नमस्तेऽजितनाथाय, कर्मशत्रुजयाय ते।
अजेयशक्तिलाभार्थ—मजिताय नमो नम:।।१।।
श्री अजितनाथ स्तोत्र
(श्रीमत्समन्तभद्राचार्य—विरचित)
—उपजाति छंद—
यस्य प्रभावात्त्रिदिव-च्युतस्य क्रीडास्वपि क्षीव-मुखारविन्दः।
अजेयशक्ति-र्भुवि बन्धुवर्ग: चकार नामाजित इत्यवन्ध्यम्।।१।।
अद्यापि यस्या-जितशासनस्य, सतां प्रणेतुः प्रतिमंगलार्थम् ।
प्रगृह्यते नाम परं पवित्रं, स्वसिद्धि-कामेन जनेन लोके।।२।।
यः प्रादु-रासीत्-प्रभुशक्ति-भूम्ना, भव्याशया-लीन-कलंकशान्त्यै।
महामुनि-र्मुक्तघनोपदेहो, यथा-रविन्दा, भ्युदयाय भास्वान्।।३।।
येन प्रणीतं पृथुधर्म-तीर्थं, ज्येष्ठं जना: प्राप्य जयन्ति दुःखम्।
गांगं हृदं चन्दन-पंकशीतं गज-प्रवेका इव घर्म-तप्ता:।।४।।
स ब्रह्मनिष्ठ:-सममित्रशत्रु-र्विद्याविनि-र्वान्त-कषायदोषः।
लब्धात्म-लक्ष्मी-रजितो-ऽजितात्मा जिनः श्रियं मे भगवान् विधत्ताम् ।।५।।
—शेर छंद—
प्रभु स्वर्ग से अवतीर्ण हुए तुम प्रभाव से।
सब बन्धुओं के मुखकमल खिलते हैं हर्ष से।।
सब खेल में भी वे अजेयशक्ति हों यहाँ।
इस हेतु ‘‘अजित’’ नाम ये सार्थक प्रभो कहा।।१।।
सत्पुरुष के नायक अजय्य शासनं कहा।
तुम नाम भी परम पवित्र आज भी यहाँ।।
स्वसिद्धि के इच्छुक मनुष्य नाम को जपते।
प्रत्येक मंगलार्थ ‘‘अजित’’ नाथ को नमते।।२।।
प्रभुत्व महाशक्ति से प्रभु आप उदित हों।
भव्यों के हृदय के कलंक शांति हेतु हो।।
सब कर्म सघन लेपरहित महामुनि हो।
जैसे कमल विकसित करे भास्कर उदय अहो।।३।।
तुमने विशाल श्रेष्ठ धर्म तीर्थ प्रकाशा।
जीवों ने इसे प्राप्त करके दुःख को जीता।।
गजराज जैसे धूप से पीड़ित हुए आके।
चन्दन समान शीत गंगनीर में न्हाते।।४।।
स्वब्रह्म में निलीन मित्र-शत्रु में समता।
सज्ज्ञानचरित्र में कषाय दोष को हता।।
स्वात्मा की लक्ष्मी प्राप्त जितेन्द्रिय अजित अहो!।
भगवन् ! मुझे अर्हंतलक्ष्मी दीजिए प्रभो!।।५।।
।।अथ जिनयज्ञप्रतिज्ञापनाय मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।
श्री अर्हंत पूजा
स्थापना—गीता छंद
अरिहंत प्रभु ने घातिया को घात निज सुख पा लिया।
छ्यालीस गुण के नाथ अठरह दोष का सब क्षय किया।।
शत इंद्र नित पूजें उन्हें गणधर मुनी वंदन करें।
हम भी प्रभो! तुम अर्चना के हेतु अभिनन्दन करें।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हन् नम: हे अर्हत्परमेष्ठिन्! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं अर्हन् नम: हे अर्हत्परमेष्ठिन्! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं अर्हन् नम: हे अर्हत्परमेष्ठिन्! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक-
-बसन्ततिलका छंद-
श्रीमज्जिनेंद्र पद में जलधार देऊं।
आतंकपंक जग का सब दूर होवे।।
इच्छानुसार फलदायक कल्पतरू ये।
पूजा जिनेन्द्रप्रभु की त्रय ताप नाशे।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हन् नम: परमेष्ठिभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
काश्मीरि केशर सुचंदन को घिसाऊ।
चर्चूं जिनेन्द्र पदपंकज में रुचि से।।
संसार के सकल ताप विनाश करती।
पूजा जिनेन्द्र प्रभु की सब सौख्य देती।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हन् नम: परमात्मकेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
जो कुंदपुष्प कलियों सम दीखते हैं।
धोये सु तंदुल लिये भर थाल में हैं।।
अर्हंत सन्मुख रखूँ बहु पुंज नीके।
पाथेय मोक्षपथ में जन के लिये हो।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हन् नम: अनादिनिधनेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
मल्ली गुलाब वर पुष्प सुगंधि करते।
अर्हंत के चरण में रुचि से चढ़ाऊ।।
पापान्धकूप मधि डूब रहे जनों को।
उद्धार हेतु जिनपूजन ही जगत् में।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हन् नम: सर्वनृसुरासुरपूजितेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
शालीय ओदन सुगंधित भोज्यवस्तु।
पीयूष तुल्य चरू लेकर थाल भरके।।
अर्हंत सन्मुख चढ़ा क्षुध व्याधि नाशूँ।
तृप्ती अनंत जिनपूजन से मिलेगी।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हन् नम: अनंतज्ञानेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो चित्त का तमसमूह विनाश करके।
त्रैलोक्यगेह वर दीपक दीप ज्योति।।
ले दीप आरति करूँ वरज्ञानज्योति।
पाऊं अनंत निजज्ञान विकास करके।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हन् नम: अनंतदर्शनेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
जो धूप सुन्दर सुगंध बिखेरती है।
अग्नि विषे जलत धूम्र उड़ावती है।।
खेऊ दशांगवर धूप जिनेन्द्र आगे।
संपूर्ण पाप जलते वर सौख्य होगा।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हन् नम: अनंतवीर्येभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
ये कल्पवृक्ष फल सम अति मिष्ट ताजे।
अमृत समान रस से परिपूर्ण दीखें।।
पूजा करूँ फल चढ़ाकर आपकी मैं।
स्वात्मैक सिद्धि फल प्राप्त करूँ इसी से।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हन् नम: अनंतसौख्येभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
नीरादि आठ वर द्रव्य संजोय करके।
घंटा ध्वजा चंवर छत्र सुदर्पणादी।।
मांगल्य द्रव्य शुभ लेकर पूजते ही।
संपूर्ण मंगल मिले निज सौख्य पाऊं ।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हन् नम: परममंगलेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीपूज्यपाद जिन के चरणाब्ज नमते।
संपूर्ण इंद्र शिर से अतिभक्ति भावे।।
श्री पूज्य के पदनिकट जलधार देते।
हो शांति लोक त्रय में मुझ भक्त को भी।।१०।।
ॐ ह्रीं अर्हन् नम: स्वस्ति भद्रं भवतु जगतां शांतये शांतिधारां निष्पादयामि शांतिकृद्भ्य: स्वाहा।
-शांतिधारा-
जो इन्द्र भक्ति वश नेत्र हजार करके।
बारह हजार कर तांडव नृत्य करता।।
ऐसे जिनेन्द्रपद पुष्प चढ़ाय करके।
पूजा त्रिकाल कर अनुपम सौख्य पाऊं ।।११।।
ॐ ह्रीं अर्हन् नम: ध्यातृभि: अभीप्सितफलेभ्य: स्वाहा।
(पुष्पांजलि चढ़ावें)
जाप्य मंत्र—ॐ ह्रीं अर्हं अर्हत्परमेष्ठिभ्यो नम:।
—दोहा—
श्री अरिहंत जिनेन्द्र का, धरूँ हृदय में ध्यान।
गाऊं गुणमणिमालिका, हरूँ सकल अपध्यान।।१।।
—शम्भु छंद—
जय जय प्रभु तीर्थंकर जिनवर, तुम समवसरण में राज रहे।
जय जय अर्हंत् लक्ष्मी पाकर, निज आत्मा में ही आप रहे।।
जन्मत ही दश अतिशय होते, तन में न पसेव न मल आदी।
पयसम सित रुधिर सु समचतुष्क, संस्थान संहनन है आदी।।१।।
अतिशय सुरूप, सुरभित तनु हैं, शुभ लक्षण सहस आठ सौ हैं।
अतुलित बल प्रियहित वचन प्रभो, ये दश अतिशय जन मन मोहें।।
केवल रविप्रगटित होते ही, दश अतिशय अद्भुत ही मानों।
चारों दिश इक-इक योजन तक, सुभिक्ष रहे यह सरधानो।।२।।
हो गगन गमन, नहिं प्राणीवध, नहिं भोजन नहिं उपसर्ग तुम्हें।
चउमुख दीखें सब विद्यापति, नहिं छाया नहिं टिमकार तुम्हें।।
नहिं नख औ केश बढ़े प्रभु के, ये दश अतिशय सुखकारी हैं।
सुरकृत चौदह अतिशय मनहर, जो भव्यों को हितकारी हैं।।३।।
सर्वार्ध मागधीया भाषा, सब प्राणी मैत्री भाव धरें।
सब ऋतु के फल औ फूल खिलें, दर्पणवत् भूरत्नाभ धरें।।
अनुकूल सुगंधित पवन चले, सब जन मन परमानंद भरें।
रजकंटक विरहित भूमि स्वच्छ, गंधोदक वृष्टी देव करें।।४।।
प्रभु पद तल कमल खिलें सुन्दर, शाली आदिक बहु धान्य फलें।
निर्मल आकाश दिशा निर्मल, सुरगण मिल जय जयकार करें।।
अरिहंत देव का श्रीविहार, वर धर्मचक्र चलता आगे।
वसुमंगल द्रव्य रहें आगे, यह विभव मिला जग के त्यागे।।५।।
तरुवर अशोक सुरपुष्प वृष्टि, दिव्यध्वनि, चौंसठ चमर कहें।
सिंहासन भामंडल सुरकृत, दुंदुभि छत्रत्रय शोभ रहें।।
ये प्रातिहार्य हैं आठ कहे, औ दर्शन ज्ञान सौख्य वीरज।
ये चार अनंत चतुष्टय हैं, सब मिलकर छ्यालिस गुण कीरत।।६।।
क्षुध तृषा जन्म मरणादि दोष, अठदश विरहित निर्दोष हुए।
चऊ घाति घात नवलब्धि पाय, सर्वज्ञ प्रभु सुखपोष हुए।।
द्वादशगण के भवि असंख्यात, तुम धुनि सुन हर्षित होते हैं।
सम्यक्त्व सलिल को पाकर के, भव भव के कलिमल धोते हैं।।७।।
मैं भी भवदु:ख से घबड़ा कर, अब आप शरण में आया हूँ।
सम्यक्त्व रतन नहिं लुट जावे, बस यही प्रार्थना लाया हूँ।।
संयम की हो पूर्ती भगवन्! औ मरण समाधी पूर्वक हो।
हो केवल ‘ज्ञानमती’ सिद्धी, जो सर्व गुणों की पूरक हो।।८।।
ॐ ह्रीं णमो अरिहंताणं अर्हत्परमेष्ठिभ्य: जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, पुष्पांजलि:।
-दोहा-
मोह अरी को हन हुए, त्रिभुवन पूजा योग्य।
नमो नमो अरिहंत को, पाऊँ सौख्य मनोज्ञ।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।
श्री अजितनाथ जिन पूजा
-अथ स्थापना-
गीता छंद-
इस प्रथम जम्बूद्वीप में, है भरतक्षेत्र सुहावना।
इस मध्य आरजखंड में, जब काल चौथा शोभना।।
साकेतपुर में इन्द्र वंदित, तीर्थकर जन्में जभी।
उन अजितनाथ जिनेश को, आह्वान कर पूजूँ अभी।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथतीर्थंकर! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथतीर्थंकर! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथतीर्थंकर! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक-
-तोटकछंद-
