(जीव और मन का परस्पर में संवाद)

शार्दूलविक्रीडित छन्द

भोचेत: किमु जीव तिष्ठसि कथं चिंतास्थितं सा कुतो रागद्वेषवशाक्तयो: परिचय: कस्माच्च जातस्तव।

इष्टानिष्टसमागमादिति यदि स्वभ्रं तदावां गतौ नो चेन्मुञ्च समस्तमेतदचिरादिष्टादिसंकल्पनम् ।।१४५।।

अर्थ—जीव मन से पूछता है कि रे मन तू कैसे रहता है, मन उत्तर देता है कि मैं सदा चिंता मैं व्यग्र रहता हूं फिर जीव पूछता है कि तूझे चिंता क्यों है फिर मन उत्तर देता है कि मुझे राग द्वेष के सबब से चिंता है फिर जीव पूछता है कि तेरा इनके साथ परिचय कहां से हुवा फिर मन उत्तर देता है कि भली बुरी वस्तुओं के संबंध से राग द्वेष का परिचय हुआ है तब फिर जीव कहता है कि हे मन यदि ऐसी बात है तो शीघ्र ही भली बुरी वस्तुओं के संबंध को छोड़ो नहीं तो हम दोनों को नरक में जाना पड़ेगा।

भावार्थ—स्वभाव से न कोई वस्तु इष्ट है न अनिष्ट है इसलिये इष्ट तथा अनिष्ट में संकल्प कर रागद्वेष करना निष्प्रयोजन है क्योंकि रागद्वेष से केवल दु:ख ही भोगने पड़ते हैं इसलिये समस्त पर वस्तुओं को छोड़कर समता की धारण करनी चाहिये ऐसी अपने—२ मन को निरन्तर भव्य जीवों को शिक्षा देनी योग्य है।।१४५।।

ज्ञानज्योतिरुदेति मोहतमसो भेद: समुत्पद्यते सानन्दा कृतकृत्यता च सहसा स्वान्ते समुन्मीलति।

यस्यैकस्मृतिमात्रतोऽपि भगवानत्रैव, देहान्तरे देवस्तिष्ठति मृग्यतां स रभसादन्यत्र किं धावत।।१४६।।

अर्थ—आचार्य उपदेश देते हैं कि जिस एक आत्मा के स्मरण मात्र से सम्यग्ज्ञानरूपी तेज का उदय होता है तथा मोहरूपी अंधकार दूर हो जाता है और चित्त में नाना प्रकार का आनन्द होता है तथा कृतकृत्यता भी चित्त में उदित हो जाती है वही अनन्त शक्ति का धारक भगवान् आत्मा इस ही शरीर में निवास करता है उसको ढूंढो व्यर्थ क्या दूसरी जगह अज्ञानी होकर फिरते हो ?।।१४६।।

शार्दूलविक्रीडित छन्द

जीवाजीवविचित्रवस्तुविविधाकाराद्र्धिरूपादयो रागद्वेषकृतोऽत्र मोहवशतो दृष्टा: श्रुता: सेविता:।

जातास्ते दृढबंधनं चिरमतो दु:खं तवात्मन्निदं जानात्येव तथापि किं बहिरसावद्यापि धीर्धावति ।।१४७।।

अर्थ—फिर भी आचार्य महाराज उपदेश देते हैं कि अरे जीव इस संसार में चेतन अचेतन स्वरूप नाना प्रकार के पदार्थ तथा नाना प्रकार के आकार और भांति—२ की संपदा तथा रूप रस आदि सर्व मोह के वश से रागद्वेष को करने वाले हैं और मोह के वश से ही देखे गये हैं तथा सुने गये हैं और सेवन किये गये हैं और इस ही कारण मोह से चिरकाल पर्यंत वे सर्व पदार्थ तेरे दृढ़बंधन हुवे हैं तथा दृढ़बंधन से ही तुझे नाना प्रकार के दु:ख भोगने पड़े हैं ऐसा भलीभांति जानते हुवे भी तेरी बुद्धि बाह्य पदार्थों में दौड़ती है यह बड़े आश्चर्य की बात है।

भावार्थ—चेतन अचेतन स्त्री पुत्र कलत्र गृह धन धान्यादि बाह्य पदार्थों में मोह कर चिरकाल से तुझे नाना प्रकार के बंधनों में फंंसना पड़ा है तथा नाना प्रकार के दु:ख भी भोगने पड़े हैं ऐसा भली भांति तुझे ज्ञान है तो भी नहीं मालूम क्यों अब भी तेरी चित्तवृत्ति बाह्य पदार्थों में लगी हुई है इसलिये अब बाह्य पदार्थों से मोह छोड़कर तुझे अपने वास्तविक अनन्तविज्ञानादि स्वरूप का चिंतवन करना चाहिये।।१४७।।

अब आचार्य इस बात को दिखलाते हैं कि निम्नलिखित प्रकार से विचार करने पर किसी प्रकार संसार से भय नहीं हो सकता ।

भिन्नोऽहं वपुषो बहिर्मलकृतान्नानाविकल्पौघत: शब्दादेश्च चिदेकमूर्तिरमल: शान्त: सदानन्दभाक्।

इत्यास्था स्थिरचेतसो दृढतरं साम्यादनारम्भिण: संसाराद्भयमस्ति किं यदि तदप्यन्यत्र क: प्रत्यय:।।१४८।।

अर्थ — नाना प्रकार के विष्टा मूत्रादि मल के घर स्वरूप इस शरीर से मैं भिन्न हूं तथा मन में उठे हुवे नाना प्रकार के विकल्पों से भी मैं भिन्न हूं और शब्द रस आदि से भी मैं जुदा हूं तथा मेरी एक चैतन्यमयी मूर्ति है और मैं समस्तप्रकार के मल कर रहित हूं तथा क्रोधादि के अभाव से मैं सदा शांत हूं और सदाकाल आनंद का भजने वाला हूं इस प्रकार का जिसके मन में मजबूत श्रद्धान है तथा समता का धारी होने से जिसका समस्त प्रकार का आरम्भ छूट गया है ऐसे मनुष्य को किसी प्रकार संसार से भय नहीं हो सकता और जब उसको संसार ही भय का करने वाला नहीं तब उसको कोई वस्तु भय की करने वाली नहीं हो सकती।

भावार्थ — जिस मनुष्य के इस प्रकार के विचार करने से समस्त प्रकार से संसार का भय जाता रहा है उस पुरूष को और किसी वस्तु से भय नहीं हो सकता इसलिये भव्य जीवों को इस प्रकार विचार कर संसार से कदापि भयभीत नहीं होना चाहिये।।१४८।।

किंलोकेन किंमाश्रयेण किमथद्रव्येण कायेन किं किं वाग्भि: किमुतेन्द्रियै: किमसुभि: किंते विकल्पै: परै: ।

