२.१ जिन्हें बार-बार भाया जावे अर्थात् जिनका बार-बार चिन्तन किया जावे वे भावना कहलाती हैं। जैन-धर्म में
२ प्रकार की भावनाएं प्रसिद्ध हैं- बारह भावना और सोलह कारण भावना। बारह प्रकार की भावनाओं का उल्लेख पूर्व में किया जा चुका है।
ये सोलह भावनाएं ही तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध का कारण हैं, अतः इन्हें सोलह कारण भावनाएं कहते हैं। इन
१६ भावनाओं में प्रथम भावना दर्शन-विशुद्धि है। इस भावना का भाना परमावश्यक है। यदि यह भावना नहीं है तो तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध नहीं हो सकता है। इस के साथ कुछ अन्य (या सभी शेष १५) भावनाएं और हों तो तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध होता है। यह बन्ध केवली या श्रुतकेवली के चरणारविन्द में ही होता है।
१. दर्शनविशुद्धि भावना-सम्यग्दर्शन का अत्यन्त निर्मल व दृढ़ होना, २५ दोष रहित विशुद्ध सम्यग्दर्शन को धारण करना ।
२. विनय-सम्पन्नता भावना-सच्चे देव, शास्त्र, गुरु और रत््नात्रय की विनय करना।
३. शील-व्रत अनतिचार भावना-अहिंसा आदि व्रतों की रक्षा के लिये क्रोध आदि कषाय का त्याग करना शील है। शील व व्रतों का निर्दोष पालन करना तथा उनमें अतिचार नहीं लगाना।
४. अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग भावना-अभीक्ष्ण का अर्थ सदा या निरंतर है। ज्ञान के अभ्यास में सदा लगे रहना।
५. संवेग भावना-दुःखमय संसार के आवागमन से सदा डरते रहना, धर्म और धर्म के फल में सदा अनुराग रखना।
६. शक्तितस्तप भावना-अपनी शक्ति के अनुसार अंतरंग व बाह्य तप करना ।
७. शक्तितस्त्याग भावना-अपनी शक्ति के अनुसार आहार, औषधि, शास्त्र आदि का दान देना।
८. साधुसमाधि भावना-‘साधु’ का अर्थ है श्रेष्ठ और ‘समाधि’ का अर्थ है मरण। अत: श्रेष्ठ मरण की भावना भाना साधु समाधि भावना है। साधु, व्रती पर आई विप्िययों का निवारण भी इसमें आता है।
९. वैयावृत्त्यकरण भावना-रोगी, वृद्ध, साधु-त्यागी की सेवा-सुश्रुषा करना, उनके कष्टों को औषधि आदि निर्दोष विधि से दूर करना।
१०. अरहन्तभक्ति भावना-अरहन्त की भक्ति करना, अरहन्त द्वारा कहे अनुसार आचरण करना। उनके गुणों में अनुराग रखते हुए, ऐसे गुण स्वयं को प्राप्त हों, ऐसी भावना भाना।
११. आचार्यभक्ति भावना-आचार्य परमेष्ठी की भक्ति करना, उनके गुणों में अनुराग रखना एवं ऐसे गुण हमें भी प्राप्त हों ऐसी भावना सदैव रखना ।
१२. बहुश्रुतभक्ति भावना-जो मुनि द्वादशांग के पारगामी हैं, वे बहुश्रुत कहलाते हैं। चूँकि शास्त्रों में पारंगत उपाध्याय परमेष्ठी हैं, अतः इस भावना का तात्पर्य उपाध्याय परमेष्ठी की भक्ति करने से है। उपाध्यायों का आदर, विनय करना उनके उपदेशों के अनुरूप प्रवृ्िय करना बहुश्रुत भक्ति भावना है, ऐसे ही गुण हमें प्राप्त हों ऐसी भावना सदैव बनाये रखना।
१३. प्रवचनभक्ति भावना-केवली भगवान के प्रवचन में अनुराग रखना अर्थात् वीतरागी द्वारा प्रणीत आगम (जिनवाणी) की भक्ति करना।
१४. आवश्यकअपरिहाणि भावना-अपरिहाणि का अर्थ ‘‘न छोड़े जाने योग्य’’ है। इस प्रकार छः आवश्यक क्रियाओं को यथासमय सावधानी पूर्वक करना इस भावना में आता है।
१५. मार्ग प्रभावना भावना-ज्ञान, ध्यान ,तप, पूजा आदि के माध्यम से जिनेन्द्र भगवान द्वारा बताये गये धर्म (अर्थत् जैनधर्म) को प्रकाशित करना, पैâलाना मार्ग प्रभावना भावना है। विद्यालय व औषधालय खुलवाना, असहाय व्यक्तियों की सहायता करना आदि कल्याणकारी कार्य भी इस भावना में आते हैं।
१६. प्रवचनवात्सल्य भावना-साधर्मी बंधुओं में अगाध प्रेम भाव रखना।
विशेष-सोलहकारण भावनाओं का क्रम षट्खण्डागम (पुस्तक-८) में कुछ अलग प्रकार से है। उसे जानने हेतु ज्ञानामृत भाग-२ एवं तीर्थंकर बनने के नियम नामक ग्रंथों (जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर से प्रकाशित) से पढ़ना चाहिए।
१.१ तत्त्वों के बार-बार चिन्तन को भावना अथवा अनुप्रेक्षा कहते हैं। ये १२ प्रकार की हैं। इन भावनाओं को बार-बार भाते रहने से संसार, शरीर, भोगादि से विरक्त भाव उत्पन््ना होता है। भावना से परिणामों की उज्ज्वलता होती है, मिथ्यादर्शन का अभाव होता है, व्रतों में दृढ़ता बढ़ती है और शुभ ध्यान की वृद्धि होती है। भूतकाल में जो महापुरुष हुए हैं उन सभी ने इन भावनाओं का चिन्तन किया है।
उन सभी ने अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ, धर्म इन बारह भावनाओं का चिंतन किया है।
बारह भावनाओं का विवरण निम्नानुसार है-
१.१.१ अनित्य भावना एवं अशरण भावना-
अब सर्वप्रथम अनित्य भावना को कहते हैं। इसका दूसरा नाम अनित्य अनुप्रेक्षा है।
तन धन यौवन इन्द्रिय सुख ये, सब क्षणभंगुर हैं नित्य नहीं।
मैं नित्य अचल अविनश्वर हूँ, स्वाभाविक शक्ति अचिन्त्य कही।।
मैं नित ध्याऊँ निज आत्मा को, अविनश्वर पद के पाने तक।
मैं ज्ञाता दृष्टा बन जाऊँ, सर्वज्ञ अवस्था आने तक।।१।।
राजाओं का वैभव, देवों के विमान, धन, यौवन, ऐश्वर्य, बल, आज्ञा का चलना, इन्द्रिय के भोग ये सब एक निमिष मात्र भी स्थिर नहीं हैं। जैसे आकाश में बिजली चमक कर नष्ट हो जाती है, इन्द्रधनुष क्षण में विलीन हो जाता है उसी प्रकार इस संसार में ये सब नष्ट होने वाले हैं। इन सबसे भिन्न मात्र अपने आत्म- स्वभाव की ही तुम सतत साधना करो कि जिससे तुम स्थिर ऐसी मुक्ति को प्राप्त कर सकोगे।
इस अध्रुव अथवा अनित्य भावना का चिंतवन करते रहने से मन में संसार की किसी भी वस्तु के प्रति विशेष ममत्व भाव नहीं रह जाता है बल्कि उससे भिन्न अपनी आत्मा शाश्वत काल रहने वाली नित्य है, उसमें ही सच्चा अनुराग उत्पन्न होता है तथा उस आत्मा की सिद्धि के लिए कारणभूत ऐसे पाँचों परमेष्ठियों की भक्ति, उपासना, आराधना में भी अनुराग होता है इसलिए इस अध्रुव अनुपे्रक्षा का हमेशा चिंतवन करते रहना चाहिए।
जग में क्या शरण कोई देगा, सब शरण रहित अशरणजन हैं।
आत्मा इक शरणागत रक्षक, उस ही का शरण लिया मैंने।।
यद्यपि अर्हंत जिन पंचगुरू, हैं शरणभूत निज भक्तों के।
पर निश्चय से निज आत्मा ही, रक्षा करती भव दु:खों से।।२।।
तात्पर्य यह हुआ कि अशरण भावना भाते समय निश्चयनय से अपनी आत्मा को ही शरण समझकर व्यवहार नय से पाँचों परमेष्ठी की शरण लेना चाहिए। यही इस भावना को भाने का सार है।
इस तीन लोकरूपी वन में जैसे व्याघ्र हरिण को पकड़ ले तो उसकी दाढ़ के नीचे गए हुए उस हरिण को कोई भी शरण नहीं है। उसी प्रकार हे जीव! मृत्यु के समय तुम्हारी रक्षा करने वाला भला कौन बलवान है ? माता-पिता, बन्धु, राजा और इन्द्र ये सभी तो यमराज के मुख का ग्रास बन रहे हैं पुन: ये तुम्हारी क्या रक्षा करेंगे ? हाँ, इस जगत में रक्षक वे ही हैं कि जिन्होंने यमराज को जीत लिया है इसलिए मृत्यु के विजेता ऐसे देवाधिदेव जिनेन्द्रदेव की ही शरण लेवो।
१.१.२ संसार भावना एवं एकत्व भावना-
हैं द्रव्य, क्षेत्र औ काल तथा, भव भाव पंच विध परिवर्तन।
निज आत्मा के अंदर रमते, ही रुक जाते सब परिभ्रमण।।
मैं हूँ निश्चय से भ्रमण रहित, शिवपुर में ही विश्राम मेरा।
मैं निज में स्थिर हो जाऊँ, फिर होवे भ्रमण समाप्त मेरा।।
इस तीन जगत में चिरकाल से मिथ्यात्व और मायाचार से यह जीव भ्रमण कर रहा है। श्री जिनेन्द्रदेव के धर्म को नहीं प्राप्त कर ही इसने अनंतकाल बिता दिया है। इस जगत में केवल दु:ख ही दु:ख है, शाश्वत शांति नहीं है। इसलिए हे भव्यजीव! तुम भव से रहित ऐसे जिनेन्द्रदेव का आश्रय लेवो कि जिससे पुन: तुम्हें इस संसार में जन्म-मरण ही न करना पड़े।
इस प्रकार संसार भावना के बार-बार चिंतवन करने से संसार से भय उत्पन्न होता है तब मोक्ष प्राप्ति के उपाय में प्रवृत्ति होती है।
मैं हूँ अनादि से एकाकी, एकाकी जन्म मरण करता।
फिर भी अनंतगुण से युत हूँ, मैं जन्म मृत्यु भय का हरता।।
स्वयमेव आत्मा को ध्याऊँ, पूजूं वंदूँ गुणगान करूँ।
एकाकी लोक शिखर जाकर, स्थिर हो निज सुख पान करूँ।।
इस संसार में यह जीव अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही मरता है। इसके साथ दूसरा कोई नहीं जाता है और न आता ही है। हे भाई! यह स्पष्टतया देखो, मात्र प्रत्येक जीव के साथ उसके किये हुए शुभ-अशुभ कर्म ही साथ जाते हैं बाकी कोई किसी के साथ नहीं जाता है। जैसे रात्रि में वृक्ष पर अनेक पक्षी आकर इकट्ठे हो जाते हैं और प्रात: होते ही अन्यत्र चले जाते हैं।
१.१.३ अन्यत्व भावना एवं अशुचि भावना-
मेरी आत्मा से भिन्न सभी, किंचित् अणुमात्र न मेरा है।
मैं सबसे भिन्न अलौकिक हूँ, बस पूर्ण ज्ञान सुख मेरा है।।
मैं अन्य सभी पर द्रव्यों से, संबंध नहीं रख सकता हूँ।
वे सब अपने में स्वयं सिद्ध, मैं निज भावों का कर्ता हूँ।।
‘‘यह घर मेरा है यह शरीर मेरा है’’ ऐसा कहते हुए यह संसारी प्राणी प्रत्येक वस्तु से स्नेह करते रहते हैं किन्तु वास्तव में कोई भी वस्तु इस जीव के साथ नहीं जाती है। जैसे जल और दूध मिलाने पर एकमेक हो जाते हैं वैसे ही यह जीव और शरीर दोनों एकमेक हो रहे हैं किन्तु इनका लक्षण अलग-अलग है। जल को अलग कर दूध पीने वाले हंस के समान तुम चिन्मय चैतन्य हंस अपनी आत्मा को कर्मों से अलग कर सुखी होवो।
