कायमार्गणा

(अष्टम अधिकार)

काय का स्वरूप

जाईअविणाभावी, तसथावरउदयजो हवे काओ।

सो जिणमदम्हि भणिओ, पुढवीकायादिछब्भेयो।।५९।।

जात्यविनाभावित्रसस्थावरोदयजो भवेत् काय:।

स जिनमते भणित: पृथ्वीकायादिषड्भेद:।।५९।।

अर्थ—जाति नाम कर्म के अविनाभावी त्रस और स्थावर नामकर्म के उदय से होने वाली आत्मा की पर्याय को जिनमत में काय कहते हैं। इसके छह भेद हैं—पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस।

भावार्थ—यद्यपि काय शब्द का अर्थ शरीर होता है और निरुक्ति के अनुसार यह अर्थ भी संगत है। फिर भी यहाँ यह निरुक्तार्थ गौण एवं उपचरित है, मुख्य नहीं है। इसीलिये आचार्य ने काय का लक्षण बताते हुए यहाँ पर इस बात को स्पष्ट कर दिया है कि मार्गणा के प्रकरण में काय का अर्थ जाति नाम कर्म के उदय से अविनाभावी त्रस एवं स्थावर नाम कर्म के उदय होने से होने वाली जीव की पर्याय विशेष है। शरीर नाम कर्म के उदय से होने वाला कार्य यहाँ पर काय शब्द से अभीष्ट नहीं है। इस तरह के शरीर में स्थित जीव की पर्याय ही वास्तव में काय शब्द से यहाँ अभिप्रेत है। यदि निरुक्ति अर्थ को शरीर रूप मुख्य माना जायेगा तो आगम के अनेक विषय विसंगत हो जाएंगे। वायुकायिक आदि को स्थावर नहीं कहा जा सकेगा, क्योंकि वे स्थानशील नहीं है—सदा ही चलते रहते हैंं तथा सब स्थावरों को भी त्रस कहा जा सकेगा, क्योंकि वे भी उद्वेग को प्राप्त हैं, इत्यादि।

सामान्यतया जाति नामकर्म के एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक पाँच भेद होते हैं। फिर भी इनके त्रस और स्थावर नाम कर्म के उदय के संबंध से दो भेद किये गये हैं—एकेन्द्रिय और द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक। जिन जीवों के एकेन्द्रिय जाति नामकर्म का उदय पाया जाता है उनके स्थावर नामकर्म का भी उदय हुआ करता है और जिनके द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक की किसी भी जाति का उदय होता है उनके त्रस नामकर्म का उदय हुआ करता है क्योंकि त्रस स्थावर कर्मों का उदय जाति का अविनाभावी—उससे अविरुद्ध बताया गया है। जिस तरह गति से अविरुद्ध जाति कर्म का उदय हुआ करता है। उसी प्रकार जाति से अविरुद्ध—अविनाभावी स्थावर और त्रस नामकर्मों का उदय हुआ करता है। शरीर कर्म के उदय से आगत नोकर्मवर्गणाओं की रचना इन्हीं जात्यविनाभावी त्रस या स्थावर नामकर्म के उदय के अनुसार हुआ करती है। ऐसा नहीं है कि शरीर के अनुसार इन जीव विपाकी जात्यादि कर्मों का उदय होता हो। जैसा कि गाथा के पूर्वार्ध से विदित होता है तथा देखा जाता है कि विग्रह गति में शरीर के उदय और कार्य के पूर्व त्रस-स्थावर कर्मोदय के अनुसार जीव की वह पर्याय और संज्ञाभिधान माना गया है। अतएव यहाँ पर काय से शरीर का ग्रहण करके कोई भ्रम में न पड़े इसीलिए जीव विपाकी कर्मों के उदय से जन्य जीव-पर्याय रूप काय का लक्षण ग्रंथकारों ने स्पष्टतया बता दिया है।

पृथ्वी आदि चार स्थावर का स्वरूप

पुढवी आऊ तेऊ, वाऊ कम्मोदयेण तत्थेव।

णियवण्णचउक्कजुदो, ताणं देहो हवे णियमा।।६०।।

पृथिव्यप्तेजोवायुकर्मोदयेन तत्रैव।

निजवर्णचतुष्कयुतस्तेषां देहो भवेन्नियमात्।।६०।।

अर्थ—पृथ्वी, अप्—जल, तेज—अग्नि, वायु, इनका शरीर नियम से अपने-अपने पृथ्वी आदि नामकर्म के उदय से अपने-अपने योग्य रूप, रस, गंध, स्पर्श से युक्त पृथ्वी आदिक में बनता है।

भावार्थ—पृथ्वी आदि नामकर्म के उदय से पृथ्वीकायिक आदि जीवों के अपने-अपने योग्य रूप, रस, गंध, स्पर्श से युक्त पृथ्वी आदि पुद्गलस्कंध शरीर रूप परिणत हो जाते हैं अर्थात् शरीर योग्य प्राप्त नोकर्मवर्गणाओं का परिणाम और रचना जात्यविनाभावी स्थावर या त्रस नामकर्म एवं उनके अवान्तर भेदरूप जीव विपाकी कर्म के उदय के अनुरूप हुआ करती है।

शरीर के भेद और उनके लक्षण

बादरसुहुमुदयेण य, बादरसुहुमा हवन्ति तद्देहा।

घादसरीरं थूलं, अघाददेहं हवे सुहुमं।।६१।।

बादरसूक्ष्मोदयेन च बादरसूक्ष्मा भवन्ति तद्देहा:।

घातशरीरं स्थूलमघातदेहं भवेत् सूक्ष्मम्।।६१।।

अर्थ—बादरनामकर्म के उदय से बादर और सूक्ष्म नामकर्म के उदय से सूक्ष्म शरीर हुआ करता है। जो शरीर दूसरे को रोकने वाला हो अथवा जो स्वयं दूसरे से रुके उसको बादर—स्थूल कहते हैं और जो दूसरे को न तो रोके और न स्वयं दूसरे से रुके उसको सूक्ष्म शरीर कहते हैं।

भावार्थ—नामकर्म के भेदों में जाति, स्थावर, त्रस ये तीन भेद जिस तरह जीव विपाकी कर्मों के भेद हैं, जो कि काय की उत्पत्ति या व्यपदेश में मुख्य अन्तरंग कारण हैं। उसी प्रकार शरीर के दो प्रकार बादर और सूक्ष्म होने में भी नामकर्म के दो जीवविपाकी ही कर्म-बादर और सूक्ष्म कारण हैं। जो जीव बादर नामकर्म के उदय से युक्त हैं उनके शरीर नामकर्म के उदय से संचित नोकर्म वर्गणाओं की बादर शरीर रूप रचना हुआ करती है और जो जीव सूक्ष्म नामकर्म के उदय से युक्त हैं उनके शरीर नाम कर्म के उदय से प्राप्त शरीर योग्य नोकर्मवर्गणाओं से सूक्ष्म शरीर का परिणमन हुआ करता है। अतएव आशय इस प्रकार समझना चाहिए कि जिनका शरीर बादर है वे बादर जीव हैं और जिनका शरीर सूक्ष्म है वे जीव सूक्ष्म हैं क्योंकि कार्य कारण का ज्ञापक हुआ करता है।

वनस्पतिकाय का स्वरूप और उसके भेद

उदये दु वणप्फदिकम्मस्स य जीवा वणप्फदी होंति।

पत्तेयं सामण्णं, पदिट्ठिदिदरेत्ति पत्तेयं।।६२।।

उदये तु वनस्पतिकर्मणश्च जीवा वनस्पतयो भवन्ति।

प्रत्येकं सामान्यं प्रतिष्ठितेतरे इति प्रत्येकम्।।६२।।

अर्थ—स्थावर नामकर्म का अवान्तर विशेष भेद जो वनस्पति नामकर्म है उसके उदय से जीव वनस्पति होते हैं। उनके दो भेद हैं—एक प्रत्येक दूसरा साधारण। प्रत्येक के भी दो भेद हैं—प्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित।

