परमार्थविंशति:

शार्दूलविक्रीडित छंद

मोहद्वेषरतिश्रिता विकृतयो दृष्टा: श्रुता: सेविता: बारम्बारमनंतकालविचरत्सर्वाङ्गिभि: ससृतौ।

अद्वैतं पुनरात्मनो भगवतो १दुर्लक्ष्यमेकं परं बीजं मोक्षतरोरिदं विजयते भव्यात्मभिर्वंदितम्।।१।।

अर्थ —संसार में अनंतकाल से भ्रमण करते हुये प्राणियों ने मोह द्वेष राग के आश्रित जो विकार हैं उनको देखा है सुना है तथा उनको अनुभव भी किया है किन्तु भगवान आत्मा के अद्वैत को न देखा है और न सुना है तथा उसका अनुभव भी नहीं किया है इसलिये कठिनरीति से देखने योग्य तथा एक और उत्कृष्ट तथा भव्यजीवों से सदा वंचित ऐसा यह भगवान आत्मा का अद्वैत इस लोक में जयवंत है।

भावार्थ —मोह राग द्वेष आदि कर्मों का विकार समस्त संसारी प्राणियो के साधारण रीति से पाये जाते हैं इसलिये जो जीव अनंत काल से संसार में भ्रमण करने वाले हैं उन्होंने अनेक बार इन मोह विकारों को देखा है तथा सुना है और इनका अनुभव भी किया है किन्तु अभी तक कर्मों से रहित आत्मा का अनुभव आदिक नहीं किया है इसलिये दुर्लक्ष्य कठिन रीति से देखने योग्य तथा एक उत्कृष्ट और मोक्षरूपी वृक्ष का बीज जिसकी भव्य जीव सदा स्तुति करते रहते हैं ऐसा वह आत्मा का अद्वैत (कर्म रहित आत्मा) सदा इस लोक में जयवंत है।।१।।

अंतर्बाह्यविकल्पजालरहिता शुद्धैकचिद्रूपिणीं बन्दे तां परमात्मन: प्रणयिनीं कृत्यान्तगां स्वस्थाताम्।

यत्रानंतचतुष्टयामृतसरित्यात्मानमन्तर्गतं न प्राप्नोति जरादिदुस्सहशिखो जन्मोग्रदावानलं:।।२।।

अर्थ —जो स्वस्थता अंतरंग तथा बहिरंग दोनों प्रकार के विकल्पों कर रहित है तथा शुद्ध एक चैतन्य स्वरूप को धारण करने वाली है और परमात्मा से प्रीति कराने वाली है तथा कृतकृत्य है ऐसी उस स्वस्थता को नमस्कार करता हूं क्योंकि जिस अनंतविज्ञानादि चतुष्टय स्वस्थरूपी अमृतनदी के मध्य में रहे हुये आत्मा को वृद्धावस्था आदि दुस्सह ज्वालाओं को धारण करने वाली जन्मरूपी भयंकर अग्नि प्राप्त ही नहीं हो सकती।

भावार्थ —जिस प्रकार उत्तम जल से भरी हुई नदी के भीतर स्थित पदार्थ का भयंकर ज्वाला को धारण करने वाली भयंकर भी अग्नि कुछ भी नहीं कर सकती उसी प्रकार जिस अनंतचतुष्टयस्वरूपी नदी के मध्य में प्रविष्ट आत्मा का जरा आदि दु:सह ज्वालाओं को धारण करने वाली भी भयंकर जन्मरूपी अग्नि कुछ भी नहीं कर सकती अर्थात् जिस स्वस्थता की (आत्मस्वरूप के अनुभवपने की) प्राप्ति से आत्मा जन्म मरण आदिकर रहित हो जाता है और जो शुद्ध, एक चैतन्यस्वरूप को धारण करने वाली है तथा परमात्मा से स्नेह कराने वाली तथा कृतकृत्य है ऐसी उस स्वस्थता को मैं नमस्कार करता हूं।।२।।

एकत्वस्थितये मतिर्यदनिशं संजायते मे तयाप्यानंद: परमात्मसंन्निधिगत: किञ्चित्समुन्मीलति।

वंâचित्कालमवाप्य सैव सकलै: शीलैर्गुणैराश्रिता तामानंदकलां विशालविलसद्वोधां करिष्यत्यसौ।।३।।

अर्थ —जो निरन्तर मेरी बुद्धि एकत्वस्थित की ओर जाती है उससे भी मुझे परमात्मा संबंधी कुछ-कुछ आनंद उत्पन्न होता है यदि वही बुद्धि कुछ कालतक समस्तशील आदि उत्तमगुणों से सfिहत होकर रहेगी तो अवश्य ही विशाल तथा देदीप्यमान है ज्ञान जिसमें ऐसी उस आनंद की कला को प्राप्त करेगी।