यह देह अपावन अशुचिमयी, सब शुचि वस्तु अपवित्र करे।
इस तन में राजित आत्मा ही, रत्नत्रय से तन शुद्धि करे।।
तन सहित तथापी अशरीरी, आत्मा को ध्याऊँ रुचि करके।
चैतन्य परम आल्हादमयी, परमात्मा बन जाऊँ झट से।।
यह शरीर मल, मूत्र आदि अशुचि पदार्थों का पिंड है इससे हमेशा दुर्गंध ही निकलती रहती है। चाहे जितना इसे नहलाओ, सुगंधित द्रव्य लगाओ पर वे भी अपवित्र हो जाते हैं। इस शरीर में स्थित आत्मा को तीन रत्न-रत्नत्रय से धोने पर यह पवित्र हो जाता है। ऐसी भावना भाने से शरीर से प्रेम नष्ट हो जाता है और रत्नत्रय में प्रीति उत्पन्न होती है जिससे इस नश्वर घृणित शरीर से ही आत्मा को अविनाशी पवित्र बनाया जाता है।
इस प्रकार अशुचि भावना के भाते रहने से शरीर से ममत्व दूर हो जाता है और इस अपवित्र शरीर से रत्नत्रय द्वारा संसारी आत्मा को पवित्र कर लिया जाता है।
१.१.४ आस्रव भावना एवं संवर भावना-
मिथ्या अविरती कषायों से, कर्मास्रव हैं आते रहते।
पर ये जड़ अशुचि अचेतन हैं, जड़ ही इनको रचते रहते।।
मेरा है चेतन रूप सदा, मैं इन कर्मोंे से भिन्न कहा।
मैं निज आत्मा को भिन्न समझ, इन कर्मास्रव से पृथक् किया।।
मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग इनके द्वारा आठ प्रकार के कर्म आत्मा में आते हैं। ये शुभ-अशुभरूप से बंधकर अच्छे-बुरे फलों को देते रहते हैं। जैसे जहाज में छिद्र होने से चारों तरफ से उसमें जल भर जाने से वह समुद्र में डूब जाता है, उसी प्रकार से संसार समुद्र में यह आत्मा इन आस्रव के कारण डूब जाता है।
इस आस्रव भावना को समझकर मिथ्यात्व आदि से बचना, उनके विपरीत सम्यक्त्व, विरति आदि को ग्रहण करना यही इस आस्रव भावना को भाने का सार है।
गुप्ति समितियुत संयम ही, कर्मों का संवर करते हैं।
निश्चय से निज में गुप्त रहूँ, तब कर्मास्रव सब रुकते हैं।।
मैं निर्विकल्प निज परम ध्यान, में लीन रहूँ परमारथ में।
फिर कर्म कहो आते वैâसे ? ये भी रुक जाते मारग में।।
जहाज के छिद्रों को बंद करने से वह उसमें बैठने वालों को समुद्र के किनारे पहुँचा देता है वैसे ही कर्म के छिद्रों को रोकने के लिए संयम की आवश्यकता है। हे भव्यजीव! तुम हमेशा व्रत, समिति आदि के पालन करने में तत्पर होवो क्योंकि इस संसार को पार करने के लिए संवर भावना ही है, ऐसा तुम सतत मन में चिंतवन करते रहो।
संवर भावना को भाते रहने से आस्रव से भय होता है और संवर को प्राप्त करने की रुचि उत्पन्न होती है। यही इस भावना के चिंतन करने का अभिप्राय है।
१.१.५ निर्जरा भावना एवं लोक भावना-
ध्यानाग्नि से सब कर्मपुंज, को जला जलाकर भस्म करूँ।
बहिरंतर तप तपते तपते, निज से कर्मों को जुदा करूँ।।
मैं कर्मरहित निज आत्मा को, जब निज में स्थिर कर पाऊँ।
तब कर्म स्वयं ही झड़ जावें, मैं मुक्तिश्री को पा जाऊँ।।
जैसे सूर्य के आतप से सरोवर का जल सूख जाता है वैसे ही तपश्चर्या के द्वारा कर्मों को सुखाना चाहिए। आगे के आने वाले कर्म रुक गये और पुराने बंधे हुए झड़ते गये तो क्रम से सब कर्मों की निर्जरा होकर शीघ्र ही मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है, ऐसा सतत चिन्तन करना निर्जरा भावना है।
यह निर्जरा भावना कर्मों से छुड़ाकर मोक्ष प्राप्त कराने वाली है। इसके भाते रहने से आत्मा से कर्मों का भार हल्का होता है।
यह लोक अनादि अनिधन है, यह पुरुषाकार कहा जिन ने।
नहिं किंचित् सुख पाया क्षण भर, मैं घूम घूम कर इस जग में।।
अब मैं निज का अवलोकन कर, लोकाग्रशिखर पर वास करूँ।
मैं लोकालोकविलोकी भी, निज का अवलोकन मात्र करूँ।।
यह लोक तीन सौ तेतालीस राजु प्रमाण घनरूप है, पुरुष के आकार का है। इसी में चौरासी लाख योनियों में अनेक आकार को धारण करके यह जीव घूम रहा है। तत्त्वज्ञान के बिना इस लोक में लेशमात्र भी शांति नहीं मिल सकती है। जो लोक के अग्रभाग में निवास कर रहे हैं ऐसे सिद्ध भगवान को ही पूर्ण शांति प्राप्त है, वे ही स्थिर पद पर निवास कर रहे हैं।
इस लोक भावना के बार-बार भाते रहने से यह जीव ऊर्ध्वलोक को प्राप्त करने का प्रयास करता है पुन: धीरे-धीरे लोक के अग्रभाग को प्राप्त कर लेता है।
१.१.६ बोधिदुर्लभ भावना एवं धर्म भावना-
दुर्लभ निगोद से स्थावर, त्रस पंचेन्द्रिय होना दुर्लभ।
दुर्लभ उत्तम कुल देश धर्म, रत्नत्रय भी पाना दुर्लभ।।
सबसे दुर्लभ निज को पाना, जो नित प्रति निज के पास सही।
दुर्लभ निज को पाकर निज में, स्थिर हो पाऊँ सौख्य मही।।
इस जगत में पृथ्वी, जल, वनस्पति आदि स्थावर एकेन्द्रिय से त्रस पर्याय में दो इन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चार इन्द्रिय होना दुर्लभ है, पुन: पंचेन्द्रिय होना दुर्लभ है। इसको पाकर उत्तम कुल, बल, जाति, रूप, शरीर स्वस्थता, बुद्धि और श्रेष्ठ गुणों का पाना दुर्लभ है। इन सबको पाकर भी उत्तम संयम पाना पुन: अंत में समाधिमरण प्राप्त करना बहुत ही दुर्लभ है। इन सबको पाकर हे भव्य! तुम जिनराज के चरणों का आश्रय लेवो कि जिससे जन्म-मरण की परम्परा समाप्त हो जावे।
जो भवसमुद्र में पतित जनों को, निज सुखपद में धरता है।
है धर्म वही मंगलकारी, वह सकल अमंगल हर्ता है।।
वह लोक में है उत्तम सबमें, औ वही शरण है सब जन को।
निज धर्ममयी नौका चढ़कर, मैं शीघ्र तिरूँ भवसिंधू को।।
इस जीवन में धर्म ही श्री है और धर्म ही श्रेष्ठ है, यह धर्म ही कल्पवृक्ष है, चिंतामणि है, इसके समान और कुछ भी नहीं है। हे आत्मन्! तुम यदि सतत शांति चाहते हो तो सर्व भ्रांति को छोड़कर इस धर्मरूपी अमृत का पान करो, पान करो, यही अजर अमर पद को देने वाला है।
यह धर्म संसार में सर्व मनोरथ को पूर्ण कर अनेक अभ्युदयों को प्रदान करता है पुन: सर्व कर्मों का नाश कर मोक्षसुख देने वाला है। धर्म के बिना इस जगत में कुछ भी सार नहीं है, ऐसा बार-बार भाते रहने से यह धर्म आत्मा को परमात्मा बना देता है।
विशेष-अनेक सन्तों एवं कवियों द्वारा बारह भावनाएँ रची गयी हैं। उनमें से कोई भी बारह भावना यहाँ ली जा सकती हैं।
३.१ ‘‘उत्तम संहनन वाले का एक विषय में चित्तवृत्ति का रोकना ध्यान है जो अंतर्मुहूर्त काल तक होता है।’’
आदि के वङ्कावृषभ नाराच, वङ्कानाराच और नाराच ये तीनों संहनन उत्तम माने हैं। ये तीनों ही ध्यान के साधन हैं किन्तु मोक्ष का साधन तो प्रथम संहनन ही है।
नाना पदार्थों का अवलम्बन लेने से चिंता परिस्पंदवती होती है। उसे अन्य अशेष मुखों से-विषयों से लौटाकर एक अग्र-एक विषय में नियमित करना एकाग्रचिन्ता निरोध कहलाता है। यही ध्यान है, यह उत्कृष्ट भी एक मुहूर्त के भीतर ही तक होता है चूँकि इसके बाद एकाग्रचिन्ता दुर्धर ही है। चिन्ता के निरोध-अभाव- प होने से यह ध्यान असत्-शून्यरूप नहीं है प्रत्युत् ‘‘निश्चल अग्नि की शिखा के समान निश्चलरूप से अवभासमान ज्ञान ही ध्यान है।’’
‘‘जो एक चिन्ता का निरोध है वह तो ध्यान है और जो इससे भिन्न है वह भावना है। उसे विद्वान् लोग अनुप्रेक्षा अथवा अर्थ चिन्ता भी कहते हैं।’’
आर्त, रौद्र, धर्म्य और शुक्ल। यह ध्यान प्रशस्त और अप्रशस्त के भेद से दो प्रकार भी हो जाता है। पापास्रव का कारणभूत अप्रशस्त है और कर्म दहन की सामर्थ्य से युक्त ध्यान प्रशस्त है। अन्यत्र भी कहा है-
‘‘जिस ध्यान में मुनि रागरहित हो जावें, वह प्रशस्त ध्यान है और वस्तु स्वरूप से अनभिज्ञ तथा राग, द्वेष, मोह से पीड़ित जीव की स्वाधीन प्रवृत्ति अप्रशस्त ध्यान है। यह बिना उपदेश के ही होता है क्योंकि यह अनादि वासना है।
‘‘धर्म्य और शुक्ल ये दो ध्यान मोक्ष के लिए कारण हैं और आर्तरौद्र ध्यान संसार के लिए कारण हैं।’’
आर्तध्यान-‘ऋतं’ अर्थात् दु:ख, अथवा ‘अर्दनमर्ति:’ अर्थात् पीड़ा है। इसमें होने वाला ध्यान ‘आर्तध्यान’ है। इसके चार भेद हैं-
विष कंंटक शत्रु आदि अप्रिय पदार्थ अमनोज्ञ हैं। उनका संयोग होने पर ‘मैं क्या उपाय करूँ कि जिससे यह मुझसे दूर हो जावें’ ऐसा बार-बार चिंतन करना अनिष्टसंयोगज आर्तध्यान है।
स्वपुत्र, धन, स्त्री, आदि मनोज्ञ वस्तु के वियोग होने पर उसकी प्राप्ति की सतत चिन्ता करना इष्टवियोगज आर्तध्यान है।
शरीर में वेदना के होने से उसके दूर करने हेतु बार-बार विचार करना तृतीय वेदनाजन्य आर्तध्यान है।
आगामी विषयों की प्राप्ति हेतु मन का उपयोग लगाना-चिन्ता करना सो निदान आर्तध्यान है।
‘‘यह आर्तध्यान पहले गुणस्थान से लेकर छठे तक हो सकता है। छठे में मात्र निदान आर्तध्यान नहीं है। बाकी तीन आर्तध्यान प्रमाद के उद्रेक से कदाचित् हो सकते हैं।’’
रौद्रध्यान-‘रुद्र:’ अर्थात् क्रूर आशय, इसका जो कर्म है अथवा जो क्रूराशय से होता है वह रौद्रध्यान है। उसके भी चार भेद है-‘हिंसा, असत्य, चोरी और विषय संरक्षण के लिए सतत चिन्तन करना। इस प्रकार से इन चार के आश्रय से चार भेद रूप रौद्रध्यान है। यह पहले गुणस्थान से लेकर देशविरत गुणस्थान तक होता है।
‘‘देशविरत के रौद्रध्यान वैâसे हो सकता है?’’
