भक्तामर स्तोत्र : हिन्दी - क्षु. श्री ध्यानसागरजी महाराज
भक्तामर स्तोत्र
(क्षु. श्री ध्यानसागरजी महाराज)
(तर्ज- भक्तअमर नत-मुकुट सुमणियों की....)
भक्त-सुरों के नत मुकुटों की, मणि-किरणों का किया विकास,
अतिशय विस्तृत पाप-तिमिर का किया जिन्होंने पूर्ण विनाश।
युगारंभ में भव-सागर में डूब रहे जन के आधार,
श्री-जिन के उन श्री-चरणों में वंदन करके भली प्रकार॥ 1॥
सकल-शास्त्र का मर्म समझ कर सुरपति हुए निपुण मतिमान्,
गुण-नायक के गुण-गायक हो, किया जिन्होंने प्रभु-गुण-गान।
त्रि-जग-मनोहर थीं वे स्तुतियाँ, थीं वे उत्तम भक्ति-प्रधान,
अब मैं भी करने वाला हूँ, उन्हीं प्रथम-जिन का गुण-गान॥ 2॥
ओ सुर-पूजित-चरण-पीठ-धर प्रभुवर! मैं हूँ बुद्धि-विहीन,
स्तुति करने चल पड़ा आपकी हूँ निर्लज्ज न तनिक प्रवीण।
जल में प्रतिबिम्बित चन्दा को बालक सचमुच चन्दा जान,
सहसा हाथ बढ़ाता आगे, ना दूजा कोई मतिमान्॥ 3॥
हे गुणसागर!शशि-सम सुन्दर तव शुचि गुण-गण का गुण-गान,
कोई कर न सके चाहे वह सुर-गुरु सा भी हो मतिमान्।
प्रलय-पवन से जहाँ कुपित हो घडिय़ालों का झुंड महान्,
उस सागर को कैसे कोई भुज-बल से तैरे बलवान्॥ 4॥
तो भी स्वामी! वह मैं हूँ जो तव स्तुति करने को तैयार,
मुझ में कोई शक्ति नहीं पर भक्ति-भाव का है संचार।
निज-बल को जाँचे बिन हिरणी निज शिशु की रक्षा के काज,
प्रबल स्नेह-वश डट जाती है आगे चाहे हो मृगराज॥ 5॥
मन्द-बुद्धि हूँ, विद्वानों का हास्य-पात्र भी हूँ मैं नाथ!
तो भी केवल भक्ति आपकी मुखर कर रही मुझे बलात्।
ऋतु वसंत में कोकिल कूके मधुर-मधुर होती आवाज,
आम्र वृक्ष पर बौरों के प्रिय गुच्छों में है उसका राज॥ 6॥
निशा-काल का अलि-सम काला जग में फैला तिमिर महान्,
प्रात: ज्यों रवि किरणों द्वारा शीघ्रतया करता प्रस्थान।
जनम-शृंखला से जीवों ने बाँधा है जो भीषण पाप,
क्षण भर में तव उत्तम स्तुति से कट जाता वह अपने आप॥ 7॥
इसीलिए मैं मन्द-बुद्धि भी करूँ नाथ! तव स्तुति प्रारंभ,
तव प्रभाव से चित्त हरेगी सत्पुरुषों का यह अविलंब।
है इसमें संदेह न कोई पत्र कमलिनी पर जिस भाँति,
संगति पाकर आ जाती है जल-कण में मोती-सी कान्ति॥ 8॥
दूर रहे स्तुति प्रभो! आपकी दोष-रहित गुण की भण्डार,
तीनों जग के पापों का तव चर्चा से हो बँटाढार।
दूर रहा दिनकर, पर उसकी अति बलशाली प्रभा विशाल,
विकसित कर देती कमलों को सरोवरों में प्रात:काल॥ 9॥
तीनों भुवनों के हे भूषण! और सभी जीवों के नाथ!!
है न अधिक अचरज इसमें जो सत्य-गुणों का लेकर साथ।
तव स्तुति गाता जिनपद पाता इसी धरा पर अपने आप,
जो न कर सके शरणागत को निज-समान उससे क्या लाभ?॥ 10॥
अपलक दर्शन-योग्य आपके, दर्शन पा दर्शक के नैन,
हो जाते सन्तुष्ट पूर्णत:, अन्य कहीं पाते ना चैन।
चन्द्र-किरण सा धवल मनोहर, क्षीर-सिन्धु का कर जल-पान,
खारे सागर के पानी का स्वाद कौन चाहे मतिमान्?॥ 11॥
हे त्रिभुवन के अतुल शिरोमणि! अतुल-शान्ति की कान्ति-प्रधान,
जिन अणुओं ने रचा आपको, सारे जग में शोभावान।
वे अणु भी बस उतने ही थे, तनिक अधिक ना था परिमाण,
क्योंकि धरा पर, रूप दूसरा, है न कहीं भी आप समान॥ 12॥
सुर-नर-नाग-कुमारों की भी आँखों को तव मुख से प्रीत,
जिसने जग की सारी सुन्दर-सुन्दर उपमाएँ ली हैं जीत।
और कहाँ चन्दा बेचारा जो नित धारण करे कलंक?
