आचार्य बन्दना
अथ पौर्वाहिणक (आपराणिक) आचार्य वन्दना- क्रियायां
पूर्वाचार्यानुक्रमेण, सकल-कर्म-क्षयार्थं, भाव-पूजा-वन्दना - स्तव
समेतं श्री सिद्धभक्ति कायोत्सर्ग कुर्वेऽहं ।
( 27 श्वासोच्छ्वास में कायोत्सर्ग करें)
सम्मत्त - णाण-दसण-वीरिय-सुहुमं तहेव अवगहणं।
अगुरु-लघु-मव्वावाहं अट्ठगुणा होति सिद्धाणं ।। 1 ।।
तव - सिद्धे णय-सिद्धे संजम-सिद्धे चरित्त सिद्धे य
णाणम्मि दंसणम्मि य सिद्धे सिरसा णमस्सामि ।।2।।
अंचलिका
इच्छामि भन्ते ! सिद्धे भत्ति काउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं
सम्मणाण-सम्मदंसण-सम्मचरित्त जुत्ताणं,
अट्ठविह-कम्म-विप्प-मुक्काणं, अट्ठ-गुण-संपण्णाणं,
उड्ढलोय-मत्थयम्मि पयट्ठियाणं, तव-सिद्धाणं,
णयघ-सिद्धाण, संजम-सिद्धाणं, चरित्त-सिद्धाण,
अतीदाणागद - वट्टमाणकालत्तय-सिद्धाणं,
सव्व-सिद्धाणं, णिच्चकालं, अच्चेमि, पुज्जेमि, वंदामि,
णमस्सामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो,
सुगडू-गमणं, समाहि-मरणं, जिण-गुण-सम्पत्ति होउ मज्झं ।
अथ पौर्वाहिणक (आपराणिक) आचार्य वन्दना - क्रियायां
पूर्वाचार्यानुक्रमेण, सकल-कर्म-क्षयार्थ, भाव-पूजा-वन्दना -
स्तव समेतं श्री श्रुत भक्ति कायोत्सर्ग कुर्वेऽहं ।
( 27 श्वासोच्छ्वास में कार्यात्सर्ग करें )
कोटी-शतं द्वादश चैव कोट्यो, लक्षाण्यशीतिस् त्रयधिकानि चैव ।
पंचाशदष्टौ च सहस्त्र-संख्या-मेतच्छुतं पंच पदं नमामि ।। 1 ।।
अरहंत-भासियत्थं गणहर-देवेहिं गंथियं सम्मं ।
पणमामि भत्तिजुत्तो सुदणाण-महोवहिं सिरसा ।।2।।
अंचलिका
इच्छामि भन्ते ! सुद भत्ति काउस्सग्गो कओ,
तस्सालोचेउं अंगोवंगपइण्णय-पाहुडय परियम्म,
सुत्त पढमाणिओग-पुव्वगय-चूलिया चेव सुत्तत्थय-थुइ
धम्म-कहाइयं णिच्चकालं अच्चेमि, पुज्जेमि, वंदामि,
णमस्सामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो,
सुगइ-गमणं, . समाहि-मरणं जिण-गुण-सम्पत्ति होउ मज्झं |
अथ पौर्वाणिक (आपराणिक) आचार्य वन्दना- क्रियायां
पूर्वाचार्यानुक्रमेण, सकल-कर्म-क्षयार्थ,
भाव-पूजा - वन्दना - स्तव - समेतं
श्री आचार्य भक्ति कायोत्सर्ग कुर्वऽहं ।
( 27 श्वासोच्छ्वास में कायोत्सर्ग करें )
श्रुत-जलधि-पारगेभ्यः स्व पर मत-विभावना - पटु- मतिभ्यः ।
सुचरित-तपो-निधिभ्यो, नमो गुरुभ्यो गुण-गुरुभ्यः।।1।।
छत्तीस-गुण-समग्गे, पंच-विहाचार - करण- संदरिसे ।
सिस्साणुग्गह-कुसले, धम्माइरिए सदा वन्दे ।।2।।
गुरु-भत्ति संजमेण य, तरन्ति संसार-सायरं घोरम् ।
छिण्णंति अट्ठ-कम्मं, जम्मण-मरणं ण पावेंति ।। 3 ।।
ये नित्यं व्रत-मन्त्र होम-निरता, ध्यानाग्नि-होत्राकुलाः,
षट् कर्माभि रतास्तपोधन-धनाः, साधु-क्रियाः साधवः ।
शील-प्रावरणा-गुण-प्रहरणाश्- चन्द्रार्क-तेजोऽधिका,
मोक्षद्वार कपाट पाटन भटाः प्रीणंतु माम् साधवः ॥4॥
गुरवः पांतु नो नित्यं, ज्ञान दर्शन-नायकाः ।
चारित्रार्णव-गम्भीरा, मोक्ष- मागपदेशकाः ॥5॥
अंचलिका
इच्छामि भन्ते ! आइरिय भत्ति काउस्सग्गो कओ, तस्सालोचेउं
सम्मणाण, सम्पदंसण-सम्मचरित्त जुत्ताणं, पंचविहाचारणं,
आइरियाणं, आयारादिसुद-णाणोवदेसयाणं उवज्झायाणं,
तिरयण-गुण-पालण-रयाणं सव्वसाहूणं णिच्चकालं
अच्चेमि, पुज्जेमि, वंदामि, णमस्सामि, दुक्खक्खओ,
कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइ-गमणं, समाहि-मरणं,
जिण गुण-सम्पत्ति होउ मज मज्झं |
कल्पांत काव्य वचना विषया गुरुणां, लोकोत्तरा स्खिल गुणस्तवनं प्रशंसा |
स्वामिन्स्वास्वामिन्स्तु सिरसा मनसा वचोभिः, दद्यात् शिवं विमल सागर सूरि वर्यः ।।
