, गूंगे होते है।
प्रश्न ४१६ – आग्नेय आदि विदिशाओं के कुमानुष किसप्रकार के होते है?
उत्तर- आग्नेय आदि विदिशाओं के कुमानुष क्रमश: शष्कुली वर्णकर्णप्रावरण, लम्बकर्ण, शशकर्ण होते है।
प्रश्न ४१७ – अन्तर दिशाओं में स्थित आठ द्वीपो के कुमानुष किसप्रकार होते है?
उत्तर- अन्तर दिशाओं स्थित आठ द्वीपो के वे कुमानुष वे क्रम से सिंह, अश्व श्वान, महिष, वराह, शार्दूल, घूक, बन्दर के समान मुख वाले होते है।
प्रश्न४१८ – हिमवान् पर्वत, और दक्षिण विजयार्ध आदि के कुमानुष कैसे होते है?
उत्तर- हिमवान् पर्वत के पूर्व पश्चिम किनारों में क्रम मत्स्यमुख कालमुख, तथा दक्षिण विजयार्ध के किनारों में मेषमुख गोमुख मानुष होते है। शिखरीपर्वत, के पूर्व पश्चिम किनारो पर क्रम से मेघमुख गोमुख, विद्युनमुख तथा उत्तरा विजयार्ध के किनारों पर आदर्शमुख, हरितमुख कुमानुष होते है।
प्रश्न ४१९ – ४८ ही कुमानुष कहाँ रहते है और इनका आहार वैâसा है?
उत्तर- इन सब में से एकोरूक कुमानुष गुफाओं में होते है और मिष्ट मिट्टी को खाते है। शेष कुमानुष वृक्षो के नीचे रहकर फल फूलो से जीवन व्यतीत करते है।
प्रश्न ४२० – कुल ४८ द्वीपो कैसे हुये उसका स्पष्टीकरण कीजिये?
उत्तर- इसप्रकार दिशागत द्वीप ४, विदिशागत ४ द्वीप, अंतरदिशागत आठ, पर्वततटगत ८१+४ +४ +८ +८ =२४ अंतद्र्वीप हुये। ऐसे लवणसमुद्र के बाह्य भाग के भी २४ द्वीप मिलकर है २४ +२४ =४८ अंतरद्र्वीप लवणसमुद्र में हैं।
प्रश्न ४२१ – कुभोगभूमि में जन्म लेने के कारण बतलाओ?
उत्तर- मिथ्यात्वरत में रत, मन्दकषायी, मिथ्यादेवो की भक्ति में ततार विषम पंचाग्नि तप तपने वाले, सम्यक्तव रत्न से रहित जीव मरकर कुमानुष होते है।
जो लोग तीव्र अभिमान से गर्वित होकर सम्यक्तव व तप से युक्त साधुओं का किंचित अपमान करते है जो दिगम्बर साधु की निंदा करते है। ऋद्धि रस गाख से युक्त होकर दोषो की आलोचना गुरू के पास में नही करते है। गुरूओं के साथ स्वाध्याय वन्दना आदि कर्म नहीं करते है, जो मुनि एकाकी विचरण करते है कलह से सहित है, अरहंत आदि गुरू की भक्ति से रहित है, चतुर्विध संघ में व्याक्य से रहित, मौन बिना भोजन करने वाले, जो पाप में सलग्न है वे मृत्यु को प्राप्त होकर विषम परिपाक वाले, पाप कर्मो के फल से इन द्वीपो में कुत्सित रूप से युक्त कुमानुष होते है।
प्रश्न ४२२ – कुमानुष में जन्म लेने के और विशेषकारण बतलाओ?
उत्तर- गाथा ९२४ से खोट भाव से सहित, अपवित्र मृतादि के सूतक पातक से सहित, रजस्वला स्त्री से सहित, जातिसंकर दोषो से दूषित मनुष्य जो दान करते है, जो कुपात्रों में दान देते है ये जीव कुमानुष में उत्पन्न होते है।
क्योंकि ये जीव मिथ्यात्व और पाप से रहित किंचित पुण्योपार्जन करते है। अत:कुत्सित कुभोगभूमि में जन्म लेते है। इनकी आयु एक पल्य प्रमाण रहती है। एक कोश ऊँचे शरीर वाले, गलियाँ होते है। मरकर नियम से भवनत्रिक देवों में जन्म लेते है। कदाचित् सम्यक्तव को प्राप्त करके कुमानुष सौधर्म युगल में जन्म लेते है।
प्रश्न ४२३ – लवणसमुद्र के अलावा अन्यसमुद्रो में पाताल होते है?
उत्तर- नहीं। लवणसमुद्र के दोनों और तट है। लवणसमुद्र में ही पाताल है अन्य समुद्रो में नहीं है।
प्रश्न ४२४ – लवण समुद्र के समान अन्य समुद्रो के जल में गहराई और ऊँचाई मे हीनाधिकता है क्या?
उत्तर- नहीं। लवणसमुद्र के जल की गहराई और ऊँचाई में हीनाधिकता है अन्य समुद्रो के जल मे नही है।
प्रश्न ४२५ – लवणसमुद्र के अलावा अन्यसमुद्रो के जल की गहराई आदि का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- लवणसमुद्र के अलावा सभी समुद्रो की गहराई सर्वत्र १ हजार योजन है और ऊपर में जल समतल प्रमाण है।
प्रश्न ४२६ – लवणसमुद्र के जल का स्वाद और क्या विशेषतायें है बतलाइये?
उत्तर- लवणसमुद्र का जल खारा है, लवणसमुद्र में जलचर जीव पाये जाते है।
प्रश्न ४२७ – लवणसमुद्र के मत्स्यो क प्रमाण बतलाइये?
उत्तर- लवणसमुद्र के मत्स्य नदी के गिरने के स्थान पर ९ योजन अवगाहना वाले एवं मध्य में १८ योजन प्रमाण है। इसमें कछुआ शिंशमार, मगर आदि जलजंतु भरे है।
प्रश्न ४२८ – रावण की लंका कहाँ है?
उत्तर- रावण की लंका को, पभपुराण में लवणसमुद्र में माना है।
प्रश्न ४२९ – लवणसमुद्र में और भी द्वीप है क्या? यदि है तो कौनसे द्वीप है?
उत्तर- लवणसमुद्र में अनेको द्वीप है ऐसा पभपुराण में स्पष्ट लिखा है। (१०७ से ११० तक पभपुराण ४८ पर्व) दुष्ट मगर मच्छो से भरे हुये इस लवणसमुद्र में अनेक आश्चर्यकारी स्थानों से युक्त प्रसिद्ध राक्षस द्वीप है।
प्रश्न ४३० – राक्षसद्वीप की विस्तार व परिधि का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- राक्षसद्वीप सब और से सातयोजन विस्तृत है। तथा कुछ अधिक २१ योजन उसकी परिधि है।
प्रश्न४३१ – राक्षसद्वीप के मध्य में क्या है?
उत्तर- राक्षसद्वीप के मध्य में सुमेरू पर्वत के समान त्रिकूट नाम का पर्वत है।
प्रश्न ४३२ – त्रिकूट नामक पर्वत की ऊँचाई, चौड़ाई का प्रमाण आदि बतलाओ?
उत्तर- त्रिकूट पर्वत नौ योजन ऊँचा और ५० योजन चौड़ा है। सुवर्ण तथा नानाप्रकार की मणियों से देदीप्यमान एवं शिलाओं के समूह से व्याप्त है। राक्षसो के इन्द्र भीम ने मेघवाहन के लिये वह दिया था।
प्रश्न ४३३ – लंका नाम की नगरी कहाँ है?
उत्तर- तट पर उत्पभ हुये नाना प्रकार के चित्र विचित्र वृक्षो से सुशोभित उस त्रिकूटाचल के शिखरपर लंका नाम की नगरी है।
प्रश्न ४३४ – लंका नगरी की चौड़ाई का प्रमाण आदि विशेषताये बतलाइये?