भावार्थ—जो एक ही जीव प्रत्येक वनस्पति नामकर्म के उदय से युक्त होकर पूरे एक शरीर का मालिक हो उस जीव को प्रत्येक वनस्पति कहते हैं। जिस एक ही शरीर में अनेक जीव समानरूप से रहें उस शरीर को साधारण शरीर कहते हैं और इस तरह के साधारण शरीर के धारण करने वाले उन जीवों को साधारण वनस्पति जीव कहते हैं क्योंकि इनके साधारण-वनस्पति नामकर्म का उदय पाया जाता है। प्रत्येक वनस्पति के भी दो भेद हैं—एक प्रतिष्ठित दूसरा अप्रतिष्ठित। प्रतिष्ठित प्रत्येक उसको कहते हैं कि जिस एक ही जीव के उस विवक्षित शरीर में मुख्य रूप से व्यापक होकर रहने पर भी उसके आश्रय से दूसरे अनेक निगोदिया जीव भी रहें किन्तु जहाँ पर यह बात नहीं है, एक जीव के मुख्यतया रहते हुए भी उसके आश्रय से दूसरे निगोदिया जीव नहीं रहते उनको अप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते हैं।

वनस्पति जीवों के अवान्तर भेद

मूलग्गपोरबीजा,कंदा तह खंदबीज बीजरुहा।

सम्मुच्छिमा य भणिया, पत्तेयाणंतकाया य।।६३।।

मूलाग्रपर्वबीजा, कन्दास्तथा स्कन्धबीजबीजरुहा:।

सम्मूर्छिमाश्च भणिता: प्रत्येकानंतकायाश्च।।६३।।

अर्थ—जिन वनस्पतियों का बीज, मूल, अग्र, पर्व, कंद अथवा स्कंध है अथवा जो बीज से उत्पन्न होती हैं यद्वा जो सम्मूच्र्छन हैं वे सभी वनस्पतियाँ सप्रतिष्ठित तथा अप्रतिष्ठित दोनों प्रकार की होती हैं।

भावार्थ—वनस्पति अनेक प्रकार की होती हैं। कोई तो मूल से उत्पन्न होती हैं, जैसे—अदरख, हल्दी आदि। कोई अग्र से उत्पन्न होती हैं, जैसे— गुलाब, उदीची आदि। कोई पर्व-पंगोली से उत्पन्न होती हैं, जैसे—ईख, बेंत आदि। कोई कंद से उत्पन्न होती हैं, जैसे—पिंडालू, सूरण आदि। कोर्ई स्कंध से उत्पन्न होती हैं, जैसे—सल्लकी, कटकी, पलाश, ढाक आदि। कोई अपने-अपने बीज से उत्पन्न होती हैं, जैसे—गेहूूँ, चना, धान आदि। कोई सम्मूर्च्छन-मिट्टी जल आदि के संबंध से ही उत्पन्न हो जाती हैं, जैसे—घास आदि। ये सब ही वनस्पति सप्रतिष्ठित प्रत्येक और अप्रतिष्ठित प्रत्येक इस तरह दोनों प्रकार की हुआ करती हैं यह बात भी ध्यान में रहनी चाहिए कि यहाँ पर बताए गए वनस्पति के भेदों में एक भेद सम्मूर्च्छन भी बताया है वह वनस्पति के अनेक कारणजन्य प्रकारों में से एक प्रकार है। जिसका आशय इतना ही है कि उसकी उत्पत्ति का कोई बीज निश्चित नहीं है। जैसा कि अन्य वनस्पतियों के मूल आदि निश्चित हैं। जन्म के तीन (सम्मूर्च्छन, गर्भ, उपपाद) प्रकारों में से एक सम्मूर्च्छन भेद है। वह तो एकेन्द्रिय जीवों से लेकर संसारी जीवों में चतुरिन्द्रिय तक सभी जीवों का तथा किन्हीं-किन्हीं पंचेन्द्रिय जीवों का भी हुआ करता है। दोनों ही सम्मूर्च्छन में सामान्य विशेष का अंतर है। सम्मूर्च्छन जन्म सामान्य है और यह भेद विशेष है।

सप्रतिष्ठित प्रत्येक और अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति की पहचान

गूढसिरसंधिपव्वं, समभंगमहीरुहं च छिण्णरुहं।

साहारणं सरीरं, तव्विवरीयं च पत्तेयं।।६४।।

गूढशिरासन्धिपर्वं समभंगमहीरुकं च छिन्नरुहम्।

साधारणं शरीरं तद्विपरीतं च प्रत्येकम्।।६४।।

अर्थ—जिनकी शिरा—बहि:स्नायु, सन्धि—रेखाबंध और पर्व—गाँठ अप्रकट हों और जिसका भंग करने पर समान भंग हो और दोनों भंगों में परस्पर हीरुक—अन्तर्गत सूत्र—तन्तु न लगा रहे तथा छेदन करने पर भी जिसकी पुन: वृद्धि हो जाए उनको सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति कहते हैं। और जो विपरीत हैं—इन चिन्हों से रहित हैं वे सब अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति कही गयी हैं।

भावार्थ—यद्यपि वनस्पति के जो दो भेद गिनाये हैं उनमें प्रत्येक से साधारण भेद भिन्न ही है। परन्तु यहाँ पर साधारण जीवों से आश्रित होने के कारण उपचार से ताल, नालिकेर, तिंतिणीक आदि प्रत्येक वनस्पति के भेदों को भी साधारण शब्द से कह दिया है।

साधारण जीवों का स्वरूप

साहारणमाहारो, साहारणमाणपाणगहणं च।

साहारणजीवाणं, साहारणलक्खणं भणियं।।६५।।

साधारणमाहार: साधारणमानपानग्रहणं च।

साधारणजीवानां साधारणलक्षणं भणितम्।।६५।।

अर्थ—इन साधारण जीवों का साधारण अर्थात् समान ही तो आहार होता है और साधारण—समान अर्थात् एक साथ ही श्वासोच्छ्वास का ग्रहण होता है। इस तरह से साधारण जीवों का लक्षण परमागम में साधारण ही बताया है।

भावार्थ—साथ ही उत्पन्न होेने वाले जिन अनंतानंत साधारण जीवों की आहारादि पर्याप्ति और उनके कार्य सदृश तथा समान काल में होते हों उनको साधारण जीव कहते हैं।

जत्थेक्क मरइ जीवो, तत्थ दु मरणं हवे अणंताणं।

वक्कमइ जत्थ एक्को, वक्कमणं तत्थ णंताणं।।६६।।

यत्रैको म्रियते जीवस्तत्र तु मरणं भवेदनन्तानाम्।

प्रक्रामति यत्र एक: प्रक्रमणं तत्रानन्तानाम्।।६६।।

अर्थ—साधारण जीवों में जहाँ पर एक जीव मरण करता है वहाँ पर अनंत जीवों का मरण होता है और जहाँ पर एक जीव उत्पन्न होता है वहाँ अनंत जीवों का उत्पाद होता है।

भावार्थ—साधारण जीवों में उत्पत्ति और मरण की अपेक्षा भी सादृश्य है। प्रथम समय मेंं उत्पन्न होने वाले साधारण जीवों की तरह द्वितीयादि समयों में भी उत्पन्न होने वाले साधारण जीवों का जन्म-मरण साथ ही होता है। यहाँ इतना विशेष समझना कि एक बादर निगोद शरीर में या सूक्ष्म निगोद शरीर में साथ ही उत्पन्न होने वाले अनंतानंत साधारण जीव या तो पर्याप्तक ही होते हैं या अपर्याप्तक ही होते हैं किन्तु मिश्ररूप नहीं होते क्योंकि उनके समान कर्मोदय का नियम है।

