पद्मप्रभनाथ भगवान का परिचय
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चिन्ह
लाल कमल
पिता
महाराजा धरणराज
माता
महारानी सुसीमा
वंश
इक्ष्वाकु
वर्ण
क्षत्रिय
अवगाहना
250 धनुष (एक हजार हाथ)
देहवर्ण
पद्मरागमणि सदृश
आयु
3,000,000 पूर्व वर्ष (211.68 Quintillion years)
वृक्ष
मनोहर वन (प्रभाषगिरि) एवं प्रियंगुवृक्ष
प्रथम आहार
वद्र्धमान नगर के राजा सोमदत्त द्वारा (खीर)
पंचकल्याणक तिथियां
गर्भ
माघ कृ.६
जन्म
कार्तिक कृ.१३
कौशाम्बी (जिला-कौशाम्बी) उत्तर प्रदेश
दीक्षा
कार्तिक कृ.१३
केवलज्ञान
चैत्र शु .१५
मोक्ष
फाल्गुन कृष्ण ४
समवशरण
गणधर
श्री वज्रचामर आदि ११०
मुनि
तीन लाख तीस हजार
गणिनी
आर्यिका रतिषेणा
आर्यिका
चार लाख तीस हजार
श्रावक
तीन लाख
श्राविका
पांच लाख
यक्ष
कुसुमदेव
यक्षी
मनोवेगा देवी
पदमप्रभुदेव् भगवान का परिचय
धातकीखंड द्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में सीतानदी के दक्षिण तट पर वत्सदेश है। उसके सुसीमा नगर के अधिपति अपराजित थे। किसी दिन भोगों से विरक्त होकर पिहितास्रव जिनेन्द्र के पास दीक्षा धारण कर ली, ग्यारह अंगों का अध्ययन कर तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया। अन्त में ऊर्ध्व ग्रैवेयक के प्रीतिंकर विमान में अहमिन्द्र पद प्राप्त किया।
इसी जम्बूद्वीप की कौशाम्बी नगरी में धरण महाराज की सुसीमा रानी ने माघ कृष्ण षष्ठी के दिन उक्त अहमिन्द्र को गर्भ में धारण किया। कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी के दिन पुत्ररत्न को उत्पन्न किया। इन्द्रों ने जन्मोत्सव के बाद उनका नाम ‘पद्मप्रभ’ रखा।
किसी समय दरवाजे पर बंधे हुए हाथी की दशा सुनने से उन्हें अपने पूर्व भवों का ज्ञान हो गया जिससे भगवान को वैराग्य हो गया। वे देवों द्वारा लाई गई ‘निवृत्ति’ नाम की पालकी पर बैठ मनोहर नाम के वन में गये और कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी के दिन दीक्षा ले ली।
छह मास छद्मस्थ अवस्था के व्यतीत हो जाने पर चैत्र शुक्ला पूर्णिमा के दिन मध्यान्ह में केवलज्ञान प्रकट हो गया। बहुत काल तक भव्यों को धर्मोपदेश देकर फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी के दिन सम्मेदाचल से मोक्ष को प्राप्त कर लिया।
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भगवान श्रीपद्मप्रभजी के पूर्व भव
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🌹1. राजा अपराजित:-धातकीखंड द्वीपके पूर्व विदेह क्षेत्र में सीता नदी के दक्षिण तट पर वत्स देश के सुसीमा नगर के राजा अपराजित ने विषय-वासनाओं से एक दिन विरक्त हो कर अपने पुत्र सुमित्र को राज्य दे वन में जा कर पिहितास्रव आचार्य के पास दीक्षित हो गया। राजा अपराजित ने आचार्य के पास खूब अध्ययन, कठिन तपस्या, दर्शन- विशुद्धि आदि सोलह भावनाओं का चिंतवन कर तीर्थंकर नामक पुण्य प्रकृति का बंध कर लिया।
