जिनगुण सम्पत्ति समुच्चय-पूजन
गीताछंद
जिन गुण महा संपत्ति के, स्वामी जिनेश्वर को नमूं।
त्रिभुवन गुरु श्रीसिद्ध को, वन्दन करत भवविष वमूं।।
त्रय काल के तीर्थंकरों की, मैं करूं आराधना।
निज आत्म गुण सम्पत्ति की, इस विश्व करूं मैं साधना।।1।।
जिन गुणअतुल सम्पत्ति का, व्रत जो भविक विधिवत् करें।
व्रत पूर्णकर उद्योत हेतु, नाथ गुण अर्चन करें।
मंगल महोत्सव वाद्य से, जिन यज्ञ उत्सव विधि करें।
संगीत नर्तन भक्ति वर्धन, पुण्य अर्जन, विधि करें।।2।।
ऊँ ह्रीं जिन यज्ञ प्रतिज्ञापनाय दिव्य पुष्पांजलि क्षिपेत।
दोहा
चौबीसों जिन राज को, निजप्रति करूं प्रणाम।
व्रत उद्योतन अर्चना, करूं आज इत ठाम।।3।।
स्थापना-(अडिल्लछंद)
महावीर अति वीर, महति जिन वीर हैं।
वर्धमान श्री सन्मति, गुण गंभीर हैं।।
गुण मणि भर्ता, तीर्थंकर को नित नमूं।
जिन गुण संपति अर्चाकर, नहिंभव भ्रमूं।।
ऊँ ह्री जिनगुण सम्पत्ति समूह - अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ऊँ ह्री जिनगुण सम्पत्ति समूह - अत्र तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।
ऊँ ह्री जिनगुण सम्पत्ति समूह - अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथाष्टक-नरेन्द्रछंद
भागी रथी नदी के शीतल, जल से झारी भरिये।।
श्री जिन वर के पाद युगल में, धारा कर दुःख हरिये।।
जिनगुण सम्पति व्रत उद्योतन, हेतु जजूं गुण संपद।
परमा नंद परम सुख सागर, पाऊं जिन गुण संपद।।1।।
ऊँ ह्री सकलजिगुणसंपदे जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलं-
कंचन द्रव सम कुंकम चंदन, भवआतप हर लीजे।
श्री जिन वर के पाद युगल में, अर्चन कर सुख लीजे।।
जिन गुण सम्पति व्रत उद्योतन, हेतु जजूं गुण संपद।
परमा नंद परम सुख सागर, पाऊं जिनगुण संपद।।2।।
ऊँ ह्री सकलजिगुण संपदे संसार ताप विनाशनाय चन्दनं।
मुक्त फल सम उज्ज्वल अक्ष्ज्ञत, सुरीिात थाल भराऊं।
श्री जिन वर के सन्मुख सुन्दर, सुख प्रद पुन्ज रचाऊं।।
जिन गुण सम्पति व्रत उद्योतन, हेतु जजूं गुण संपद।
परमानंद परम सुख सागर, पाऊं जिन गुण संपद।।3।।
ऊँ ह्री सकल जिगुण संपदे अक्षय प्रद प्राप्तये अक्षतं।
कमल मालती पारि जात, अरु चंपक पुष्प मंगाऊं।
भव विजयी जिनवर पद पंकज, पूजत काम नशाऊं।
जिन गुण सम्पति व्रत उद्योतन, हेतु जजूं गुण संपद।
परमानंद परम सुख सागर, पाऊं जिन गुण संपद।।4।।
ऊँ ह्री सकलजिगुणसंपदे कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं-
लड्डू पेड़ा मिष्ट अंदरसा, फेनी गुझिया लाऊं।
क्षुधा रोगहर सर्व शक्तिधर, सन्मुख चरू चढ़ाऊं।।
जिनगुण सम्पति व्रत उद्योतन, हेतु जजूं गुण संपद।
परमानंद परमसुख सागर, पाऊं जिनगुण संपद।।5।।
ऊँ ह्री सकलजिगुणसंपदे क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्यं-
मणिमय दीपक गो घुत से भृत, जगमग ज्योति जले है।
लोकालोक प्रकाशी जिनवर पूजत मोह टले है।।
जिनगुण सम्पति व्रत उद्योतन, हेतु जजूं गुण संपद।
परमानंद परमसुख सागर, पाऊं जिनगुण संपद।।6।।
ऊँ ह्री सकलजिगुणसंपदे मोहांधकार विनाशनाय दीपं
सुरभित धूप धूपघट में नित, खेवत कर्म जले हैं।
आत्म गुणों की सौरभ दशदिश, फैले अयश टले हैं।।
जिनगुण सम्पति व्रत उद्योतन, हेतु जजूं गुण संपद।
परमानंद परमसुख सागर, पाऊं जिनगुण संपद।।7।।
ऊँ ह्री सकलजिगुणसंपदे अष्टकर्म दहनाय धूपं-
एला केला सेवा संतरा, पिस्ता द्राक्ष मंगाऊं।
अमृतफल के हेतु आपके, सन्मुख आन चढ़ाऊं।।
