जल फल आठों द्रव्य,
अरघ कर प्रीति धरी है,
गणधर इन्द्रनहू तैं,
थुति पूरी न करी है ।
द्यानत सेवक जानके (हो),
जगतैं लेहु निकार,
सीमंधर जिन आदि दे,
बीस विदेह मँझार ।
श्री जिनराज हो,
भव तारण तरण जहाज ।।
ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यः अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।1।
कृत्याकृत्रिम-चारु-चैत्य-निलयान् ,
नित्यं त्रिलोकी-गतान्,
वंदे भावन-व्यंतर-द्युतिवरान्
स्वर्गामरावासगान् ।
सद्गंधाक्षत-पुष्प-दाम-चरुकैः
सद्दीपधूपैः फलैर,
नीराद्यैश्च यजे प्रणम्य शिरसा
दुष्कर्मणां शांतये ।।
ॐ ह्रीं त्रिलोक सम्बन्धि कृत्रिमाकृत्रिम-चैत्यालयेभ्यः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।2।
गन्धाढ्यं सुपयो मधुव्रत-गणैः
संगं वरं चन्दनं,
पुष्पौघं विमलं सदक्षत-चयं
रम्यं चरुं दीपकम् ।
धूपं गन्धयुतं ददामि विविधं
श्रेष्ठं फलं लब्धये,
सिद्धानां युगपत्क्रमाय विमलं
सेनोत्तरं वाञ्छितम् ।।
ॐ ह्रीं श्रीसिद्ध चक्राधि पतये सिद्धपरमेष्ठिने अनर्घ्य पद प्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।3।
द्रव्य आठो, जू लीना हैं,
अर्घ कर में नवीना हैं ।
पुजतां पाप छीना हैं,
भानुमल जोड़ किना हैं ॥
दीप अढ़ाई सरस राजै,
क्षेत्र दस ताँ विषै छाजै ।
सातशत बीस जिनराजे,
पुजतां पाप सब भाजै ॥
ॐ ह्रीं पञ्चभरत-पंचैरावत-सम्बन्धी-दशक्षेत्रान्तर्गत-भुत-भविष्यत्-वर्तमान-सम्बन्धी-तीस-चौबीसी के सात सौ बीस जिनेंद्रेभ्यो-अर्घय्म निर्वपामिति स्वाहा ।4।
शुचि निर्मल नीरं गंध सुअक्षत, पुष्प चरु ले मन हर्षाय,
दीप धुप फल अर्घ सुलेकर, नाचत ताल मृदंग बजाय ।
श्री आदिनाथ के चरण कमल पर बलि बलि जाऊ मन वच काय,
हे करुणानिधि भव दुःख मेटो, यातै मैं पूजों प्रभु पाय ॥
ॐ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्ताये अर्घं निर्वपामिति स्वाहा ।5।
जलफल सब सज्जे, बाजत बज्जै, गुनगनरज्जे मनमज्जे ।
तुअ पदजुगमज्जै सज्जन जज्जै, ते भवभज्जै निजकज्जै ।।
श्री अजित जिनेशं नुतनाकेशं, चक्रधरेशं खग्गेशं ।
मनवांछितदाता त्रिभुवनत्राता, पूजौं ख्याता जग्गेशं ।।
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।6।
जल चंदन तंदुल प्रसून चरु, दीप धूप फल अर्घ किया ।
तुमको अरपौं भाव भगतिधर, जै जै जै शिव रमनि पिया ।।
संभव जिन के चरन चरचतें, सब आकुलता मिट जावे ।
निज निधि ज्ञान दरश सुख वीरज, निराबाध भविजन पावे ।।
ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।7।
अष्ट द्रव्य संवारि सुन्दर सुजस गाय रसाल ही ।
नचत रजत जजौं चरन जुग, नाय नाय सुभाल ही ।।
कलुषताप निकंद श्रीअभिनन्द, अनुपम चन्द हैं ।
पद वंद वृन्द जजें प्रभू, भवदंद फंद निकंद हैं ।।
ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।8।
जल चंदन तंदुल प्रसून चरु
दीप धूप फल सकल मिलाय ।
नाचि राचि शिरनाय समरचौं,
जय जय जय 2 जिनराय ।।
हरिहर वंदित पापनिकंदित,
सुमतिनाथ त्रिभुवनके राय ।
तुम पद पद्म सद्म शिवदायक,
जजत मुदितमन उदित सुभाय ।।
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।9।
जल फल आदि मिलाय गाय गुन,
भगति भाव उमगाय ।
जजौं तुमहिं शिवतिय वर जिनवर,
आवागमन मिटाय ।
मन वचन तन त्रयधार देत ही,
जनम-जरा-मृतु जाय ।
पूजौं भाव सों, श्री पदमनाथ
पद-सार, पूजौं भाव सों ।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।10।
आठों दरब साजि गुनगाय,