सर्वे पुद्गलपर्यया वत परे त्वत्त: प्रमत्तो भवन्नात्मन्नेभिरभिश्रयितिष्टातरामालेन किं बंधनम् ।।१४९।।

अर्थ —आचार्य फिर भी उपदेश देते हैं कि न तो तुझे लोक से प्रयोजन है न लोक के आश्रय से प्रयोजन है और न तुझे द्रव्य से प्रयोजन है न वाणी से प्रयोजन है तथा न तुझे स्पर्शनादि इन्द्रियों से प्रयोजन है न तुझे खोटे विकल्पों से प्रयोजन है क्योंकि ये समस्त पुद्गल द्रव्य की पर्याय है और तू चैतन्यस्वरूप है इसलिये ये तेरे स्वरूप से सर्वथा जुदे ही हैं अत: इन वस्तुओं में प्रमाद करता हुवा क्यों वृथा तू दृढ बंधन को बांधता है अर्थात् लोक आदि से ममता करने से तू बंधेगा ही छूटेगा नहीं।

भावार्थ —जिस प्रकार कोई चोर यदि पर के द्रव्य को चुराकर अपना कहने लगे तो वह कैद में जाकर नाना प्रकार के बंधन को प्राप्त होता है उसी ही प्रकार हे जीव यदि तू भी पर की चीज को अपनावेगा तो दृढबंधन तो प्राप्त होगा इसलिये तुझे परवस्तु को अपनी कदापि नहीं कहनी चाहिये किन्तु अपनी ज्ञान दर्शनादि वस्तुओं को ही अपनाना चाहिये।।१४९।।

अनुष्टुप् छन्द

सतताभ्यस्तभोगानामप्यसत्सुखमात्मजम् ।

अप्यपूर्वं सदित्यास्था चित्ते यस्य स तत्त्ववित् ।।१५०।।

अर्थ —जिस मनुष्य के चित्त में ऐसा विचार उत्पन्न हो गया है कि निरंतर भोगे हुवे भी भोगों से पैदा हुवा सुख अशुभ है तथा केवल आत्मा से उत्पन्न हुवा सुख अपूर्व तथा शुभ है वही पुरूष भले प्रकार तत्व का ज्ञाता है ऐसा समझना चाहिये किंतु उससे भिन्न विपरीत श्रद्धानी कदापि तत्त्वज्ञाता नहीं हो सकता।।१५०।।

पृथ्वी छन्द

प्रतिक्षणमयं जनो नियतमुग्रदु:खातुर: क्षुदादिभिरभिश्रयंस्तदुपशान्तयेऽन्नादिकम् ।

तदेव मनुते सुखं भ्रमवशाद्यदेवासुखं समुल्लसति कज्छाकारुजि यथा शिखिस्वेदनम् ।।१५१।।

अर्थ —ग्रन्थकार कहते हैं— जिस प्रकार खाज का रोगी मनुष्य अग्नि से खाज के सेकने में सुख मानता है परन्तु अग्नि से सेकना केवल दु:ख का ही देने वाला है उस ही प्रकार यह संसारी जीव जब क्षुधा तृषा आदि व्याधियों से पैदा हुवे दु:खों से अत्यन्त पीड़ित होता है तथा उसकी शांति के लिये अन्न जल का आश्रयण करता है उस समय यद्यपि वह अन्न जल आदि पदार्थ दु:ख स्वरूप हैं तो भी भ्रम से उनको सुख मानता है।

भावार्थ — जिस प्रकार अग्नि से सेकते समय खाज में सुख मालूम होता है किन्तु अंत में अत्यंत दु:ख ही भोगना पड़ता है उस ही प्रकार इन्द्रियों से उत्पन्न हुआ सुख यद्यपि थोड़े समय तक सुख है परन्तु अंत में दु:खदायी है इसलिये भव्य जीवों को इन्द्रियों के सुख की कदापि अभिलाषा नहीं करनी चाहिये किन्तु अविनाशी सुख के लिये ही प्रयत्न करना चाहिये।।१५१।।

शार्दूलीवक्रीडित छन्द

आत्मा स्वं परमीक्ष्यते यदि समं तेनैव संचेष्टते तस्मा एव हितस्ततोऽपि च सुखी तस्यैव संबंधभाक् ।

तस्मिन्नेव गतो भवत्यविरतानन्दामृताम्भौनिधौ चान्यत्सकलोपदेशनिवहस्यैतद्रहस्यं परम् ।।१५२।।

अर्थ —जब यह आत्मा अपने स्वरूप को देखता है तो स्वयं अपने स्वरूप के साथ ही चेष्टा करता है तथा अपने स्वरूप के लिये ही हित स्वरूप बनता है तथा अपने से ही सुखी होता है तथा अपना ही संबंधी होता है तथा निरंतर जो आनन्द रूप अमृत उसका समुद्र स्वरूप जो अपना स्वरूप उसमें ही लीन होता है इस प्रकार समस्त प्रवृत्तियों की आत्मा में जो दृढ्स्थिति यही समस्त उपदेश का असली तात्पर्य है। इससे अतिरिक्त और कुछ नहीं है।।१५२।।

आर्या छन्द

परमानन्दाब्जरसं सकलविकल्पान्यसुमनसस्त्यक्तवा ।

योगी स यस्य भजते स्तिमितान्त: करणषट्चरण: ।।१५३।।

अर्थ —जिस योगी का निश्चल मनरूपी भ्रमर समस्त विकल्परूपी अन्य फूलों को छोड़कर उत्कृष्ट आनंद के धारी शुद्धात्मारूपी कमल के रस का सेवन करता है वही योगीश्वर पूजने योग्य है।

भावार्थ —जिस प्रकार भ्रमर संपूर्ण पुष्पों को छोड़कर कमल के रस को आस्वादन करता है उस ही प्रकार जो मुनि समस्त विकल्पों को छोड़कर शुद्धात्मा का आस्वादन करते हैं वे ही भव्य जीवों के पूजने योग्य हैं।।१५३।।

शार्दूलविक्रीडित छन्द

जायन्ते विरसा रसा विघटते गोष्ठीकथाकौतुकं शीर्यन्ते विषयास्तथा विरमति प्रीति: शरीरेऽपि च।

जोषं वागपि धारयत्यविरतानन्दात्मशुद्धात्मनाश्चिंतायामपि यातुमिच्छति समं दोषैर्मन: पञ्चताम् ।।१५४।।

अर्थ —आचार्य कहते हैं कि परमानंदस्वरूप शुद्धात्मा की प्राप्ति तो दूर ही रहो किंतु केवल उसकी चिंता करने पर ही शृंगारादि रस विरस हो जाते हैं स्त्री पुत्र आदि की गोष्ठी (सलाह) नष्ट हो जाती है और उनकी कथा और कुतर्क दूर भग जाते हैं तथा इंद्रियों के विषय भी सर्वथा नष्ट हो जाते हैं और स्त्री पुत्र आदि की प्राप्ति तो दूर ही रही शरीर में भी प्रीति नहीं रहती और वचन भी मौन को धारण कर लेता है और समस्त राग द्वेषादि दोषों के साथ मन भी विनाशक को प्राप्त हो जाता है इसलिये भव्यजीवों को चाहिये कि ये शुद्धात्मा की चिंता ही में निमग्न बने रहें।।१५४।।

