श्री चन्द्रप्रभु पूजा
श्री चन्द्रप्रभु पूजा
श्री चन्द्रप्रभु पूजा
(कवि श्री जिनेश्वरदासजी कृत)
चारित चन्द्र चतुष्टय मण्डित चारि प्रण्ड अरि चक चूरे।
चन्द्र विराजित चर्ण विषै यह चन्द्र प्रभा सम है अनुपूरे।।
चारु चरित्र चकोरन के चित चोरान चन्द्र कला बहु सुरें।
सो प्रभु चन्द्र समस्त गुरु चित चिन्तत ही सुख होय हजूरें।।
ओं ह्रीं श्री चन्दप्रभ जिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्नाननम्।
ओं ह्रीं श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्।
ओं ह्रीं श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्।
अथाष्टक
पù द्रह सम उज्ज्वल जल ले, शीतलता अधिकाई।
जन्म जरा दुःख दूर करने को, जिनवर पूज रचाई।।
चंचल चित को रोकि चतुर्गति, चक्र भ्रमण निरवारो।
चारु चरण आचरण चतुर नर, चन्द्र प्रभु चित धारो।।
ओं ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिर वर बावन, चन्दन, केशर संग घिसावो।
भव आताप निवारण कारण, श्री जिन चरण चढ़ावो।। चंचल.
ओं ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय भवतापविनाशनाय चन्दनं नि. स्वाहा।
चन्द्र किरण सम श्वेत मनोहर, खण्ड विवर्जित सोहे।
ऐसे क्षत सों प्रभु पूजों, जग जीवन मन मोहै।। चंचल.
ओं ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्ताये अक्षतान् नि. स्वाहा।
सुर तरु के शुचि पुष्प मनोहर, वर्ण वर्ण के लायो।
काम-दाह निरवारन कारन, श्री जिन चरण चढ़ायो।। चंचल.
ओं ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय कामबार्णविध्वंशनाय पुष्पं नि. स्वाहा।
नाना विध के व्यंजन, ताजे, स्वच्छ अदोष बनाओ।
रोग क्षुधा दुख दूर करन को, श्री जिन चरण चढ़ाओ।। चंचल.
ओं ह्रीं श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कनक रतनमय दीप मनोहर, उज्ज्वल ज्योति जगावो।
मोह महातम नाश करने को, जिनवर चरण चढ़ावो।। चंचल.
ओं ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
दशविध धूप हुताशन माहिं, क्षेय सुगन्ध बढ़ावो।
अष्ट करम के नाश करन को, श्री जिन चरण चढ़ावो।। चंचल.
ओं ह्रीं श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अष्टकर्म दहनाय धूपं नि. स्वाहा।
नाना विधि के उत्तम फल ले, तन मन को सुखदाई।
दुःख निवारण शिव-फल कारण, पूजों श्री जिनराई।। चंचल.
ओं ह्रीं श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि. स्वाहा।
वसु विधि अर्घ बनाय मनोहर, श्रीजिन मन्दिर जावो।
अष्टकर्म के नाश करन को, श्री जिन चरण चढ़ावो।। चंचल.
