बंध प्रकरण
बंध के भेद-प्रभेद
पयडिट्ठिअणुभागप्पदेसबंधोत्ति चदुविहो बंधी।
उक्कस्समणुक्कस्सं जहण्णमजहण्णगंति पुधं।।३१।।
प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशबंध इति चतुर्विधो बंध:।
उत्कृष्टोनुत्कृष्ट: जघन्योऽजघन्यकं इति प्रथक्।।३१।।
अर्थ — १. प्रकृति बंध,
२. स्थिति बंध,
३. अनुभाग बंध और
४. प्रदेश बंध
इस तरह बंध के चार भेद हैं तथा इनमें भी हर एक बंध के १. उत्कृष्ट २. अनुत्कृष्ट, ३. जघन्य और ४. अजघन्य इस तरह चार-चार भेद हैं।
गुणस्थानों में प्रकृतिबंध का विशेष नियम
सम्मेव तित्थबंधो आहारदुगं पमादरहिदेसु।
मिस्सूणे आउस्स य मिच्छादिसु सेसबंधोदु।।३२।।
सम्यक्त्वे एव तीर्थबंध आहारद्विकं प्रमादरहितेषु।
मिश्रोने आयुयश्च मिथ्यात्वादिषु शेषबंधस्तु।।३२।।
अर्थ—असंयत-चतुर्थ गुणस्थान से लेकर आठवें गुणस्थान-अपूर्वकरण के छठे भाग तक सम्यग्दृष्टि के ही तीर्थंकर प्रकृति का बंध होता है। आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग प्रकृतियों का बंध अप्रमत्त (सातवें) गुणस्थान से लेकर अपूर्वकरण के छठे भाग तक ही होता है। और आयुकर्म का बंध मिश्र गुणस्थान तथा निर्वृत्यापर्याप्त अवस्था को प्राप्त मिश्रकाययोग इन दोनों के सिवाय मिथ्यादृष्टि से लेकर अप्रमत्त गुणस्थान तक ही होता है तथा बाकी बची प्रकृतियों का बंध मिथ्यादृष्टि वगैरह गुणस्थानों में अपनी बंध को व्युच्छिति तक होती है।
तीर्थंकर प्रकृति के बंध का विशेष नियम
पढमुवसमिये सम्मे सेसतिये अविरदादिचत्तारि।
तित्थयरबंधपारंभया णरा केवलिदुगंतेह।।३३।।
प्रथमोपशमे सम्यक्त्वे शेषत्रये अविरतादिचत्वार:।
तीर्थकरबंधप्रारंभका नरा: केवलिद्विकान्ते।।३३।।
अर्थ—प्रथमोपशमसम्यक्त्व में अथवा बाकी के तीनों-द्वितीयोपशम सम्यक्त्व-क्षायोपशम सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्व की अवस्था में, असंयत से लेकर अप्रमत्तगुणस्थान तक चार गुणस्थानों वाले मनुष्य ही, केवली-तीन जगत् को प्रत्यक्ष देखने वाले तीर्थंकर (हितोपदेशी सर्वज्ञ) तथा श्रुतकेवली (द्वादशांग के पारगामी) के निकट ही तीर्थंकर प्रकृति के बंध का आरंभ करते हैं।
चोदह गुणस्थानों में बंध व्युच्छित्ति की संख्या
सोलस पणवीस णभंदस चउ छक्केक्क बंधवोछिण्णा।
दुग तीस चदुरपुव्वे पण सोलस जोगिणो एक्को।।३४।।
षोडश पंचविंशति: नभ: दश चतस्र: षडेवैकं बन्धव्युच्छिन्ना:।
द्विके त्रिंशत् चतस्र: अपूर्व पंच षोडश योगिन: एका।।३४।।
अर्थ—मिथ्यादृष्टि-पहले गुणस्थान के अंत समय में सोलह प्रकृतियाँ बंध होने से व्युच्छिन्न होती हैं (बिछुड़ जाती हैं) अर्थात् पहले गुणस्थान तक ही उनका बंध होता है। उससे आगे के गुणस्थानों में उनका बंध नहीं होता है। इसी प्रकार दूसरे गुणस्थान में २५ प्रकृतियों की व्युच्छित्ति होती है। तीसरे में शून्य अर्थात् किसी प्रकृति की व्युच्छिति नहीं होती। चौथे में दश की, पाँचवें में चार की, छट्ठे में छह की, सातवें में एक प्रकृति की व्युच्छिति होती है। आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान में सात भागों में से पहले भाग में दो की, तथा दूसरे भाग से पाँचवें भाग तक शून्य, छठे भाग में तीस की, सातवें भाग में चार प्रकृतियों की बंध से व्युुच्छित्ति होती है। नवमें में पाँच की, दसवें में सोलह की, ग्यारहवें बारहवें गुणस्थान के शून्य, तेरहवें सयोगकेवली गुणस्थान में एक प्रकृति की बंध व्युच्छित्ति होती है। चौदहवें गुणस्थान में बंध भी नहीं और व्युच्छित्ति भी नहीं होती। क्योंकि वहाँ पर बंध के कारण-योग का ही अभाव है।
मिथ्यात्व गुणस्थान की बंध से व्युच्छिन्न सोलह प्रकृतियाँ
मिच्छत्तहुंडसंढा संपत्तेयक्खथावरादावं।
सुहुमतियं वियलिंदिय णिरयदुणिरयाउगं मिच्छे।।३५।।
मिथ्यात्वहुण्डषण्ढासंप्राप्तैकाक्षस्थावरातप:।
सूक्ष्मत्रयं विकलेन्द्रियं निरयद्विनिरयायुष्क मिथ्यात्वे।।३५।।
अर्थ—१. मिथ्यात्व, २. हुण्डकसंस्थान, ३. नपुंसकवेद, ४. असंप्राप्तासृपाटिका संहनन, ५. एकेन्द्रिय, ६. स्थावर नाम, ७. आतप, ८. सूक्ष्मादि तीन अर्थात् (सूक्ष्म), ९. अपर्याप्त, १०. साधारण, ११. विकलेन्द्री तीन अर्थात् दो इंद्री, १२. तेइन्द्री, १४. नरकगति, १५. नरकगत्यानुपूर्वी, १६. नरकायु ये सोलह प्रकृतियों मिथ्यात्वगुणस्थान के अंतसमय में बंध से व्यच्छिन्न हो जाती हैं। अर्थात् मिथ्यात्व से आगे के गुणस्थानों में इनका बंध नहीं होता।
दूसरे गुणस्थान की बंध व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ
बिदियगुणे अणथीणतिदुभगतिसंठाणसंहदिचउक्कं।
दुग्गमणित्थीणीचं तिरियदुगुज्जोवतिरियाऊ।।३६।।
द्वितीयगुणे अन-स्त्यानत्रदुर्भगत्रयसंस्थानसंहतिचतुष्कम्।
दुर्गमनस्त्रीनीचं तिर्यग्द्विकोद्योततिर्यगायु:।।३६।।
अर्थ—दूसरे सासादनगुणस्थान के अंत समय में अनंतानुबंधी क्रोधादि चार, स्त्यानगृद्धि १, निद्रानिद्रा १ प्रचलाप्रचला १ ये तीन, दुर्भग १ दु:स्वर १ अनादेय १ ये तीन, न्यग्रोधादि चार संस्थान, वज्र नाराचादि चार संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, स्त्रीवेद, नीचगोत्र, तिर्यग्गति १ तिर्यग्गत्यानुपूर्वी १ ये दो, उद्योत, और तिर्यंचायु, इन पच्चीस प्रकृतियों की व्युच्छित्ति होती है।
चौथे, पाँचवे गुणस्थान की बंध व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ
अयदे बिदियकसाया वज्जं ओरालमणुदुमणुवाऊ।
देसे तदियकसाया णियमेणिह बंधवोच्छिण्णा।।३७।।
अयते द्वितीयकषाय वङ्कामोरालमनुष्यद्विमानवायु:।
देशे तृतीयकषाया नियमेनेह बन्धव्युछिन्ना:।।३७।।
अर्थ—चौथे असंयत गुणस्थान में दूसरी अप्रत्याख्यानावरण क्रोधादि चार कषाय, वङ्कार्षभनाराचसंहनन, औदारिक शरीर, औदारिक आंगोपांग मनुष्यगति १, मनुष्यगत्यानुपूर्वी २ ये दो, और मनुष्यायु, ये दश प्रकृतियां बंध से व्युच्छिन्न होती हैं। पाँचवें देशव्रत गुणस्थान में तीसरी प्रत्याख्यानावरणी क्रोधादि चार कषायें नियम से बंध से व्युच्छिन्न होती हैं।
छठे, सातवें गुणस्थान बंधव्युच्छित्ति की संख्या
छट्ठे अथिरं असुहं असादमजसं च अरदिसोगं च।
अपमत्ते देवाऊणिट्ठवणं चेव अत्थित्ति।।३८।।
षष्ठे अस्थिरमशुभमसातमयशश्च अरतिशोकं च।
अप्रमत्ते देवायुर्निष्ठापनं चव अस्तीति।।३८।।
अर्थ—छठे गुणस्थान के अंतिम समय में अस्थिर, अशुभ, असातावेदनीय, अयशकीर्ति, अरति और शोक, इन छह प्रकृतियों का बंध से बिछुड़ना होता है और सातवें अप्रमत्त गुणस्थान में एक देवायु प्रकृति को ही व्युच्छित्ति होती हैं।
आठवें गुणस्थान में बंधव्युच्छित्ति की संख्या
मरणूणम्हि णियट्टीपढमे णिद्दा तहेव पयला य।
छट्टे भागे तित्थं णिमिणं सग्गमणपचिंदी।।३९।।
मरणोने निवृत्तिप्रथमे निद्रा तथैव प्रचला च।
षष्ठे भागे तीर्थ निर्माण सद्रमनपंचेन्द्रियम्।।३९।।
तेजदुहारदुसमचउसुरवण्णागुरुचउक्कतसणवयं।
चरमे हस्सं च रदी भयं जुगुच्छा य बंधवोच्छिण्णा।।४०।।
तेजोद्विकाहारद्विसमचतुरस्रसुरवर्णागुरुचतुष्कत्रसनवकम्।
चरमे हास्यं च रति: भयं जुगुप्सा च बंधव्युच्छिन्ना।।४०।।
अर्थ—निवृत्ति अर्थात् आठवें अपूर्वकरण के मरणअवस्थारहित प्रथम भाग में निद्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियों की व्युच्छित्ति होती है और छट्ठे भाग के अंतसमय में तीर्थंकर प्रकृति, निर्माण, प्रशस्तविहायोगति, पंचेन्द्रीयजाति, तैजस १, कार्माण २ ये दो, आहारकशरीर १ आहारक आंगोपांग २, समचतुरस्रसंस्थान, देवगति १, देवगत्यानुपूर्वी २, वैक्रियिक शरीर ३, वैक्रियिक आंगोपांग ४ ये चार, वर्णादि चार, अगुरुलघु १, उपघात २ परघात ३, उच्छ्वास ४ ये चार, और त्रसादि नौ, इन तीस प्रकृतियों की व्युच्छित्ति होती है। और अंत में सातवें भाग में हास्य, रति, भय और जुगुप्सा ये चार प्रकृतियाँ बंध से बिछुड़ती हैं।
नवमें, दसवें गुणस्थान में बंधव्युच्छित्ति
पुरिसं चदुसंजलणं कमेण अणियट्टिपंचभागेसु।
पढमं विग्धं दंसणचउसउच्चं च सुहुमंते।।४१।।
पुरुष: चतुस्संज्वलन: क्रमेण अनिवृत्तिपंचभागेषु।
प्रथमं विघ्न: दर्शनचतुर्यशउच्चं च सूक्ष्मान्ते।।४१।।
अर्थ—नवमें अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के पाँच भागों में से क्रम से पहले भाग में पुरुषवेद की व्युच्छित्ति, बाकी के चार भागों में संज्वलन क्रोधादि चार कषायों की व्युच्छित्ति, जानना। और दसवें सूक्ष्मसांपराय (सूक्ष्मलोभकषाय वाले) गुणस्थान के अंत समय में ज्ञानावरण अर्थात् मतिज्ञानावरणादि पाँच, अंतराय के पाँच भेद, चक्षुदर्शनावरणादि चार, यश:स्कीर्ति, और उच्च गोत्र, इस प्रकार १६ प्रकृतियाँ को व्युच्छित्ति होती है।
तेरहवें गुणस्थान में बंध व्युच्छित्ति
उवसंतखीणमोहे जोगिम्हि य समयियट्ठिदी सादं।
णायव्वो पयडीणं बंधस्संतो अणंतो य।।४२।।
उपशान्तक्षीणमोहे योगिनि च समयिकस्थिति: सातम्।
ज्ञातव्य: प्रकृतीनां बंधस्यान्त: अनन्तश्च।।४२।।
अर्थ—उपशांत मोह नाम के ग्यारहवें गुणस्थान में, बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान में, और तेरहवें सयोगकेवली गुणस्थान में, एक समय की स्थिति वाला एक सातावेदनीय प्रकृति का ही बंध होता है, इस कारण तेरहवें गुणस्थान के अंत समय में सातावेदनीय प्रकृति की ही व्युच्छित्ति होती है। और चौदहवें में बंध के कारण-योग का अभाव होने से बंध भी नहीं है तथा व्युच्छित्ति भी नहीं होती। इस प्रकार प्रकृतियों के बंध का अंत अर्थात् व्युच्छित्ति जानना। आगे अनंत अर्थात् बंध और ‘‘च’’ शब्द से अबंध का जो उल्लेख किया है सो उसका स्वरूप भी दो गाथाओं से कहते हैं।
गुणस्थानों में बन्ध योग्य प्रकृतियों की संख्या
सत्तरसेकग्गसयं चउसत्तत्तरि सगट्ठि तेवट्ठी।
बंधा णवट्ठवण्णा दुवीस सत्तारसेकोघे।।४३।।
सप्तदशैकाग्रशतं चतु:सप्तसप्तति: सप्तषष्टि: त्रिषष्ष्टि:।
बंधा नवाष्टपंचाशत् द्वाविंशति: सप्तदश एकौधे।।४३।।
अर्थ—मिथ्यादृष्टि आदिक गुणस्थानों में क्रम से ११७, १०१, ७४, ७७, ६७, ६३, ५९, ५८, २२, १७, १ ,१ ,१ इस प्रकार प्रकृतियों का बंध तेरहवें गुणस्थान तक होता है। चौदहवें में बंध नहीं होता।
भावार्थ—यह है कि बंध योग्य प्रकृतियाँ पहले १२० कहीं हैं। उनमें ‘‘सम्मेव तित्थ’’ इस ९२ वें गाथा के अनुसार मिथ्यादृष्टि में तीन प्रकृतियों का बंध न होने से १२०-३·११७ बाकी रहती हैं। द्वितीयादि गुणस्थानों में भी व्युच्छिन्न प्रकृतियों को घटाने से बंध की संख्या इस गाथा के अनुसार निकल आती है।
गुणस्थानों के अबंध योग्य प्रकृतियों की संख्या
तिय उणवीसं छत्तियतालं तेवण्ण सत्तवण्णं च।
इगिदुगसट्ठी बिरहिय सय तियउणवीससहिय वीससयं।।४४।।
त्रयमेकोनविंशति: षट्त्रिकचत्वारिंशत् त्रिपंचाशत् सप्तपंचाशच्च।
