श्रीधर्मनाथ जिनपूजा

(गीता छन्द)

जिन धर्मध्वज को धारते श्री धर्मजिन धर्मात्मा।

उन धर्मप्रहरी की शरण आये सभी धर्मात्मा।।

जिनधर्मनेता धर्मदाता धर्मनाथ महान हैं।

पुष्पांजलि ले भक्ति से उनका यहाँ आह्नान है।।

ओं ह्रीं श्री धर्मनाथ जिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्नाननम्।

ओं ह्रीं श्री धर्मनाथ जिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्।

ओं ह्रीं श्री धर्मनाथ जिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्।

चामर छन्द

पत्र पुष्प से सजे, मनोज्ञ नीर कुम्भ ले।

तीन धार दे त्रिरोग कर्म दम्भ को दले।।

धर्मनाथ-धर्मनाथ, झूम-झूम गाइये।

ले मृदंग-ढोल-झाँझ भक्ति से बजाइये।।

ओं ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशय जलं नि. स्वाहा।

लोकवंद्य श्री जिनन्द को सुगन्ध से भजें।

पाप-ताप नाश सर्व द्वन्द-फन्द से बचें।। धर्मनाथ.

ओं ह्रीं श्री धर्मनाथ जिनेन्द्राय भवतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।

श्वेत रत्न शालिपुंज मुट्ठि में भरे।

आपको चढ़ा अखण्ड दिव्य सौख्य को वरें। धर्मनाथ.

ओं ह्रीं श्री धर्मनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।

काम हो गया अकाम देख आप रूप को।

ù वा गुलाब से भजें त्रिलोक भूप को।। धर्मनाथ.

ओं ह्रीं श्री धर्मनाथ जिनेन्द्राय कामबाणविध्वशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।

पूरियाँ कचोरियाँ मिठाइ थाल में भरे।

आप पाद पूज भक्त भूख-प्यास को हरे।। धर्मनाथ.

ओं ह्रीं श्री धर्मनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।

दीप से करें जिनेश की विशाल आरती।

मोह नाश हो मिले महान ज्ञान भारती।। धर्मनाथ.

ओं ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।

धूप अग्नि में खिरा, जपूँ जिनेश नाम को।

कर्मशत्रु नाश हेतु, आपको प्रणाम हो।। धर्मनाथ.

ओं ह्रीं श्री धर्मनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि. स्वाहा।

थाल पे अनेक थाल, दाड़िमादि से भरें।

आपको समर्प नाथ, सिद्ध लोक को वरें। धर्मनाथ.

ओं ह्रीं श्री धर्मनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं नि. स्वाहा।

अष्टद्रव्य से भरी, सुवर्ण थालियाँ सजा।

आपको चढ़ा रहे, मृदंग तालियाँ बजा।।

धर्मनाथ-धर्मनाथ, झूम-झूम गाइये।

ले मृदंग-ढोल-झाँझ भक्ति से बजाइये।।

ओं ह्रीं श्री धर्मनाथ जिनेन्द्राय अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।

पंचकल्याणक

चैपाई छन्द

पंचकल्याण मनायें हम धर्मनाथ के पंचकल्याण मनायें...2

सुदी वैशाखी अष्टमी आये, धर्मनाथ प्रभु गर्भ में आये।

धन्य जनक-जननी कहलाये, सुर-नर गर्भकल्याण मनायें।।

हम भी गर्भकल्याण मनाकर, मंगल अर्घ चढ़ायें। हम धर्मनाथ..

ओं ह्री ंवैशाखशुक्लाअष्टम्यां गर्भकल्याणकप्राप्ताय श्रीधर्मनाथ-जिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।

धर्मनाथ का जन्म हुआ था, वो क्षण खुशियों में अगुआ था।

सुर प्रभु को मेरु पर लाये, कर अभिषेक सभी हर्षाये।।

हम भी जन्मकल्याण मनाकर, मंगल अर्घ चढ़ायें।। हम धर्मनाथ...

ओं ह्री माघशुक्लात्रयोदश्यां जन्मकल्याणकप्राप्ताय श्रीधर्मनाथ-जिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।

जग सुख जब क्षणभुगुर जाना, प्रभु ने धरा दिगम्बर बाना।

माघ शुक्ल तेरस तिथि आई, प्रभु ने चैसठ ऋद्धि पाई।।

हम भी तपकल्याण मनायें, मंगल अर्घ चढ़ाये।। हम धर्मनाथ...

