पाँच प्रकार के आचारों का जो स्वयं आचरण करते हैं तथा शिष्यों से आचरण कराते हैं, वे आचार्य परमेष्ठी कहलाते हैं। वे आचार्य चौदह विद्यास्थान (चौदह पूर्व) के पारगामी-ज्ञाता होते हैं। ग्यारह अंगरूप श्रुत के धारी अथवा आचारांग मात्र के धारक होते हैं अथवा तात्कालिक स्वसमय-जिनागम और परसमय-परमतों के शास्त्रों के पारगामी होते हैं।
आचार्य के छत्तीस गुण हैं। उनके बारे में अनगारधर्मामृत ग्रंथ में कहा है-
श्लोकार्थ-आचारवत्त्वादि आठ, बारह तप, दश स्थितिकल्प और षट् आवश्यक ये ३६ गुण आचार्य परमेष्ठी के होते हैं।।७६।।
आचारवत्त्वादि आठ गुण, बारह प्रकार का तपश्चरण, दस प्रकार का स्थितिकल्प और छह प्रकार के आवश्यक कर्तव्य ये ८+१२+१०+६·३६ मूलगुण आचार्य के होते हैं।
आचारवत्त्वादि के नाम बताते हैं-
श्लोकार्थ-आचार, आधार, व्यवहार, प्रकारक, आयापायदिव्, उत्पीड़न, अपरिस्रावी और सुखावह ये आचारवत्त्वादिक के आठ नाम हैं।।७७।।
तप और आवश्यक तो ज्ञात ही हैं, अब स्थितिकल्प के भेद बताते हैं-
आचेलक्य, औद्देशिकपिंडवर्जन, शय्याधरपिंडवर्जन, राजकीयपिण्डवर्जन, कृतिकर्म, व्रतारोेपणयोग्यता, ज्येष्ठता, प्रतिक्रमण, मासैकवासिता और वर्षायोग ये दश स्थितिकल्प होते हैं।
अथवा बारह तप, दश धर्म, पाँच आचार, छह आवश्यक और तीन गुप्तियाँ ये १२+१०+५+६+३·३६ गुण भी माने गये हैं तथा वे आचार्य शिष्यों के संग्रह-अनुग्रह-निग्रह में भी कुशल होते हैं।
आचार्यों को नमस्कार हो-
शिष्यों के संग्रह तथा अनुग्रह में कुशल, सूत्रोें (आर्षग्रन्थों) के अर्थ करने में विशारद हैं, जिनकी कीर्ति सब जगह फैल रही है तथा सारण-वारण-शोधन इन सभी क्रियाओं में आचार्य परमेष्ठी सदा उद्यमशील रहते हैं।
यहाँ सारण का मतलब आचरण, वारण-निषेध, शोधन-व्रतों की शुद्धि है। इन सभी क्रियाओं में उद्यमशील सूरिवर्य मुनिवर को आचार्य परमेष्ठी जानना चाहिए।
विशेषार्थ-मूलाचार, अनगार धर्मामृत आदि आचारग्रंथों के आधार से पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी ने ‘दिगम्बरमुनि’’ ग्रंथ में आचार्य के ३६ मूलगुणों का वर्णन किया है, उसी को यहाँ दर्शाया जा रहा है।
जो पाँच प्रकार के आचारों का स्वयं आचरण करते हैं और दूसरे साधुओं से आचरण कराते हैं वे ‘‘आचार्य’’ कहलाते हैं। जो चौदह विद्याओं के पारंगत, ग्यारह अंग के धारी अथवा आचारांगमात्र के धारी हैं अथवा तत्कालीन स्वसमय और परसमय में पारंगत हैं। मेरु के समान निश्चल, पृथ्वी के समान सहनशील, समुद्र के समान दोषों को बारह फैक देने वाले और सात प्रकार के भय से रहित हैं। देश, कुल और जाति से शुद्ध हैं, जो शिष्यों के संग्रह और उन पर अनुग्रह करने में कुशल हैं, सूत्र के अर्थ में विशारद हैं, यशस्वी हैं तथा सारण-आचरण, वारण-निषेध और शोधन-व्रतों की शुद्धि करने वाली क्रियाओं में उद्युक्त (उद्यमशील) हैं, वे ही आचार्य परमेष्ठी कहलाते हैं।’’