दिन में ढाक-पत्र सा निष्प्रभ, होकर लगता पूरा रंक॥ 13॥
पूर्ण-चन्द्र के कला-वृन्द सम धवल आपके गुण सब ओर,
व्याप्त हो रहे हैं इस जग में उनके यश का कहीं न छोर।
ठीक बात है जो त्रि-भुवन के स्वामी के स्वामी के दास,
मुक्त विचरते उन्हें रोकने कौन साहसी आता पास?॥ 14॥
यदि सुरांगनाएँ तव मन में नहीं ला सकीं तनिक विकार,
तो इसमें अचरज कैसा? प्रभु! स्वयं उन्हीं ने मानी हार।
गिरि को कंपित करने वाला प्रलयकाल का झंझावात,
कभी डिगा पाया क्या अब तक मेरु-शिखर को जग-विख्यात?॥ 15॥
प्रभो! आपमें धुँआ न बत्ती और तेल का भी ना पूर,
तो भी इस सारे त्रि-भुवन को आभा से करते भरपूर।
बुझा न सकती विकट हवाएँ जिनसे गिरि भी जाते काँप,
अत: जिनेश्वर! जगत-प्रकाशक अद्वितीय दीपक हैं आप॥ 16॥
अस्त आपका कभी न होता राहु बना सकता ना ग्रास,
एक साथ सहसा त्रि-भुवन में बिखरा देते आप प्रकाश।
छिपे न बादल के भीतर भी हे मुनीन्द्र! तव महाप्रताप,
अत: जगत में रवि से बढ़ कर महिमा के धारी हैं आप॥ 17॥
रहता है जो उदित हमेशा मोह-तिमिर को करता नष्ट,
जो न राहु के मुख में जाता बादल देते जिसे न कष्ट।
तेजस्वी-मुख-कमल आपका एक अनोखे चन्द्र समान,
करता हुआ प्रकाशित जग को शोभा पाता प्रभो! महान्॥ 18॥
विभो! आपके मुख-शशि से जब, अन्धकार का रहा न नाम,
दिन में दिनकर, निशि में शशि का, फिर इस जग में है क्या काम?
शालि-धान्य की पकी फसल से, शोभित धरती पर अभिराम,
जल-पूरित भारी मेघों का, रह जाता फिर कितना काम?॥ 19॥
ज्यों तुममें प्रभु शोभा पाता! जगत-प्रकाशक केवलज्ञान,
त्यों हरि-हर-आदिक प्रभुओं में, होता ज्ञान न आप समान।
ज्यों झिलमिल मणियों में पाता तेज स्वयं ही सहज निखार,
काँच-खंड में आ न सके वह हो रवि-किरणों का संचार॥ 20॥
हरि-हरादि को ही मैं सचमुच, उत्तम समझ रहा जिनराज!