चिन्मूरति कल्पतरू जिनजी, जल लाय जजूँ तुम पद जिनजी।।
अजितेश जिनेश्वर नित्य नमूँ, सब कर्मकषायकलंक वमूँ।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथतीर्थंकराय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिरि चंदन गंधमयी, जिन पूजत ताप नशे सबही।।
अजितेश जिनेश्वर नित्य नमूँ, सब कर्मकषायकलंक वमूँ।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथतीर्थंकराय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
सित अक्षत धौत लिये कर में, जिन आगे पुँज धरूँ शुचि मैं।।
अजितेश जिनेश्वर नित्य नमूँ, सब कर्मकषायकलंक वमूँ।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
मचकुंद गुलाब जुही सुमना, जिनपाद सरोज जजूँ सुमना।।
अजितेश जिनेश्वर नित्य नमूँ, सब कर्मकषायकलंक वमूँ।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथतीर्थंकराय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
घृतयुक्त मधुर पकवान भरे, जिन पूजत भूख पिशाचि हरे।।
अजितेश जिनेश्वर नित्य नमूँ, सब कर्मकषायकलंक वमूँ।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथतीर्थंकराय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
करपूर प्रदीप उद्योत करे, जिनपाद जजत अज्ञान हरे।।
अजितेश जिनेश्वर नित्य नमूँ, सब कर्मकषायकलंक वमूँ।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथतीर्थंकराय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
दशगंध सुधूप जले रुचि से, सब कर्मकलंक भगें झट से।।
अजितेश जिनेश्वर नित्य नमूँ, सब कर्मकषायकलंक वमूँ।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
फल सेव बादाम लिये कर में, जिन अर्चत श्रेष्ठ लहूँ वर मैं।।
अजितेश जिनेश्वर नित्य नमूँ, सब कर्मकषायकलंक वमूँ।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथतीर्थंकराय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गंध प्रभृति वसु द्रव्य लिया, निज ‘ज्ञानमती’ हित अर्घ्य दिया।।
अजितेश जिनेश्वर नित्य नमूँ, सब कर्मकषायकलंक वमूँ।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अनघ्र्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
तीर्थंकर पद कमल में, शांतीधार करंत।
त्रिभुवन में सुख शांति हो, मिले भवोदधि अंत।।१०।।
-शांतये शांतिधारा-
कमल वकुल बेला जुही, सुरभित पुष्प चुनाय।
पुष्पांजलि अर्पत मिले, आतमनिधि सुखदाय।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
-गीता छंद-
साकेतनगरी में पिता, जितशत्रु विजया मात के।
उर में बसे नक्षत्र रोहिणि, ज्येष्ठ कृष्ण अमावसे।।
श्री अजितनाथ विजय अनुत्तर, से उतर आये यहाँ।
प्रभु गर्भकल्याणक मनाते, इंद्र मैं पूजूँ यहाँ।।१।।
ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णामावस्यायां श्रीअजितनाथतीर्थंकरगर्भकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री आदि देवी मात की, सेवा करें अति भक्ति से।
अतिगूढ़ करतीं प्रश्न वे, उत्तर दिया माँ युक्ति से।।
सुदि माघ दशमी तिथि सुखद, अजितेश जिन जन्में यहाँ।
सौधर्म सुरपति ने सुमेरू, पर न्हवन विधिवत् किया।।२।।
ॐ ह्रीं माघशुक्लादशम्यां श्रीअजितनाथतीर्थंकरजन्मकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वैराग्य उल्कापात से, देवर्षि सुरगण आ गये।
सुप्रभा पालकि में बिठा, वन सहेतुक में ले गये।।
सुदि माघ नवमी शाम को, नृप सहस सह दीक्षा लिया।
मनपर्ययी ज्ञानी हुए, ध्यानस्थ हो बेला किया।।३।।
ॐ ह्रीं माघशुक्लानवम्यां श्रीअजितनाथतीर्थंकरदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
साकेत में नृप ब्रह्म खीर, अहार दे हर्षित हुए।
छद्मस्थ बारहवर्ष नंतर, अजितप्रभु केवलि हुए।।
सुदि पौष ग्यारस नखत रोहिणि, में सुरासुर आ गये।
जिन समवसृति में सिंहसेन, गणीन्द्र मुनिगण शिर नये।।४।।
ॐ ह्रीं पौषशुक्लाएकादश्यां श्रीअजितनाथतीर्थंकरकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वर पंचमी तिथि चैत्रशुक्ला, समय था पूर्वाण्ह जब।
सम्मेदगिरि पर योग को, रोका प्रभू ध्यानस्थ तब।।
रोहिणि नखत में सब अघाती, घात शिवलक्ष्मी वरी।
मैं पूजहूँ श्री अजित को, इस तिथी को भी इस घड़ी।।५।।
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लापंचम्यां श्रीअजितनाथतीर्थंकरमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—दोहा-
सर्वकर्मविजयी प्रभो! अजितनाथ जिनराज।
पुष्पांजलि से पूजते, मिले स्वात्म साम्राज।।१।।
अथ मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
—शेर छंद—
(तर्ज—खिलता है जिन्दगी का उपवन....)
मिलता है प्रभु भक्ति का अवसर कभी-कभी।
यह पुण्य का कमल तो खिलता कभी-कभी।।टेक.।।
मन वच व काय तीनों योगों को जीत के।
श्री अजितनाथ हो प्रभु पूजूँ अभी - अभी।।मिलता.।।
ॐ ह्रीं योगाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१।।
मिलता है प्रभु भक्ति का अवसर कभी-कभी।
यह पुण्य का कमल तो खिलता कभी-कभी।।टेक.।।
त्रिकरण विशुद्ध योगी से ध्येय आप ही।
श्री अजितनाथ तुमको पूजूँ अभी-अभी।।मिलता.।।
ॐ ह्रीं ध्येयाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।२।।
मिलता है प्रभु भक्ति का अवसर कभी-कभी।
यह पुण्य का कमल तो खिलता कभी-कभी।।टेक.।।
वसु आठ कर्म जीते बाहर तपों के बल से।
अजितेश आप मानें पूूजूँ अभी-अभी।।मिलता.।।
ॐ ह्रीं वसुसिद्धाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।३।।
मिलता है प्रभु भक्ति का अवसर कभी-कभी।
यह पुण्य का कमल तो खिलता कभी-कभी।।टेक.।।
कल्याण सबका करके स्वस्ती तुम्हीं हुये।
हे स्वस्ति प्रभू तुमकोे पूजूँ अभी-अभी।।मिलता.।।
ॐ ह्रीं स्वस्तये श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।४।।
मिलता है प्रभु भक्ति का अवसर कभी-कभी।
यह पुण्य का कमल तो खिलता कभी-कभी।।टेक.।।
अर्हंत सिद्ध बनते नैगमनयाश्रिता।
पूजूँ सदैव तुमको जिनवर अभी-अभी।।मिलता.।।
ॐ ह्रीं अर्हते श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।५।।
मिलता है प्रभु भक्ति का अवसर कभी-कभी।
यह पुण्य का कमल तो खिलता कभी-कभी।।टेक.।।
आठों करम को नाशा हो सिद्ध आप ही।
तीर्थेश तुमको पूजूूँ रुचिधर अभी-अभी।।मिलता.।।
ॐ ह्रीं सिद्धाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।६।।
मिलता है प्रभु भक्ति का अवसर कभी-कभी।
यह पुण्य का कमल तो खिलता कभी-कभी।।टेक.।।
लक्ष्मी प्रकृष्टधारी, परमात्मा हुए।
पूजूँ तुम्हें जिनेश्वर, रुचि से अभी-अभी।।मिलता.।।
ॐ ह्रीं परमात्मने श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।७।।
मिलता है प्रभु भक्ति का अवसर कभी-कभी।
यह पुण्य का कमल तो खिलता कभी-कभी।।टेक.।।
जो ब्रह्मज्ञान उत्तम वह आप में रहा।
निज ज्ञान पूर्ण हेतू पूजूँ अभी-अभी।।मिलता.।।
ॐ ह्रीं परमब्रह्मणे श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।८।।
मिलता है प्रभु भक्ति का अवसर कभी-कभी।
यह पुण्य का कमल तो खिलता कभी-कभी।।टेक.।।
उत्पत्ति परम आगम की आपसे ही तो।
श्रुतज्ञान मुझ को दीजे पूजूँ अभी-अभी।।मिलता.।।
ॐ ह्रीं परमागमाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।९।।
मिलता है प्रभु भक्ति का अवसर कभी-कभी।
यह पुण्य का कमल तो खिलता कभी-कभी।।टेक.।।
सब लोेक अरु अलोक को युगपत् प्रकाशते।
निज का प्रकाश दीजे, पूजूँ अभी-अभी।।मिलता.।।
ॐ ह्रीं प्रकाशाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१०।।
मिलता है प्रभु भक्ति का अवसर कभी-कभी।
यह पुण्य का कमल तो खिलता कभी-कभी।।टेक.।।
स्वयमेव स्वयंभू तुम्हीं त्रैलोक्य जानकर।
मैं भी स्वयं का हित करूँ पूजूँ अभी-अभी।।मिलता.।।
ॐ ह्रीं स्वयंभुवे श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।११।।
मिलता है प्रभु भक्ति का अवसर कभी-कभी।
यह पुण्य का कमल तो खिलता कभी-कभी।।टेक.।।
प्रभु ज्ञान से बड़े हो नहिं आप सम है दूजा।
त्रिभुवन सभी प्रकाशा पूजूँ अभी-अभी।।मिलता.।।
ॐ ह्रीं ब्रह्मणे श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१२।।
मिलता है प्रभु भक्ति का अवसर कभी-कभी।
यह पुण्य का कमल तो खिलता कभी-कभी।।टेक.।।
प्रभु आप ही अनंते गुण से गुणी हुये।
शिवधाम में विराजो पूजूँ अभी-अभी।।मिलता.।।
ॐ ह्रीं अनंतगुणाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१३।।
मिलता है प्रभु भक्ति का अवसर कभी-कभी।
यह पुण्य का कमल तो खिलता कभी-कभी।।टेक.।।
नहिं अंत है कभी भी ध्रुव धाम में रहा।
ध्रुव पद मिले मुझे भी पूजूँ अभी-अभी।।मिलता.।।
ॐ ह्रीं परमानंताय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१४।।
मिलता है प्रभु भक्ति का अवसर कभी-कभी।
यह पुण्य का कमल तो खिलता कभी-कभी।।टेक.।।
लोकाग्र पर हो स्थिर प्रभु सिद्धलोकवासा।
मन वचन काय रुचि से पूजूँ अभी-अभी।।मिलता.।।
ॐ ह्रीं लोकाग्रवासाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१५।।
मिलता है प्रभु भक्ति का अवसर कभी-कभी।
यह पुण्य का कमल तो खिलता कभी-कभी।।टेक.।।
सब कर्मनाश करके नहिं जन्म अब धरोगे।
तुम हो अनादि भगवन् पूजूँ अभी-अभी।।मिलता.।।
ॐ ह्रीं अनादये श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१६।।
(तर्ज—बहारों फूल बरसाओ.....)