नाचत राचत भगति बढ़ाय ।
दया निधि हो, जय जगबंधु
दया निधि हो ।।
तुम पद पूजौं मनवचकाय,
देव सुपारस शिवपुरराय ।
दया निधि हो, जय जगबंधु
दया निधि हो ।।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।11।
सजि आठों दरब पुनीत,
आठों अंग नमौं ।
पूजौं अष्टम जिन मीत,
अष्टम अवनि गमौं ।।
श्री चंद्रनाथ दुति चंद,
चरनन चंद लसै ।
मन वच तन जजत अमंद-
आतम-जोति जगे ।
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।12।
जल फल सकल मिलाय मनोहर,
मनवचतन हुलसाय ।
तुम पद पूजौं प्रीति लाय के,
जय जय त्रिभुवनराय ।।
मेरी अरज सुनीजे, पुष्पदन्त
जिनराय, मेरी अरज सनीजे ।।
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्त जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।13।
शुभ श्री-फलादि वसु प्रासुक द्रव्य साजे ।
नाचे रचे मचत बज्जत सज्ज बाजे ।।
रागादिदोष मल मर्द्दन हेतु येवा ।
चर्चौं पदाब्ज तव शीतलनाथ देवा ।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।14।
जलमलय तंदुल सुमनचरु अरु
दीप धूप फलावली ।
करि अरघ चरचौं चरन जुग
प्रभु मोहि तार उतावली ।।
श्रेयांसनाथ जिनन्द त्रिभुवन
वन्द आनन्दकन्द हैं ।
दुखदंद फंद निकंद पूरन
चन्द जोतिअमंद हैं ।।
ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।15।
जल फल दरव मिलाय गाय गुन,
आठों अंग नमाई ।
शिवपदराज हेत हे श्रीपति!
निकट धरौं यह लाई । ।
वासुपूज्य वसुपूज-तनुज-पद,
वासव सेवत आई ।
बाल ब्रह्मचारी लखि जिन को,
शिव तिय सनमुख धाई ।।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।16।
आठों दरब संवार, मनसुख
दायक पावने ।
जजौं अरघ भर थार, विमल विमल
शिवतिय रमण ।।
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।17।
शुचि नीर चन्दन शालिशंदन,
सुमन चरु दीवा धरौं ।
अरु धूप फल जुत अरघ करि,
करजोरजुग विनति करौं ।।
जगपूज परम पुनीत मीत,
अनंत संत सुहावनो ।
शिव कंत वंत मंहत ध्यावौं,
भ्रंत वन्त नशावनो ।।
ॐ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेद्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।18।
आठों दरब साज शुचि चितहर,
हरषि हरषि गुनगाई ।
बाजत दृमदृम दृम मृदंग गत,
नाचत ता थेई थाई ।।
परमधरम-शम-रमन धरम-जिन,
अशरन शरन निहारी ।
पूजौं पाय गाय गुन सुन्दर
नाचौं दे दे तारी ।।
ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।19।
वसु द्रव्य सँवारी, तुम ढिग धारी,
आनन्दकारी, दृग-प्यारी ।
तुम हो भव तारी, करुनाधारी,
या तें थारी शरनारी ।।
श्री शान्ति जिनेशं, नुतशक्रेशं,
वृषचक्रेशं चक्रेशं ।
हनि अरिचक्रेशं, हे गुनधेशं,
दयाऽमृतेशं, मक्रेशं ।।
ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।20।
जल चंदन तंदुल प्रसून चरु,
दीप धूप लेरी ।
फलजुत जनन करौं मन सुख धरि,
हरो जगत फेरी ।।
कुंथु सुन अरज दास केरी,
नाथ सुन अरज दासकेरी ।
भवसिन्धु पर्यो हौं नाथ,
निकारो बांह पकर मेरी ।।
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।21।
सुचि स्वच्छ पटीरं, गंधगहीरं,
तंदुलशीरं, पुष्प-चरुं ।
वर दीपं धूपं, आनंदरुपं,
ले फल भूपं, अर्घ करुं ।।
प्रभु दीन दयालं, अरिकुल कालं,
विरद विशालं सुकुमालं ।
हरि मम जंजालं, हे जगपालं,
अरगुन मालं, वरभालं ।।
ॐ ह्रीं श्रीअरहनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।22।
जल फल अरघ मिलाय गाय गुन,
पूजौं भगति बढ़ाई ।
शिवपदराज हेत हे श्रीधर,