एकद्वाषष्ठि: द्विरहितं शतं त्रयेकोनविंशतिसहितं विंशतिशतम्।।४४।।
अर्थ—मिथ्यादृष्टि आदिक चौदह गुणस्थानों में क्रम से ३, १९, ४६, ४३, ५३, ५७, ६१, ६२, दो रहित सौ अर्थात् ९८, तीनसहित सौ अर्थात् १०३, ११९, तीन जगह-ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें तथा चौदहवें में १२० प्रकृतियों की अबंध है अर्थात् इन ऊपर लिखित प्रकृतियों का बंध नहीं होता अर्थात् पहले गुणस्थान में १. तीर्थंकर, २. आहारक शरीर, ३. आहारक आंगोपांग इन तीन का बंध नियम से नहीं होता और द्वितीयादि गुणस्थानों में व्युच्छित्ति प्रकृतियों को पहली अबंध प्रकृतियों में जोड़ने से ऊपर लिखी हुई संख्या निकल आती है।
मार्गणाओं में बंध व्युच्छित्ति आदि
ओघे वा आदेसे णारयमिच्छम्हि चारि वोच्छिण्ण।
उवरिम वारस सुरचउ सुराउ आहारयमबंधा।।४५।।
ओघे इव आदेशे नारकमिथ्यात्वे चतस्रो व्युच्छिन्ना:।
उपरितना द्वादश सुरचतुष्कं सुरायुराहारकमबंधा:।।४५।।
अर्थ—मार्गणाओं में व्युच्छित्ति वगैरह तीनों अवस्थाएँ गुणस्थान के समान जानना। परन्तु विशेष यह है कि नरकगति मे मिथ्यात्व गुणस्थान क अंत में मिथ्यात्वादि चार प्रकृतियों की ही व्युच्छित्ति होती है। सोलह में से आदि की इन चार प्रकृतियों के बिना बाकी एकेन्द्री आदि बारह और १. देवगति, २. देवगत्यानुपूर्वी, ३. वैक्रियिक शरीर, ४. वैक्रियिक आंगोपांग ये चार तथा देवायु और १. आहारक शरीर, २. आहारक आंगोपांग ये सब उन्नीस प्रकृतियाँ अबंध हैं अर्थात् नरकगति के मिथ्यात्व गुणस्थान में १९ प्रकृतियों का बंध नहीं होता। अतएव बंध योग्य १२० प्रकृतियों में से बाकी १०१ प्रकृतियों का ही वहाँ पर बंध होता है।
नरकगति में बंध व्युच्छित्ति आदि
घम्मे तित्थं बंधदि वंसामेघाण पुण्णगो चेव।
छट्ठोत्ति य मणुवाऊ चरिमे मिच्छेव तिरियाऊ।।४६।।
धर्मे तीर्थं बध्नाति वंशोमेघयो: पूर्वकश्चैव।
षष्ठ इति च मानवायु: चरमे मिथ्यात्वे एव तिर्यगायु:।।४६।।
अर्थ—धर्मा नाम के पहले नरक की पृथिवी में पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों अवस्थाओं में तीर्थंकर प्रकृति का बंध होता है। वंशानाम दूसरे तथा मेघानामक तीसरे नरक में पर्याप्त जीव ही तीर्थंकर प्रकृति को बांधता है। मघवी नामक छट्ठे नरक तक ही मनुष्यायु का बंध होता है और अंत में माघवी नाम सातवें नरक में मिथ्यात्व गुणस्थान में ही तिर्यंच आयु का बंध होता है।
मिस्साविरदे उच्चं मणुवदुगं सत्तमे हवे बंधो।
मिच्छा सासणसम्मा मणुवदुगुच्चं ण बंधंति।।४७।।
मिश्राविरते उच्चं मनुष्यद्वयं सप्तमे भवेत् बंध:।
मिथ्यात्विन: सासादनसम्यक्त्वा मनुष्यद्विकोच्चं न बध्नन्ति।।४७।।
अर्थ—सातवें नरक में मिश्र गुणस्थान और अविरतनाम के चौथे गुणस्थान में ही १. उच्चगोत्र, २. मनुष्यगति, ३. मनुष्यगत्यानुपूर्वी इन तीन प्रकृतियों का बंध है और मिथ्यात्व गुणस्थान वाले तथा सासादन सम्यक्त्वी (दूसरे गुणस्थान वाले) जीव वहाँ पर उच्च गोत्र और मनुष्यद्विक ऊपर कही हुई इन तीनों प्रकृतियों को नहीं बाँधते।
तिर्यंचगति में बंध व्युच्छित्ति
तिरिये ओघो तित्थाहारूणो अविरदे छिदी चउरो।
उवरिमहण्हं च छिदी सासणसम्मे हवे णियमा।।४८।।
तिरश्चि ओघ: तीर्थाहारा न अविरते छित्ति: चत्वार:।
उपरिमषण्णां च छित्ति: सासादनसम्यक्त्वे भवेन्नियमात्।।४८।।
अर्थ—तिर्यंचगति में भी व्युच्छित्ति वगैरह गुणस्थानों की तरह ही समझना। परन्तु इतनी विशेषता है कि १. तीर्थंकर और २. आहारक शरीर तथा ३. आहारक आंगोपांग इन तीनों का बंध नहीं होता और इसी कारण तिर्यंचगति में बंध योग्य प्रकृतियाँ ११७ ही हैं। चौथे अविरत गुणस्थान में अप्रत्याख्यान क्रोधादि ४ की ही व्युच्छित्ति है। चार से आगे की वज्रवृषभनाराच आदि ६ प्रकृतियाँ जो दश में से बाकी बचती हैं उनकी व्युच्छित्ति दूसरे सासादन सम्यक्त्व गुणस्थान में ही नियम से हो जाती हैंं। क्योंकि यहाँ पर तिर्यंच मनुष्यगति संबंधी प्रकृतियों का मिश्रादिक में बंध नहीं होता।
तिर्यंच के पाँच भेद
सामण्णतिरियपंचिंदियपुण्णगजोणिणीसु एमेव।
सुरणिरयाउ अपुण्णे वेगुव्वियछक्कमवि णत्थि।।४९।।
सामान्यतिर्यकूपंचेन्द्रियपूर्णकयोनिनीषु एवमेव।
सुरनिरयायुरपूर्णे वैगूर्विकषट्कमपि नास्ति।।४९।।,
अर्थ—तिर्यंच पाँच तरह के होते हैं :—सामान्य तिर्यंच (सब भेदों का समुदायरूप), पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पर्याप्त तिर्यंच, स्त्रीवेदरूप तिर्यंच और लब्ध्यपर्याप्त तिर्यंच। इनमें से पहले चार तरह के तिर्यंचों में ऊपर लिखित रीति से ही व्यच्छित्ति आदिक समझना। किन्तु पाँचवें लब्धिअपर्याप्तक तिर्यंच में देवायु, नरकायु और वैक्रियकषट्क (१. देवगति, २. देवगत्यानुपूर्वी, ३. नरकगति, ४. नरकगत्यानुपूर्वी, ५. वैक्रियिक शरीर, ६. वैक्रियिक आंगोपांग) इन आठ प्रकृतियों का बंध नहीं होता है।
मनुष्यगति में बंध व्युच्छित्ति आदि
तिरियेव णरे णवरि हु तित्थाहारं च अत्थि एमेव।
सामण्णपुण्णमणुसिणिणरे अपुण्णे अपुण्णेव।।५०।
तिर्यगिव नरे नवरि हि तीर्थाहारं चास्ति एवमेव।
सामान्यपूर्णमानुषीनरे अपूर्णे अपूर्णे इव।।५०।।
