अब श्रीमत् भगवान् धरसेनाचार्य गुरु के मुख से उपलब्ध ज्ञान को भव्यजनों में वितरित करने के लिए पंचमकाल के अन्त में वीरांगज मुनि पर्यन्त इस ज्ञान को ले जाने की इच्छा से, पूर्वाचार्यों की व्यवहार परम्परा के अनुसार, शिष्टाचार का परिपालन करने के लिए, निर्विघ्न सिद्धान्त शास्त्र की परिसमाप्ति आदि हेतु को लक्ष्य में रखते हुए श्रीमत्पुष्पदन्ताचार्य के द्वारा णमोकार महामंत्र मंगल गाथा सूत्र का अवतार किया जाता है-
णमो-नमस्कार होवे। किन्हें नमस्कार हो ? अरिहंतों को। इसी प्रकार से पाँचों पदों में जानना चाहिए कि सिद्धों को, आचार्यों को, उपाध्यायों को, सर्वसाधुओं को नमस्कार हो।
सर्वनमस्कारों में यहाँ सर्व और लोक इन दो शब्दों को अन्त्यदीपक न्याय के अनुसार अध्याहार-अधिक रूप से ग्रहण कर लेना चाहिए जो सम्पूर्ण क्षेत्रगत तीनों कालों में होने वाले अर्हन्तादि देवताओं के प्रणमन के सूचक हैं। इस न्याय से ‘‘णमो अरिहंताणं’’ इस पद का अर्थ है कि ढाई द्वीपों की एक सौ सत्तर कर्मभूमियों में होने वाले भूत-भावि-वर्तमान संबंधी त्रैकालिक समस्त अर्हंत परमेष्ठियों को नमस्कार हो। ‘‘णमो सिद्धाणं’’ का अर्थ है कि समस्त कर्मभूमियों से सिद्ध पद प्राप्त निकल परमात्माओं को तथा संहरण सिद्ध की अपेक्षा से भी-उपसर्गादि से सिद्ध पद जिन्हें प्राप्त हुआ है ऐसे ढाईद्वीप और दो समुद्रों से तीनों कालों में जितने भी सिद्ध हुए हैं, हो रहे हैं, होंगे उन सभी सिद्ध परमेष्ठियों को नमस्कार हो।
‘‘णमो आइरियाणं’’ पद का भी यही अर्थ है कि सम्पूर्ण कर्मभूमियों में उत्पन्न त्रिकालगोचर समस्त आचार्य परमेष्ठियों को नमस्कार हो। ‘‘णमो उवज्झायाणं’’ का मतलब है कि समस्त कर्मभूमियों में तीनों कालों में उत्पन्न होने वाले सभी उपाध्याय परमेष्ठियों को नमस्कार हो। ‘‘णमो लोए सव्वसाहूणं’’ इस अंतिम पद का अर्थ है कि सभी कर्मभूमियों में उत्पन्न त्रिकालगोचर सम्पूर्ण साधु परमेष्ठियों को मेरा नमस्कार होवे।
अरिहंतों को नमस्कार हो-अरि अर्थात् मोह कर्म, मोहनीय कर्म के बिना शेष सातों कर्म संसार में संसरण कराने में कारण नहीं होते हैं अत: उस मोहकर्म रूपी शत्रु का हनन करने वाले अरिहंत कहलाते हैं अथवा ‘रज’ अर्थात् आवरण कर्मों को नाश कर देने से ‘अरिहंत’ यह संज्ञा प्राप्त होती है। ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म धूलि की तरह बाह्य और आभ्यन्तर दोनों गुणों को ढक लेते हैं इसलिए इन्हें रज कहा है। मोह को भी रज कहते हैं। उन ज्ञानावरण, दर्शनावरण कर्मों का नाश करने से अरिहंत हैं। अथवा ‘रहस्य’ के अभाव से भी अरिहंत होेते हैं। रहस्य अन्तराय कर्म को कहते हैं। अन्तराय कर्म का नाश शेष तीन घातिया कर्मों के नाश का अविनाभावी है, ऐसे अन्तराय कर्म के नाश से अरिहंत होते हैं। अर्थात् अन्तराय कर्म के साथ-साथ शेष ज्ञानावरण, दर्शनावरण और मोहनीय ये तीनों कर्म नियम से नष्ट होते ही हैं वे अघातिया कर्म भी भ्रष्ट बीज के समान शक्तिहीन हो जाते हैं।