एक निगोद शरीर में जीव कितने हैं

एगणिगोदसरीरे, जीवा दव्वप्पमाणदो दिट्ठा।

सिद्धेहिं अणंतगुणा, सव्वेण विदीदकालेण।।६७।।

एकनिगोदशरीरे जीवा द्रव्यप्रमाणतो दृष्टा:।

सिद्धैरनन्तगुणा: सर्वेण व्यतीतकालेन।।६७।।

अर्थ—समस्त सिद्ध राशि का और सम्पूर्ण अतीत काल के समयों का जितना प्रमाण है द्रव्य की अपेक्षा से उनसे अनंतगुणे जीव एक निगोद शरीर में होते हैं।

भावार्थ—यहाँ पर काल के आश्रय से एक शरीर में पाये जाने वाले जीवों की संख्या बताई गई है। क्षेत्र तथा भाव की अपेक्षा से उनकी संख्या आगम के अनुसार जानी जा सकती है।

नित्यनिगोद का स्वरूप

अत्थि अणंता जीवा, जेिंह ण पत्तो तसाण परिणामो।

भावकलंकसुपउरा, णिगोदवासं ण मुंचंति।।६८।।

सन्ति अनंता जीवा यैर्न प्राप्त: त्रसानां परिणाम:।

भावकलंकसुप्रचुरा निगोदवासं न मुंचन्ति।।६८।।

अर्थ—ऐसे अनंतानंत जीव हैं कि जिन्होेेंने त्रसों की पर्याय अभी तक कभी भी नहीं पाई है और जो निगोद अवस्था में होने वाले दुर्लेश्यारूप परिणामों से अत्यंत अभिभूत रहने के कारण निगोदस्थान को कभी नहीं छोड़ते।

भावार्थ—निगोद के दो भेद हैं—एक नित्य निगोद दूसरा चतुर्गति निगोद। जिसने कभी त्रस पर्याय को प्राप्त कर लिया हो उसको चतुर्गति निगोद कहते हैं और जिसने अभी तक कभी भी त्रस पर्याय को न पाया हो अथवा जो भविष्य में भी कभी त्रस पर्याय को नहीं पावेगा उसको नित्यनिगोद कहते हैं, क्योंकि नित्य शब्द के दोनों ही अर्थ होते हैं एक तो अनादि दूसरा अनादि अनंत। इन दोनों ही प्रकार के जीवों की संख्या अनंतानंत है। गाथा में आया हुआ ‘प्रचुर’ शब्द प्राय: अथवा आभीक्ष्ण्य अर्थ को सूचित करता है। अतएव छह महीना आठ समय में छह सौ आठ जीवों के उसमें से निकल कर मोक्ष को चले जाने पर भी कोई बाधा नहीं आती।

निगोदिया से रहित कौन हैं ?

पुढवीआदिचउण्हं, केवलिआहारदेवणिरयंगा।

अपदिट्ठिदा णिगोदेहिं पदिट्ठिदंगा हवे सेसा।।६९।।

पृथिव्यादिचतुर्णा केवल्याहारदेवनिरयांगानि।

अप्रतिष्ठितानि निगोदै: प्रतिष्ठितांगा भवन्ति शेषा:।।६९।।

अर्थ—पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुकायिक जीवों का शरीर तथा केवलियों का शरीर, आहारकशरीर और देव-नारकियों का शरीर बादर निगोदिया जीवों से अप्रतिष्ठित है। शेष वनस्पतिकाय के जीवों का शरीर तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्यों का शरीर निगोदिया जीवों से प्रतिष्ठित है।

स्थावर और त्रस जीवों का आकार

मसुरंबुबिंदुसूई, कलावधयसण्णिहो हवे देहो।

पुढवीआदिचउण्हं, तरुतसकाया अणेयविहा।।७०।।

मसूराम्बुबिंदुसूचीकलापध्वजसन्निभो भवेद्देह:।

प्रथिव्यादिचतुर्णा तरुत्रसकाया अनेकविधा:।।७०।।

अर्थ—मसूर (अन्न विशेष), जल की बिन्दु, सुइयों का समूह तथा ध्वजा इनके सदृश क्रम से पृथ्वी, अप्, तेज, वायुकायिक जीवों का शरीर होता है और वनस्पति तथा त्रसों का शरीर अनेक प्रकार का होता है।

भावार्थ—जिस तरह का मसूरादिक का आकार है उस ही तरह का पृथ्वीकायिकादिक का शरीर होता है किन्तु वनस्पति और त्रसों का शरीर अनियत संस्थान होेने से एक प्रकार का नहीं किन्तु अनेक प्रकार की भिन्न-भिन्न आकृतियों वाला ही हुआ करता है। ध्यान रहे, पृथ्वीकायिकादि के जो दृष्टिगोचर शरीर हैं वे अनेकों जीवों के शरीर के समूहरूप हैं, अतएव उनका नियत संस्थान घनांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण होने से दिखाई नहीं पड़ता। कायमार्गणा से रहित सिद्धों का स्वरूप बताते हैं-

जह कंचणमग्गिगयं, मुंचइ किट्टेण कालियाए य।

तह कायबंधमुक्का, अकाइया झाणजोगेण।।७१।।

यथा कंचनमग्निगतं मुच्यते किट्टेन कालिकया च।

तथा कायबन्धमुक्ता अकायिका ध्यानयोगेन।।७१।।

अर्थ—जिस प्रकार मलिन भी सुवर्ण अग्नि के द्वारा सुसंस्कृत होकर बाह्य और अभ्यन्तर दोनों ही प्रकार के मल से रहित हो जाता है उस ही प्रकार ध्यान के द्वारा यह जीव भी शरीर और कर्मबंध दोनों से रहित होकर सिद्ध हो जाता है।

भावार्थ-जिस प्रकार सोलह ताव के द्वारा तपाये हुए सुवर्ण में बाह्य किट्टिका और अभ्यंतर कालिका इन दोनों ही प्रकार के मल का बिल्कुल अभाव हो जाने पर फिर किसी दूसरे मल का संबंध नहीं होता उस ही प्रकार महाव्रत और धर्मध्यानादि से सुसंस्कृत एवं सुतप्त आत्मा में से एक बार शुक्लध्यान रूपी अग्नि के द्वारा बाह्य मल काय और अन्तरंग मल कर्म के संबंध के सर्वथा छूट जाने पर फिर उनका बंध नहीं होता और वे सदा के लिए काय और कर्म से रहित होकर सिद्ध हो जाते हैं। इस तरह से इस गाथा में आचार्य ने कायमार्गणा के वर्णन का वास्तविक प्रयोजन बता दिया है।

काय मार्गणासार

जाति नामकर्म के अविनाभावी त्रस और स्थावर नामकर्म के उदय से आत्मा की जो पर्याय होती है उसे काय कहते हैं। उसके छह भेद हैं—पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रसकाय।

पृथ्वी आदि नामकर्म के उदय से जीव का पृथ्वी आदि शरीर में जन्म होता है। पाँच स्थावर काय के बादर और सूक्ष्म की अपेक्षा दो-दो भेद हो जाते हैंं। विशेष यह है कि वनस्पतिकाय के साधारण और प्रत्येक ये दो भेद होते हैं उसमें साधारण के बादर, सूक्ष्म दो भेद होते हैं, प्रत्येक वनस्पति के नहीं होते।