"'आचार्य आत्मध्यान का वर्णन करते हैं

आत्मैक: सोपयोगोमम किेमपिततोनान्यदस्तीतिचिंताभ्यासास्ताशेषवस्तो: स्थितपरममुदायद्गतिर्नोविकल्पे।

ग्रामे वा कानने वा जनजनितसुखे नि:सुखे वा प्रदेशे साक्षादाराधना सा श्रुतविशदमतेर्बाह्यमन्यत्समस्तम् ।।

अर्थ —दर्शन ज्ञानमयी आत्मा ही एक मेरा है इससे भिन्न कोई भी वस्तु मेरी नहीं है इस प्रकार की चिंता से जिस मनुष्य के मन की परिणति बाह्यपदार्थों से सर्वथा छूट गई है तथा जिसकी शास्त्र के अभ्यास से बुद्धि निर्मल हो गई है और जो परमानंद का धारी है उस मनुष्य के मन की प्रवृत्ति का विकल्पों से हटजाना तथा गांव में अथवा वन में अथवा मनुष्यों को सुख के उपजाने वाले प्रदेश में अथवा दु:ख उपजावने वाले प्रदेश में भी मन का न जाना किंतु अपने आत्मा के अनुभव मे ही लीन होना यही उत्कृष्ट आराधना है परंतु इससे भिन्न सब बाह्य ह तथा सर्व त्यागने योग्य है।।१५५।।

शार्दूलविक्रीडित छन्द

यद्यन्तर्निहितानि खानि तपसा बाह्येन किं फल्गुना नैवान्तर्निहितानि खानि तपसां बाह्येन किं फल्गुना।

यद्यं तर्वहिरन्यवस्तुतपसा बाह्येन किं फल्गुना नैवान्तर्वहिरन्यवस्तुविषया बाह्येन किं फल्गुना।।१५६।।

अर्थ —आचार्य फिर भी उपदेश देते हैं कि बाह्यवस्तु से जुदे होकर यदि इंद्रियों का शुद्धात्मा के साथ संबंध रहा तो बाह्य में तप करना व्यर्थ है और यदि इन्द्रियों का शुद्धात्मा के साथ संबंध न रहा तो भी तप करना व्यर्थ है और यदि अंतरंग अथवा बाह्य में अन्यपदार्थों की ममता बनी रही तो तप करना व्यर्थ है तथा यदि अंतरंग में तथा बाह्य में किसी पदार्थ से ममता नहीं रही तो भी तप करना व्यर्थ ही है।

भावार्थ — तप इन्द्रिय तथा पदार्थों में ममता के दूर करने के लिये किया जाता है यदि इंद्रियों का संबंध तथा पदार्थों में ममता बनी रही तोभी किया हुवा भी तप व्यर्थ ही है अर्थात् वह तप निष्प्रयोजन ही है यदि इंद्रियों का संबंध टूट गया तथा पदार्थो से ममता भी दूर हो गई तो भी तप करना व्यर्थ ही है जिनके नाश के लिये तप किया जाता है वे तो प्रथम से ही नष्ट हो चुकी इसलिये इंद्रियों का संबंध तथा पदार्थों में ममता दूर करने के लिये ही तप करना चाहिये।।

शुद्धं वागतिवर्तितत्त्वमितरद्वाच्यं च तद्वाचकं शुद्धादेशमिति प्रभेदजनकं शुद्धेतरत्कल्पितं ।

तत्राद्यं श्रयणीयमेव विदुषा शेषद्वयोपायत: सापेक्षा नयसंहति: फलवती संजायते नान्यथा।।१५७।।

अर्थ —ग्रंथकार कहते हैं कि शुद्धनय तो वचन के द्वारा कहा नहीं जा सकता किंतु व्यवहारनय ही वचन के द्वारा कहा जाता है तथा वह व्यवहारनय शुद्धनय को कहने वाला है इसलिये उसको शुद्धादेश शुद्धनय को कहने वाला भी कहते हैं और जो भेद को उत्पन्न कराने वाला है उसको अशुद्धनय कहते हैं इस रीति से शुद्ध शुद्धादेश तथा अशुद्ध के भेद से नय के तीन भेद हुवे उन तीनों में शुद्धनय जो है सो शुद्धादेश तथा अशुद्धनय के उपाय से होता है इसलिये विद्वानों को शुद्धनय का ही आश्रय करना चाहिये तथा यह नियम है कि आपस में एक दूसरे की अपेक्षा करने वाला ही नय का समूह कार्यकारी हो सकता है परन्तु एकान्त से भिन्न नहीं।

भावार्थ — यद्यपि शुद्धनय ही ग्रहण करने योग्य है तथापि व्यवहार बिना शुद्धनय कदापि नहीं हो सकता इसलिये व्यवहार से ही शुद्धनय का सिद्ध करना योग्य है क्योंकि व्यवहार की नहीं अपेक्षा करने वाला शुद्धनय कोई कार्यकारी नहीं तथा निश्चयनय की नहीं अपेक्षा करने वाला व्यवहारनय भी कोई प्रयोजन का नहीं है किंतु एक दूसरे की अपेक्षा करने वाला ही तप कार्यकारी है।१५७।।

फिर भी ग्रंथकार शुद्धात्मा का वर्णन करते हैं।

ज्ञानं दर्शनमप्यशेषविषयं जीवस्य नार्थान्तरं शुद्धादेशविवक्षया स हि ततश्चिद्रूप इत्युच्यते।

पर्यायैश्च गुणेश्च साधुविदिते तस्मिन् गिरा सद्गुरोर्ज्ञातं किं न विलोकितं न किमथ प्राप्तं न किं योगिभि:।।१५८||

अर्थ —यद्यपि व्यवहार नय से ज्ञानदर्शन आत्मा से भिन्न है तथापि शुद्धनय की विवक्षा करने पर समस्त पदार्थों को हाथ की रेखा के समान जानने वाला तथा देखने वाला ज्ञान तथा दर्शन आत्मा से कोई भिन्न वस्तु नहीं है किन्तु दर्शनज्ञान चेतना स्वरूप ही यह आत्मा है इसलिये जिन योगियों ने श्रेष्ठ गुरुओं के उपदेश से यदि गुण तथा पर्यायों सहित आत्मा को जान लिया तो उनने समस्त को जान लिया तथा सबको देख लिया तथा जो कुछ प्राप्त करने योग्य वस्तु थी उस सबको भी पा लिया।।१५८।।

भावार्थ —जिस पुरूष ने दर्शन ज्ञानस्वरूप आत्मा को गुणपर्यायों सहित जान लिया तो समझना चाहिये उसने सबको जान लिया तथा देख लिया।।१५८।।