हिसादि के आवेश से या धन आदि के संरक्षण की परतंत्रता से कदाचित् देशव्रती के भी हो सकता है किन्तु सम्यग्दर्शन की सामर्थ्य से उसका यह ध्यान नरक आदि दुर्गतियों का कारण नहीं है।’’
धर्मध्यान-धर्म से युक्त ध्यान धर्म्यध्यान है। इसके भी चार भेद हैं-आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान। इनकी विचारणा के निमित्त मन को एकाग्र करना धर्मध्यान है।
उपदेश देने वाले का अभाव होने से, स्वयं मंदबुद्धि होने से, कर्मों का उदय होने से और पदार्थों के सूक्ष्म होने से इत्यादि कारणों से सर्वज्ञ प्रणीत आगम को प्रमाण मान करके ‘यह इसी प्रकार है, क्योंकि जिन अन्यथावादी नहीं होते’ ऐसा गहन पदार्थों का भी श्रद्धान द्वारा अर्थ निश्चित करना आज्ञाविचय धर्म्यध्यान है अथवा जो स्वयं पदार्थों के रहस्य को जानता है और जो दूसरों को उसका प्रतिपादन करना चाहता है इसलिए जो स्वसिद्धान्त का समर्थन, चिंतवन आदि है वह सभी आज्ञाविचय है।
मिथ्यादृष्टी जीव सर्वज्ञ प्रणीत मार्ग से विमुख हो रहे हैं, उन्हें सन्मार्ग का ज्ञान न होने से मोक्षार्थी पुरुषों को दूर से ही त्याग देते हैं अथवा ये प्राणी मिथ्यादर्शन आदि से वैâसे दूर हों, ऐसा निरन्तर चिंतन करना अपायविचय धर्म्यध्यान है।
ज्ञानावरण आदि कर्मों के उदय से होने वाले फल के अनुभव का बार-बार चिंतन करना विपाकविचय धर्म्यध्यान है।
लोक के आकार और स्वभाव का निरन्तर चिंतवन करना संस्थानविचय धर्म्यध्यान है।
इस प्रकार उत्तम क्षमा आदि दस धर्मों से सहित ध्यानधर्म्य ध्यान है। यह अविरत सम्यग्दृष्टि से लेकर सातवें गुणस्थान तक होता है।
श्री वीरसेन स्वामी ने धवला में धर्म्य ध्यान को दशवें गुणस्थान तक भी माना है।
अन्यत्र ग्रंथों में संस्थानविचय धर्म्य के पिंडस्थ पदस्थ आदि चार भेद किये हैं, जो कि मन को बाह्य प्रपंचों से हटाने के लिए बहुत ही सहायक होते हैं।
इसमें आचार्य ने सबसे पहले ध्याता का लक्षण बतलाते हुए कहा है कि जो सर्वारंभ परिग्रह से रहित मुनि हैं, वे ही इन्द्रिय और मन पर पूर्ण विजय प्राप्त कर सकते हैं, अन्य नहीं। गृहस्थी बेचारे नित्य ही सर्वारंभ में पँâसे हुए होने से ध्यान के अधिकारी नहीं हैं। यथा-‘‘कदाचित् आकाश के पुष्प और गधे के सींग हो सकते हैं परन्तु किसी भी देश या काल में गृहस्थाश्रम में ध्यान की सिद्धि नहीं हो सकती है।१’’
इस हेतु से मुख्यतया मुनियों के लिए ध्यान सिद्धि का उपाय बताते हुए पहले आचार्य ने मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ इन चार भावनाओं के आश्रय लेने को कहा है ‘पुन: और अध्यात्म भावनाओं के भाने का उपदेश दिया है।
स्थान-ध्यान के लिए बाधक स्थानों को छोड़कर उत्तम स्थानों के आश्रय लेने का उपदेश दिया है। ‘‘सिद्धक्षेत्र महातीर्थों पर, पुराणपुरुष तीर्थंकर आदि के जहाँ गर्भ, जन्म आदि कल्याणक हुए हैं, ऐसे जो पवित्र पुण्य स्थान हैं अथवा समुद्र के किनारे, वन में, पर्वत की चोटी पर इत्यादि निर्जन स्थानों में ध्यान की सिद्धि होती है। सिद्धकूट तथा कृत्रिम-अकृत्रिम चैत्यालयों में महाऋद्धि के धारक महाधीर वीर संयमी सिद्धि की वांछा करते हैं। अभिप्राय यही है कि जहाँ उपयोग स्थिर हो सके और परिणाम राग-द्वेष से विक्षिप्त नहीं होवें, वही स्थान योग्य है।’’
आसन-‘‘समाधि-ध्यान की सिद्धि के लिए काष्ठ के पट्टे पर, शिला पर अथवा भूमि पर वा बालू रेत में भले प्रकार स्थिर आसन लगाना चाहिए।’’
पर्यंक आसन, अर्द्धपर्यंक आसन, वङ्काासन, वीरासन, सुखासन, कमलासन और कायोत्सर्ग ये ध्यान के योग्य आसन होते हैं। जिस आसन पर मुनि सुखपूर्वक मन को निश्चल कर सके, वही आसन श्रेयस्कर है। वङ्कावृषभ नाराच संहनन काय वाले मुनि भयंकर से भयंकर उपसर्गों के आ जाने पर भी ध्यान से स्खलित नहीं होते हैं। हीन संहनन वालों को भी आसन स्थिर करने का अभ्यास करते हुए परीषह उपसर्गों को जीतने का अभ्यास करना चाहिए।
स्वामी-‘‘इस धर्मध्यान के स्वामी मुख्यरूप से अप्रमत्त मुनि सप्तम गुणस्थानवर्ती ही हैं और उपचार से प्रमत्तमुनि-छठें गुणस्थानवर्ती मुनि हैं। जो अप्रमत्तमुनि उत्तम संस्थान और उत्तम संहनन सहित, जितेन्द्रिय, स्थिर, पूर्ववेदी-द्वादशांग के वेत्ता, संवरवान् और धीर हैं वे ही सम्पूर्ण लक्षण से समन्वित ध्यान के अधिकारी हैं।
अथवा चौदह पूर्वों के ज्ञान से रहित भी श्रुतज्ञानी श्रेणी के नीचे सातवें गुणस्थान तक ध्यान के स्वामी होते हैं।
किन्हीं आचार्यों ने धर्मध्यान के चार स्वामी भी माने हैं-अविरत-सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत और अप्रमत्त विरत अर्थात् उत्तम, मध्यम और जघन्य की अपेक्षा से ये चारों गुणस्थान वाले भी धर्मध्यान के करने वाले होते हैं।’’
‘‘धर्मध्यान के चतुर्थ भेद-संस्थान विचय के पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ये चार भेद माने गये हैं।’’
पिंडस्थ ध्यान में पार्थिवी, आग्नेयी, श्वसना, वारुणी और तत्त्वरूपवती ऐसी पाँच धारणाएँ होती हैं।
पार्थिवी धारणा-प्रथम ही योगी मध्यलोक में स्वयंभूरमण समुद्र पर्यंत जो तिर्यक्लोक है, उसके समान नि:शब्द, कल्लोल रहित, सफेद क्षीरसमुद्र का चिंतवन करे। उसके मध्यभाग में अमित पैâलती हुई दीप्ति से शोभायमान, पिघलाये हुए सुवर्ण की सी प्रभा वाले एक सहस्रदल के कमल का चिंतन करे। यह कमल जम्बूद्वीप के बराबर एक लाख योजन विस्तृत है, ऐसे सोचे। पुन: उस कमल के मध्य में सुवर्णाचल-मेरु के समान पीतरंग की प्रभा वाली कर्णिका का चिंतवन करे। उस कर्णिका में एक ऊँचा सिंहासन है। उस पर अपनी आत्मा को सुखरूप, शांत स्वरूप क्षोभरहित चिंतवन करे। मैं सम्पूर्ण रागद्वेषादि को क्षय करने में समर्थ हूँ, कर्म की संतान को नाश करने में उद्यमी हूँ। यह पार्थिवी धारणा का स्वरूप हुआ।
आग्नेयी धारणा-तत्पश्चात् योगी निश्चल अभ्यास में चिंतवन करे कि अपने नाभिमंडल में १६ ऊँचे-ऊँचे पत्रों का कमल है। उनमें क्रम से ‘‘अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ¸ ऌ ल¸ ए ऐ ओ औ अं अ:’’ ये सोलह अक्षर स्थित हैं और कर्णिका पर ‘‘र्हं’’ ऐसा महामंत्र विराजमान है। पुन: उस महामंत्र के रेफ से मंद-मंद धूमशिखा उठ रही है, अनन्तर उसमें से प्रवाहरूप स्फुलिंगों की पंक्ति निकलने लगी, तत्पश्चात् उसमें से ज्वाला की लपटें उठने लगीं। पुन: वे लपटें बढ़ते हुए हृदय में स्थित कमल को जलाने लगी हैं अर्थात् हृदय में अधोमुख आठ पांखुड़ी वाला एक कमल है उसके दलों पर क्रमश: आठ कर्म स्थित हैं। इस कमल को ‘र्हं’ बीजाक्षर से निकली हुई अग्नि ने जला दिया है। तब आठों कर्म जल चुके हैं, यह एक चैतन्य परिणामों की ही सामर्थ्य है।
उस कमल के जल जाने पर शरीर के बाह्य अग्नि त्रिकोणाकार हो गई है, यह ज्वाला के समूह से बडवानल के समान है तथा अग्निबीजाक्षर ‘र’ से व्याप्त और अंत में साथिया के चिन्हों से चिन्हित है। ऊर्ध्व वायुमंडल से उत्पन्न धूमरहित कांचन सी प्रभा वाला यह त्रिकोणाकार है। इस प्रकार धकधकायमान पैâलती हुई अग्नि की लपटों से बाहर का अग्निमंडल अंतरंग की मंत्राग्नि को दग्ध कर रहा है। पुन: यह नाभिस्थ कमल और शरीर को भस्मीभूत करके जलाने योग्य वस्तु का अभाव होने से धीरे-धीरे अपने आप अग्नि शांत हो जाती है। यह आग्नेयी धारणा हुई।
श्वसना धारणा-तत्पश्चात् योगी आकाश में पूर्ण होकर विचरते हुए महावेगवान् और महाबलवान् वायुमंडल का चिंतवन करता है। यह पवन मेरु पर्वत को भी कंपित करने वाली है, मेघों के समूह को बिखेरती हुई, समुद्र को क्षुब्ध करती हुई, लोक के मध्य गमन करती हुई, दशों दिशाओं में संचरती हुई, जगत्रूपी घर में पैâली हुई और पृथ्वीतल में प्रवेश करती हुई ऐसा चिंतवन करता है। पुन: जो शरीरादि की भस्म है, उसको इस वायुमंडल ने तत्काल उड़ा दिया। तत्पश्चात् यह स्थिर होकर शांत हो गई है। ऐसा चिंतवन करना मारुती या श्वसना धारणा है।
वारुणी धारणा-
पुन: मुनिराज इन्द्रधनुष, बिजली गर्जनादि चमत्कार सहित मेघों से भरे हुए आकाश का चिंंतवन करते हैं। ये मेघ अमृत से उत्पन्न मोती व्ाâे समान उज्ज्वल बड़े-बड़े मोतियों से निरंतर धारारूप बरस रहे हैं, पुन: अर्द्धचंद्राकार मनोहर अमृतमय जल के प्रवाह से आकाश को बहाते हुए वरुणमंडल का चिंतवन करते हैं। दिव्यध्यान से उत्पन्न हुआ यह जल शरीर के जलाने से उत्पन्न हुई समस्त भस्म को धो देता है। यह वारुणी धारणा हुई।
तत्त्वरूपवती धारणा-अनंतर संयमी मुनि सप्त धातुरहित, पूर्ण चन्द्रमा के समान निर्मल प्रभा वाले, सर्वज्ञ समान अपने आत्मा का ध्यान करते हैं। हमारी आत्मा अतिशय से युक्त, सिंहासन पर आरूढ़, कल्याणकों की महिमा सहित, देवेन्द्रों से पूजित हैं। आठ कर्मों के विलय हो जाने से स्फुरायमान, अतिनिर्मल पुरुषाकार है। ऐसा चिंतवन करना तत्त्वरूपवती धारणा है।
इस प्रकार पिंडस्थ ध्यान के निश्चल अभ्यास से ध्यानी मुनि थोड़े ही काल में मोक्षसुख को प्राप्त कर लेते हैं।
जिसको योगीश्वर अनेक पवित्र मंत्रों के अक्षर का अवलम्बन लेकर चिंतवन करते हैं, वह पदस्थ ध्यान है। इसमें सर्वप्रथम अनादि-सिद्धान्त में प्रसिद्ध वर्णमातृका का ध्यान करना चाहिए। चूँकि यह सम्पूर्ण वाङ्गमय की जन्मभूमि है।
