अंतराय कर्म*
जगत् के जीवों की जीवन चर्या, रहन-सहन आदि का अवलोकन करें तो हमें विभिन्न रूप देखने को मिलते हैं। कोई धनाढ्य है, कोई सर्वरूप से सम्पन्न है, कोई सुन्दर रूपवान है और कोई कुरूप, कोई आराम से बैठकर खाता है तो कोई परिश्रम करके भी दो जून (समय) की रोटी पेट भर भी नहीं खा पाता, कोई सड़क पर सोता है तो कोई महलों में। एक कवि ने कहा भी है—
_एक महल में सुख से खेले, एक सड़क पर सोता है।_ र
_जीवन चलता साथ किसी के, कोई जीवन ढोता है।।_
कुछ व्यक्ति जन्मत: दारिद्रय की मूर्ति होते हैं, कुछ धनाढ्य होने पर भी बाद में दरिद्र हो जाते हैं। इस प्रकार पाँच बातों से विषमता आती है। आचार्य श्री उमास्वामी *‘मोक्षशास्त्र’* में उन पाँच बातों का उल्लेख करते हैं—
*‘‘विघ्नकरणमन्तरायस्य।’’*
(त. सू. अ. ६ सू. २७)
*‘‘दानादिपरिणामव्याघातहेतुत्वात्तद्व्यपदेश:।’’*
अर्थात् दानादि परिणाम के व्याघात का कारण होने से यह अर्थात् अन्तराय संज्ञा प्राप्त होती है।
*‘‘अन्तरमेति गच्छेतीत्यन्तराय:।’’*
जो अन्तर अर्थात् मध्य में आता है वह अन्तराय कर्म है।
*अन्तराय कर्म के भेद*
*‘‘दानलाभभोगोपभोगवीर्याणाम्।’’*
अर्थात् वह अन्तराय कर्म दान, लाभ, भोग, उपभोग आदिकों में विघ्न करने में समर्थ है।
*दानादि अन्तराय कर्मों के लक्षण—*
*‘‘यदुदयाद्दातुकामोऽपि न प्रयच्छति, लब्धुकामोऽपि न लभते, भोक्तुमिच्छन्नपि न भुङ्क्ते, उपभोक्तुमभिवाञ्छन्नपि नोपभुङ्क्ते, उत्सहितु-कामोऽपि नोत्सहते त एते पञ्चान्तरायस्य भेदा:।’’*
जिनके उदय से देने की इच्छा रखता हुआ भी नहीं देता है, प्राप्त करने की इच्छा रखता हुआ भी नहीं प्राप्त करता है, भोगने की इच्छा करता हुआ भी भोग नहीं सकता है, उपभोग करने की इच्छा करता हुआ भी उत्साहित नहीं होता है इस प्रकार ये पाँच अन्तराय के भेद हैं।
*१. दानान्तराय—*
इस कर्म के उदय से मनुष्य के आहा
र, औषध, शास्त्र व अभयदान देने के भाव ही नहीं होते हैं अर्थात् त्याग के भाव जागृत नहीं हो पाते हैं यद्यपि वह जानता है कि सम्पत्ति की तीन दशा होती हैं—भोग, दान एवं नाश। कार्नगी नामक एक अमेरिकन विद्वान् लिखते हैं—
_‘‘A Man who dies rich dies in disgrace.’’_
जो व्यक्ति धनवान् होकर मरता है वह अभिशाप में मरता है अर्थात् परिग्रह का संचय करना, उसका व्यय नहीं करना। यदि कोई दान आदि की प्रेरणा देता है तो वह उसे शत्रुवत् देखता है। वह यह भूल जाता है कि लक्ष्मी पुण्यानुसारिणी होती है। जब लक्ष्मी नष्ट होने को होगी तो संचित करते हुए भी नष्ट हो जाती है।
*२. लाभान्तराय—*
इस कर्म का उदय होने पर मनुष्य कितना ही प्रयत्न करे उसे लाभ तो होता ही नहीं वरन् हानि ही होती है। जब लाभान्तराय कर्म का क्षयोपशम होता है तब आसपास ही सुख सामग्री प्राप्त हो जाती है। इस कर्म का उदय एवं क्षयोपशम समझने के लिए धन्यकुमार का जीवन चरित दिशा प्रदान करता है। जब वह अकृतपुण्य के रूप में था तब दिये गये मोती के दाने अंगार रूप परिणत होते थे, जब वह धन्यकुमार के रूप में था तब पग—पग पर धन-सम्पत्ति, ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त होती थी। आज भी हम देखते हैं जिनको लाभान्तराय कर्म का क्षयोपशम होता है उसे लॉटरी के माध्यम से धन प्राप्त हो जाता है, भूगर्भ आदि से भी मिल जाता है। जिनके पाप कर्म का उदय होता है उसका धन भी मिट्टी रूप में परिणत हो जाता है।
*३. भोगान्तराय—*
भोग के अन्तर्गत वे सामग्रियाँ आती हैं जो एक बार भोगी जाती हैं।
*४. उपभोगान्तराय-*
वे सामग्रियाँ जो बार—बार भोगी जाती हैं, उपभोग कहलाती हैं। चक्रवर्ती के १४ रत्न, ९ निधि, ९६ हजार रानियाँ, १८ करोड़ घोड़े, ८४ लाख हाथी आदि सम्पत्ति अन्तराय कर्म के क्षयोपशम से ही मिलते हैं।
*५. वीर्यान्तराय-*
इस कर्मोदय के कारण शरीर इतना बलहीन होता है कि वे भोगों को भोग नहीं सकते। जैसे एक महाशय के यहाँ उत्तमोत्तम भोज्य सामग्री तैयार रखी है, घर के सभी सदस्य खा रहे हैं किन्तु वह महाशय पेट की बीमारी के कारण मूँग की दाल व रोटी ही खाते हैं। वीर्यान्तराय कर्म से ग्रसित व्यक्ति श्रावक या मुनि के व्रतों को ग्रहण नहीं कर पाता। सम्यग्दृष्टि होने पर भी क्षुधा, तृषा, शीतादि की वेदना को सहन नहीं कर पाता।
*अन्तराय कर्म का कार्य-*
*‘‘अन्तराय कर्म के उदय से जीव चाहे सो नहीं होय है। बहुरि तिसही का क्षयोपशमते किंचित् मात्र चाहा भी होय।’’*