जो निष्ठित-पूर्णत: अपने स्वरूप में स्थित हैं,
कृतकृत्य-समस्त कार्यों को पूर्ण कर चुके हैं,
सिद्धसाध्य-अपने साध्य (लक्ष्य) को सिद्ध कर चुके हैं और
आठों कर्मों को नष्ट कर चुके हैं, उन्हें सिद्ध कहते हैं।
मोहनीय कर्म के विनाश से सम्यक्त्व होता है,
ज्ञानावरण के नष्ट होने पर अनन्त ज्ञान प्रगट होता है,
दर्शनावरण के विघात से अनन्तदर्शन,
अन्तराय के हनन से अनन्तवीर्य,
नामकर्म के अत्यंत नाश से सूक्ष्मत्व गुण,
आयुकर्म के अभाव से अवगाहन गुण,
गोत्र कर्म के नाश से अगुरुलघु गुण,
वेदनीय कर्म के शातन-अभाव से अव्याबाध।
इस प्रकार इन आठ कर्मों से रहित और
आठ गुणों से सहित सिद्ध परमेष्ठी होते हैं।
लघु सिद्धभक्ति में कहा भी है-
गाथार्थ-सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहना, अगुरुलघु
और अव्याबाध ये आठ गुण सिद्धों के होते हैं।
यद्यपि अनन्तानन्त गुणों के पुञ्जस्वरूप सिद्ध भगवान होते हैं
फिर भी सामान्यतया आठ गुणों से विशिष्ट ही बताये गये हैं।