उत्तर- लंकानगरी जो मणि और रत्नों की किरणों तथा स्वर्ण के विमानो के समान मनोहर महलो से एवं क्रीड़ा आदि से ३० योजन चौड़ी है। तथा बहुत बड़े प्राकार और परिखा से युक्त होने के कारण दूसरी पृथ्वी के समान जान पड़ती है।
प्रश्न ४३५ – लंका के समीप में और भी ऐसे स्वाभाविक प्रदेश है उनकी विशेषता क्या है?
उत्तर- लंका के समीप में और भी ऐसे स्वाभाविक प्रदेश है जो रत्नमणि, और सुवर्ण से निर्मित है। वे सब प्रदेश उत्तमोत्तम नगरों से युक्त है। राक्षसों की क्रीड़ाभूमि है। तथा महाभोगो से युक्त विद्याधरो से सहित है।
प्रश्न ४३६ – लंका में और भी अनेकद्वीप है, उनके नामादि बतलाओ?
उत्तर- संध्याकार सुबेल, कांचन, कुदान, योधन, हंस, हरिसागर और अर्धस्वर्ग आदि अन्यद्वीप भी वहाँ विद्यमान है जो समस्त ऋद्धियों तथा भोगो को देने वाले है। वन उपवन आदि से विभूषित है तथा स्वर्ण प्रदेशो के समान जान पढ़ते है।
प्रश्न ४३७ – लवणसमुद्र में अनेकद्वीप है यदि हाँ तो उनकी विशेषतायें बतलाओ?
उत्तर- इस लवणसमुद्र में बहुत से द्वीप है जहाँ कल्पवृक्षो के समान आकारवाले वृक्षो से दिशायें व्याप्त हो रही है। इन द्वीपो में अनेको पर्वत है जो रत्नों से व्याप्त ऊँचे ऊँचे शिखरों से सुशोभित है। राक्षसो के इन्द्र भीम, अतिभीम तथा उनके सिवाय अन्य देवो के द्वारा आपके वंशजो के लिये ये सब द्वीप और पर्वत दिये गये है ऐसा पूर्वपरम्परा से सुनने में आता है।
प्रश्न ४३८ – लवणसमुद्र के अनेक द्वीपो में अनेक नगर है उनके नाम बतलाओ?
उत्तर- उन द्वीपो में अनेक नगर है। उन नगरो के नाम संध्याकार मनोहाल्द, सुबेल , कांचन, हरियोधन, जलधिध्वान, हंसद्वीप, भरक्षम अर्धस्वर्गोत्कट, आवर्त, विघट, रोधन, अमल, कांत स्फुटतट, रत्नद्वीप, तोयावली, सर, अलंघन, नभोभानु और क्षेत्र इत्यादि सुन्दर सुन्दर है।
प्रश्न ४३९ – वानरद्वीप कहाँ है उसका विस्तार कितना है?
उत्तर- वायण्य दिशा में समुद्र के बीच ३०० योजन विस्तार वाला बड़ा भारी वानरद्वीप है। उसमें महामनोहर हजारों अवान्तर द्वीप है।
प्रश्न ४४० – वानरद्वीप के मध्य में कौनसा पर्वत है?
उत्तर- उस वानर द्वीप के मध्य में रत्न सुवर्ण की लम्बी, चौड़ी शिलाओं से सुशोभित ‘किब्कु’ नाम का बड़ा भारी पर्वत है। जैसे यह त्रिकूटाचल है वैसे ही वह किब्कु पर्वत है। इत्यादि। इस प्रकरण से यह ज्ञान होता है कि इस समुद्र में और भी अनेक द्वीप विद्यमान है।
प्रश्न ४४१ – लवणसमुद्र की जगती की ऊँचाई मूल आदि प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- लवणसमुद्र की जगती ८ योजन ऊँची, मूल में १२ योजन मध्य में ८ और ऊपर में ४ योजन प्रमाण विस्तार वाली है। इसके ऊपर वेदिका, वनखंड देवनगर आदि का पूरावर्णन जंबूद्वीप की जगती के समान है। (जगती याने परकोटा)।
प्रश्न ४४२ – जगती के आभ्यन्तर भाग में क्या है?
उत्तर- जगती के आभ्यन्तर भाग में शिलापट्टऔर बाह्यभाग में वन है।
प्रश्न ४४३ – जगती का बाह्य भाग का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- जगती के बाह्यभाग का प्रमाण १५,८१, १३९ योजन प्रमाण है। यदि जम्बूद्वीप प्रमाण १-१ लाख के खंड किये जाये तो इस लवण समुद्र के जम्बूद्वीप प्रमाण २४ खंड हो जाते है।
प्रश्न ४४४ – काल के कितने भेद है, उनके नाम भी बताओ?
उत्तर- काल के दो भेद है एक उत्सर्पिणी दूसरा अवसर्पिणी।
प्रश्न ४४५ – अवसर्पिणी के कितने भेद है उनके नाम बतलाओ?
उत्तर- अवसर्पिणी के ६ भेद है। सुषमासुषमा, सुषमा, सुषमादुषमा, दुखमासुषमा, दुषमा, दुखमादुखमा।
प्रश्न ४४६ – अवसर्पिणी के छह कालों का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- प्रथमकाल ४ कोड़ाकोड़ी, सागर प्रमाण है द्वितीयकाल तीन कोड़ा कोड़ी सागर प्रमाण, तृतीयकाल दो कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण, चतुर्थकाल ब्यालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ा कोड़ी सागर, पंचम व छठा काल दोनो का २१ हजार वर्ष प्रमाण है।
प्रश्न ४४७ – उत्सर्पिणी काल के कितने भेद है उनके नाम बतलाओ?
उत्तर- उत्सर्पिणी काल के दुषमादुषमा से लेकर छहभेद है। उनमें छठे से पहिले तक परिवर्तन चलता है।
प्रश्न ४४८ – छहकालों में परिवर्तन होता है या एकसमान रहते है?
उत्तर- भरत और ऐरावत क्षेत्रों में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के ६ समयों की अपेक्षा वृद्धि व हास होता रहता है।
प्रश्न ४४९ – भरत और ऐरावत क्षेत्रो में वृद्धि व हास किनका होता है?
उत्तर- भरत-ऐरावत सम्बंधी मनुष्यो में भोग, उपभोग, अनुभव, संपदा आयु, परिमाण (प्रमाण) शरीर की ऊँचाई आदि के द्वारा वृद्धि और हास होता है।
प्रश्न ४५० – अनुभव आयु और प्रमाण का क्या अर्थ है?
उत्तर- सुख दुख के उपयोग को अनुभव कहते है। जीवित प्रमाण के काल को आयु कहते है और शरीर की ऊँचाई को प्रमाण कहते है।
प्रश्न ४५१ – वृद्धि और हास किस निमित्त से होता है?
उत्तर- उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी दो कालो के निमित्त से भरत-ऐरावत क्षेत्रो में रहने वाले मनुष्यो के अनुभव आदि का वृद्धि हास होता है।
प्रश्न ४५२ – उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालो की यह संज्ञा क्यो है?
उत्तर- ये दोनो काल सार्थक नाम वाले है। जिनमें अनुभव आयु आदि की वृद्धि होती है वह उत्सर्पिणी काल है औ जिसमें इनका हास होता है वह अवसर्पिणी काल है।
प्रश्न ४५३ – उत्सर्पिणी काल व अवसर्पिणी काल कितने वर्षो के होते है?
उत्तर- दश कोड़ाकोड़ी सागर का एक अवसर्पिणी काल, १० कोड़ा कोड़ी सागर का एक अवसर्पिणी काल होता है।
प्रश्न ४५४ – एक कल्पकाल कितने वर्षो का होता है?