यत्रान्तर्नं बहि:स्थितं न च दिशि स्थूलं न सूक्ष्मं पुमान्नैव स्त्री न नपुंसकं न गुरुतां प्राप्तं न यल्लाघवम् ।

कर्मस्पर्शशरीरगंधगणनाव्याहारवर्णोज्झितं स्वच्छं ज्ञानदृगेकमूर्तितदहं ज्योति: परं नापरम् ।।१५९।।

अर्थ —आत्मज्ञानी पुरूष इस प्रकार का विचार करता है कि न मैं भीतर हूं न बाहिर हूं न किसी दिशा में हूं न मोटा हूं न पतला हूं न पुरुष हूं न स्त्री हूं न नपुंसक हूं न भारी हूं न हलका हूं और न मेरा धर्म है न स्पर्श है न शरीर है न गंध है न संख्या है न शब्द है न वर्ण है तथा जो अत्यंत स्वच्छ तथा ज्ञान दर्शनमयी मूर्ति की धारक ज्योति है वही मैं हूं और उससे भिन्न कोई नहीं हूं।

भावार्थ — ज्ञानी पुरूष इस बात का विचार करता है कि स्थूल सूक्ष्मादिक तथा स्त्री पुरूष नपुंसकादिक तथा स्पर्श रस गन्धादिक सब पुद्गल के विकार हैं तथा मैं उनसे सर्वथा भिन्न हूं किन्तु मेरी एक ज्ञान दर्शनमयी ही मूर्ति है।।१५१।।

और भी आचार्य शुद्धात्मा का वर्णन करते हैं।

जानाति स्वयमेव यद्धि मनसश्चिद्रूपमानंदवत्प्रोच्छिन्ने यदनाद्यमंदमसकृन्मोहान्धकारे हठात् ।

सूर्याचन्द्रमसावतीत्य यदहो विश्वप्रकाशात्मकं तज्जीयात्सहजं सुनिष्कलमहं शब्दाभिधेयं मह:।।१६०।।

अर्थ —आनंद के धारी जिस चैतन्य रूपी तेज को अनादिकाल से विद्यमान तथा गाढ मोहरूपी अंधकार को तप के द्वारा सर्वथा नाशकर केवलज्ञान के धारी पुरूष अपने आप जान लेते हैं तथा तो चैतन्यरूपी तेज सूर्य चन्द्रमा के तेज को फीका करने वाला है तथा समस्त पदार्थों का भलीभांति प्रकाश करने वाला है और जिसका मैं (अहम्) इस शब्द से अनुभव होता है तथा जो स्वाभाविक है ऐसा वह चैतन्यरूपी तेज सदा काल जयवन्त रहो।।१६०।।

ज्ञानी पुरूष इस प्रकार का भी विचार करता है

वसन्ततिलका छन्द

यज्जायते किमपि कर्मवशादसातं सातं च यत्तदनुयायि विकल्पजालम् ।

जातं मनागपि न यत्र पदं तदेव देवेन्द्रवन्दितमहं शरणं गतोऽस्मि ।।१६१।।

अर्थ —जिस मोक्ष पद में न तो कर्म के वश से साता होती है और न कर्म के वश से असाता होती है तथा न उन साता तथा असाता के अभाव जहां पर किसी प्रकार के विकल्प ही उठते हैं और जिस पद की बड़े—२ इंद्रादिक भी स्तुति करते हैं ऐसे मोक्षपद के शरण को मैं प्राप्त होना चाहता हूं।।१६१।।

आगे आचार्य और भी ज्ञानी के विचार को दिखाते हैं

शार्दूलविक्रीडित छन्द

धिक्कान्तास्तनमण्डलं धिगमलप्रालेयरोचि:करान् धिक्कर्पूरविमिश्रचंदनरसं धिक् ताञ्जलादीनपि ।

यत्प्राप्तं न कदाचिदत्र तदिदं संसारसंतापहृत् लग्नं चेदिति शीतलं गुरुवचो दिव्यामृतं मे हृदि।।१६२।।

अर्थ —संसार में यह बात भली भांति प्रचलित है तथा अज्ञानी मनुष्य इस बात को मानते भी हैं कि यदि किसी प्रकार का संताप हो जावे तो उस संताप प्राणी को स्त्री के स्तनों के स्पर्श से तथा चन्द्रमा की किरण आदि के सेवन से संताप को दूर कर देना चाहिये परंतु ज्ञानी मनुष्य इस बात को सर्वथा नहीं मानता तथा इससे विपरीत ही विचार करता है अर्थात् वह कहता है कि जिसकी कभी भी प्राप्ती नहीं हुई है तथा जो सब संसार के दु:खों को दूर करने वाला है और जो अत्यंत शीतल है ऐसा यदि गुरूओं का वचन मेरे मन में मौजूद है तो जिनको मनुष्य शीतल करने वाले कहते हैं ऐसे स्त्री के कुचों को धिक्कार हो तथा चंद्रमा की शीतल किरणों को धिक्कार रहो तथा कर्पूर मिले हुवे चंदन के रस को धिक्कार हो तथा जल आदि को भी धिक्कार हो।

भावार्थ — सिवाय गुरु के उपदेश के ये समस्त चीजें संताप ही की करने वाली हैं अंश मात्र भी शांति की करने वाली नहीं है इसलिये जो मनुष्य शांति के अभिलाषी हैं उनको गुरु के वचन का ही आश्रय लेना चाहिये।।१६२।।

अब आचार्य शुद्धात्मा की परिणतिस्वरूप धर्म में मग्न हुवे योगियों को नमस्कार करते हैं

जित्वा मोहमहाभटं भवपथे दत्तोग्रदु:खश्रमे विश्रान्ता विजनेषु योगिपथिका दीर्घे चरन्त: क्रमात् ।

प्राप्ता ज्ञानधनाश्चिरादभिमतं स्वात्मोपलं तिष्ठति नित्यानंदकलत्रसंगसुखिनो ये तत्र तेभ्यो नम:।।१६३।।

अर्थ — जो योगीश्वर रूप पथिक अत्यंत दु:ख को देने वाले संसाररूपी विशाल मार्ग में विचरते हुवे समस्त ज्ञानादिक धन को चुराने वाले मोह रूपी योधा को जीतकर निर्जन स्थान में विश्राम लेते हैं तथा जो ज्ञानरूपी धन के स्वामी हैं और जिसका कभी भी नहीं नाश होने वाला है ऐसा जो आत्मिक सुखरूपी स्त्री उसके संग से जो सदा सुखी है तथा अपने आत्मा के स्वरूप की जहां पर प्राप्ति होती है ऐसे स्थान में विराजमान हैं उन योगियों को मैं नमस्कार करता हूं।