बादर नामकर्म के उदय से होने वाला शरीर बादर है। यह शरीर दूसरे का घात करता है और दूसरे से बाधित होता है। सूक्ष्म नामकर्म के उदय से होेने वाला शरीर सूक्ष्म है। यह न स्वयं दूसरे से बाधित होता है और न दूसरे का घात करता है। इन दोनों के शरीर की अवगाहना घनांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। इनमें बादर जीव आधार से रहते हैं और सूक्ष्म जीव सर्वत्र तिल में तेल की तरह व्याप्त हैं अर्थात् सारे तीन लोक में भरे हुए हैं, ये अनंतानंत प्रमाण हैं।

वनस्पतिकाय के विशेष भेद—वनस्पतिकाय के दो भेद हैं—प्रत्येक और साधारण। प्रत्येक के भी दो भेद हैं—सप्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित। जिनकी शिरा, संधि और पर्व अप्रगट होें, तोड़ने पर समान भंग हों, तन्तु न लगा रहे, छेदन करने पर भी पुन: वृद्धि हो जावे वे सप्रतिष्ठित वनस्पति हैं। सप्रतिष्ठित वनस्पति के आश्रित अनंत निगोदिया जीव रहते हैं। जिनमें से निगोदिया जीव निकल गये हैं वे वनस्पति अप्रतिष्ठित कहलाती हैं। आलू, अदरक, तुच्छ फल, कोंपल आदि सप्रतिष्ठित हैं। आम, नारियल, ककड़ी आदि अप्रतिष्ठित हैं अर्थात् प्रत्येक वनस्पति का स्वामी एक जीव रहता है किन्तु उसके आश्रित जीवों से सप्रतिष्ठित जीवों का आश्रय न रहने से अप्रतिष्ठित कहलाती है।

साधारण वनस्पति—साधारण नामकर्म के उदय से जिस शरीर के स्वामी अनेक जीव होते हैं उसे साधारण वनस्पति कहते हैं। इन साधारण जीवों का साधारण ही आहार, साधारण ही श्वासोच्छ्वास होता है, इस साधारण शरीर में अनंतानंत जीव रहते हैं। इनमें जहाँ एक जीव मरता है वहाँ अनंतानंत जीवों का मरण हो जाता है और जहाँ एक जीव का जन्म होता है वहाँ अनंतानंत जीवों का जन्म होता है। एक निगोद शरीर में जीव द्रव्य की अपेक्षा सिद्धराशि से अनन्तगुणी हैं और निगोद शरीर की अवगाहना घनांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण (सुई की नोंक के असंख्यातवें भाग) है। निगोद के भेद—निगोद के नित्य निगोद और इतर निगोद से दो भेद हैं। जिसने अभी तक त्रस पर्याय नहीं पाई है अथवा भविष्य में भी नहीं पाएंगे वे नित्य निगोद हैं। किन्हीं के मत से अभी तक त्रस पर्याय नहीं पाई है किन्तु आगे पा सकते हैं अत: छह महीने आठ समय में उसमें से ही छह सौ आठ जीव निकलते हैं और यहाँ से इतने ही समय में इतने ही जीव मोक्ष चले जाते हैं। जो निगोद से निकलकर चतुर्गति में घूम पुन: निगोद में गये हैं वे इतर या चतुर्गति निगोद हैं।

त्रस जीव—द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव त्रस हैं। उपपाद जन्म वाले और मारणांतिक समुद्घात वाले त्रस को छोड़कर बाकी के त्रस जीव त्रस नाली के बाहर नहीं रहते हैं।

किन-किन शरीर में निगोदिया जीव रहते हैं—पृथ्वी, जल, अग्नि, वायुकायिक, केवली, आहारक, देव और नारकियों के शरीर में बादर निगोदिया जीव नहीं रहते हैं। शेष वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्यों के शरीर में निगोदिया जीव भरे रहते हैं। षट्कायिक जीवों का आकार—पृथ्वीकायिक का शरीर मसूर के समान, जलकायिक का जल बिन्दु सदृश, अग्निकायिक जीव का सुइयों के समूह सदृश, वायुकायिक का ध्वजा सदृश होता है। वनस्पति और त्रसों का शरीर अनेक प्रकार का होता है।

जिस प्रकार कोई भारवाही पुरुष कावड़ी के द्वारा भार ढोता है उसी प्रकार यह जीव कायरूपी कावड़ी के द्वारा कर्मभार को ढो रहा है। यथा मलिन स्वर्ण अग्नि द्वारा सुसंस्कृत होकर बाह्य और अभ्यन्तर दोनों प्रकार के मल से रहित हो जाता है तथैव ध्यान के द्वारा यह जीव भी शरीर और कर्मबंध दोनों मल से रहित होकर सिद्ध हो जाता है।

यद्यपि यह काय मल का बीज और मल की योनि स्वरूप अत्यंत निंद्य है, कृतघ्न सदृश है फिर भी इसी काय से रत्नत्रय रूपी निधि प्राप्त की जा सकती है अत: इस काय को संयम रूपी भूमि में बो करके मोक्ष फल को प्राप्त कर लेना चाहिए। स्वर्गादि अभ्युदय तो भूसे के सदृश स्वयं ही मिल जाते हैं। इसलिये संयम के बिना एक क्षण भी नहीं रहना चाहिए।

योगमार्गणा

(नवम अधिकार)

योग का स्वरूप

पुग्गलविवाइदेहोदयेण, मणवयणकायजुत्तस्स।

जीवस्स जा हु सत्ती, कम्मागमकारणं जोगो।।७२।।

पुद्गलविपाकिदेहोदयेन मनोवचनकाययुक्तस्य।

जीवस्य या हि शक्ति: कर्मागमकारणं योग:।।७२।।

अर्थ—पुद्गलविपाकी शरीर नामकर्म के उदय से मन, वचन, काय से युक्त जीव की जो कर्मों के ग्रहण करने में कारणभूत शक्ति है उसको योग कहते हैं।

भावार्थ—आत्मा की अनंत शक्तियों में से एक योग शक्ति भी है। उसके दो भेद हैं—एक भावयोग दूसरा द्रव्ययोग। पुद्गलविपाकी आंगोपांग नामकर्म और शरीर नामकर्म के उदय से, मन वचन काय पर्याप्ति जिसकी पूर्ण हो चुकी हैं और जो मनोवाक्कायवर्गणा का अवलम्बन रखता है ऐसे संसारी जीव की जो समस्त प्रदेशों में रहने वाली कर्मों के ग्रहण करने में कारणभूत शक्ति है उसको भावयोग कहते हैं और इस ही प्रकार के जीव के प्रदेशों का जो परिस्पंदन होता है उसको द्रव्ययोग कहते हैं। यहाँ पर कर्मशब्द उपलक्षण है इसलिए कर्म और नोकर्म दोनों को ग्रहण करने वाला योग होता है ऐसा समझना चाहिए। जिस प्रकार लोहे में रहने वाली दहन शक्ति अग्नि के संबंध से काम किया करती है उसी प्रकार जीव के समस्त लोक प्रमाण प्रदेशों में कर्म नोकर्म को ग्रहण करने की सामर्थ्य पायी जाती है फिर भी पुद्गलविपाकी शरीर और आंगोपांग नामकर्म के उदय से प्राप्त मनोवर्गणा भाषा वर्गणा के पुद्गल स्कंधों के संयोग से ही वह कर्म नोकर्म को ग्रहण करने का कार्य किया करता है।

योग विशेष का लक्षण कहते हैं-

मणवयणाणपउत्ती, सच्चासच्चुभयअणुभयत्थेसु।

तण्णाम होदि तदा, तेहि दु जोगा हु तज्जोगा।।७३।।

मनोवचनयो: प्रवृत्तय: सत्यासत्योभयानुभयार्थेषु।

तन्नाम भवति तदा तैस्तु योगात् हि तद्योगा:।।७३।।

अर्थ—सत्य, असत्य, उभय, अनुभय इन चार प्रकार के पदार्थों से जिस पदार्थ को जानने या कहने के लिए जीव के मन, वचन की प्रवृत्ति होती है उस समय में मन और वचन का वही नाम होता है और उसके संबंध से उस प्रवृत्ति का भी वही नाम होता है।