अर्थ — मनुष्य गति में व्युच्छित्ति वगैरह की रचना तिर्यंचगति की ही तरह जानना। विशेषता इतनी है कि यहाँ पर तीर्थंकर और आहारकद्विक इन तीनों का भी बंध होता है। इसी कारण यहाँ पर बंध योग्य प्रकृतियाँ १२० हैं और सामान्य (सब भेदों का समुदायरूप) मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य, स्त्री वेद रूप मनुष्य, इन तीनों की व्युच्छित्ति आदि की रचना तो मनुष्य गति की सी ही है। किन्तु लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य की रचना तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तक की तरह समझना ।
देवगति में बंध व्युच्छित्ति आदि
णिरयेव होदि देवे आईसाणोत्ति सत्त वाम छिदी।
सोलस चेव अबंधा भवणतिए णत्थि तित्थयरं।।५१।।
निरय इव भवति देवे आ ईशान इति सप्त वामे छित्ति:।
षोडश चैव अबन्धा: भवनत्रये नास्ति तीर्थकरम्।।५१।।
अर्थ—देवगति में व्युच्छित्ति आदिक नरकगति के समान जानना। परन्तु इनता विशेष है कि मिथ्या दृष्टि गुणस्थान में दूसरे ईशान स्वर्ग तक पहले गुणस्थान की १६ प्रकृतियों में से मिथ्यात्व आदि सात प्रकृतियों की व्युच्छित्ति होती है। बाकी हुई सूक्ष्मादि नौ तथा १ देवगति, २. देवगत्यानुपूर्वी, ३. वैक्रियिक शरीर, ४. वैक्रियिक आंगोपांग, ये सुरचतुष्क तथा देवायु, आहारक शरीर और आहारक आंगोपांग ये तीन मिलाकर सात सब ९±७ मिलाकर १६ प्रकृतियाँ अबंधरूप हैं, अर्थात् इन सोलह का बंध नहीं होता। इसी कारण यहाँ बंध योग्य प्रकृतियाँ १०४ हैं। तथा भवनत्रिक देवों में (भवनवासी १ व्यंतर २ ज्योतिषी देवोें में ३) तीर्थंकर प्रकृति नहीं हैं, तीर्थंकर प्रकृति का बंध नहीं होता।
कप्पित्थीसु ण तित्थं सदरसहस्सारगोत्ति तिरियदुगं।
तिरियाऊ उज्जोवो अत्थि तदो णत्थि सदरचऊ।।५२।।
कल्पस्त्रीषु न तीर्थ शतारसहस्रारक इति तिर्यग्द्विकम्।
तिर्यगायुरूद्योत: अस्ति तत: नास्ति शतारचतुष्कम्।।५२।।
अर्थ—कल्पवासिनी स्त्रियों में तीर्थंकर प्रकृति का बंध नहीं होता और तिर्यंचगति १ तिर्यंचगत्यानुपूर्वी २ ये दो, और तिर्यंचायु तथा उद्योत, इन चार प्रकृतियों का बंध ग्यारहवें, बारहवें-शतार सहस्रार नाम के स्वर्ग तक ही होता है। इसके ऊपर आनतादि स्वर्गों में रहने वालों के इन चार प्रकृतियों का बंध नहीं होता। इन चार प्रकृतियों का दूसरा नाम ‘शतारचतुष्क’ भी है, क्योंकि शतार युगल तक ही इनका बंध होता है।
इंद्रियमार्गणा में व्युच्छित्ति आदि
पुण्णिदरं विगिविगले तत्थुप्पण्णो हु सासणो देहे।
पज्जत्तिं णवि पावदि इदि णरतिरियाउगं णत्थि।।५३।।
पूर्णेतरमिबैकविकले तत्रोत्पन्नो हि सासादनो देहे।
पर्याप्ति नापि प्राप्नोति इति नरतिर्यगायुष्कं नास्ति।।५३।।
अर्थ—एकेन्द्रिय तथा विकलत्रय अर्थात् दो इंद्री, ते इंद्री, चौ इंद्री में लब्धिअपर्याप्क अवस्था की तरह बंध योग्य १०९ प्रकृतियॉ समझना, क्योंकि तीर्थंकर, आहारकद्वय, देवायु, नरकायु और वैक्रियिक षट्क इस तरह ग्यारह प्रकृतियों का बंध नहीं होता। तथा एकेन्द्रिय और विकलत्रय में गुणस्थान आदि के दो-मिथ्यादृष्टि और सासादन ही होते हैं। इनमें से पहले गुणस्थान में बंधव्युच्छित्ति १५ प्रकृतियों की होती हैं। इनमें से पहले गुणस्थान में १६ प्रकृतियों के बंध की व्युच्छित्ति कहीं हैै। परन्तु यहाँ पर उनमें से नरकद्विक और नरक आयु छूट जाती है तथा मनुष्य आयु और तिर्यंच आयु बढ़ जाती है। इससे १५ की ही व्युच्छित्ति होती है। मनुष्य आयु और तिर्यंच आयु की बंधव्युच्छित्ति प्रथम गुणस्थान में ही क्यों कही? तो इसका कारण है कि एकेन्द्रिय तथा विकलत्रय में उत्पन्न हुआ जीव सासादन गुणस्थान में देह (शरीर) पर्याप्ति को पूरा नहीं कर सकता है, क्योंकि सासादन का काल थोड़ा और निर्वृत्ति अपर्याप्त अवस्था का काल बहुत है। इसी कारण सासादन गुणस्थान में मनुष्यायु तथा तिर्यंचायु का भी बंध नहीं होता है, प्रथम गुणस्थान में ही बंध और व्युच्छित्ति होती है।
पंंचेन्द्रियों में व कायमार्गणा में बंध व्युच्छित्ति
पचेन्द्रियेसु ओघं एयक्खे वा वणप्फदीयंते।
मणुवदुगं मणुवाऊ उच्चं व हि तेउवाउम्हि।।५४।।
पंचेन्द्रियेषु ओघ: एकाक्ष इव वनस्पत्यन्ते।
मनुष्यद्वयं मनुष्यायुरुच्चं न हि तेजोवायौ।।५४।।
अर्थ—पंचेन्द्री जीवों के व्युच्छित्ति आदिक गुणस्थान की तरह समझना, कुछ विशेषता नहीं है और कार्यमार्गणा में पृथ्वीकायादि वनस्पतिकार्यपर्यंत में एकेन्द्रिय की तरह, व्युच्छित्ति आदिक जानना। विशेष यह है कि तेजकाय तथा वायुकाय में
१. मनुष्य गति,
२. मनुष्य गत्यानुपूर्वी,
३. मनुष्यायु और
४. उच्च गोत्र
इन चार प्रकृतियों का बंध नहीं होता है और गुणस्थान एक मिथ्यादृष्टि ही है।
कार्यमार्गणा में एवं योगमार्गणा में व्युच्छित्ति
ण हि सासणो अपुण्णे साहारणसुहुमगे य तेउदुगे।
ओघं तस मणवयणे ओराले मणुवगइभंगो।।५५।।
न हि सासादनं अपूर्णे साधारणसूक्ष्मके च तैजोद्वये।
ओघ: त्रसे मनोवचने औराले मनुष्यगतिभंग:।।५५।।
अर्थ—लब्धि अपर्याप्तक अवस्था में, साधारण शरीर सहित जीवों में, सब सूक्ष्मकायवालों में और
१. तेजोकाय,
२. वायुकायवालों में सासादननामा दूसरा गुणस्थान नहीं होता।
इसका कारण कालका थोड़ा होना है सो पहले कह चुके हैं। इसलिये तेजोकाय तथा वायुकायवालों के एक मिथ्यादृष्टि ही गुणस्थान समझना और त्रसकाय की रचना गुणस्थानों की तरह समझनी चाहिए। योगमार्गणा में मनोयोग तथा वचनयोग की रचना गुणस्थानों की तरह जाननी चाहिए और औदारिक काययोग में मनुष्यगति की तरह रचना जानना।