भावार्थ —जब मुझे एकत्व स्थिति की ओर बुद्धि के जाने से ही परमात्मासंबंधी कुछ ज्ञान होता है तब यदि मेरी बुद्धि कुछ काल तक शील आदि गुणों से विशिष्ट रहेगी तो अवश्य ही परमात्मा के आनंद को प्राप्त होगी इसमें किसी प्रकार का संशय नहीं।।३।।

केनाप्यस्ति न कार्यमाश्रितवता मित्रेण चान्येन वा प्रेमाङ्गेपि न मेस्ति सम्प्रति सुखी तिष्ठाम्यहं केवल:।

संयोगेन यदत्र कष्टमभवत्संसारचक्रे चिरं निर्विण्ण: खलु तेन तेन नितरामेकाकिता रोचते।।४।।

अर्थ —मेरे आश्रित जो मित्र हैं न तो मुझे उनसे कुछ काम है और न मुझे दूसरे से भी काम है और मुझे अपने शरीर में भी प्रेम नहीं इस समय मैं अकेला ही सुखी हूं क्योंकि मुझे संसाररूपी चक्र से मित्र आदि के संयोग से कष्ट हुआ था इसलिये मैं निश्चय से उदासीन हूं और मुझे अब एकान्त स्थान ही प्रिय है।

भावार्थ —जब तक मेरा मित्र स्त्री पुत्र आदि परपदार्थों से संबंध रहा तब तक मुझे नाना प्रकार के कष्टों का सामना करना पड़ा इसलिये अब मुझे उन मित्र तथा स्त्री पुत्र आदि पदार्थों से कुछ भी काम नहीं है किन्तु मैं अब सर्वथा उदासीन हूं और मुझे एकांत ही अच्छा लगता है।।४।।

यो जानाति स एव पश्यति सदा चिद्रूपतां न त्यजेत् सोहं नापरमस्ति किंचिदपि मे तत्त्वं सदेतत् परम्।

यच्चान्यत्तदशेषकर्मजनितं क्रोधादिकायादि वा श्रुत्वा शास्त्रशतानि सम्प्रति मनस्येतच्छुतं वर्तते।।५।।

अर्थ —जो जानता है वही सदा देखता है और जोे चैतन्यस्वरूप को नहीं छोड़ता है वह मैं ही हूं तथा अन्य पदार्थ मेरा कुछ भी नहीं है और यही समीचीन तत्त्व है। अन्य जो क्रोधादिक तथा शरीर आदिक हैं वे समस्त कर्मों से उत्पन्न हुये हैं इसलिये सैकड़ों शास्त्रों को सुनकर मन में यही सिद्धांत स्थित है।

भावार्थ —मैंने सैकड़ों शास्त्रों का अवलोकन किया है इसलिये मेरे मन में वह सिद्धांत स्थिर हो गया है कि जो जानता है वही देखता है और चैतन्यस्वरूप को नही छोड़ता है वह मैं ही हूं और संसार में दूसरा कोई भी पदार्थ मेरा नहीं है और ये जो क्रोध आदि तथा शरीर आदिक कार्य हैं वे समस्त कर्मों से पैदा हुये हैं।।५।।

हीनं संहननं परीषहसहं नाभूदिदं साम्प्रतं काले दु:खमसंज्ञकेऽत्र यदपि प्रायो न तीव्रं तप:।

कश्चिन्नातिशयस्तथापि यदसावार्तं हि दुष्कर्मणामंत: शुद्धचिदात्मगुप्तमनस: सर्वं परं तेन किम्।।६।।

अर्थ —दु:खम है नाम जिसका ऐसे इस पंचमकाल में संहनन हीन होता है इसीलिये इस समय वह संहनन परीषहों का सहने वाला भी नहीं होता है और प्राय करके तीव्र तप भी नहीं हो सकता है तथा किसी प्रकार का अतिशय भी नहीं होता तो भी मैं दुष्कर्मों से पीड़ित हूं इसfिलये अंतरंग में शुद्ध जो चैतन्यस्वरूप उससे गुप्त मन के धारी मुझसे समस्त पदार्थ पर हैं मुझे उन परपदार्थों से क्या प्रयोजन है ?।

भावार्थ —जिस समय चतुर्थ काल की प्रवृत्ति थी उस समय संहनन उत्तम था और वह संहनन समस्त परीषहों का सहन करने वाला था और उस समय घोर तप भी धारण किया जा सकता था तथा अनेक प्रकार के अतिशय भी प्रकट होते थे इसलिये उस समय दुष्कर्मों की पीड़ा का भय नहीं था किन्तु इस पंचमकाल मे न तो उत्तम संहनन है और इसीलिये वह संहनन परीषहों के सहनकरने में समर्थ नहीं और इस काल में घोर तप भी धारण नहीं किया जाता है तथा किसी प्रकार का अतिशय भी प्रकट नहीं होता और दुष्कर्म दु:ख बराबर देते ही हैं इसलिये अंतरंग मे शुद्ध ऐसे चैतन्यस्वरूप से गुप्त मन को धारण करने वाले मुझसे समस्त पदार्थ पर हैं तथा उनसे मुझे किसी प्रकार का प्रयोजन नहीं है यही मुझे विचारना चाहिये।।६।।