शरन गहो मैं आई ।।
राग-दोष-मद-मोह हरन को,
तुम ही हो वरवीरा ।
यातें शरन गही जगपतिजी,
वेगि हरो भवपीरा ।।
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।23।
जलगंध आदि मिलाय आठों
दरब अरघ सजौं वरौं ।
पूजौं चरन रज भगतिजुत,
जातें जगत सागर तरौं ।।
शिवसाथ करत सनाथ सुव्रतनाथ,
मुनिगुन माल हैं ।
तसु चरन आनन्दभरन तारन
तरन, विरद विशाल हैं ।।
ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।24।
जल फलादि मिलाय मनोहरं,
अरघ धारत ही भवभय हरं ।
जजतु हौं नमि के गुण गाय के,
जुगपदाम्बुज प्रीति लगाय के ।।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।25।
जल फल आदि साज शुचि लीने,
आठों दरब मिलाय ।
अष्टम छिति के राज कारन को,
जजौं अंग वसु नाय ।।
दाता मोक्ष के, श्रीनेमिनाथ जिनराय, दाता0 ।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।26।
नीर गंध अक्षतान,
पुष्प चारु लीजिये ।
दीप धूप श्रीफलादि,
अर्घ तैं जजीजिये ।।
पार्श्वनाथ देव सेव,
आपकी करुं सदा ।
दीजिए निवास मोक्ष,
भूलिये नहीं कदा ।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।27।
जल फल वसु सजि हिम थार,
तन मन मोद धरौं ।
गुण गाऊँ भवदधितार,
पूजत पाप हरौं ।।
श्री वीर महा-अतिवीर,
सन्मति नायक हो ।
जय वर्द्धमान गुणधीर,
सन्मतिदायक हो ।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।28।
हूँ शुद्ध निराकुल सिद्धो सम,
भवलोक हमारा वासा ना ।
रिपु रागरु द्वेष लगे पीछे,
यातें शिवपद को पाया ना ॥
निज के गुण निज में पाने को,
प्रभु अर्घ संजोकर लाया हूँ ।
हे बाहुबली तुम चरणों में,
सुख सम्पति पाने आया हूँ ॥
ॐ ह्रीं श्री-बाहुबली-जिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्म निर्वापमिति स्वाहा ।29।
सजि वसुविधि द्रव्य मनोज्ञ
अरघ बनावत हैं ।
वसुकर्म अनादि संयोग,
ताहि नशावत हैं ॥
श्री वासु-पूज्य-मल्ली-नेम,
पारस वीर अती ।
नमूं मन-वच-तन धरी प्रेम,
पांचो बालयति ॥
ॐ ह्रीं श्री-पंच बाल यति-तीर्थंकरेभ्यो अनर्घ पद प्राप्तये अर्घ्म निर्वापमिति स्वाहा ।30।
जल फल आठों दरव चढ़ाय
द्यानत वरत करौं मन लाय।
परम गुरु हो जय जय
नाथ परम गुरु हो।।
दरशविशुद्धि भावना भाय
सोलह तीर्थंकर-पद-दाय।
परम गुरु हो जय जय
नाथ परम गुरु हो ।।
ॐ ह्रीं दर्शन विशुद्धयादि षोडश कारणेभ्यः अनर्घ्य पद प्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति ।31।
आठ दरबमय अरघ बनाय,
द्यानत पूजौं श्रीजिनराय ।
महासुख होय, देखे नाथ
परम सुख होय ।।
पांचो मेरू असी जिन धाम,
सब प्रतिमा जी को करौं प्रणाम ।
महासुख होय, देखे नाथ
परम सुख होय ।।
ॐ ह्रीं पंचमेरूसम्बन्धि-जिन चैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्यः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।32।
यह अरघ कियो निजहेत,
तुमको अरपत हों ।
धानत किज्यो शिवखेत,
भूमि समरपतु हों ॥
नन्दीश्वर श्रीजिनधाम,
बावन पुंज करों ।
वसु दिन प्रतिमा अभिराम,
आनंद भाव धरों ॥
(नन्दीश्वर दीप महान
चारों दिशि सोहें ।
बावन जिन मन्दिर जान
सुर-नर-मन-मोहें ॥)
ॐ ह्रीं श्री-नन्दीश्वर-द्वीपें पूर्व-पश्चिमोत्तर-दक्षिण-दिशु द्व-पंचास-जिनालय-स्थित जिन प्रतिमाभ्यो अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्म निर्वापमिति स्वाहा ।33।
आठो दरब संवार, धानत
अधिक उछाह सों ।
भाव-आताप निवार,
दस लच्छन पूजो सदा ॥