भावार्थ —जिस प्रकार कोई धनयुक्त पथिक किसी बड़े मार्ग में मिले हुवे चोरों को जीतकर तथा अपने धन को बचाकर जब वांछित स्थान पर पहुंच जाता है तब वह अपनी स्त्री के साथ नाना प्रकार के भोगविलासों को करता हुवा सुख से रहता है उस ही प्रकार जिन योगिश्वरों ने संसाररूपी गहन मार्ग में रहने वाले तथा ज्ञानरूपी धन को चुराने वाले मोहरूपी ठग को जीतकर अपने ज्ञान धन की रक्षा की है तथा जो मोक्षरूपी स्त्री के साथ नाना प्रकार के सुखों का भोग करते हैं और अपने आत्मस्वरूप में लीन हैं ऐसे उन योगीश्वरों को मैं मस्तक नवाकर नमस्कार करता हूं।।१६३।।

धर्म की महिमा का तथा धर्म के उपदेश

स्रग्धरा छन्द

इत्यादिर्धर्म एष क्षितिपसुरसुखानघ्र्यमाणिक्यकोष: पायो दु:खनलानां परमपदलसत्सौधसोपानराजि:।

एतन्माहात्म्यमीश: कथयतिजगतांकेवलीसाध्वेधीति सर्वस्म्न्विाङ्येथस्मरति परमहोमादृशस्तस्यनाम।।

अर्थ — ग्रन्थकार कहते हैं कि पूर्व में जो दया आदिक पांच प्रकार का धर्म कहा है वह धर्म बड़े—२ चक्रवर्ती आदिक राजाओं के तथा इंद्र अहमिन्द्र आदि के सुख का देने वाला है तथा समस्त दु:खों को मूल से नाश करने वाला है और वह धर्म निर्वाणरूपी महल के चढ़ने के लिये पैड़ी के समान है अर्थात् जो मनुष्य धर्म को धारण करता है उनको मोक्ष की प्राप्ति होती है । ऐसे उस धर्म के माहात्म्य को साक्षात्केवली अथवा समस्त द्वादशांग के पाठी गणधर ही वर्णन कर सकते हैं परन्तु मेरे समान मनुष्य तो केवल उसके नाम को ही स्मरण कर सकते हैं।

भावार्थ — धर्म ही महिमा का वर्णन सिवाय केवली अथवा गणधर देव के दूसरा कोई नहीं कर सकता।।१६४।। धर्म ही धारण करने योग्य है ऐसा उपदेश कहते हैं।


शार्दूलविक्रीडित छन्द

शश्वज्जन्मजरान्तकालविलसद्दु:खौघसारीभवत् संसारोग्रमहारुजोऽपहृतयेऽनन्तप्रमोदाय वै।

एतद्धर्मरसायनं ननु बुधा: कर्तुं मतिश्चेत्तदा मिथ्यात्वाविरतिप्रमादनिकर: क्रोधादि संत्यज्यताम् ।।१६५।।।

अर्थ —भो भव्य जीवो यदि तुम निरन्तर जन्म जरा मरण आदिक समस्त दु:खों को देने वाले संसाररूपी भयंकर रोगों को दूर करने के लिये धर्मरूपी रसायन का आश्रय लेना चाहते हो तथा अनन्त सुख की प्राप्ति के लिये भी धर्मरूपी रसायन का आश्रय करना चाहते हो तो मिथ्यात्व अविरति प्रमाद तथा क्रोधादि कषायों का सर्वथा त्याग करो।

भावार्थ — जब तक क्रोधादि कषायों का आत्मा के साथ संबंध रहेगा तब तक न तुम नाना दु:खों के देने वाले संसार रूपी महारोग का शमन कर सकते हो और न तुम अविनाशी सुख की तरफ झांक सकते हो इसलिये यदि तुम संसाररूपी महारोग के दूर करने की अभिलाषा करते हो तथा यदि तुम अविनाशी सुख को चाहते हो तो मिथ्यात्व आदि की तरफ झांक झांक करके भी न देखो।।१६५।।

अब आचार्य धर्म का दुर्लभपना दिखाते हैं।

नष्ट रत्नमिवाम्बुधौ निधिरिव प्रभ्रष्टद्दष्टेर्यथा योगो यूपशलाकयोश्च गतयो: पूर्वापरौ तोयधी।

संसारेऽत्र तथा नरत्वमसकृद्दु:खप्रदे दुर्लभं लब्धे तत्र च जन्म निर्मलकुले तत्रापि धर्मे मति:।।१६६।।

अर्थ —जिस प्रकार अथाह समुद्र में यदि रत्न गिर पड़े फिर उसका मिलना बहुत कठिन है तथा जैसे अंधे को निधि मिलना अत्यंत दुर्लभ है और जिस प्रकार समुद्र में किसी स्थान पर दो काष्ठ खण्डों को छोड़ देना उनमें एक को पूर्व दिशा की ओर बहा देना तथा दूसरे को पश्चिम दिशा की ओर को बहा देना फिर उनका उस ही स्थान पर मिलना दु:साध्य है उस ही प्रकार निरंतर नाना प्रकार के दु:खों के देने वाले इस संसार में मनुष्य जन्म का पाना बहुत कठिन है यदि दैवयोग से मनुष्य जन्म भी मिल जावे तो फिर उत्तम कुल मिलना अत्यन्त दुर्लभ है यदि किसी समय में उत्तमकुल की भी प्राप्ति हो जावे तो फिर धर्म में श्रद्धा होना अत्यंत दु:साध्य है इसलिये भव्यजीवों को ऐसे अत्यन्त दुर्लभ धर्म की अवश्य उपासना करनी चाहिये।।१६६।।

अब आचार्य इस बात को दिखाते हैं कि अत्यंत दुर्लभ धर्म आदिक वस्तु खोटे उपदेश से प्राणियों के व्यर्थ चली जाती है।

न्यायादंधकवर्तकीयकजनाख्यानस्य संसारिणां प्राप्तं वा बहुकल्पकोटिभिरिदं कृच्छ्रान्नरत्वं यदि।

मिथ्यादेवगुरूपदेशविषयव्यामोहनीचान्वयप्रायै: प्राणभृतां तदेव सहसा वैफल्यमागच्छति।।१६७।।

अर्थ — प्रथमतो मनुष्य जन्म पाना संसार में अत्यंत कठिन काम है दैवयोग से अंधे के हाथ में बटेर के समान करोड़ों कल्पों(कल्पकाल) के बाद यदि इस अत्यंत दु:साध्य मनुष्य जन्म की प्राप्ति भी हो जावे तो वह मनुष्य जन्म खोटे देव तथा खोटे गुरूओं के उपदेश से निष्फल चला जाता है तथा विषयों में आसक्तता से तथा व्यसनादिक नीचकार्य करने से भी वह बात की बात में व्यर्थ चला जाता है।