स्वाध्याय ध्यान तप त्याग महान मूर्तिः, सिद्धांत सार कुशलो, जिन देव भक्त्या ।
महावीर कीर्ति गुरुवर्य सुपट्टय शिष्य, नित्यं नमामि सूरि, सन्मति सागराय ।।
तुभ्यं नमो रविसमा तव तेजकाय, तुभ्यं नमः शशि समुज्ज्वल वैभवाय ।
तुभ्यं नमो दुरित जाल विनाशनाय, तुभ्यं नमो गुरु 'विराग' शिवप्रदाय ।।
सद ज्ञान को ह्दय में तुमने उतारा, शुभध्यान लीन निज में निज को निहारा।
हे मां चमक रहा तप से तन है तुम्हारा, है कोटि वंदन गुरुमाँ को हमारा।।
जिन के उर में कल - कल बहेती, शुद्ध चेतना की धारा।
समतामय समयक्त्व मणि से , जिने निजको श्रृंगारा।
वचनो के मोती बरसाती, अमर रहे चिंतन धारा।
मेरे उर में आन बिराजो , गुरमां ज्ञेयश्री माता ।।
आहार-विहारे - निहारे व शयने, जागरणे सामायिके,
पठने व सपने, रागेण-दोषेण-मोहेन, क्रोधेन-मानेन-
लोभेन प्रमादेन त्रययोगेन यत्यत् दुष्कर्म भव
प्रायश्चित दे हि प्रायश्चित भवताप मिथ्या । )
( चार / दो कायोत्सर्ग करें )
जिनवाणी का अर्घ
जल चंदन अक्षत फूल चरू, अरू दीप धूप अति फल लावै ।
पूजा को ठानत जो तुम जानत, सो नर द्यानत सुख पावै ॥
तीर्थंकर की ध्वनि गणधर ने सुनि, अंग रचे चुनि ज्ञान मई।
सो जिनवर वाणी शिवसुख दानी, त्रिभुवन मानी पूज्य भई ॥
ॐ ह्रूं श्री जिनमुखोद्भव सरस्वती देव्यैः अनर्घपद प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
परम्परा का अर्घ
परम्परा के नायक है जो, आदि सिन्धु आचार्य प्रवर ।
महावीरकीर्ति गुरुवर, प्रज्ञा जिनकी बड़ी प्रखर ॥
विमल सिन्धु वात्सल्य दिवाकर, सन्मति सिंधु सूरि महान ।
अर्घ चढ़ाँऊ सब गुरुओं को, पा जाऊँ मैं शिवपुर धाम ॥
ॐ हूँ प. पू. .........
आ. विमलसागरजी महाराज का अर्घ
आठ द्रव्य का थाल चढ़ाकर, आठों कर्म खपावें ।
अष्ट गुणों की सिद्धी पाकर, सिद्ध लोक बस जावें ॥
परम तपस्वी त्यागमूर्ति, श्री विमल सिंधु के गुण गावें ।
निज निधि ज्ञान सुधारस पाकर, भव वन में न भटकावें ॥
ॐ ह्रूं परम पूज्य निमित्तज्ञानी आचार्य श्री 108 विमलसागरजी महाराज यतिवरेभ्यो अनर्घपद प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
आ. सन्मति सागरजी का अर्घ
हे तपस्वी सम्राट हमें भी, ऐसी शक्ति दे देना ।
और नहीं कुछ चाह हमारी, तुम बस मुक्ति दे देना ॥
अर्घ चढ़ाते है चरणों में, सद्गुण से तुम भर दो आज ।
नमन तुम्हारे चरणों में है, सन्मति सागरजी महाराज |
ॐ हूँ परम पूज्य तपस्वी सम्राट आचार्य श्री 108 सन्मति सागरजी महाराज यतिवरेभ्यो अनर्घपद प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
प. पु. गणाचार्य श्री 108 विरागसागरजी महाराज की पूजा
स्थापना
परम् पूज्य आचार्य शिरोमणि, विरागसागरजी गुरुवर।
बालयति अरु स्याद्वाद जो,प्रज्ञा जिनकी बड़ी प्रखर।।
अपने ज्ञान ध्यान तप बल से,भव्यों का तम करे हनन।
ऐसे गुरू का अर्चन करने,आहवानन कर करें नमन।।
ॐ हूँ परम् पूज्य राष्ट्रसंत, युगप्रमुख श्रमणाचार्य,गणाचार्य श्री 108 विरागसागरजी महाराज अत्र अवतर संवौषट्आह् वाननं ।
ॐ हूँ परम् पूज्य राष्ट्रसंत, युगप्रमुख श्रमणाचार्य,गणाचार्य श्री 108 विरागसागरजी महाराज अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ:ठ:स्थापनं।
ॐ हूँ परम् पूज्य राष्ट्रसंत, युगप्रमुख श्रमणाचार्य,गणाचार्य श्री 108 विरागसागरजी महाराज अत्र मम सन्नीहितो भव भव वषट् अन्निधिकरणं।।
भव तापो से तपा हुआ हूँ, तुम चरणों में शान्ति मिले।
क्रोध लोभ मद मानअरु मत्सर,गुरु भक्ति से शीध्र धुले।।
भक्ति भाव का निर्मल जल ले,गुरू चरणों मे धार करूँ।
परम् पूज्य आचार्य शिरोमणि,विरागसिन्धु को नमन करूँ।।