ॐ ह्रीं श्री-उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण-धर्माय अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्म निर्वा.स्वाहा ।34।
आठ दरब निराधार,
उत्तम सों उत्तम किये ।
जनम-रोग निरवार,
सम्यक रत्नत्रय भजुं ॥
ॐ ह्रीं श्री-सम्यग्-रत्नत्रयाय अनर्घ पद प्राप्तये अर्घ्म निर्वापमिति स्वाहा ।35।
जल गंध अक्षत पुष्प चरुवर,
दीप धुप सु लावना ।
फल ललित आठों द्रव्य मिश्रित,
अर्घ कीजे पावना ॥
मन्वादि चारित्रऋद्धि धारक,
मुनिन की पूजा करू ।
ता करे पातक हरे सारे,
सकल आनंद विस्तरुं ॥
ॐ ह्रीं श्री-मन्वादि सप्तर्षिभ्यो अनर्घ पद प्राप्तये अर्घ्म निर्वापमिति स्वाहा ।36।
जल गंध अक्षत पुष्प चरु फल,
दीप धुपायन धरौ।
धानत करो निरभय जगत सो,
जोर कर विनती करौ ॥
सम्मेद्गिरि गिरनार चंपा
पावापुर कैलाश को ।
पूजो सदा चौबीस जिन,
निर्वाण भूमि निवास को ॥
ॐ ह्रीं श्री-चतुर्विंश-तीर्थंकर-निर्वाण-क्षेत्रेभ्यो अर्घ निर्वापमिति स्वाहा ।37।
जल गंधाक्षत फुल सु नेवज लीजिये ।
दीप धुप फल अर्घ सु लेकर चढ़ाइए ॥
पूजो शिखर सम्मेद सु मन वच काय जू ।
नरकादि दुःख टरै अचल पद पाय जू ॥
ॐ ह्रीं श्री-सम्मेद-शिखर-सिद्धक्षेत्र-पर्वते बीस-तीर्थंकर-आदि-असंख्यात-मुनि-मुक्ति-प्राप्ताय अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्म निर्वापमिति स्वाहा ।38।
जलचन्दन अक्षत, फूल चरु,
चत, दीप धूप अति फल लावै।
पूजा को ठानत, जो तुम जानत,
सो नर द्यानत सुखपावै।।
तीर्थंकर की ध्वनि, गनधर ने सुनि,
अंग रचे चुनि ज्ञानमई।
सो जिनवर वानी, शिवसुखदानी,
त्रिभुवन पूज्य भई।।
ऊँ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भभवसरस्वतीदेव्यै अर्ध्यम निर्वपामीति स्वाहा ।39।
जल फलादिक द्रव्य लेकर
अर्घ सुन्दर कर लिया ।
संसार रोग निवार भगवन
वारि तुम पद में दिया ॥
जहा सुभग ऋषिमंडल विराजै
पूजी मन वाच तन सदा ।
तिस मनोवांछित मिळत सब
सुख स्वप्न में दुःख नहि कदा ॥
ॐ ह्रीं श्री-सर्वोपद्रव-विनाशन-समथार्य ऋषिमंडलाय अर्घ्म निर्वापमिति स्वाहा ।40।
भरतेश्वर महाराज थारा गुण गाऊ,
था घर में ही वैराग चरणों में धयाऊ ।
मैं अष्ट द्रव्य ले आय पूजा के लिए,
मैं पूजा भाव रचाय भव भव दुःख हरे ॥
ॐ ह्रीं श्री भरतेश्वराय अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्म निर्वापमिति स्वाहा ।41।
गौतमादिक सर्वे एकदश गणधराऊ,
वीर जिन के मुनि सहस चौदह वरा ।
नीर गंधाक्षतं पुष्प चरु दीपकं
धूप फल अर्घ्य ले हम जजें महर्षिकं ॥
ॐ ह्रीं श्रीमहावीर-जिनस्य गौतमाद्येकादश-गणधर-चतुर्दशसहस्र मुनिवरेभ्यो अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । ।42।
मथुरा चौरासी धाम से निर्वाण गये ।
मैं पूजूं जम्बूस्वामी अंतिम मोक्ष गए ॥
ॐ ह्रीं श्री जम्बू-स्वामी-मुक्ति-प्राप्ताय अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्म निर्वापमिति स्वाहा ।43।
लाभ की अंतराय के वश
जीव सुख ना लहै।
जो करै कष्ट उत्पात सगरे
कर्मवस विरथा रहै।।
नहीं जोर वाको चले इक छिन
दीन सौ जग में फिरै।
अरहंत सिद्धसु अधर धरिकै
लाभ यौ कर्म कौ हरै।।
ऊँ ह्रीं लाभांतरायकर्म रहिताभ्याम अहर्तसिद्ध परमेष्ठिभ्याम अर्घ्यम निर्व. स्वाहा ।44।
जल गन्धादि द्रव्य मिलाकर
निज निज पूजो चाव में ।
मान स्तम्भ पे बैठे भगवन,
उनको पुजू भाव से ॥
ॐ ह्रीं श्री मान-स्तम्भोपरि-विराजमान-चतुर्मुख-जिनबिम्बेभ्यो अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्म निर्वापमिति स्वाहा l।45 ll