कमाओ पुण्य अधिकाधिक मिली प्रभु छत्रछाया है।
चढ़ाओ अर्घ्य जिनवर को, ये अवसर स्वर्ण आया है।।टेक।।
रतनत्रय मुक्ति का साधन, उसी में मूल समकित है।
प्रभु ने सात प्रकृती घात, कर सम्यक्त्व पाया है।।जलाओ.।।
मुझे भी एक ही इच्छा, मिल सम्यक्त्व निधि तुम से।
नमूूूँ मैं भक्ति से नित ही, मिली प्रभु छत्रछाया है।।जलाओ.।।
ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनसंपन्नाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१७।।
कमाओ पुण्य अधिकाधिक मिली प्रभु छत्रछाया है।
चढ़ाओ अर्घ्य जिनवर को, ये अवसर स्वर्ण आया।।टेक।।
महामोहादि विरहित ज्ञान, सम्यग्ज्ञान है सुंदर।
चतुरनुयोग द्वादश अंग, से श्रुत ज्ञान गाया है।।चढ़ा.।।
प्रभो श्रुतज्ञान को पूरो, यही अभिलाष है मन मेें।
नमूँ मैं भक्ति से तुमको, मिले प्रभु छत्रछाया है।।चढ़ा.।।
ॐ ह्रीं सम्यग्ज्ञानसंपन्नाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।१८।।
कमाओ पुण्य अधिकाधिक मिली प्रभु छत्रछाया है।
चढ़ाओ अर्घ्य जिनवर को, ये अवसर स्वर्ण आया है।।टेक।।
निजात्मा की जो अनुभूती, वही सम्यक्त्वचारति है।
पाँच विध श्रेष्ठ चारित को, सभी मुनियों ने ध्याया है।।चढ़ा।।
प्रभो चारित्र पूरा हो, यही इच्छा मेरे मन में।
नमूँ मैं शुद्ध चारित को, मिली तुम छत्रछाया है।।चढ़ा।।
ॐ ह्रीं सम्यक्चारित्रसंपन्नाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१९।।
कमाओ पुण्य अधिकाधिक मिली प्रभु छत्रछाया है।
चढ़ाओ अर्घ्य जिनवर को, ये अवसर स्वर्ण आया है।।टेक।।
सभी द्रव्यादि हैं यह धर्म, निज अस्तित्व को कहता।
इसी ने सर्व सिद्धों की, पृथक् सत्ता को गाया है।।चढ़ा.।।
प्रभो अस्तित्व मेरा भी, इसी से सिद्धपद चाहूँ।
स्वयं अस्तित्व में चमकूँ, मिली तुम छत्रछाया है।।चढ़ा।।
ॐ ह्रीं अस्तित्वधर्मसंपन्नाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२०।।
कमाओ पुण्य अधिकाधिक मिली प्रभु छत्रछाया है।
चढ़ाओ अर्घ्य जिनवर को, ये अवसर स्वर्ण आया है।।टेक।।
सभी गुण द्रव्य के आश्रित, यही वस्तुत्व गुण माना।
इसी ने आपको गुण को, अनंतों ही बताया है।।चढ़ा।।
प्रभो मेरे अनंतों गुण, सभी मोहारि ने छीने।
दिला दीजे मेरे गुण को, मिली तुम छत्रछाया है।।चढ़ा।।
ॐ ह्रीं वस्तुत्वधर्मसंपन्नाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२१।।
कमाओ पुण्य अधिकाधिक मिली प्रभु छत्रछाया है।
चढ़ाओ अर्घ्य जिनवर को, ये अवसर स्वर्ण आया है।।टेक।।
नहीं कोई प्रमाणों से, तुम्हें प्रभु जान सकता है।
अत: तुम अप्रमेयी हो, नहीं तुम माप पाया है।।चढ़ा.।।
प्रभो तुम योगि के गोचर, मेरे चित में विराजो जी।
नमूँ कर जोड़ मैं तुमको, मिली तुम छत्रछाया है।।चढ़ा।।
ॐ ह्रीं अप्रमेयत्वधर्मसंपन्नाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२२।।
कमाओ पुण्य अधिकाधिक मिली प्रभु छत्रछाया है।
चढ़ाओ अर्घ्य जिनवर को, ये अवसर स्वर्ण आया है।।टेक।।
गोत्र कर्मारि के क्षय से, अगुरुलघु गुण तुम्हारे में।
त्रिजग के शीश पर तिष्ठे, जगद्गुरु नाम पाया है।।चढ़ा.।।
मुझे मेरा अनादीसिद्ध, यह गुण प्राप्त हो जावे।
इसी हेतु नमूँ तुमको, मिली तुम छत्रछाया है।।चढ़ा।।
ॐ ह्रीं अगुरुलघुत्वधर्मसंपन्नाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२३।।
कमाओ पुण्य अधिकाधिक मिली प्रभु छत्रछाया है।
चढ़ाओ अर्घ्य जिनवर को, ये अवसर स्वर्ण आया है।।टेक।।
प्रभो चैतन्य चिंतामणि, तुम्हीं चिन्मूर्ति माने हो।
इसी गुण से सभी पर से, पृथक् अस्तित्व पाया है।।चढ़ा।।
देह भी जब पृथक् मुझसे, पुन: पर अन्य क्या मेरे।
निजातम तत्त्व को पाऊँ, मिली तुम छत्रछाया है।।चढ़ा।।
ॐ ह्रीं चेतनत्वधर्मसंपन्नाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२४।।
कमाओ पुण्य अधिकाधिक मिली प्रभु छत्रछाया है।
चढ़ाओ अर्घ्य जिनवर को, ये अवसर स्वर्ण आया है।।टेक।।
वरण रस स्पर्श गंधों से, रहित हो प्रभु अमूर्तिक हो।
सभी कर्मों के क्षय से आप, को चिन्मूर्ति गाया है।।चढ़ा.।।
जगत में जीव संसारी, सुनिश्चयनय से चिन्मूरत।
प्रभो! चिन्मय बना दीजे, मिली तुम छत्रछाया है।।चढ़ा।।
ॐ ह्रीं अमूर्तित्वधर्मसंपन्नाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२५।।
कमाओ पुण्य अधिकाधिक मिली प्रभु छत्रछाया है।
चढ़ाओं अर्घ्य जिनवर को, ये अवसर स्वर्ण आया है।।टेक।।
कहे मिथ्यात्व जो हैं तीन, सौ त्रेसठ असंख्यों भी।
इन्हें विध्वंस कर तुमने, निजी सम्यक्त्व पाया है।।चढ़ा।।
प्रभो चारों गती में घूम, कर अब छूटना चाहूँ।
निकालो भवजलधि दु:ख से, मिली तुम छत्रछाया है।।चढ़ा।।
ॐ ह्रीं सम्यक्त्वधर्मसंपन्नाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२६।।
(तर्ज—हे वीर तुम्हारे द्वारे पर.....)
हे नाथ! तुम्हारी पूजा को, हम थाल सजाकर लाये हैं।
प्रभु पद में अर्घ्य चढ़ाने को, हम चरण शरण में आये हैं।।
जो ज्ञान मोह क्षय कर देता, उसको प्रभु तुमने प्राप्त किया।
वह ज्ञान हमें भी मिल जावे, हम शीश झुकाने आये हैं।।हे.।।
ॐ ह्रीं ज्ञानधर्मसंपन्नाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२७।।
हे नाथ! तुम्हारी पूजा को, हम थाल सजाकर लाये हैं।
प्रभु पद में अर्घ्य चढ़ाने को, हम चरण शरण में आये हैं।।
चैतन्यप्राण से जो तीनों, कालों मेें जीता जीव वही।
यह शुद्ध प्राण हमको भी मिले, यह आशा लेकर आये हैं।।हे.।।
ॐ ह्रीं जीवधर्मसंपन्नाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२८।।
हे नाथ! तुम्हारी पूजा को, हम थाल सजाकर लाये हैं।
प्रभु पद में अर्घ्य चढ़ाने को, हम चरण शरण में आये हैं।।
सम्पूर्ण नाम कर्मारिहना, सूक्ष्मत्व नाम गुण प्राप्त किया।
यह गुण मुझमें भी प्रगटित हो, यह भाव संजोकर लाये हैं।।हे.।।
ॐ ह्रीं सूक्ष्मधर्मसंपन्नाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।२९।।
हे नाथ! तुम्हारी पूजा को, हम थाल सजाकर लाये हैं।
प्रभु पद में अर्घ्य चढ़ाने को, हम चरण शरण में आये हैं।।
सब आयु कर्म विनाश किया, अवगाहन गुण को प्राप्त किया।
अपमृत्यु टले सुसमाधि मिले, यह आशा लेकर आये हैं।।हे.।।
ॐ ह्रीं अवगाहनधर्मसंपन्नाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३०।।
हे नाथ! तुम्हारी पूजा को, हम थाल सजाकर लाये हैं।
प्रभु पद में अर्घ्य चढ़ाने को, हम चरण शरण में आये हैं।।
सब वेदनीय को नष्ट किया, गुण अव्याबाध को प्राप्त किया।
निज परमानंद सुखामृत की हम आश लगाकर आये हैं।।हे.।।
ॐ ह्रीं अव्याबाधधर्मसंपन्नाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३१।।
हे नाथ! तुम्हारी पूजा को, हम थाल सजाकर लाये हैं।
प्रभु पद में अर्घ्य चढ़ाने को, हम चरण शरण में आये हैं।।
प्रभु आप स्वसंवेदन ज्ञानी, इस बल से केवलज्ञान लिया।
हम निज संवेदन प्राप्त करें, ये ही अभिलाषा लाये हैं।।हे.।।
ॐ ह्रीं स्वसंवेदनज्ञानधर्मसंपन्नाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३२।।
हे नाथ! तुम्हारी पूजा को, हम थाल सजाकर लाये हैं।
प्रभु पद में अर्घ्य चढ़ाने को, हम चरण शरण में आये हैं।।
प्रभु निजस्वरूप का ध्यान किया,कैवल्यरमा को वरण किया।
निज से निज में निज को पाऊँ, यह भाव हृदय में लाये हैं।।हे.।।
ॐ ह्रीं स्वस्वरूपध्यानधर्मसंपन्नाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३३।।
हे नाथ! तुम्हारी पूजा को, हम थाल सजाकर लाये हैं।
प्रभु पद में अर्घ्य चढ़ाने को, हम चरण शरण में आये हैं।।
वर ज्ञान दरस सुख वीर्य चार, ये ही आनन्त्य चतुष्टय हैं।
अर्हंत प्रभू इनके स्वामी, हम शीश झुकाने आये हैं।।हे.।।
ॐ ह्रीं अनंतचतुष्टयत्वसंपन्नाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३४।।
हे नाथ! तुम्हारी पूजा को, हम थाल सजाकर लाये हैं।
प्रभु पद में अर्घ्य चढ़ाने को, हम चरण शरण में आये हैं।।
जो सम्यक्त्वादि आठ गुण हैं, उनको पाकर प्रभु सिद्ध हुये।
ये मुझको भी मिल जावें प्रभु, हम शीश झुकाने आये हैं।।हे.।।
ॐ ह्रीं सम्यक्त्वादिगुणसंपन्नाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३५।।
हे नाथ! तुम्हारी पूजा को, हम थाल सजाकर लाये हैं।
प्रभु पद में अर्घ्य चढ़ाने को, हम चरण शरण में आये हैं।।
जो पंचाचारों का पालन करके अन्यों से करवाया।
परमात्मसिद्ध पद प्राप्त किया, उन चरण शरण में आये हैं।।हे.।।
ॐ ह्रीं पंचाचाराचरणसंपन्नाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं नर्वपामीति स्वाहा।।३६।।
(तर्ज—चंदना पुकारे स्वामी द्वार पे खड़ी)
आज अजितनाथ का विधान हो रहा।
पूजा करके भक्त पुण्यवान हो रहा।।टेक.।।
आत्मा है शुद्ध ज्ञानभानु स्वभावी।
केवलज्ञानरूप शुद्ध पूर्ण प्रभावी।।
तेरह चारित को पालन करके।
तेरहवें गुणस्थान पहुँचे प्रभु जी।।पहुँचे.।।
आर्हंत्यलक्ष्मी पाकर के केवली।
श्री विहार कर सिद्ध हुए जी-सिद्ध हुए जी।।
इसीलिये आपका गुणगान हो रहा।।पूजा.।।१।।
ॐ ह्रीं शुद्धज्ञानाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३७।।
आज अजितनाथ का विधान हो रहा।
पूजा करके भक्त पुण्यवान हो रहा।।टेक.।।
शुद्ध चिद्रूप आप मुक्ति के पती।
नमूँ नमूँ मुझे मिले पंचमी गती।।
आपके प्रभाव से अनंते प्राणी।
मुक्ति रमाको प्राप्त किया है-प्राप्त किया है।
ऐसी आपकी कीर्ति सुनकर।
मैंने भी अब शरण लिया है-शरण लिया है।।
इसीलिये आपका गुणगान हो रहा।। पूजा.।।१।।
ॐ ह्रीं शुद्धचिद्रूपाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३८।।
आज अजितनाथ का विधान हो रहा।
पूजा करके भक्त पुण्यवान हो रहा।।टेक.।।
आपका स्वरूप शुद्ध स्वात्मरूप है।
आपकी भक्ती से भक्त स्वात्म रूप हैं।
आपके प्रभाव से सर्प आदि के।
विष तत्क्षण ही दूर हो जाते-दूर हो जाते।
मन में भक्त जो संकल्प करते,
आपकी भक्ति से पूर्ण हो जाते-पूर्ण हो जाते।।
इसीलिये आपका गुणगान हो रहा।। पूजा.।।१।।
ॐ ह्रीं शुद्धस्वरूपाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।३९।।
आज अजितनाथ का विधान हो रहा।
पूजा करके भक्त पुण्यवान हो रहा।।टेक.।।
आप पूर्वभव में महाव्रती बने थे।
केवली के मूल में सम्यक्त्वी बने थे।।
सोलह कारण भावना भायी,
तीर्थकर प्रकृति को बांध लिया था, बांध लिया था।।
फिर स्वर्ग जाकर नर भव पाकर,
पंचकल्याणक वैभव लिया था, वैभव लिया था।।
इसीलिये आपका गुणगान हो रहा।। पूजा.।।१।।
ॐ ह्रीं शुद्धदृढीयसे श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४०।।
(तर्ज—यशोमती मैया से......)