भावार्थ — बटेर एक जाति का अत्यंत चंचल पक्षी होता है वह चतुर से चतुर भी नेत्रधारियों के हाथ में बड़ी कठिनता से आता है फिर अंधे के हाथ में आना तो उसका अत्यन्त ही कठिन है यदि दैवयोग से वह अंधे के हाथ में आ जावे तो जिस प्रकार उसका आना बहुत कठिन समझा जाता है उस ही प्रकार यह मनुष्य जन्म है क्योंकि सबसे निकृष्ट निगोद राशि है उसमें से निकलकर बड़े पुण्य के उदय से यह जीव एकेंद्री होता है फिर दोइंद्री तेइंद्री चौइंद्री पञ्चेंद्री होता है फिर बड़े पुण्य के उदय से इस मनुष्य जन्म को धारण करता है किन्तु ऐसा भी कठिन वह मनुष्य जन्म खोटे देव तथा गुरू आदि के उपदेश आदि से व्यर्थ ही चला जाता है इसलिये भव्य जीवों को चाहिये कि ऐसे दुर्लभ मनुष्य जन्म को पाकर वे खोटे देव की सेवा तथा खोटे गुरुओं के उपदेश का श्रवण न करे तथा विषयों में भी मग्न न रहें।।१६७।।

कुगुरु कुदेवादि की सेवा आदि के त्याग से ही मनुष्य जन्म सफल होता है ऐसा आचार्य वर्णन करते हैं।

वसंततिलका छन्द

लब्धे कथं कथमपीह मनुष्यजन्मन्यङ्गप्रसंगवशतो हि कुरु स्वकार्यम् ।

प्राप्तं तु कामपि गतिं कुमते तिरश्चां कस्त्वां भविष्यति विवोधायितुं समर्थ:।।१६८।।

अर्थ — हे भव्यजीव बड़े पुण्य कर्म के उदय से तुझे इस मनुष्य जन्म की प्राप्ति हुई है इसलिये शीघ्र ही कोई अपने हित का करने वाला काम कर नहीं तो रे मूर्ख जिस समय तिर्यंच आदि खोटी गति को प्राप्त हो जावेगा तो वहां पर तुझे कोई समझा भी नहीं सकेगा।

भावार्थ — समझाने पर मनुष्य ही शीघ्र समझ सकता है पशु में यह शक्ति नहीं है जो समझाने पर समझ जावे इसलिये भव्यजीवों को मनुष्य जन्म में ही ऐसा काम करना चाहिये जिससे वे तिर्यंच आदि खोटी गति को न प्राप्त होवें तथा वहां पर वे नाना प्रकार के दु:ख न भोगें।।१६८।।

और भी आचार्य उपदेश देते हैं।

शार्दूलविक्रीडित छन्द

जन्म प्राप्य नरेषु निर्मलकुले क्लेशान्मते: पाटवं भक्तिंं जैनमते कथं कथमपि प्रागर्जिताच्छ्रेयस: ।

संसारार्णवतारकं सुखकरं धर्मं न ये कुर्वते हस्तप्राप्यमनर्घ्यरत्नमपि ते मुञ्चन्ति दुर्बुद्धय:।।१६९।।

अर्थ —जो मनुष्य अत्यन्त कठिन मनुष्य जन्म को पाकर तथा उत्तम कुल को पाकर तथा किसी प्रकार पूर्वकाल में उपार्जन किये हुवे पुण्य के उदय से जैन धर्म के भक्त भी होकर संसार समुद्र से पार करने वाले तथा नाना प्रकार के सुख के देने वाले धर्म की सेवा नही करते हैं वे मूर्ख हाथ में आये हुवे अमूल्य रत्न को छोड़ देते हैं।

भावार्थ — प्रथम तो रत्न की प्राप्ति ही अत्यन्त कठिन है यदि प्राप्त भी हो जावे तो उसको व्यर्थ फेंक देना सर्वथा मूर्खता है उस ही प्रकार उत्तम कुलादि को प्राप्त कर धर्म का न करना भी मूर्खता है इसलिये भव्य जीवों को धर्म की अवश्य उपासना करना चाहिये।।१६९।। जो मनुष्य अवसर पाकर भी धर्म नहीं करते हैं उनकी ग्रन्थकार निंदा करते हैं।

तिष्ठत्यायुरतीव दीर्घमखिलान्यङ्गानि दूरं दृढान्येषा श्रीरपि मे वशं गतवती किं व्याकुलत्वं मुधा।

आयत्यां निरवग्रहो गतवया धर्म करिष्ये भरादित्येवं वत चिंतयन्नपि जडो यात्यंतकग्रासताम् ।।१७०।।

अर्थ —अभी मेरी आयु बहुत है हाथ पैर नाक कान आदिक भी मजबूत हैं तथा लक्ष्मी मेरे विद्यमान हैं इसलिये व्यर्थ धर्मादि के लिये क्यों व्याकुल होना चाहिये किंतु इस समय तो आनंद से भोगों का भोगना चाहिये भविष्यत् काल में जिस समय वृद्ध हो जाऊंगा उस समय निश्चय कर अच्छी तरह धर्म का आराधन करूंगा इस प्रकार विचार करता ही करता मूर्ख मर जाता है इसलिये विद्वानों को चाहिये कि वे मृत्यु सदा शिर पर छाई हुई है इस भय से निरंतर धर्म की आराधना करें।।१७०।।

आर्या छन्द

पलितैकंदर्शनादपि सरति सतश्चित्तमाशु वैराग्यम् ।

प्रतिदिनमितरस्य पुन: सह जरया वद्र्धते तृष्णा।।१७१।।

अर्थ —जो पुरूष ज्ञानी हैं वे तो सफेद केश को देखते ही वैराग्य को प्राप्त होते हैं किंतु जो मनुष्य ज्ञानरहित हैं उनको तो जैसा—२ सफेद केशों का दर्शन होता जाता है वैसी वैसी ही उनकी तृष्णा और भी बढ़ती चली जाती है और उनको वैराग्य की बात भी बुरी लगती है।।१७१।।

तथा वे अज्ञानी पुरूष तृष्णा को इस प्रकार कहते हैं।

मन्दाक्रान्ताछन्द

आजातेर्नस्त्वमसि दयिता नित्यमासन्नगासि प्रौढास्याशे किमथ वहुना स्त्रीत्वमालम्बितासि ।

अस्मत्केशग्रहणमकरोदग्रतस्ते जरेयं मर्षस्येतन्मम च हतके स्नेहलाद्यापि चित्रम् ।।१७२।।

अर्थ — हे तृष्णे! आजन्म से तू हमारी प्रिया है और तू सदा हमारे पास रहने वाली है तथा तू प्रौढ़ा है और अधिक कहां तक कहा जाय तू साक्षात् हमारी स्त्री ही है परंतु अरे दुष्ट तेरे सामने भी इस जरा ने हमारे केश पकड़ लिये हैं तो भी तू सहन करती है फिर भी तो हमारी प्यारी है यह बड़े आश्चर्य की बात हैै।

