*सुगंध-दशमी/धूप-दशमी का विकरालरूप*

                        

          *आज भाद्रपद-माह की शुक्लपक्ष की दसमी का दिन जैन धर्मानुयायी 'सुगंध-दशमी' या 'धूप-दशमी' पर्व के रूप में मनाते हैं। लेकिन विडम्बना ये है कि अधिकांश लोग इस दिन अग्नि में धूप डालकर ऐसा मानते हैं कि धूप-दहन के साथ मेरे कर्मों का भी दहन हो गया।*


        *ये सही है कि पुराणों में धूपदशमी-व्रत और व्रत की कथा का उल्लेख मिलता है। पर भाई! उसमें यह कहाँ लिखा है कि इस दिन अग्नि में धूप जलाने से कर्म जल जायेगें ??*


        *वहाँ तो कथा के अनुसार यह लिखा है कि एक कन्या जिसके शरीर में से पूर्वकृत पाप के उदय से भयंकर बदबू आती थी, जब वह मुनिराज के निकट पहुँची तो उसने पूछा -- "महाराज ! मेरे शरीर से इतनी बदबू क्यों आती है ?"*


        *तब मुनिराज ने कहा कि -- "तुमने पूर्व-भव में देव-गुरू-धर्म की विराधना की थी उसके फल में तुम्हें ऐसा शरीर मिला है।"*


       *तब उसने मुनिराज से इस दुर्गंध को दूर करने का उपाय पूछा। और मुनिराज ने कहा कि -- "तुम शांत-परिणामों से भाद्रपद माह की शुक्लपक्ष की दसमी का व्रत करो।"* 


       *उसके ऐसा करने पर धीरे-धीरे पुण्य-योग से उसके शरीर से दुर्गंध जाती रही, और शरीर पूरी तरह से सुगंधित हो गया।*


      *तभी से ये व्रत की परम्परा शुरू हो गई। पर एक सामान्य व्रत के रूप में।*


   *लेकिन आज जो यह 'धूपदशमी' का रूप प्रचलित है वह तो जैन आम्नाय में कहीं से भी मान्य नहीं है।*


      *भाई! संपूर्ण विश्व में विख्यात है कि जैन धर्म अहिंसामयी है, सारी दुनिया जिस अहिंसा-धर्म के आगे नत-मस्तक है, वहीं उसी के अनुयायी आज के दिन धर्म के नाम पर हिंसा का तांडव करते हुये दिखाई देते हैं , कैसी विडम्बना है ये !!!*

     

     *जिस संयम धर्म के जिन हम इन्द्रिय-संयम और प्राणी-संयम की बात करते हैं , उसी दिन हम अनंत जीवों की हिंसा करते हैं ? पहले तो अग्नि स्वयं एकेन्द्रिय जीव है, फिर धूप जिसकी मर्यादा अंतर्मुहुर्त की भी नहीं है, पर दुकानों में महिनों पहले से तैयार करके रखी जाती है, जिसमें पहले ही अनंतजीव पड़ चुके हैं, हम वही धूप लाकर अग्नि में डालकर मानते हैं कि कर्मों का दहन हो गया !!!*


     *हे आत्मन् ! कर्मों का दहन नहीं कर्मों का अनंतकाल के लिये तीव्र बंध हो गया !! कैसे ?*


     *हे आत्मन्! जिनवाणी में कहीं भी ऐसा उपदेश नहीं है कि हिंसा में धर्म होता है, जब कि हमने आज ये हिंसा धर्म के नाम पर ही की, सो देव, श्रुत/शास्त्र और अहिंसामयी-धर्म तीनों का अवर्णवाद होने से दर्शनमोहनीय का तीव्र-बंध किया, और वह भी जिनमंदिर सम समवसरण में विराजमान वीतरागी जिनेन्द्र परमात्मा के सामने। दर्शनमोहनीय का बंध यानि सम्यग्दर्शन की प्राप्ति असंभव !! ये मेरे विचार नहीं, 'आचार्य उमास्वामी जी' ने 'तत्त्वार्थसूत्र' में लिखा है --*


*केवलि-श्रुत-संघ-धर्म-देवावर्णवादो दर्शनमोहस्य।* (6/13)

                  

     *भाई ! ऐसा कुकृत्य करने से पहले एक बार तो विचार करो कि अनंत-जीवों की हिंसा करके धर्म कैसे होगा ?? यदि कर्मों को जलाने का यही उपाय था तो तीर्थंकरों, भगवंतों और दिगम्बर साधुओं ने कर्मों की निर्जरा करने के लिये इतनी तपस्या ही क्यों की ? वे भी अग्नि में धूप डालकर अपने कर्मों को जला लेते !!* 

*हे आत्मन्! यदि सच में संसार से थकान लगती हो , संसार के दु:खों से भयभीत हो ! दुखों से छूटना चाहते हो !! तो आज एक संकल्प करो कि अब तक भले ही की हो अज्ञानता !! पर आज से हम ऐसा कुकृत्य नहीं करेगें !! और अहिंसामयी धर्म को अपने जीवन में अंगीकार करेंगें।*