शनि तमोसुत केतवे |
पूजिये चौबीस जिन,
ग्रहारिष्ट-नाशन हेतवे ||
ॐ ह्रीं श्री सर्वग्रहारिष्ट-निवारक-श्रीचतुर्विंशति-तीर्थंकरेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
अर्घ सुन्दर कर लिया |
संसार रोग निवार भगवन्
वारि तुम पद में दिया ||
जहाँ सुभग ऋषिमंडल विराजे
पूजि मन-वच-तन सदा |
तिस मनोवाँछित मिलत सब
सुख स्वप्न में दु:ख नहिं कदा ||
ॐ ह्रीं श्री सर्वोपद्रव-विनाशन-समर्थाय, रोग-शोक-सर्वसंकट-हराय सर्वशान्ति-पुष्टि कराय श्रीवृषभादिचौबीस-तीर्थंकर, अष्टवर्ग, अरहंतादि-पंचपद, दर्शन ज्ञान-चारित्र, चतुर्णिकाय-देव, चार प्रकार अवधिधारक-श्रमण, अष्ट-ऋद्धि-युक्त ऋषि, चौबीस देवी, तीन ह्रीं, अर्हंत-बिम्ब, दसदिग्पाल इति यन्त्र-सम्बन्धि-देव-देवी सेविताय परमदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
दीप धूप अति फल लावे |
पूजा को ठानत, जो तुहि जानत,
सो नर ‘द्यानत’ सुख पावे ||
तीर्थंकर की धुनि, गणधर ने सुनि,
अंग रचे चुनि ज्ञानमर्इ |
सो जिनवर-वानी, शिवसुखदानी,
त्रिभुवन-मानी पूज्य भर्इ ||
ॐ ह्रीं श्री जिन-मुखोद्भूत-सरस्वतीदेव्यै अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
आठ दरब कर से फैलायो,
अर्घ बनाय तुम्हें हि चढ़ायो |
मेरो आवागमन मिटाव,
दाता मोक्ष के |
श्री बाहुबली जिनरा
दाता मोक्ष के ||
ॐ ह्रीं श्री बाहुबली स्वामिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
जल आदिक आठों द्रव्य लेय,
भरि स्वर्णथार अर्घहि करेय |
जिन आदि मोक्ष कैलाश थान,
मुन्यादि पाद जजूँ जोरि पान ||
ऊँ ह्रीं श्रीकैलाश पर्वत सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि0 स्वाहा |
जल गंधाक्षत पुष्प सु
नेवज लीजिये |
दीप धूप फल लेकर
अर्घ सु दीजिये ||
पूजौं शिखर सम्मेद
सु-मन-वच-काय जी |
नरकादिक दुख टरें
अचल पद पायजी ||
ऊँ ह्रीं श्रीसम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि0 स्वाहा |
अष्ट द्रव्य को अर्घ्य संजोयो,
घण्टा नाद बजाई |
गीत नृत्य कर जजौं ‘जवाहर’
आनन्द हर्ष बधाई ||
जम्बु द्वीप भरत आरज में,
सोरठ देश सुहाई |
शेषावन के निकट अचल तहं,
नेमिनाथ शिव पाई ||
ऊँ ह्रीं श्रीगिरनार सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि0 स्वाहा |
जल फल वसु द्रव्य मिलाय,
लै भर हिम थारी |
वसु अंग धरा पर ल्याय,
प्रमुदित चित्तधारी ||
श्री वासु पूज्य जिनराय,
निर्वृतिथान प्रिया |
चंपापुर थल सुख दाय,
पूजौं हर्ष हिया ||
ऊँ ह्रीं श्रीचम्पापुर सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि0 स्वाहा |
जल गंध आदि मिलाय वसुविध
थार स्वर्ण भरायके |
मन प्रमुद भाव उपाय करले
आय अर्घ्य बनायके ||
वर पद्मवन भर पद्मसरवर
बहिर पावा ग्राम ही |
शिव धाम सन्मति स्वामी पायो,
जजौं सो सुखदा मही ||
ऊँ ह्रीं श्रीपावापुरी सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि0 स्वाहा |
वसु द्रव्य ले भर थाल कंचन
अर्घ दे सब अरि हनूं |
‘छोटे’ चरण जिन राज लय हो
शुद्ध निज आत्म बनूं |
नंगाऽनंगादि मुनीन्द्र जहं ते
मुक्ति लक्ष्मी पति भये |
सो परम गिरवर जजूं बस
विधि होत मंगल नित नये ||
ऊँ ह्रीं श्रीसोनागिरि सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि0 स्वाहा |
शुचि अमृत आदि समग्र,
सजि वसु द्रव्य प्रिया |
धारौं त्रिजगत पति अग्र,
धर वर भक्त हिया ||