वर्णमातृका ध्यान-ध्याता मुनि नाभिमंडल में स्थित सोलह दल वाले कमल की पांखुड़ियों पर क्रमश: ‘अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ¸ ऌ ल¸ ए ऐ ओ औ अं अ:’ इन सोलह स्वरों का चिंतवन करे। पुन: अपने हृदयस्थान में कर्णिका सहित चौबीस पांखुडी के कमल पर कर्णिका तथा पात्रों में क्रमश: क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न फ ब भ म’ इन पच्चीस अक्षरों का ध्यान करे। अनन्तर आठ पत्रों से विभूषित मुखकमल के प्रत्येक पत्र पर भ्रमण करते हुए ‘य र ल व श ष स ह’ इन आठ वर्णों का ध्यान करे।
इस प्रकार इन ४९ वर्ण मातृकाओं का ध्यान करने वाला साधु श्रुतसमुद्र का पारगामी हो जाता है तथा क्षयरोग, अग्निमंदता, कुष्ठ, उदर रोग, कास, श्वांस आदि रोगों को जीत लेता है और वचनसिद्धि, पूज्यता आदि गुणों का पुञ्ज हो जाता है।
मंत्रराज का ध्यान-‘ऊर्ध्वाधोरयुतं सविन्द सपरं’ ऐसा मंत्र ‘ह्र’ है, उसका ध्यान करते हैं। इसका वैâसा ध्यान करें-
सुवर्णमल कमल की कर्णिका पर विराजमान मल-कलंक रहित पूर्ण चन्द्रमा की किरणों के समान उज्ज्वल, आकाश में गमन करते हुए तथा दिशाओं में व्याप्त होते हुए इस मंत्र का ध्यान करें। कितने लोग इस मंत्र को ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर और बुद्ध कहते हैं। वास्तव में जिनेन्द्र भगवान ही मानो मंत्रमूर्ति को धारण करके साक्षात् विराजमान हैं। धैर्यवान् योगी कुंभक प्राणायाम से इस मंत्रराज को भौंह की लताओं में स्फुरायमान होता हुआ, मुखकमल में प्रवेश करता हुआ, तालु के छिद्र में गमन करता हुआ, अमृतमय जल से झरता हुआ, नेत्र की पलकों पर स्फुरायमान होता हुआ, केशों में स्थिति करता हुआ, ज्योतिषियों के समूह में भ्रमता हुआ, चन्द्रमा के साथ स्पर्द्धा करता हुआ, दिशाओं में संचरता हुआ, आकाश में उछलता हुआ, कलंग समूह को छेदता हुआ, संसार के भ्रम को दूर करता हुआ तथा मोक्षस्थान को प्राप्त करता हुआ और मोक्षलक्ष्मी से मिलाप करता हुआ, ऐसा इसे ध्यावें।
इस मंत्राधिप के ध्यान में इतना तल्लीन हो जावें कि स्वप्न में भी इस मंत्र से च्युत न हों। ध्याता मुनि नासिका के अग्रभाग में अथवा भौहों के मध्य में इसको निश्चल करे।
इस मंत्रराज के ध्यान से अणिमा आदि सर्व ऋद्धियाँ प्रगट हो जाती हैं। दैत्यादि भी सेवा करने लगते हैं।
‘ॐ’ मंत्र को चन्द्रमा के समान श्वेतवर्ण का चिंतवन करे। यह पंचपरमेष्ठी वाचक महामंत्र समस्त दु:खरूपी अग्नि को शांत करने में मेघ के समान है। इसको हृदयकमल की कर्णिका में अथवा ललाट आदि में स्थापित करके ध्यावे।
अन्य मंत्रों का ध्यान-आठ पत्रों के कमल की कर्णिका पर ‘णमो अरहंताणं’ पुन: दिशाओं में क्रम से ‘णमो सिद्धाणं’, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं’ ये चार मंत्र और विदिशाओं के चार पत्रों पर ‘सम्यग्दर्शनाय नम:, सम्यग्ज्ञानाय नम:, सम्यक्चारित्राय नम:, सम्यक्तपसे नम:’ इन चार मंत्र पदों का चिंतवन करे। इस प्रकार अष्टदल कमल और कर्णिका में नव मंत्रों को स्थापित कर ध्यान करे।
इस मंत्र के प्रभाव से योगीश्वर अनन्त क्लेश से छूटकर अनन्त सुख को प्राप्त कर लेते हैं।
हे मुने! तुम मंत्र पदों के स्वामी और मुक्तिमार्ग के प्रकाशक ऐसे ‘अ’ अक्षर को नाभिकमल में ‘सि’ अक्षर को मस्तक कमल पर, ‘आ’ अक्षर को कंठस्थ कमल में, ‘उ’ अक्षर को हृदय कमल पर और ‘सा’ अक्षर को मुखस्थ कमल पर ऐसे ‘असि आ उसा’ इन पाँच अक्षरों को पाँच स्थानों में चिन्तवन करो।
‘अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो नम:’ इस षोडश अक्षर वाली महाविद्या का जो दो सौ बार जप करता है वह नहीं चाहते हुए भी एक उपवास के फल को प्राप्त कर लेता है। ऐसे ही ‘अरहंत सिद्ध’ इस षट् अक्षरी मंत्र का तीन सौ बार जप करने से, ‘अरहंत’ इस चार अक्षर वाले मंत्र का चार सौ बार जप करने से योगी एक उपवास के फल को प्राप्त कर लेता है।
‘सिद्ध’ यह दो अक्षरों का मंत्र समस्त द्वादशांग रूप श्रुतस्कंध का सार है। जो मुनि ‘अ’ एक अक्षरी मंत्र को पाँच सौ बार जपता है, वह एक उपवास के फल को प्राप्त कर लेता है। जो यह उपवास के फल का कथन है सो मात्र रुचि उत्पन्न कराने के लिए किंचित् मात्र कथन है किन्तु वास्तव में इन मंत्रों का उत्तम फल स्वर्ग और मोक्ष ही है।
‘ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असि आ उसा नम:’ यह मंत्र भी द्वादशांग में सारभूत समझकर निकाला गया है। इसके निरन्तर अभ्यास से मुनि संसार बंधन को काट देते हैं।
‘चत्तारि मंगलं, अरहंत मंगलं, सिद्ध मंगलं, साहु मंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारि लोगुत्तमा, अरहंत लोगुत्तमा, सिद्ध लोगुत्तमा, साहु लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुुत्तमा। चत्तारि सरणं पव्वज्जामि, अरहंत सरणं पवज्जामि, सिद्ध सरणं पव्वज्जामि, साहु सरणं पव्वज्जामि, केवलिणपण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि।’’
जो संयमी एकाग्र बुद्धि से इन मंगल, उत्तम और शरणभूत पदों का चिन्तवन करता है, वह मोक्षलक्ष्मी का आश्रय लेता है और भी अनेकों मंत्र हैं जो कि गुरु के मुख से ही ग्रहण करने योग्य हैं। इन बहुत प्रकार के मंत्र पदों का ध्यान करके योगी मन को एकाग्र करने का अभ्यास बना लेता है तथा अनन्त पुण्य संचय करते हुए अनन्त पापराशि को जला डालता है।
रूपस्थ ध्यान-इस रूपस्थ ध्यान में अरहंत भगवान् का ध्यान करना चाहिए। अरहंत भगवान् समवसरण में स्थित हैं बारह सभायें चारों ओर से घिरी हुई हैं। उनमें मध्य में सर्वज्ञ, वीतराग, परमेश्वर, देवाधिदेव सप्तधातु से रहित, दिव्य परमौदारिक उत्तम शरीर सहित, अचिन्त्य महिमाशाली अर्हंत भगवान् विराजमान हैं। समवसरण का विस्तृत वर्णन समझकर उसकी रचना बनाकर उसमें विराजमान जिनेन्द्र देव का ध्यान करना चाहिए।
रूपातीत ध्यान-इसके पश्चात् रूपस्थ ध्यान में जिसका चित्त स्थिरीभूत है ऐसा योगी अमूर्त, अजन्मा, इन्द्रियों के अगोचर, चिदानंदमय, शुद्ध, परमाक्षररूप आत्मा को अपनी आत्मा के द्वारा ही स्मरण करे, सो रूपातीत ध्यान है। प्रथम तो उस परमात्मा के गूणसमूहों को पृथक्-पृथक् विचारे, पुन: उस परमात्मा के गुणों को और परमात्मा को गुण-गुणी में भेद न करके अभिन्न रूप विचारे। अनन्तर आप स्वयं उस परमात्मा में ही लीन हो जावे। परमात्मा के स्वभाव से एकरूप भावित मिला हुआ ध्यानी उस परमात्मा के गुणों से पूर्णरूप अपने आत्मा को करके फिर उसे परमात्मा में योजित करे क्योंकि मेरी आत्मा और परमात्मा में शक्ति और व्यक्ति की अपेक्षा से समानता है अर्थात् मेरी आत्मा भी शक्तिरूप से परमात्मा के समान ही है। ‘‘ऐसा अपने आपको परमात्मा में तन्मय करके एकमेक हो जावे, पुन: पृथक्पने का भान ही न रहे, यह रूपातीत ध्यान है।’’
जिसमें शुचिगुण का संबंध है वह शुक्लध्यान है। यह श्रेणी चढ़ने के पहले अर्थात् सातवें गुणस्थान तक नहीं होता है। इसके भी चार भेद हैं-पृथक्त्व वितर्क, एकत्ववितर्क, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरतक्रियानिवर्ति। आदि के दो ध्यान पूर्वविद्-श्रुतकेवली के होते हैं और अंत के दो ध्यान केवली के होते हैं। तीनों योग वाले के पहला ध्यान, तीनों में से किसी एक योग वाले के दूसरा ध्यान, काययोग वाले सयोगकेवली के ही तीसरा और योगरहित अयोगकेवली के ही चौथा ध्यान होता है। गुप्ति, समिति आदि उपायों से युक्त मुनि जो कि भली प्रकार से परिकर्म करने वाले हैं, वे ही संसार का नाश करने के लिए पूर्वोक्त चार प्रकार के धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान को करने में समर्थ होते हैं।
पृथक्त्ववितर्क-जिसमें पृथक्-पृथक् रूप से श्रुतज्ञान बदलता रहता है अर्थात् अर्थ, व्यंजन और योगों का संक्रमण होता रहता है वह पृथक्त्ववितर्क विचार शुक्लध्यान है।
परिणामों की विशुद्धि से बढ़ता हुआ साधु मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का उपशम अथवा क्षय करता हुआ इस ध्यान को करता है।
एकत्ववितर्क-पुन: समूलचूल मोहनीय को नाश करने की इच्छा करता हुआ साधु अनन्तगुणी विशुद्धि के बल से अर्थ, व्यंजन, योगों की संक्रान्ति से रहित होता हुआ निश्चल मन वाला इस एकत्ववितर्क ध्यान के बल से घातिया कर्मरूपी ईंधन को भस्मसात् कर देता है।
तब तत्क्षण केवलज्ञानरूपी सूर्य प्रगट हो जाता है। वह केवली भगवान इन्द्रों द्वारा रचित समवसरण में विराजमान हो जाते हैं। इस पृथ्वीतल से पाँच हजार धनुष ऊपर चले जाते हैं और आकाश में अधर स्थित रहते हैं अर्थात् समवसरण में कमलासन से भी चार अंगुल अधर विराजमान रहते हैं। ये त्रिभुवनपूज्य भगवान उत्कृष्टरूप से कुछ कम एककोटि पूर्व वर्ष तक इस भुवन में विहार करके भव्यों को धर्म का उपदेश देते हैं।
सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति-जब आयु अन्तर्मुहूर्त मात्र शेष रहती है और शेष नाम आदि कर्मों की स्थिति कुछ अधिक रहती है, तो स्वभाव से केवली समुद्घात होता है जिससे स्थिति समान हो जाती है अन्यथा यदि चारों कर्मों की स्थिति बराबर है, तो वे सब प्रकार वचनयोग, मनोयोग और बादर काययोग का निरोध करके सूक्ष्म काययोग के अवलम्बन से सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यान को करते हैं।