ॐ हूँ प.पू.उपसर्ग विजेता, युगप्रतिक्रमणप्रवर्तक, गणाचार्य श्री १०८ विरागसागरजी महाराज जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
जग की आकुलताएँ सारी,ममता का विष पिला रही।
तृष्णा मोह क्रोध की अग्नि, अंतर मन को जला रही।।
गुरू चरणों मे विनय भाव का,चन्दन लेकर शांत करूँ।
परम् पूज्य आचार्य शिरोमणि, विरागसिन्धु को नमन करूँ।।
ॐ हूँ प.पू.उपसर्ग विजेता, युगप्रतिक्रमणप्रवर्तक, गणाचार्य श्री १०८ विरागसागरजी महाराज संसार ताप विनाशनाय चंदन निर्वपामीति स्वाहा।
जितने भी पद पाये मैंने, सबका अब तक नाश हुआ।
नही अभी तक मेरा गुरुवर, सच्चे पद में वास हुआ।।
अक्षय पद के अक्षत लेकर,गुरू महिमा का गान करूँ।
परम् पूज्य आचार्य शिरोमणि, विरागसिन्धु को नमन करूँ।।
ॐ हूँ प.पू.उपसर्ग विजेता, युगप्रतिक्रमणप्रवर्तक, गणाचार्य श्री १०८ विरागसागरजी महाराज अक्षय पद प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
अब तक जग में भटका गुरुवर, पर की आस वासना से।
नही कभी भी तृप्त हुये हम,अग्नि धी सम प्यास से।।
समता शील व्रतादिक लेकर,काम वासना शमन करूँ।
परम् पूज्य आचार्य शिरोमणि, विरागसिन्धु को नमन करूँ।।
ॐ हूँ प.पू.उपसर्ग विजेता, युगप्रतिक्रमणप्रवर्तक, गणाचार्य श्री १०८ विरागसागरजी महाराज कामबाण विध्वंशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
तीन लोक के सकल पदारथ,क्षुधा अग्नि के ग्रास बने।
क्षुधा शांत न होती फिर भी,हम आशा के दास बने।।
ले नैवेद्य आस तजने को,इच्छाओं का दमन करूँ।
परम् पूज्य आचार्य शिरोमणि, विरागसिन्धु को नमन करूँ।।
ॐ हूँ प.पू.उपसर्ग विजेता, युगप्रतिक्रमणप्रवर्तक, गणाचार्य श्री १०८ विरागसागरजी महाराज छुधा रोग विनाशनाय नैवेधं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्ञान दीप बिन अब तक जग में,निज पद का नही भान हुआ।
तेरी दिव्य देशना से ही,निज शक्ति का ज्ञान हुआ।।
यशोगान का दीपक लेकर,निज कुटिया को चमन करूँ।
परम् पूज्य आचार्य शिरोमणि, विरागसिन्धु को नमन करूँ।।
ॐ हूँ प.पू.उपसर्ग विजेता, युगप्रतिक्रमणप्रवर्तक, गणाचार्य श्री १०८ विरागसागरजी महाराज मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
वसु विधि वश होकर गुरुवर,भव सागर में भटक रहा।
अष्ट कर्म के दहन करन को,सम्यक तप है धर्म महा।।
तुमसे संयम-मय तप पाकर,अष्ट कर्म को दहन करूँ।
परम् पूज्य आचार्य शिरोमणि, विरागसिन्धु को नमन करूँ।।
ॐ हूँ प.पू.उपसर्ग विजेता, युगप्रतिक्रमणप्रवर्तक, गणाचार्य श्री १०८ विरागसागरजी महाराज अष्टकर्म दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
जिस फल के बिन निष्फल सब कुछ, वह फल मैं भी पा जाउ।
ऐसा मोक्ष महाफल पाने,गुरू चरणों को नित ध्याउ।।
मोक्ष महाफल को पाने मैं, मोह कर्म को दमन करूँ।
परम् पूज्य आचार्य शिरोमणि, विरागसिन्धु को नमन करूँ।।
ॐ हूँ प.पू.उपसर्ग विजेता, युगप्रतिक्रमणप्रवर्तक, गणाचार्य श्री १०८ विरागसागरजी महाराज मोक्ष फल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
शुभ भावो का निर्मल जल है, विनय भाव का है चन्दन।
गुरू वंदन ही अक्षत है ये,भक्ति सुमन का अभिनन्दन।।
मन वच तन से आत्म समर्पण, मोह क्षोभ का शमन करूँ।
परम् पूज्य आचार्य शिरोमणि, विरागसिन्धु को नमन करूँ।।
ॐ हूँ प.पू.उपसर्ग विजेता, युगप्रतिक्रमणप्रवर्तक, गणाचार्य श्री १०८ विरागसागरजी महाराज अनर्घ्य पद प्राप्तये निर्वपामीति स्वाहा।
।।जयमाला।।
दोहा:- माँ श्यामा के लाड़ले,कपूरचंद के लाल।
विराग सिन्धु आचार्य की,अब वरणू जयमाला।।
