बाकी शिष्यों का संग्रह करना, उन्हें दीक्षा देना, प्रायश्चित देना, उनका संरक्षण करना, संघ की व्यवस्था संभालना आदि कार्य आचार्य के हैं सो ये नहीं करते हैं।
सर्वसाधुओं को नमस्कार हो-जो अनन्तज्ञानादि रूप शुद्ध आत्मा के स्वरूप की साधना करते हैं उन्हें साधु कहते हैं। पाँच महाव्रत के धारी, तीन गुप्तियों से गुप्त-रक्षित, अठारह हजार शील के धारक और चौरासी लाख उत्तर गुणों का पालन करने वाले साधुपरमेष्ठी कहलाते हैं।
जो अट्ठाईस मूलगुणों से सहित, जिनमुद्राधारी-दिगम्बर, संयम का उपकरण मयूर पंख की पिच्छिका तथा शौच का उपकरण काष्ठ कमंडलु धारण करते हैं उन नग्नवेषधारी मुनिराजों को ही यहाँ ग्रहण किया गया है तथा आचार्य उपाध्याय भी अट्ठाईस मूलगुणों से सहित ही होते हैं।
वे मूलगुण कौन से हैं ? उनके नाम बताते हैं-
गाथार्थ-५ महाव्रत, ५ समिति, पंचेन्द्रियनिरोध, छह आवश्यक, केशलोंच, अचेलक, अस्नान, क्षितिशयन, अदन्तधावन, खड़े होकर भोजन करना और एक बार भोजन करना ये सब श्रमणों के ५±५±५±६±७·२८ मूलगुण जिनेन्द्र भगवान ने बताए हैं।
भावार्थ-सामान्यत: २८ मूलगुण तो आचार्य-उपाध्याय-साधु सभी के होते ही हैं क्योंकि सर्वप्रथम मुनिदीक्षा में इन २८ मूलगुणों का आरोपण ही किया जाता है पुन: आगे की श्रेणियाँ तो बाद में योग्यतानुसार प्राप्त होती हैं तब उन-उन पदों के अनुसार भी मूलगुणों का पालन करना होता है किन्तु समाधि के समय अन्तकाल में भी समस्त पदों का त्याग कर सामान्य साधु के रूप में २८ मूलगुणों का पालन ही आवश्यक होता है, तभी निर्दोषरीत्या सल्लेखनामरण संभव है।
यहाँ आचार्य, उपाध्याय, साधु इन तीनों से भावलिंगी मुनियों को ही ग्रहण करना चाहिए और तो क्या तीन कम नव करोड़ मुनीश्वरों की संख्या में छठे गुणस्थान से लेकर अयोगकेवली नामक चौदहवें गुणस्थानपर्यंत समस्त मुनियों का संग्रह हो जाता है। अत: यहाँ यह जानना चाहिए कि इस पंच नमस्कार मंत्र में द्रव्यलिंगी मिथ्यादृष्टि साधु अथवा जिनमुद्रा के अतिरिक्त वेषधारी अन्य साधुओं को भी ग्रहण नहीं किया गया है। बल्कि छठे गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान पर्यंत मुनियों को ही उनमें जानना चाहिए क्योंकि तेरहवें-चौदहवें गुणस्थानवर्ती साधु अर्हन्तों में अन्तर्भूत हो जाते हैं।
इस महामंत्र में पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार किया गया है। अब क्रम की अपेक्षा से कोई कहते हैं-
अरिहंत और सिद्ध का क्रम-यहाँ पर शंकाकार की शंका है कि ‘‘सर्वप्रकार के कर्म लेप से रहित सिद्ध परमेष्ठी के विद्यमान रहते हुए अघातिया कर्मों के लेप से युक्त अरिहंतों को आदि में नमस्कार क्यों किया जाता है ?’’ इसका समाधान करते हुए कहा है-