ओं ह्रीं श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अनध्र्यपदप्राप्तये अघ्र्य नि. स्वाहा।
पंचकल्याणक के अध्र्य
कुसुमलता छन्द
चैत्र प्रथम पंचम दिन जान, गर्भागम मंगल गुणखान।
माता लक्ष्मणा के उर आये, तजि दिव लोक चन्द्र भगवान।।
षट् नव मास रतन बरसाये, इन्द्र हुकुमतैं धनद महान।
तिनके चरण कमल मैं पूजूँ, अर्घ चढ़ाय करूँ नित ध्यान।।
ओं ह्रीं चैत्रकृष्णा पंचम्यां गर्भमंगलप्राप्ताय श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
पौष बदि ग्यारस को जन्मे, चन्द्रपुरी जिन चन्द्र महान।
महासेन राजा के प्यारे, सकल सुरासुर माने आन।।
सुर गिरिपर अभिषेक कियो हरि, चतुर निकाय देव सब आन।
सो जिन चन्द्र जयौ जग माहीं, अर्घ चढ़ाय करूँ नित ध्यान।।
ओं ह्रीं पौष कृष्णैकादश्यां जन्ममंगलप्राप्ताय श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
पौष वदि ग्यारस तप लीनों, जान्यो जगत अधिर दुख दान।
राज त्यागि वैराग्य धरो, बन जाय कियो आतम कल्याण।।
सुर-नर-खग मिलि पूज रचाई, मन में इत ही आनन्द मान।
ऐसे चन्द्रनाथ जिनवर को, अर्घ चढ़ाय, करूँ नित ध्यान।।
ओं ह्रीं पौष कृष्णैकादश्यां तपोमंगलप्राप्ताय श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
फाल्गुन वदि सप्तमी जानो, चार घातिया घाति महान।
सकल सुरासुर पूजि जगतपति, पायो तिहि दिन केवलज्ञान।।
समवसरण महिमा हरि कीनी, दीनी दृष्टि चरण निज आन।
ऐसे चन्द्रनाथ जिनवर को, अर्घ चढ़ाय करों नित ध्यान।।
ओं ह्रीं फाल्गुन कृष्णा सप्तभ्यां केवलज्ञान मंगलप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
साते वदि फाल्गुन के महीना, सम्मेदाचल शृंग महान।
ललित कूट ऊपर जगपति ने, पायो आतम शिव कल्यान।।
सुर सुरेश मिलि पूज रचाई, पायो आतम शिव कल्यान।।
सुर सुरेश मिलि पूज रचाई, गायो गुण हर्षित जिय ठान।
सुगुरु समन्त भद्र के स्वामी, देहु ‘जिनेश्वर’ को सत-ज्ञान।।
ओं ह्रीं फाल्गुन कृष्णा सप्तभ्यां मोक्ष मंगलप्राप्ताय श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
।। जाप मंत्र।।
पुष्प से 9, 27 या 108 बार निम्न दो मंत्रों में से किसी एक मंत्र का जाप करें।
1. ओं ह्रीं सरस्वती, लक्ष्मी, सर्वाण्हयक्ष, सनत्कुमारयक्ष, अष्टप्रातिहार्य, अष्टमंगलद्रव्य, विजययक्ष, ज्वालामालिनी यक्षी, पंचदतिथि देवता, नवग्रहदेवता, पंचक्षेत्रपालादि सचित्ताचित्तमिश्र परिकरसहिताय शतेन्द्र पूजिताय श्री चन्द्रप्रभु जिनेन्द्राय नमः मम ऋद्धिं वृद्धिं सौख्यं कुरु कुरु स्वाहा।
2. ओं ह्रीं विजययक्ष, ज्वालामालिनी यक्षी आदि सचित्त अचित्त मिश्र परिकरसहिताय श्री चन्द्रप्रभु जिनेन्द्राय नमः मम ऋद्धिं वृद्धिं सौख्यं कुरु कुरु स्वाहा।
जयमाला
अष्टम तिथिपति तुम भनी, अष्टम तीरथ राय।
अष्टम पृथ्वी कारने, नमूँ अंग वसु नाय।।
चाल: अहो जगत गुरुदेव...