ऊँ ह्रीं श्रीनयनागिरि सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि.स्वाहा |
जल सु चन्दन अक्षत लीजिये,
पुष्प धर नैवेद्य गनीजिये |
दीप धूप सुफल बहु साजहीं,
जिन चढा़य सुपातक भाजहीं ||
ऊँ ह्रीं श्रीद्रोणगिरि सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि0 स्वाहा |
जल चन्दन अक्षत लेय,
सुमन महा प्यारी |
चरु दीप धूप फल सोय,
अरघ करौं भारी ||
द्वय चक्री दस काम कुमार,
भवतर मोक्ष गये |
तातें पूजौं पद सार,
मन में हरष ठये ||
ऊँ ह्रीं श्रीसिद्धवरकूट सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि0 स्वाहा |
वसु द्रव्य मिलाई, थार भराई,
सन्मुख आई नजर करो |
तुम शिव सुखदाई धर्म बढ़ाई,
हर दुखदाई, अर्घ करो ||
पांडव शुभ तीनं सिद्ध लहीनं,
आठ कोड़ि मुनि मुक्ति गये |
श्री शत्रुञ्जय पूजौं सन्मुख हूजो,
शान्तिनाथ शुभ मूल नये ||
ऊँ ह्रीं श्रीशत्रुंजय सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि0 स्वाहा |
(11)
जल फलादि वसु दरव सजाके,
हेम पात्र भर लाऊँ |
मन वच काय नमूं तुम चरना,
बार बार शिर नाऊँ ||
राम हनू सुग्रीव आदि जे,
तुंगीगिर थिरथाई |
कोड़ी निन्यानवे मुक्ति गये मुनि,
पूजूं मन वच काई ||
ऊँ ह्रीं श्रीतुंगीगिरि सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि0 स्वाहा |
(12)
जल फलादि वसु दरव
लेय थुति ठान के |
अर्घ जजौं तुम पाप
हरो हिय आनके ||
पूजौं सिद्ध सु क्षेत्र
हिये हरषाय के |
कर मन वच तन शुद्ध,
करमवश टारके ||
ऊँ ह्रीं श्रीकुन्थलगिरि सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि0 स्वाहा |
(13)
सजि सौंज आठों होय ठाड़ा,
हरष बाढ़ा कथन विन |
हे नाथ भक्तिवश मिले जो,
पुर न छुटे एक दिन ||
दशग्रीव अंगज अनुज आदि,
ऋषीश जहंते शिव लहो |
सो शैल बड़वानी निकट
गिरिचूल की पूजा ठहो ||
ऊँ ह्रीं श्रीचूलगिरि सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि0 स्वाहा |
(14)
जल फल आदि वसु दरव अति अत्तम,
मणिमय थाल भराई |
नाच नाच गुण गाय गायके,
श्री जिन चरण चढ़ाई ||
बलभद्र सात वसु कोड़ि मुनीश्वर,
यहां पर करम खपाई |
केवल लहि शिव धाम पधारे,
जजूँ तन्हें शिर नाई ||
ऊँ ह्रीं श्रीगजपंथ सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि0 स्वाहा |
जल गंध आदिक द्रव्य लेके,
अर्घ कर ले आवने |
लाय चरन चढ़ाय भविजन,
मोक्षफल को पावने ||
तीर्थ मुक्तागिरि मनोहर,
परम पावन शुभ कहो |
कोटि साढ़े तीन मुनिवर,
जहाँ ते शिवपुर लहो ||
ऊँ ह्रीं श्रीमुक्तागिरि सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि0 स्वाहा |
वसु द्रव्य मिलाई भविजन भाई,
धर्म सुहाई अर्घ करुँ |
पूजा को गाऊँ हर्ष बढ़ाऊं,
खूब नचाऊँ प्रेम भरुं ||
पावा गिरि वन्दौं मन आनन्दौं,
भव दुख खंदौं चितधारी |
मुनि पाँच जुकोड़ं भवदुख छोड़ं,
शिवमुख जोड़ं सुखभारी ||
ऊँ ह्रीं श्रीपावागढ़ सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि0 स्वाहा |
रेवानदी के तीर पर
सिद्धोदय है क्षेत्र,
इसके दर्शन मात्र से
खुलता सम्यक् नेत्र |
रावण-सुत अरु सिद्ध
मुनि साढ़े पांच करोड़,
ऐसे अनुपम क्षेत्र को
पूजूं सदा कर जोड़ ||
ऊँ ह्रीं श्रीरेवातट स्थित सिद्धोदय सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य- नि0 स्वाहा |
जल फल वसु द्रव्य पुनित,
लेकर अर्घ करुं |
नाचूं गाऊं इह भांति,
भवतर मोक्ष वरुं ||
श्री पावा गिरि से मुक्ति,
मुनिवर चारि लही |
