श्री शीतलनाथ जिनपूजा
(छन्द मत्तमातंग तथा मत्तगयंद, वर्ण 23)
शीतलनाथ नमों धरि हाथ, सुमाथ जिन्हों भव गाथ मिटाये।
अच्युततैं मात सुनंद के, नंद भये पुर भद्दल भाये।।
वंश इक्ष्वाकु कियो जिन भूषित, भव्यन को भवपार लगाये।
ऐसे कृपानिधि के पद पंकज, थापतु हौं हिय हर्ष बढ़ाये।।
ओं ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्र! अत्रावतार अवतर संवौषट् आह्नाननम्।
ओं ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्।
ओं ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्।
अष्टक
(छन्द वसन्ततिलका, वर्ण 14)
देवापगा सु वर वारि विशुद्ध लायौ,
भंृगार हेम भरि भक्ति हिये बढ़ायौ।
रागादि दोष मल मर्दन हेतु येवा,
चर्चो पदाब्ज तव शीतलनाथ देवा।।
ओं ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री खण्डसार वर कुंकुम गारि लीनौं,
कंसंग स्वच्छ घसि भक्ति हिये धरीनौं।। रागादि.
ओं ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय भवतापविनाशनाय चन्दनं नि. स्वाहा।
श्री केतकी प्रमुख पुष्प अदोष लायो,
नौरंग जंग करि भंृग सुरंग पायौ। रागादि.
ओं ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय काबाणविनाशनाय पुष्पं नि. स्वाहा।
नैवेद्य सार चरु चारु सँवारि लायो,
जांबूनद प्रभृति भाजन शीस नायौ। रागादि.
ओं ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं नि. स्वाहा।
स्नेह प्रपूरित सुदीपक ज्योति राजै,
स्नेह प्रपूरित हिये जजतेऽघ भाजै। रागादि.
ओं ह्रीं श्रीशीतलनाथ जनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं नि. स्वाहा।
कृष्णा गुरु प्रमुख गन्ध हुताश माहीं,
खेवों तवाग्रवसु कर्म-जरन्त जाहीं। रागादि.
ओं ह्रीं श्रीशीतलनाथ जनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि. स्वाहा।
निम्बाम्रं कर्कटि सुदाडिम आदि धारा,
सौवर्ण गंध फल सार सुपक्व प्यारा। रागादि.
ओं ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं नि. स्वाहा।
कंश्री फलादि वसु प्रासुक द्रव्य साजे,
नपाचे रचे मचत बज्जत सज्ज बाजे।
रागादि दोष मलमर्दन हेतु येवा,
चर्चो पदाब्ज तव शीतलनाथ देवा।।
ओं ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्य नि. स्वाहा।
पंचकल्याणक
(छन्द उपेन्द्रवज्रा, वर्ण 11)
आठैं वदी चैत सु गर्भ माहीं, आये प्रभू मंगल रूप थाहीं।
सेवै सची मातु अनेक भेवा, चर्चों सदा शीतलनाथ देवा।।
ओं ह्रीं चैत्रकृष्णाटम्टयां गर्भमंगलमंडिताय श्री शीतलनाथजिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
श्री माघ की द्वादशि श्याम जायो, भूलोक में मंगल सार आयो।
शैलेन्द्र पै इन्द्र फनिन्द्र जज्जै, मैं ध्यान धारों भव दुःख भज्जे।।