ओराले वा मिस्से ण सुरणिरयाउहारणिरयदुगं।
मिच्छदुगे देवचओ तित्थं ण हि अविरदे अत्थि।।५६।।
ओराल इव मिश्रे न हि सुरनिरयायुराहारनिरयद्वदम्।
मिथ्यात्वद्वये देवचतुष्कं तीर्थ न हि अविरते अस्ति।।५६।।
अर्थ—औदारिकमिश्रकाययोग में औदारिककाययोगवत् रचना जानना। विशेष बात यह है कि
१. देवायु,
२. नरकायु,
३. आहारक शरीर,
४. आहारक आंगोपांग,
५. नरकगति,
६. नरकगत्यानुपूर्वी इन छह प्रकृतियों का बंध नहीं होता अर्थात् यहाँ पर ११४ का ही बंध होता है।
उसमें भी मिथ्यात्व तथा सासादन इन दो गुणस्थानों में देवचतुष्क और तीर्थंकर इन ५ प्रकृतियों का बंध नहीं होता किन्तु अविरतनामा चौथे गुणस्थान में इनका बंध होता है।
पण्णारसमुनतीसं मिच्छदुगे अविरदे छिदि चउरो।
उवरिमपणसट्ठीवि य एक्कं सादं सजोगिम्हि।।५७।।
पंचदशैकोनत्रिंशत् मिथ्यात्वद्विके अविरते छित्तय: चतस्र:।
उपरिमपंचषष्टिरपि च एकं सातं सयोगिनि।।५७।।
अर्थ—औदारिकमिश्रकाययोग में मिथ्यात्व और सासादन इन दो गुणस्थानों में १५ तथा २९ प्रकृतियों की बन्ध व्युच्छित्ति क्रम से जानना और चौथे अविरत गुणस्थान में ऊपर की चार तथा ६५ दूसरी सब ६९ प्रकृतियों की व्युच्छित्ति होती है तथा तेरहवें सयोगी केवली के एक सातावेदनीय की ही व्युच्छित्ति जानना।
देवे वा वेगुव्वे मिस्से णरतिरियआउगं णत्थि।
छट्ठगुणंवाहारे तम्मिस्से णत्थि देवाऊ।।५८।।
देव इब वैगूर्वे मिश्रे नरतिर्यंगायुष्कं नास्ति।
षष्ठगुणमिवाहारे तन्मिश्रे नास्ति नास्ति देवायु:।।५८।।
अर्थ—वैक्रियिक काययोग में देवगति के समान जानना और वैक्रियिक मिश्रकाययोग में सौधर्म-ऐशान संबंधी अपर्याप्त देवों के समान व्युच्छित्ति कही है परन्तु इस मिश्र में मनुष्यायु और तिर्यंचायु का बंध नहीं होता और आहारक काययोग में छठे गुणस्थान के समान रचना जानना। लेकिन आहारकमिश्रयोग में देवायु का बंध होता है।
कर्मणयोग में एवं वेदमार्गणा में व्युच्छित्ति आदि
कम्मे उरालमिस्सं वा णाउदुगंपि णव छिदी अयदे।
वेदादाहारोत्ति य सगुणट्ठाणाणमोघं तु।।५९।।
कम्र्मणि औरालिकमिश्रमिव नायुद्विकमपि नव छित्तिरयते।
वेदादाहार इति च स्वगुणस्थानानामोघस्तु।।५९।।
अर्थ—कार्माण काययोगी की रचना औदारिकमिश्र की तरह जानना परन्तु विग्रहगति में आयु का बंध न होने से मनुष्यायु तथा तिर्यंचायु इन दोनों का भी बंध नहीं होता, चौथे असंयत गुणस्थान में नौ प्रकृतियों व्युच्छित्ति होती है, इनती विशेषता है। वेदमार्गणा से लेकर आहार मार्गणा तक जैसा साधारण कथन गुणस्थान में है वेसा ही जानना।
सम्यक्त्व, लेश्या एवं आहारमार्गणा की विशेषता
णवरि य सव्वुवसम्मे णरसुरआऊणि णत्थि णियमेण।
मिच्छस्संतिम णवयं वारं ण हि तेउपम्मेसु।।६०।।
नवरि च सर्वोपशमे नरसुरायुषी नास्ति नियमेन।
मिथ्यात्वस्यान्तिमं नवक द्वादश न हि तेज पद्मयो:।।६०।।
सुक्के सदरचउक्कं वामंतिमबारसं च ण व अत्थि।
कम्मेव अणाहारे बंधस्संतो अणंतो य।।६१।।
शुक्लायां शतारचतुष्कं वामान्तिमद्वादश च न व अस्ति।
कम्र्म इव अनाहारे बंधस्यान्त अनंतश्च।।६१।। युग्मं
अर्थ—विशेषता यह है कि सम्यक्त्वमार्गणा में निश्चित कर सब ही अर्थात् दोनों ही उपशमसम्यक्त्वी जीवों के मनुष्यायु और देवायु का बंध नहीं होता और लेश्यामार्गणा में तेजोलेश्या वाले के मिथ्यात्व गुणस्थान की अंत की नौ तथा पद्मलेश्या वाले के मिथ्यात्व गुणस्थान की अंत की बारह प्रकृतियों का बंध नियम से नहीं होता। शुक्लेश्या वाले के शतार चतुष्क (तिर्यंचगति वगैरह जो ५२ वी गाथा में कह चुके हैं) और वाम अर्थात् मिथ्यादृष्टि गुणस्थान के अंत की बारह सब मिलकर १६ प्रकृतियों का बंध नहीं होता है और आहारमार्गणा में अनाहारक अवस्था में कार्माण योग की सी बन्धव्युच्छित्ति आदिक तीनों की रचना समझ लेना।
इस प्रकार बंध की व्युच्छित्ति, बंध और ‘‘च’’ शब्द से अबंध इन तीनों का स्वरूप जानना।
विशेष—
आगे मूलप्रकृतियों के सादि, अनादि, ध्रुव, अधु्रव बंध भेदों को विशेषपने से कहते हैं :—
छह कर्मों का प्रकृति बंध १. सादि, २. अनादि, ३. ध्रुव, ४. अधु्रव रूप चारों प्रकार का होता है परन्तु तीसरे वेदनीय कर्म का बंध तीन प्रकार का होता है, सादि बंध नहीं होता और आयुकर्म का अनादि तथा धु्रव बंध के सिवाय दो प्रकार का अर्थात् सादि और अध्रुव की बंध होता है।
आगे इन बंधों का स्वरूप कहते हैं :—
जिस कर्म के बंध का अभाव होकर फिर वही कर्म बंध हो उसे आदि बंध कहते हैं। जैसे किसी जीव के दसवें गुणस्थान तक ज्ञानावरण को पाँच प्रकृतियो का बंध था, जब वह जीव ग्यारहवें में गया तब बंध का अभाव हुआ, पीछे ग्यारहवें गुणस्थान में पड़कर फिर दसवें में आया तब ज्ञानावरणी पाँच प्रकृतियों का पुन: बंध हुआ, ऐसा बंध सादि कहलाता है और जो गुणस्थानों को श्रेणी पर ऊपर को नहीं चढ़ा अर्थात् जिसके बंध का अभाव नहीं हुआ वह अनादि बंध है। जैसे दसवें तक ज्ञानावरण का बंध। दसवें गुणस्थान वाला ग्यारहवें में जब तक प्राप्त नहीं हुआ वहाँ तक ज्ञानावरण का अनादि बंध है, क्योंकि वहाँ तक अनादिकाल से उसका बंध चला जाता है। जिस बंध का आदि तथा अंत न हो वह ध्रुव बंध है—यह बंध अभव्यजीव के होता है। जिस बंध का अंत आ जावे उसे अध्रुव बंध कहते हैं। यह ध्रुव व बंध भव्यजीवों के होता है।
उत्तर प्रकृतियों में सादि, अनादि, धु्रव, अध्रुव बंध कौन-कौन हैं?