ओं ह्रीं माघशुक्लात्रयोदश्यां तपकल्याणकप्राप्ताय श्री धर्मनाथ-जिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।

त्रेसठ कर्म प्रकृति विनशाये, दोष अठारह पर जय पाये।

पौष शुक्ल पूनम जब आये धर्मनाथ जिनधर्म बताये।।

हम भी ज्ञानकल्याण मनायें, मंगल अर्घ चढ़ायें। हम धर्मनाथ...

ओं ह्रीं पौषशुक्लापूर्णिमायां ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय श्रीधर्मनाथ-जिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।

प्रभु सम्मेदशिखर पर आये, योग निरोध कर्म विनशायें।

जेठ शुक्ल की चैथ निराली, लाये हम लाडू की थाली।।

हम मोक्षकल्याण मनायें, मंगल अर्घ चढ़ायें।। हम धर्मनाथ...

ओं ह्रीं ज्येश्ठ शुक्लाचतुथ्र्यां मो।क्षकल्याणकप्राप्ताय श्रीधर्मनाथ जिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।

दोहा

धर्मनाथ भगवान हैं, धर्मतीर्थ आधार।

त्रयधारा जल की करूँ, पुष्पांजलि सुखकार।।

शांतये शांतिधारा...दिव्य पुंष्पाजलिं क्षिपेत्।

जाप मंत्र (पुष्प से 8, 27 या 108 बार निम्न दो मंत्रों में से किसी एक मंत्र का जाप करें)

1.        ओं ह्रीं सरस्वती, लक्ष्मी, सर्वाण्यहक्ष, सनत्कुमारयक्ष, अष्टप्रातिहार्य, अष्टमंगलद्रव्य, किंपुरूषयक्ष, मानसीयक्षी, पंचदशतिथिदेवता, नवग्रहदेवता, पंचक्षेत्रपालादि सचित्ताचित्तमिश्र परिकरसहिताय शतेन्द्र पूजिताय श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय नमः मम ऋद्धिं वृद्धिं सौख्य कुरु कुरु स्वाहा।

2.        ओं ह्रीं किंपुरूषयक्ष, मानसीयक्षी आदि सचित्त अचित्त मिश्र परिकरसहिताय श्री धर्मनाथ जिनेन्द्राय नमः मम ऋद्धिं वृद्धिं सौख्यं कुरु कुरु स्वाहा।

