बंदूं श्री अरहंत पद, वीतराग विज्ञान।
वरणूं बारह भावना, जग जीवनहित जान।
कहां गये चक्री जिन जीता भरतखण्ड सारा।
कहां गये वह रामरु लछमन् जिन रावन मारा।
कहां कृष्ण रुक्मणि सतभामा अरु सम्पति सगरी।
कहां गये वह रंगमहल अ/ सुवरन को नगरी।।1।।
नहीं रहे वह लोभे कौरव जूझ मरे रनमैं।
गयेगये राज तज पांडव बन को अग्नि लगी तन मैं।
मोह नींद से उठ रे चेतन तुझे जगावन को।
हो दयाल उपदेश करै गुरु बारह भावन को।।2।।
सूरज चांद छिपै निकल ऋतु फिर-फिर कर आवै।
प्यारी आयु ऐसी बीतै पता नहीं पावै।
पर्वत पतित नदी सरिता जल बहकर नहीं हटता।
स्वास चलत यों घटै काठ ज्यों आरेसों कटता।।3।।
ओस बूँद ज्यों गलै धूप में वा अंजुलि पानी।
छिन-छिन यौवन छीन होत है क्या समझे प्राणो।
इन्द्रजाल आकाश नगर सब जगसम्पत्ति सारी।
अथिर रुप संसार विचारो सब नर अरु नारी।।4।।
काल-सिंह ने मृग चेतन को घेरा भव-वन में।
नहीं बचावन हारा कोई यों समझो मन में।
यंत्र मंत्र सेना धन सम्पत्ति राज पाट छ टै।
वश नहिं चलता काल लुटेरा काय नगरि लूट।।5।।
चक्ररतन हलधरसा भाई काम नहीं आया।
एक तीर के लगत कृष्ण की विनश नई काया।
देव धर्म गुरु शरण जगत मैं और नहीं कोई।
भ्रम से फिरे भटकता चेतन यूं ही उमर खोई।।6।।
जनम मरण अरु जरारोग से सदा दुःखी रहता।
द्रव्य क्षेत्र अरु काल भाव भव परिवर्तन सहता।
छेदन भेदन नरक पशुगति वध बंधन सहना।
राग उदय से दुख सुरगति में कहां सुखी रहना।।7।।
भोगी पुण्यफल हो इकइदी क्या इसमें लाली।
कुतवाली दिन चार वही फिर खुरपा अरु जाली।
मानुष जन्म अनेक विपतिमय कहीं न सुख देखा।
पंचमगति सुख मिलै शुभाशुभ को मेटो लेखा।।8।।
जनने मरै अकेला चेतन सुख-दुःख का भोगी।
और किसी का क्या इक दिन यह देह जुदी होगी।
कमला चलत न पैंड जाय मरघट तक परिवारा।
अपने अपने सुख को रोवैं पिता पुत्र दारा।।9।।
ज्यों मेले में पंथौजन मिलि नेह फिर धरते।
ज्यों तरुवर पै रैन बसेरा पक्षी आ करते।
कोस कोई दो कोस कोई उड़ फिर थकथक हारे।
जाय अकेला हंस संग में कोई न पर मारे।।10।।
मोहरुप मृगतृष्णा जगमें मिथ्या जल चमकै।
मृग चेतन नित भ्रम मैं उठ-उठ दौडै थक थककै।
जल नहिं पावै प्राण गमावै भटक-भटक मरता।
वस्तु पराई मानै अपनी भेद नहीं करता।।11।।
तू चेतन अरु देह अचेतन यह जड़ तू ज्ञानी।
मिले अनादि यतन तै बिछडै ज्यों पय अरु पानी।
रुप तुम्हारा सबसों न्यारा भेदज्ञाव करना।
जौलों पौरुष थकै न तौलों उद्यम सौं चरना।।12।।
तू नित पौखे यह सूखै ज्यों धौवे त्यों मैली।
निश दिन करै उपाय देह का रोगदशा फली।
मात पिता रज वीरज मिलकर बनी देह तेरी।