नाथ! पूछें आपसे हम, यह तो बता दो।
चरणों में जगह कब दोगे समझा दो।।टेक.।।
शुद्ध हो स्वयंभू तुम्हीं स्वयं स्वात्म ध्याया।
तभी तो विशुद्ध हुये स्वात्म तत्त्व पाया।।
इसीलिए आये शरण—हो.......।
इसीलिए आये शरण, भव दु:ख मिटा दो।
शिवपथ दिखा दो।।नाथ पूछें.।।१।।
मोक्षमार्ग दो प्रकार आपने बताया।
भक्ति और निवृत्ती से उसको दिखाया।।
इसीलिए भक्ति करें-हो.........।
इसीलिये भक्ती करें, शिवपथ दिखा दो।
यह तो बता दो।।नाथ.।।२।।
ॐ ह्रीं स्वयंभुवे श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४१।।
नाथ! पूछें आपसे हम, यह तो बता दो।
चरणों में जगह कब दोगे समझा दो।।टेक.।।
तुम्हीं शुद्ध योगी कहे शुक्ल ध्यान ध्याके।
इसी से महान हुये मोक्षधाम पाके।
इसीलिये पूजें चरण-हो........।
इसीलिये पूजें चरण, ध्यान को सिखा दो।।
यह तो बता दो ।।नाथ.।।१।।
आर्तरौद्र ध्यान दोनों जग में भ्रमाते।
धर्मध्यान से ही प्राणी शुक्लध्यान पाते।
इसीलिये आये यहाँ-हो...........।
इसीलिये आये यहाँ साम्यरस पिला दो।
यह तो बता दो ।।नाथ.।।२।।
ॐ ह्रीं शुद्धयोगिने श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४२।।
नाथ! पूछें आपसे हम, यह तो बता दो।
चरणों में जगह कब दोगे समझा दो।।टेक.।।
आप तो निजात्मा के सुख में मगन हो।
ऐसा करो जिससे मेरा भी दुख शमन हो।।
मोहराज से छुड़ा के-हो
मोहराज से छुड़ा के निजसुख दिला दो।
यह तो बता दो ।।नाथ.।।१।।
साता औ असाता दोनों आकुलता करते।
इनको विनाशा आप निजानंद धरते।।
इसीलिये आये शरण-हो.....
इसीलिये आये शरण सब दुख मिटा दो।
यह तो बता दो।।नाथ.।।२।।
ॐ ह्रीं शुद्धसुखाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४३।।
नाथ! पूछें आपसे हम, यह तो बता दो।
चरणों में जगह कब दोगे समझा दो।।टेक.।।
ज्ञान से बना शरीर शुद्ध देह धारा।
भक्तों ने आके यहाँ किया जय जयकारा।।
तुम्हीं ज्ञानसूर्य प्रभु जी-हो......
तुम्हीं ज्ञानसूर्य प्रभुजी मोहतम भगा दो।
यह तो बता दो।।नाथ.।।१।।।
अज्ञान तम ने जग को अंधसम बनाया।
भक्तों ने ज्ञान नेत्र खोल के जगाया।
मेरे हृदय में ज्ञान-हो......
मेरे हृदय में ज्ञानज्योती जला दो।
यह तो बता दो।।नाथ.।।२।।
ॐ ह्रीं शुद्धशरीराय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४४।।
(तर्ज—हे वीर तुम्हारे द्वारे पर.........)
हे नाथ! तुम्हारे चरणों में, हम शीश झुकाने आये हैं।
श्री अजितनाथ गुण गा गाकर, हम अर्घ्य चढ़ाने आये हैं।।टेक.।।
त्रैलोक्य जानने योग्य कहा, मुनियों ने उसे प्रमेय कहा।
प्रभु शुद्धप्रमेय तुम्हीं जग में, हम अर्घ्य चढ़ाने आये हैं।।हे.।।१।।
प्रभु नरक बिलों में बहु सागर, वर्षों तक दु:ख सहा जाकर।
उन दुख से तुम्हीं छुड़ा सकते, इसलिये शरण में आये हैं।।हे.।।२।।
ॐ ह्रीं शुद्धप्रमेयाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४५।।
हे नाथ! तुम्हारे चरणों में, हम शीश झुकाने आये हैं।
श्री अजितनाथ गुण गा गाकर, हम अर्घ्य चढ़ाने आये हैं।।टेक.।।
शुभ अशुभ शुद्ध उपयोग कहे, संसारी में तीनों ही रहें।
प्रभु परम शुद्ध उपयोगमयी, हम अर्घ्य चढ़ाने आये हैं।।हे.।।१।।
तिर्यंचगती में क्षुधा, तृषा, वध बंधन की वहाँ बहुत व्यथा।
हम दु:खों से व्याकुलित हुये, इसलिये शरण में आये हैं।।हे.।।२।।
ॐ ह्रीं शुद्धयोगाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४६।।
हे नाथ! तुम्हारे चरणों में, हम शीश झुकाने आये हैं।
श्री अजितनाथ गुण गा गाकर, हम अर्घ्य चढ़ाने आये हैं।।टेक.।।
अर्हंत अवस्था में प्रभु के, पुष्पों की वर्षा आदि दिखें।
देवों द्वारा बहु विभव हुये, हम अर्घ्य चढ़ाने आये हैं।। हे.।।१।।
मानव जीवन में कष्ट घने, नानाविध रोग व शोक घने।।
सब दुख से आप बचा सकते, इसलिये शरण में आये हैं।।हे.।।२।।
ॐ ह्रीं शुद्धभोगाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४७।।
हे नाथ! तुम्हारे चरणों में, हम शीश झुकाने आये हैं।
श्री अजितनाथ गुण गा गाकर, हम अर्घ्य चढ़ाने आये हैं।।टेक.।।
कर्मों से आत्मा पृथक् किया, प्रभु शुद्ध परम आनंद लिया।
शुद्धात्मा होकर सिद्ध हुए, हम अर्घ्य चढ़ाने आये हैं।।हे.।।१।।
प्रभु देव गती में भी दुख है, मानस दुख इष्ट वियोग भी हैं।
इन दु:खों से छुटना चाहें, इसलिये शरण में आये हैं।।हे.।।२।।
ॐ ह्रीं शुद्धावलोकिने श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४८।।
हे नाथ! तुम्हारे चरणों में, हम शीश झुकाने आये हैं।
श्री अजितनाथ गुण गा गाकर, हम अर्घ्य चढ़ाने आये हैं।।टेक.।।
प्रभु अर्हत् मुद्रा के धारी, सब दोष रहित हो अविकारी।
इस शुद्ध रूप से सिद्ध हुये, हम अर्घ्य चढ़ाने आये हैं।।हे.।।१।।
चारों गति के नाना दुख भी, भोगें है काल अनंतों ही।
अब पंचम गति मिल जाय मुझे, इसलिये शरण में आये हैं।।हे.।।२।।
ॐ ह्रीं शुद्धार्हत्जाताय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।४९।।
हे नाथ! तुम्हारे चरणों में, हम शीश झुकाने आये हैं।
श्री अजितनाथ गुण गा गाकर, हम अर्घ्य चढ़ाने आये हैं।।टेक.।।
ये अशुभ कर्म जब उदय हुये, सब जीव अनादि अशुद्ध रहें।
तुमने सब कर्म विनाश किया, हम अर्घ्य चढ़ाने आये हैं।।हे.।।१।।
मेरी आत्मा शुद्धात्मा है, निश्चयनय से परमात्मा है।
यह शुद्ध निपात केवली हो, इसलिये शरण में आये हैं।।हे.।।२।।
ॐ ह्रीं शुद्धनिपाताय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५०।।
हे नाथ! तुम्हारे चरणों में, हम शीश झुकाने आये हैं।
श्री अजितनाथ गुण गा गाकर, हम अर्घ्य चढ़ाने आये हैं।।टेक.।।
प्रभु मातृ गर्भ में शुद्ध कहे, रजमल से पूर्ण अलिप्त रहे।
शुक्तापुट में मुक्ताफलवत्, जिनवर की महिमा गाये हैं।।हे.।।१।।
यह महिमा तीर्थंकर की है, अति शुद्ध धाम में वास किया।।
हमको भी शुद्ध निवास मिले, इसलिये शरण में आये हैं।।हे.।।२।।
ॐ ह्रीं शुद्धार्हगर्भवासाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५१।।
हे नाथ! तुम्हारे चरणों में, हम शीश झुकाने आये हैं।
श्री अजितनाथ गुण गा गाकर, हम अर्घ्य चढ़ाने आये हैं।।टेक.।।
प्रभु आप शुद्ध सिद्धालय में, नित वास करें सौख्यालय में।
त्रिभुवन मेें अतिशय शुद्ध तुम्हीं, हम अर्घ्य चढ़ाने आये हैं।।हे.।।१।।
मेरा निवास भी सिद्धालय, भक्ती से मिलेगा सौख्यालय।
ऐसी युक्ती प्रभु मिल जाये, इसलिये शरण में आये हैं।।हे.।।२।।
ॐ ह्रीं शुद्धसिद्धवासाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५२।।
(तर्ज—सब मिल के आज जय कहो श्रीवीर प्रभु की।)
—शेर छंद—
मैं अजितनाथ के गुणों की अर्चना करूँ।
हे नाथ! आप भक्ति से दुख वंचना करूँ।।टेक.।।
भगवान् आप शुद्ध परम वास कहाए।
इस हेतु आप पाद की नित वंदना करूँ।।हे.।।१।।
सब विघ्न दूर हो प्रभो! तेरे प्रसाद से।
करिये कृपा मुझ पे मैं सिद्धिअंगना वरूँ।।हे.।।२।।
ॐ ह्रीं शुद्धपरमवासाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५३।।
मैं अजितनाथ के गुणों की अर्चना करूँ।
हे नाथ! आप भक्ति से दुख वंचना करूँ।।टेक.।।
हो आप शुद्ध सिद्ध परम आत्मा सुखी।
इस हेतु आप पदकमल की वंदना करूँ।।हे.।।१।।
व्यवहार नय से आत्मा मेरी अशुद्ध है।
करके कृपा विशुद्ध करो प्रार्थना करूँ।।हे.।।२।।
ॐ ह्रीं शुद्धासिद्धपरमात्मने श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५४।।
मैं अजितनाथ के गुणों की अर्चना करूँ।
हे नाथ! आप भक्ति से दुख वंचना करूँ।।टेक.।।
प्रभु आप शुद्ध गुण अनंत से महान हैं।
इस हेतु आप की अनंत वंदना करूँ।।हे.।।१।।
मैंने अशुद्ध हो अनंत दु:ख सहे हैं।
उनसे मुझे छुड़ा दो यह प्रार्थना करूँ।।हे.।।२।।
ॐ ह्रीं शुद्धानंतगुणाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५५।।
मैं अजितनाथ के गुणों की अर्चना करूँ।
हे नाथ! आप भक्ति से दुख वंचना करूँ।।टेक.।।
प्रभु शुद्ध शांत हो अनंत शांति पा लिया।
मैं आप की भक्ती से यम की तर्जना करूँ।।हे.।।१।।
मैं हूँ अशुद्ध औ अशांत जन्म व्याधि से।
वैâसे सुखी बनूँ यही तो याचना करूँ।।हे.।।२।।