सदृग्बोधमयं विहाय परमानंदस्वरूपं परं ज्योतिर्वान्यदहं विचित्रविलसत्कर्मैकतायामपि।

काष्ण्र्ये कृष्णपदार्थसन्निधिवशाज्जाते मणौ स्फटिके यत्तस्मात्प्रथगेव स द्वयकृतो लोके विकारो भवेत्।।७||

अर्थ —नाना प्रकार के विद्यमान जो कर्म उनको एकता होने पर भी मैं सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञानस्वरूप और परमानंद स्वरूप तथा उत्कृष्ट तेज के धारी आत्मा को छोड़कर भिन्न नहीं हूं अर्थात् आत्मस्वरूप ही हूं क्योंकि काले पदार्थ के संबंध से स्फटिकमणि के काले होने पर भी वह कृष्णता उससे भिन्न ही है और विकार जो संसार में होता है वह दो पदार्थों द्वारा किया हुवा ही होता है।

भावार्थ —जिस प्रकार अत्यन्त निर्मल स्फटिकमणि के पास कोई चीज काले वर्ण की रख दी जावे ता यद्यपि उस काले पदार्थ के संबंध से स्फटिकमणि काली हो जाती है तो भी वह कालिमा उस स्फटिकमणि से भिन्न ही है उसका स्वरूप नहीं। किन्तु उसका स्वच्छता आदिक ही स्वरूप है उसी प्रकार यद्यपि कर्म तथा आत्मा नीर क्षीर के समान अभिन्न मालूम पड़ते हैं तो भी मैं सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञानस्वरूप तथा परमानंदस्वरूप और उत्कृष्ट तेज के धारी आत्मा से भिन्न नहीं हूं किन्तु उस आत्मस्वरूप ही हूं।।७।।

इसी आशय को लेकर समयसार में भी कहा है।--

वर्णाद्या वा रागमोहादयो वा भिन्ना भावा सर्व एवास्य पुंस:।

तेनैवान्तस्तत्त्वत: पश्यतोऽमी नो दृष्टा:स्यु दृष्टमेकं परं स्यात्।।८।।

अर्थ —इस पुरुष के रूप, रस, गंध आदिक तथा राग, द्वेष, मोह आदिक जितने पर भाव हैं समस्त भिन्न हैं इसलिये जो पुरुष अंतरंग तत्त्व का देखने वाला है उसके दृष्टिगोचर ये कोई भाव नहीं होते किन्तु उसके दृष्टिगोचर वह प्रधान तेज ही होता है।।८।।

आपत्सापि यते: परेण सह य: संगो भवेत् केनचित् सापत्सुष्ठु गरीयसी पुनरहो य: श्रीमतां संगम:।

यत्तु श्रीमदपानविकलैरुत्तानितास्यैर्नृपि: सम्पर्क: सुमुमुक्षुचेतसि सदा मृत्योरपि क्लेशकृत्।।९।।

अर्थ —यती का किसी दूसरे पदार्थ के साथ जो संयोग होता है वह एक प्रकार की आपत्ति है और उसी यति का श्रीमानों के साथ संगम हो जाव तो बड़ी भारी आपत्ति है और जो पुरुष लक्ष्मी के मदरूपी मदिरा से मत्त हो रहे और जिनके मुख ऊंचे को हैं ऐसे राजाओं के साथ संबंध हो जावे तो वह संबंध मोक्षाभिलाषी के चित्त में मरण से भी अधिक दु:ख का देने वाला है।

भावार्थ —यह बात अनुभव सिद्ध है कि मनुष्यों को जो कुछ कष्ट होते हैं वे पर के संबध से ही होते हैं और यतियों का यतिपना तो परके संबंध से रहित हाने से ही होता है क्योंकि यदि यतियों का सामान्य लोगों के साथ भी संबंध हो तो उनको दु:ख भोगना पड़ता है और यदि उन्हीं यतीश्वरों का श्रीमान मनुष्यों के साथ संबंध हो जावे तो उनको घोर आपत्ति का सामना करना पड़ता है और जिस प्रकार मदिरा के पान से मनुष्य मत्त हो जाता है और उन्नत मुख हो जाता है उसी प्रकार जो राजा लक्ष्मी का जो घमंड वही हुवा मद्य उसके पीने से मत्त हैं और जिनके मुख ऊपर को चढ़े हुये हैं ऐसे राजाओं के साथ उन मोक्षाभिलाषी यतियों का संबंध हो जावे तो उन यतियों के चित्त से वह संबंध मरण से अधिक भी वेदना का करने वाला होता है इसलिये जो मुनि मोक्षाभिलाषी हैं उनको संसार में किसी के साथ संबंध नहीं रखना चाहिये किन्तु अपने आत्मस्वरूप का ही चिंतवन करना चाहिय।।९।।