उत्तर- २० कोड़ाकोड़ी सागर का एक कल्पकाल होता है। उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी काल मिलकर ही एक कल्पकाल कहलाता है।
प्रश्न ४५५ – भरतक्षेत्र के आर्यखंड में प्रथम सुषमासुषमा में वहाँ के मनुष्याकी ऊँचाई, आयु, वर्ण, भोजन आदि का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- भरतक्षेत्र के आर्यखंड में जब सुषमासुषमा प्रथम काल था उससमय तब वहाँ के मनुष्यों के शरीर की ऊँचाई ३ कोस थी। आयु ३ पल्य की थी। वे स्वर्ण सदृश वर्ण के थे। वे तीन दिन के बाद कल्पवृक्षो से प्राप्त बदरीफल बराबर उत्तमभोजन ग्रहण करते थे।
प्रश्न ४५६ – असर्पिणी प्रथमकाल के मनुष्यों की और क्या विशेषता थी?
उत्तर- सुषमासुषमा के मनुष्यों के मलमूत्र, पसीना, रोग, अपमृत्यु आदि बाधायें नहीं थी। वहाँ की स्त्रियाँ आयु के ९ महिने शेष रहने पर गर्भ धारण करती थी और युगल पुत्री को जन्म देती थी। सन्तान के जन्म होते ही पुरूष को जंभाई, और स्त्री को छींक आने से मर जाते थे। वे युगल वृद्धि को प्राप्त होकर कल्पवृक्षों से उत्तम सुख का अनुभव करते रहते थे।
प्रश्न ४५७ – प्रथमसुषमा काल में उत्तमभोगभूमि होती है क्यो?
उत्तर- पानांग, लूर्यांग, भूषणांग, मालांग, ज्योतिरांग, दीपांग, गृहांग, भोजनांग, पात्रांग और वस्त्रांग ये उत्तम अपने नाम के अनुसार ही उत्तमवस्तुयें मॉगने पर देते है। इसे उत्तमभोगभूमि कहते है।
प्रश्न ४५८ – उत्सर्पिणी के दूसरे काल में मनुष्यों की ऊँचाई आयु वर्णादि प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- उत्सर्पिणी के द्वितीय सुषमा काल में, मनुष्यों की आयु दो पल्य, शरीर की ऊँचाई दो कोस, शरीर का वर्ण चन्द्रमा के समान रहता है। ये दो दिन के बाद कल्पवृक्षो से प्राप्त हुये बहेड़े के बराबर भोजन को ग्रहण करते है इसे मध्यम भोगभूमि कहते है।
प्रश्न ४५९ – तृतीयकाल में मनुष्यों की आयु ऊँचाई आदि का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- द्वितीय काल पूर्ण हो जाने के बाद तृतीय सुषमा दुषमा काल प्रवेश करता है। तब यहाँ के मनुष्यों की आयु १ पल्य, शरीर की ऊँचाई १ कोस और शरीर का वर्ण हरित रहता है। ये एक दिन के अन्तर से आँवले के बराबर भोजन को ग्रहण करते है। आगे क्रम से आयु आदि घटती जाती है इसप्रकार यह भोगभूमि का काल चल रहा था।
प्रश्न ४६० – चतुर्थकाल में मनुष्यो की आयु ऊँचाई आदि का परिमाण बतलाओ?
उत्तर- जब तृतीयकाल में पल्य का आठवा भाग शेष रह गया तब ज्योतिरांग कल्पवृक्षो का प्रकाशमंद पड़ने से आकाश में सतत घूमने वाले सूर्य चन्द्र दिखने लगे। उस समय प्रजा के डरने से प्रतिमुसि नामके प्रथम कूलकर ने उनको बास्तविक स्थिति बताकर उनको डर दूर किया। ऐसे ही क्रम से १३ कुलकर और हुये। अन्तिम कुलकर महाराज नाभिराज थे। उनकी पत्नी मरूदेवी, युगलियाँ जन्म न लेकर किसी प्रधान कुल की कन्या थी इन दोनों का विवाह इन्द्रो ने बड़े उत्सव से कराया था। इस काल में मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु १ कोटिपूर्व, शरीर की ऊँचाई ५०० धनुष था।
प्रश्न ४६१ – भगवान ऋषभदेव का जन्म कब किस काल में हुआ था?
उत्तर- चतुर्थकाल में ८४ लाख पूर्व वर्ष, तीन वर्ष साढ़े आठ माह काल बाकी था तब अन्तिम कूलकर नाभिराज की रानी मरूदेवी के गर्भ में भगवान ऋषभदेव आये और ९ महिने बाद जन्म लिया।
प्रश्न ४६२ – भगवान ऋषभदेव की आयु कितनी थी?
उत्तर- भगवान ऋषभदेव प्रथम तीर्थंकर थे इनकी आयु ८४ लाख वर्ष पूर्व की थी।
प्रश्न ४६३ – कल्पवृक्ष नष्ट हो जाने पर षट्क्रियाओं आदि उपदेश जीवों को किसने दिया?
उत्तर- कल्पवृक्ष के नष्ट हो जाने के बाद प्रजा के असि, मसि, कृषि, वाणिज्य शिल्प, विद्या इन षट्क्रियाओं से आजीविका करना, भगवान ऋषभदेव ने बतलाया। अत्रिय, शूद्र वैश्य ये तीन वर्ण स्थापित किये। भगवान ने विदेहक्षेत्र की स्थिति को अपने अवधिज्ञान से जानकर यह सब व्यवस्था बनायी। भगवान की आज्ञा से इन्द्र ने कौशल काशी आदि देश अयोध्या, हस्तिनापुर उज्जयिनी आदि नगरियो की रचना की।
प्रश्न ४६४ – भगवान आदिनाथ ने अपने पुत्र पुत्रियों को कौनसी विद्याओं में निष्णात किया ?
उत्तर- भगवान ने अपने पुत्रियों को ब्राह्मीलिपि और अंकलिपि सिखायी। पुत्र पुत्रियों को सम्पूर्ण विद्याओं में निष्णात किया।
प्रश्न ४६५ – भगवान आदिनाथ ने कहाँ से व कब मोक्ष को प्राप्त किया था?
उत्तर- भगवान के दीक्षा लेकर मोक्षमार्ग प्रगट किया। पुन: केवलज्ञान होने के बाद साक्षात् सम्पूर्ण जगत को जान लिया और अंत में चतुर्थकाल के तीनवर्ष, आठमाह, एक पक्ष शेष रहने पर कार्तिक कृष्णा अमावस्या के उषाकाल में पावापुरी से मोक्ष गये।
प्रश्न ४६६ – पंचमकाल में मनुष्य की आयु ऊँचाई आदि का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- दुषमा पंचमकाल में उत्कृष्ट आयु १२० वर्ष, शरीर की ऊँचाई अधिक से अधिक सात हाथ की है। दिन पर दिन आयु आदि घट रहे है। महावीर स्वामी को हुये २५४१ वर्ष पूर्ण हो गये है। हम लोग इस पंचमकाल के मनुष्य है।
प्रश्न ४६७ – भगवान महावीर का शासन कितने वर्ष तक चेलेगा?
उत्तर- साढ़े अठारह हजार वर्ष तक भगवान महावीर का शासन चलता रहेगा।
प्रश्न ४६८ – पंचमकाल के अंत में क्या होगा?
उत्तर- एक राजा दिगम्बर मुनि से प्रथमग्रास को शुल्करूप में मांगेगा तब मुनि अंतराय करके जाकर आर्यिका, श्रावक श्राविका रूप चतुर्विध संघ सहित सल्लेखना ग्रहण कर मरकर स्वर्ग जायेगे उस समय धरणेन्द्र कुपित हो राजा को मार देगा तब राजा नरक जाएगे। बस! धर्म का और राजा का अंत हो जायेगा।
प्रश्न ४६९ – छठेकाल में उससमय मनुष्य की आयु का प्रमाण आदि बतलाओ?