मोहनीय कर्म, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन चार घातिया कर्मों की सैंतालीस प्रकृतियाँ, नरकायु-तिर्यंचायु-देवायु ये आयुकर्म की तीन प्रकृतियाँ, नामकर्म की नरकगति-नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यंचगति-तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, विकलत्रय (द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय), उद्योत-आतप-एकेन्द्रिय-साधारण-सूक्ष्म-स्थावर ये तेरह प्रकृतियाँ इस प्रकार कुल त्रेसठ प्रकृतियों के विनाश से तेरहवें गुणस्थानवर्ती केवली भगवान अरिहंत परमेष्ठी होते हैं।
अथवा ‘‘अरहंताणं’’ ऐसा पाठान्तर प्राप्त होने पर ‘‘सातिशय पूजा के योग्य होने से अर्हन्त होते हैं। स्वर्गावतरण-स्वर्ग से च्युत होकर माता के गर्भ में आने से लेकर पंच महाकल्याणकों में सौधर्मादि इन्द्रों के द्वारा की जाने वाली पूजा के योग्य होने से अर्हन्त संज्ञा भी सार्थक है।
चौंतीस अतिशय, अष्टमहाप्रातिहार्य, अनन्त चतुष्टयरूप छियालिस गुण समन्वित और अठारह दोष रहित सर्वज्ञ, सर्वदर्शी अर्हन्त भगवान् होते हैं। अथवा धवला ग्रंथ के टिप्पण में ‘अरुहंताणं’ यह पाठान्तर भी आया है जिसका अर्थ है.......पुन: उत्पन्न न होने वाले क्षीणशक्ति वाले बीज की तरह से जिनके कर्म भी अत्यन्त क्षीण हो गये हैं। कहा भी है-
जिस प्रकार बीज के जल जाने पर उसमें से पुन: अंकुर उत्पन्न नहीं होता है, उसी प्रकार कर्मरूपी बीज के भी दग्ध हो जाने पर भवरूपी अंकुर नहीं उगता है।
इसलिए जिनका पुनर्जन्म संसार में नहीं होगा, ऐसे अरहन्तों को अरुहन्त संज्ञा भी किन्हीं के द्वारा प्रदान की गई है।
श्री बुधजन कवि द्वारा वर्णित चौंतिस अतिशय जो प्रसिद्ध हैं ही, जो जन्म के १०, केवलज्ञान के १० और देवकृत १४ रूप जाने जाते हैं, किन्तु तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ के आधार से इन अतिशयों में किंचित् भेद देखा जाता है। जैसे-
णिस्सेदत्तं णिम्मलगत्तत्तं दुद्धधवलरुहिरत्तं।
आदिमसंहडणत्तं, समचउरस्संगसंठाणं।।८९६।।
अणुवमरूवत्तं णव, पंचयवरसुरहिगंधधारित्तं।
अट्ठुत्तरवरलक्खण, सहस्सधरणं अणंतबलविरियं।।८९७।।
मिदहिदमधुरालाओ, साभाविय अदिसयं च दसभेदं।
एदं तित्थयराणं, जम्मग्गहणादिउप्पण्णं।।८९८।।
अर्थात्
१. स्वेदरहितता
२. निर्मलशरीर
३. दूध के समान धवल रुधिर
४. वज्रवृषभ नाराचसंहनन
५. समचतुरस्र संस्थान
६. अनुपम रूप
७. नवचम्पक की उत्तम गंध के समान गंध का धारण करना
८. एक हजार आठ उत्तम लक्षणों को धारण करना
९. अनन्तबल
१०. हितमित मधुर भाषण ये स्वाभाविक दस अतिशय तीर्थंकर पदधारी अर्हन्तों के जन्म ग्रहण से ही उत्पन्न हो जाते हैं।
पुन: केवलज्ञान के ११ अतिशय कहे गये हैं-