घादितिमिच्छकसाया भयतेजगुरुदुगणिमिणवण्णचओ।
सत्तेतालधुवाणं चदुधा सेसाणयं तु दुधा।।६२।।
घातित्रिमिथ्यात्वकषाया भयतेजो गुरुद्विकिनिर्माणवर्णचतुष्कम्।
सप्तचत्वारिंशद्धवाणां चतुर्धा शेषाणां तु द्विधा।।६२।।
अर्थ — मोहनीय के सिवा ३ घातियाकर्मों की १९ प्रकृतियाँ और मिथ्यात्व तथा १६ कषाय एवं भय तैजस और अगुरुलघु का जोड़ा अर्थात् भय, जुगुप्सा, तैजस १, कार्माण २, अगुरुलघु १, उपघात २ तथा निर्माण और वर्णादि चार ये ४७ प्रकृतियाँ ध्रुव हैं। इनका चारों प्रकार का बंध होता है। जब तक इनके बंध की व्युच्छित्ति (बिछुड़ना) न हो तब तक इन प्रकृतियों का प्रति समय निरंतर बंध होता ही रहता है, इस कारण इनको ध्रुव कहते हैं। इनके बिना जो बाकी बचीं वेदनीय की २ मोहनीय की ७, आयु की ४ और नाम कर्म की गति आदि ५८ तथा गोत्र कर्म की २ ये ७३ प्रकृतियाँ के अध्रुव हैंं। इनके सादि और अध्रुव दो ही बंध होते हैं। इनका किसी समय बंध होता है और किसी समय का बंध नहीं भी होता।
अप्रतिपक्षी-सप्रतिपक्षी प्रकृतियाँ
सेसे तित्थाहारं परघादचउक्क सव्वआऊणि।
अप्पडिव्क्खा सेसा सप्पडिक्क्खा हु बासट्ठी।।६३।।
शेषासु तीर्थाहारं परघातचतुष्कं सर्वायूंषि।
अप्रतिपक्षा: शेषा: सप्रतिपक्षा हि द्वाषष्टि:।।६३।।
अर्थ — पहले कहीं हुई ४७ धु्रव प्रकृतियों से बाकी बची हुई ७३ प्रकृतियों में से तीर्थंकर, आहारकशरीरद्वय अर्थात् आहारकशरीर आहारक आंगोपांग, परघात आदि चार और चारों आयु, ये ग्यारह प्रकृतियों अप्रतिपक्षी हैं अर्थात् इनकी कोई प्रकृति विरोधी नहीं है। जिस समय में इनका बंध होता है उस समय में वह होता ही है। यदि न होवे तो नहीं ही होता। जैसे तीर्थंकर प्रकृति का बंध जिस समय होना चाहे उस समय उसका बंध होगा ही, न होना चाहे तब नहीं होगा। इस प्रकृति की कोई विरोधी प्रकृति नहीं जो कि इसके बंध को रोक लेवे।
'भावार्थ'—जिन प्रकृतियों के बंध होने को कोई भी दूसरी प्रकृति का बंध रोक न सके उनको अप्रतिपक्षी कहते हैं। ७३ में से ११ घट जाने पर बाकी रहीं ६२ प्रकृतियां उनमें आपस में विरोधीपना होने से सप्रतिपक्षी कही जाती हैं। जैसे कि सातावेदनीय, असातावेदनीय ये दोनों आपस में प्रतिपक्षी हैं। सो जिस समय साता का बंध होता है उस समय असाता का नहीं होता और जब असाता का बंध होता है तब साता का नहीं होतां इसी तरह रति अरति सभी परस्पर विरोधी प्रकृतियों में सप्रतिपक्षीपना समझ लेना।
उत्कृष्ट स्थिति बंध के कारण
सव्वट्ठिदीणमुक्कस्सओ दु उक्कस्ससंकिलेसेण।
विवरीदेण जहण्णो आउगतियवविज्जयाणं तु।।६४।।
सर्वस्थितीनामुत्कृष्टकस्तु उत्कृष्टसंक्लेशेन।
विपरीतेन जघन्य आयुष्कत्रयवर्जितानां तु।।६४।।
अर्थ — तीन आयु वर्ग अर्थात् तिर्यंच-मनुष्य-देवायु के बिना अन्य सब ११७ प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थिति बन्ध यथासंभव उत्कृष्ट संक्लेश (कषाय सहित) परिणामों से होता है और जघन्यस्थिति बंध विपरीत परिणामों से अर्थात् संक्लेश से उलटे-उत्कृष्ट विशुद्ध परिणामों से होता है। तीन आयु प्रकृतियों का इससे विपरीत अर्थात् उत्कृष्ट विशुद्धपरिणामों से उत्कृष्ट स्थिति बंध होता है तथा जघन्यस्थिति बंध उत्कृष्ट संक्लेश परिणामों से होता है।
उत्कृष्ट स्थिति बंध के स्वामी
सव्वुक्कस्सठिदीणं मिच्छाइट्ठी दु बंधगो भणिदो।
आहारं तित्थयरं देवाउं वा विमोत्तूर्ण।।६५।।
सर्वोत्कृष्टस्थितीनां मिथ्यादृष्टिस्तु बंधको भणित:।
आहारं तीर्थंकर देवायुषं वा विमुच्य।।६५।।
अर्थ—आहाकरद्विक, तीर्थंकर और देवायु इन चार प्रकृतियों के सिवाय बाकी ११६ प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थितियों का मिथ्यादृष्टि जीव ही बांधने वाला होता है। इस कथन से यह बात सिद्ध हुई कि इन आहारकादि चार प्रकृतियों की उत्कृष्टस्थिति का बंध सम्यग्दृष्टि के ही होता है।
चार प्रकृति के उत्कृष्ट स्थिति बंध के स्वामी
देवाउगं पमत्तो आहारयमप्पमत्तविरदो दु।
तित्थयरं च मणुस्सो अविरदसम्मो समज्जेई।।६६।।
देवायुषं प्रमत्त आहारकमप्रमत्तविरतस्तु।
तीर्थंकरं च मनुष्य: अविरतसम्यक् समर्जयति।।६६।।
अर्थ — देवायु की उत्कृष्ट स्थिति को छट्ठे प्रमत्त गुणस्थान वाला बांधता है। आहारक को अर्थात् १. आहार शरीर, २. आहारक आंगोपांग इन दोनों की उत्कृष्ट स्थिति सातवें अप्रमत्त गुणस्थान वाला बांधता है और उत्कृष्ट स्थिति वाली तीर्थंकर प्रकृति को चौथे गुणस्थान वाला असंयमी सम्यग्दृष्टि मनुष्य की उपार्जन करता है अर्थात् बांधता है।
मूल प्रकृतियों का जघन्य स्थिति बंध
बारस य वेयणीये णामे गोदे य अट्ठय मुहुत्ता।
भिण्णमुहुत्तं तु ठिदी जहण्णयं सेसपचण्हं।।६७।।
द्वादश च वेदनीये नाम्नि गोत्रे च अष्ट च मुहूर्ता:।
भिन्नमुहूर्तस्तु स्थिति: जघन्या शेषपंचानाम्।।६७।।
अर्थ—वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति १२ मुहूर्त है और नाम तथा गोत्र कर्म इन दोनों की आठ मुहूर्त है तथा बाकी बजे पाँच कर्मों की जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त है।
अशुभ स्थिति बंध
सव्वाओ दु ठिदीओ सुहासुहाणंपि होंति असुहाओ।
माणुसतिरिक्खदेवाउगं च मोत्तूण सेसाणं।।६८।।
सर्वास्तु स्थितय: शुभाशुभानामपि भवन्ति अशुभा:।
मनुष्यतिर्यग्देवायुष्कं च मुक्तवा शेषाणाम्।।६८।।
अर्थ—मनुष्य, तिर्यंच, देवायु के सिवाय बाकी सब शुभ तथा अशुभ प्रकृतियों की स्थितियाँ अशुभ रूप ही हैं, क्योंकि संसार का कारण है इसीलिए इन प्रकृतियों को बहुत कषायी जीव ही उत्कृष्ट स्थिति के साथ बांधता है।
आबाधा का लक्षण
कम्मसरूवेणागयदव्वं ण य एदि उदयरूवेण।
रूवेणुदीरणस्स व आबाहा जाव ताव हवे।।६९।।
कर्मस्वरूपेणागतद्रव्य न च एति उदयरूपेण।
रूपेणोदीरणाया वा आबाधा यावत्तावद्भवेत्।।६९।।
अर्थ—कार्माण शरीरनामा नामकर्म के उदय से योग द्वारा आत्मा के कर्म स्वरूप से परिणमता हुआ जो पुद्गल द्रव्य वह जब तक उदय स्वरूप (फल देने स्वरूप) अथवा उदीरणा (बिना समय के कर्म का पाक होना) स्वरूप न हो तब तक के उस काल को आबाधा कहते हैं।
उदय की अपेक्षा आबाधा कितनी हैं?