व्युपरतक्रियानिवर्ति-इस ध्यान में सब प्रकार के योगों के निमित्त से होने वाली आत्मप्रदेश परिस्पन्दन रूप क्रिया का अभाव हो जाने से इसे व्युपरतक्रियानिवर्ति ध्यान कहते हैं। यह ध्यान अयोगकेवली के होता है। उस समय वे भगवान ध्यानातिशय रूप अग्नि के द्वारा सम्पूर्ण कर्म ईंधन को जलाकर निर्वाण पद को प्राप्त कर लेते हैं। इस गुणस्थान का काल ‘अ इ उ ऋ ल¸’ इन पाँच ह्रस्वाक्षरों के उच्चारण के काल मात्र ही है। पुन: कर्मबंधन से छूटे हुए सिद्ध भगवान एक समय से ही लोकशिखर के अग्रभाग में जाकर विराजमान हो जाते हैं। चूँकि आगे अलोक में धर्मास्तिकाय का अभाव होने से वे आगे नहीं जा सकते हैं। ये सिद्ध परमेष्ठी निरंजन, परमात्मा अनन्त-अनन्त काल तक अपने अनन्त सुख का उपभोग करते हुए परमानन्दमय परम तृप्त रहते हैं। फिर वापस संसार में कभी भी नहीं आते हैं।
विशेष-वर्तमान में उत्तम संहनन नहीं होने से शुक्लध्यान नहीं हो सकता है। धर्मध्यान ही होता है। उसमें भी अनेकों भेद होने से धर्मध्यानी दिगम्बर मुनियों में भी अनेकों भेद हो जाते हैं तथा धर्मशुक्ल की अपेक्षा भी इनमें अनेकों भेद माने जाते हैं।
ध्यान का लक्षण-एकाग्रचिन्तानिरोध होना अर्थात् किसी एक विषय पर मन का स्थिर हो जाना ध्यान कहलाता है। यह ध्यान उत्तम संहनन वाले मनुष्य के अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त (४८ मिनट) तक ही हो सकता है। ध्यान के चार भेद माने हैं। जिनके लिए कहा भी है-
आर्तं रौद्रं च दुधर््यानं, निर्मूल्य त्वत्प्रसादत:।
धर्मध्यानं प्रपद्याहं, लप्स्ये नि:श्रेयसं क्रमात्।।
अर्थात् हे भगवन्! आर्त-रौद्र इन दो दुधर््यानों को आपके प्रसाद से निर्मूल करके मैं धर्मध्यान को प्राप्त करके क्रम से मोक्ष को प्राप्त करूँगा।
सारांश यह है कि आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल ये चार प्रकार के जो ध्यान हैं वे चारों गतियों को प्राप्त कराने में अपना सहयोग प्रदान करते हैं अर्थात् आर्तध्यान से तिर्यंच एवं पशुगति, रौद्रध्यान से नरकगति, धर्मध्यान से देव और मनुष्यगति तथा शुक्लध्यान से सिद्धगति की प्राप्ति होती है।
३.९.१ पूर्ण ध्यान किसे हो सकता है ?-
उपर्युक्त परिभाषा के अनुसार तो संसार के प्रत्येक प्राणी को हर समय कोई न कोई ध्यान रहता ही है तथापि इनमें प्रारंभ के दो (आर्त-रौद्र) ध्यान संसार के कारण हैं और ‘‘परे मोक्ष हेतू’’ सूत्र से धर्मध्यान चतुर्थ गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान तक होता है। धवला ग्रंथ में दशवें गुणस्थान तक भी धर्मध्यान माना है और शुक्लध्यान तो उत्तम संहननधारी महामुनियों के तथा केवली भगवान के ही होता है।
गृहस्थजन भी ध्यान का अभ्यास कर सकते हैं!-ज्ञानार्णव ग्रंथ में श्री शुभचन्द्राचार्य ने कहा है कि ‘‘आकाश में पुष्प खिल सकते हैं और गधे के सींग हो सकते हैं किन्तु किसी भी देश या काल में गृहस्थाश्रम में ध्यान की सिद्धि नहीं हो सकती है।’’ फिर भी धर्मध्यान की सिद्धि के लिए गृहस्थाश्रम में भी ध्यान का अभ्यास और भावना तो करनी ही चाहिए।
संसार में अनेक प्रकार की भौतिक चिन्ताओं में उलझे मन को कुछ विश्रान्ति देने के लिए श्रावकों को पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत इन ध्यानों का अभ्यास करना चाहिए। यद्यपि इन पिण्डस्थ आदि ध्यानों की सिद्धि तो कठिन है फिर भी प्रतिदिन किया गया अभ्यास, भावना, संतति और चिंतन इन नामों की सार्थकता को तो प्राप्त कर ही लेता है और कालान्तर में वही अभ्यास ध्यान की सिद्धि में सहायक बन जाता है।
ऊपर कहे गये धर्मध्यान के अंतिम भेद संस्थानविचय के ही ये पिण्डस्थ आदि चार भेद माने गये हैं। सो यहाँ क्रमानुसार पिण्डस्थ ध्यान के बारे में ही बताया जा रहा है।
३.९.२ कहाँ बैठकर ध्यानाभ्यास करें ?-
मन चूँकि अत्यन्त चंचल है अत: उसे नियंत्रित करने एवं ध्यान की ओर उन्मुख करने के लिए जिनमंदिर पूर्ण उपर्युक्त स्थान होते हैं। यदि मंदिर की सुविधा उपलब्ध नहंी है तो घर के किसी एकांत स्थान (पूजाघर-चैत्यालय) में बैठ सकते हैं अन्यथा किसी पार्क आदि खुले स्थान का कोई हिस्सा भी ध्यान करने के लिए उचित रहेगा। जहाँ आप
५ मिनट से लेकर शक्ति अनुसार १ घण्टे तक भी बैठने में स्वाधीनता और निर्विकल्पता का अनुभव कर सकें उस स्थान का चयन कर लें तथा भूमि पर चटाई या दर्भासन (डाभ का शुद्ध आसन) बिछाकर ध्यान करने हेतु बैठ जावें। केवल भूमि पर बैठकर ध्यान न करें।
ध्यान के समय मुख पूर्व दिशा या उत्तर दिशा की ओर करें क्योेंकि पूर्व से निकलने वाले सूर्य की तेजस्वी किरणों की तरंगे प्रत्यक्ष-परोक्ष दोनों प्रकार से मन-मस्तिष्क को सौर ऊर्जा प्रदान करती हैं जो आत्मा में तेजस्विता के साथ-साथ शारीरिक स्वस्थता को भी देने वाली हैं। इसी प्रकार उत्तर दिशा मनोरथ सिद्धि में सहायक मानी गई है जो अपनी ओर अभिमुख हुए मानव की समस्त समस्याओं का समाधान करके उसमें नवजीवन का संचार करती है।
किस मुद्रा में बैठें ?-ध्यान के लिए पद्मासन मुद्रा सर्वश्रेष्ठ मानी गई है वह ब्रह्मचर्य सिद्धि के लिए रामबाण औषधि के समान है। इसके लिए पहले बायाँ पैर दाहिनी जाँघ पर रखते हैं पुन: दाहिना पैर बायीं जाँघ पर रखकर, बाएँ हाथ की हथेली पर दायें हाथ की हथेली रखकर भगवान के समान शांत मुद्रा में बैठकर आँखों को कोमलता से बंद करें।
यदि इस पद्मासन से बैठने में अधिक तकलीफ महसूस हो तो अर्धपद्मासन (बायाँ पैर नीचे और दाहिना पैर उसकी जाँघ पर रखकर) से बैठें अथवा सुखासन से भी बैठकर ध्यानाभ्यास किया जा सकता है।
३.९.३ ध्यान का शुभारंभ ॐ की ध्वनि से करें-
शरीर की सुषुम्ना नाड़ी एवं मस्तक के ब्रह्म भाग को जागृत करने हेतु ‘‘ॐ’’ बीजाक्षर का नाद परम आवश्यक है। ध्यान को प्रारंभ करने हेतु सर्वप्रथम स्थिरतापूर्वक नौ बार इस ॐकार की ध्वनि करें। ध्वनि के उच्चारण में जहाँ कंठ, तालु, होंठ, नासिका आदि इन्द्रिय एवं उपांगों का अवलम्बन लेना होता है, वहीं ध्वनि के उन क्षणों में अपनी अन्तर्दृष्टि नाभिस्थान पर होनी चाहिए। उस समय अनुभव में नाभिस्थान से उठते हुए आध्यात्मिक तेजपुंज की एक लकीर ऊपर उठती हुई धीरे-धीरे ॐ के साथ मस्तक के रन्ध्र (ब्रह्म) भाग तक जाएगी, यही आध्यात्मिक ऊर्जा आत्मिक शक्ति को प्रदान करती है।
ॐ की यह ध्वनि यदि दिन में तीन बार पूर्ण विधि के साथ की जाए तो माइग्रेन, साइनस, ब्लडप्रेशर आदि अनेक बीमारियों का इलाज बिना दवाई लिए हो जाता है। इसके कई साक्षात् उदाहरण भी देखने को मिले हैं।
३.९.४ ॐ ध्वनि के पश्चात् आत्मिक शांति हेतु ध्यान के कुछ सूत्रपदों का उच्चारण करें-
(१) ज्ञानानन्दस्वरूपोऽहं (शक्तिरूप मे मेरी आत्मा अनन्तज्ञानरूप है)
(२) परमानन्दस्वरूपोऽहं (मेरी आत्मा में परम आनन्द का स्रोत प्रवाहित हो रहा है)
(३) चिच्चैतन्यस्वरूपोऽहं (शुद्ध चैतन्य स्वभाव से युक्त मेरी आत्मा है)
(४) चिन्मयज्योतिस्वरूपोऽहं (चैतन्य की परमज्योति से मैं समन्वित हूँ)
(५) चिचिंतामणिरूपोऽहं (चैतन्यरूप चिन्तामणिरूप से युक्त मेरी आत्मा है)
(६) शुद्धबुद्धस्वरूपोऽहं (शुद्धबुद्ध स्वभाव से मैं समन्वित हूँ)
(७) नित्यनिरंजनरूपोऽहं (निश्चयनय से समस्त कर्मरूपी अंजनकालिमा से मैं रहित हूँ)
पुन: अपने मन में पूर्ण स्वस्थता का अनुभव करते हुए पिण्डस्थ ध्यान के लिए तैयार हो जाएँ अर्थात् पिण्ड-शरीर में स्थित आत्मा का चिन्तन करना पिण्डस्थ ध्यान कहलाता है। इसमें पार्थिवी, आग्नेयी, श्वसना, वारुणी और तत्वरूपवती ये पाँच धारणाएँ होती हैं।
३.९.५ पार्थिवी धारणा (चित्त की चंचलता में रुकावट)-
शरीर पर कम से कम परिग्रह हो और निराकुलचित्त होकर पद्मासन, अर्धपद्मासन अथवा सुखासन से चटाई पर बैठकर इस धारणा के अन्तर्गत विचार कीजिए-
मध्यलोक प्रमाण एक राजू (असंख्यातों मील का) विस्तृत बहुत बड़ा गोल क्षीरसमुद्र है अर्थात् जम्बूद्वीप से लेकर अंतिम स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त असंख्यात योजन का क्षीरसागर ध्यान में देखें। दूध के समान सफेद जल से वह समुद्र लहरा रहा है और समुद्र के बीचोंबीच में एक लाख योजन (४० करोड़ मील) विस्तार वाला खिला हुआ एक दिव्य कमल है, जिसमें एक हजार पत्ते हैं, वे सब पत्ते सुवर्ण के समान चमक रहे हैं। कमल के बीच की कर्णिका सुमेरुपर्वत के समान ऊँची उठी हुई है, वह पीले रंग की है और अपनी पराग से दशों दिशाओं को पीतप्रभा से सुशोभित कर रही है।
भव्यात्माओं! जैन आगम की भाषा में ऊपर समुद्र और कमल आदि का प्रमाण बताया है, इसका सारांश यह है कि आप अपने चिन्तन में जितना बड़ा से बड़ा समुद्र देख सकें, देखें और उसके बीच में एक हजार आठ पंखुड़ियों का कमल देखें। मन को सुमेरु के समान ऊँचा मानकर कमल की कर्णिका को ऊँची उठी हुई देखें।
पुन: आप देखिए कि उस कर्णिका पर एक श्वेत वर्ण का ऊँचा सिंहासन है, उस पर मैं भगवान् आत्मा के रूप में विराजमान होकर ध्यान में तल्लीन हूँ। यहाँ भावों की उच्चता ही कर्मों की निर्जरा कराएगी, आध्यात्मिक ज्योति से आत्मा प्रकाशित हो जायेगी। यही आध्यात्मिक ऊर्जा है जिससे शारीरिक और मानसिक शक्ति प्राप्त होती है।
इस समय आप मन ही मन निम्न पंक्तियाँ पढ़ें-
मेरा तनु जिनमंदिर उसमें, मन कमलासन शोभे सुन्दर।
उस पर मैं ही भगवान् स्वयं, राजित हूँ चिन्मय ज्योतिप्रवर।।
मैं शुद्ध बुद्ध हूँ सिद्ध सदृश, कर्मांजन का कुछ लेप नहीं।
मैं नमूँ उसी शुद्धात्मा को, मेरा पर से संश्लेष नहीं।।
(इसके साथ ही शांति और शिथिलता का सुझाव दीजिए। शांत…… शिथिल…….)