जिन्हें देख कर हृदय आपमें, आनन्दित होता है आज।
नाथ! आपके दर्शन से क्या? जिसको पा लेने के बाद,
अगले भव में भी ना कोई मन भाता ना आता याद॥ 21॥
जनती हैं शत-शत माताएँ शत-शत बार पुत्र गुणवान्
पर तुम जैसे सुत की माता हुई न जग में अन्य महान्।
सर्व दिशाएँ धरे सर्वदा ग्रह - तारा - नक्षत्र अनेक,
पर प्रकाश के पुंज सूर्य को पूर्व दिशा ही जनती एक॥ 22॥
सभी मुनीश्वर यही मानते, परम - पुरुष हैं आप महान्,
और तिमिर के सन्मुख स्वामी! हैं उज्ज्वल आदित्य-समान।
एक आपको सम्यक् पाकर मृत्युंजय बनते वे संत,
नहीं दूसरा है कोई भी मोक्षपुरी का मंगल पंथ॥ 23॥
अव्यय, विभु, अचिन्त्य, संख्या से परे, आद्य-अरंहत महान्,
जग ब्रह्मा, ईश्वर, अनंत-गुण, मदन-विनाशक अग्नि-समान।
योगीश्वर, विख्यात-ध्यानधर, जिन! अनेक हो कर भी एक,
ज्ञान-स्वरूपी और अमल भी तुम्हें संत-जन कहते नेक॥ 24॥
तुम्हीं बुद्ध हो क्योंकि सुरों से, पूजित है तव केवलज्ञान,
तुम्हीं महेश्वर शंकर जग को, करते हो आनन्द प्रदान।
तुम्हीं धीर! हो ब्रह्मा आतम-हित की विधि का किया विधान,
तुम्हीं प्रगट पुरुषोत्तम भी हो हे भगवान्! अतिशय गुणवान॥ 25॥
दुखहर्ता हे नाथ! त्रि-जग के, नमन आपको करूँ सदैव,
वसुन्धरा के उज्ज्वल भूषण नमन आपको करूँ सदैव।
तीनों भुवनों के परमेश्वर, नमन आपको करूँ सदैव,
भव-सागर के शोषक हे जिन! नमन आपको करूँ सदैव॥ 26॥
इसमें क्या आश्चर्य मुनीश्वर! मिला न जब कोई आवास,
तब पाकर तव शरण सभी गुण, बने आपके सच्चे दास।
अपने-अपने विविध घरों में रहने का था जिन्हें घमंड,
कभी स्वप्न में भी तव दर्शन कर न सके वे दोष प्रचंड॥ 27॥
ऊँचे तरु अशोक के नीचे नाथ विराजे आभावान,
रूप आपका सबको भाता निर्विकार शोभा की खान।
ज्यों बादल के निकट सुहाता बिम्ब सूर्य का तेजोधाम,
प्रगट बिखरती किरणों वाला विस्तृत-तम-नाशक अभिराम॥ 28॥
मणि - किरणों से रंग - बिरंगे सिंहासन पर नि:संदेह,
अपनी दिव्य छटा बिखराती तव कंचन-सम पीली देह।
नभ में फैल रहा है जिसकी किरण-लताओं का विस्तार,
ऐसा रवि ही मानो प्रात: उदयाचल पर हो अविकार॥ 29॥
कुन्द-सुमन-सम धवल सुचंचल चौंसठ चँवरों से अभिराम,
कंचन जैसा तव सुन्दर तन बहुत सुहाता है गुणधाम।
चन्दा-सम उज्ज्वल झरनों की बहती धाराओं से युक्त,
मानों सुर-गिरि का कंचनमय ऊँचा तट हो दूषण-मुक्त॥ 30॥
दिव्य मोतियों के गुच्छों की रचना से अति शोभावान,
रवि-किरणों का घाम रोकता लगता शशि जैसा मनभान।
आप तीन जगत के प्रभुवर हैं, ऐसा जो करता विख्यात,
छत्र-त्रय-तव ऊपर रहकर शोभित होता है दिन-रात॥ 31॥
गूँज उठा है दिशा-भाग पा जिसकी ऊँची ध्वनि गंभीर,
जग में सबको हो सत्संगम इसमें जो पटु और अधीर।
कालजयी का जय-घोषक बन नभ में बजता दुन्दुभि-वाद्य,
यशोगान नित करे आपका जय-जय-जय तीर्थंकर आद्य॥ 32॥
पारिजात, मन्दार, नमेरू, सन्तानक हैं सुन्दर फूल,
जिनकी वर्षा नभ से होती, उत्तम, दिव्य तथा अनुकूल।
सुरभित जल-कण, पवन सहित शुभ, होता जिसका मंद प्रपात,
मानों तव वचनाली बरसे, सुमनाली बन कर जिन-नाथ!॥ 33॥
विभो! आपके जगमग-जगमग भामंडल की प्रभा विशाल,
त्रि-भुवन में सबकी आभा को लज्जित करती हुई त्रिकाल।
उज्ज्वलता में अन्तराल बिन अगणित उगते सूर्य-समान,
तो भी शशि-सम शीतल होती, हरे निशा का नाम-निशान॥ 34॥