यह कोई दोष नहीं है। क्योंकि सबसे अधिक गुणवाले सिद्धों में श्रद्धा की अधिकता के कारण अरिहंत परमेष्ठी ही हैं अर्थात् अरिहंत परमेष्ठी के निमित्त से ही अधिक गुण वाले सिद्धों में सबसे अधिक श्रद्धा उत्पन्न होती है। अथवा यदि अरिहंत परमेष्ठी न होते तो हम लोगों को आप्त, आगम और पदार्थ का परिज्ञान नहीं हो सकता था। किन्तु अरिहंत परमेष्ठी के प्रसाद से हमें इस बोध की प्राप्ति हुई है। इसलिए उपकार की अपेक्षा भी आदि में अरिहंतों को नमस्कार किया जाता है।
यदि कोई कहे कि इस प्रकार आदि में अरिहंतों को नमस्कार करना तो पक्षपात है ? इस पर आचार्य उत्तर देते हैं कि ऐसा पक्षपात दोषोत्पादक नहीं है किन्तु शुभ पक्ष में रहने से वह कल्याण का ही कारण है।
कहा भी है- श्लोकार्थ-जिसके समीप धर्ममार्ग प्राप्त करे, उसके समीप विनय युक्त होकर प्रवृत्ति करनी चाहिए तथा उसका शिरपंचक अर्थात् मस्तक, दोनों हाथ और दोनों घुटने इन पंचांगों से एवं काय, वचन, मन से निरन्तर सत्कार-नमस्कार करना चाहिए। आचार्य, उपाध्याय और साधुओं के भी देवपना तथा पूज्यपना है।
पुनरपि कोई कहते हैं-
शंका-घातिकर्म से रहित सकल परमात्मा अर्हंतों को तथा अघातिया कर्मों से रहित निकल परमात्मा सिद्धों को तो तीन लोक के अधिपति परम देव मानकर नमस्कार करना ठीक है, किन्तु आचार्य आदि जो अष्टकर्मों से युक्त हैं उन्हें नमस्कार नहीं करना चाहिए क्योंकि इनमें देवत्व का अभाव है ?
समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि अपने-अपने भेदों से अनन्त भेदरूप रत्नत्रय ही देव है, अतएव रत्नत्रय से युक्त जीव भी देव हैं अन्यथा यदि रत्नत्रय की अपेक्षा देवपना न माना जाये तो सम्पूर्ण जीवों को देवपना प्राप्त होने की आपत्ति आ जाएगी। इसलिए यह सिद्ध हुआ है कि आचार्यादिक भी रत्नत्रय के यथायोग्य धारक होने से देव हैं।
शंका-सम्पूर्ण रत्न अर्थात् पूर्णता को प्राप्त रत्नत्रय ही देव हैं, रत्नों का एक देश देव नहीं हो सकता है?
समाधान-ऐसा कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि रत्नत्रय के एक देश में देवपने का अभाव होने पर उसकी समग्रता में भी देवपना नहीं बन सकता है। अर्थात् जो कार्य जिसके एक देश में नहीं देखा जाता है वह उसकी पूर्णता में कहाँ से आ सकता है ?
यहाँ पुन: शंकाकार कहता है कि ‘‘आचार्यादिक में स्थित रत्नत्रय समस्त कर्मों का क्षय करने में समर्थ नहीं हो सकते हैं क्योंकि उनमें एक देशपना ही है, पूर्णता नहीं है ? इसका समाधान करते हुए श्री वीरसेन स्वामी ने कहा है-
तुम्हारा यह कथन भी समुचित नहीं है क्योंकि जिस प्रकार पलाल राशि-घास के ढेर का दाहरूप अग्नि समूह का कार्य अग्नि के एक कण से भी होता देखा जाता है, उसी प्रकार यहाँ पर भी आचार्यादिक के विषय में भी समझना चाहिए कि वे आचार्य, उपाध्याय, साधु सभी देव हैं यह बात निश्चित हो जाती है। इस मंत्र में अनादि निधन पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार किया गया है।