अनंतर आप ऐसा चिंतवन कीजिए कि मेरी आत्मा सम्पूर्ण राग-द्वेषमय संसार को और समस्त कर्मों को नष्ट करने में सक्षम है। ऐसा बार-बार विचार करते हुए अपने उपयोग को उसी में तन्मय कर दीजिए। यहाँ ध्यान के निम्न सूत्र पदों को पढ़ लीजिए-
‘‘ज्ञानपुंजस्वरूपोऽहं, नित्यानंदस्वरूपोऽहं, सहजानंदस्वरूपोऽहं, परम-समाधिस्वरूपोऽहं, परमस्वास्थ्यस्वरूपोऽहं।’’
इस चिन्तनधारा के साथ प्रथम पार्थिवी धारणा समाप्त हुई और अब द्वितीय धारणा के लिए अगला दिन निर्धारित कीजिए, ताकि एक दिन का अभ्यास दीर्घकालीन न होने पाए अन्यथा मस्तिष्क पर भार अनुभव होने लगेगा।
३.९.६ ‘‘आग्नेयी धारणा’’ (कर्मों को जलाने की एक प्रक्रिया)-
इस धारणा के अन्तर्गत चिन्तन कीजिए कि मेरे नाभिस्थान में सोलह दलों वाला खिला हुआ एक सफेद कमल है। उस कमल की कर्णिका पर ‘‘र्हं’’ बीजाक्षर पीली केशर से लिखा हुआ देखिए पुन: दिशा के क्रम से प्रत्येक दलों (पत्तों) पर केशर से ही अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ¸, ऌ, ल¸, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:, इन सोलह स्वरों को लिख लें। पुन: इन सोलहों स्वर एवं र्हं बीजाक्षर पर अपने मन को केन्द्रित करके इनका ध्यान कीजिए।
मन को अशुभ से शुभ की ओर ले जाने की यह एक उत्तम प्रक्रिया है, उस समय शारीरिक और मानसिक स्थिरता की परम आवश्यकता है अत: चंचल चित्तरूपी बंदर को एकदम अनुशासित रखिए तब आपको ये अक्षर और कर्णिका का महामंत्र स्पष्ट दिखने लगेगा। इसके आगे आप देखें कि इसी कमल के ठीक ऊपर हृदय स्थान पर औंधा मुँह करके (नीचे को लटकता हुआ) एक मटमैले रंग का आठ दल का कमल बना हुआ है, उसके आठों दल पर क्रम से ज्ञानावरणीय कर्म, दर्शनावरणीय कर्म, वेदनीय कर्म, मोहनीय कर्म, आयुकर्म, नामकर्म, गोत्रकर्म और अन्तराय इन आठों कर्मों के नाम काले रंग से लिखे हुए हैं।
पुनश्च ध्यान की अगली शृँखला में देखें और अनुभव करें कि नाभिकमल की कर्णिका के ‘‘र्हं’’ महामंत्र के रेफ से धुँआ निकल रहा है, कुछ ही क्षणाें में उस धुँए में से अग्नि के स्फुलिंगे (चिंगारियाँ) निकलने लगीं तब अग्नि की लौ ऊपर को उठकर आठ कर्म वाले कमल को जलाने लगी और धीरे-धीरे वही अग्नि ज्वाला बनकर मस्तक के ऊपर पहुँच गई, पुन: वह अग्नि त्रिकोणाकार मण्डल के आकार में परिवर्तित हो गईं। अर्थात् अग्नि की एक लकीर मस्तक के दाईं ओर, एक बाईं ओर गई और नीचे दोनों लकीरों के मिल जाने से शरीर का त्रिकोणाकार अग्निमंडल बन जाता है। इस समय यह चिन्तन करें कि धधकती हुई यह अग्नि अंदर में तो कमलों को जला रही है और बाहर में औदारिक शरीर को भस्म कर रही है।
चिन्तन के इन क्षणों में घबराहट बिल्कुल नहीं होना चाहिए, क्योंकि इस ध्यान के माध्यम से अनेक भवों में संचित पापकर्म तो नष्ट होंगे ही, साथ में तमाम शारीरिक रोगों का विनाश होकर स्वस्थता का अनुभव भी होगा।
अब आगे देखें कि अग्निमंडल के त्रिकोणाकार की तीनों लकीरों में ‘‘रं रं रं’’ ऐसे अग्निबीजाक्षर लिखे हुए हैं और तीनों कोणों पर स्वस्तिक बने हैं तथा स्वस्तिक के पास भीतरी भाग में ‘‘ॐ र्रं’’ ऐसे बीजाक्षर लिखे हुए हैं। पुन: चेतावनी दी जा रही है कि जलती हुई अग्नि को देखकर मन को विचलित नहीं करना है क्योंकि आत्मा चिच्चैतन्यस्वरूप अमूर्तिक है, अत: अग्नि के द्वारा वह कभी जल नहीं सकती है, यह तो अशुभ कर्मों को जलाने का एक तरीका है और इसमें सफलता प्राप्त करते ही आपको परम स्वस्थता की अनुभूति होगी।
इस धारणा में ध्यान की समापन बेला में अब पुन: देखिए कि वह अग्नि धीरे-धीरे शांत हो गई है, जिससे हमारी आत्मा पर राख का पुंज इकट्ठा हो गया है। पुन: पाँच दीर्घ श्वांस लेते हुए आज के ध्यान को तीन बार निम्न वाक्य बोलते हुए समाप्त कीजिए-
‘‘मैं पूर्ण स्वस्थ हूँ, मुझे कोई रोग नहीं है।’’
इस प्रकार पिण्डस्थ ध्यान के प्रकरण में दो धारणाओं का यहाँ वर्णन किया गया है।
३.९.७ अब इसी शृँखला में प्रस्तुत हैं पिण्डस्थ ध्यान की अगली धारणाएँ-
१. सर्वप्रथम आप मंदिरजी की स्वाध्यायशाला में अथवा घर के किसी एकांत स्थान में स्थिरचित्त होकर ध्यान के लिए पद्मासन, अर्धपद्मासन या सुखासन से बैठकर आँखें कोमलता से बंद करें।
२. बाएँ हाथ की हथेली पर दाएँ हाथ की हथेली रखकर शरीर को तनावमुक्त करें। पृष्ठरज्जु बिल्कुल सीधी हो, न अधिक अकड़न न अधिक झुकाव हो किन्तु निराकुल, शान्तचित्त होकर बैठें।
३. इसके पश्चात् ॐ की नव बार ध्वनि निकालते हुए दीर्घ श्वांस का अभ्यास करें। पुन: मानसिक स्थिरता के लिए ध्यान के कुछ सूत्रपदों का उच्चारण कीजिए-
अनन्तज्ञानस्वरूपोऽहं, अनन्तदर्शनस्वरूपोऽहं, अनन्तवीर्यस्वरूपोऽहं, सहजानन्दस्वरूपोऽहं
अब ध्यान की धारा में अपने चित्त को प्रवाहित कीजिए और पार्थिवी तथा आग्नेयी धारणा के अन्तर्गत जो-जो आपने चिन्तन किया था कि क्षीरसागर के मध्य ऊँचे कमल की कर्णिका पर एक सिंहासन के ऊपर मैं एक स्वच्छ अन्तरात्मा के रूप में विराजमान हूँ और चिन्तन के आधार पर मुझे अपने को परमात्मा बनाना है।
३.९.८ श्वसना (वायवी) धारणा-
अब आप देखिए कि आकाश में चारों तरफ से प्रलयकारी तेज हवा चलने लगी। यह हवा मेरुपर्वत को भी प्रकम्पित कर देने को आतुर है किन्तु आप चिन्ता मत कीजिए क्योंकि आपकी ध्यानस्थ आत्मा को यह वायु अणुमात्र भी हिला नहीं सकती है। वायुमण्डल गोल आकाररूप से परिणत हो गया है, इस मण्डल में जगह-जगह ‘स्वाय-स्वाय’ ये वायु के बीजाक्षर सफेद रंग से लिखे हैं।
आगे देखें कि वह प्रलयंकारी वायु मेरे शरीर में प्रविष्ट हो गई है और वह त्रिकोणाकार शरीर पर ढ़की हुई भस्म ढाक को उड़ा रही है अर्थात् इस हवा से कर्मों की रज उड़ गई और आत्मा स्वच्छ हो गई है। इस वायवी धारणा के समय निम्न मंत्र का चिन्तन कीजिए-
‘‘ॐ ह्रीं अर्हम् श्रीजिनप्रभंजनाय कर्मभस्मविधूननं कुरू कुरू स्वाहा’’
पुन: अनुभव करें कि यह वायु रुक गई है और हवा की हलचल समाप्त हो गई है। मैं अब ज्ञान का पुंज बन गया हूँ, सम्पूर्ण अज्ञानता मेरे हृदय से दूर हट गई है।
इतना चिन्तन भी आपको बहुत शांति तथा सुख प्रदान करेगा अत: मात्र यह अनुभव कीजिए कि मैं पूर्ण स्वस्थ हूँ मुझे कोई रोग नहीं है। तीन बार पुन: महामंत्र का स्मरण करते हुए तीन बार दीर्घ स्वासोच्छ्वास लें और आँख खोलकर, हाथ जोड़कर, पंचपरमेष्ठियों को नमन करते हुए निम्न पद्य बोलें-
संसार के भ्रमण से अति दूर हैं जो,
ऐसे जिनेन्द्रपद को नित ही नमूँ मैं।
सम्पूर्ण सिद्धगण को सब साधुओं को,
वंदूँ सदा सकल कर्म विनाश हेतू।।१।।
पुन: अगली वारुणी धारणा में प्रवेश करें।
३.९.९ वारुणी धारणा-
अब चिन्तन करें कि आकाश में बादल छा गए हैं, बिजली चमक रही है और देखते ही देखते मूसलाधार बरसात शुरू हो गई। आकाशमण्डल में चारों ओर ‘‘पं पं पं’’ बीजाक्षर लिखे हुए हैं।
वर्षा की अमृत सदृश बूँदें मेरी आत्मा का प्रक्षालन कर रही हैं। इस दृश्य का चिन्तन करते हुए निम्न मंत्र पढ़ें-
‘‘ॐ ह्रीं अर्हम् श्रीजिनपर्जन्याय कर्ममलप्रक्षालनं कुरू कुरू स्वाहा।’’
इस प्रकार वर्षा से शुद्ध होकर मेरी आत्मा स्फटिक के समान शुद्ध हो रही है। मंत्र पढ़िए-ॐ ह्रीं शुद्धात्मने नम:, ॐ ह्रीं विश्व-रूपात्मने नम:, ॐ ह्रीं परमात्मने नम:। अब आगे पंचम तत्त्वरूपवती धारणा का अवलम्बन लीजिए-
३.९.१० तत्त्वरूपवती धारणा-
उपर्युक्त मंत्रों के उच्चारण के पश्चात् शरीर में शिथिलता एवं शांति का सुझाव देते हुए मन को स्थिर करें पुन: चिन्तन करें कि मेरी आत्मा सप्तधातु से रहित पूर्णचन्द्र के समान प्रभाव वाली सर्वज्ञ के सदृश बन गई है। अब मैं अतिशय से युक्त, पंचकल्याणकों की महिमा से समन्वित होकर देव, दानव, धरणेन्द्र आदि से पूजित हो गया हूँ। अनन्तर मैं आठ कर्मों से रहित निर्मल पुरुषाकार नित्य निरंजन परमात्मा बन गया हूँ। यह चिन्तन करते-करते आप पिण्डस्थ ध्यान की चरम सीमा तक पहुँच गए हैं।
अपने पिण्ड-शरीर के अंदर स्थित आत्मा का ध्यान ही पिण्डस्थ ध्यान है। इसका निश्चल ध्यान करने वाले योगीजन अन्य लोगों से दु:साध्य ऐसे मोक्षसुख को भी प्राप्त कर लेते हैं तो अन्य शारीरिक सुखों की तो बात ही क्या है। जिस प्रकार से सूर्य के उदित होते ही उल्लू पलायमान हो जाते हैं उसी प्रकार से इस पिण्डस्थ ध्यानरूपी धन के समीप होने पर विद्या, मण्डल, मंत्र, यंत्र, इंद्रजाल के आश्चर्य, सिंह, सर्प तथा दैत्य आदि नि:सारता को प्राप्त हो जाते हैं एवं भूत, पिशाच, ग्रह, राक्षस आदि कुछ भी उपद्रव करने में समर्थ नहीं हो सकते हैं। ऐसा इस ध्यान का अचिन्त्य प्रभाव जानना चाहिए।