संघ के आचार्य स्वयं जब सल्लेखना ग्रहण के सम्मुख होते हैं तब वे अपने योग्य शिष्य को विधिवत् चतुर्विध संघ के समक्ष आचार्यपद देकर नूतन पिच्छिका समर्पित कर देते हैं और ऐसा कहते हैं कि ‘‘आज से प्रायश्चित्त शास्त्र का अध्ययन करके शिष्यों को दीक्षा, प्रायश्चित आदि आचार्य का कार्य तुम्हें करना है।’’ उस समय गुरु उस आचार्य को छत्तीस गुणों के पालन का उपदेश देते हैं।
आचार्य के छत्तीस गुण
आचारवत्त्व आदि ८, १२ तप, १० स्थितिकल्प और ६ आवश्यक ये छत्तीस गुण होते हैं।
आचारवत्त्व आदि ८ गुण-आचारवत्त्व, आधारवत्त्व, व्यवहारपटुता, प्रकारकत्व, आयापायदर्शिता, उत्पीलन, अपरिस्रवण और सुखावहन।
आचारवत्त्व-आचार के पाँच भेद हैं-ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार।
दर्शनाचार-जीवादि पदार्थों का श्रद्धान करना। अथवा सम्यक्त्व को पच्चीस मल दोष रहित-निर्दोष करना यह दर्शनाचार है। दर्शन शुद्धि के आठ भेद हैं-
नि:शंकित-तत्त्वों में शंका नहीं करना।
नि:कांक्षित-उभयलोक संबंधी भोगों की आकांक्षा नहीं करना।
निर्विचिकित्सा-अस्नानव्रत, नग्नता आदि में अरुचि नहीं करना।
अमूढ़दृष्टि-मूढ़ता या मिथ्या परिणामों से रहित होना।
उपगूहन-चतुर्विध संघ के दोषों का आच्छादन करना।
स्थितिकरण-रत्नत्रय से च्युत होने वाले को उपदेशादि द्वारा स्थिर करना।
वात्सल्य-साधर्मियों में अकृत्रिम स्नेह रखना।
प्रभावना-‘‘दान, पूजन, व्याख्यान, वाद, मंत्र, तंत्र आदि से मिथ्यामतों का निरसन कर अर्हंत के शासन को प्रकाशित करना।’’ ‘‘ये नि:शंकित आदि आठ गुण हैं इन्हें दर्शनशुद्धि कहते हैं। इनके विपरीत इतने ही अतिचार हो जाते हैं।
ज्ञानाचार
जिससे आत्मा का यथार्थ स्वरूप जाना जाता है, जिससे मनोव्यापार रोका जाता है और जिससे आत्मा कर्ममल से रहित होती है वही सम्यग्ज्ञान है। उसको आठ भेद सहित पालन करना ज्ञानाचार है। ये भेद ज्ञान की आठ शुद्धिरूप हैं।
कालशुद्धि-स्वाध्याय की बेला में पठन, शास्त्रों का पुन:-पुन: वाचन, व्याख्यान आदि करना कालशुद्धि है।
विनयशुद्धि-मन, वचन, काय की शुद्धिपूर्वक अत्यर्थ विनय से श्रुत का पठन-पाठन करना।
उपधान शुद्धि-कुछ नियम लेकर अर्थात् ‘‘जब तक यह गं्रथ पूरा न हो तब तक मेरा दूध का त्याग है’’ इत्यादि नियम लेकर पढ़ना।
बहुमान शुद्धि-पूजा, सत्कारपूर्वक पठन आदि करना।
अनिह्नव शुद्धि-जिस गुरु से शास्त्र पढ़ा है उसका नाम प्रकाशित करना अथवा जिस ग्रंथ से ज्ञान हुआ है, उसको नहीं छिपाना।
व्यंजन शुद्धि-वर्ण, पद वाक्यों को शुद्ध पढ़ना।
अर्थ शुद्धि-पदों का अनेकांत रूप अर्थ करना।
तदुभय शुद्धि-शब्द और अर्थ को शुद्धिपूर्वक पढ़ना।
इस प्रकार कालादि शुद्धि के भेद से ज्ञानाचार के भी आठ भेद होते हैं।
चारित्राचार
पाप क्रिया से निवृत्ति चारित्र है। उसके पाँच भेद हैं-प्राणिवध, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह इन पाँच पापों का सर्वथा त्याग कर देना ये पाँच चारित्राचार हैं।
‘‘पाँच महाव्रतों की रक्षा के लिए रात्रिभोजन का भी त्याग किया जाता है। इसे छठा अणुव्रत भी कहते हैं। अन्यत्र-साधुओं के प्रतिक्रमण में भी कहा है-‘‘रात्रिभोजन से विरक्त होना छठा अणुव्रत है।’’
