देव-शास्त्र-गुरु-विद्यमान बीस तीर्थंकर सिद्ध परमेष्ठी पूजा
देव-शास्त्र-गुरु-विद्यमान बीस तीर्थंकर सिद्ध परमेष्ठी पूजा
देव-शास्त्र-गुरु-विद्यमान बीस तीर्थंकर सिद्ध परमेष्ठी पूजा
अडिल्ल छन्द
वीतराग सर्वज्ञ देव अरहन्त जी,
द्वादशांग श्रुत नमूँ गुरु निग्र्रन्थ जी।
विद्यमान श्रभ् बीस जिनेश्वर राजते,
नित्य निरंजन सिद्ध अनन्त विराजते।।
दोहा
आव्हानन सबका करूँ,
तिष्ठो मम मन जाय।
भक्ति भाव पूजा रचूँ,
भवाताप नस जाय।।
ओं ह्रीं श्री देव शास्त्र गुरू विद्यमान विंशति तीर्थंकर अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठिन् समूह। अत्र अवतर अवतर संवौषट् इति आह्वाननम्। अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः इति स्थापनम्। अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् इति सन्निधिकरणम्।
पुष्पांजलिं क्षिपेत्
अम्बु क्षीराब्धि से भर लाया,
स्वर्ण भृंगार धारि चढ़ाया।
जन्म-मृत्यु जरा को नसाया,
परम पद पूजूँ जी सिद्ध जिनेशा।।
पूजों पूजों श्री अरहंत देवा,
जिनवाणी गुरु नित सेवा।
वन्दूँ शाश्वत बीस विदेहा,
परम पद पूजूँ जी सिद्ध जिनेशा।।
ओं ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो, विद्यमान विशंति तीर्थकरेभ्यो, अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठिभ्यो जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
शुद्ध काश्मीरी केशर लाया,
दिव्य चन्द्राभ चरण चढ़ाया।
दाह विध्वंस कर सुख पाया,
परम पद पूजूँ जी सिद्ध जिनेशा।
पूजों पूजों श्री अरहंत देवा,
जिनवाणी गुरु नित सेवा।
वन्दूँ शाश्वत बीस विदेहा,
परम पद पूजूँ जी सिद्ध जिनेशा।।
ओं ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो, विद्यमान विंशति तीर्थेकरेभ्यो,अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठिभ्यो भवताप विनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वच्छ शालि सु तंदुल धोये,
प्रभु सम्मुख पुंज संजाये।
सिद्धि दाता अक्षय पद जोये,
परम पद पूजूँ जी सिद्ध जिनेशा।
पूजों पूजों श्री अरहंत देवा,
जिनवाणी गुरु नित सेवा।
वन्दूँ शाश्वत बीस विदेहा,
परम पद पूजूँ जी सिद्ध जिनेशा।।
ओं ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो, विद्यमानविंशति तीर्थंकरेभ्यो,अनन्तानन्तसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
मल्लि मन्दार माला बनाऊँ,
चम्पा राजीव अग्र चढ़ाऊँ।
दुष्ट कन्दर्प दाह नसाऊँ,
परम पद पूजूँ जी सिद्ध जिनेशा.।
पूजों पूजों श्री अरहंत देवा,
जिनवाणी गुरु नित सेवा।
वन्दूँ शाश्वत बीस विदेहा,
परम पद पूजूँ जी सिद्ध जिनेशा।।
ओं ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो, विद्यमान विंशति तीर्थंकरेभ्यो,अनन्तानन्तसिद्धपरमेष्ठिभ्यो कामबाणविध्वसंनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
साज्य क्षीरात्र घेवर व्यंजुन,
पूजूँ पूजूँ चरण अघ भंजन।
मेटो मेटो क्षुधा दुख मण्डन,
परम पद पूजूँ जी सिद्ध जिनेशा.।
पूजों पूजों श्री अरहंत देवा,
जिनवाणी गुरु नित सेवा।
वन्दूँ शाश्वत बीस विदेहा,
परम पद पूजूँ जी सिद्ध जिनेशा।।
ओं ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो, विद्यमान विंशति तीर्थकरेभ्यो,अनन्तानन्तसिद्धपरमेष्ठिभ्यो क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माला माणिक्य दीप रचाऊँ,
शुभ्र उद्योत ज्योति जगाऊँ।
मोह भंजन करुँ शिव पाऊँ,
परम पद पूजूँ जी सिद्ध जिनेशा.।
पूजों पूजों श्री अरहंत देवा,
जिनवाणी गुरु नित सेवा।
वन्दूँ शाश्वत बीस विदेहा,
परम पद पूजूँ जी सिद्ध जिनेशा।।
ओं ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो, विद्यमान विंशति तीर्थंकरेभ्यो,अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठिभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
खेऊँ जिनपाद धूप दशांगी,