सम्यक श्रद्धा निज गुण का है, जिससे मैं नित दूर रह।
मिथ्या भाव छोड़ नही पाया,दुखो से भरपूर रहा।।
ऐसी सम्यक निज निधि पाकर,निज का मैं उद्धार करूँ।
परम् पूज्य आचार्य शिरोमणि, विरागसिन्धु को नमन करूँ।।
सम्यक बोध नही मैं पाया,जो शिव सुख का साधन है।
ऐसे बोध अगम्य पुंज तुम,अतः तुम्हें अभिवादन है।।
तुमसे सत्य बोध को पाकर,शिव मारग में गमन करूँ।
परम् पूज्य आचार्य शिरोमणि, विरागसिन्धु को नमन करूँ।।
सम्यक चारित्र बिन सब सूना, ज्यो बिना गंध के पुष्प कहा।
ऐसे सत्य चरण बिन गुरुवर, जग में अब तक भटक रहा।।
तुमसे चरण निधि मैं पाकर,शिव रमणी का वरण करूँ।
परम् पूज्य आचार्य शिरोमणि, विरागसिन्धु को नमन करूँ।।
सम्यक तप ही इक साधन हैं, जो कर्म भस्म कर देता है।
सारे दुःख अशान्ति जगत की,आप स्वयं हर लेता है।।
धोर तपोनिधि को पा करके, क्यो न मैं अनुशरण करूँ।
परम् पूज्य आचार्य शिरोमणि, विरागसिन्धु को नमन करूँ।।
निज शक्ति को नही छिपाकर, धोर तपस्या करते हो।
उपसर्ग परिषह के सहने में, नही कभी तुम डरते हो।।
ऐसा वीर्याचार पालते,उसका मैं अनुशरण करूँ।
परम् पूज्य आचार्य शिरोमणि, विरागसिन्धु को नमन करूँ।।
उत्तम क्षमा मार्दव आर्जव सत्य शौच और संयम है।
उत्तम तप और त्याग,आकिंचन, ब्रह्मचर्य विमलतम है।।
दश धर्मो की अगम सिन्धु पा,मैं भी नित स्नान करूँ।
परम् पूज्य आचार्य शिरोमणि, विरागसिन्धु को नमन करूँ।।
अशरण अनित्य संसार भावना,अशुचि एकत्व और अन्यत्व।
आस्रव संवर निर्जरा लोक हि ,दुर्लभ बोधि धर्म है तत्व।।
इनको तुम भाते हो निश दिन ,मै भी इनका मनन करूँ।
परम् पूज्य आचार्य शिरोमणि, विरागसिन्धु को नमन करूँ।।
निश्चित श्रद्धा ज्ञान चरित्र को,निर्विकल्प बनाया है।
अभेद रत्नत्रय को पाने, मैंने शीश झुकाया है।।
अप्रमत्त दशा को पाने,मुनि बन निज में मनन करूँ।
परम् पूज्य आचार्य शिरोमणि, विरागसिन्धु को नमन करूँ।।
दोहा। :सप्तम पूजा भक्त ने,लिखी भक्ति के हेतु।
भक्ति भाव से भक्ति कर,बाँधू भव का सेतु।।
तुम चरणों का दास मैं, करता हूँ अरदास ।
नाश पाश भव का करो,दीजे चरण निवास।।
ॐ हूँ प.पू.चर्या चूड़ामणि बुंदेलखंड के प्रथमाचार्य,आचार्य रत्न, आचार्य गौरव,सिद्धांत चक्रवर्ती, समता मूर्ति,गणाचार्य श्री 108 विराग सागरजी महाराज यतिवरेभ्यो जयमाला पुर्ण अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा: भूल चूक सब माफ हो,मैं हूँ निपट अजान।
एक भावना बस यही,हो सबका कल्याण।।
पुष्पांजलि क्षेपेत
आरती
हे गुरुवर तेरे चरणों में,हम वंदन करने आये है।
हम वंदन करने आये है, हम आरती करने आये है।
तुम काम,क्रोध, मद,लोभ छोड़,निज आतम को पहिचाना है।
धर कुटुम्ब छोड़कर निकल पड़े, धर लिया दिगम्बर बाना है। हे…1
छोटी सी आयु में स्वामी,विषयो से मन अकुलाया है।
तप,संयम,शील,साधना में, दृढ़ अपने मन को पाया है।हे…2
कितना भीषण संताप पड़े,हो क्षुधा-तृषा की बाधाये।
सिथर मन से सब सहते हो,बाधाएँ कितनी आ जाये।हे…3
नही ब्याह किया धर बार तजा, समता के दीप जलाये है।
हे महाव्रती संयमधारी,चरणों मे सेवक आये है।हे….4
तुम जैन धर्म के सूरज हो, तप -त्याग की अदभुत मूरत हो।
है धन्य-धन्य महिमा तेरी,तम हरने वाले सूरज हो। हे…5
शिवपुर पथ के अनुगामी का,अभिवंदन करने आये है।
हे गुरुवर तेरे चरणों मे, हम वंदन करने आये है। हे…6
गणिनी आर्यिका १०५ विज्ञाश्री माताजी की पूजन
पाद प्रक्षालन
तेरे चरणों की धूलि माता,चंदन गुलाल बने।
जिसने भी लगाई मस्तक ,उज़की तकदीर बने।।
स्थापना: (तर्ज- ऐ मेरे वतन….)
