श्वास-कासादि-रोगाणां,
नाशकैःदाडिमैःफलैः।
तद्रसै-रभिषिञ्चामि,
धर्म-चक्रस्यनायकम्।।21।।
मंत्र - (१) ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्ह वं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं सं तं तं पं पं झं झं झ्वीं इवीं क्ष्वी क्ष्वी द्रां द्रां द्रीं द्रीं द्रावय द्रावय।ॐनमोऽर्हते भगवते श्री मते....…जिनमभिषेक यामि स्वाहा।
अर्घ- संसार महा दुख सागर में
प्रभु गोते खाते आया हूँ।
अब मोक्ष महा फल पाने को,
फल रस की धारा देता हूँ।
उदक चन्दन तंदुल पुष्पकैश्चरु
सुदीप सुधूप फलार्घकैः।
धवल मंगल गान रवा कुले,
जिन गृहे जिन नाथ महं यजे।।
ॐ ह्रीं श्रीं जिनेन्द्रस्य दाडिम रसाभिषेकान्ते अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।