हाड़ मांस नश लू राध की प्रगट व्याधि घेरी।।13।।
काना पौड़ा। पड़ा हाथ यह चूसै तौ रोवै।
फलै अनंत जुं धर्मध्यान की भूमि विषे बोवै।
कसर चन्दन पुष्प सुगन्धित वस्तु देख सारी।
देह परस तें होय अपावन निशदिन मल जारी।।14।।
ज्यों सरजल आवत मोरी त्यों आश्रव कर्मन को।
दर्वित जीव प्रदेश गहैं जब पुदगल भरमन को।
भावित आश्रव भाव शुभाशुभ निशदिन चेतन को।
पाप पुण्य के दोनों कर्ता कारण बधन को।।15।।
पन मिथ्यात्व योग पन्द्रह द्वादश अविरत जानो।
पंचरु बीस कषाय मिले सब सत्तावन मानो।
मोहभाव की ममता टारे पर परणत खोते।
करै मोख का यतन निराश्रव ज्ञानी जन होते।।16।।
ज्यों मोरी में डाट लगावे तब जल रुक जाता।
त्यों आश्रव को रोकै संवर क्यों नहिं मन लाता।
पंच महाव्रत समिति गुप्त कर वचन काय मनको।
दशविध धर्म परीषह बाइस बारह भावन को।।17।।
यह सब भाव सतावन मिलकर आस्रव को खोते।
सुपन दशा से जागो चेतन कहां पड़े सोते।
भाव शुभाशुभ रहित शुद्ध भाव न संवर पावै।
डांट लगत यह नाव पड़ीं मझधार पार जावै।।18।।
ज्यों सरवर जल रुका सूखता तपन पड़ै भारी।
संवर रोकै कर्म निर्जरा ह्वं सोखन हारी।
उदय भोग सविपाक समय पक जाय आम डाली।
दूजी है अविपाक पकावै पाल विषै माली।।19।।
पहली सबके होय नहीं कुछ सरै काम तेरा।
दूजी करै जु उद्यम करके मिटे जगत फेरा।
संवर सहित करो तप प्रानी मिलै मुकति रानौ।
इस दुलहिन की यही सहेली जानै सब ज्ञानी।।20।।
लोक अलोक आकाश मांहि थिर निराधार जानो।
पुरुषरुप कर कटी भये षट द्रव्यन सों मानो।
इसका कोई न करता हरता अमिट अनादी हैं।
जीव रु पुद्गल नाचद्यै यामैं कर्म उपाधी है।।21।।
पापपुण्य सों जीव गत मे। नित सुख दुःख भरता।
अपनी करनी आप भरै सिर औरन के धरता।
मोहकर्म को नाश मेटकर सब जब की आसा।
जीव रु पुद्गल नाचै यामैं कर्म उपाधी है।।22।।
दुर्लभ हैं निगोद से थावर अरु त्रसगति पानी।
नरकाया को सुरपति तरसैं सो दुर्लभ प्रानी।
उत्तमदेह ससंगबित दुर्लभ श्रावककुल पाना।
दुर्लभ सम्यक दुर्लभ संयम पचम गुणठाना।।23।।
दुर्लभ रत्नत्रय आराधन दीक्षा का धरना।
दुर्लभ मुनिवर को व्रत पालन शुद्धभाव करनाा।
दुर्लभ से दुर्लभ है चेतन बोधिज्ञान पावै।
पाकर केवलज्ञान नहीं फिर इस भव में आवै।।24।।
षट दरशन अरु बोद्ध रु नास्तिक ने जग को लूटा।
मूसा ईसा और मुहम्मद का मजहब झूटा।
हो सूछंद सब पाप करं सिर करता के लावै।
कोई छिनक कोई करता से जग में भटकावै।।25।।
वीतराग सर्वज्ञ दोष बिन श्री जिनकी वानी।
सप्त तत्व का वर्णन जामें सबकौ सुखदानी।
इनका चिंतन बार बार कर श्रद्धा उर धरना।
मंगल इसी जतनतैं इकदिन भवसागर तरना।।26।।