उदयं पडि सत्तण्हं आबाहा कोडकोडि उवहीणं।
वाससयं तप्पडिभागेणय सेसट्ठिदीण च।।७०।।
उदयं प्रति सप्तानामाबाधा कोटीकोटि: उदधीनाम्।
वर्षशतं तत्प्रतिभागेन च शेषस्थितीनां च।।७०।।
अर्थ—एक कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थिति की आबाधा सौ वर्ष प्रमाण जानना और बाकी स्थितियों की आबाधा इसी के अनुसार त्रैराशिक विधि से भाग देने पर जो-जो प्रमाण आवे उतनी-उतनी जानना। यह क्रम आयुकर्म के सिवाय सात कर्मों की आबाधा के लिए उदय की अपेक्षा से है।
अंत:कोटाकोटीसागर प्रमाण स्थिति की आबाधा
अंतोकोडाकोडिट्ठिदिस्स अंतोमुहुत्तमाबाहा।
संखेज्जगुणविहीण सव्वजहण्णट्ठिदिस्स हवे।।७१।।
अंत:कोटीकोटि स्थिते: अंतर्मुहूर्त आबाधा।
संख्यातगुणविहीन: सर्वजघन्यस्थिते: भवेत्।।७१।।
अर्थ—अंत: कोड़ाकोड़ी सागर स्थिति की अंतर्मुहूर्त आबाधा है और सब जघन्य स्थितिओं की उससे संख्यात गुणी कम (संख्यातें भाग) आबाधा होती है।
आयुकर्म की आबाधा
पुव्वाणं कोडितिभा—गादासंखेअद्धवोत्ति हवे।
आउस्स व आबाहा ण ट्ठिदिपडिभागमाउस्स।।७२।।
पूर्वाणां कोटित्रिभागादासंक्षेपाद्धा वा इति भवेत्।
आयुषश्च आबाधा न स्थितिप्रतिभाग आयुष:।।७२।।
अर्थ—आयु कर्म की आबाधा कोड़पूर्व के तीसरे भाग से लेकर असंक्षेपाद्धा प्रमाण अर्थात् जिससे थोड़ा काल कोई न हो ऐसे आवली के असंख्यातवें भाग प्रमाण तक है। आयुकर्म की आबाधा स्थिति के अनुसार भाग की हुई नहीं है अर्थात् जैसे अन्य कर्मों में स्थिति के अनुसार भाग करने से आबाधा का प्रमाण होता है, इस तरह इस आयुकर्म में नहीं हैं।
उदीरणा की अपेक्षा आबाधा
आवलियं आबाहा उदीरणमासिज्ज सत्तकम्माणं।
परमभवियआउग्गस्स य उदीरणा णत्थि णियमेण।।७३।।
आवलिकमाबाधा उदीरणामाश्रित्य सप्तकर्मणाम्।
परभवीयायुष्कस्य च उदीरणा नास्ति नियमेन।।७३।।
अर्थ—सात कर्मों की आबाधा उदीरणा की अपेक्षा से एक आवली मात्र है और परभव की आयु जो बांध जी है उसकी उदीरणा निश्चित कर नहीं हो तो अर्थात् वर्तमान आयु की उदीरणा तो हो सकती है, परन्तु आगामी आयु की नहीं होती।
कर्मों क निषेक का स्वरूप
आबाहूणियकम्मट्ठिदी णिसेगो दु सत्तकम्माणं।
आउस्स णिसेगो पुण सगट्ठिदी होदि णियमेण।।७४।।
आबाधोनितकर्मस्थिति: निषेकस्तु सप्तकर्मणाम्।
आयुष: निषेक: पुन: स्वकस्थिति: भवति नियमेन।।७४
अर्थ—अपनी-अपनी कर्मों की स्थिति में आबाधा का काल घटाने से जो काल शेष रहे उसके समयों के प्रमाण सात कर्मों के निषेक (समय-समय में जो कर्म खरें उनके समूह रूप निषेक) जानना और आयुकर्म का निषेक अपनी-अपनी स्थिति प्रमाण है, ऐसा निमय से समझना।
उत्कृष्ट और जघन्य अनुभाग बंध के कारण
सुहपयडीण विसोही तिव्वो असुहाण सकिलेसेण।
विवरीदेण जहण्णो अणुभागो सव्वपयडीणं।।७५।।
शुभप्रकृतीनां विशुद्धया तीव्र, अशुभानां संक्लेशेन।
विपरीतेन जघन्य अनुभाग: सर्वप्रकृतीनाम्।।७५।।
अर्थ—सातावेदनीयादिक शुभ (पुण्य) प्रकृतियों का अनुभाग बंध विशुद्ध परिणामों से उत्कृष्ट होता है। असातावेदनीय आदि अशुभ प्रकृतियों का अनुभाग बंध क्लेशरूप परिणामों के उत्कृष्ट होता है और विपरीत परिणामों से जघन्य अनुभाग बंध होता है अर्थात् शुभ प्रकृतियों का संक्लेश (तीव्र कषायरूप) परिणामों से और अशुभ प्रकृतियों का विशुद्ध (मंद कषायरूप) परिणामों से जघन्य अनुभाग बंध होता है। इस प्रकार सब प्रकृतियों का अनुभाग बंध जानना।
तीव्र अनुभाग बंध के स्वामी
बादाल तु पसत्था विसोहिगुणमुक्कडस्स तिव्वाओ।
बासीदि अप्पसत्था मिच्छुक्कडसंकिलिट्ठस्स।।७६।।
द्वाचत्वारिंशत्तु प्रशस्ता विशुद्धिगुणोत्कटस्य तीव्रा:।
द्वयशीति: अप्रशस्ता मिथ्योत्कटसंक्लिष्टस्य।।७६।।
अर्थ—पहले कही गई जो ४२ पुण्य प्रकृतियाँ हैं उनका उत्कृष्ट अनुभाग बंध विशुद्धता रूप गुण की उत्कृष्टता वाले जीव के होता है और असातादिक ८२ अशुभ प्रकृतियाँ उत्कृष्ट संक्लेश रूप परिणाम वाले मिथ्यादृष्टि जीव के तीव्र (उत्कृष्ट) अनुभाग लेकर बंधती हैं।
घातिया कर्मों में अनुभाग लता आदि रूप
सत्ती य लदादारूअट्ठीसेलोवमाहु घादीणं।
दारूअणंतिमभागोत्ति देसघाती तदो सव्वं।।७७।।
शक्तिश्च लतादारूअस्थिशैलोपमा आहु: घातिनाम्।
दार्वनन्तिमभाग इति देशघाति तत: सर्वम्।।७७।।
अर्थ—घातिया कर्मों का फल देने की शक्ति (स्पद्र्धक) लता (बेलि), काठ, हड्डी और पत्थर के समान समझना अर्थात् इनमें जैसा क्रम से अधिक-अधिक कठोरपना है वैसा ही अनुभाग में भी समझना तथा दारू भाग के अनंतवें भाग तक शक्ति रूप स्पद्र्धक देशघाती हैं और शेष बहुभाग से लेकर शैल भाग तक के स्पद्र्धक सर्वघाती हैं अर्थात् इनके उदय होने पर आत्मा के गुण प्रगट नहीं होते।
घातिया-अघातिया में पुण्य-पाप
अवसेसा पयडीओ अघादिया घादियाण पडिभागा।
ता एव पुण्णपावा सेसा पावा मुणेयव्वा।।७८।।
अवशेषा: प्रकृतय: अघातिया घातिकानां प्रतिभागा:।
ता एव पुण्यपापा: शेषा: पापा मन्तव्या:।।७८।।
अर्थ—शेष अघातिया कर्मों की प्रकृतियाँ घातिया कर्मों की तरह प्रतिभाग सहित जाननी। अर्थात् तीन भावरूप परिणमती हैं और वे ही पुण्य रूप तथा पाप रूप होती हैं तथा बाकी बची घातिया कर्मों की सब प्रकृतियाँ पाप रूप ही हैंं।
प्रशस्त-अप्रशस्त की शक्तियाँ
गुडखंडसक्करामियसरिसा सत्था हु णिंबकंजीरा।
विसहालाहलसरिसा सत्था हु अघादिपडिभागा।।७९।।
गुडखण्डशर्करामृतसदृशा: शस्ता हि निम्बकांजीरा:।
विषहालाहल सदृशा अशस्ता हि अघातियाप्रतिभागा:।।७९।।