भावार्थ-सत्य पदार्थ को जानने के लिए किसी मनुष्य के मन की या कहने के लिए वचन की प्रवृत्ति हुई तो उसके मन को सत्य मन और वचन को सत्य वचन कहेंगे तथा उनके द्वारा होने वाले योग को सत्य मनोयोग और सत्य वचनयोग कहेंगे। इस ही प्रकार से मन और वचन के असत्य, उभय, अनुभय इन तीनों भेदों को भी समझना चाहिए।

सम्यग्ज्ञान के विषयभूत पदार्थ को सत्य कहते हैं, जैसे यह जल है। मिथ्याज्ञान के विषयभूत पदार्थ को मिथ्या कहते हैं, जैसे मरीचिका को यह जल है। दोनों के विषयभूत पदार्थ को उभय कहते हैं, जैसे कमण्डलु को यह घट है, क्योंकि कमण्डलु घट का काम देता है इसलिए कथंचित् सत्य है और घटाकार नहीं है इसलिए कथंचित् असत्य भी है। जो दोनों ही प्रकार के ज्ञान का विषय न हो उसको अनुभय कहते हैं, जैसे सामान्यरूप से यह प्रतिभास होना कि ‘‘यह कुछ है’’। यहाँ पर सत्य-असत्य का कुछ भी निर्णय नहीं हो सकता, इसलिए अनुभय है क्योंकि स्वार्थ क्रियाकारी विशेष निर्णय न होने से सत्य नहीं कहा जा सकता और सामान्य प्रतिभास होता है अतएव उसको असत्य भी नहीं कह सकते।

दश प्रकार का सत्य

जणवदसम्मदिठवणा, णामे रूबे पडुच्चववहारे।

सम्भावणे य भावे, उवमाए दसविहं सच्चं।।७४।।

जनपदसम्मतिस्थापनानाम्नि रूपे प्रतीत्यव्यहारयो:।

संभावनायां च भावे उपमायां दशविधं सत्यम्।।७४।।

अर्थ—जनपदसत्य, सम्मतिसत्य, स्थापनासत्य, नामसत्य, रूपसत्य, प्रतीत्यसत्य, व्यवहारसत्य, संभावनासत्य, भावसत्य, उपमासत्य इस प्रकार सत्य के दश भेद हैं।

दश प्रकार के सत्य के दृष्टान्त

भत्तं देवी चंदप्पह, पडिमा तह य होदि जिणदत्तो।

सेदो दिग्घो रज्झदि, कूरोत्ति य जं हवे वयणं।।७५।।

भक्तं देवी चन्द्रप्रभप्रतिमा तथा च भवति जिनदत्त:।

श्वेतो दीर्घो रध्यते कूरमिति च तद्भवेद्वचनम् ।।७५।।

सक्को जम्बूदीवं, पल्लट्टदि पाववज्जवयणं च।

पल्लोवमं च कमसो, जणवदसच्चादिदिट्ठंता।।७६।।

शक्रो जम्बूद्वीपं परिवर्तयति पापवर्जवचनं च।

पल्योपमं च क्रमशो जनपदसत्यादिदृष्टांता:।।७६।।

अर्थ—उक्त दश प्रकार के सत्य वचन के ये दश दृष्टांत हैं। भक्त, देवी, चन्द्रप्रभप्रतिमा, जिनदत्त, श्वेत, दीर्घ, भात पकाया जाता है, शक्र जम्बूद्वीप को पलट सकता है, पाप रहित ‘यह प्रासुक है’’ ऐसा वचन और पल्योपम।

भावार्थ—तत्तद्देशवासी मनुष्यों के व्यवहार में जो शब्द रूढ़ हो रहा है उसको जनपद सत्य कहते हैं। जैसे—भक्त, भातु, भाटु, भेटु, वंटक, मूकुडू, कूलू, चोरू आदि भिन्न-भिन्न शब्दों से एक ही चीज को कहा जाता है। बहुत मनुष्यों की सम्मत्ति से जो सर्वसाधारण में रूढ़ हो उसको सम्मति सत्य या संवृतिसत्य कहते हैं। जैसे—पट्टरानी के सिवाय किसी साधारण स्त्री को भी देवी कहना। किसी वस्तु में उससे भिन्न वस्तु के समारोप करने वाले वचन को स्थापना सत्य कहते हैं। जैसे—चन्द्रप्रभ भगवान की प्रतिमा को चंद्रप्रभ कहना। दूसरी कोई अपेक्षा न रखकर केवल व्यवहार के लिए जो किसी का संज्ञा कर्म करना इसको नाम सत्य कहते हैं। जैसे—जिनदत्त! यद्यपि उसको जिनेन्द्र ने दिया नहीं है तथापि व्यवहार के लिए उसको जिनदत्त कहते हैं। पुद्गल के रूपादिक अनेक गुणों में से रूप की प्रधानता से जो वचन कहा जाय उसको रूप सत्य कहते हैं। जैसे—किसी मनुष्य को काला कहना। यद्यपि उसके शरीर में अन्य वर्ण भी पाये जाते हैं अथवा उसके शरीर में रसादिक के रहने पर भी रूपगुण की अपेक्षा उसको श्वेत कहना। किसी विवक्षित पदार्थ की अपेक्षा से दूसरे पदार्थ के स्वरूप का कथन करना, इसको प्रतीत्य सत्य अथवा आपेक्षित सत्य कहते हैं। जैसे—किसी छोटे या पतले पदार्थ की अपेक्षा से दूसरे पदार्थ को बड़ा लम्बा या स्थूल कहना। नैगमादि नयों की प्रधानता से जो वचन बोला जाय उसको व्यवहार सत्य कहते हैं। जैसे—नैगम नय की प्रधानता से ‘‘भात पकाता हूँ’’ संग्रह नय की अपेक्षा ‘‘सम्पूर्ण सत् है’’ अथवा ‘‘सम्पूर्ण असत् है’’ आदि। असंभवता का परिहार करते हुए वस्तु के किसी धर्म का निरूपण करने में प्रवृत्त वचन को सम्भावना सत्य कहते हैं। जैसे—शक्र (इंद्र) जम्बूद्वीप को लौट दे अथवा उलट सकता है। आगमोक्त विधि निषेध के अनुसार अतीन्द्रिय पदार्थों में संकल्पित परिणामों को भाव कहते हैं, उसके आश्रित जो वचन हो उसको भावसत्य कहते हैं। जैसे—शुष्क, पक्व, तप्त और नमक मिर्च खटाई आदि से अच्छी तरह मिलाया हुआ द्रव्य प्रासुक होता है। यहाँ पर यद्यपि सूक्ष्म जीवों को इंद्रियों से देख नहीं सकते तथापि आगम प्रामाण्य से उनकी प्रासुकता का वर्णन किया जाता है। इसलिये इस ही पापवर्ज वचन को भावसत्य कहते हैं। दूसरे प्रसिद्ध सदृश पदार्थ को उपमा कहते हैं। इसके आश्रय से जो वचन बोला जाय उसको उपमा सत्य कहते हैं, जैसे—पल्य। यहाँ पर रोमखण्डों का आधारभूत गड्ढ़ा, पल्य अर्थात् खास के सदृश होता है इसलिए उसको पल्य कहते हैं। इस संख्या को उपमा सत्य कहते हैं। इस प्रकार ये दश प्रकार के सत्य के दृष्टांत हैं, इसलिए और भी इस ही तरह जानना।