मेरे हृदयाम्बुज में नितप्रति, चिन्मय ज्योति भगवान रहे।
मेरे अन्तर में आनंदघन, अमृतमय पूर्ण प्रवाह बहे।।
वह ही आनन्द घनाघन हो, कलिमल को दूर करे क्षण में।
सब दूरित सूर्य का ताप शमन, कर शाश्वत शांति भरे मुझमें।।
पुन: आँखें खोलकर हाथ जोड़कर परमात्मा को नमन करते हुए ध्यान को सम्पन्न कीजिए।
अब पदस्थ ध्यान का वर्णन प्रारंभ किया जाता है।
पवित्र मंत्रों के अक्षर पदों का अवलम्बन लेकर उसमें तल्लीन हो जाना पदस्थ ध्यान कहलाता है। इसके बहुत भेद हो जाते हैं, जो कि विभिन्न मंत्रों पर आधारित हैं।
पिण्डस्थ ध्यान को पदस्थ से पूर्व क्यों बतलाया है ?-गृहस्थाश्रम के अनेकों प्रपंचों में उलझे हुए मन को कोई भी एक मंत्र पर किंचित् क्षण के लिए भी टिका नहीं सकता है और मन को खाली बैठना भी आता नहीं, अत: वह इधर-उधर के चक्कर में ही पुन: घूमने लगता है अत: उसके लिए जितनी भी सामग्री दी जाएगी, उतना ही अच्छा है, क्योंकि उतनी देर तक तो कम से कम वह बाहर के विषयों से अपने को हटाकर इन धारणाओं के चिन्तन में ही उलझेगा तो अच्छा ही है। यदि एक पद पर ही मन को स्थिर करना सरल होता तो आचार्य पहले पदस्थ ध्यान को कहकर फिर पिण्डस्थ को कहते। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि पिण्डस्थ ध्यान का ही पहले अभ्यास करना चाहिए। अनन्तर उसमें परिपक्व हो जाने के बाद पदस्थ ध्यान का अभ्यास करना चाहिए।
पदस्थ ध्यान वैâसे प्रारंभ करें ?-
सर्वप्रथम आप शुद्ध मन से शुद्ध वस्त्र धारण कर किसी एकांत स्थान अथवा पार्क जैसे खुले स्थान पर पद्मासन, अर्धपद्मासन अथवा सुखासन से बैठ जाएं। शरीर पर पहने हुए वस्त्रों के अतिरिक्त समस्त परिग्रह को त्यागकर स्वाधीनता का अनुभव करते हुए तन-मन में शिथिलता का सुझाव दें और हाथ जोड़कर प्रार्थना करें-
तर्ज-मैं चंदन बनकर तेरे…….
हे प्रभु! मैं अपने आतम में ऐसा रम जाऊँ।
संसार के बंधन से मैं मुक्त हो जाऊँ।।हे प्रभु.।।
संकल्प विकल्पों का यह सागर संसार है।
सागर की तरंगों से अब, मैं ऊपर उठ जाऊँ।। हे प्रभु.।।१।।
दु:खों की पर्वतमाला कब टूट पड़ेगी मुझ पर।
उस पर्वत पर हे भगवन्! मैं वैâसे चढ़ पाऊँ।।हे प्रभु.।।२।।
आतम सुख के अमृत में मैं डूब गया अब स्वामी।
उसका आस्वादन लेकर, ‘‘चन्दना’’ सहज सुख पाऊँ।।हे प्रभु.।।३।।
इसके पश्चात् बाएँ हाथ की हथेली पर दाहिने हाथ की हथेली रखकर, आँखें कोमलता से बंद करके भगवान् के समान शान्तमुद्रा में बैठ जाएं और ॐकार का नाद करते हुए निम्न मंत्रों का उच्चारण करते हुए आत्मशांति का अनुभव करें-
१. ॐ अर्हत्स्वरूपोऽहं
२. ॐ तीर्थस्वरूपोऽहं
३. ॐ जिनस्वरूपोऽहं
४. ॐ सिद्धस्वरूपोऽहं
५. ॐ आत्मस्वरूपोऽहं
पुन: अपनी अन्तर्यात्रा प्रारंभ कर दें, इस यात्रा का लक्ष्य बिन्दु है-ॐ बीजाक्षर। कल्पना कीजिए कि मेरे ठीक सामने केशरिया वर्ण का एक ‘‘ॐ’’ मंत्र विराजमान है। इसी ॐ पर मन को केन्द्रित करें, ॐ के प्रत्येक अवयव में केशरिया रंग भरा हुआ देखें।
अनुभव करें…..मन को बाहर न जाने दें…..शिथिलता का सुझाव देते हुए ध्यान की अगली शृँखला में प्रवेश करें और चिन्तन करेंकि-
‘‘ॐ’’ यह प्रणवमंत्र है, यह पंचपरमेष्ठी वाचक मंत्र समस्त द्वादशांग का वाचक है। इसमें यथास्थान पाँचों परमेष्ठियों को विराजमान करते हुए उनके दर्शन करें-ॐ के अंदर प्रथम सिरे पर ‘‘अरिहंत’’ भगवान् को देखें और ‘‘णमो अरिहंताणं’’ पद का स्मरण करते हुए भावों से ही अरिहंत परमेष्ठी को नमन करें और आगे चलें अर्धचन्द्राकार सिद्धशिला पर, जहाँ सिद्ध भगवान विराजमान हैं। आठों कर्मों से रहित, निराकार-अशरीरी सिद्ध भगवान की प्रतिमा पर मन को एकाग्र करते हुए आप ‘‘णमो सिद्धाणं’’ पद का स्मरण करें और उन्हें नमन करते हुए अपने मनवांछित कार्य की सिद्धि करें।
पुनश्च तीसरे परमेष्ठी आचार्य देव हैं उनके दर्शन करने के लिए ॐ के मध्य भाग पर मन को लाएं और चिन्तन करें कि पिच्छी-कमण्डलु से सहित एक दिगम्बर मुनिराज यहाँ विराजमान हैं, ये ही चतुर्विध संघ के नायक आचार्य परमेष्ठी कहलाते हैं। इनके चरणों में श्रद्धापूर्वक नमन (भावों से ही) करें और ‘‘णमो आइरियाणं’’ पद का मानसिक उच्चारण करते हुए ‘‘ॐ’’ की मात्रा अर्थात् बड़े ऊ के आकार में लिखा गया जो Dाोकार है उसमें चतुर्थ उपाध्याय परमेष्ठी को दिगम्बर मुनि मुद्रा में अध्ययन-अध्यापन करते हुए देखें। इनके दर्शन से अज्ञान का नाश एवं ज्ञान का विकास होगा, ‘‘णमो उवज्झायाण्ां’’ के उच्चारणपूर्वक उनके चरणों में नमस्कार करें और अंतिम परमेष्ठी सर्वसाधुओें के दर्शन करने हेतु ‘‘ॐ’’ के निचले भाग में अपनी यात्रा का पड़ाव डालें। पुन: चिन्तन करें कि यहाँ सामायिक अवस्था में लीन महान सन्त-साधु विराजमान हैं, जो संसार, शरीर, भोगों से पूर्ण विरक्त हैं। उनके दर्शन करते हुए मन को केन्द्रित कर दें उनकी वीतरागी मुद्रा पर और निम्न पंक्तियाँ पढ़ते हुए तल्लीन हो जाएँ, ताकि मन कहीं बाहर न जाने पावे-
हे गुरुवर! तेरी प्रतिमा ही, तेरा अन्तर दर्शाती है।
यह नग्न दिगम्बर मुद्रा ही, प्राकृतिक रूप दर्शाती है।।
अर्थात् जिनकी काया से ही बिना कुछ बोले ही मोक्षमार्ग का दिग्दर्शन हो रहा है ऐसे साधु परमेष्ठी के चरणों में नतमस्तक होकर ‘‘णमो लोए सव्वसाहूणं’’ का उच्चारण करें और अपनी आत्मा में ये विलक्षण आध्यात्मिक ऊर्जा की प्राप्ति का अनुभव करें। दो मिनट के लिए मन को यहीं स्थिर कर दें, शरीर में शिथिलता एवं शांति का सुझाव दें, पुनश्च-
परमेष्ठियों की शक्ति से समन्वित अनन्तशक्तिमान् ॐ मंत्र के चारों ओर एक गोलाकार से निकलती हुई सूर्य की किरणों का दर्शन करें अर्थात् एक सूर्यबिम्ब में विराजमान ॐ बीजाक्षर पर चित्त को केन्द्रित करें, तब सूर्य जैसा प्रकाश मन-मस्तिष्क में भरता महसूस होगा एवं उस समय अनुभव करें-
‘‘मैं पूर्ण स्वस्थ हूँ, मुझे कोई रोग नहीं है’’ (तीन बार इस वाक्य को बोलें) पुन: महामंत्र के स्मरणपूर्वक तीन बार दीर्घ श्वासोच्छ्वास लें और आँखों को अभी बंद रखते हुए ही निम्न श्लोक का उच्चारण करें-
अर्हन्तो मंगलं कुर्यु:, सिद्धा कुर्युश्च मंगलम्।
आचार्या: पाठकाश्चापि, साधवो मम मंगलम्।।
इस मंगलपाठ के अनन्तर हाथ जोड़कर पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार करते हुए आँखें खोलें। इस प्रकार पदस्थ ध्यान में ॐ बीजाक्षर की यह संक्षिप्त ध्यान प्रक्रिया बतलाई गई है। आगे इसी तरह से ह्रीं, क्लीं, अर्हं, अहिआउसा आदि बीजाक्षरों को भी अपने उत्तमांगों में स्थापित करके इनका ध्यान भी किया जा सकता है।
स्वास्थ्य का पहला लक्षण मेरुदण्ड लचीला और स्वस्थ रहे। मेरुदण्ड को लचीला रखने के लिए मेरुदण्ड की क्रियाएँ और सीधा बैठना आवश्यक है। मेरुदण्ड के मात्र सीधा रहने से प्राण-धारा का सन्तुलन होने लगता है, जिससे व्यक्ति शक्तिशाली और प्राणवान बनता है। दीर्घ श्वांस से एकाग्रता आती है और गुस्सा शांत होता है। योगनिद्रा से तनाव में कमी और शांति मिलती है। विधायक सोच और मंगल भावना से मैत्री का विकास होता है। योग और मुद्राओं से स्वभाव बदलता है।
ह्रीं क्या है ? ह्रीं एक बीजाक्षर वर्ण है। इस एक ह्रीं के अन्दर चौबीस तीर्थंकर समाहित हैं, जो कि भिन्न-भिन्न वर्ण के हैं-
वरनाद द्वितीया चंद्र सदृश, बिंदू नीली है कला लाल।
ईकार हरित ह्र पीत इन्हीं में, उन-उन वर्णी जिन कृपालु।।
चंद्रप्रभु पुष्पदंत शशि में, बिन्दू में नेमी मुनिसुव्रत।
श्री पद्मप्रभु जिन वासुपूज्य हैं, कमलवर्ण सम कलामध्य।।१।।
ई मात्रा मध्य सुपार्श्व पार्श्व, ह्र बीज में सोलह तीर्थंकर।
ऋषभाजित संभव अभिनन्दन, सुमती शीतल श्रेयोजिनवर।।
श्री विमल अनंत धर्म शांति, कुंथू अर मल्लि नमी सन्मति।
ये ह्रीं मध्य चौबिस जिनवर, इनको वंदूँ ध्याऊँ नितप्रति।।२।।
सर्वप्रथम आप शुद्धमन से शुद्धवस्त्र धारण कर किसी एकांत स्थान अथवा पार्क जैसे खुले स्थान पर पद्मासन, अर्धपद्मासन अथवा सुखासन से बैठ जाएँ। शरीर पर पहने हुए वस्त्रों के अतिरिक्त समस्त परिग्रह को त्याग कर स्वाधीनता का अनुभव करते हुए तन-मन में शिथिलता का सुझाव दें और हाथ जोड़कर प्रार्थना कीजिए-
तर्ज-आवाज देकर तुम्हें……
चलो मन को अन्तर की यात्रा कराएँ।
भटकते विचारों को मन से हटाएँ।।
मेरी आतमा सत्य शिव सुन्दरम् है।
कुसंगति से उसमें हुआ मति भरम है।।
पुरुषार्थ कर शुद्ध आतम को ध्याएँ।
भटकते विचारों को मन से हटाएँ।।१।। चलो……
न हम हैं किसी के न कोई हमारा।
सभी से जुदा आतमा है निराला।।
उसे ‘चन्दना’ खोज करने से पाएँ।
भटकते विचारों को मन से हटाएँ।।२।। चलो…..