उत्तर- छठेकाल में मनुष्य का शरीर १ हाथ का आयु १६ वर्ष मात्र की रह जायेगी। ये मनुष्य पशुवृति करेगे। मांसाहारी होगे। जंगलो में घूमेगे। दुखी दरिद्री, कुटुम्बहीन होगे। पुन: ४९ पचास प्रलय के बाद २१ हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर छठा काल समाप्त होगा और देव विद्याधरों द्वारा रक्षा किये गये कुछ मनुष्य जीवित रहकर पुन: सृष्टि की परम्परा बढ़ायेगे।
उत्सर्पिणी के छठे काल के बाद पंचमादि काल आते रहेगा यह काल परम्परा अनादिनिधन है।
प्रश्न ४७० – जैनधर्म कैसा है?
उत्तर- जैनधर्म अनादि है यह सार्वधर्म है। सभी जीवों का हित करने वाला है। सभी तीर्थंकर इस धर्म का उपदेश देते है वे स्वयं इस धर्म के प्रवर्तक नहीं है। ऐसे अनंत तीर्थंकर हो चुके है और भविष्य में होते रहेगे। कोई भी जीव अपने आप धर्मपुरूषार्थ के बल से अपने आपको भगवान बना सकता है। ऐसा समझना।
प्रश्न ४७१ – व्यन्तर किसे कहते है?
उत्तर- जिनका नाना प्रकार देशो में निवास है वे व्यन्तर कहलाते है। यह इनका सार्थक नाम है।
प्रश्न ४७२ – व्यन्तरों के कितने भेद है? उनके नाम बतलाओ?
उत्तर- व्यन्तरों के ८ भेद है। किन्नरे, किंपुरूष, महोरग, ग्रंधर्व, यक्षराक्षस, भूत, पिशाच।
प्रश्न ४७३ – व्यन्तरों की सामान्य संज्ञा क्या है?
उत्तर- किन्नर किंपुरूष आदि आठ विकल्पों की सामान्य संज्ञा है।
प्रश्न ४७४ – व्यन्तरों में सामान्य संज्ञा किस कर्म के उदय से होती है?
उत्तर- व्यन्तरो के ८ भेदो की सामान्य संज्ञा नामकर्म के उदय विशेष से होती है।
प्रश्न ४७५ – व्यन्तरो की विशेष संज्ञा किसकी होती है?
उत्तर- मूल देवगति नामकर्म के उत्तरोत्तर प्रकृति के भेद के उदय से किननर आदि विशेष संज्ञा होती है। किन्नर नामकर्म के उदय से किन्नर, किंपुरूष नामकर्म के उदय से किंपुरूष इत्यादि।
प्रश्न ४७६ – व्यन्तरों के निवास कौन कौन देश में है?
उत्तर- इस जंबूद्वीप के असंख्यात द्वीपों को समुद्रो को लांघकर प्रथम भूमि के खर पृथ्वी भाग में किन्नर किंपुरूष महोरग, गंधर्व, यक्ष भूत, और पिशाच ये ७ प्रकार के व्यन्तर रहते है। तथा खरभाग के समान ही पंकबहुल में राक्षसों के निवास है।
प्रश्न ४७७ – सभी व्यन्तर वासियों के भवन कितने है?
उत्तर- सभी व्यन्तरवासियों के असंख्यात भवन है।
प्रश्न ४७८ – व्यन्तरवासियों के भवन के कितने भेद है वे कहाँ है बतलाओ?
उत्तर- व्यन्तरवासियों के भवनो के तीन भेद है। भवन, भवनपुर और आवास। खरभाग पंकभाग भवन है। असंख्यात द्वीप समुद्रो के ऊपर भवनपुर है। और सरोवर पर्वत नदी आदि कोके ऊपर आवास होते है।
प्रश्न ४७९ – व्यन्तरवासियों के निवास व भवन, भवनपूर व आवास सबसे समान परिमाण में होते है कि कुछ विशेषता है?
उत्तर- मेरूप्रमाण मध्यलोक में और मेरू की चुलिका तक ऊपर उर्धवलोक में व्यन्तर देवो के निवास है। इन व्यन्तरों में से किन्हीं के भवन है किन्ही के भवन ओर भवनपु दोनो है एवं किन्ही के तीनो भवन भवनपुर और आवास तीनो ही स्थान होते है। ये सभी आवास प्राकार परकोटे से वेष्टित है।
प्रश्न ४८० – व्यन्तर देवो के मन्दिर कितने है?
उत्तर- व्यन्तरवासी देवो के स्थान असंख्यात होने से उनमें स्थित जिनमन्दिर भी असंख्यात प्रमाण है। क्योंकि जितने भवन भवनपुर और आवास है उतने ही जिनमन्दिर है।
प्रश्न ४८१ – व्यन्तर देवो के भवन आदिकों विस्तार प्रमाण बतलाइये?
उत्तर- व्यन्तर देवो के उत्कृष्ट भवनों का विस्तार- १२,००० योजन।
व्यन्तरदेवों के उत्कृष्ट भवनो की मोटाई- ३०० योजन है।
व्यन्तर देवो के उत्कृष्ट भवनपुरो का विस्तार ५१००००० योजन
व्यन्तर देवो के उत्कृष्ट भवन आवासो का विस्तार १,२२००० योजन
व्यन्तर देवो के जघन्य भवनो का विस्तार – २५ योजन
व्यन्तर देवो के जघन्य भवनो की मोटाई- ३ ४ योजन
व्यन्तर देवो के जघन्य भवनपुरो का विस्तार १ योजन
व्यन्तर देवो के जघन्य आवासों का विस्तार – ३ कोस है।
प्रश्न ४८२ – व्यन्तरों के भवन आदि की संख्या सभी के संख्या समान है कि कुछ विशेषता है?
उत्तर- भूतो के १४ हजार प्रमाण और राक्षसो के १६ हजार प्रमाण भवन है शेष व्यन्तरों के भवन नहीं है।
प्रश्न ४८३ – किन्नर किंपुरूष आदि ८ व्यन्तर देवो सम्बंधी ३ प्रकार के (भवन भवनपूर, आवास) भवनो के सामने क्या है?
उत्तर- प्रकार के व्यन्तर देवो के भवन, भवनपूर और आवास इन तीनो प्रकार के भवनो के आगे एक एक चैत्यवृक्ष है।
प्रश्न ४८४ – कौन से व्यन्तर के यहाँ कौनसा एक एक चैत्यवृक्ष है उनके नाम बतलाओ?
उत्तर- किन्नरों के भवनो के सामने अशोकवृक्ष।
किंपुरूषो के भवनो के सामने चंपकवृक्ष।
महोरग के भवनो के सामने नागद्रुमवृक्ष।
गंधर्व के भवनो के सामने तुंबरूवृक्ष।
यक्ष के भवनो के सामने न्यग्रोध वट वृक्ष।
राक्षस के भवनो के सामने कंटकवृक्ष।
भूत के भवनो के सामने तुलसीवृक्ष।
पिशाच के भवनो के सामने कदंबवृक्ष।
प्रश्न ४८५ – क्या सभी चैत्यवृक्ष अनादि निधन है?
उत्तर- ये सब चैत्यवृक्ष भवनवासी देवो के चैत्यवृक्षो के सदृश अनादिनिधन है।
प्रश्न ४८६ – चैत्यवृक्षो के मूल में क्या है?
उत्तर- चैत्यवृक्षो के मूल में चारो और चारतोरणों से शोभायमान चार चार जिनेन्द्र प्रतिमायें विराजमान है। पल्यांकासन से स्थित है। प्रासिहार्यो से सहित, दर्शनमात्र से ही पाप समूह को नाश करने वाली ये जिन प्रतिमायें भव्यजीवो को मुक्तिप्रदान करने वाली है।
प्रश्न ४८७ – व्यन्तरों के जिनभवनो में चैत्यवृक्ष है उन प्रतिमाओं का मन्दिर का वैभव बतलाओ?