स्निग्धा मा मुनयो भवंतु गृहिणो यच्छन्तु मा भोजनं मा किञ्चिद्धनमस्तु मा वपुरिदं रुग्वर्जितं जायताम्।

नग्नं मामवलोक्य निन्दतु जनस्तत्रापि खेदो न मे नित्यानंदपदप्रदं गुरुवचो जार्गित चेच्चेतसि।।१०।।

अर्थ —सदा आनंदस्थान को देने वाला ऐसा श्रीगुरु का वचन यदि मेरे चित्त में प्रकाशमान है तो चाहे मुनिगण मेरे ऊपर प्रीति मत करो और भले ही गृहस्थ लोग मुझे भोजन मत दो और मेरे पास धन भी चाहे कुछ न हो और मेरा शरीर भी भले ही रोगकर रहित मत हो और लोग मुझे नग्न देखकर चाहे मेरी निन्दा भी करो तो भी मुझे किसी प्रकार का खेद नहीं।

भावार्थ —जिस समय मेरे मन में सदा आनंद का देने वाला गुरु का वचन प्रकाशमान न हो। उस समय यfिद मुनिगण मेरे ऊपर प्रीति न करें, तथा श्रावक लोग मुझे भोजन न देवें, और मेरे पास धन न होवे तथा शरीर भी नीरोग न होवे तथा मुझे नग्न देखकर लोग मेरी निन्दा करें तो मुझे खेद हो सकता है किन्तु यदि मेरे मन में श्रीगुरु का उपदेश विराजमान है तो मुझे उपर्युक्त कोई भी बातों खेद के करने वाली नहीं हो सकती क्योंकि गुरु का उपदेश सदा आनंदस्थान का देने वाला है।।१०।।

ग्रन्थकार कहते हैं--

दु:खव्यालसमाकुले भववनेहिसादिदोषद्रुमे नित्यं दुर्गतिपल्लिपाfितकुपथ भ्राम्यन्ति सर्वेऽगिन:।

तन्मध्ये सुगुरुप्रकाशितपथे प्रारब्धयानो जनो यात्यानंदकरं परं स्थिरतरं निर्वाणमेकं पदम्।।११।।

अर्थ —जो संसाररूपी वन नाना प्रकार के दु:खरूपी जो हस्ती अथवा अजगर उनसे व्याप्त है और जिसमें हिंसा असत्य चोरी आदिक दोष रूपी वृक्ष मौजूद हैं और जो संसाररूपी वन दुर्गतिरूपी जो भीलों के स्थान उनकर सहित जो खोटे मार्ग उनकर सहित है ऐसे संसाररूपी वन मे सदा समस्तजीव भ्रमण करते रहते हैं किन्तु उसी संसाररूपी वन में उत्तम गुरुओं द्वारा प्रकाशित मार्ग में जो मनुष्य गमन करने वाला है वह मनुष्य समस्त प्रकार के आनंदों को करने वाले और उत्कृष्ट तथा निश्चल और अनुपम ऐसे निर्वाण स्थान का अर्थात् मोक्षस्थान को प्राप्त होता है।

भावार्थ —जिस प्रकार वन नाना प्रकार के हस्ती अजगर और वृक्ष तथा भिल्लों के घरों कर सहित भयंकर मार्गों का स्थान होता है और उसी वन में किसी हितैषी द्वारा बतलाये हुये मार्ग से जा मनुष्य गमन करता है वह अपने उत्तम अभीष्ट स्थान पर पहुंच जाता है उसी प्रकार यह संसार भी वन है क्योकि इसमें भी नाना प्रकार के दु:खरूपी हस्ती मौजूद हैं और यह हिंसा आदिक दोषरूपी वृक्षों का स्थान है तथा दुर्गतिरूप भीलों के घरों कर सहित है खोटे भयंकर मार्ग इसमें भी हैं इसलिये इस प्रकार के संसाररूपी वन में जो मनुष्य उत्तम गुरुओं द्वारा प्रकाशित मार्ग में गमन करता है वह मनुष्य कल्याणों के करने वाले निश्चल उत्कृष्ट तथा अनुपम निर्वाण पुर को प्राप्त हाेता है।।११।।

यत्सातं यदसातमङ्गिषु भवेत्तत्कर्मकार्यं ततस्तत्कर्मैव तदन्यदात्मन इदं जानन्ति ये योगिन:।

ईदृग्भेदविभावनाकृतधियां तेषां कुतोहं सुखी दु:खी चेति विकल्पकल्मषकला कुर्यात्पदं चेतसि।।१२।।

अर्थ —जीवों में जो सुख तथा दु:ख हैं वे समस्त कर्मों के कार्य हैं इसलिये कर्म ही हैं और ये कर्म आत्मा से भिन्न हैं इस बात को जो योगीश्वर जानते हैं उन इस प्रकार की भेद भावना के भावने वाले योगीश्वरों के मन में, मैं सुखी हूं और मैं दु:खी हूं इस प्रकार की विकल्प संबंधी जरा सी भी मलिनता कैसे स्थान को प्राप्त कर सकती है ?।