स्वर्ग-लोक या मोक्ष-धाम के पथ के खोजी को जो इष्ट,
सच्चा धर्म-स्वरूप जगत को बतलाने में परम विशिष्ट।
प्रगट अर्थ-युत सब भाषामय परिवर्तन का लिए स्वभाव,
दिव्य आपकी वाणी खिरती समवसरण में महाप्रभाव॥ 35॥
खिले हुए नव स्वर्ण-कमल-दल जैसी सुखद कान्ति के धाम,
नख से चारों ओर बिखरतीं किरण-शिखाओं से अभिराम।
ऐसे चरण जहाँ पड़ते तव, वहाँ कमल दो सौ पच्चीस,
स्वयं देव रचते जाते हैं और झुकाते अपना शीश॥ 36॥
धर्म-देशना में तव वैभव इस प्रकार ज्यों हुआ अपार,
अन्य किसी के वैभव ने त्यों नहीं कहीं पाया विस्तार।
होती जैसी प्रखर प्रभा प्रभु! रवि की करती तम का नाश,
जगमग-जगमग करने पर भी कहाँ ग्रहों में वही प्रकाश?॥ 37॥
मद झरने से मटमैले हैं हिलते-डुलते जिसके गाल,
फिर मँडऱाते भौरों का स्वर सुन कर भडक़ा जो विकराल।
ऐरावत-सम ऊँचा पूरा आगे को बढ़ता गजराज,
नहीं डरा पाता उनको जो तव शरणागत हे जिनराज!॥ ३८॥
लहु से लथपथ गिरते उज्ज्वल गज-मुक्ता गज मस्तक फाड़,
बिखरा दिए धरा पर जिसने अहो! लगा कर एक दहाड़।
ऐसा सिंह न करता हमला होकर हमले को तैयार,
उस चपेट में आये नर पर, जिसे आपके पग आधार॥ ३९॥
प्रलय-काल की अग्नि सरीखी, ज्वालाओं वाली विकराल,
उचट रही जो चिनगारी बन, काल सरीखी जिसकी चाल।
सबके भक्षण की इच्छुक सी आगे बढ़ती वन की आग,
मात्र आपके नाम-नीर से वह पूरी बुझती नीराग!॥ ४०॥
कोकिल-कण्ठ सरीखा काला लाल-नेत्र वाला विकराल,
फणा उठा कर गुस्से में जो चलता टेढ़ी-मेढ़ी चाल।
आगे बढ़ते उस विषधर को वह करता पैरों से पार,
अहो! बेधडक़ जिसके हिय, तव नाम-नाग-दमनी विषहार॥ ४१॥
जहाँ हिनहिनाहट घोड़ों की जहाँ रहे हाथी चिंघाड़,
मची हुई है भीषण ध्वनि जो कानों को दे सकती फाड़।
वह सशक्त रिपु-नृप की सेना तव गुण-कीर्तन से तत्काल,
विघटित होती जैसे रवि से विघटित होता तम विकराल॥ ४२॥
भालों से हत गजराजों के लहु की सरिता में अविलंब,
भीतर - बाहर होने वाले योद्धा ला देते हैं कंप।
उस रण में तव पद-पंकज का होता है जिनको आधार,
विजय-पताका फहराते वे, दुर्जय-रिपु का कर संहार॥ ४३॥
जहाँ भयानक घडिय़ालों का झुंड कुपित है, जहाँ विशाल,
है पाठीन-मीन, भीतर फिर, भीषण बड़वानल विकराल।
ऐसे तूफानी सागर में लहरों पर जिनके जल-यान,
तव सुमिरन से भय तज कर वे, पाते अपना वांछित स्थान॥ ४४॥
हुआ जलोदर रोग भयंकर कमर झुकी दुख बढ़ा अपार,
दशा बनी दयनीय न आशा जीने की भी दिन दो-चार।
वे नर भी तव पद-पंकज की, धूलि-सुधा का पाकर योग,
हो जाते हैं कामदेव से रूपवान पूरे नीरोग॥ ४५॥
जकड़े हैं पूरे के पूरे, भारी साँकल से जो लोग,
बेड़ी से छिल गई पिण्डलियाँ, भीषण कष्ट रहे जो भोग।
सतत आपके नाम-मन्त्र का, सुमिरन करके वे तत्काल,
स्वयं छूट जाते बन्धन से, ना हो पाता बाँका बाल॥ ४६॥
पागल हाथी, सिंह, दवानल, नाग, युद्ध, सागर विकराल,
रोग जलोदर या बन्धन से प्रकट हुआ भय भी तत्काल।
स्वयं भाग जाता भय से उस भक्त-पुरुष का जो मतिमान्,
करता है इस स्तोत्रपाठ से, हे प्रभुवर! तव शुचि-गुण-गान॥ ४७॥
सूत्र बना गुण-वृन्द आपका, अक्षर रंग-बिरंगे फूल,
स्तुति-माला तैयार हुई यह भक्ति आपकी जिसका मूल।
मानतुंग जो मनुज इसे नित कंठ धरे उसको हे देव!
वरे नियम से जग में अतुलित मुक्ति रूप लक्ष्मी स्वयमेव॥ ४८॥