माँ विज्ञाश्री प्रज्ञा दाता, तुम सरस्वती या जिनवाणी ।
हे ज्ञान ध्यान वैराग्य मूर्ति,तुम स्वानुभूति समरस खानी।।
चारित्र चन्द्रिका हे माता ,चरणों मे शत -शत वंदन हो ।
तुम पर्व दशहरा दिवाली ,पर्युषण रक्षाबंधन हो।।
माँ की ममता तुममें मिलती, वात्सल्य गुरु का मिलता है।
विश्वास आपका महाप्रबल ,जीवन में बना सफलता हैं।।
ज्ञाता द्रष्टा का भाव सहज , शुध्दात्म साधिका ने पाया।
माँ विज्ञा श्री की पूजन को, मेरा अन्तर्मन ललचाया।।
ॐ ह्रीं गणिनी आर्यिका रत्न 105 विज्ञाश्री माताजी अत्र अवतर संवौषट्आह् वाननं
ॐ ह्रीं गणिनी आर्यिका 105 विज्ञाश्री माताजी अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ:ठ:स्थापनं।
ॐ ह्रीं गणिनी आर्यिका 105 विज्ञाश्री माताजी अत्र मम सन्नीहितो भव भव वषट् अन्निधि करणं।।
अष्टक (जिस देश मे जिस भेष में …)
जल सा उज्ज्वल जिनका जीवन, जल से निर्मल जिनकी चर्या।
जल सी मधुरिम जिनकी वाणी,जल सी प्रशांत जिनकी क्रिया ।।
माँ विज्ञा के प्रज्ञा जल में,अवगाहन करने आया हूँ।
शुभ भाव समर्पित करने को,यह अक्षर जल भर लाया हूँ।।
जिस हाल में,जिस साल में,जिस काल मे रहो।
गुरु नाम जपो-गुरु नाम जपो-गुरु नाम ही जपो।।
ॐ ह्रीं गणिनी आर्यिका 105 विज्ञाश्री मातु जन्म जरा मृत्यू विनाशनाय जलं निर्वपामिति स्वाहा ।
चरित्र चन्द्रिका माताजी ,चंदन सा जीवन महकाया ।
स्वाध्याय साधना में घिसकर , श्रुतज्ञान तिलक यह लगवाया।।
चन्दन स्वभाव सम सुरभित हो, चैतन्य सुरभि उर में धारे।
तेरे स्वभाव की दृढ़ता से ,विषयो के विषधर भी हरे।।
जिस मान में ,सम्मान में,अपमान में रहो ।
गुरु नाम जपो ,गुरु नाम जपो, गुरु नाम ही जपो।।
ॐ ह्रीं गणिनी आर्यिका 105 विज्ञाश्री मातु संसरताप विनाशनाय चन्दनं निर्वपामिति स्वाहा ।
अक्षत आत्मागुण गणधारक ,अक्षत पद की अभिलाषी हो।
तुम संवर पथ की अनुयायी, शुध्दात्म तत्व विश्वासी हो ।।
श्री पूज्यपाद के विमल पाद ,जो पद -पद तुम्हारे सहारे हैं।
उन विमल पदों को उर धारा, जिनसे आपद सब हरे हैं।।
आधि में, व्याधि में, समाधि में रहो ।
गुरु नाम जपो ,गुरु नाम जपो, गुरु नाम ही जपो।।
ॐ ह्रीं गणिनी आर्यिका 105 विज्ञाश्री मातु अक्षय पद प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामिति स्वाहा ।
हे परम ब्रह्मा की आराधक, असिधारा व्रत परिपालक हो।
तुम बाल ब्रह्म वत्तधारि हो, परिपुर्ण ब्रह्म व्रत पालक हो।।
चरित्र चन्द्रिका को पाकर ,चैतन्य कुमुदिनी खिलती है।
चरणों में पुष्प चढ़ाते ही, वैराग्य कौमुदी मिलती हैं।।
जिस ग्रन्थ में ,निर्ग्रन्थ में, जिस पंथ में रहो।
गुरु नाम जपो ,गुरु नाम जपो, गुरु नाम ही जपो।।
ॐ ह्रीं गणिनी आर्यिका 105 विज्ञाश्री मातु कामबाण विध्वंशनास पुष्पं निर्वपामिति स्वाहा ।
निर्वेद भाव का सद व्यंजन, यह तेरा जीवन बना हुआ।
चैतन्य तत्त्व से निर्मित है, शुद्धात्म रसों में सना हुआ।।
आत्मानुभूति मधुरिम मिठास, शुध्दात्म साधिका ने पायी।
वह स्वानुभूति व्यंजन पाऊँ, नैवेद्य चढ़ा यह सुध आयी।।
जिस रोग में ,जिस भोग में, जिस योग में रहो।
गुरु नाम जपो ,गुरु नाम जपो, गुरु नाम ही जपो।।
ॐ ह्रीं गणिनी आर्यिका 105 विज्ञाश्री मातु क्षुधारोग विनाशनाय नैवेधं निर्वपामिति स्वाहा ।
सम्यग्दर्शन के दीप जला, दिवाली आप मनाती हैं।
श्रद्धा तुमको ले जाये जहाँ ,एक मात्र वहाँ पर जाती हैं।।
तेरे दर्शन करके माता , मै दीपावली मनाऊँगा।
शुध्दात्म प्रभा से आलोकित, परमात्म तत्त्व प्रकटाऊगा।।
सम्मेद में , गिरनार में ,तिजारा में रहो ।
गुरु नाम जपो ,गुरु नाम जपो, गुरु नाम ही जपो।।
ॐ ह्रीं गणिनी आर्यिका 105 विज्ञाश्री मातु मोहांधकार विनाशनाय दीपं निर्वपामिति स्वाह।