भावार्थ —जब तक योगियों को इस बात का भलीभाँति ज्ञान नहीं होता कि सुख दु:ख आदिक जो कार्य हैं वे कर्मों के कार्य हैं इसलिये कर्म ही हैं और आत्मा कर्मों से सर्वथा भिन्न है तभी तक उनके मन में मैं सुखी हूं इस प्रकार के विकल्प उत्पन्न होते रहते हैं किन्तु जिस समय योगियों को इस प्रकार का भलीभाँति ज्ञान हो जाता है कि कर्म तथा उनके सुख दुख आदि कार्य सर्व आत्मा से भिन्न हैं उस समय उनके मन में कभी भी मैं सुखी हूं तथा दु:खी हूं इस प्रकार के मलिन विकल्प नहीं होते हैं इसलिये योगियों को चाहिये कि वे कर्म तथा आत्मा के भेद को भलीभाँति जानकर मैं सुखी हूं तथा दु:खी हूं इस प्रकार के मलिन विकल्पों से सर्वदा विमुक्त रहें।।१२।।

देवं तत्प्रतिमां गुरुं मुनिजनं शास्त्रादि मन्यामहे सर्वं भक्तिपरा वयं व्यवहृतौ मार्गे स्थित निश्चयात्।

अस्माकं पुनरेकताश्रयणतो व्यक्तीभवच्चिद्गुणस्फारीभूतमतिप्रबंधमहसामात्मैव तत्त्वं परम्।।१३।।

अर्थ —जब तक हम व्यवहार मार्ग में स्थित हैं तभी तक हम भक्ति में तत्पर होकर देव को गुरु को मुनिजनों को तथा सर्व शास्त्र आदि को मानते हैं किन्तु निश्चयनय से तो एकत्व के आश्रय से प्रगट हुआ जो चैतन्यरूपी गुण उससे प्रगल्भ जो बुद्धि उस बुद्धि संबंधी तेज के धारी हमारे केवल एक आत्मा ही उत्कृष्ट तत्त्व है किन्तु इससे भिन्न कोई भी तत्त्व नहीं है।

भावार्थ —जब तक हम व्यवहार मार्ग में स्थित हैं तब तक तो हम भक्ति वश होकर देव को भी मानते हैं देव की प्रतिमा को भी नमस्कार करते हैं तथा गुरु और मुनिजनों का भी मानते हैं शास्त्र आदि की भी भलीभाँति भक्ति करते हैं किन्तु जिस समय हम शुद्ध निश्चय मार्ग का अवलंबन करते हैं उस समय आत्मा ही हमारा उत्कृष्ट तत्त्व है क्योंकि उस समय एकत्व की भावना से प्राप्त हुई जो बुद्धि की प्रौढ़ता उससे देव आदि का कुछ भी भेद प्रतीत नहीं होता।।१३।।

वर्षं हर्षमपाकरोतु तुदतु स्फीता हिमानी तनुं धर्म: शर्महरोस्तु दंशमशकं क्लेशाय सम्पद्यताम्।

अन्यैर्वा बहुभि: परीषहभटैरारभ्यतां मे मृतिर्मोक्षं प्रत्युपदेशनिश्चलमतेर्नात्रापि किञ्चिद्भयम्।।१४।।

अर्थ —चाहे वर्षा मेरे हर्ष को नष्ट करे और बढ़ा हुआ जो बरफ का समूह वह भले ही मेरे शरीर को पीड़ा दे, और सूर्य का आतप भी मेरे कल्याणों का नाश करने वाला हो और डांस मच्छर भी मुझे दुख देवे तथा और भी जो बचे हुये परीषहरूपी सुभट है उनसे भी भले ही मेरा मरण हो जाओ तो भी मुझे इनमें किसी से कुछ भी भय नहीं है क्योंकि मेरी बुद्धि मोक्ष के प्रति जो उपदेश उससे निश्चल है।

भावार्थ —परीषह आदि के जय से मोक्ष होता है ऐस मोक्ष के लिये श्रीगुरुद्वारा दिये हुये उपदेश से मेरी बुद्धि निश्चल है इसलिये वर्षाकाल में चाहे वर्षा मेरे हर्ष का नाश करो और शरदकाल में चाहे बढ़े हुये बरफ का समूह मेरे शरीर को दु:खित करो और उष्णकाल में सूर्य का आतप भले ही मेरे कल्याणों का नष्ट करने वाला होवे और डांस मच्छर आदि कभी चाहें मुझे दु:ख देवे और दूसरे-दूसरे बचे हुये सुभटों से भी चाहे मेरी मृत्यु हो जावे तो भी मुझे इनमें से किसी से भी कुछ भय नहीं है।।१४।।