अथवा पाँच समिति और तीन गुप्तिरूप आठ प्रकार का चारित्राचार है।
‘‘चंपापुरी, पावापुरी, गिरनार आदि तीर्थयात्रा हेतु, साधुओं के सन्यास निमित्त, देव, धर्म आदि के हेतु अथवा शास्त्रों को सुनने-सुनाने के लिए अथवा प्रतिक्रमण आदि सुनने-सुनाने के लिए अपररात्रिक स्वाध्याय, प्रतिक्रमण और देववंदना करके सूर्योदय हो जाने पर प्रासुकमार्ग में चार हाथ आगे जमीन देखते हुए गमन करना ईर्यासमिति है।’’ क्योंकि साधु किसी भी लौकिक कार्य के लिए या व्यर्थ गमन नहीं करते हैं। ऐसे ही शास्त्रानुकूल बोलना, आहार करना, कुछ वस्तु रखना, उठाना और प्रासुक स्थान में मलमूत्रादि विसर्जन करना ये पाँच समितियाँ हैं।
अशुभ मन, वचन और काय का गोपन करना अर्थात् मन, वचन, काय की अशुभ प्रवृत्ति का त्याग करना गुप्ति है। अथवा स्वाध्याय और ध्यान में तत्पर हुए मुनि के जो मन, वचन, काय का संवरण होता है उसी का नाम गुप्ति है। इसके मन, वचन, काय की अपेक्षा तीन भेद हो जाते हैं।
इन्हें ‘‘अष्टप्रवचनमातृका’’ भी कहते हैं। क्योंकि ये मुनियों के रत्नत्रय की रक्षा करती हैं जैसे कि माता अपने पुत्र की रक्षा करती है।’’
पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्तिरूप तेरह प्रकार का चारित्र भी माना है इनका पालन करना-कराना ही चारित्राचार है।
‘‘पाँच महाव्रतों की रक्षा के लिए रात्रिभोजन निवृत्तिरूप छठा अणुव्रत, आठ प्रवचन मातृकाएँ और पच्चीस भावनाएँ मानी गयी हैं।’’
उसमें से सभी का लक्षण स्पष्ट है। अब पाँच व्रतों की पच्चीस भावनाओं को कहते हैं-
भावना
व्रतों की पूर्णता हेतु या स्थिरता हेतु जो पुन:-पुन: भावित की जाती हैं, पाली जाती हैं वे भावनाएँ हैं। पाँच व्रतों में प्रत्येक की पाँच-पाँच भावनाएँ होने से पच्चीस भावनाएँ हो जाती हैं।
अहिंसा व्रत की ५ भावनाअहिंसा व्रत की ५ भावना-एषणासमिति, आदाननिक्षेपणसमिति, ईर्यासमिति, मनोगुप्ति और आलोकितपानभोजन ये पाँच भावनाएँ हैं। इनको भाने वाला साधु जीवदया का प्रतिपालन करता है अर्थात् प्रथम महाव्रत परिपूर्ण होता है। इसलिए अहिंसा महाव्रत की साधनरूप ये भावनाएँ हैं, ऐसा समझो। इसमें से चार का लक्षण आ चुका है। आलोकितपानभोजन में सूर्य के प्रकाश में चक्षु इन्द्रिय से देखकर आगम के ज्ञानपूर्वक भोजनपान करना चाहिए l
सत्यव्रत की ५ भावनाक्रोध, लोभ, भय और हास्य का त्याग करना तथा अनुवीचि-सूत्र के अनुकूल वचन बोलना ये पाँच भावनाएँ सत्यव्रत की पूर्णता हेतु हैं।
अचौर्य व्रत की ५ भावना किसी वस्तु, पुस्तक आदि को उनसे माँग कर लेना ‘‘याचना’’ है, किसी की वस्तु उनकी अनुमति से ग्रहण करना और परोक्ष में लेने पर उन्हें कह देना ‘‘समनुज्ञापना’’ है, ग्रहण की हुई परवस्तु में आत्मभाव नहीं करना ‘‘अनन्यभाव’’ है, त्यक्त प्रतिसेवा और सहधर्मी साधुओं के उपकरण-पुस्तक, पिच्छी आदि सूत्रानुकूल सेवन करना इस प्रकार यांचा, समनुज्ञापना, अनन्यभाव, त्यक्त प्रतिसेवी और साधर्मी के उपकरण का अनुवीचि सेवन ये पाँच भावनाएँ अचौर्यव्रत को पूर्ण करने वाली हैं।