तिन इक क्रम से गिन,
चैत्य पूजत सौख्य लही ||
ऊँ ह्रीं श्रीपावागिरि(ऊन) सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि0 स्वाहा |
जल फल वसु दरव पुनीत,
लेकर अर्घ करुं |
नाचूं गाऊं इह भांति,
भवतर मोक्ष वरुं ||
श्री कोटिशिला के मांहि,
जशरथ तनय कहै |
मुनि पंच शतक शिवलीन,
देश कलिंग दहै ||
ऊँ ह्रीं श्रीकोटिशिला सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि0 स्वाहा |
शुचि आठों द्रव्य मिलाय
तिनको अर्घ करौं,
मन वच तन देहु चढ़ाय
भवतर मोक्ष वरौं |
श्री तारंगागिरि से जान,
वरदत्तादि मुनी,
त्रय अर्ध कोटि परमान
ध्याऊँ मोक्षधनी ||
ऊँ ह्रीं श्रीतारंगागिरि सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि0 स्वाहा |
जल फल आदिक द्रव्य इकट्ठे लीजिये,
कंचन थारी मांहि अरघ शुभ कीजिये |
ग्राम गुणावा जाय सु मन हर्षाय के,
गौतम स्वामी चरण जजौं मन लायके ||
ऊँ ह्रीं श्रीगौतम गणधर निर्वाण स्थली गुणावा सिद्धक्षेत्राय अर्घ्य- नि0 स्वाहा |
जल फल आदिक द्रव्य आठहू लीजिये,
कर इकठी भरि थाल अर्घ शुभ कीजिये |
मथुरा जम्बू स्वामी मुक्ति थल जायके,
पूजित भवि धरि ध्यान सुयोग लगायके ||
ऊँ ह्रीं श्री जम्बुस्वामी निर्वाणस्थली चौरासी मथुरा सिद्धक्षेत्राय अर्घ्य- नि0 स्वाहा |
मैं पूजता अरिहंत सिद्ध सूरि को सदा ।
उवज्झाय सर्व साधु और शारदा मुदा ॥
गणधर गुरु चरण की नित्य अर्चना करूँ ।
दश धर्म सोलह भावना की अर्चना करूँ ॥ 1 ॥
अरहंत भाषितार्थ दया धर्म को भजूँ ।
श्री तीन रत्न रूप मोक्ष धर्म को जजूँ ॥
त्रैलोक्य के कृत्रिम - अकृत्रिम चैत्य को ध्याऊँ ।
चैत्यालयों का ध्यान लगा अर्घ चढाऊँ ॥2 ॥
सब सिद्ध क्षेत्र तीर्थ क्षेत्र को भजूँ सदा ।
औ तीन लोक के समस्त तीर्थ सर्वदा ॥
चौबीस जिनवरों व बीस नाथ को ध्याऊँ ।
जल आदि अष्ट द्रव्य ले पूर्णार्घ चढ़ाऊँ || 3 ॥
जल आदिक वसु द्रव्य की, लेकर आये थाल।
महाअर्घ अर्पण करें, प्रभु को नमें त्रिकाल ॥
ॐ ह्रीं द्रव्य सहित भावपूजा भाववंदना त्रिकाल पूजा त्रिकाल वंदना करे करावै भावना भावै श्री अरहंतसिद्ध आचार्य उपाध्यायसर्वसाधु पंच परमेष्ठिभ्यो नमः । प्रथमानुयोग करणानुयोग चरणानुयोग द्रव्यानुयोगेभ्यो नमः । उत्तमक्षमादि दशलाक्षणिकधर्मेभ्यो नमः । दर्शनविशुद्धयादि षोडशकारणेभ्यो नमः । सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्रेभ्यो नमः । विदेह क्षेत्रस्थ विंशति तीर्थंकरेभ्यो नमः । जल, थल, आकाश, गुफा, पहाड़, सरोवर, नगरनगरी, ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक, अधोलोक स्थित कृत्रिम - अकृत्रिम जिनचैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्यो नमः। पाँच भरत पाँच ऐरावत संबंधी तीस चौबीसी के सात सौ बीस जिनराजेभ्यो नमः। नंदीश्वर द्वीप संबंधी बावन जिनचैत्यालयेभ्यो नमः | पंचमेरू संबंधी अस्सी जिनचैत्यालयेभ्यो नमः । सम्मेदशिखर, कैलाशगिरी, चंपापुर, पावापुर, गिरनार, -सोनागिर, मथुरा, गजपंथा, मांगीतुंगी, तपोभूमि आदि सिद्धक्षेत्रेभ्यो नमः | जैनबद्री, मूढ़बद्री, देवगढ़, चंदेरी, पपौरा, हस्तिनापुर, अयोध्या, कुंथुगिरी, पुष्पगिरी, अंजनगिरी, धर्मतीर्थ, वरूर, राजगृही, तारंगा, चमत्कार, महावीरजी, पदमपुरा, तिजारा, अहिच्क्षेत्र, कचनेर, जटवाड़ा, पैठण, गोम्मटेश्वर, चंवलेश्वर, बिजौलिया, चांदखेड़ी, पाटन, कुण्डलपुर, अणिन्दा वृषभदेव णमोकार ऋषि तीर्थ आदि अतिशय क्षेत्रेभ्यो नमः । श्री चारण ऋद्धिधारी सप्त परमर्षिभ्यो नमः । भूत-भविष्यत- वर्तमान काल संबंधी चतुर्विंशति तीर्थंकरेभ्यो नमः।