केवली भगवान के द्रव्य मन हैं

अंगोवंगुदयादो दव्वमणट्ठं जिणिंदचंदम्हि।

मणवग्गणखंधाणं आगमणादो दु मण जोगो।।७७।।

आंगोपांगोदयात् द्रव्यमनोर्थ जिनेन्द्रचन्द्रे।

मनोवर्गणास्कन्धानामागमनात् तु मनोयोग:।।७७।।

अर्थ—आंगोपांग नामकर्म के उदय से हृदय स्थान में जीवों के द्रव्यमन की विकसित—खिले हुए अष्ट दल पद्म के आकार में रचना हुआ करती है। यह रचना जिन मनोवर्गणाओं के द्वारा हुआ करती है उनका अर्थात् इस द्रव्यमन की कारणभूत मनोवर्गणाओं का श्री जिनेन्द्र चंद्र भगवान सयोगकेवली के भी आगमन हुआ करता है इसलिए उनके उपचार से मनोयोग कहा है।

भावार्थ—यद्यपि सयोगकेवली भगवान के क्षायिक भाव ही पाए जाते हैं अतएव उनके भावमन जो कि क्षायोपशमिक भाव है, नहीं पाया जाता। फिर भी उपचार से उनके मन कहा है क्योंकि उनके आत्मप्रदेशों में कार्मण वर्गणा और नोकर्मवर्गणाओं को आकर्षित करने की शक्तिरूप भावमन पाया जाता है। साथ ही मनोवर्गणाओं के आगमनपूर्वक जो द्रव्य मन का परिणमन होता है सो वह भी उनके पाया जाता है। यही उनके मन को कहने के लिए उपचार में निमित्त है तथा गाथा में प्रयुक्त ‘तु’ शब्द के द्वारा सर्वजीवदया, तत्वार्थदेशना और शुक्लध्यानादि की प्रवृत्ति के प्रयोजन को भी सूचित कर दिया गया है। काययोग की आदि में निरुक्तिपूर्वक औदारिक काययोग का वर्णन करते हैं-

पुरुमहदुदारुरालं, एयट्ठो संविजाण तम्हि भवं।

ओरालियं तमुच्चइ, ओरालियकायजोगो सो।।७८।।

पुरुमहदुदारमुरालमेकार्थ: संविजानीहि तस्मिन् भवं।

औरालिकं तदुच्यते औरालिककाययोग: स:।।७८।।

अर्थ—पुरु, महत्, उदार, उराल ये सब शब्द एक ही स्थूल अर्थ के वाचक हैं। उदार में जो हो उसको कहते हैं औदारिक तथा उदार में होने वाला जो काययोग उसको कहते हैं औदारिक काययोग। यह निरुक्त्यर्थ है, ऐसा समझना चाहिए।

विशेषार्थ-काययोग के ७ भेद हैं-औदारिक काययोग, औदारिक मिश्रकाययोग, वैक्रियक काययोग, वैक्रियक मिश्रकाययोग, आहारक काययोग, आहारक मिश्रकाययोग और कार्मण काययोग। इनका लक्षण ‘योगमार्गणासार’ में देखना चाहिए।

आहारक काययोग का स्वरूप

आहारस्सुदयेण य, पमत्तविरदस्स होदि आहारं।

असंजमपरिहरणट्ठं, संदेहविणासणट्ठं च।।७९।।

आहारस्योदयेन च प्रमत्तविरतस्य भवति आहारकम्।

असंयमपरिहरणार्थं संदेहविनाशनार्थं च।।७९।।

अर्थ—असंयम का परिहार करने के लिए तथा संदेह को दूर करने के लिए आहारक ऋद्धि के धारक छट्ठे गुणस्थानवर्ती मुनि के आहारक शरीर नामकर्म के उदय से आहारक शरीर होता है।

भावार्थ—यह शरीर औदारिक अथवा वैक्रियिक शरीर की तरह जीवन भर नहीं रहा करता किन्तु जिनको आहारक ऋद्धि प्राप्त है ऐसे प्रमत्त मुनि अपने प्रयोजनवश उसको उत्पन्न किया करते हैं। इसके लिए मुनियों के मुख्यता दो प्रयोजन बताये गये हैं—असंयम का परिहार और संदेह का निवारण। ढाई द्वीप में पाए जाने वाले तीर्थों आदि की वंदना के लिये जाने में जो असंयम हो सकता है वह न हो इसलिये अर्थात् बिना असंयम के अंश के भी तीर्थक्षेत्रों आदि के वंदना कर्म की सिद्धि। इसी तरह कदाचित् श्रुत के किसी अर्थ के विषय में ऐसा कोई संदेह हो जो कि ध्यानादि के लिए बाधक हो और उसकी निवृत्ति केवली, श्रुतकेवली के बिना हो नहीं सकती हो तो उस संदेह को दूर करने के लिए भी आहारक शरीर का निर्माण हुआ करता है किन्तु यह शरीर आहारक शरीर नामकर्म के उदय के बिना नहीं हुआ करता तथा मुनियों के ही होता है और उनके भी अप्रमत्त अवस्था में न होकर प्रमत्त अवस्था में ही उत्पन्न हुआ करता है।

आहारक पुतला कब निकलता है ?

णियखेत्ते केवलिदुगंविरहे णिक्कमणपहुदिकल्लाणे।

परखेत्ते संवित्ते, जिणजिणघरवंदणट्ठं च।।८०।।

निजक्षेत्रे केवलिद्विकविरहे नि:क्रमणप्रभृतिकल्याणे।

परक्षेत्रे संवृत्ते जिनजिनगृहवंदनार्थं च।।८०।।

अर्थ—अपने क्षेत्र में केवली तथा श्रुतकेवली का अभाव होने पर किन्तु दूसरे क्षेत्र में जहाँ पर कि औदारिक शरीर में उस समय पहुँचा नहीं जा सकता केवली या श्रुतकेवली के विद्यमान रहने पर अथवा तीर्थंकरों के दीक्षाकल्याणक आदि तीन कल्याणकों में से किसी के होने पर तथा जिन, जिनगृह, चैत्य, चैत्यालयों की वंदना के लिये भी आहारक ऋद्धि वाले छट्ठे गुणस्थानवर्ती प्रमत्त मुनि के आहारक शरीर नामकर्म के उदय से यह शरीर उत्पन्न हुआ करता है। योगरहित जीव कौन हैं और उनका स्वरूप क्या है इस बात का वर्णन करते हैं-

जेसिं ण संति जोगा, सुहासुहा पुण्णपावसंजणया।

ते होंति अजोगिजिणा, अणोवमाणंतबलकलिया।।८१।।

येषां न सन्ति योगा: शुभाशुभा: पुण्यपापसंजनका:।

ते भवन्ति अयोगिजिना अनुपमानन्तबलकलिता:।।८१।।

अर्थ—जिनके पुण्य और पाप के कारणभूत शुभाशुभ योग नहीं है उनको अयोगिजिन कहते हैं। वे अनुपम और अनन्त बल से युक्त होते हैं।

भावार्थ-अंतिम गुणस्थानवर्ती तथा उससे अतीत आत्मा योग से रहित हैं। अस्मदादिक में बल योग के आश्रय से ही देखने या अनुभव में आता है। अतएव किसी को यह शंका न हो कि जो योग से रहित हैं वे बल से भी रहित होंगे। यहाँ कहा गया है कि वे इस तरह के बल से युक्त है कि जो अनुपम है और अनन्त है।

शरीर में कर्म और नोकर्म का विभाग करते हैं-

ओरालियवेगुव्विय, आहारयतेजणामकम्मुदये।

चउणोकम्मसरीरा, कम्मेव य होदि कम्मइयं।।८२।।

औरालिकवैगूर्विकाहारकतेजोनामकर्मोदये।

चतुर्नोकर्मशरीराणि कर्मैव च भवति कार्मणम्।।८२।।

अर्थ—औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस, नामकर्म के उदय से होने वाले चार शरीरों को नोकर्म कहते हैं और कार्मण शरीर नामकर्म के उदय से होने वाले ज्ञानावरणादिक आठ कर्मों के समूह को कार्मण शरीर कहते हैं।

भावार्थ—काय-शरीर के निमित्त से होने वाले आत्म प्रदेशों के परिस्पन्दन को काययोग कहा है। शरीर पाँच हैं। वे दो भागों में विभक्त हैं-कर्म और नोकर्म। तैजसशरीर योग में निमित्त नहीं माना है। नोकर्म में नो शब्द का अर्थ ईषत् और विरुद्ध होता है। औदारिकादिक कर्मों के सहायक होने से ईषत् कर्म या नोकर्म है अथवा गुणों का साक्षात् घात करने और आत्मा को पराधीन बनाने में कर्म के समान काम नहीं करते, इसलिए भी नोकर्म हैं।

योग मार्गणासार

प्रश्न—योग किसे कहते हैं ?