ब्रह्मचर्यव्रत की ५ भावना -महिलाओं को कामविकार से नहीं देखना, पूर्व में भोगे हुए भोगों का स्मरण नहीं करना, रागभाव के कारणभूत पदार्थों से संसक्त वसतिका में नहीं रहना अथवा असंयमी लोगों के साथ नहीं रहना, शृँगारिक कथा-विकथा आदि नहीं करना, बल और दर्प उत्पन्न करने वाले रसों का सेवन नहीं करना। ये पाँच भावनाएँ ब्रह्मचर्यव्रत को पूर्ण करने वाली हैं।
परिग्रहत्यागव्रत की ५ भावना पंच इन्द्रियों के प्रिय और अप्रिय विषय जो कि शब्द, रस, स्पर्श, रूप और गंध में परिग्रह रहित मुनि रागद्वेष नहीं करते हैं। इसलिए इन पाँच भावनाओं से अपरिग्रहमहाव्रत पूर्ण होता है।
‘‘इन पच्चीस भावनाओं की भावना करने वाला साधु सोता हुआ भी अथवा मूच्र्छा को प्राप्त हुआ भी अपने सभी व्रतों में किंचित् मात्र भी पीड़ा-विराधना को नहीं करता है पुन: सावधान रहते हुए-जागृत रहते हुए की बात ही क्या है ? वह साधु स्वप्न में भी इन भावनाओं को ही देखता है किन्तु व्रतों की विराधना को नहीं देखता है l"
तप आचार-‘‘जो शरीर और इन्द्रियों को तपाता है-दहन करता है, वह तप है।’’ यह कर्मों को दहन करने में समर्थ है। इसके दो भेद है-बाह्य और अभ्यन्तर। इन दोनों के भी छह-छह भेद होने से बारह भेद हो जाते हैं। इन बारह प्रकार के तपों का अनुष्ठान करना तप आचार है।
वीर्याचार-अपने बल और वीर्य को न छिपाकर जो साधु यथोक्त आचरण में अर्थात् प्राणिसंयम-इन्द्रियसंयम के पालन और तपश्चरण में अपने आपको लगाते हैं। कायरता प्रगट न करके हमेशा चारित्र के आचरण में और तप में उत्साहित रहते हैं, यही वीर्याचार है। इन पाँच आचारों का पालन करना-कराना ही आचारवत्त्व है।
२. आधारवत्त्व-जिस श्रुतज्ञानरूपी संपत्ति की कोई तुलना नहीं कर सकता उसको अथवा नौ पूर्व, दशपूर्व या चौदह पूर्व तक के श्रुतज्ञान को अथवा कल्पव्यवहार के धारण करने को आधारवत्त्व कहते हैं।
३. व्यवहारपटुता-व्यवहार नाम प्रायश्चित का है, वह पाँच प्रकार का है। इसकी कुशलता ही व्यवहारपटुता है। जिन्होंने अनेक बार प्रायश्चित्त देते हुए देखा है, स्वयं ग्रहण किया है, दूसरों को दिलवाया है वे ही व्यवहारपटु हैं l
व्यवहार-प्रायश्चित्त के ५ भेद-आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत।
ग्यारह अंग शास्त्रों में प्रायश्चित्त वर्णित है अथवा उनके आधार से जो प्रायश्चित्त दिया जाता है उसको आगम कहते हैं।
चौदहपूर्व में बताये हुए या तदनुसार दिये हुए को श्रुत कहते हैं। कोई आचार्य समाधिमरण के लिए उद्युक्त हैं, उनकी जंघा का बल घट गया-वे दूर तक विहार नहीं कर सकते, वे आचार्य किसी योग्य आचार्य के पास अपने योग्य ज्येष्ठ शिष्य को भेजकर उसके द्वारा ही अपने दोषों की आलोचना कराकर प्रायश्चित्त मंगाकर ग्रहण करते हैं, उसको आज्ञा कहते हैं।
कोई आचार्य उपर्युक्त स्थिति में हैं और उनके पास शिष्यादि भी नहीं हैं तो वे स्वयं अपने दोषों की आलोचना कर पहले के अवधारित (जाने हुए) प्रायश्चित्त को ग्रहण करते हैं वह धारणा प्रायश्चित्त है।