उत्तर- जिनेन्द्र प्रसाद झारी कलश दर्पण, ध्वजा, चंवर बीजना, छत्र और होना इन एक सौ आठ आठ उत्तममंगल द्रव्यों से संयुक्त है। उपर्युक्त जिनेन्द्र प्रासाद दुन्दभी मृदंग, जयघंटा, भेरी झांझ, वीणा और बांसुरी आदि वादित्रों के शब्दो से हमेशा मुखरित रहते है। उन जिनेन्द्र भवनों में सिंहासनादि प्रातिहार्यो से सहित और हाथ में चमरों के लिये नागयक्ष देवयुगलों से संयुक्त ऐसी अकृत्रिम जिनप्रतिमायें जयवंत होती है। सग्यग्दृष्टि देव कर्मक्षय के निमित्त गाढ़भक्ति से विविध द्रव्यों के द्वारा उन प्रतिमाओं की पूजा करते है। अन्य देवो के उपदेशव्रत मिथ्यादृष्टि देव भी ये कूलदेवता है ऐसा समझकर उन जिनप्रतिमाओं की पूजा करते है।
प्रश्न ४८८ – संख्यात व असंख्यात वर्ष प्रमाण आयु से युक्त व्यन्तर देव एक समय में कितने योजन गमन करते है?
उत्तर-संख्यात वर्ष प्रमाण आयु वाले व्यन्तर देव एक समय में संख्यात योजन तथा असंख्यात वर्ष प्रमाण आयुवाले एक समय में असंख्यात योजन गमन करते है।
प्रश्न ४८९ – किन्नर आदि ८ प्रकार के देवो में से प्रत्येक की ऊँचाई का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- किन्नर आदि आङ्गो व्यन्तर देवो में से प्रत्येक की ऊँचाई १० धनुष प्रमाण जानना चाहिये।
प्रश्न ४९० – व्यन्तरदेवो का प्रमाण बतलाइये?
उत्तर- तेईसकरोड़ चारलाख सूच्यंगुलो के वर्ग का (तीन सौ योजन का वर्ग का) जगश्रेणी से भाग देने पर जो लब्ध आवे उतना व्यन्तर देवो का प्रमाण है असंख्यातो है।
प्रश्न ४९१ – व्यन्तर देव कितने उत्पभ होते है और मरते है उसका प्रमाण बतलाइये?
उत्तर- व्यन्तरों के असंख्यातो का भाग देने पर जो लब्ध आवे उतने देव उत्पभ होते है और उतने ही मरते है।
प्रश्न ४९२ – व्यन्तर तथा भवनवासी देवो के आवास और भवन चित्रा पृथ्वी के नीचे कितने योजन जाकर है?
उत्तर- व्यन्तर देव तथा अल्पद्र्धिक महद ऋद्धिक और मध्यमऋद्धिके धारक भवनवासी देवो के आवास और भवन क्रमश: चित्रा पृथ्वी के नीचे एक हजार, दो हजार, ४२ हजार और एक लाख योजन जाकर है।
प्रश्न ४९३ – आवास व भवन में अन्तर बतलाओ?
उत्तर- रमणीक तालाब पर्वत तथा वृक्षादिक के ऊपर स्थित निवासस्थानों को आवास कहते है तथा रत्नप्रभा पृथ्वी में स्थित निवास स्थानों को भवन कहते है।
प्रश्न ४९४ – रत्नप्रभापृथ्वी के तीन भागो में व्यन्तर भवनवासी व नारकी निवास स्थान कहाँ है?
उत्तर- प्रथम खरभाग जो १६००० योजन मोटा है उनमें नागकुमार आदि नौ प्रकार के भवनवासी के भवन तथा राक्षसो अतिरिक्त शेष ७ प्रकार के व्यन्तरों के आवास है। दूसरा पंकभाग ८४,००० हजार योजन मोटा है और उसमें असुर कुमारो के भवन तथा राक्षस देवों (व्यन्तर) के आवास है। तीसरा अब्बहुल भाग ८०,००० योजन मोटा है इस भाग में नारकी जीव है।
प्रश्न ४९५ – नीचोपपा आदि व्यन्तर देवो की आयु का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर-नीचोपपाद व्यन्तर देवो की आयु का प्रमाण १० हजार वर्ष दिगवासी का २०हजार वर्ष, अन्तरवासी का ३० हजार वर्ष, कुषमांड का ४० हजार वर्ष, उत्पभ का ५० हजार वर्ष, अनुत्पभ का ६० हजार वर्ष, प्रमाणक का ७० हजार वर्ष, गंध कार ८० हजार वर्ष, महागंध का ८४ हजार वर्ष, भुजंगदेवो का पल्य के ८ वें भाग, प्रीतिक का पल्य के चतुर्थ भाग प्रमाण और अकाशोत्पभ देवो की आयु का प्रमाण पल्य के अर्ध भाग प्रमाण है।
प्रश्न ४९६ – व्यन्तर देवो के तीन प्रकार निवास स्थान किसे कहते है?
उत्तर- व्यन्तर देवो के जो निवास स्थान मध्यलोकर की समभूमि पर है उन्हें भवनपुर कहते है। जो स्थान पृथ्वी से ऊँचे है उन्हें आवास कहते है जो स्थान पृथ्वी से नीचे है उन्हें भवन कहते है।
प्रश्न ४९७ -यथासम्भव सभी व्यन्तर देवो के निवासक्षेत्र को बतलाइये?
उत्तर- चित्रा और वज्र पृथ्वी की संधि से प्रारम्भ कर मेरूपर्वत की ऊँचाई तक के तथा मध्यलोक का विस्तारज हाँ तक है वहाँ तक के समस्त क्षेत्र में व्यन्तर देव यथा योग्य भवनपुरो आवास एवं भवनों में रहते है
प्रश्न ४९८ – भवनवासी देवो में तीनप्रकार की निवास स्थानों की क्या व्यवस्था है?
उत्तर- भवनवासी देवों में असुरकुमार को छोड़कर शेष में से किन्हीं किन्हीं के तीनो प्रकार के निवास स्थान है।
प्रश्न ४९९ – उत्कृष्ट व जघन्य भवनों के चारो और क्या है?
उत्तर- उत्कृष्ट भवनों के चारो और आधा योजन ऊँची वेदी है तथा जघन्य भवनों के चारों और २५ धनुष ऊँची वेदी है।
प्रश्न ५०० –गोलादि आकार वाले भवनपुरो का और जघन्य विस्तार का प्रमाण बतलाइये?
उत्तर- गोलादि आकार वाले भवनपुरों का उत्कृष्ट विस्तार एक लाख योजन और जघन्य विस्तार एक योजन प्रमाण है।
प्रश्न ५०१ – गोल आदि आवासो का उत्कृष्ट विस्तार व जघन्य विस्तार का प्रमाण बतलाइये?
उत्तर- गोल आदि आवासो का उत्कृष्ट विस्तार १२ हजार २०० योजन तथा जघन्य विस्तार पौन योजन अर्थात् तीन कोस है।
प्रश्न ५०२ – व्यन्तर देवो में जन्म लेने के कारण बतलाओ?
उत्तर- जो कुमार्ग में स्थित है, दूषित आचरण करने वाले है सम्पत्ति में अत्यन्त रूप से आसक्त है, बिना इच्छा के विषयों से विरक्त है अकाम निर्जरा करने वाले है अग्नि आदि के द्वारा मरण को प्राप्त करते है। संयम लेकर इसे मलिन करते है या विनाश करते है सम्यक्तव से शून्य है, पंचाग्निादि तप करके मदकषायी है ऐसे कर्मभूमि मनुष्य या तिर्यंच इन व्यन्तर देवो की पर्याय में जन्म लेते है। भोगभूमियाँ मरकर,भावन व्यन्तर व ज्योतिषी देवो में उत्पभ होते है।
प्रश्न ५०३ – देवपर्याय से मरकर जीव कहाँ कहाँ जन्म ले सकता है?