सिध्दष्ट गुणों को ध्याकर के,कर्माष्टक धूप जलती हो।
चैतन्य केंद्र वातायन से ,तुम गुण सुगन्ध फैलाती हो।।
तेरे गुण सौरभ को पाने ,यह भक्त भृमर दौड़े आते।
तेरी अपार महिमा माता, श्रध्दा समेत सादर गाते।।
गुजरात मे ,महाराष्ट्र में, राजिस्थान में रहो।
गुरु नाम जपो ,गुरु नाम जपो, गुरु नाम ही जपो।।
ॐ ह्रीं गणिनी आर्यिका 105 विज्ञाश्री मातु अष्टकर्म दहनाय धूपं निर्वपामिति स्वाहा ।
कर्मों के फल अब तक पाए ,सदधर्मों का फल पाना हैं।
अतएव तुम्हारे चरणों में, यह श्रीफल आज चढ़ाया हैं।।
मेरा श्रीफल यह सफल करो ,स्वीकारो नम्र निवेदन यह।
दो मोक्ष महाफल माताजी, मेरा विनम्र आवेदन यह।।
जिस मंत्र में, महामंत्र में ,गुरु मंत्र में रहो ।
गुरु नाम जपो ,गुरु नाम जपो, गुरु नाम ही जपो।।
ॐ ह्रीं गणिनी आर्यिका विज्ञाश्री मातु मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामिति स्वाहा ।
अभिवंदनीय तेरा चया ,नित वंदनीय तव चर्या हैं।
तेरे चर्या चर्चा पाने ,यह अष्ट द्रव्य से अर्चा हैं।।
विज्ञान ज्ञानमति विज्ञश्री ,तीनो ज्ञान अक्षरधारी हैं।
मेरी भविष्य वाणी कहती, यह तीन लोक पर भारी हैं।।
दुकान में , मकान में, श्मशान में रहो।
गुरु नाम जपो ,गुरु नाम जपो, गुरु नाम ही जपो।।
ॐ ह्रीं गणिनी आर्यिका 105 विज्ञाश्री मातु अनर्धपद प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा ।
जयमाला
दोहा: -माँ विज्ञा प्रज्ञामयी, गुण रत्नों की खान ।
श्रेष्ट समाधि साधिका, तुमको नम्र प्रणाम।।
गुरु आज्ञा में तुम रही प्रज्ञा हुई विशाल।
विज्ञा माँ विज्ञा मिले ,गाऊँ में जयमाल।।
सती चंदनबाला धन्य हुई,ज्यो महावीर को पाकर के।
त्यों चन्द्रकुमारी धन्य हुई,गुरुवर विराग पद आकर के।।
ज्यो महावीर के दर्शन कर,वह बद्ध श्रंखला मुक्त हुई।
त्यों गुरू विराग के दर्शन कर,तुम गृह बंधन से मुक्त हुई।।
तेरी चर्या लख लगा मुझे, ज्यो मूलाचार उतर आया।
तेरी वाणी सुन लगा मुझे, ज्यो सरस्वती का वर पाया।।
नतमस्तक नारी शक्ति का, यह मस्तक तुमसे ऊँचा है।
इस मातृ शक्ति को तुमने ही,समता-ममता सा सींचा है।।
जीवो को जीव समासों को,सम्यक प्रकार पहिचाना है।
तुम परम् अहिंसा व्रतधारी,तुमने रक्षा व्रत ठाना है।।
यह राग-द्वेष अरु मोह भाव,जो है असत्य भाषण कारण।
उन दुर्भावों को त्याग दिया, कर सत्य महाव्रत को धारण।।
हो गाँव-नगर या शहर-डगर,जो पर पदार्थ दिखते प्यारे।
वह बिना दिये न ग्रहण करे, उत्तम अचौर्य व्रत उर धारे।।
पर के प्रति मन में चाह नही,दुर्भाव तजे दुष्काम तजे।
तुम परम् ब्रह्म आराधक हो,व्रत ब्रह्मचर्य निष्काम भतजे।।
निरपेक्ष भावना के बल पर, सम्पूर्ण परिग्रह त्याग किया।
चारित्र भार को धारण कर,तुमने अपरिग्रह स्वीकार किया।।
प्रासुक वसुधा लख चार हाथ, सूरज प्रकाश में गमन करें।
ऐसी ईर्यापथगामी के,हम चरण कमल में नमन करे।।
पैशून्य हास्य पर निंदा या,त्यागा है आत्म प्रशंसा को।
बोले निज पर हितकारी वच,जिनमें आगम अनुसंसा हो।।
कृत-कारित अनुमोदन त्यागी, प्रासकु प्रशस्त आहार करें।
है पराधीन भिक्षा चर्या, फिर भी समता समभाव धरे।।
जब शास्त्र कमंडल ग्रहण करें, या रखती और उठाती है।
तुम यत्न सहित परिमार्जन कर,निज दया भाव दरशाती है।।
एकांत निराकुल प्रासुक भू, हो रोक-टोक भी जहाँ नही।
ऐसी निर्जीव धरा पर ही,मल क्षेपण करती आप कहीं।।
कालुष्य मोह संज्ञा गारव,दुर्भावों का परिहार किया।
व्यवहार और निश्चय दोनों, शुभ मनोगुप्ति को धार लिया।।
सब पाप वचन तुमने त्यागे,त्यागी जग की सब विकथाये।
हो गयीं आप आस्त्रव त्यागी,धर वचन गुप्ति गुण प्रकटाऐ।।
छेदन-भेदन बंधन-मरण,संकोचन और विकोचन कि।
सब पापमयी किया त्यागी,धर काय गुप्ति दुखमोचन की।।
तेरह प्रकार का यह चारित्र,आगम आज्ञा से पाला है।