बहत्तर पुरुषों की अपेक्षा जो प्रायश्चित्त बताया गया है, उसको जीत कहते हैं। इनमें निष्णात आचार्य व्यवहारपटु कहलाते हैं।
४. प्रकारकत्व-जो समाधिमरण कराने में या उसकी वैयावृत्य करने में कुशल हैं उन्हें परिचारी अथवा प्रकारी कहते हैं, यह गुण प्रकारकत्व कहलाता है।
५. आयापायदर्शिता-आलोचना करने के लिए उद्यत हुए क्षपक (समाधिमरण करने वाले साधु) के गुण और दोषों के प्रकाशित करने को आयापायदर्शिता अथवा गुणदोषप्रवत्तृता कहते हैं।
'६. उत्पीलन'-कोई साधु या क्षपक यदि दोषों को पूर्णतया नहीं निकालता है तो उसके दोषों को युक्ति और बल से बाहर निकाल देना उत्पीलन गुण है।
७. अपरिस्रवण-शिष्य के गोप्य दोष को सुनकर जो प्रकट नहीं करते हैं उनके अपरिस्रवण गुण होता है।
'८. सुखावहन'क्षुधादि से पीड़ित साधु को उत्तम कथा आदि के द्वारा शांत करके सुखी करते हैं वे सुखावह गुण के धारी हैं।
इस प्रकार इन आठ गुण के धारी आचार्य आचारी, आधारी, व्यवहारी, प्रकारक, आयापायदिक्, उत्पीडक, अपरिस्रावी और सुखावह होते हैं l
स्थितिकल्प के दस भेद
आचेलक्य, औद्देशिकपिंडत्याग, शैयाधरपिंडत्याग, राजकीयपिंडत्याग, कृतिकर्म, व्रतारोपण योग्यता, ज्येष्ठता, प्रतिक्रमण, मासैकवासिता और योग इस प्रकार स्थितिकल्पगुण दश हैं।
१. आचेलक्य-वस्त्रादि संपूर्ण परिग्रह के अभाव को अथवा नग्नता को आचेलक्य कहते हैं। नग्न दिगम्बर साधु लंगोटीमात्र को भी नहीं रखते हैं चूँकि उसे धोना, सुखाना, संभालना, फटने पर याचना करना आदि अनेक आकुलताएँ होती हैं, जिससे ध्यान-अध्ययन की पूर्णतया सिद्धि असंभव है तथा तीर्थंकरों के आचरण का अनुसरण भी नग्नता से ही होता है।
२. औद्देशिकपिंड त्याग-जो मुनियों के उद्देश्य से तैयार किया गया है, ऐसे भोजन, पान आदि द्रव्य को ग्रहण नहीं करना औद्देशिक पिंड-आहार का त्याग गुण होता है।
३. शैयाधरपिंड त्याग-वसतिका बनवाने वाला, उसका संस्कार करने वाला और वहाँ पर व्यवस्था आदि करने वाला ये तीनों ही शैयाधर शब्द से कहे जाते हैं। इनके आहार, उपकरण आदि न लेने को शैयाधर पिंड त्याग कहते हैं। अभिप्राय यह है कि किसी ने वसतिका दान किया, साधु वहाँ ठहरे पुन: ‘‘यदि मैं आहार नहीं दूँगा तो लोग क्या कहेंगे कि इसने साधु को ठहरा तो लिया किन्तु उन्हें आहार नहीं दिया’’ इत्यादि भावना से संक्लिष्ट परिणाम करके आहार देने से दोषास्पद है। यदि कोई गृहस्थ मान कषाय या भय, संकोच आदि रहित होकर मात्र पात्रदान की भावना से वसतिका दान देकर आहारदान भी देता है, तो उसमें कोई दोष नहीं है।
कोई आचार्य इसको शैयागृहपिंड त्याग कहकर इसका ऐसा अर्थ करते हैं कि विहार करते हुए मार्ग में रात्रि को जिस गृह या वसति में ठहरें या शयन आदि करें वहाँ दूसरे दिन आहार नहीं लेना। अथवा वसतिका संबंधी द्रव्य के निमित्त से जो भोजन तैयार किया गया हो, उसको नहीं लेना यह ‘शैयागृहपिंडोज्झा’ गुण है।