ओं ह्रीं माघकृष्णाद्वादश्यां जन्ममंगलप्राप्तय श्री शीतलनाथजिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
श्री माघ की द्वादशि श्याम जानों, वैराग्य पायो भवभाव हानों।
ध्यायौ चिदानन्दनिवार मोहा, चर्चो सदा चर्ण निवारि कोहा।।
ओं ह्रीं माघकृष्णाद्वादश्यां तपकल्याणमंडिताय श्री शीतलनाथजिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
चतुर्दशी पौष सुहायो, ताही दिना केवल लब्धि पायो।
शोभै समोसृत्य बखानि धर्म, चर्चो सदा शीतल धर्म शर्म।।
ओं ह्रीं पौषकृष्णाचतुर्दश्यां केवलज्ञानमंडिताय श्री शीतलनाथजिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
कुँवार की आठँय शुद्ध बुद्धा, भये महामोक्ष सरूप शुद्धा।
सम्मेद तैं शीतलनाथ स्वामी, गुनाकरं तासु पदं नमामी।।
ओं ह्रीं आश्विनशुक्लाष्टम्यां मोक्षमंगलप्राप्ताय श्री शीतलनाथजिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
जाप मंत्र (पुष्प से 9, 27 या 108 बार निम्न दो मंत्रों में से किसी एक मंत्र का जाप करें।)
1. ओं ह्रीं सरस्वती, लक्ष्मी, सर्वाण्हयक्ष, सनत्कुमारयक्ष, अष्टप्रातिहार्य, अष्टमंगलद्रव्य, ब्रह्मेश्वरयक्ष, मानवीयक्षी, पंचदशितिथिदेवता, नवग्रहदेवता, पंचक्षेत्रपालादि सचित्ताचित्तमिश्र परिकरसहिताय शतेन्द्र पूजिताय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय नमः मम ऋद्धिं वृद्धिं सौख्यं कुरु कुरु स्वाहा।
2. ओं ह्रीं ब्रह्मेश्वरयक्ष, मानवीयक्षी आदि सचित्त अत्ति मिश्र परिकरसहिताय श्री शीतलनाथजिनेन्द्राय नमः मम ऋद्धिं वृद्धिं सौख्यं कुरु कुरु स्वाहा।
जयमाला
(छन्द लोलतरंग, वर्ण 11)
आप अनंत गुनाकर राजैं, वस्तु विकाशन भानु समाजैं।
मैं यह जानि गही शरना है, मोह महारिपु को हरना है।।
दोहा
हेम वरन तन तुंग धनु, नब्बे अति अभिराम।
सुर तरु अंक निहारि पद, पुनि पुनि करौं प्रणाम।।
छन्द त्रोटक (वर्ण 12)
जय शीतलनाथ जिनन्द वरं, भव दाघ दवानल मेघ झर।
दुख भूभृत भंजन वज्र समं, भव-सागर नागर पोतपमं।।
कुह मान मया गद लोभ हरं, अरि विघ्न गयदं मृगेन्द्र वरं।
वृष वारिद वृष्टन सृष्टि हितू, पर दृष्टि विनाशन सृष्टि पितू।।
समवसृत संजुत राजतु हो, उपमा अभिराम विराजतु हो।
वर बारह भेद सभा थित को, तित धर्म बखानि कियो हित को।।
पहले महि श्रीगनराज रजैं, दुतिये महि कल्प सुरो जु सजैं।
त्रितिये गणना गुन भुरि धरैं, चवथे तिथ ज्योतिष जोति भरैं।।
तिय व्यंतरनी पन में गनिये, छह में भुवनेसुर ती भनिये।
भुवनेश दशों थित सप्तम हैं, वसु में वसु व्यंतर उत्तम हैं।।
नव में नभ ज्योतिष पंच भरे, दश में दिवि देव समस्त खरे।
नर वृन्द इकादश में निवसैं, अरु बारह में पशु सर्व लसैं।।
तज वैर प्रमोद धरैं सब ही, समता रस मग्न लसैं तब ही।