चक्षुर्मुख्यहृषीककर्षकमयो ग्रामो मृतो मन्यते चेद्रूपादिकृषिक्षमां बलवता बोधारिणा त्याजित:।

तिंच्चता न च सोऽपि सम्प्रति करोत्यात्मा प्रभु:शक्तिमान् यत्किञ्चिद्भवतिता तेन च भवोप्यालोक्यते नष्टवत्।।

अर्थ —आत्मा सर्वशक्तिशाली प्रभु है इसलिये यह यद्यपि सम्यग्ज्ञान का वैरी जो ज्ञानवरण कर्म (अथवा मोह) है उसके द्वारा नेत्र है प्रधान जिन्होंने ऐसी जो इन्द्रियां उन इन्द्रियरूपी किसानों से बना हुआ (इन्द्रियरूपी किसानस्वरूप) जो ग्राम उसको मरा हुआ मानता है तथा उन इन्द्रियरूपी किसानों की जो रूपादि खेती उसकी जो जमीन उससे रहित भी मानता है तो भी उन इन्द्रियों की तथा इन्द्रियों के विषयों की कुछ भी चिंता नहीं करता क्योंकि वह समझता है कि जो कुछ होने वाला है वह तो होगा ही इसलिय वह समस्त जगत को सर्वथा नष्ट सा ही समझता है।

भावार्थ —जिस प्रकार सर्वशक्तिमान राजा किसी वैरी द्वारा उजड़े हुये अपने गांव को तथा जमीन को देखकर कुछ भी चिन्ता नहीं करता उसी प्रकार सर्वशक्तिशाली यह आत्मा भी ज्ञानावरणादि द्वारा नेत्रादि इन्द्रियों को नष्ट मानता है तथा रूपादि से रहित भी मानता है तो भी उनकी चिंता नहीं करता क्योंकि वह भलीभांति जानता है कि जो कुछ होने वाला है वह तो नियम से होता ही इसलिये वह समस्त जगत को नष्ट ही सदा समझता रहता है।।१५।।

कर्मक्षत्युपशांतिकारणवशात्सद्देशनाया गुरोरात्मैकत्वविशुद्धबोधनिलयो निश्शेषसंगोज्झित:।

शश्वत्तद्गतभावनाश्रितमना लोके वसन् संयमी नावद्येन स लिप्यतेब्जदलवत्तोयेन पद्माकरे।।१६।।

अर्थ —कर्मों के क्षय से तथा कर्मों के उपशम से अथवा गुरु के उत्तम उपदेश से जो संयमी आत्मा के एकत्व से निर्मलज्ञान का स्थान है तथा समस्त प्रकार के परिग्रहों से रहित है और निरन्तर जिसका मान आत्मसंबंधी भावनाकर सहित है ऐसा वह संयमी संसार में रहता हुआ भी जिस प्रकार सरोवर में कमल का पत्ता जाल से लिप्त नहीं होता उसी प्रकार अंशमात्र भी पापों से लिप्त नहीं होता।

भावार्थ —चाहे कमल का पत्ता कितने भी अगाध पानी में क्यों न पड़ा हो तो भी वह जरा भी पानी से लिप्त नहीं होता उसी प्रकार जिस संयमी का मन कर्मों के उपशम से अथवा कर्मों के सर्वथा क्षय से वा गुरु के उत्तम उपदेश से आत्मा के एकत्व संबधी निर्मलज्ञान का धारक है और समस्त प्रकार की परिग्रहों से रहित है और जिसका चित्त सदा आत्मसंबंधी एकत्व भावना कर सहित है वह संयमी यद्यपि संसार में भी मौजूद है तथापि समस्त प्रकार के पापों से अलिप्त ही है अर्थात् उसकी आत्मा के साथ किसी प्रकार के कर्मों का संबंध नहीं।।१६।।

गुर्वंघ्रिद्वयदत्तमुक्तिपदवीप्राप्त्यर्थनिग्र्रंथता जातानन्दवशान्ममैद्रियसुखं दु:खं मनो मन्यते

सुस्वादु:प्रतिभासते किल खलस्तावत्समासादितो यावन्नो सितशर्वâरातिमधुरा सन्र्तिपणी लभ्यते।।१७।।

अर्थ —गुरु के जो दोनों चरण उनसे दी हुई जो मोक्षपदवी उसकी प्राप्ति के लिये जो निग्रंथता उससे उत्पन्न हुआ जो आनंद उससे मेरा इन इन्द्रियों से उत्पन्न हुआ जो सुख है वह दु:खी ही है ऐसा मानता है सो ठीक ही है क्योंकि जब तक स्वच्छ तथा अत्यन्त मधुर और तृप्ति करने वाली शर्करा (शक्कर) की प्राप्ति नहीं होती तभी तक खल अत्यन्त मिष्ट मालूम पड़ती है।