जयमाला

दोहा

धर्मनाथ दशधर्म धर, बनें धर्म आधार।

जयमाला जिनधर्म की, करे धर्म विस्तार।

शंभु छन्द

श्री धर्मनाथ की धर्मसभा, दशधर्म सार बतलाती है।

जिनधर्मप्रभु की धर्मध्वजा, सारा अधर्म विनशाती है।।

हे भानुराज के कुल भानु, हे मात सुप्रमा के नन्दन।

हे रत्नपुरी के भूप श्रेष्ठ, शत इन्द्र करें तुमको वन्दन।।

प्रभु धर्म-शुक्ल दो ध्यान धार, धन घाति कर्म का नाश किया।

निजवाणी से जिनवाणी का, प्रभु तमने दिव्य विकास किया।।

जिसमें प्रभु तुमने श्रमण धर्म, वा श्रावक धर्म बताया है।।

श्रावक के कर्म विनाशन हित, षट् आवश्यक समझाया है।।

जिनपूजा वा शुभ पात्रदान, आवश्यक प्रमुख बताये हैं।

अभिषेक सहित जिनपूजा के, छः अंग श्रेष्ठ समझाये हैं।।

जल-फल-इक्षुरस-दूध-दही, घृत-चन्दन-सवौंषधि द्वारा।

जिन प्रतिमा का अभिषेक करो, पाओगे निश्चय शिव द्वारा।।

पावन अभिषेक महाविधि का, श्री जिनवाणी उल्लेख करे।

जो जल से जिन अभिषेक करे, वो निज का सुकृतकोष भरे।।

जो आम्र-द्राक्ष-इक्षु-दाड़िम, आदिक फल-रस से न्हवन करें।।

फल रस पूजा के प्रतिफल में, वह भव्य मोक्षफल चयन करें।

जो कांतिमान घृत की धारा, जिन प्रतिमाओं पर करते हैं।

वो जग के सारे सुख पाकर, कैवल्यज्ञान को वरते हैं।।

जो दूध-दही के कलशों से, प्रभु का मंगल अभिषेक करे।

वो स्वर्गों में सुरपद पाये, सुरगण उसका अभिषेक करें।

सुरभित प्रासुक सर्वौषधि ले, जो मन्त्र नाद कर धार करे।

वो उत्तम सुन्दर तन पाकर, सब रोगों का परिहार करे।।

तीर्थोंदक ले चतु कलशों में, जिन प्रतिमा पर जो धार करे।

वो चार गति का भ्रमण मिटा, चउदिश में धर्म प्रचार करे।।

जिन प्रतिमा पर कर्पूर मिला, चन्दन लेपन जो भव्य करे।

भवताप मिटाने के पहले, चन्दन सम सुरभित देह वरे।।

लेकर षट्ऋतु के विविध पुष्प, निज हस्त पुष्प में खिले-खिले।।

जो बरसाये प्रभु पर उसको, पुष्पक विमान सा यान मिले।।

जो पुष्प-दधि-फल-अक्षत संग, दीपक से आरती करते हैं।

वो रति आरत को दूर भगा, श्रुत प्रज्ञा ज्योत वरते हैं।।

जल में बहु सुरभित द्रव्य मिला, जो गन्धोदक की धार करे।

वो महापुण्य वैभव पाये, निज पर सबका उद्धार करे।।

फिर महाशान्ति मन्त्राभिशेक, करते जो प्रभु पर मनहारी।

इस आगम सम्मत पूजा से, बनते वो शिव सुख अधिकारी।।

इत्यादि देशना दे प्रभु ने, प्रभु धर्म तुम्हारा अपनाया।।

हे नाथ! आपके दर्शन को, यह नैन मीन सम मचल रहे।

यह धर्मराजश्री तपोभूमि, नित आर्षमार्ग पर अटल रहे।।

हे नाथ! आपका धर्म सुयश, हो दुर्लभ सदा हर प्राणी को।

वर गुप्तित्रय गुप्तिनन्दिपा जाये मुक्ति रानी को।।

ओं ह्रीं श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णाघ्र्य नि. स्वाहा।

दोहा

धर्मनाथ का धर्म ही सब धर्मो में सार।

गुप्तिपा इस धर्म को, करे भवार्णव पार।।

।। इत्याशीर्वादः - शांतये त्रय शांतिधारा - परिपुष्पांजलिं क्षिपेत्।।

किंपुरूष यक्ष का अर्घ

धर्मनाथ के शासन रक्षक, किंपुरूष आह्नानन है।

आओ तिष्ठो पास हमारे, करते यही निवेदन है।।

स्वीकारो स्वीकारो मेरा अर्घ देव तुम स्वीकारो।

जिनवर के मुझ श्रद्धानी को ले अपने संग में तारो।।

ओं आं क्रौं ह्रीं किंपुरूष यक्ष देवतेभ्यो जलादि अघ्र्य समर्पयामीति स्वाहा।

मानसी यक्षी का अर्थ

धर्मनाथ की शासन यक्षी मानसी को आह्नानन है।

आओ तिष्ठो पास हमारे, करते यही निवेदन है।

स्वीकारो स्वीकारो मेरा अर्घ देव तुम स्वीकारो।

जिनवर के मुझ श्रद्धानी को ले अपने संग में तारो।।

ओं आं क्रौं ह्रीं मानसीयक्षिदेव्यै जलादि अघ्र्य समर्पयामीति स्वाहा।

क्षेत्रपाजी का अर्घ

धर्मनाथ के क्षेपालजी सुनो सुनो आह्नानन है।

आओ तिष्ठो पास हमारे, करते यही निवेदन है।

स्वीकारो स्वीकारो मेरा अर्घ देव तुम स्वीकारो।

जिनवर के मुझ श्रद्धानी को ले अपने संग में तारो।।

ओं आं क्रौं ह्रीं अत्रस्थ धर्मनाथ जिनस्य क्षेत्रपाल, भूमिपाल आदि सचित्त अचित्त मिश्र देवतेभ्यो समर्पयामीति स्वाहा।

।। इति।।