अर्थ—अघातिया कर्मों में प्रशस्त प्रकृतियों के शक्ति भेद गुड़, खांड, मिश्री और अमृत के समान जानने। और अप्रशस्त प्रकृतियों के नींव, कांजीर, विष, हालाहल के समान शक्ति भेद (स्पद्र्धक) जानना। अर्थात् सांसारिक सुख-दु:ख के कारण दोनों ही पुण्य पाप कर्मों की शक्तियों को चार-चार तरह का तरतम रूप में समझना।
प्रदेश बंध का स्वरूप
एयक्खेत्तोगाढं सव्वपदेसेहिं कम्मणो जीग्गं।
बंधदि सगहेदूहिं य अणादियं सादियं उभयं।।८०।।
एकक्षेत्रावगाढं सर्वप्रदेशै: कर्मणो योग्यम्।
बध्नाति स्वकहेतुभिश्च अनादिकं सादिकमुभयम्।।८०।।
अर्थ—जघन्य अवगाहना रूप एक क्षेत्र में स्थित और कर्मरूप परिणमेन के योग्य अनादि अथवा सादि अथवा दोनों स्वरूप जो पुद्गलद्रव्य है उसको यह जीव अपने सब प्रदेशों से मिथ्यात्वादिक के निमित्त से बांधता है। अर्थात् कर्मरूप पुद्गलों का आत्मा के प्रदेशों के साथ संबंध होना प्रदेश बंध है। यहाँ पर सूक्ष्मनिगोद जीव की घनांगुल के असंख्यातवें भाग अवगाहना (जगह) को एक क्षेत्र जानना।
समयप्रबद्ध का लक्षण
सयलरसरूवगंधेहिं परिणदं चरमचदुहिं फासेहिं।
सिद्धादो भव्वादो णंतिमभागं गुणं दव्वं।।८१।।
सकलरसरूपगन्धै: परिणतं चरमचतुर्भि: स्पर्शै:।
सिद्धादभव्यादनन्तिमभागं गुणं द्रव्यम्।।८१।।
अर्थ—वह समय प्रबद्ध, सब अर्थात् पाँच प्रकार रस, पाँच प्रकार वर्ण, दो प्रकार बंध तथा शीतादि चार अंत के स्पर्श, इन गुणों कर सहित परिणमता हुआ, सिद्धराशि के अनंतवें भाग अथवा अभव्य राशि से अनंतगुण कर्म रूप पुद्गल द्रव्य जानना।
मूलप्रकृतियों में समयप्रबद्ध का बटवारा
आउगभागो थोवो णामागोदे समो तदो अहियो।
घादितियेवि य तत्तो मोहे तत्तो तदो तदिये।।८२।।
आयुष्कभाग: स्तोक: नामगोत्रे सम: तत: अधिक:।
घातित्रयेपि च तत: मोहे तत: ततस् तृतीये।।८२।।
अर्थ—सब मूल प्रकृतियों में आयु कर्म का हिस्सा थोड़ा है। नाम और गोत्र कर्म का हिस्सा आपस में समान है, तो भी आयु कर्म के बाँट से अधिक है। अंतराय-दर्शनावरण-ज्ञानावरण इन तीन घातिया कर्मों का भाग आपस में समान है, तो भी नाम गोत्र के भाग से अधिक है। इससे अधिक मोहनीय कर्म का भाग है। तथा मोहनीय से भी अधिक वेदनीय कर्म का भाग है। जहाँ जितने कर्मों का बंध हो वहाँ उतने ही कर्मों का बाँट कर लेना।
वेदनीय को अधिक हिस्सा क्यों?
सुहदुक्खणिमित्तादो बहुणिज्जरगोत्ति वेयणीयस्स।
सव्वेहिंतो बहुगं दव्वं होदित्ति णिद्दिट्ठं।।८३।।
सुखदु:खनिमित्तात् बहुनिर्जरक इति वेदनीयस्य।
सर्वेभ्य: बहुकं द्रव्यं भवतीति निर्दिष्टम्।।८३।।
अर्थ—वेदनीय कर्म सुख-दु:ख का कारण है, इसलिए इसकी निर्जरा भी बहुत होती है। इसी वास्ते सब कर्मों से बहुत द्रव्य इस वेदनीय का ही जिनेन्द्र भगवान ने कहा है।
शेष प्रकृतियों का बटवारा
सेसाणं पयडीणं ठिदिपदिभागेण होदि दव्वं तु।
आवलिअसंखभागो पडिभागो होदि णियमेण।।८४।।
शेषाणां प्रकृतीनां स्थितिप्रतिभागेन भवति द्रव्यं तु।
आवल्यसंख्यभाग: प्रतिभागो भवति नियमेन।।८४।।
अर्थ—वेदनीय के सिवाय वाकी सब मूल प्रकृतियों के द्रव्य का स्थिति के अनुसार बटवारा होता है। जिसकी स्थिति अधिक है उसका अधिक, कम को कम तथा समान वाले को समान द्रव्य हिस्सा में आता है ऐसा जानना और इनके बाँट करने में प्रतिभाग हार नियम से आवलि के असंख्यातवें भाग प्रमाण समझना।
विभाग का क्रम
बहुभागे समभागो अट्ठण्हं होदि एक्कभागम्हि।
उत्तकमो तत्थवि बहुभागो बहुगस्स देओ दु।।८५।।
बहुभागे समभाग: अष्टानां भवति एकभागे।
उक्तक्रम: तत्रापि बहुभागो बहुकस्य देयस्तु।।८५।।
अर्थ—बहुभाग का समान भाग करके आठ प्रकृतियों को देना और बचे हुए एक भाग में पहले कहे हुए क्रम से आवली के असंख्यातवें भाग का भाग देते जाना उसमें भी जो बहुत द्रव्य वाला हो उकसो बहुभाग देना ऐसा अंत तक प्रतिभाग (भाग में से भाग) करते जाना।
भावार्थ—कार्माण समय प्रबद्ध के द्रव्य प्रमाण में आवली के असंख्यातवें भाग का भाग देना। उसमें एक भाग को पृथक रखकर, बहुभाग के आठ समान भाग करना और यह एक-एक भाग आठ मूल प्रकृतियों को देना। शेष भाग में आवली के असंख्यातवें भाग का भाग देना उसमें भी एक भाग को जुदा रखकर शेभ बहुभाग वेदनीय को देना। पुन: जुदे रक्खे हुए एक भाग में प्रतिभाग का (आवली के असंख्यातवें भाग का) भाग देना और एक भाग को जुदा रख बहुभाग मोहनीय को देना। पुन: एक भाग के प्रतिभाग का भाग देना उसमें भी एक भाग को जुदा रख बहुभाग के तीन समान भाग करना और एक-एक भाग ज्ञानावरण दर्शनावरण अंतराय को देना। पुन: एक भाग में प्रतिभाग का भाग दे एक भाग को जुदा रख बहुभाग के दो समान भाग करना और एक-एक भाग नाम गोत्र को देना, शेष एक भाग आयु कर्म को देना। इस क्रम से ‘‘आउगभागो थोवो’’ इस गाथा में कहा हुआ क्रम सिद्ध होता है।
उत्तर प्रकृतियों का बंटवारा
उत्तरपयडीसु पुणो मोहावरणा हवंति हीणकमा।
अहियकमा पुण णामाविग्घा य ण भजणं सेसे।।८६।।
उत्तरप्रकृतिषु पुन: मोहावरणा भवन्ति हीनक्रमा:।
अधिकक्रमा: पुन: नामविघ्नाश्च न भंजनं शेषे।।८६।।
अर्थ—उत्तर प्रकृतियों में मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण के भेदों में क्रम से हीन-हीन द्रव्य हैं और नामकर्म-अंतराय कर्म के भेदों में क्रम से अधिक है। तथा बाकी बचे वेदनीय-गोत्र-आयु कर्म इन तीनों के भेदों में बटवारा नहीं होता क्योंकि इनकी एक-एक ही प्रकृति एक काल में बंधती है। जैसे वेदनीय में साता का बंध होवे या असाता का बंध होेवे, परन्तु दोनों का एक साथ बंध नहहीं होता । इस कारण मूल प्रकृति के द्रव्य के प्रमाण ही इन तीनों में द्रव्य जानना।