भावार्थ —जब तक स्वच्छ अत्यन्तमिष्ट तथा तृप्ति की करने वाली शक्कर की प्राप्ति नहीं होेती तभी तक मनुष्य को खल अत्यन्त मिष्ट मालूम पड़ती है किन्तु जिस समय उत्तम मिष्ट शक्कर की प्राप्ति हो जाती है उस समय वह खल जरा भी मिष्ट नहीं मालूम होती उसी प्रकार जब तक जीवों का गुरु के दोनों चरणों से प्रदत्त जो मोक्षरूपी पदवी उसकी प्राप्ति के लिये जो निग्र्रंथता उससे उत्पन्न हुआ जो आनंद उसका अनुभव नहीं होता तभी तक उनको इन्द्रियों से उत्पन्न हुआ सुख, सुख मालूम पड़ता है fिकन्तु जिस समय उस आनंद का अनुभव हो जाता है उस समय इन्द्रियों से उत्पन्न हुआ सुख, सुख नहीं प्रतीत होता किन्तु वह दु:ख ही प्रतीत होता है मुझे उस प्रकार के वचनागोचर आनंद का अनुभव है इसलिये मुझे इन्द्रियों से जायमान सुख दु:ख ही है ऐसा सर्वथा मालूम पड़ता है।।१६।।

निग्र्रंथत्वमुदा ममोज्वलतरध्यानाश्रितस्फीतया दुध्र्यानाक्षसुखं पुन: स्मृतिपथप्रस्थाय्यपि स्यात्कुत:।

निर्गत्योद्रतवातबोधितशिfिखज्वालाकरालादृहाच्छीतां प्राप्य च वाfिपकां वशति कस्तत्रैव धीमान्नर:।।

अर्थ —अत्यन्त निर्मल जो ध्यान उसके आश्रय से अत्यन्त वृद्धिगत निग्र्रंथता से पैदा हुआ यदि हर्ष मेरे मौजूद है तो मुझे खोटे ध्यान से उत्पन्न हुआ जो इन्द्रिय संबंधी सुख उसका कैसे स्मरण हो सकता है ? क्योंकि ऐसा कौन बुद्धिमान पुरुष है जो चलती हुई जो पवन उससे जाज्वल्यमान जो अग्नि की ज्वाला उससे अत्यन्त भयंकर ऐसे घर से निकलकर और अत्यन्त शीत ऐसी बावड़ी को पाकर फिर उसी जाज्वल्यमान अग्नि से भयंकर घर में प्रवेश करेगा ?

भावार्थ —अत्यन्त उत्कृष्ट जो पवन उससे जाज्वल्यमान जो आग्नि की ज्वाला उससे भयंकर घर से निकलकर तथा अत्यन्त निर्मल जल से भरी हुई वावड़ी को पाकर जिस प्रकार बुद्धिमान पुरुष फिर से उस जाज्वल्यमान अग्नि से भयंकर मकान में प्रवेश नहीं करता। उसी प्राकार यfिद मुझमें अत्यन्त निर्मल जो ध्यान उसके आश्रय से अत्यन्त बढ़ा हुआ ऐसा निग्र्रंथता से उत्पन्न हुआ आनंद मौजूद है तो मुझे खोट ध्यान से उत्पन्न हुआ जो इन्द्रिय संबंधी सुख उसका स्मरण नहीं हो सकता है अर्थात् इन्द्रियों से उत्पन्न हुये सुख को मैं सुख नहीं मान सकता।।१७।।

आचार्यवर उपदेश देते हैं--

जायेतोद्रतमोहतोऽभिलषिता मोक्षेपि सा सिद्धिहृत् तद्भूतार्थपरिग्रहो भवति किं क्वापि स्पृहालुर्मुनि:।

इत्यालोचनसंगतैकमनसा शुद्धात्मसंबन्धिना तत्त्वज्ञानपरायणेन सततं स्थातव्यमग्राहिणा।।१८।।

अर्थ —यदि उत्पन्न हुये मोह से मोक्ष में भी अभिलाषा की जाय तो वह इच्छा मोक्ष के नाश करने वाली ही होती है इसलिये जो शुद्ध निश्चयनय का आश्रय करने वाला है वह कहीं भी कैसी भी इच्छा नहीं करता इसलिये जिस मुनि का मन न आलोचना कर सहित है और जो शुद्ध आत्मा से संबंध रखने वाला है और तत्त्वों के ज्ञान में दत्तचित्त है उस मुनि को चाहिये कि वह समस्त प्रकार की परिग्रहों से रहित ही रहे।