धुनि दिव्य सुनैं तजि मोह मलं, गनराज असी धरि ज्ञान बलं।।
सब के हित तत्त्व बखान करैं, करूनामय रंजित शर्म भरैं।
वरने षट् द्रव्यतने जितने, पर भेद विराजतु हैं तितने।।
पुनि ध्यान उभै शिव हेतु मुना, इक धर्म दुती सुकलं अधुना।
तित धर्म सुध्यान तणो गनियो, दश भेद लखे भ्रम को हनियो।।
पहलो अरि नाश अपाय सही, दुतियो, जिन बैन उपाय गही।
त्रििित जीव विचै निज ध्यावत है, चवथो सु अजीव रमावत है।।
पनमो सु उदै बल टारन है, छहमों अरि राग निवारन है।
भव त्यागन चिंतन सप्तम है, वसुमों जित लोभ न आतम है।।
नवमों जिनकी धुनि सीस धरै, दशमेां जिनभाषित हेतु करै।
इमि धर्म तणो दश भेद भन्यो, पुनि शुक्ल तणो चदु येम गन्यो।।
सुपृथक्त वितर्क विचार सही, सुइकत्व वितर्क विचार गही।
पुनि सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाल कही, विपरीत क्रिया निरवृत लही।।
इन आदिक सर्व प्रकाश कियो, भव जीवनि को शिव स्वर्ग दियो।
पुनि मोक्षविहार कियो निजी, सुखसागर मग्न ध्चिरं गुनजी।।
अब मैं शरना पकरी तुमरी, सुधि लेहु दयानिधि जी हमरी।
भवव्याधि निवार करो अबही, मति ढील करो सुख द्यो सब ही।।
घत्ता
शीतल जिन ध्याऊँ, भगति बढ़ाऊँ, ज्यो रतनत्रय निधि पाऊँ।
भवदंद नशाऊँ, शिवथल जाऊँ, फेर न भवनन मैं आऊँ।।
ओं ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
छन्द मालिनी
दिढ़रथ सुत श्रीमान्, पंचकल्याणक धारी।
तिन पद जुगपùं, जो जजै भक्ति धारी।
सहसुख धनधान्यं, दीर्घ सौभाग्य पावै,
अनुक्रम अरि दाहै, मोक्ष के सो सिधावै।।
।। इत्याशीर्वाद:- शांतये त्रय शांतिधारा - परिपुष्पांजलिं
ब्रह्मेश्वर यक्ष का अर्घ
शीतलजिन के शासन रक्षक, ब्रह्म को आह्नानन है।
आओ तिष्ठो पास हमारे, करते यही निवेदन है।।
स्वीकारो स्वीकारो मेरा अर्घ देव तुम स्वीकारो।
जिनवर के मुझ श्रद्धानी को ले अपने संग में तारो।
ओं आं क्रौं ह्रीं ब्रह्मेश्वर देवतेभ्यो जलादि अघ्र्य समपर्यामीति स्वाहा।
मानवी यक्षी का अर्घ
शीतलजिन की शासन यक्षी मानवी को आह्नानन है।
आओ तिष्ठो पास हमारे, करते यही निवेदन है।।
स्वीकारो स्वीकारो मेरा अर्घ देव तुम स्वीकारो।
जिनवर के मुझ श्रद्धानी को ले अपने संग में तारो।
ओं आं क्रौं ह्रीं मानवीयक्षिदेव्यै जलादि अघ्र्य समपर्यामीति स्वाहा।
क्षेत्रपालजी का अर्घ
शीतलजिन क्षेत्रपाल जी सुनो सुनो आह्नानन है।
आओ तिष्ठो पास हमारे, करते यही निवेदन है।।
स्वीकारो स्वीकारो मेरा अर्घ देव तुम स्वीकारो।
जिनवर के मुझ श्रद्धानी को ले अपने संग में तारो।
ओं आं क्रौं ह्रीं अत्रस्थ शीतलनाथ जिनस्य क्षेत्रपाल, भूमिपाल आदि सचित्त अचित्त मिश्र देवतेभ्यो जलादि अघ्र्य समपर्यामीति स्वाहा।
।। इत्याशीर्वादः परिपुष्पांजिं क्षिपेत्।।