व्याप्त आकाश सुरभित गन्धी।
जारुँ जारुँ करम अघ जंगी,
परम पद पूजूँ जी सिद्ध जिनेशा।।
पूजों पूजों श्री अरहंत देवा,
जिनवाणी गुरु नित सेवा।
वन्दूँ शाश्वत बीस विदेहा,
परम पद पूजूँ जी सिद्ध जिनेशा।।
ओं ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो, विद्यमान विंशंति तीर्थकरेभ्यो,अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठिभ्यो अष्टकर्म दहनाय धूपं नि. स्वाहा।
आम्र अंगूर श्री फल ताजे,
पुंगी केला महाफल साजे।
होवे नष्ट करम मल सारे,
परम पद पूजूँ जी सिद्ध जिनेशा।।
पूजों पूजों श्री अरहंत देवा,
जिनवाणी गुरु नित सेवा।
वन्दूँ शाश्वत बीस विदेहा,
परम पद पूजूँ जी सिद्ध जिनेशा।।
ओं ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो श्री विद्य़मान विंशति तीर्थकरेभ्यो श्री अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठिभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
अष्ट द्रव्यादि अच्र्य बनाऊँ,
सौख्य हेतु जिनांघ्रि चढ़ाऊँ।
उत्तम पाथेय शिव पथ पाऊँ,
परम पद पूजूँ जी सिद्ध जिनेशा।।
पूजों पूजों श्री अरहंत देवा,
जिनवाणी गुरु नित सेवा।
वन्दूँ शाश्वत बीस विदेहा,
परम पद पूजूँ जी सिद्ध जिनेशा।।
ओं ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो श्री विद्य़मान विंशति तीर्थकरेभ्यो श्री अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठिभ्यो अनध्र्यपदप्राप्तये अध्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
ओं ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो श्री विद्य़मान विंशति तीर्थकरेभ्यो श्री अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठिभ्यो नमः।।
(नो बार जाप करें।)
जयमाला
देव शास्त्र गुरु रत्न अनुपम,
विद्यमान श्री बीस जिनेश।
शुद्ध चिदातम सिद्ध निरंजन,
गुण मणिमाला गाऊँ अशेष।।
चैपाई
चार घातीया कर्म प्रधान,
नाश किये अरहन्त महान।
मण्डित अनन्त चतुष्टयसार,
छियालीस गुण के आधार।।
वीतराग सर्वज्ञ जिनेश,
तीर्थ प्रवर्तक हित उपदेश।
तव गुण भक्ति भाव चित धरुँ,
घोर भवार्णव क्षण में तरुँ।।
निर्गत जिन मुख बीज स्वरूप,
धर्मखान जगमण्डन रूप।
रचना द्वादशांग तम हान,
स्याद्वाद ध्वज चिन्ह प्रधान।।
लोकालोक प्रकाशन हेतु,
भव समुद्र तारण को सेतु।
हे श्रुत मात! नवाऊँ भाल,
हो प्रसन्न मेटो अघ जाल।।
बिन कारण जग बन्धु उदार,
सम्यक् तीन रतन दातार।
गुण छत्तीस सुशोभित सूरि,
पाठक पंच बीस गुण भूरि।।
ज्ञान ध्यान तप लीन महन्त,
आठ बीस गुण मण्डित सन्त।
तीन ऊन नव कोटि मुनीश,
श्रद्धा भक्ति नवाऊँ शीश।।
जम्बूद्वीप विदेह मँझार,
चार जिनेश्वर जगदाधार।
सीमन्धर युगमन्धर नाम,
बाहु सुबाहु परम सुखधाम।।
खण्ड घातकी द्वीप विदेह,
शाश्वत अष्ट जिनेश सदेह।
जात सुजात स्वंयप्रभ वीर,
अनन्तवीर्य वृषभानन धीर।।
सौरीप्रभ सुविशाल प्रधान,
वज्रधार चन्द्रानन भान।
पुष्करार्ध वर द्वीप विदेह,
अष्ट जिनेश्वर नमूँ सनेह।।
चन्द्रवाह जिन चन्द्र भुजंग,
ईश्वर नेमिप्रभु निस्संग।
वीरसेन महाभद्र जिनेश,
देवयशा अतिवीर्य महेश।।
चिदानन्द चैतन्य स्वरूप, सुख निकन्द चिन्तामणि रूप।
ज्ञानमूर्ति जगभूषण ईश, सिद्ध समूह नवाऊँ शीश।।
मैं मतिहीन आप गुणखान, शीघ्र निहारो अपनी बान।
चरणाम्बुज में करूँ प्रणाम, कर्मबन्ध काटो गुणधाम।।
धत्ता
जय जय अरहन्ता गुरु निग्र्रन्था, सिद्ध महन्ता बीस जिनेश।
जिनवाणी ध्यावें नसावें, मति विशुद्ध कीजे अवशेष।।
ओं ह्रीं श्री देव-शास्त्र-गुरुभ्यो श्री विद्य़मान विंशति तीर्थकरेभ्यो श्री अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठिभ्यो अनध्र्यपदप्राप्तये अध्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा
नित्य नियम पूजन करें, जो भवि भक्ति वशाय।
स्वर्गो में संशय नहीं, निश्चय शिवपुर जाय।।
।। इत्याशीर्वादः शांतये त्रयधारा, परिपुष्पांजलिं क्षिपेत्।।
।। इति।।