ॐ ह्रीं शुद्धशांताय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५६।।
मैं अजितनाथ के गुणों की अर्चना करूँ।
हे नाथ! आप भक्ति से दुख वंचना करूँ।।टेक.।।
भगवंत आपही भदंत शुद्ध स्वरूपी।
मैं भी बनूँ विशुद्ध पाप खंडना करूँ।।हे.।।१।।
मेरे समस्त दोष आप दूर कीजिये।
मैं बार बार शिर झुका के वंदना करूँ।।हे.।।२।।
ॐ ह्रीं शुद्धभदंताय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५७।।
मैं अजितनाथ के गुणों की अर्चना करूँ।
हे नाथ! आप भक्ति से दुख वंचना करूँ।।टेक.।।
प्रभु शुद्ध हो निरुपम तुम्हीं वर्षादि रहित हो।
तुम स्वात्म रूप हो इसी से वंचना करूँ।।हे.।।१।।
मेरा स्वरूप शुद्ध है पुद्गल तनू रहित।
मैं इसकी प्राप्ती हेतु आपको नमन करूँ।।हे.।।२।।
ॐ ह्रीं शुद्धनिरूपमाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५८।।
मैं अजितनाथ के गुणों की वंदना करूँ।
हे नाथ! आप भक्ति से दुख वंचना करूँ।।टेक.।।
प्रभु शुद्ध हो निर्वाण धाम में सदा रहो।
इस हेतु आप पद कमल की वंदना करूँ।।हे.।।१।।
मैं जन्म मरण करते-करते श्रांत हुआ हूँ।
इनसे छुड़ाइये प्रभो! यह प्रार्थना करूँ।।हे.।।२।।
ॐ ह्रीं शुद्धनिर्वाणाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५९।।
मैं अजितनाथ के गुणों की वंदना करूँ।
हे नाथ! आप भक्ति से दुख वंचना करूँ।।टेक.।।
प्रभु शुद्ध गर्भ से हुये सिद्धातमा तुम्हीं।
नहिं तुमको पुनर्जन्म अत: वंदना करूँ।।हे.।।१।।
मैं गर्भवास के दु:खों से छूटना चहूँ।
करिये कृपा हे नाथ! पुनर्जन्म ना धरूँं।।हे.।।२।।
ॐ ह्रीं शुद्धसंदर्भगर्भाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६०।।
(तर्ज—यह नंदन वन.....)
मानव का जनम, मिलना है कठिन, जब मिल ही गया कुछ कर जाना।
भवसिंधु यदी तिरना चाहो, तो पूजन करने आ जाना।।
श्री अजितनाथ तीर्थंकर हैं, जिनका प्रकाश फैला जग मेें।
ऐसे जिनवर की पूजा से मनवांछित फल मिलता क्षण में।।
निज समरस सुख चखना चाहो तो प्रभु की शरण में आ जाना।।मा.।।
ॐ ह्रीं अर्हद्द्योताय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६१।।
मानव का जनम, मिलना है कठिन, जब मिल ही गया कुछ कर जाना।
भवसिंधु यदी तिरना चाहो, तो पूजन करने आ जाना।।
नहिं पुनर्जनम जिनका होता, ऐसी अर्हंत अवस्था है।
इसको पाकर फिर सिद्ध बने, ये ही निर्वाण व्यवस्था है।।
इन जिनवर की पूजा करके, तुम पुनर्जनम से छुट जाना।।मा.।।
ॐ ह्रीं अर्हज्जाताय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६२।।
मानव का जनम, मिलना है कठिन, जब मिल ही गया कुछ कर जाना।
भवसिंधु यदी तिरना चाहो, तो पूजन करने आ जाना।।
तीर्थंकर का चिन्मय चिद्रप, सुगुण उत्तम प्रगटित होता।
इन गुण को पाकर सिद्ध बनें, इनसे निजगुण विकसित होता।।
इन जिनवर की पूजा करके, चिन्मय चिंतामणि पा जाना।।मा.।।
ॐ ह्रीं अर्हत्चिद्रूपगुणाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६३।।
मानव का जनम, मिलना है कठिन, जब मिल ही गया कुछ कर जाना।
भवसिंधु यदी तिरना चाहो, तो पूजन करने आ जाना।।
तीर्थंकर का चित् चेतन गुण, यह शुद्ध चेतना प्राण कहा।
अर्हत्प्रभु ही तो सिद्ध बनें, उनमें प्रधान गुण मान्य रहा।।
ऐसे जिनवर के अर्चन से, चैतन्य प्राण को पा जाना।।मा.।।
ॐ ह्रीं अर्हत्चिद्गुणाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६४।।
मानव का जनम, मिलना है कठिन, जब मिल ही गया कुछ कर जाना।
भवसिंधु यदी तिरना चाहो, तो पूजन करने आ जाना।।
तीर्थंकर को कैवल्य ज्ञान, तीनों जग में उद्योत करे।
तीर्थंकर प्रभु की पूजा ही, निज मन में भेद विज्ञान भरे।।
कैवल्य ज्ञान गुण पूजा से, मन का अज्ञान नशा जाना।।मा.।।
ॐ ह्रीं अर्हत्ज्ञानाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६५।।
मानव का जनम, मिलना है कठिन, जब मिल ही गया कुछ कर जाना।
भवसिंधु यदी तिरना चाहो, तो पूजन करने आ जाना।।
तीर्थंकर प्रभु का दर्शन गुण, त्रिभुवन को युगपत् देख रहा।
तीर्थंकर प्रभु ही सिद्ध बनें, इनकी पूजा से सौख्य महा।।
जिनवर को हृदय कमल में नित, ध्या-२, कर पुण्य कमा जाना।।मा.।।
ॐ ह्रीं अर्हत्दर्शनाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६६।।
मानव का जनम, मिलना है कठिन, जब मिल ही गया कुछ कर जाना।
भवसिंधु यदी तिरना चाहो, तो पूजन करने आ जाना।।
क्षायिक अनंत शक्ती प्रगटे, यह वीर्य सुगुण अर्हंतों का।
तीर्थंकर प्रभु ही सिद्ध बने, इनकी भक्ती भवदधि नौका।।
निज में निज शक्ती प्रगटित हो, इसलिये सिद्ध के गुण गाना।।मा.।।
ॐ ह्रीं अर्हत्वीर्याय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६७।।
मानव का जनम, मिलना है कठिन, जब मिल ही गया कुछ कर जाना।
भवसिंधु यदी तिरना चाहो, तो पूजन करने आ जाना।।
आत्मा का दर्शन होते ही, संपूर्ण सुगुण विकसित होते।
तीर्थंकर का दर्शन गुण है, इनके दर्शन से अघ धोते।।
तीर्थंकर के गुण गा गाकर, निज के गुण को भी प्रगटाना।।मा.।।
ॐ ह्रीं अर्हद्दर्शनगुणाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६८।।
मानव का जनम, मिलना है कठिन, जब मिल ही गया कुछ कर जाना।
भवसिंधु यदी तिरना चाहो, तो पूजन करने आ जाना।।
संपूर्ण अनंत गुणों में भी, यह ज्ञान सुगुण महिमाशाली।
सब गुण का ज्ञान इसी से हो, यह सूर्य सदृश गुणमणिमाली।।
ज्ञानी जिनवर की पूजा कर, निज में केवल रवि प्रगटाना।।मा.।।
ॐ ह्रीं अर्हद्ज्ञानगुणाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।६९।।
मानव का जनम, मिलना है कठिन, जब मिल ही गया कुछ कर जाना।
भवसिंधु यदी तिरना चाहो, तो पूजन करने आ जाना।।
जो काल अनंतानंतों तक, त्रिभुवन जाने नहिं थकते हैं।
ऐसा वीरज गुण पा करके, प्रतिक्षण अनंत सुख लभते हैं।।
इन तीर्थंकर का अर्चन कर, संपूर्ण शक्ति को पा जाना।।मा.।।
ॐ ह्रीं अर्हद्वीर्यगुणाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७०।।
—रोला छंद—
पूजा योग्य महान्, सम्यग्दर्शन गुण हैं।
इस युत जन धनवान, पा लेते निज गुण हैं।।
इस गुण से अर्हंत, बनकर सिद्ध बने हैं।
नमूँ अजित भगवंत, मिलते सुगुण घने हैं।।
ॐ ह्रीं अर्हत्सम्यक्त्वगुणाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७१।।
स्वच्छ अतुल गुण श्रेष्ठ, पूजा योग्य जिन्हों में।
वे श्री अजितजिनेंद्र, सिद्धिरमा रत उनमें।।
मिले हमें गुण स्वच्छ, नमूँ नमूँ गुण गाऊँ।
अर्घ्य चढ़ा प्रत्यक्ष, जिन गुण संपति पाऊँ।।
ॐ ह्रीं अर्हत्स्वच्छगुणाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७२।।
द्वादशांग श्रुतज्ञान, पूजा योग्य जिन्हों का।
दिव्यध्वनी अमलान, पाते भवदधि नौका।।
प्राप्त करूँ श्रुतज्ञान, साम्य सुधारस पाऊँ।
नित्य करूँ गुणगान, आत्मगुणांबुधि पाऊँ।।
ॐ ह्रीं अर्हद्द्वादशांगाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७३।।
अतिशय पूजा योग्य, मती ज्ञान को पाके।
केवल ज्ञान मनोज्ञ, पाया ज्योति जलाके।।
आभिनिबोधिक ज्ञान, पूर्ण करो शिर नाऊँ।
नमूँ अजित भगवान्, अर्घ्य चढ़ा सुख पाऊँ।।
ॐ ह्रीं अर्हद्आभिनिबोधकाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७४।।
श्रुतमय अवधीज्ञान, अंगपूर्व से पूरण।
पाते भेदविज्ञान, कर लेते गुण पूरण।।
निज में ज्ञान विकास, तीर्थंकर परमात्मा।
पूजूँ शुद्ध प्रकाश, बनूँ नित्य शुद्धात्मा।।
ॐ ह्रीं अर्हत्श्रुतावधिगुणाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७५।।
अवधिज्ञान महान्, पूजा योग्य गुणकर।
इससे प्रभु गुणवान्, बने श्रेष्ठ रत्नाकर।।
नमूँ अजित भगवंत, चरणकमल को पूजूूँ।
निजगुण से विलसंत, भव भव दुख से छूटूॅें।।
ॐ ह्रीं अर्हत्अवधिगुणाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७६।।
मनपर्यय को पाय, अर्हत् पदवी पाई।
इन्द्रों ने शिर नाय, पूजा भक्ति रचाई।।
मैं भी पूजॅूं नित्य, झुक झुक शीश नमाऊँ।
पाऊँ अविचल सौख्य, अजितनाथ गुण गाऊँ।।
ॐ ह्रीं अर्हन्मन:पर्ययभावाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७७।।