🌷2.ऋध्दिधारी अहमिन्द्र:-राजा अपराजित की आयु जब समाप्त होने को आई, तब वह समस्त बाह्य पदार्थों से मोह हटाकर शुद्ध आत्मा के ध्यान में लीन हो गया, जिससे मर कर नव में ग्रैवेयक के 'प्रीतिकर' विमान में ऋध्दिधारी अहमिन्द्र हुआ। वहां पर उसकी आयु इकतीस सागर की थी, शरीर दो हाथ ऊंचा था, श्वेत वर्ण की लेश्या थी। वह वहां निरन्तर जिन-अर्चा और तत्व-चर्चा आदि में ही समय बिताया करता था। जन्म से प्राप्त अवधिज्ञान से ऊपर विमान के ध्वजा-दण्ड तक और नीचे सातवें नरक तक की बात वह अहमिन्द्र स्पष्ट जान लेता था। यही अहमिन्द्र ग्रैवेयक के सुख भोग कर भरत क्षेत्र में पद्मप्रभ नाम के तीर्थंकर हुए।
जब अहमिन्द्र की आयु छह माह बाकी रह गई, तभी से महाराज धरण के घर पर प्रतिदिन आकाश से करोडों रत्न
बरसने लगे। महारानी सुसीमा ने माघ कृष्ण षष्ठी के दिन
सोलह सपने देखने के बाद मुंह में प्रवेश करते हाथी को देखा। पति के मुख से स्वप्नोंका फल भावी तीर्थंकर पुत्र का प्रभाव सुन कर महारानी प्रसन्न हुई। सबेरा होते ही देवों ने महाराज-महारानी का सत्कार कर भगवान पद्मप्रभ के गर्भ-कल्याणक का उत्सव किया
⛺️3."कौशाम्बी नगरी के राजा धरण राज के आंगन ही।
वर्षे रतन सुसीमा माता हर्षी गर्भ बसे प्रभुजी।।
माघ कृष्ण छठ तिथि उत्तम थी इन्द्रों ने इत आ कर के।
गर्भ महोत्सव किया मुदित हो हम भी पूजें रुचि धर के।।
ॐ ह्रीं माघकृष्णाषष्ठ्यां श्रीपद्मप्रभगर्भकल्याणकाय नमः अर्घ्य...."🙏
🙏तीर्थंकर श्रीपद्मप्रभजीके गर्भ कल्याणककी जय हो
**छटवे तीर्थंकर श्री पद्मप्रभ जिनवर**
जन्मभूमि - कौशाम्बी (जिला-कौशाम्बी) उत्तर प्रदेश
पिता - महाराजा धरणराज
माता - महारानी सुसीमा
वर्ण - क्षत्रिय
वंश - इक्ष्वाकु
देहवर्ण - पद्मरागमणि सदृश
चिन्ह - लाल कमल
आयु - तीस लाख पूर्व
अवगाहना - २५० धनुष
गर्भ - माघ कृ.६
जन्म - कार्तिक कृ. १३
तप - कार्तिक कृ.१३
दीक्षा-केवलज्ञान वन एवं वृक्ष - मनोहर वन (प्रभाषगिरि) एवं प्रियंगुवृक्ष
प्रथम आहार - राजा सोमदत्त द्वारा (खीर)
केवलज्ञान - चैत्र शु.१५
मोक्ष - फाल्गुन कृ.४
मोक्षस्थल - सम्मेद शिखर पर्वत
समवसरण में गणधर - श्री वज्रचामर आदि ११०
समवसरण में मुनि - तीन लाख तीस हजार
समवसरण में गणिनी - आर्यिका रतिषेणा
समवसरण में आर्यिका - चार लाख वीस हजार
समवसरण में श्रावक - तीन लाख
समवसरण में श्राविका - पांच लाख
गर्भ और जन्म
इसी जम्बूद्वीप की कौशाम्बी नगरी में धरण महाराज की सुसीमा रानी ने माघ कृष्ण षष्ठी के दिन उक्त अहमिन्द्र को गर्भ में धारण किया। कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी के दिन पुत्ररत्न को उत्पन्न किया। इन्द्रों ने जन्मोत्सव के बाद उनका नाम ‘पद्मप्रभ' रखा।
तप
किसी समय दरवाजे पर बंधे हुए हाथी की दशा सुनने से उन्हें अपने पूर्व भवों का ज्ञान हो गया जिससे भगवान को वैराग्य हो गया। वे देवों द्वारा लाई गई ‘निवृत्ति' नाम की पालकी पर बैठ मनोहर नाम के वन में गये और कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी के दिन दीक्षा ले ली।
केवलज्ञान और मोक्ष
छह मास छद्मस्थ अवस्था के व्यतीत हो जाने पर चैत्र शुक्ला पूर्णिमा के दिन मध्यान्ह में केवलज्ञान प्रकट हो गया।
बहुत काल तक भव्यों को धर्मोपदेश देकर फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी के दिन सम्मेदाचल से मो