उत्तर—पुद्गलविपाकी शरीर नामकर्म के उदय से मन, वचन, काय से युक्त जीव की जो कर्मों के ग्रहण करने की कारणभूत शक्ति है उसको योग कहते हैं अर्थात् आत्मा की अनंत शक्तियों में से एक योग शक्ति भी है, उसके दो भेद हैं—भावयोग और द्रव्ययोग।

कर्मों को ग्रहण करने में कारणभूत जीव की शक्ति भावयोग और जीव के प्रदेशों का परिस्पंदन द्रव्ययोग है।

प्रश्न—योग के कितने भेद हैं ?

उत्तर—सत्य, असत्य, उभय और अनुभय के निमित्त से चार मन के और चार वचन के ऐसे आठ योग हुए और औदारिक, औदारिक मिश्र, वैक्रियक, वैक्रियक मिश्र, आहारक, आहारक मिश्र और कार्मण ऐसे सात काय के ऐसे मन, वचन, काय संबंधी पंद्रह योग होते हैं। सत्य के दश भेद हैं—

जनपद—जो व्यवहार में रूढ़ हों जैसे—भक्त, भात, चोरु आदि, सम्मति सत्य जैसे—साधारण स्त्री को देवी कहना, स्थापना—प्रतिमा को चंद्रप्रभ कहना, नाम—जिनदत्त कहना, रूपसत्य—बगुले को सफेद कहना, प्रतीत्यसत्य—बेल को बड़ा कहना, व्यवहार—सामग्री संचय करते समय भात पकाता हूँ, ऐसा कहना, सम्भावना—इंद्र जम्बूद्वीप को पलट सकता है ऐसा कहना। भावसत्य—शुष्क पक्व आदि को प्रासुक कहना, उपमा सत्य—पल्योपम आदि से प्रमाण बताना। ये दस प्रकार के सत्य वचन हैं। इनसे विपरीत असत्य वचन हैं। जिनमें दोनों मिश्र हों वे उभय वचन हैं एवं जो न सत्य हों न मृषा हों वे अनुभव वचन हैं। अनुभय वचन के नव भेद हैं—

आमंत्रणी—यहाँ आओ, आज्ञापनी—यह काम करो, याचनी—यह मुझको दो, आपृच्छनी—यह क्या है? प्रज्ञापनी—मैं क्या करूँ? प्रत्याख्यानी—मैं यह छोड़ता हूँ, संशयवचनी—यह बलाका है या पताका, इच्छानुलोम्नी—मुझको ऐसा होना चाहिए और अनक्षरगता—जिसमें अक्षर स्पष्ट न हों, क्योंकि इनके सुनने से व्यक्त और अव्यक्त दोनों अंशों का ज्ञान होता है। द्वीन्द्रिय से असैनी पंचेन्द्रिय तक अनक्षर भाषा है और सैनी पंचेन्द्रिय की आमंत्रणी आदि भाषाएँ होती हैं।

केवली भगवान के सत्य मनोयोग, अनुभय मनोयोग, सत्यवचनयोग, अनुभयवचनयोग, औदारिक, औदारिकमिश्र और कार्मण ये सात योग होते हैं। शेष संसारी जीवों में यथासम्भव योग होते हैं। चौदहवें गुणस्थान में योगरहित अयोगी होते हैं।

औदारिक, औदारिक मिश्रयोग तिर्यंच व मनुष्यों के होते हैं। वैक्रियक मिश्र देव तथा नारकियों के होते हैं। आहारक, आहारक मिश्र छट्ठे गुणस्थानवर्ती मुनि के ही कदाचित् किन्हीं के हो सकता है। प्रमत्तविरत मुनि को किसी सूक्ष्म विषय में शंका होने पर या अकृत्रिम जिनालय की वंदना के लिए असंयम के परिहार करने हेतु आहारक पुतला निकलता है और यहाँ पर केवली के अभाव में अन्य क्षेत्र मेें केवली या श्रुतकेवली के निकट जाकर आता है और मुनि को समाधान हो जाता है।

आहारक ऋद्धि और विक्रियाऋद्धि का कार्य एक साथ नहीं हो सकता है, बादर अग्निकायिक, वायुकायिक और पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के भी विक्रिया हो सकती है। देव, भोगभूमिज, चक्रवर्ती पृथक विक्रिया से शरीर आदि बना लेते हैं किन्तु नारकियों में अपृथक विक्रिया ही है। वे अपने शरीर को ही आयुध, पशु आदि रूप बनाया करते हैं। देव मूल शरीर को वहीं स्थान पर छोड़कर विक्रिया शरीर से ही जन्मकल्याणक आदि में आते हैं, मूल शरीर से कभी नहीं आते हैं। कार्मणयोग विग्रहगति में एक, दो या तीन समय तक होता है और समुद्घात केवली के होता है।

जो योग रहित, अयोगीजिन अनुपम और अनंत बल से युक्त हैं वे अ इ उ ऋ ऌ इन पंच ह्रस्व अक्षर के उच्चारण मात्र काल में सिद्ध होने वाले हैं, उन्हेें मेरा नमस्कार होवे।

वेदमार्गणा

(दशम अधिकार)

वेद का स्वरूप

पुरिसिच्छिसंढवेदोदयेण पुरिसिच्छिसंढओ भावे।

णामोदयेण दव्वे, पाएण समा कहिं विसमा।।८३।।

पुरुषस्त्रीषण्ढवेदोदयेन पुरुषस्त्रीषण्ढा: भावे।

नामोदयेन द्रव्ये प्रायेण समा: क्वचिद् विषमा:।।८३।।

अर्थ—पुरुष, स्त्री और नपुंसक वेदकर्म के उदय से भावपुरुष, भावस्त्री, भावनपुंसक होता है और नामकर्म के उदय से द्रव्यपुरुष, द्रव्यस्त्री, द्रव्यनपुंसक होता है। सो यह भाव वेद और द्रव्य वेद प्राय: करके समान होता है परन्तु कहीं-कहीं विषम भी होता है।

भावार्थ—वेद नामक नो कषाय के उदय से जीवों के भाववेद होता है और निर्माण नामकर्म सहित आंगोपांग नामकर्म के उदय से द्रव्य वेद होता है। ये दोनों ही वेद प्राय: करके तो समान ही होते हैं अर्थात् जो भाव वेद वही द्रव्य वेद और जो द्रव्य वेद वही भाव वेद। परन्तु कहीं-कहीं विषमता भी हो जाती है अर्थात् भाववेद दूसरा द्रव्यवेद दूसरा। यह विषमता देवगति और नरकगति में तो सर्वथा नहीं पाई जाती। मनुष्य और तिर्यग्गति में जो भोगभूमिज हैं उनमें भी नहीं पाई जाती, बाकी के तिर्यग् मनुष्यों में क्वचित् वैषम्य भी पाया जाता है।