उत्तर- इस देव पर्याय से च्युत होकर सम्यक्तव से सहित देव उत्तम मनुष्य पर्याय प्राप्त करते है जो सम्यक्तव रहित हो मरण करते है वे देव कर्मभूमि के मनुष्य या पंचेन्द्रिय, सैनी, पर्याप्तिक, तिर्यंचो में जन्म लेते है। कदाचित विषयों की अत्यन्त आसक्ति के कारण मरने के ६ महिने से पहले से विलाप व सन्ताप करते हुये मरकर एकेन्द्रिय पर्याय में पृथ्वीकायिक, जलकायिक और प्रत्येक वनस्पति कायकि जीव भी हो जाते है।
प्रश्न ५०४ – देवो के शरीर की अवगाहना बतलाइये?
उत्तर- किन्नरादि आठो व्यन्तर देवो में से प्रत्येक की ऊँचाई १० धनुष प्रताण है।
प्रश्न ५०५ – देवो के जन्म लेने के स्थान को क्या कहते है?
उत्तर- देवो के जन्म लेने के स्थान को उपपाद शय्या कहते है। जिस पर जन्म लेकर पुण्यप्रभाव से १६ वर्ष के युवक समान हो जाते है। अंतर्मुहूर्त में ही शरीर की पर्याप्ति पूर्ण हो जाती है।
प्रश्न ५०६ – व्यन्तर देवोर आहार कैसा होता है?
उत्तर- किन्नरादि देव देवियाँ दिव्य अमृतमयर आहार का मन से ही उपभोग करते है। उनके कवलाहार नहीं है। अत: देवो के आहार का नाम मानसिक आहार है।
प्रश्न ५०७ – व्यन्तर देवो का प्रमाण बतलाइये?
उत्तर- पल्यप्रमाण आयु से युक्त देवो के आहार का काल ५ दिन एवं १० हजार वर्ष आयु वाले देवो का आहार दो दिन बाद होता है
प्रश्न ५०८ – देवो के उच्छ्वास का प्रमाण बतलाइये?
उत्तर- व्यन्तर देवो में जो पल्यप्रमाण आयु वाले देव है वे ५ मुहूर्तो में एवं जो १० हजार वर्ष की आयु वाले है वे सात उच्छ्वास प्रमाण काल के अनंतर उच्छ्वास लेते है।
प्रश्न ५०९ – देवो के अवधिज्ञान का विषय बतलाओ?
उत्तर- जघन्यआयु १०००० वर्ष प्रमाण आयु वालो की जघन्य अवधि का विषय ५ कोस है एवं उत्कृष्ट अवधि का विषय ५० कोस है। पल्योपम प्रमाण आयु वाले व्यन्तर देवो की अवधि का विषय नीचे व ऊपर एक लाख योजन प्रमाण है।
प्रश्न ५१० – व्यन्तर देवो की शक्ति कितनी होती है?
उत्तर- १०हजार वर्ष प्रमाण आयु का धारक प्रत्येक व्यन्तर देव १०० मनुष्यों को मारने व पालने के लिये समर्थ है एवं १५० धनुष प्रमाण विस्तार व मोटाई से युक्त क्षेत्र को अपनी शक्ति से उखाड़कर अन्यत्र फेकने की सामर्थ्य रखता है।
प्रश्न ५११ – व्यन्तर देवो कि विक्रिया का क्यार प्रमाण है?
उत्तर- १०हजार वर्ष की आयु का धारक व्यन्तर देव उत्कृष्ट रूप से १०० रूपो की और जघन्यरूप से ७ रूपो की विक्रया कर लेता है और मध्यमरूप से १०० से नीचे नीचे विविध प्रकार की विक्रिया करता है। बाकी के व्यन्तर वासी देवो में से प्रत्येकर देव अपने अपने अवधिज्ञान का जितना क्षेत्र है उतने मात्र क्षेत्र को विक्रिया के बल से पूर्णर कर सकते है।
प्रश्न ५१२ – व्यन्तर देवो में सम्यक्तव उत्पत्ति का कारण बतलाइये?
उत्तर- कदाचिद् ये देव जातिस्मरण, देव ऋद्धिदर्शन, जिनबिम्बदर्शन और धर्मश्रवण के निमित्तो से सम्यक्तव को प्राप्त कर लेते है।
प्रश्न ५१३ – जाति स्मरण से कैसे सम्यक्तव को प्राप्त करते है?
उत्तर- कदाचिद् इन देवो में से किसी को जातिस्मरण होकर कई कई भवो के पाप पुण्यर कृत्य स्मृति में आ जाते है, तब ये पाप भीरू होकर पापो की एवं मिथ्यात्व की आलोचना करते हुये सम्यक्तव को ग्रहण कर लेते है।
प्रश्न ५१४ – व्यन्तर देवो के देवऋद्धि दर्शन से कैसे सम्यकदर्शन होता है?
उत्तर- कदाचिद् कोई देव अपने से महान विभूतियों को देखकर अवधिज्ञान से अपने और उसकेर पाप पुण्य का मोल लगाने लगते है और सोचते है कि मैने मंद पुण्य किया था, जिससे की सौधर्म आदि के वैभव से शून्य रहा हूँ। इत्यादि सोचते हुये कर्म को मंद करते हुये सम्यक्तव को ग्रहण करते है।
प्रश्न ५१५ – व्यन्तर देव जिनबिम्ब दर्शन से कैसे सम्यक्तवर ग्रहण करते है?
उत्तर- कदाचिद् ये देव जिनेन्द्र के पंचकल्याणको के महोत्सव में आते है और किन्हींर अतिशयशाली महिमा को देखते है अथवार अकृतित्र जिन चैत्यालय के दर्शन करते है तब इन्हें सम्यक्तव की उत्पत्ति हो जाती है।
प्रश्न ५१६ – धर्मश्रवण से सम्यक्तव उत्पत्ति का काराण कैसे होता है?
उत्तर- कदाचिद् मध्यलोक में मुनियों से धर्मश्रवण करते है। कदाचिद् देवो की सभा में ही धर्मश्रवणर करते है। जिसके स्वरूप सम्यक्तव विधि को प्रगट कर लेते है पुन: सम्यक्तव के प्रभाव से मरण काल में सन्ताप और संक्लेशर न करते हुये शाम्ति भाव से देवपर्याय से च्यूत होकर मनुष्य भव प्राप्त कर लेते है एवं सम्यक्तव के फल स्वरूप सम्यक्तव चारित्रर को ग्रहण करके मोक्ष को प्राप्त कर लेते है।
प्रश्न ५१७ – व्यन्तर देवो का विशेष वर्णन बतलाओ?
उत्तर-औपपादिक अध्युषित और आभियोग्य इस प्रकार से व्यन्तर देव तीन प्रकार के भी होते है। मेरू प्रमाण ऊँचे मध्यलोक में ऊर्ध्व लोक में और अधोलोक में व्यन्तर देवो के निवास है। व्यन्तरो के भवन भवनपुर और आवास तीनो ही आवास प्राकार से वेष्टितर बतलाये गये है। सब भवनो के चारो और वेदिकायें मानी जाती है। जो कि परकोटे के सदृशर है। ये परकोटे महाभवनों के दो कोस ऊँचे तथार अन्य भवनों के १०० हाथ ऊँचे है।
समुद्र स्थित द्वीपो में भवनपुर होते है और तालाब पर्वत एवं वृक्षो के आश्रित आवास होते है। पुरो में कितने ही गोल त्रिकोण तथा चतुष्कोण भी होते है। इनमें क्षुद्रपुर १ योजन विस्तीर्ण तथा महापूर १ लाख योजन विस्तीर्ण होते है ये पूर असंख्यात द्वीप समुद्रो में स्थित है। ये रत्नमयी पूर रमणीय बहुतप्रकार के आकार वाले है।
प्रश्न ५१८ – व्यन्तरों के असंख्यात जिनमन्दिर उनमें प्रतिमा का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- व्यन्तर देवो के स्थान होने से उनमें स्थित जिनमन्दिर भी असंख्यात प्रमाण है। उन सभी मन्दिरों में एक सौ आठ, एक सौ आठ प्रमाण जिनप्रतिमायें विराजमान है। और बाकी सब व्यवस्था भवनवासी देवो के जिनमन्दिर के सदृश ही है।
प्रश्न ५१९ – व्यन्तर देवो की विशेषता बतलाये?