जिनगुण सम्पति व्रत उद्योतन, हेतु जजूं गुण संपद।
परमानंद परमसुख सागर, पाऊं जिनगुण संपद।।8।।
ऊँ ह्री सकलजिगुणसंपदे मोक्षफल प्राप्ताय फलं-
जल गंधाक्षत पुष्प सुनेवज, दीप धूप फल लाऊं।
रत्नत्रय निधि हेतु आपके सन्मुख अर्घ्य चढ़ाऊं।।
जिनगुण सम्पति व्रत उद्योतन, हेतु जजूं गुण संपद।
परमानंद परमसुख सागर, पाऊं जिनगुण संपद।।4।।
ऊँ ह्री सकलजिगुणसंपदे अनर्घ्यपद प्राप्ताय अर्घ्य-
दोहा
सकल जगत में शांतिकर, शांति धार सुखकार।
जिनपद में धारा करूं, सकल संघ हितकार।।10।।
शांतये शांतिधारा
सुरतरु के सुरभित सुमन सुमनस चित्त हरंत।
पुष्पांजलि अर्पण करत मिटता द1ःख तुरंत।। दिव्य पुष्पांजलिः।
ऊँ ह्री सकलजिगुण संपद्भ्यो नमः। (108 या 9 बार जाप)
जयमाला
दोहा-
चिन्मयज्योतिस्वरूप जिन, परमानंद निधान।
तिन गुण मणिमाला कहूं, निजसुखसुधासमान।।1।।
स्रग्विणीछंद
जै तुम्हारे गुणों को सदा गावना।
फेर संसार में ना कभी आवना।।
जै गुणाधार गुण रत्न भंडार हो।
जै महापंच1 संसार से पार हो।।1।।
श्रेष्ठ दश्रनविशुद्धयादि जो भावना।
जो धरें सोलहों तीर्थपद पावना।।
वो कल विश्व में धर्म नेता बने।
धर्मचक्राधिपति2 सर्ववेत्ता बने।।2।।
पंचकल्याण भर्ता जगत वंद्य हों।
जन्म से ही उन्हहें दश चमत्कार हों।।
केवलज्ञान लक्ष्मी के भरतार हों।।3।।
पूण्र संज्ञान के दश सुअतिशय कहे।
देवकृत चौदहों अतिशयों को लहें।।
नाथ चौंतीस अतिशय महागुण भरें।
मुख्य त्रेसठ गुणों से महा सुख धरें।।4।।
मैं करूं भक्ति से नित्य आराधना।
हो मुझे आत्म संपत्ति की साधना।
फेर ना हो जनम मृत्यु का धारना।
ज्ञानमति पूर्ण कैवल्यमय पारना।।5।।
घत्ता
जय जय श्रीजिनवर, करम भरमहर, जय शिवसुंदरि के भर्ता।
मैं पूजूं ध्याऊं, तुम गुण गाऊं, जिनपद पाऊं दुख हर्ता।।6।।
ऊँ ह्री सकलजिगुण संपद्भ्यो जयमालाअर्घ्य-
गीताछंद
जो भव्य श्रद्धा भक्ति से, जिनगुण सुसंपति व्रत करें।
व्रत पूर्णकर प्रद्योत हेतु, यज्ञ उत्सव विधि करें।।
वे विश्व में संपूर्ण सुखकर, इंद्र चक्रीपद धरें।
फिर ‘ज्ञानमति‘ से पूर्ण गुणमय तूर्ण1 शिवलक्ष्मी वरें।।1।।
जयमाला
दोहा-
चिन्मयज्योतिस्वरूप जिन, परमानंद निधान।
तिन गुण मणिमाला कहूं, निजसुखसुधासमान।।1।।
स्रग्विणीछंद
जै तुम्हारे गुणों को सदा गावना।
फेर संसार में ना कभी आवना।।
जै गुणाधार गुण रत्न भंडार हो।
जै महापंच1 संसार से पार हो।।1।।
श्रेष्ठ दर्शनविशुद्धयादि जो भावना।
जो धरें सोलहों तीर्थपद पावना।।
वो सकल विश्व में धर्म नेता बने।।2।।
पंचकल्याण भर्ता जगत वंद्य हों।
प्रातिहार्यों सुआठों से अभिनंद्य हों।।
जन्म से ही उन्हें दश चमत्कार हों।।
केवलज्ञान लक्ष्मी के भरतार हों।।3।।
पूर्ण संज्ञान के दश सुअतिशय कहे।
देवकृत चौदहों अतिशयों को लहें।।
नाथ चौंतीस अतिशय महागुण भरें।
मुख्य त्रेसठ गुणों से महा सुख धरें।।4।।
मैं करूं भक्ति से नित्य आराधना।
हो मुझे आत्म संपत्ति की साधना।।
फेर ना हो जनम मृत्यु की धारना।
ज्ञानमति पूर्ण कैवल्यमय पारना।।5।।
घत्ता
जय जय श्रीजिनवर, करम भरमहर, जय शिवसुंदरि के भर्ता।
मैं पूजूं ध्याऊं, निजपद पाऊं दुख हर्ता।।6।।
ऊँ ह्री सकलजिगुण संपद्भ्यो जयमालाअर्घ्यं -
गीताछंद
जो भव्य श्रद्धा भक्ति से, जिनगुण सुसंपति व्रत करें।
व्रत पूर्णकर प्रद्योत हेतू, यज्ञ उत्सव विधि करें।।
वे विश्व में संपूर्ण सुखकर, इंद्र चक्रीपद धरें।
फिर ‘ज्ञानमति‘ से पूर्ण गुणमय तूर्ण1 शिवलक्ष्मी वरें।।1।।