केवल गुण असहाय, पर की नहीं अपेक्षा।
ऐसे गुण को पाय, जग की करी उपेक्षा।।
पूज्य प्रभू को पूज, केवल ज्योति जगाऊँ।
सौ इन्द्रों से पूज्य, नमूँ नमूूँ गुण गाऊँ।।
ॐ ह्रीं अर्हत्केवलगुणाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७८।।
केवल ज्योति स्वरूप, तीर्थंकर का गुण है।
श्रेष्ठ शुद्ध चिद्रूप, परमहंस का गुण है।।
नमूँ नमूँ शिर टेक, अर्घ्य चढ़ाकर पूजूँ।
मिले निजातम एक, सर्व दुखों से छूटूँ।।
ॐ ह्रीं अर्हत्केवलस्वरूपाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।७९।।
केवल दर्शन श्रेष्ठ, त्रिभुवन पूज्य कहाता।
नमत मिले पद ज्येष्ठ, मिटती सर्व असाता।।
पूजूँ अर्घ्य चढ़ाय, नमूँ नमूँ शिर नाऊँ।
पाऊँ गुण समुदाय, अजितनाथ को ध्याऊँ।।
ॐ ह्रीं अर्हत्केवलदर्शनीय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८०।।
—चौपाई—
केवलज्ञानी श्री अरिहंत, लोकालोक सकल जानंत।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, पूजूँ अजितनाथ भगवंत।।
ॐ ह्रीं अर्हत्केवलज्ञानाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८१।।
अर्हन् केवल वीर्य धरंत,प्रगट किया निज शक्ति अनंत।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, पूजूँ अजितनाथ भगवंत।।
ॐ ह्रीं अर्हत्केवलवीर्याय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८२।।
त्रिभुवन के मंगल करतार,श्री अरहंत देव सुखकार।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, पूजूँ अजितनाथ भगवंत।।
ॐ ह्रीं अर्हन्मंगलाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८३।।
निज आत्मा अवलोकनकार, अर्हन् मंगल दर्शनसार।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, पूजूँ अजितनाथ भगवंत।।
ॐ ह्रीं अर्हन्मंगलदर्शनाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८४।।
पूर्णज्ञान मंगलमय मान्य, अर्हत् पूजा योग्य महात्य।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, पूजूँ तुम्हें अजितनाथ भगवंत।।
ॐ ह्रीं अर्हन्मगंलज्ञानाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८५।।
अर्हत्प्रभु का वीर्य महान्, मंगलदायी सर्वप्रधान।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, पूजूँ अजितनाथ भगवंत।।
ॐ ह्रीं अर्हन्मंगलवीर्याय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८६।।
मंगल द्वादशांग श्रुत ज्ञान, अर्हत् पद का मूल निदान।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, पूजूँ अजितनाथ भगवंत।।
ॐ ह्रीं अर्हन्मंगलद्वादशांगाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८७।।
मतिज्ञान के भेद असंख्य, मंगल अर्हत् पद दें वंद्य।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, पूजूँ अजितनाथ भगवंत।।
ॐ ह्रीं अर्हन्मंगलाभिनिबोधकाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८८।।
द्रव्य भाव श्रुत मंगल सेतु, अर्हत्पद में माना हेतु।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, पूजूँ अजितनाथ भगवंत।।
ॐ ह्रीं अर्हन्मंगलश्रुताय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।८९।।
अवधिज्ञान मंगलमय मूर्ति, कर देता अर्हत् गुणपूर्ति।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, पूजूँ अजितनाथ भगवंत।।
ॐ ह्रीं अर्हन्मंगलावधिज्ञानाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९०।।
मनपर्यय मंगलवरज्ञान, अर्हत्पद का मूल निदान।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, पूजूँ अजितनाथ भगवंत।।
ॐ ह्रीं अर्हन्मंगलमन:पर्ययज्ञानाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९१।।
मंगल केवलज्ञान समस्त, अरिहंतों का सुगुण प्रशस्त।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, पूजूँ अजितनाथ भगवंत।।
ॐ ह्रीं अर्हन्मंगलकेवलेश्वराय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९२।।
अर्हन् मंगल केवल ईश, गणधर मुनिगण नावें शीश।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, पूजूँ अजितनाथ भगवंत।।
ॐ ह्रीं अर्हन्मंगलकेवलज्ञानाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९३।।
मंगल केवल दर्शन श्रेष्ठ, तीर्थंकर का गुण है एक।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, पूजूँ अजितनाथ भगवंत।।
ॐ ह्रीं अर्हन्मंगलकेवलदर्शनाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९४।।
अर्हत् मंगल केवल इष्ट, घातिकर्म का किया विनष्ट।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, पूजूँ अजितनाथ भगवंत।।
ॐ ह्रीं अर्हन्मंगलकेवलाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९५।।
केवलरूप स्वभाव महान्, तीर्थंकर का सर्वप्रधान।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, पूजूँ अजितनाथ भगवंत।।
ॐ ह्रीं अर्हन्मंगलकेवलरूपाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९६।।
धर्म जगत में मंगल धन्य, तीर्थंकर में गुण अभिवंद्य।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, पूजूँ अजितनाथ भगवंत।।
ॐ ह्रीं अर्हन्मंगलधर्माय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।९७।।
मंगल धर्मस्वरूप जिनेश, त्रिभुवन के पति नमें हमेश।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, पूजूँ अजितनाथ भगवंत।।
ॐ ह्रीं अर्हन्मंगलधर्मस्वरूपाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९८।।
उत्तम मंगल श्रीजिनराज, वंदन से पूरे सब काज।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, पूजूँ अजितनाथ भगवंत।।
ॐ ह्रीं अर्हन्मंगलोत्तमाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।९९।।
सर्व लोक में उत्तम ईश, तीर्थंकर को नाऊँ शीश।
कर्मनाश शिवधाम बसंत, पूजूँ अजितनाथ भगवंत।।
ॐ ह्रीं अर्हल्लोकोत्तमाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१००।।
—नरेन्द्र छंद—
तीन भुवन में उत्तम गुण जो, उसे धरें अरहंता।
कर्म अघाती भी विनाश कर, भये सिद्ध भगवंता।।
ऐसे अजितनाथ को पूजूँ, हृदय कमल में ध्याऊँ।
सर्व अमंगल दूर भगाकर, नित नव मंगल पाऊँ।।
ॐ ह्रीं अर्हत्लोकोत्तमगुणाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१०१।।
लोक अलोक प्रकाशी उत्तम, ज्ञान लोक में माना।
इसे प्राप्त कर सिद्ध भये जो, लोक अग्र शिवथाना।।ऐसे.।।
ॐ ह्रीं अर्हत्लोकोत्तमज्ञानाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१०२।।
लोक अलोक विलोके दर्शन, उत्तम है त्रिभुवन में।
इसे पाय अर्हंत बने फिर, तिष्ठें लोक शिखर में।।ऐसे.।।
ॐ ह्रीं अर्हत्लोकोत्तमदर्शनाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१०३।।
तीन लोक में सर्व श्रेष्ठ जो, वीर्य अनंती शक्ती।
इसे पाय अर्हंत बने फिर, मिली कर्म से मुक्ती।।ऐसे.।।
ॐ ह्रीं अर्हत्लोकोत्तमवीर्याय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१०४।।
तीन जगत में अतिशय उत्तम, स्मृति पूज्य जिन्हों की।
अर्हत् सिद्ध बने उनकी यह, पूजा श्रेष्ठ गुणों की।।ऐसे.।।
ॐ ह्रीं अर्हत्लोकोत्तमाभिनिबोधकाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१०५।।
अवधिज्ञान त्रिभुवन में उत्तम, अर्हत्पदवी दाता।
इसे पाय अर्हंत सिद्ध हों, नमत मिले सुखसाता।।ऐसे.।।
ॐ ह्रीं अर्हत्लोकोत्तमअवधिबोधाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१०६।।
लोकोत्तम मनपर्यय पाके, अर्हत् लक्ष्मी पाई।
सिद्ध बने लोकाग्र विराजें, नमूँ स्वात्म सुखदायी।।ऐसे.।।
ॐ ह्रीं अर्हत्लोकोत्तममन:पर्ययाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१०७।।
तीन लोक में सर्वोत्तम है, केवलज्ञान प्रभु का।
इसको पाय नियम से शिवपद, इन भक्ती भव नौका।।ऐसे.।।
ॐ ह्रीं अर्हत्लोकोत्तमकेवलज्ञानाय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१०८।।
—पूर्णार्घ्य—
तर्ज—आओ बच्चों तुम्हें दिखायें............