४. राजकीय पिंड त्याग-इक्ष्वाकु कुल आदि में जन्में अथवा अन्य राजाओं के यहाँ आहार नहीं लेना राजकीयपिंडत्याग गुण है। अभिप्राय यह है कि ऐसे घरों में भयंकर कुत्ते आदि जन्तु अपघात कर सकते हैं या पशु-गाय, भैंस आदि या गर्विष्ठ नौकर-चाकर आदि अपमान कर सकते हैं इत्यादि बाधक कारणों के प्रसंग से राजाओं के यहाँ का आहार नहीं लेना चाहिए। उपर्युक्त दोषों से रहित यदि होवे तो लेने में कोई दोष नहीं है। भरतसम्राट आदि महाराजाओं के यहाँ तो आहार होते ही थे l
५. कृतिकर्म-विधिवत् आवश्यकों का पालन करना अथवा गुरुजनों का विनयकर्म करना कृतिकर्म है।
६. व्रतारोपणयोग्यता-शिष्यों में व्रतों के आरोपण करने की योग्यता होना यह छठा गुण है।
७. ज्येष्ठता-जो जाति, कुल, वैभव, प्रताप और कीर्ति की अपेक्षा गृहस्थों में महान् रहे हैं, जो ज्ञान और चर्या आदि में उपाध्याय और आर्यिका आदि से भी महान हैं, क्रियाकर्म के अनुष्ठान में भी श्रेष्ठ हैं उनके यह सातवाँ गुण होता है।
८. प्रतिक्रमण-प्रतिक्रमण के नाना भेदों को समझने वाले और विधिवत् करने-कराने वाले आचार्य इस गुण के धारी होते हैं।
९. मासैकवासिता-जिनके तीस दिन-रात्रि तक एक ही स्थान में या ग्राम में रहने का व्रत हो उनके यह मासैकवासिता गुण होता हैै। चूँकि अधिक दिन एक जगह रहने से उद्गम आदि, क्षेत्र में ममता, गौरव में कमी, आलस, शरीर में सुकुमारता, भावना का अभाव, ज्ञातभिक्षा का ग्रहण आदि दोष होने लगते हैं।
मूलाराधना में इसका ऐसा अर्थ किया है कि ‘‘चातुर्मास के एक महीने पहले और पीछे उसी ग्राम में रहना।’’
१०. योग-वर्षाकाल में चार महीने एक जगह रहना। चूँकि वृष्टि के निमित्त से त्रस-स्थावर जीवों की बहुलता हो जाती है, इससे विहार में असंयम होगा, वृष्टि से ठंडी हवा चलने से आत्मविराधना-शरीर में कष्ट, व्याधि, मरण आदि आ जावेंगे। जल, कीचड़ आदि के निमित्त से गिर जाना आदि संभव है। इत्यादि कारणों से चातुर्मास में एक सौ बीस दिन तक एक ग्राम में रहना यह उत्सर्ग (उत्कृष्ट) मार्ग है। अपवाद मार्ग की अपेक्षा विशेष कारण उपस्थित होने पर अधिक अथवा कम दिन भी निवास किया जा सकता है। अधिक में आषाढ़ शुक्ला दशमी से कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा के ऊपर तीस दिन तक निवास किया जा सकता है। अत्यधिक जलवृष्टि, श्रुत का विशेष लाभ, शक्ति का अभाव और किसी की वैयावृत्ति आदि के विशेष प्रसंग आ जाने पर, इन प्रयोजनों के उद्देश्य से एक स्थान में अधिक दिन निवास किया जा सकता है। यह उत्कृष्ट काल का प्रमाण है।
इस प्रकार से आचार्य के ये स्थितिकल्प नाम के दश गुण बताये हैं l
आवश्यक के छह भेद
जो अवश-जितेन्द्रिय मुनि का कर्तव्य है वह आवश्यक कहलाता है। उसके छह भेद हैं-समता, स्तुति, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग।
समता-‘‘जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, सुख-दुख आदि में हर्ष विषाद नहीं करना, समान भाव रखना समता है। इसे ही सामायिक कहते हैं। त्रिकाल में देववंदना करना यह भी सामायिकव्रत है।’’ प्रात:, मध्यान्ह और सायंकाल में विधिवत् कम से कम एक मुहूर्त-४८ मिनट तक सामायिक करना होता है।