पुरुषवेद का स्वरूप

पुरुगुणभोगे सेदे, करेदि लोयम्मि पुरुगुणं कम्मं।

पुरुउत्तमो य जम्हा, तम्हा सो वण्णिओ पुरिसो।।८४।।

पुरुगुणभोगे शेते करोति लोके पुरुगुणं कर्म।

पुरुरुत्तमश्च यस्मात् तस्मात् स वर्णित: पुरुष:।।८४।।

अर्थ—उत्कृष्ट गुण अथवा उत्कृष्ट भोगों का जो स्वामी हो अथवा जो लोक में उत्कृष्ट गुणयुक्त कर्म को करे, यद्वा जो स्वयं उत्तम हो उसको पुरुष कहते हैं।

भावार्थ—उत्कृष्ट सम्यग्ज्ञानादि गुणों का वह स्वामी होता है, इंद्र चक्रवर्ती आदि पदों को भोगता है, चारों पुरुषार्थों का पालन करता है, परमेष्ठी पद में स्थित रहता है इसलिये इसको पुरुष कहते हैं।

स्त्रीवेद का स्वरूप

छादयदि सयं दोसे, णयदो छाददि परं वि दोसेण।

छादणसीला जम्हा, तम्हा सा वण्णिया इत्थी।।८५।।

छादयति स्वकं दौषै: नयत: छायदति परमपि दोषेण।

छादनशीला यस्मात् तस्मात् सा वणणता स्त्री।।८५।।

अर्थ—जो मिथ्यादर्शन, अज्ञान, असंयम आदि दोषों से अपने को आच्छादित करे और मृदुभाषण, तिरछी चितवन आदि व्यापार से जो दूसरे पुरुषों को भी हिंसा, अब्रह्म आदि दोषों से आच्छादित करे उसको आच्छादन—स्वभावयुक्त होने से स्त्री कहते हैं।

भावार्थ—यद्यपि तीर्थंकरों की माता या सम्यक्त्वादि गुणों से भूषित दूसरी भी बहुत सी स्त्रियाँ अपने को तथा दूसरों को दोषों से आच्छादित नहीं भी करती हैं—उनमें यह लक्षण नहीं भी घटित होता है तब भी बहुलता की अपेक्षा यह निरुक्ति सिद्ध लक्षण किया है। निरुक्ति के द्वारा मुख्यतया प्रकृति प्रत्यय से निष्पन्न अर्थ का बोध मात्र कराया जाता है।

नपुंसकवेद का स्वरूप'

णेवित्थी णेव पुमं, णउंसओ उहयलिंगवदिरित्तो।

इट्ठावग्गिसमाणगवेदणगरुओ कलुसचित्तो।।८६।।

नैव स्त्री नैव पुमान् नपुंसक उभयलिंगव्यतिरिक्त:।

इष्टापाकाग्निसमानकवेदनागुरुक: कलुषचित्त:।।८६।।

अर्थ—जो न स्त्री हो और न पुरुष हो, ऐसे दोनों ही लिंगों से रहित जीव को नपुंसक कहते हैं। इसके अवा (भट्टा) में पकती हुई र्इंट की अग्नि के समान तीव्र कषाय होती है। अतएव इसका चित्त प्रति समय कलुषित रहता है।

वेदरहित जीवों को बताते हैं-

तिणकारिसिट्ठपागग्गिसरिसपरिणामवेदणुम्मुक्का।

अवगयवेदा जीवा, सगसंभवणंतवरसोक्खा।।८७।।

तृणकारीषेष्टपाकाग्निसदृशपरिणामवेदनोन्मुक्ता:।

अपगतवेदा जीवा: स्वकसम्भवानन्तरवरसौख्या:।।८७।।

अर्थ—तृण की अग्नि, कारीष अग्नि, इष्टपाक अग्नि (अवा की अग्नि) के समान वेद के परिणामों से रहित जीवों को अपगतवेद कहते हैं। ये जीव अपनी आत्मा से ही उत्पन्न होने वाले अनन्त और सर्वोत्कृष्ट सुख को भोगते हैं।

भावार्थ-तृण की अग्नि के समान पुरुषवेद की कषाय और कारीष-कंडे की अग्नि के समान स्त्रीवेद की कषाय तथा अवा-भट्टे की अग्नि के समान नपुंसक वेद की कषाय से जो रहित हैं, वे दु:खी नहीं हैं किन्तु आत्मोत्थ सर्वोत्कृष्ट अनन्त सुख के भोक्ता हुआ करते हैं।

वेद मार्गणासार

प्रश्न—वेद किसे कहते हैं ?

उत्तर—पुरुषादि के उस रूप परिणाम को या शरीर चिन्ह को वेद कहते हैं। वेदों के दो भेद हैं—भाववेद, द्रव्यवेद। मोहनीय कर्म के अंतर्गत वेद नामक नोकषाय के उदय से जीवों के भाववेद होता है और निर्माण नामकर्म सहित आंगोपांग नामकर्म के उदय से द्रव्यवेद होता है अर्थात् तद्रूप परिणाम को भाववेद और शरीर की रचना को द्रव्यवेद कहते हैं। ये दोनों वेद कहीं समान होते हैं और कहीं विषम भी होते हैं।

वेद के तीन भेद होते हैं—पुरुष, स्त्री और नपुंसक वेद। नरकगति में द्रव्य और भाव दोनोें वेद नपुंसक ही हैं। देवगति में पुरुष, स्त्री रूप दो वेद हैं जिनके जो द्रव्यवेद है वही भाववेद रहता है यही बात भोगभूमिजों में भी है।

कर्मभूमि के तिर्यंच और मनुष्य में विषमता पाई जाती है। किसी का द्रव्यवेद पुरुष है तो भाववेद पुरुष, स्त्री या नपुंसक कोई भी रह सकता है, हाँ! जन्म से लेकर मरण तक एक ही वेद का उदय रहता है, बदलता नहीं है। द्रव्य से पुरुषवेदी आदि भाव से स्त्रीवेदी या नपुंसकवेदी है फिर भी मुनि बनकर छठे-सातवें आदि गुणस्थानों को प्राप्त कर मोक्ष जा सकते हैं। किन्तु यदि द्रव्य से स्त्रीवेद है और भाव से पुरुषवेद है तो भी उसके पंचम गुणस्थान के ऊपर नहीं हो सकता है। अतएव दिगम्बर आम्नाय में स्त्री मुक्ति का निषेध है।

पुरुष वेद—जो उत्कृष्ट गुण या भोगों के स्वामी हैं, लोक में उत्कृष्ट कर्म को करते हैं, स्वयं उत्तम हैं वे पुरुष हैं।

स्त्रीवेद—जो मिथ्यात्व, असंयम आदि से अपने को दोषों से ढके और मृदु भाषण आदि से पर के दोषों को ढके वह स्त्री है।

नपुंसकवेद—जो स्त्री और पुरुष इन दोनों लिंगों से रहित हैं, र्इंट के भट्टे की अग्नि के समान कषाय वाले हैं वे नपुंसक हैं।

स्त्री और पुरुष का यह सामान्य लक्षण है, वास्तव में रावण आदि अनेक पुरुष भी दोषी देखे जाते हैं और भगवान की माता, आर्यिका महासती सीता आदि अनेक स्त्रियाँ महान् श्रेष्ठ देखी जाती हैं। अत: सर्वथा एकान्त नहीं समझना चाहिए।

जो तृण की अग्निवत् पुरुषवेद की कषाय, कंडे की अग्निवत् स्त्रीवेद की कषाय और अवे की अग्नि के समान नपुंसकवेद की कषाय से रहित अपगतवेदी हैं, वे अपनी आत्मा से ही उत्पन्न अनंत सुख को भोगते रहते हैं।