उत्तर- ये व्यन्तर देव क्रीड़ा प्रिय होने से इस मध्यलोक में यत्र तत्र शून्यस्थान वृक्षो की कोटर, श्मशान भूमि आदि में भी विचरण करते रहते है। कदाचित् , क्वचिद् किसी से पूर्वजन्म का विरोध होने से उसे कष्ट भी दियार करते है। किसी पर प्रसन्न होकर उसकी सहायता भी करते है। जब सम्यग्दर्शन को ग्रहणर कर लेते है तब पापभीरू बनकर धर्मकार्यो में ही रूचि लेते है।
प्रश्न ५२० – किन्नरो के १० भेदो के नाम बतलाओ?
उत्तर- किंपुरूष, किन्नर, हृदयंगम, रूपवाली, किन्नर किन्नर, मनोरम, किन्नरोत्तम, रतिप्रिय, अनिन्दित, और ज्येष्ठ ये १० प्रकार के किन्नर जाति के देव होते है।
प्रश्न ५२१ – किन्नरोर के २ इन्द्र, उनके नाम बतलाओ, उनकी दो दो अग्रदेवियों के नाम बतलाओ?
उत्तर- किन्नर के दो इन्द्र्र – किंपुरूष और किन्नर किंपुरूष की दो अग्रदेवियाँ- अवतंसा केतुमती। किन्नर की दो अग्रदेवियाँ- रतिषेणा रतिप्रिया।
प्रश्न ५२२ – किंपुरूष के १० भेदो के नाम बतलाओ?
उत्तर- पुरूष, पुरूषोत्तम, सत्पुरूष, महापुरूष, पुरूषप्रभ, असिपुरूष, मरू मरूदेव, मरूप्रभ और यशस्वान् ।
प्रश्न ५२३ – किंपुरूष के दो इन्द्रो के तथा उन इन्द्रो की दो दो देवियो के नाम बतलाओ?
उत्तर- किंपुरूषर के दो इन्द्र- सत्पुरूष, महापुरूष सत्पुरूष इंद्र की २ देवियाँ रोहिणी नवमी। महापुरूष इन्द्र की २ देवियाँ ह्नी पुष्पवती।
प्रश्न ५२४ – महोरग जाति के व्यन्तर के १० भेदो का नाम बतलाओ?
उत्तर- महोरग जाति के १० भेद – भुजंग भुजंगशाली, महाकाय, अतिकाय, स्कंधशाली, मनोहर, अशनिजव, महेश्वर, गम्भीर, और प्रियदर्शन।
प्रश्न ५२५ – महोरोगर देवो के दो इन्द्रो के उनकी दो दो देवियों के नाम बतलाओ?
उत्तर- महोरग के दो – महाकाय अतिकाय
महाकाय की दो देवियाँ- भोगा भोगावती।
अतिकाय की दो देवियाँ- अनिंदिता, पुष्पगंधी।
प्रश्न ५२६ – गंधर्वजाति के देवो के १० भेद बतलाइये?
उत्तर- हाँ हा, हू हू, तुंबरू, वासव, कदम्ब,महास्वर, गीतरति, गीतरस और वज्रमान।
प्रश्न ५२७ – गधर्वजाति के दोवोर के भेद, व उनकी दो दो देवियोंर के नाम बतलाओ?
उत्तर- गधर्वजातिर के दो दोवो के नाम- गीतरति, गीतरस।
गीतरति की दो देवियाँ- सरस्वति, स्वरसेना।
मीतरस की दो देवियाँ – नंदिनी प्रियदर्शना।
प्रश्न ५२८ – यक्षजाति देवो के १२ भेद बताओ?
उत्तर- मणिभद्र, पूर्णभद्र, शैलभद्र, मनोभद्र, भद्रक, सुभद्र, सर्वभद्र, मानुष, धनपाल, स्वरूप यक्ष, यक्षोत्तम, और मनोहरण ये १२ भेद यक्षो के है।
प्रश्न ५२९ – यक्षजाति के देवो के भेद और उनकी दो दो देवियो के नाम बतलाओ?
उत्तर- यक्षजाति देव के २ इन्द्र- मणिभद्र और पूर्णभद्र मणिभद्र की २ देवियाँ- कुंदार बहुपुत्र। पूर्णभद्र की २ देवियाँ- तारा और उत्तमा।
प्रश्न ५३० – राक्षसो के ७ भेद बतलाइये?
उत्तर- भीम, महाभीम, विनायक, उदक, राक्षस, राक्षस-राक्षस, ब्रह्म राक्षस ये सात भेद राक्षस है।
प्रश्न ५३१ – राक्षस जाति के देवो के दो भेद और उनकी दो दो देवियों के नाम बतलाओ?
उत्तर- राक्षस जाति देवोर के २ भेद – भीम, महाभीम।
भीम की २ देवियाँ- पद्मा, वसुयित्रा। महाभीम की दो देवियाँ- रत्नाढया कंचनप्रभा।
प्रश्न ५३२ – भूत जाति के ७ भेदो के नाम बतलाओ?
उत्तर- सुरूप, प्रतिरूप, भूतोत्तम, प्रतिभूत, महाभूत, प्रतिच्छभ और आकाशभूत ये भूतजाति देवो के ७ भेद है।
प्रश्न ५३३ – भूतजाति के देवो के २ भेद और उनकी देवियों के दो दो भेद बतलाओ?
उत्तर- भूतजाति के दो इन्द्रों के नाम- सुरूप और प्रतिरूप।
सुरूप की २ देवियाँ- रूपवती और बहुरूपा
प्रतिरूप की २ देवियाँ- सुमुखी और सुसीमा
प्रश्न ५३४ – पिशाचों के १४ भेद बतलाओ?
उत्तर- कुष्मांड, यक्ष, राक्षस, संमोह, तारक, अशुचि काल, महाकाल, शुचि सतालक, देह, महादेह, तूष्णिक और प्रवचन ये पिशाचों के १४ भेद है।
प्रश्न ५३५ – पिशाची देवो के, तथा उनकी दो दो देवियों के भी नाम बतलाओं?
उत्तर- पिशाची देवो के दो इन्द्र- काल महाकाल।
काल की २ अग्र देवियाँ कमला और कमलप्रभा।महाकाल की दो अग्रदेवियाँ –उत्पला सुदर्शन
प्रश्न ५३६ – व्यन्तरो के इन इन्द्रो की आयु का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- इन इन्द्रों की आयु का प्रमाण १ पल्य है।
प्रश्न ५३७ – व्यन्तरों के इन्द्रो की देवियों की कितनी आयु होती है?
उत्तर- इन्द्रो के अग्रदेवियों की आयु अर्धपल्य है।
प्रश्न ५३८ – अग्रदेवियों में से प्रत्येक के परिवार देवियों का प्रमाण क्या है?
उत्तर- अग्रदेवियों में से प्रत्येक के १००० हजार प्रमाण परिवार देवियाँ होती है।
प्रश्न ५३९ – आठ प्रकार के व्यन्तर देवो में प्रत्येक के दो दो इन्द्र होकर कुल कितने इन्द्र होते है?
उत्तर- कुल इन्द्र १६ हो जाते है।
प्रश्न ५४० – १६ इन्द्रो में प्रत्येक कितनी रूपवती गणिका महत्तरी होती है?
उत्तर- १६ इन्द्रो में प्रत्येक के २-२ रूपवती गणिका महत्तरी होती है।
प्रश्न ५४१ – व्यन्तर देवो के शरीर का वर्ण बतलाइये?