अहो चन्द्र जिनदेव, तुम जग नायक स्वामी।
अष्टम तीरथराज, हो तुम अन्तरयामी।।
लोकालोक मँझार, जड़ चेतन गुणधारी।
द्रव्य छहों अनिवार, पर्यय शक्ति अपारी।।
तिहि सबको इक बार, जाने ज्ञान अनन्ता।
ऐसो ही सुखकार, दर्शन है भगवन्ता।।
तीन लोक तिहूँ काल, ज्ञायक देव कहावो।
निरबाधा सुखसार, तिहि शिवधान रहावो।।
हे प्रभु! या तन मांहि, मैं बहुत दुख पायो।
कहन जरूरति नाहिं, तुम सबहिं लखि पायो।।
कबहुँ नित्य निगोद, कबहूँ नर्क मँझारी।
सुरनर पशु गति माहिं, दुःख सहे अतिभारी।।
पशुगति के दुख देव! कहत बढ़े दुख भारी।
छेदन भेदन त्रास, शीत उष्ण अधिकारी।।
भूख प्यास के जोर सबल पशु हनि मारे।
तहां वेदना घोर हे प्रभु! कौन सम्हारे।।
मानुष गति के मांहि, यद्यपि है कछु साता।
तोहू दुख अधिकाय, क्षण क्षण होत असाता।।
धन जीवन सुत नारि, सम्पत्ति और घनेरी।
मिलत हरष अनिवार, बिछुरत विपत घनेरी।।
सुरगति इष्ट वियोग, पर सम्पत्ति लखि झुरै।
मरण चिन्ह संयोग उर विकलप बहु पुरै।।
यों चारों गति माहिं, दुख भरपूर भरौ है।
ध्यान धरों मन माहिं, यातैं काज सरौ है।
कर्म महा दुख साज, याकौ नाश करौ जी।
बड़े गरीब निवाज, मेरी आश भरो जी।।ं
समन्तभद्र गुरुदेव, ध्यान तुम्हारो कीनो।
प्रकट भयौ जिनवीर, जिनवर दर्शन कीनो।।
जब तक जग में वास, तब तक हिरदे मेरे।
कहत जिनेश्वर दास, शरण गहौं मैं तेरे।।
जग जयवन्ते होउ जिन, भरौं हमारी आस।
जय-लक्ष्मी जिन दीजिये, कहत जिनेश्वर दास।।
ओं ह्रीं श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय पूर्णाघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
वर्तमान जिनराय भरत के जानिये,
पंच कल्याणक मानि गये शिव थान ये।
जो नर मन वच काय, प्रभु पूजै सही,
सो नर दिव सुख पाय, लहै अष्टम मही।।
।। इत्याशीर्वादः-शांतये त्रय शांतिधारा - परिपुष्पांजलि क्षिपेत्।।
विजय यक्ष का अर्घ
चन्द्रप्रभु के शासन रक्षक, विजय यक्ष आह्नानन है।
आओ तिष्ठो पास हमारे, करते यही निवेदन है।।
स्वीकारो स्वीकारो मेरा अर्घ देव तुम स्वीकरो।
जिनवर के मुण् श्रद्धानी को ले अपने संग में तारो।।
ओं आं क्रौं ह्रीं विजययक्ष देवतेभ्यो जलादि अघ्र्य समर्पयामीति स्वाहा।
ज्वालामालिनी यक्षी का अर्घ
चन्द्रप्रभु की शासन रक्षक ज्वाला को आह्नानन है।
आओ तिष्ठो पास हमारे, करते यही निवेदन है।।
स्वीकारो स्वीकारो मेरा अर्घ देव तुम स्वीकरो।
जिनवर के मुझ श्रद्धानी को ले अपने संग में तारो।।
ओं आं क्रौ। ह्रीं ज्वालामालिनीयक्षिदेवतेभ्यो जलादि अघ्र्य समर्पयामीति स्वाहा।
क्षेत्रपालजी का अर्घ
चन्द्रप्रभु के क्षेत्रपाल जी सुनो सुनो आह्नानन है।
आओ तिष्ठो पास हमारे, करते यही निवेदन है।।
स्वीकारो स्वीकारो मेरा अर्घ देव तुम स्वीकरो।
जिनवर के मुझ श्रद्धानी को ले अपने संग में तारो।।
ओं आं क्रौं ह्रीं अत्रस्थ चन्द्रनाथ जिनस्य क्षेत्रपाल, भूमिपाल आदि सचित्त अचित्तत मिश्र देवतेभ्यो जलादि अघ्र्य समर्पयामीति स्वाहा।
(इति)