१. अपने पास से चारों दिशाओं में एक सौ योजन तक सुभिक्षता
२. आकाशगमन
३. हिंसा का अभाव
४. भोजन का अभाव
५. उपसर्ग का अभाव
६. सबकी ओर मुख करके स्थित होना
७. छाया रहितता ८. निर्निमेष दृष्टि
९. विद्याओं की ईशता-स्वामीपना
१०. सजीव होते हुए भी नख और रोमों का समान रहना
११. अठारह महाभाषा,
सात सौ क्षुद्र भाषा तथा और भी जो संज्ञी जीवों की समस्त अक्षर-अनक्षरात्मक भाषाएँ हैं। उनमें तालु, दन्त, ओष्ठ और कण्ठ के व्यापार से रहित होकर एक ही समय भव्यजनों को दिव्य उपदेश देना। भगवान् जिनेन्द्र की स्वभावत: अस्खलित और अनुपम दिव्यध्वनि तीनों संध्याओं में नव मुहूर्तों तक निकलती है और एक योजन पर्यन्त जाती है। इसके अतिरिक्त गणधर देव, इन्द्र अथवा चक्रवर्ती के प्रश्नानुरूप अर्थ के निरूपणार्थ वह दिव्यध्वनि शेष समयों में भी निकलती है। यह दिव्यध्वनि भव्य जीवों को छह द्रव्य, नौ पदार्थ, पाँच अस्तिकाय और सात तत्त्वों का नाना प्रकार के हेतुओं द्वारा निरूपण करती है। इस प्रकार घातिया कर्मों के क्षय से उत्पन्न हुए ये महान आश्चर्यजनक ग्यारह अतिशय तीर्थंकरों को केवलज्ञान के उत्पन्न होने पर अर्हन्त अवस्था में प्रगट होते है
अब देवकृत १३ अतिशय बताते हैं-
१. तीर्थंकरों के माहात्म्य से संख्यात योजनों तक वन असमय में ही पत्र, फूल और फलों की वृद्धि से संयुक्त हो जाता है|
२. कंटक और रेती आदि को दूर करती हुई सुखदायक वायु चलने लगती है,
३. जीव पूर्व वैर को छोड़कर मैत्रीभाव से रहने लगते हैंं,
४. उतनी भूमि दर्पण तल के सदृश स्वच्छ और रत्नमय हो जाती है,
५. सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से मेघकुमार देव सुगंधित जल की वर्षा करता है,
६. देव विक्रिया से फलों के भार से नम्रीभूत शालि और जौ आदि सस्य को रचते हैं,
७. सब जीवों को नित्य आनन्द उत्पन्न होता है,
८. वायुकुमार देव विक्रिया से शीतल पवन चलाता है,
९. कूप और तालाब आदिक निर्मल जल से पूर्ण हो जाते हैं,
१०. आकाश धुआँ और उल्कापातादि से रहित होकर निर्मल हो जाता है,
११. सम्पूर्ण जीवों को रोगादि की बाधाएं नहीं होती हैं,
१२. यक्षेन्द्रों के मस्तकों पर स्थित और किरणों से उज्ज्वल ऐसे चार दिव्य धर्मचक्रों को देखकर जनों को आश्चर्य होता है,
१३. तीर्थंकरों के चारों दिशाओं में (विदिशाओं सहित) छप्पन सुवर्णकमल, एक पादपीठ और दिव्य एवं विविध प्रकार के पूजन द्रव्य होते हैं
इस प्रकार ये १०+११+१३=३४ अतिशय अर्हन्त भगवन्तों के होते हैं तथा अशोक वृक्ष, तीनछत्र, सिंहासन, दिव्यध्वनि, देवदुन्दुभि, पुष्पवृष्टि, प्रभामण्डल और चौंसठ चंवर ये आठ प्रातिहार्य भी उन जिनेन्द्रों के पाये जाते हैं।
जो उपर्युक्त चौंतीस अतिशयों को प्राप्त हैं, अष्टमहाप्रातिहार्यों से संयुक्त हैं, मोक्षमार्ग के प्रणेता हैं और तीनों लोकों के स्वामी हैं ऐसे अर्हन्त परमेष्ठी को मेरा मन, वचन, काय से नमस्कार होवे।