ॐ ह्रीं श्रीमंतं भगवंतं कृपावंतं श्री वृषभादि महावीरपर्यंतं चतुर्विंशति तीर्थंकर परमदेवं आद्यानां आद्ये जम्बूद्वीपे भरत क्षेत्रे आर्यखण्डे भारत देश... नगरे.. .....मासानांमासे......मासे प्रान्तेपक्षे... ..... वासरे मुनि .....तिथौ.. आर्यिकाणां श्रावक श्राविकाणां, क्षुल्लक, क्षुल्लिकानां, सकल कर्मक्षयार्थं (जलधारा ) जलादि महार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
(27 श्वासोच्छ्वास में 9 बार णमोकार मंत्र पढ़ें । )
(शांतिपाठ बोलते समय पुष्पाञ्जलि क्षेपण करते रहें)
शशि सम निर्मल जिन मुखधारी,
शील सहस्र गुणों के धारी ।
लक्षण वसु शत त्रयपदधारी,
कमल नयन शांति सुखकारी ॥1॥
(नोट- यहाँ शांतिधारा करें )
शांतिनाथ पंचम चक्रीश्वर,
पूजें तुमको इन्द्र मुनीश्वर ।
शांति करो हे शांति !जिनेश्वर,
जगत् शांतिहित नमते गणधर॥2 ॥
आठों प्रातिहार्य मनहारी,
ये जिन वैभव हैं सुखकारी ।
तरु अशोक पुष्पों की वर्षा,
दिव्य ध्वनि सिंहासन रवि सा ॥3॥
छत्र चँवर भामंडल चम चम,
देव - दुंदुभि बजती दुमदुम ।
शांति करो त्रय जग में स्वामी,
शीश झुकाता तुमको स्वामी ॥4॥
आप अनंत चतुष्टय धारी,
मंगल द्रव्य आठ अघहारी ।
सर्व विघ्न प्रभु आप नशाओं,
हे शांति प्रभु ! शांति दिलाओ ॥5॥
पूजक राजा शांति पायें,
मुनि तपस्वी शांति पायें |
राष्ट्र नगर में शांति छाये,
शांति जगत् में हे जिन ! आये ॥ 6 ॥
पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्
(9 बार णमोकार मंत्र का जाप करें। )
(दोनों हाथ में चावल या पुष्प लेकर करबद्ध हो विसर्जन पाठ पढ़ें मंत्र के साथ पुष्पाञ्जलि करें)
जाने अनजाने हुई,
प्रभु पूजा में चूक ।
मैं अज्ञान अबोध हूँ,
क्षमा करो सब चूक ।। 1 ।।
जानूँ नहीं आह्वान मैं
पूजा से अनजान |
ज्ञान विसर्जन का नहीं,
क्षमा करो भगवान |॥ 2 ॥
अक्षर पद और मात्रा,
व्यंजनादि सब शब्द |
कम ज्यादा कुछ कह दिया,
छूट गये हों शब्द ॥ ३ ॥
मिथ्या हो सब दोष मम,
शरण रखो भगवान |
तव पूजा करके प्रभु,
बन जाऊँ भगवान ।। 4 ।।
ॐ आं क्रौं ह्रीं अस्मिन् नित्य पूजाभिषेक विधाने आगच्छत सर्वे देवाः स्वस्थाने गच्छतः - 3ज: - 3स्वाहा ।
इत्याशीर्वादः दिव्य पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्
दोहा
(9 बार णमोकार का जाप करें । )
(नोट- दीपक लेकर श्रीजी की मंगल आरती करें।)
(यह दोहा बोलते हुए आशिका ग्रहण करें)
गंध पुष्प प्रभु रज यही,
इसको शीश झुकाय ।
पुष्प लिये आह्वान के,
अपने शीश लगाय ॥
( तुभ्यम् नमस्त्रि बोलते हुये भगवान को गुरु को नमस्कार करें । )
संपूर्ण विधि कर वीनऊँ इस
परम पूजन ठाठ में।
अज्ञानवश शास्त्रोक्त विधि
तें चूक कीनों पाठ में॥
सो होहु पूर्ण समस्त विधि-वत
तुम चरण की शरणतै।
बंदौं तुम्हें कर जोरिकें
उद्धार जामन मरणतै॥1॥
आह्वानन स्थापन तथा
सन्निधिकरण विधान जी।
पूजन विसर्जन यथाविधि
जानूं नहीं गुणगानजी॥
जो दोष लागौ सो नशौ सब
तुम चरण की शरणतैं।
बंदों तुम्हें कर जोरि कर
उद्धार जामन शरणतैं॥2॥
तम रहित आवागमन आह्वानन
कियो निज भाव में।
विधि यथाक्रम निजशक्ति सम
पूजन कियो अतिचाप में॥
करहूँ विसर्जन भाव ही में
तुम चरण की शरणतें।
वंदो तुम्हें कर जोरि कर
उद्धार जामन मरणतें॥
तीन भुवन तिहूँ काल में,
तुमसा देव न और।
सुख कारण संकट हरण,
नमो ‘जुगल’ कर जोर॥