गुरू चरणाम्बुज को पाकर के,सब पाप दोष तज डाला है।।
व्यवहार चरित इस विधि पाला, निश्चय का आश्रय लिया सदा।
चारित्र ध्वजा धारी माता,पाऊँ चरित्र तुमसा प्रमुदा।।
चउ धातिकर्म से रहित हुए, ज्ञानादि गुणो को पाया है।
परमेष्ठी प्रतम अर्हन्त देव,उनको तुमने शिरनाया है।।
जो अष्ट कर्म को नष्ट करे, अरु अष्ट गुणों को लसा
लोकाग्र शिखर पर जो रहते,उन सिध्देश्वर के गुण गाये।।
जो पंचाचार परायण हैं, पंचेन्द्रिय गज के जेट है।
जो धीर वीर गम्भीर गुणी, आचार्य श्रेष्ठ शिवनेता हैं।।
जिन वचन कथन में शूर वीर, रत्नत्रय गुण के धारी हैं।
निष्कांक्ष भाव से भरे हुए, निर्धन श्रुतधन व्यापारी हैं।।
आराध्य आप आराधन में, लवलीन सदा प्रमुदित मन से।
निर्ग्रन्थ और निर्मोह चित, तुम साधु शरण रहती मन से।।
यह भक्ति मुक्ति का मार्ग कहा, जो आराधन शिव साधन हैं।
यह मोक्ष मार्ग का अनुपम पथ, भक्तो समाधि का साधन हैं।।
चरित्र चन्द्रिका माताजी, चरित्र आपसा उज्ज्वाल हो।
तेरी चर्या को लख-लखकर,मेरी चर्या अति निर्मल हो।।
दोहा:- निर्झरिणी अध्यात्म की, विज्ञाश्री शुभ नाम।
जयमाला के अन्त में, बारम्बार प्रणाम।।
ॐ ह्रीं गणिनी आर्यिका 105 विज्ञाश्री मातु जयमाला पूर्णार्घां निर्वपामिति स्वाहा ।
दोहा:-
मन-वच-तन से नमन, तुमको तीनों काल।
विज्ञार्चन कर हो गया माता आज निहाल।।
।।इत्याशीर्वाद:पुष्पांजलि क्षिपेत्।
आरती
जय-जय गुरू माँ भक्त पुकारे,आरती मंगल गाये।
आरती करूँ विज्ञाश्री माँ की,मोह-तिमिर हट जाये।।
गुरू माँ के चरणों में नमन-2,बोलो जय-जय-जय-2
गैसाबाद में जन्म लिया है, धन्य है गेंदाबाई ।
पिता तुम्हारे अमरचंद जी हर्षित मन मुस्काये।।
नगर में सब जन मंगल गाये-2,फूले नही समाये।आरती..
सूरज सा था तेज आपका नाम अंकिता पाया।
बीस वर्ष की अल्प आयु में तुमने धर को त्यागा।।
यह सब कुछ तो नाशवान है-2,भाव विराग जगाये।आरती..
विराग सागरजी गुरुवर ने,तुम्हें दीक्षा दे उद्धारा।
देख के तन की कोमलता को,विज्ञाश्री कह के पुकारा।।
चारित रथ पर चढ़कर गुरू माँ-2,मुक्ति बाँट निहारे।आरती..
धन्य है जीवन धन्य है तन-मन,मिलकर सब गुण गाये।
सर्व संपदा सब कुछ पाकर,मनुष्य जन्म फल पाये।।
दिव्य ज्ञान तुम सा हम पाकर-2,लोक शिखर पा जाये।आरती….
"आर्यिका 105 ज्ञेयश्री माता जी का मंगल पूजन"
ज्ञानोदयछन्द-
परम पूज्य श्री विदुषी माता,ज्ञेय श्री का करो नमन ।
जिनका मंगल सुमिरन अर्चन, पाप पुंज का करे शमन ।।
भद्र भावना सौम्य छवि है, त्याग तपस्या जिन पहिचान।
आओ तिष्टो मन मंदिर में, मात अर्चना सुक की खान।।
ॐ ह्रीं आर्यिका 105 ज्ञेयश्री माताजी अत्र अवतर अवतर संवौषट्आह्संवौषट्आह् वाननं
ॐ ह्रीं आर्यिका 105 ज्ञेयश्री माताजी अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ:ठ:स्थापनं।
ॐ ह्रीं आर्यिका 105 ज्ञेयश्री माताजी अत्र मम सन्नीहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं।।
कनक कलश मे क्षीर वारी ले, शुभ भवो से चरण धरो।
पावन निर्मल जल कि धार, लेकर भविगण पूजा करो।।
सरल स्वभावि ज्ञेय श्री माँ , करता वंदन बारम्बरा।
जन्म जरा मृत्यु क्षय करने को, करो समर्पित जल की धार।।2।।
ॐ ह्रीं आर्यिका 105 ज्ञेयश्री मातु जन्म जरा मृत्यू विनाशनाय जलं निर्वपामिति स्वाहा ।
मलयागिर का उत्तम चन्दन, केशर संग में लेओ घिसाय ।
युगल चरण में पूज्य मातु के,उत्तम भावनि देओ चढ़ाय ।।
सरस्वती सम श्वेत शारिका,पिन्छी कमण्डल जिनके संग।
भवाताप के नाश करन हित, चरचूँ चन्दन चारू चरण।।
ॐ ह्रीं आर्यिका 105 ज्ञेयश्री मातु संसरताप विनाशनाय चन्दनं निर्वपामिति स्वाहा ।
रामभोग अरु बासमती के, सोम सदृश हैं यह अक्षत।
अक्षय पदपद के प्रतिक पुंज हैं, देऊँ चढ़ाऊँ मन हर्षित।।