स्तुति-वृषभ आदि चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति करना स्तव नाम का आवश्यक है।
वंदना-अर्हंतों को, सिद्धों को, उनकी प्रतिमाओं को, जिनवाणी को और गुरुओं को कृतिकर्मपूर्वक नमस्कार करना वंदना है।
प्रतिक्रमण-अहिंसादि व्रतों में जो अतीचार आदि दोष उत्पन्न होते हैं, उनका निंदा-गर्हापूर्वक शोधन करना-दूर करना प्रतिक्रमण है। इसके ऐर्यापथिक, दैवसिक आदि सात भेद हैं।
प्रत्याख्यान-मन, वचन, काय से भविष्य के दोषों का त्याग करना प्रत्याख्यान है। आहार ग्रहण के अनंतर गुरु के पास अगले दिन आहार ग्रहण करने तक के लिए जो चतुराहार का त्याग किया जाता है, वह प्रत्याख्यान कहलाता है l
‘‘अतीतकाल के दोष का निराकरण करना प्रतिक्रमण है। अनागत और वर्तमानकाल में द्रव्यादि दोष का परिहार करना प्रत्याख्यान है। यही इन दोनों में अंतर है। तप के लिए निर्दोष वस्तु का त्याग करना भी प्रत्याख्यान है। किन्तु प्रतिक्रमण दोषों के निराकरण हेतु ही है।’’
कायोत्सर्ग-दैवसिक, रात्रिक आदि क्रियाओं में पच्चीस या सत्ताईस उच्छ्वास प्रमाण से तथा चौवन, एक सौ आठ आदि श्वासोच्छ्वासपूर्वक णमोकार मंत्र का स्मरण करना। काय-शरीर का उत्सर्ग-त्याग अर्थात् काय से ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग है।
इस प्रकार आचारवत्त्वादि ८+तपश्चरण १२+ स्थितिकल्प १०+और आवश्यक ६·३६ गुणों को पालन करने वाले आचार्य परमेष्ठी होते हैं।
अन्यत्र अन्य प्रकार से भी बताये हैं। यथा-‘‘१२ तप, १० धर्म, ५ आचार, ६ आवश्यक और तीन गुप्ति ये आचार्य के ३६ गुण होते हैं।’’ १२ तप आदि का वर्णन किया जा चुका है।
दशधर्म का वर्णन-
उत्तमक्षमा-आहार के लिए अथवा विहार के लिए साधु भ्रमण करते हैं, उस समय कोई दुष्टजन अपशब्द, उपहास अथवा तिरस्कार कर देते हैं या मारपीट देते हैं तो भी मन में कलुषता का न होना उत्तम क्षमा है।
उत्तम मार्दव-जाति, कुल, विद्या आदि का घमंड नहीं करना उत्तम मार्दव है।
उत्तम आर्जव-मन, वचन और काय को सरल रखना आर्जव है।
उत्तम शौच-प्रकर्ष प्राप्त लोभ का त्याग करना उत्तम शौच है।
उत्तम सत्य-अच्छे पुरुषों के साथ साधु वचन बोलना।
उत्तम संयम-प्राणियों की हिंसा और इन्द्रियों के विषयों का परिहार करना।
उत्तम तप-कर्मक्षय हेतु बारह प्रकार का तपश्चरण करना।
उत्तम त्याग-संयत के योग्य ज्ञान आदि का दान करना।
उत्तम आकिंचन्य-जो शरीर आदि हैं उनमें भी संस्कार को दूर करने के लिए ‘‘यह मेरा है’’ इस प्रकार के अभिप्राय का त्याग करना।
उत्तम ब्रह्मचर्य-स्त्रीमात्र का त्याग करना ‘‘अथवा स्वतंत्रवृत्ति का त्याग करने के लिए गुरुकुल में निवास करना ब्रह्मचर्य है।’’
ख्याति, पूजा आदि की अपेक्षा बिना आत्मविशुद्धि हेतु इन धर्मों को पालने के लिए ही इनमें उत्तम विशेषण लगाया गया है। यहाँ तक आचार्य के ३६ गुणों का वर्णन दो प्रकार से हो चुका है।