भावार्थ — स्त्री का यह स्वभाव होता है कि यदि वह अपने बडी भारी ईर्षा करती है पति के साथ किसी दूसरी स्त्री को क्रीड़ा करती तथा रमण करती देख लेवे तो उससे बड़ी भारी ईर्षा करती है तथा तत्काल ही उसका पति के साथ संबंध छुड़ाने की चेष्टा करती है यदि संबंध न छूट सके तो प्रीति तो अवश्य ही छुड़ा देती है अतएव अज्ञानी पुरूष इस प्रकार तृष्णा को संबोधते हैं कि अतिप्रिये तृष्णे! इस जरा ने हमारे केश पकड़ लिये हैं तो भी तू कुछ नहीं कहती है अर्थात् तुझे इसका हमारे साथ संबंध छुटा देना चाहिये।।१७२।।

और भी आचार्य उपदेश देते हैं।

बसंतलिका छन्द

रज्रयते परिवृढोऽपि दृढोऽपि मृत्युमभ्येति दैववशत: क्षणतोऽत्र लोके।

तत्क: करोति मदमम्बुजपत्रवारिविन्दूपमैर्धनकलेवरजीविताद्यै:।।१७३।।

अर्थ —जो मनुष्य इस संसार में धनी हैं वह क्षणभर में रंक हो जाता है और जो रंक है वह पलभर में धनी हो जाता है तथा जो बलवान् दीखता है वह दैवयोग से मृत्यु को प्राप्त हो जाता है इसलिये ऐसा कौन बुद्धिमान है जो ‘‘धन शरीर जीवन आदि को’’ कमल के पत्ते पर जल की बूंद के समान विनाशीक जानकर भी मद करे अर्थात् कोई भी मद नहीं कर सकता।।१७३।।

आगे आचार्य इस बात को दिखाते हैं कि स्त्री पुत्र आदिक यद्यपि विनाशीक है तो भी मोह से मालूम होते विपरीत ही है।

शार्दूलविक्रीडितछन्द

प्रातर्दर्भदलाग्रकोटिघटितावश्यायविन्दूत्करप्राया: प्राणधनांगजप्रणयिनीमित्रादयो देहिनाम्

अक्षाणां सुखमेतदुग्रविषवद्धर्मं विहाय स्फुटं सर्वं भङ्गुरमत्रदु:खदमहो: मोह: करोत्यन्यथा।।१७४।।

अर्थ —संसार में प्राणियों के प्राण हाथी, स्त्री,मित्र,पुत्र आदिक प्रात: काल में दर्भ के पत्ते के अग्रभाग पर लगे हुवे ओस के बूंद के समान चंचल हैं और इंद्रियों से उत्पन्न हुवे सुख भयंकर जहर के समान हैं तथा एक धर्म तो अविनाशीक तथा सुख का देने वाला है किन्तु धर्म से भिन्न समस्त वस्तु क्षणभर में विनाशीक है तथा दु:ख देने वाली है परन्तु यह मोह अन्यथा ही करता है अर्थात् जो वस्तु नित्य तथा सुख की देने वाली हैं वे मोह के उदय से अनित्य तथा दु:ख के देने वाली मालूम पड़ती हैं और जो वस्तु अनित्य तथा दु:ख के देने वाली है वे मोह के सवव नित्य तथा सुख की देने वाली जान पड़ती है।।१७४।।

अब आचार्य इस बात को दिखाते हैं कि जब तक काल सम्मुख नहीं आता तब तक समस्त पुरूषार्थ चलता है इसलिये काल रोकने का उपाय करना चाहिये।

तावद्वल्गति वैरिणां प्रति चमूस्तावत्परं पौरूषं तीक्ष्णस्तावदसिर्भुजौ दृढतरौ तावच्च कोपोद्गम: ।

भूपस्यापि यमो न यावददय: क्षुत्पीडित: सम्मुखं धावत्यन्तरिदं विचिन्त्य विदुषा तद्रोधको मृग्यते।।

अर्थ —जब तक क्षुधाकर पीड़ित यह निर्दयीकाल राजा के भी सामने नहीं पड़ता तब तक उस राजा की सेना भी जहां तहां उछलती फिरती है तथा उत्कृष्ट पौरूष भी मालूम पड़ता है तथा तब तक तलवार खूब शत्रुओं के नाश करने के लिये पैनी बनी रहती है तथा भुजा भी बलवान रहती है और कोप का भी उदय रहता है परन्तु जिस समय वह कालवली सामने पड़ जाता है तब ऊपर लिखी हुई बातों में से एक भी बात नहीं होती ऐसा भलीभांति विचार कर विद्वान् पुरूष उस काल के रोकने वाले को ढूंढ़ते हैं।

भावार्थ — इस कालवली को रोकने वाला मात्र एक जिनेन्द्र का धर्म ही है क्योंकि धर्मात्माओं का काल कुछ नहीं कर सकता इसलिये भव्य जीवों को चाहिये कि वे धर्म की आराधना करेंं ।।१७५।।

और भी आचार्य उपदेश देते हैं—

मालिनी छन्द

रतिजलरममाणो मृत्युकैवर्तहस्तप्रसृघनजरोरूप्रोल्लसज्जालमध्ये।

विकटमपि न पश्यत्यापदां चक्रमुग्रं भवसरसि वराको लोकमीनौघ एष:।।१७६।।

अर्थ — जिस प्रकार मल्लाकार बिछाये हुवे जाल में रहकर भी मछलियों का समूह जल में क्रीड़ा करता रहता है किंतु मारे जायेंगे इस प्रकार आई हुई आपत्ति पर कुछ भी ध्यान नहीं देता उस ही प्रकार यह लोकरूपी मीनों का समूह मृत्युरूपी मल्लाकर बिछाये हुवे प्रबल जरारूपी जाल में रहकर इंद्रियों के विषय में प्रीतिरूपी जो जल उसमें निरन्तर क्रीड़ा ही करता रहता है किन्तु आने वाली नरकादि आपत्तियों पर कुछ भी विचार नहीं करता।।१७६।।

धर्म से ही मृत्यु जीती जाती है इस बात को दिखाते हैं—

क्षुद्भुक्तेस्तृडपीह शीतलजलाद् भूतादिका मन्त्रत: सामादेरहितो गदाद्गदगृण: शांतिं नृभिर्नीयते

नो मृत्युस्तु सुरैरपीति हि मृते मित्रेऽपि पुत्रेऽपि वा शोको न क्रियते वुधै: परमहो धर्मस्ततस्तज्जय: ।।

अर्थ — मनुष्य क्षुधा को भोजन से, प्यास को शीतल जल के पीने से तथा भुतादिकों को मंत्र से तथा वैरी को साम दाम दण्डादिक से और रोग को औषधि आदि से शान्त कर लेते हैं परन्तु मृत्यु को देवादिक भी शान्त नहीं कर सकते इसलिये विद्वान् पुरूष मित्र तथा पुत्र के मर जाने पर भी शोक नहीं करते किन्तु वे उत्तम धर्म का ही आराधन करते हैं क्योंकि वे समझते हैं कि उत्तम धर्म से ही मृत्यु का जय होता है।