भौतिक पद तो नाशवान है ,अविनश्वर है वह अक्षयपद ।
ऐसा उत्तम पद मैं पाऊँ, अरपू माता पावन पद ।।
ॐ ह्रीं आर्यिका 105 ज्ञेयश्री मातु अक्षय पद प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामिति स्वाहा ।
सारा जग है जिसके वश में , ऐसा मन्मथ बड़ा प्रबल ।
शील कटक ले दिया पटक रे, हुआ पराजित एकही पल।।
अब उसके यह अस्त्र पुष्प ले, आज चढ़ाऊँ युगल चरण ।
बाल हो तुम ब्रम्हचारिणी दे दो ,माता चरण शरण ।।
ॐ ह्रीं आर्यिका 105 ज्ञेयश्री मातु कामबाण विध्वंशनास पुष्पं निर्वपामिति स्वाहा ।
नाना विध के मनहर व्यंजन ,खूब भरवे हैं आज तलक।
किंतु तृप्त न क्षुधा हुई है , भटक रहा हूँ गया अटक ।।
अब मैं आया माता शरण, लेती कैसे आप नियम ।
क्षुधा नाश रित चरण चढ़ाऊँ ,देना आशिष हित संयम।।
ॐ ह्रीं आर्यिका 105 ज्ञेयश्री मातु क्षुधारोग विनाशनाय नैवेधं निर्वपामिति स्वाहा ।
कनकदीप में घृतमय वाती,जगमग जगमग ज्योति जले ।
बाह्य तिमिर तो क्षय क्षण भंगुर,अंतसतम क्षय मार्ग मिले।।
जैसे आप पुरुषार्थ किया है, सम्यग्ज्ञान के पाने को।
वैसा में भी पुरूषार्थ करू, सम्यक मुक्ति को पाने को।।
ॐ ह्रीं आर्यिका 105 ज्ञेयश्री मातु मोहांधकार विनाशनाय दीपं निर्वपामिति स्वाहा ।
दसविध अंगी, धूप सुगंधी, दिग दिगन्त में सुरभि भरे ।
अनल पडे तब ध्रुम उड़े हैं ,दसो दिशायें चित्र हरे ।।
धर्मध्यान धरि, शुक्ल अनल में ,करम वसु विध धुप धरूँ।
वसू अन्त में लोक शिखर के, मात चरण में नित्य नमूँ।।
ॐ ह्रीं आर्यिका 105 ज्ञेयश्री मातु अष्टकर्म दहनाय धूपं निर्वपामिति स्वाहा ।
प्रासुक मिठे उत्तम फल ये, नाना विध के अति रमणीक।
भक्षण किने आज तलक लौ,मिली न तृप्ती कही सटीक।।
हुआ विफल हूँ बनू सफल में शिवफल पाना चाह रहा।
इसीलिए में फल करि अर्पण मात शरण में चाह रहा
ॐ ह्रीं आर्यिका ज्ञेयश्री मातु मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामिति स्वाहा ।
उत्तम वारि उत्तम चंदन अक्षत उत्तम पुष्प मिलाया।
चारु चरु ले दीप सहित करि धूप मिला फल ले आया।।
वशु दव्य का अर्घ लेकर वसु गुण पाना लक्ष्य है एक।
जैसे माता आप चली है संयम पथ की धारु टेक।।
ॐ ह्रीं आर्यिका 105 ज्ञेयश्री मातु अनर्धपद प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा ।
"जयमाला"
दोहा:- वसु द्रव्य अर्पण किया , अब गाऊँ गुणगान
गुणन प्रीति धारण करे , यही भक्त पहिचान।।
चौबोला-प्रथम वंदना करूँ मात मै, गणाचार्य श्री गुरु विराग।
तिन शिष्या है गणिनी माता , विज्ञा श्री जी बड़ी उदार।।
चंद्र चरण चोरई चौमासा , घमम्रित दोना बरसाय।
नीलू सिंघई इक बलसुकन्या , मात चरण में शीश नवाय।।
सौम्यमूर्ति यह विनयवान यह,संयम पथ हित भरी उमंग।
किया नमन है, और समर्पण , ज्ञान ध्यान मय माता संग।।
स्वराजय सिंघई की बेटी सायानी, माता चक्रेश्वरी नयन दुलार।
दो भ्राताओं की बहुत लाड़ली, परिजन-पुरजन देते प्यार।।
चार मई इक्यासी जनम लिया है, बी ए शिक्षा प्राप्त करी।
सार न कोई भवसागर में , कर चिंतन वैराग्य धरी।।
दो हजार सन तिन है आया, माह नवंबर नो शुभ अंक।
ब्रह्मचर्य ले आत्म हित में, नीलू बाला ले संकल्प ।।
अनुशासन में विज्ञा श्री के,निशदिन अघ्ययन आ स्वाध्याय।
सतत साधना , मँगराघना, निज को पाने यही उपाय।।
एक दिवस माँ कृपा दृष्टि से, गोसलपुर में जन जन आयआय।
दो हजार सन नो की बेला , दोय दिसम्बर बहुत उछाह ।।
केशलोंच कर बनी आर्यिक,ज्ञेयश्री नाम दिया गुरुमा ने ||
सूली से गुरुमां जी सत-सत वंदन करते है||
आर्यिका 105 श्री ज्ञेयश्री माताजी को सत सत वंदन करते है||
||ॐ ह्रींह्रीं आर्यिका 105 ज्ञेयश्री मातु जयमाला पूर्णार्घां निर्वपामिति स्वाहा ।
पुष्पांजलि क्षिपेत्