भावार्थ —समस्त कर्म तथा कर्मों के कार्यों का जिस समय सर्वथा नाश हो जाता है उसी समय मोक्ष की प्राप्ति होती है। इच्छा मोह से उत्पन्न होती है इसलिये वह कर्म का कार्य होने पर भी कर्म ही है इसलिये मोक्ष के विषय में भी किसी मुनि को इच्छा हो जावे वह इच्छा मोक्ष की निषेध करने वाली ही है अत: जो मुनि शुद्ध निश्चय नय के आश्रय करने वाले हैं और मोक्ष के अभिलाषी हैं वे कदापि किसी पदार्थ में जरा भी इच्छा नहीं करते हैं इसलिये आचार्यवर उपदेश देते हैं कि जिन मुनियों का मन आलोचना करके सहित है तथा जो समस्त कर्मों से रहित आत्मा से संबंध रखन वाले हैं अर्थात् कर्म रहित आत्मा के ध्यान करने वाले हैं और जो तत्त्वों के ज्ञान में दत्तचित्त हैं उनको चाहिये कि वे सर्वथा समस्त प्रकार के परिग्रहों से रहित ही रहें अर्थात् किसी पदार्थ में (ममेदं) यह मेरा है ऐसी बुद्धि कदापि न करें।।१८।।

जायंते विरसा रसा विघटते गोष्ठीकथाकौतुकं शीर्यन्ते विषयास्तथा विरमति प्राीति: शरीरेऽपि च।

जोषं वागपि धारयत्यविरतानन्दात्मशुद्धात्मनश्चिन्तायामपि यातुमिच्छति समं दोषैर्मन: पंचताम्।।१९।।

अर्थ —सदा आनन्दस्वरूप जो शुद्धात्मा उसके चिंतवन होने पर रस जो हैं सो विरस हो जाते हैं और गोष्ठी में जोे कथा का कौतूहल है वह नष्ट हो जाता है और समस्त विषय नष्ट हो जाते हैं तथा शरीर में भी अंशमात्र भी प्रीति नहीं रहती ओर वाणी भी जोष को धारण कर लती है अर्थात् मौन का अवलम्बन करना पड़ता है और समस्त दोषों के साथ मन भी नष्ट हो जाता है।

भावार्थ —जब तक मनुष्य निरंतर आनन्दस्वरूप परमात्मा का विचार नहीं करता तब तक उसको रस प्रिय लगते हैं गोष्ठी की कथा का कौतूहल भी उत्तम लगता है और तब तक विषय भी नष्ट नहीं होते तथा शरीर में भी प्रीति बनी रहती है और वाणी भी मौन को धारण नहीं करती तथा समस्त दोष भी मौजूद रहते हैं और मन भी कायम बना रहता है किन्तु जिस समय उस आनन्दस्वरूप परमात्मा का विचार आकर उपस्थित हो जाता है उस समय रस प्रिय नहीं रहते गोष्ठी में जो कथा का कौतूहल रहता है वह भी नष्ट हो जाता है विषय भी समस्त किनारा कर जाते हैं शरीर में प्रीति भी नहीं रहती और वाणी मौन को धारण कर लेती है अ‍ैर कोई प्रकार का दोष भी नहीं रहता तथा दोषों के साथ मन भी सर्वथा नष्ट हो जाता है।।१९।।

तत्त्वं वागतिवर्ति शुद्धनयतो यत्सर्वपक्षच्युतं तद्वाच्यं व्यवहारमार्गपतितं शिष्यार्पणे जायते।

प्रागल्भ्यं न तथापि तत्र विवृतौ बोधो न तादृग्विधस्तेनायं ननु मादृशो जडमतिर्मौनाश्रितस्तिष्ठति।।

अर्थ —शुद्ध निश्चयनय से तो तत्त्व वचन के अगोचर है तथा समस्त प्रकार के पक्षों कर (अपेक्षा ओंकर) रहित है किन्तु व्यवहारमार्ग में आया हुआ वह तत्त्व शिष्यों के बोध के लिये वाच्य (वचन के द्वारा कहने योग्य) होता है तो भी (ग्रंथकार कहते हैं) कि उस तत्त्व के व्याख्यान के करने में न तो मुझमें भलीभाँति प्रौढ़ता है और न मुझमें उसके वर्णन करने योग्य ज्ञान ही है इसलिये मेरे समान जड बुद्धिपुरुष मौन को धारणकर ही रहता है।

भावार्थ —यद्यपि शुद्ध निश्चयनय से तत्त्व अवाच्य है तथा समस्त प्रकार की अपेक्षा ओंकर रहित है तो भी वह तत्त्व शिष्यों को बोध कराने के लिये व्यवहार से वाच्य है वचन से कहा जा सकता है इसलिये ग्रंथकार कहते हैं तो भी इस परमार्थ तत्त्व को मैं भलीभाँति वर्णन नहीं कर सकता क्योंकि उस तत्त्व के वर्णन करने में न तो मुझे अपने में प्रौढ़ता ही प्रतीत होती है और न उतना मुझमें ज्ञान ही विद्यमान है इसलिये मैं अब मौन को ही धारण करता हूं।।२०।।

इस प्रकार श्रीपद्मनन्दि आचार्यद्वारा विरचित श्रीपद्मनन्दिपंचवशतिका में परमार्थसंगति नामक अधिकार समाप्त हुआ।