इसके पश्चात् बाएँ हाथ की हथेली पर दाहिने हाथ की हथेली रखकर आँखें कोमलता से बंद करके भगवान के समान शांत मुद्रा में बैठ जाएँ और ॐकार का नाद करते हुए निम्न मंत्रों का उच्चारण करते हुए आत्मशांति का अनुभव करें-
१. श्री सुखसम्पन्नोऽहं २. ह्री गुणसम्पन्नोऽहं ३. धृतिगुणसम्पन्नोऽहं ४. श्रीगुणसम्पन्नोऽहं ५. कीर्तिसम्पन्नोऽहं
पुन: अपनी अन्तर्यात्रा प्रारंभ कर दें, इस यात्रा का लक्ष्य बिन्दु है-ह्रीं बीजाक्षर। चौबीस तीर्थंकरों को नमन करते हुए ध्यान का प्रथम चरण प्रारंभ करें-
१. ध्यान का प्रथम चरण-सबसे पहले चित्त के द्वारा ‘ह्रीं’ पद लिखें। ह्र, ई की मात्रा, कला (लाइन) चन्द्राकार, बिन्दु। पूरा ह्रीं देखें……अनुभव करें……दिख रहा है। शांत….दर्शन करें। (२ मिनट)
२. ध्यान का द्वितीय चरण-यह ह्रीं पद पाँच रंगों से युक्त है। कहाँ कौन सा वर्ण है, देखें….लाल वर्ण की कला देखकर पुन: सर्वप्रथम पीत वर्ण का ह्र देखें। दो लाइनों में लिए गए ह्र के अन्दर तपाए हुए स्वर्ण के समान पीला-पीला रंग भरा हुआ है। देखें….अनुभव करें….दिख रहा है। शांत…..दर्शन (१ मिनट)
पुन: ईकार की मात्रा हरे रंग की देखें। दो लाइनों में खींची गई इस मात्रा के अन्दर मरकत मणि के समान हरा रंग भरा हुआ है। देखें…..दिख रहा है…..अनुभव करें….शांत….दर्शन (१ मिनट)
इसके पश्चात् लाइन (कला) लाल वर्ण की देखें। दो लाइनों से युक्त इस कला के अंदर मूंगे के समान लाल-लाल रंग भरा हुआ है। देखें….अनुभव करें……दिख रहा है…..शांत…..दर्शन (१ मिनट)
अब आगे चित्त को सभी बाह्य विकल्पों से खींच कर अन्दर की ओर ले आएं और ह्रीं के दाईं ओर ऊपर श्वेत वर्ण का अर्ध चन्द्र देखें। चमकता हुआ अर्ध चन्द्रमा बिल्कुल दूध जैसा सफेद। अनुभव करते हुए देखें…..दिख रहा है। इस चन्द्रमा को देखने से चित्त-हृदय धवल चाँदनी के सदृश स्वच्छ-निर्मल हो जाएगा। शांत….दर्शन (१ मिनट)
यह पूरी पंचवर्णी ह्रीं एक बार पूरी तौर से देख जाएं। शांत….दर्शन।
ध्यान का तृतीय चरण-पंचवर्णी ह्रीं में क्रम-क्रम से चौबीसों तीर्थंकर विराजमान करें। सर्वप्रथम पीले ‘ह्र’ के अंदर पीतवर्ण के सोलह तीर्थंकर हैं। देखें…..ऋषभ, अजित, संभव, अभिनंदन, सुमति, शीतल, श्रेयांस, विमल, अनंत, धर्म, शांति, कुंथु, अरह, मल्लि, नमि और वर्धमान। चित्त को एकाग्र करके सोलह तीर्थंकरोें को देखने का प्रयास करें। देखें….दिख रहे हैं….शांत……।
पुन: हरी ईकार मात्रा के अन्दर हरितवर्ण के २ तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ, पार्श्वनाथ को विराजमान करें। देखें……अनुभव करें। दिख रहा है….शांत…..दर्शन।
इसके पश्चात् क्रमानुसार लालवर्ण की कला (लाइन) के अंदर लाल वर्ण के दो तीर्थंकर पद्मप्रभु और वासुपूज्य भगवान को विराजमान करें। देखें…..अनुभव करें……शांत…..दिख रहा है।
अब श्वेत वर्ण के अर्ध चन्द्र में चन्द्रप्रभ, पुष्पदंत इन दो तीर्थंकरों को विराजमान करके देखें। शांत…..देखें…….दिख रहा है।
अन्त में नीली बिन्दु में नीलवर्ण के तीर्थंकर नेमिनाथ, मुनिसुव्रत को विराजमान करें। देखें……दिख रहा है।
इस प्रकार क्रम से पूरी पंचवर्णी ह्रीं के अंदर क्रम-क्रम से विराजमान समस्त तीर्थंकरों को एक बार देख जाएं। शांत……शांत……। चित्त की यात्रा पूरी होने वाली है। देखें….अनुभव करें……पूरा ह्रीं दिख रहा है।
ध्यान का अंतिम चरण-‘मैं पूर्ण स्वस्थ हूँ मुझे कोई रोग नहीं है’ (तीन बार इस वाक्य को बोलें) पुन: महामंत्र के स्मरणपूर्वक तीन बार दीर्घ श्वासोच्छ्वास लें। श्वांस छोड़ते समय पेट अन्दर और श्वांस भरते समय पेट बाहर और आँखों को अभी बंद रखते हुए निम्न श्लोक का उच्चारण करें-
शिवं शुद्ध बुद्धं, परं विश्वनाथम्।
न देवो न बन्धु: न कर्ता न कर्म।।
न अंगं न संगं न इच्छा न कायं।
चिदानंद रूपं नमो वीतरागम्।।
इस मंगलपाठ के अनन्तर हाथ जोड़कर पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार करते हुए आँखें खोलें। इस प्रकार पदस्थ ध्यान में ह्रीं बीजाक्षर की यह संक्षिप्त ध्यान प्रक्रिया बतलाई गई है।
आप उपर्युक्त ध्यान प्रक्रिया से शारीरिक एवं आत्मिक लाभ प्राप्त करें, यही हार्दिक भावना है।
इस पदस्थ ध्यान में इन मंत्रों का ध्यान करना ही कहा है अर्थात् इन मंत्रों को हृदय, ललाट, नाभि, मस्तक, कंठ आदि स्थानों में स्थापित करके उस पर उपयोग को स्थिर करना चाहिए।
जाप्य-यदि आप ऐसा ध्यान करने में असमर्थ हैं तो आप इन मंत्रों की जाप्य भी कर सकते हैं। जाप्य करने के वाचक, उपांशु और मानस ऐसे तीन भेद हैं। वाचक जाप में शब्दों का उच्चारण स्पष्ट होता है। उपांशु में भीतर ही भीतर शब्द कंठ स्थान में गूंजते रहते हैं बाहर नहीं निकल पाते हैं किन्तु मानस जाप में बाहरी और भीतरी शब्दोच्चारण का प्रयास रुक जाता है, हृदय में ही मंत्राक्षरों का चिंतवन चलता रहता है। यही क्रिया ध्यान का रूप धारण करती है। वाचिक जाप से सौगुणा अधिक पुण्य उपांशु जाप से होता है और उससे हजार गुणा अधिक पुण्य मानस जाप से होता है।
महामंत्र के जाप में प्राणायाम विधि का विधान है अर्थात् णमोकार मंत्र के तीन अंश करिये ‘‘णमो अरहंताणं’’ इस पद के उच्चारण के साथ श्वांसवायु को अंदर ले जाएये और ‘‘णमो सिद्धाणं’’ इस पद के उच्चारण के साथ श्वांस वायु को बाहर निकालिये। इसी तरह ‘णमो आइरियाण्ां’ में श्वांस खींचना और ‘णमो उवज्झायाणं’ में श्वास को छोड़ना तथा ‘णमो लोए’ में श्वांस लेना और ‘सव्व साहूणं’ पद में छोड़ना। इस तरह एक गाथा महामंत्र के उच्चारण में तीन श्वासोच्छ्वास होते हैं।
मुनियों की देववंदना, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय आदि प्रत्येक क्रियाओं में स्वासोच्छ्वास की गणना से ही महामंत्रपूर्वक कायोत्सर्ग करने का विधान है तथा श्रावकों के लिए भी ऐसा ही विधान है अत: इस महामंत्र का नव बार जाप करने से २७ श्वासोच्छ्वास होते हैं एवं १०८ जाप करने से ३०० श्वासोच्छ्वास हो जाते हैं। यह महामंत्र सर्वश्रेष्ठ अपराजित मंत्र है। ऐसे ही ‘अरहंत सिद्ध’ ‘अ सि आ उ सा’ ‘नम: सिद्धेभ्य:’ आदि अनेकों मंत्र हैं।
शांति मंत्र-ॐ ह्रीं श्री शांतिनाथाय जगत् शांतिकराय सर्वोपद्रव शांतिं कुरु कुरु ह्रीं नम:।
शांति की इच्छा करते हुए सदैव इस मंत्र का जाप करना चाहिए। अंगुलियों पर जाप करना या मणियों की अथवा सूत की माला पर भी जाप करना चाहिए। प्लास्टिक या लकड़ी की माता से जाप नहीं करना चाहिए। यह जाप पदस्थ ध्यान नहीं है किन्तु उस ध्यान के लिए प्रारंभिक साधन मात्र है।
इस प्रकार पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत इन चारों प्रकार के ध्यानों का अभ्यास करते हुए शारीरिक एवं मानसिक स्वस्थता प्राप्त होती है।