स्वर्णथाल में अर्घ्य सजाकर, भक्तिभाव से लाये हैं।
कल्पतरू सम अजितनाथ की पूजा करने आये हैं।।
वंदे जिनवरं, वंदे जिनवरं, वंदे जिनवरं, वंदे जिनवरं।
त्रिभुवन अग्रशिखर पर राजित, अंतिम तनु से किन्चित् कम।
पुरुषाकार कहाये फिर भी, निराकार आकृति उत्तम।।
इंद्रिय विषयों से विरहित प्रभु, सौख्य अतीन्द्रिय प्राप्त किया।
परमानंदामृत अनुभवरत, पूर्ण अतीन्द्रिय ज्ञान लिया।
वर्ण गंध रस रहित अर्मूितक, आप शरण में आये हैं।
कल्पतरू सम अजितनाथ .........वंदे.....।।१।।
त्रिभुवन में बहु घूम चुका प्रभु, निंह किन्चित् सुख प्राप्त किया।
निश्चयनय से आप सदृश मैं, यह निश्चय कर शरण लिया।।
आप भक्ति से शक्ति प्रगट हो, मुक्ति मार्ग में अचल रहूँ।
केवल ज्ञानमती प्रगटित हो, शिव प्राप्ती तक यही चहूँ।।
नाथ! आपकी कृपा दृष्टि की, आश लगाकर आये हैं।
कलपतरू सम अजितनाथ की, पूजा करने आये हैं।।२।।
ॐ ह्रीं अष्टोत्तरशतगुणसमन्विताय श्रीअजितनाथतीर्थंकराय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र—ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथतीर्थंकराय नम:।
-सोरठा-
नित्य निरंजन देव, अखिल अमंगल को हरें।
नित्य करूँ मैं सेव, मेरे कर्मांजन हरें।।१।।
-शंभु छंद-
जय जय तीर्थंकर क्षेमंकर, जय समवसरण लक्ष्मी भर्ता।
जय जय अनंत दर्शन सुज्ञान, सुख वीर्य चतुष्टय के धर्ता।।
इन्द्रिय विषयों को जीत ‘‘अजित’’ प्रभु ख्यात हुए कर्मारिजयी।
इक्ष्वाकुवंश के भास्कर हो, फिर भी त्रिभुवन के सूर्य तुम्हीं।।२।।
अठरह सौ हाथ देह स्वर्णिम, बाहत्तर लक्ष पूर्व आयू।
घर में भी देवों के लाये, भोजन वसनादि भोग्य वस्तू।।
तुमने न यहाँ के वस्त्र धरे, नहिं भोजन कभी किया घर में।
नित सुर बालक खेलें तुम संग, अरु इंद्र सदा ही भक्ती में।।३।।
गृह त्याग तपश्चर्या करते, शुद्धात्म ध्यान में लीन हुए।
तब ध्यान अग्नि के द्वारा ही, चउ कर्मवनी को दग्ध किये।।
प्रभु समवसरण में बारह गण, तिष्ठे दिव्य ध्वनि सुनते थे।
सम्यग्दर्शन निधि को पाकर, परमानंदामृत चखते थे।।४।।
श्रीसिंहसेन गणधर प्रधान, सब नब्बे गणधर वहाँ रहें।
मुनिराज तपस्वी एक लाख, जो सात भेद में कहे गये।।
त्रय सहस सात सौ पचास मुनि, चौदह पूर्वों के धारी थे।
इक्कीस सहस छह सौ शिक्षक, मुनि शिक्षा के अधिकारी थे।।५।।
नौ सहस चार सौ अवधिज्ञानि, विंशति हजार केवलज्ञानी।
मुनि बीस हजार चार सौ विक्रिय-ऋद्धीधर थे निजज्ञानी।।
बारह हजार अरु चार शतक, पच्चास मन:पर्ययज्ञानी।
मुनि बारह सहस चार सौ मान्य, अनुत्तरवादी शुभ ध्यानी।।६।।
आर्यिका प्रकुब्जा गणिनी सह, त्रय लाख विंशति सहस मात।
श्रावक त्रय लाख श्राविकाएँ, पण लाख चतु:संघ सहित नाथ।।
सब देव देवियाँ असंख्यात, नरगण पशु भी वहाँ बैठे थे।
सब जात विरोधी वैर छोड़, प्रभु से धर्मामृत पीते थे।।७।।
गजचिन्ह से तुमको जग जाने, सब रोग शोक दु:ख दूर करो।
हे अजितनाथ! बाधा विरहित, मुझको शिव सौख्य प्रदान करो।।
हे नाथ! तुम्हें शत शत वंदन, हे अजित! अजय पद को दीजे।
मुझ ‘ज्ञानमती’ केवल करके, भगवन्! जिनगुण संपति दीजे।।८।।
-घत्ता-
जय जय चिन्मूरति, गुणमणि पूरित, जय जिनवर वृषचक्रपती।
जय पूर्णज्ञानधर, शिवलक्ष्मीवर, भविजन पावें सिद्धगती।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथतीर्थंकराय जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-शेर छंद-
जो भव्य अजितनाथ का विधान करेंगे।
वे मोह शत्रु जय में शक्तिमान बनेंगे।।
कैवल्य ‘ज्ञानमती’ सूर्य उदय को पाके।
शाश्वत सुखी रहेंगे सिद्धलोक में जाके।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।
-शंभु छन्द-
जय जय तीर्थंकर त्रिभुवन पति, जय जय अनुपम गुण के धारी।
जय जय चिच्चिंतामणी आप, चिंतित वस्तू दें सुखकारी।।
जय जय अनमोल रतन जग में, तुम नाम रसायन भी माना।
जय जय तुम नाम मंत्र उत्तम, वह महौषधी भी परधाना।।१।।
यह महामोह अहि के विष को, गारुत्मणि बन अपहरण करे।
भव वन की जन्म लता को भी, जड़ से उखाड़ कर दहन करे।।
तुम नाम अलौकिक शक्ति बाण, मृत्यु योद्धा का घात करे।
भव भव में बंधे कर्म शत्रु, उन सबका जड़ से नाश करे।।२।।
तुम नाम मंत्र अद्भुत जग में, यह शिवललना को वश्य करे।
समरस मय अतिशय सुख देके, कर्मोदय के सब कष्ट हरे।।
तुम नाम आर्त और रौद्र ध्यान, दोनों को जड़ से नाशे हैं।
वर धर्मध्यान और शुक्लध्यान, के बल से निज परकाशे हैं।।३।।
माया मिथ्यात्व निदान शल्य, तीनों को दहन करे क्षण में।
जो विषय वासना की इच्छा, उसको भी शमन करे क्षण में।।
चिच्चमत्कारमय चेतन की, परिणति में नित्य रमाता है।
तुम नाम मंत्र सचमुच भगवन् , स्वातम रस पान कराता है।।४।।
मैं शुद्ध बुद्ध हूँ अमल अकल, अविकारी ज्योति स्वरूपी हूँ।
निज देहरूप देवालय में, रहते भी चिन्मयमूर्ती हूँ।।
इस विध से आतम अनुभव ही, पर से सब ममत हटाता है।
यह निज को निज के द्वारा ही, बस निज में रमण कराता है।।५।।
जय जय तुम वाणी कल्याणी, गंगाजल से भी शीतल है।
जय जय शमगर्भित अमृतमय, हिमकण से भी अतिशीतल है।।
चंदन औ मोती हार चंद्रकिरणों से भी शीतलदायी।
स्याद्वादमयी प्रभु दिव्यध्वनी, मुनिगण को अतिशय सुखदायी।।६।।
वस्तू में धर्म अनंत कहे, उन एक एक धर्मों को जो।
यह सप्तभंगि अद्भुत कथनी, कहती है सात तरह से जो।।
प्रत्येक वस्तु में विधि निषेध, दो धर्म प्रधान गौण मुख से।
वे सात तरह से हों वर्णित, निंह भेद अधिक अब हो सकते।।७।।
प्रत्येक वस्तु है अस्ति रूप, और नास्ति रूप भी है वो ही।
वो ही है उभयरूप समझो, फिर अवक्तव्य है भी वो ही।।
वो अस्तिरूप और अवक्तव्य, फिर नास्ति अवक्तव भंग धरे।
फिर अस्ति नास्ति औ अवक्तव्य, ये सात भंग हैं खरे खरे।।८।।
स्वद्रव्य क्षेत्र औ काल भाव, इन चारों से वह अस्तिमयी।
परद्रव्य क्षेत्र कालादि से, वो ही वस्तु नास्तित्व कही।।
दोनों को क्रम से कहना हो, तब अस्तिनास्ति यह भंग कहा।
दोनों को युगपत कहने से, हो अवक्तव्य यह तुर्य कहा।।९।।
अस्ती और अवक्तव्य क्रम से, यह पंचम भंग कहा जाता।
नास्ती और अवक्तव्य छट्ठा, यह भी है क्रम से बन जाता।।
क्रम से कहने से अस्ति नास्ति, और युगपत अवक्तव्य मिलके।
यह सप्तम भंग कहा जाता, बस कम या अधिक न हो सकते।।१०।।
इस सप्तभंग मय सिन्धु में, जो नित अवगाहन करते हैं।
वे मोह रागद्वेषादिरूप, सब कर्म कालिमा हरते हैं।।
वे अनेकांतमय वाक्य सुधा, पीकर आतमरस चखते हैं।
फिर परमानन्द परमज्ञानी, होकर शाश्वत सुख भजते हैं।।११।।
मैं निज अस्तित्व लिये हूँ नित, मेरा पर में अस्तित्व नहीं।
मैं चिच्चैतन्य स्वरूपी हूँ, पुद्गल से मुझ नास्तित्व सही।।
इस विध निज को निज के द्वारा, निज में ही पाकर रम जाऊँ।
निश्चय नय से सब भेद मिटा, सब कुछ व्यवहार हटा पाऊँ।।१२।।
भगवन् ! कब ऐसी शक्ति मिले, श्रुतदृग से निज को अवलोवूँâ।
फिर स्वसंवेद्य निज आतम को, निज अनुभव द्वारा मैं खोजूँ।।
संकल्प विकल्प सभी तज के, बस निर्विकल्प मैं बन जाऊँ।।
फिर केवल ‘‘ज्ञानमती’’ से ही, निज को अवलोकूं सुख पाऊँ।।१३।।
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथतीर्थंकराय जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-शेर छन्द-
जो भव्य अजितनाथ का, विधान करेंगे।
वे मोह शत्रु जय में, शक्तिमान बनेंगे।।
कैवल्य ‘ज्ञानमती’ सूर्य, उदय को पाके।
शाश्वत सुखी रहेंगे, सिद्धलोक में जाके।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।
प्रशस्ति
-दोहा-
तीर्थंकर चक्री मदन, त्रयपद धारी ईश।
शांतिनाथ भगवान को, नमूँ-नमूँ नत शीश।।१।।
कुंथुनाथ-अरनाथ प्रभु, तीन-तीन पद नाथ।
इनके श्री चरणाब्ज को, नमूँ नमाकर माथ।।२।।
वर्तमान में वीर प्रभु, शासनपति भगवान।
इनके शासन में हुये, बहु आचार्य महान।।३।।
मूल-संघ में कुंदकुंद गुरु, अन्वय सरस्वति गच्छ।
बलात्कार गण में हुए , सूरि नमूँ मन स्वच्छ।।४।।
सदी बीसवीं के प्रथम, गुरु दिगंबराचार्य।
चरित चक्रवर्ती श्री, शांतिसागराचार्य।।५।।
इनके शिष्योत्तम श्री, वीरसागराचार्य।
पहले पट्टाचार्य गुरु, नमूँ भक्ति उर धार्य।।६।।
मैंने गणिनी ज्ञानमती , किया विधान प्रपूर्ण ।
अजितनाथ विधान यह, भरे सौख्य संपूर्ण।।७।।
जब तक जम्बूद्वीप की, कीर्ति जगत् में व्याप्त।
तब तक ‘‘ज्ञानमती’’ कृती, रहे विश्व विख्यात।।८।।
(इति श्रीअजितनाथविधानं संपूर्णं ।)
वर्धतां जिनशासनं ।
श्री अयोध्या तीर्थक्षेत्र पूजा
—अथ स्थापना—
(तर्ज-गोमटेश, जय गोमटेश......)
आदिनाथ, जय आदिनाथ, मम हृदय विराजो-२
हम यही भावना करते हैं।
भावना करते हैं, ऐसा आने वाला कल हो।
हो नगर नगर में प्रभु पूजा, सारी धरती भक्ति स्थल हो।।हम०।।१।।
युग की आदि में इन्द्रराज ने, नगरि अयोध्या रचवाई।
श्री नाभिराय मरुदेवि को पाकर, सारी जनता हरषाई।।
प्रभु आदिनाथ का जन्म याद कर, मेरा मन भी उज्ज्वल हो।।हम०।।२।।
श्री अजितनाथ अभिनंदन सुमती, जिन अनंत ने जन्म लिया।
इन्द्रों ने जिन शिशु को लेकर, मेरू गिरि पर अभिषेक किया।।
जिन जन्मभूमि का अर्चन कर, मेरा मन भी अति उज्ज्वल हो।।हम०।।३।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवअजितनाथअभिनंदननाथसुमतिनाथ-अनंतनाथजन्मभूमि-अयोध्यातीर्थक्षेत्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवअजितनाथअभिनंदननाथसुमतिनाथ-अनंतनाथजन्मभूमि-अयोध्यातीर्थक्षेत्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् ।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवअजितनाथअभिनंदननाथसुमतिनाथ-अनंतनाथजन्मभूमि-अयोध्यातीर्थक्षेत्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अष्टक-
तर्ज-आवो बच्चों तुम्हें दिखायें.....