उत्तर- किन्नर- पियंगु, कुंपुरूष – सुवर्णसदृश, महोरग- कालश्यामल, गंधर्व- शुद्ध सुवर्ण, यक्ष- कालश्यामल, राक्षस- शुद्धश्याम, भूत कालश्यामल, पिशाच- कज्जल के सदृश।
प्रश्न ५४२ – व्यन्तरों के दो इन्द्र है उनमें क्या विशेषता है?
उत्तर- इन इन्द्रो में जिनका नाम पहले उच्चारण किया गया है वे ८ दक्षिणेन्द्र है एवं जिनका नाम बाद में है वे ८ उतरेन्द्र है
प्रश्न ५४३ – व्यन्तर देवो के नगर कहाँ है?
उत्तर- व्यन्तर देवो के नगर अंजनक, वज्रघातुक, सुवर्ण, मन:शिलक, वज्ररजत, हिंगुलक और हरिताल द्वीप में स्थित है।
इनमें से अपने नाम से अंकित नगर मध्य में एवं प्रभकांत, आवर्त, और मध्य इन नामो से अंकित नगर पूर्व आदि दिशाओं में होते है। जैसे किन्नर किन्नरत्रभ, किन्नरकांत, किन्नरावर्त और किन्नरमध्य ये ५ नगर के नाम है। इसमें नगर मध्य में है। शेष ४ नगर पूर्वादिर दिशाओं में क्रम से है।
प्रश्न ५४४ – दक्षिणेन्द्र और उत्तरेन्द्र का निवास कहाँ है?
उत्तर- इन द्वीपो में दक्षिणेन्द्र दक्षिण भाग में एवं उत्तरेन्द्र, उत्तरभाग में निवास करते है।
प्रश्न ५४५ – नगरो के बाहर पूर्वोदि दिशाओं में क्या है?
उत्तर- समथौकोण से स्थित इन पुरो के सुवर्णमय कोट है। इन नगरों के बाहर पूर्वादि दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में अशोक अशोक सप्तच्छद, चम्पक तथा आम्रवृक्षो के वनसमूह स्थित है
प्रश्न ५४६ – तीर्थंकर भगवान के जन्मकल्याणक के समय ऐरावत हाथी कौन जाति के देव बनते है?
उत्तर- अभियोग्य जाति का देव ऐरावत हाथी बनता है।
प्रश्न ५४७ – प्रत्येक इन्द्र के सामानिक देव कितने होते है?
उत्तर- प्रत्येक इन्द्र के चार हजार सामानिक देव होते है।
प्रश्न ५४८ – प्रत्येक इन्द्र के आत्मरक्षक देव कितने होते है?
उत्तर- प्रत्येक इन्द्र के आत्मरक्षक देव १६ हजार देव होते है।
प्रश्न ५४९ – प्रत्येक इन्द्र के आभ्यन्तर परिषद् देव कितने होते है?
उत्तर- प्रत्येक इन्द्र के आभ्यन्तर परिषद देव ८००० हजार होते है।
प्रश्न ५५० – प्रत्येक इन्द्र के मध्यपारिषद देव कितने होते है?
उत्तर- प्रत्येक इन्द्र के मध्य पारिषद् देव १०,००० हजार है।
प्रश्न ५५१ – प्रत्येक इन्द्र के बाह्य पारिषद देव कितने होते है?
उत्तर- प्रत्येक इन्द्र के बाह्य पारिषद देव १२,००० होते है।
प्रश्न ५५२ – प्रत्येक इन्द्रो की अनीक (सेनायें) कितनी होती है?
उत्तर- प्रत्येक इन्द्रो की अनीक (सेनायें) हाथी, घोड़ा, पदासि, गंधर्व, नर्तक, रथ और बैल इस प्रकार ७ सेनायें होती है।
प्रश्न ५५३ – हाथी आदि की पृथक पृथक कितनी कक्षायें स्थित है?
उत्तर- हाथी आदि की पृथक पृथक ७ कक्षायें होती है।
प्रश्न ५५४ – प्रथमकक्षा में हाथी का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- प्रथमकक्षा में हाथी सका प्रमाण २८००० है द्वितीय आदि कक्षाओं में हाथी दूने दूने है।
प्रश्न ५५५ – प्रत्येक इन्द्र के हाथियों का प्रमाण बतलाओ?
उत्तर- प्रत्येक इन्द्र के हाथियों का प्रमाण ३५,५६,००० है।
प्रश्न ५५६ – प्रत्येक इन्द्र के ७ अनिको का प्रमाण कितना है?
उत्तर- प्रत्येक इन्द्र की ७ अनिको का प्रमाण २ करोड़ ४८ लाख ९२ हजार है।
प्रश्न ५५७ – सात अनीको देवो के महत्तर देवो के नाम बतलाओ?
उत्तर- सात अनीको के महत्तर देवो के नाम क्रमश: सुज्येष्ठ सुग्रीव, विमल, मरूदेव, श्रीदाम, दामश्री और विशालाक्ष है। इसीप्रकार इन देवो (इन्द्रो) के प्रकीर्णक,आभियोग्य और किल्विषिक जाति के भी देव होते हैै।
इसप्रकार के परिवार से सहित सुखो का अनुभव करने वाले व्यन्तर देवेन्द्र अपने अपने पुरों में बहुत प्रकार की क्रीड़ाओं को करते हुये आनंद में मग्न रहते है।
प्रश्न ५५८ – अपने अपने इन्द्रों की पाश्र्वभागों में किनके नगर होते है?
उत्तर- अपने अपने इन्द्रियों की नगरियों के पाश्र्वभागों में उत्तमवेदी आदि संयुक्त गणिका महत्तरियों के नगर होते है। उन पुरियों में से प्रत्येक का विस्तार ८४,००० योजन प्रमाण है। और इतनी ही लम्बाई है।
प्रश्न ५५९ – व्यन्तर देवो के पहले उनके पश्चात् अर्थात् ऊपर और आगे कौन निवास करता है?
उत्तर- भवनवासी देवो के ऊपर व्यन्तर देव, उनके ऊपर नीचोप पातिक, उनसे ऊपर दिग्वासा्र देव स्थित है आगे आगे जाकर आकाशोत्पभ देव है उनकेर ऊपर ज्योतिर्वासी देव है पुन: कल्पवासी,स कल्पातीत देव रहते है। अंत ५ ५ अकुदिश अनुत्तर देव और उसके आगे सिद्ध परमेष्ठी विराजमान है।
प्रश्न ५६० – चित्रा पृथ्वी से कितने योजन की ऊँचाईस पर ज्योतिषी देव रहते है बतलाइये?
उत्तर- चित्रा पृथ्वी से ७९० योजन की ऊँचाई पर, चित्रापृथ्वी से ८०० योजन सूर्यदेव- आयु १ पल्य १००० वर्ष । इस पृथ्वी से ८० योजन ऊपर चंद्रदेव आयु १ पल्य १०००००- (१ लाख वर्ष) आयु।
प्रश्न ५६१ – वेयानिक देवो के दो भेदो के नाम बतलाओ?
उत्तर- वेयानिक देवो के दो भेद- कल्प और कल्पातीत।
प्रश्न ५६२ – चित्रा पृथ्वी से सौधर्मादि का कल्प का कितना अन्तर है?
उत्तर- चित्रापृथ्वी से ९९०४० योजन ऊपर जाकर सौधर्मादि के १२ कल्प है।
प्रश्न ५६३ – मध्यलोक से कितने ऊपर कल्पातीत देव रहते है?
उत्तर- मध्यलोक से ६ राजु के ऊपर अहमिंद्र आदि कल्पातीत देव है।
प्रश्न ५६४ – मध्यलोक से सिद्धशिला कितनी ऊँची है?
उत्तर- कुछ (१ लाख ४० योजन मध्यलोक में आ गया है) कम ७ राजु के ऊपर- सिद्धशिला है जिस पर अनंतानंत सिद्ध विराजमान है। उन सबको मेरा योग शुद्धि पूर्वक त्रिकाल नमस्कार है।