आवो हम सब शीश झुकायें, नगरि अयोध्या तीर्थ को।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।
वंदे जिनवरं-४।।
सरयूनदि का जल अति शीतल, पद्मपराग सुवास मिला।
रागभाव मल धोवन कारण, धार करें मनवंâज खिला।।
जलधारा से पूजा करते, पावें उज्ज्वल कीर्ति को।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।१।।
वंदे जिनवरं-४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवअजितनाथअभिनंदननाथसुमतिनाथ-अनंतनाथ-तीर्थंकरजन्मभूमिअयोध्यातीर्थक्षेत्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब शीश झुकायें, नगरि अयोध्या तीर्थ को।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।
वंदे जिनवरं-४।।
केशर घिस कर्पूर मिलाया, भ्रमर पंक्तियां आन पड़ें।
तीर्थक्षेत्र पूजन से नशते, कर्मशत्रु भी बड़े बड़े।।
चंदन से पूजा करते ही, पावें अविचल कीर्ति को।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।२।।
वंदे जिनवरं-४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवअजितनाथअभिनंदननाथसुमतिनाथ-अनंतनाथ-तीर्थंकरजन्मभूमिअयोध्यातीर्थक्षेत्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब शीश झुकायें, नगरि अयोध्या तीर्थ को।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।
वंदे जिनवरं-४।।
चंद्र चन्द्रिका सम सित तंदुल, पुंज चढ़ायें भक्ती से।
अमृतकणसम निज समकित गुण, पायें अतिशय युक्ती से।।
अक्षत से जिनक्षेत्र पूजते, पावें अक्षय कीर्ति को।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ के।।३।।
वंदे जिनवरं-४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवअजितनाथअभिनंदननाथसुमतिनाथअनंत-नाथतीर्थंकरजन्मभूमिअयोध्यातीर्थक्षेत्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब शीश झुकायें, नगरि अयोध्या तीर्थ को।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।
वंदे जिनवरं-४।।
वर्ण वर्ण के सुमन सुगंधित, पारिजात वकुलादि खिले।
काम व्यथा नश जाय क्षेत्र को, अर्पण कर नवलब्धि१ मिले।।
पुष्पों से पूजा करते ही, पावें निजगुण कीर्ति को।।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।४।।
वंदे जिनवरं-४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवअजितनाथअभिनंदननाथसुमतिनाथअनंत-नाथतीर्थंकरजन्मभूमिअयोध्यातीर्थक्षेत्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब शीश झुकायें, नगरि अयोध्या तीर्थ को।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।
वंदे जिनवरं-४।।
रसगुल्ला रसपूर्ण अंदरसा, कलावंâद पयसार२ लिये।
अमृतपिंड सदृश नेवज से, तीर्थक्षेत्र को यजन किये।।
चरु से पूजा करते ही जन, हरते क्षुध् की भीति को।।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।५।।
वंदे जिनवरं-४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवअजितनाथअभिनंदननाथसुमतिनाथ-अनंतनाथ-तीर्थंकरजन्मभूमिअयोध्यातीर्थक्षेत्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब शीश झुकायें, नगरि अयोध्या तीर्थ को।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।
वंदे जिनवरं-४।।
हेमपात्र में घृत भर बत्ती, ज्योति जले तम नाश करे।
दीपक से आरति करते ही, हृदय पटल की भ्रांति हरे।।
करें आरती भक्ति भाव से, पावें आतमज्योति को।।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।६।।
वंदे जिनवरं-४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवअजितनाथअभिनंदननाथसुमतिनाथअनंत-नाथतीर्थंकरजन्मभूमिअयोध्यातीर्थक्षेत्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब शीश झुकायें, नगरि अयोध्या तीर्थ को।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।
वंदे जिनवरं-४।।
धूपघड़े में धूप जलाकर, अष्टकर्म को दग्ध करें।
निजआतम के भावकर्म मल, द्रव्यकर्म भी भस्म करें।।
धूप खेयकर पूजा करते, पावें सुरभित कीर्ति को।।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।७।।
वंदे जिनवरं-४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवअजितनाथअभिनंदननाथसुमतिनाथअनंत-नाथतीर्थंकरजन्मभूमिअयोध्यातीर्थक्षेत्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब शीश झुकायें, नगरि अयोध्या तीर्थ को।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतम तीर्थ को।।
वंदे जिनवरं-४।।
फल अंगूर अनंनासादिक, सरस मधुर ले थाल भरे।
आत्म अतीन्द्रिय सुख इच्छुक हो, फल अर्पें बहु भक्ति भरे।।
फल से पूजा करते ही हम, पावें निजपद तीर्थ को।।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।८।।
वंदे जिनवरं-४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवअजितनाथअभिनंदननाथसुमतिनाथअनंत-नाथतीर्थंकरजन्मभूमिअयोध्यातीर्थक्षेत्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब शीश झुकायें, नगरि अयोध्या तीर्थ को।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।
वंदे जिनवरं-४।।
जल चंदन अक्षत माला चरु, दीप धूप फल अर्घ्य लिया।
केवल ‘ज्ञानमती’ पद हेतू, जिनपद पंकज अर्घ्य किया।।
अर्घ्य चढ़ाकर पूजा करते, पावें शिवपद तीर्थ को।।
जिनवर जन्मभूमि को जजतें, पावें आतमतीर्थ को।।९।।
वंदे जिनवरं-४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवअजितनाथअभिनंदननाथसुमतिनाथअनंत-नाथतीर्थंकरजन्मभूमिअयोध्यातीर्थक्षेत्राय अनघ्र्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-सोरठा-
सरयूनदि का नीर, वंâचन झारी में भरा।
मिले भवोदधि तीर, शांतीधारा शं करे।।१०।।
शांतये शांतिधारा
वकुल कमल कल्हार, पुष्पांजलि करते यहाँ।
मिले सौख्य भंडार, यश सौरभ चहुंदिश भ्रमें।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:
-नरेन्द्र छन्द-
आदिनाथ के गर्भागम के, छह महीने पहले ही।
इन्द्राज्ञा से धनपति ने आ, रत्नों की वर्षा की।।
चैत्रवदी नवमी जिन जन्में, किया महोत्सव सुरगण।
ऋषभदेव जन्मस्थल पूजत, मिले आत्मनिधि तत्क्षण।।१।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवगर्भजन्मकल्याणकेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अजितनाथ ने जन्म लिया जब, सुरपति आसन वंâपे।
जितशत्रु पितु माता विजया, पुलकित मन आनंदे।।
माघ सुदी दशमी तिथि उत्तम, न्हवन हुआ मेरू पर।
साकेतापुरि को हम पूजें, जजते जिसे पुरंदर।।२।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीअजितनाथगर्भजन्मतपकेवलज्ञानकल्याणकेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन जननी सिद्धार्था माता, इन्द्रों से भी पूजित।
श्री ह्री धृति र्कीित बुद्धी, लक्ष्मी देवी से सेवित।।
पिता स्वयंवर भी र्हिषत हो, रत्नों को नित बांटे।
हम भी अभिनंदन जिनवर को, पूजत संकट काटें।।३।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीअभिनंदननाथगर्भजन्मतपकेवलज्ञानकल्याणकेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रावण सुदि द्वितिया गर्भागम, सुमंगला माँ र्हिषत।
चैत्र सुदी ग्यारस प्रभु जन्में, पिता मेघरथ पुलकित।।
सुदि नवमी वैशाख सुदीक्षा, चैत्र सुदी ग्यारस में।
केवलज्ञान मोक्ष कल्याणक सुमतिनाथ को प्रणमें।।४।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीसुमतिनाथगर्भजन्मतपकेवलज्ञानकल्याणकेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुरी विनीता में अनंतप्रभु, िंसहसेन घर जन्मे।
जयश्यामा माता आनंदित, ज्येष्ठ वदी बारस में।।
जन्मदिवस दीक्षा प्रभु चैत्र, अमावस केवलज्ञानी।
इस ही तिथि में मोक्ष कल्याणक, जजत बनें निजज्ञानी।।५।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीअनंतनाथगर्भजन्मतपकेवलज्ञानकल्याणकेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र—ॐ ह्रीं अनंतानंततीर्थंकरजन्मभूमिअयोध्यापुर्यै नम:।
-शंभु छन्द-
हे नाथ! आपके गुणमणि की, जयमाल गूंथ कर लाये हैं।
भक्ती से प्रभु के चरणों में, गुणमाल चढ़ाने आये हैं।।
है धन्य अयोध्यापुरी जहाँ, श्री आदिनाथ ने जन्म लिया।
जिन अजितनाथ अभिनंदन सुमती, प्रभु अनंत ने धन्य किया।।
वैâलाशगिरी से वृषभदेव जिन, मोक्षधाम को पाये हैं।।हे०।।१।।
सम्राट् भरतचक्री ने दीक्षा ले, शिवपद को प्राप्त किया।
इक्ष्वाकुवंशि१ नृप चौदह लाख हि, लगातार शिवधाम लिया।।
ये पुरी विनीता के जन्में, परमात्मधाम को पाये हैं।।हे०।।२।।
बाहुबलि कामदेव ने जीत, भरत को फिर दीक्षा धरके।
प्रभु एक वर्ष थे ध्यान लीन, तन बेल चढ़ी अहि भी लिपटे।।
फिर केवलज्ञानी बनें नाथ, हम गुण गाके हर्षाये हैं।।हे०।।३।।
श्री अजितनाथ आदिक चारों, तीर्थंकर सम्मेदाचल से।
शिवधाम गये इन्द्रादिवंद्य, हम नित वंदें, मन वच तन से।।
धनि धन्य अयोध्या जन्मस्थल, शिवथल वंदत हर्षाये हैं।।हे०।।४।।
चक्रीश सगर आदिक यहाँ के, कर्मारि नाश शिव लिया अहो।
श्री रामचन्द्र ने इसी अयोध्या, को पावन कर दिया अहो।।
मांगीतुंगी से मोक्ष गये, इन वंदत पुण्य बढ़ाये हैं।।हे०।।५।।
युग की आदी में आदिनाथ, पुत्री ब्राह्मी सुंदरी हुई।
पितु से ब्राह्मी औ अंकलिपी, पाकर विद्या में धुरी हुई।।
पितु से दीक्षा ले गणिनी थीं, इनके गुण सुर नर गाये हैं।।हे०।।६।।
इनके पथ पर अगणित नारी, ने चलकर स्त्रीलिंग छेदा।
र्आियका सुलोचना ने ग्यारह, अंगों को पढ़ जग संबोधा।।
दशरथ माँ पृथिवीमती आर्यिका, को हम शीश नमाये हैं।।हे०।।७।।
सीता ने अग्निपरीक्षा में, सरवर जल कमल खिलाया था।
पृथ्वीमति गणिनी से दीक्षित, आर्यिका बनी यश पाया था।।
श्रीरामचन्द्र लक्ष्मण लवकुश, सब दुःखी हृदय गुण गाये हैं।।हे०।।८।।
सीता ने बासठ वर्षों तक, बहु उग्र उग्र तप तप करके।
तैंतिस दिन सल्लेखना ग्रहण, करके सुसमाधि मरण करके।।
अच्युत दिव में होकर प्रतीन्द्र, रावण को बोध कराये हैं।।हे०।।९।।
जय जय रत्नों की खान रत्नगर्भा, रत्नों की प्रसवित्री।
जय जय साकेतापुरी अयोध्यापुरी विनीता सुखदात्री।।
जय जयतु अनादिनिधन नगरी, हम वंदन कर हर्षाये हैं।।हे०।।१०।।
बस काल दोष से इस युग में, यहाँ पांच तीर्थंकर जन्म लिये।
सब भूत भविष्यत् कालों में, चौबिस जिन जन्मभूमि हैं ये।।
हम इसका शत शत वंदन कर, अतिशायी पुण्य कमाये हैं।।हे०।।११।।
जय जय तीर्थंकर भरत सगर, जय रामचन्द्र लव कुश गुणमणि।
जय जयतु आर्यिका ब्राह्मी माँ, सुंदरी व सीता साध्वीमणि।।
हम केवल ‘ज्ञानमती’ हेतू, तुम चरणों शीश झुकाये हैं।।हे ०।।१२।।
जय जयतु अयोध्या जिस निकटे, है टिकैतनगर जहाँ जन्म लिया।
जय जयतु आर्यिका रत्नमती, जिनने निज जीवन धन्य किया।।
ब्राह्मी माँ की पदधूलि बनूं, सुज्ञानमती लहराये हैं।
हे नाथ! आपके गुणमणि की, जयमाल गूंथ कर लाये हैं।।हे०।।१३।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीऋषभदेवअजितनाथअभिनंदननाथसुमतिनाथअनंतनाथ- तीर्थंकरजन्मभूमिअयोध्यातीर्थक्षेत्राय जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।
-दोहा-
वीर संवत् पचीस सौ, उन्निस मगसिर शुद्ध।
ग्यारस तिथि पूजा रची, जिन यजते हो सिद्धि।।१।।
।।इत्याशीर्वाद