भावार्थ — इस संसार में समस्त रोगादि की शान्ति के उपाय मौजूद हैं परन्तु मृत्यु की शान्ति का सिवाय धर्म के दूसरा कोई उपाय नहीं इसलिये विद्वानों को यदि मृत्यु से बचना है तो उनको अवश्य ही धर्म की आराधना करनी चाहिये।।१७७।।

आचार्य धर्म की ही महिमा का वर्णन करते हैं—

मंदाक्रांता छन्द

त्यक्त्वा दूरं विधरपयसो दुर्गतिक्लिष्टकृच्छ्रातृ लब्धानंदं सुचिरममरश्रीसरस्यां रमन्ते।

इत्येतस्या नृपपदसरस्यक्षयं धर्मपक्षा यान्त्येतस्मादपि शिवपदं मानसं भव्यहंसा:।।१७८।।

अर्थ —जिस प्रकार हंस नामक पक्षी खराब जल के भरे हुवे तालाब को छोड़कर निर्मल जल के भरे हुवे सरोवर में अपने पंखों के बल से चला जाता है तथा वहां पर चिरकाल तक आनंद से क्रीड़ा करता है तथा अपने पंखों के ही बल से उस सरोवर को छोड़कर दूसरे सरोवर को चला जाता है इस ही प्रकार क्रमश: नाना उत्तम सरोवरों के आनंद को भोगता—२ वही हंस मानस सरोवर को प्राप्त हो जाता है तथा वह वहां पर चिरकाल तक नाना प्रकार के आनन्दों का भोग करता है उस ही प्रकार ये भव्यरूपी हंस भी धर्मरूपी पंख के बल से दुखरूपी जल से भरे हुये दुर्गतिरूप तालाब को छोड़कर देवलोक संबंधी जो लक्ष्मीरूपी सरोवरी उसमें आनंद के साथ चिरकाल तक क्रीड़ा करते हैं तथा उसको भी छोड़कर धर्म के ही बल से ही वे नाना प्रकार के चक्रवर्ती आदि राजाओं के पदरूपी सरोवर में क्रीड़ा करते हैं ‘‘ अर्थात् चक्रवर्ती आदि पद का भोग करते है’’ पीछे उससे विमुख होकर धर्म के बल से वे भव्यरूपी हंस मोक्षपदरूपी मानस सरोवर को प्राप्त हो जाते हैं इसलिये भव्यों को चाहिये कि वे ऐसे माहात्म्य सहित धर्म का सदा आराधन करें।।१७८।|

और भी धर्म के माहात्म्य को दिखाते हैं-

शार्दूलविक्रीडित छन्द

जायन्ते जिनचक्रवर्तिवलभृद् भोगीन्द्रकृष्णादयो धर्मादेव दिगङ्गनाङ्गविलसच्छश्वद्यशश्चन्दना:।

तद्धीना नरकादियोनिषु नरा दु:खं सहन्ते ध्रुवं पापेनेति विजानता किमिति नो धर्म: सता सेव्यते।।

अर्थ —जो मनुष्य धर्मात्मा हैं वे मनुष्य धर्म के बल से ही तीर्थंकर चक्रवर्ती बलभद्र धरणेन्द्र नारायण प्रतिनारायण आदि पद के धारी हो जाते हैं तथा उनकी कीर्ति समस्त दिशाओं में एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक फैल जाती है और जो धर्म से रहित हैं वे तो निश्चयकर नरकादि योनियों में नाना प्रकार के दु:खों को ही सहते हैं ऐसा जानते हुवे भी आचार्य कहते हैं कि विद्वान् मनुष्य धर्म की क्यों नहीं आराधना करते अर्थात् उनको अवश्य धर्म की आराधना करनी चाहिये।।१७९।।

धर्म की ही महिमा और दिखाते हैं—

स स्वर्ग: सुखरामणीयकपदं ते ते प्रदेश परा: सारा सा च विमानराजिरतुलप्रेंखत्पताकापटा:।

ते देवाश्चपदातय: परिलसत्तन्नंदनं तास्त्रिय: शक्रत्वं पदनिंद्यमेतदाखिलं धर्मस्य विस्फूर्जितम् ।।१८०।।

अर्थ — सुख तथा सुंदरता का अद्वितीय स्थान तो वह स्वर्ग तथा वे वे महामनोहर स्वर्गों के प्रदेश तथा जिनके ऊपर अनुपम पताका उड़ रही है ऐसे वे विमानों की पंक्ति और प्यादे स्वरूप वे देवता तथा वह मनोहर नन्दनवन और वे मनोहर देवांगना तथा वह अत्यन्त निर्मल इंद्रपना इत्यादि समस्त विभूति धर्म के ही महात्म्य से मिलती है इसलिये ऐसे पवित्र धर्म का आराधन भव्यजीवों को अवश्य करना चाहिये।१८०।।

और भी धर्म की महिमा ही का वर्णन करते हैं—

यत् षट्खण्डमही नवोरुनिधयो द्वि:सप्त रत्नानि यत्तुङ्गा यद्द्विरदा रथाश्च चतुराशीतिश्च लक्षाणि यत् ।

यच्चाष्टादश कोटयश्च तुरगा योषित्सहस्त्राणि यत् षट्युक्ता नवतिर्यदेकविभुता तद्धाम धर्मप्रभो: ।।

अर्थ —वह तोछै खंड की पृथ्वी और वे बड़ी —२ नौ निधि तथा वे समस्तसिद्धि के करने वाले चौदहरत्न और वे चौरासी लाख बड़े—२ हाथी तथा विमान के समान चौरासी लाख बड़े—२ रथ और वे अठारह करोड़ पवन के समान चंचल घोड़े तथा वे देवांगना के समान छानबे हजार स्त्रियां तथा वह इन समस्त विभूतियों का चक्रवर्तिपना इत्यादि समस्तविभूति धर्म के प्रताप से ही मिलती है। इसलिये भव्यजीवों को ऐसे धर्म की आराधना अवश्य करनी चाहिये।।१८१।।

धर्म की महिमा ही को और कहते हैं—

धर्मो रक्षति रक्षतो ननु हतो हन्ति ध्रुवं देहिनां हन्तव्यो न तत: स एव शरणं संसारिणां सर्वथा।

धर्म: प्रापयतीह तत्पदमपिध्यायन्ति यद्योगिनो धर्मात्सत्सुहृदस्ति नैव च सुखी नो पण्डिता धार्मिकात् ।।

अर्थ —धर्म की रक्षा होने पर तो धर्म प्राणियों की रक्षा करता है परन्तु नाश होने पर वह प्राणियों का भी नाश कर देता है इसलिये भव्यजीवों को कदापि धर्म का नाश नहीं करना चाहिये क्योंकि समस्त प्राणियों का सहायक धर्म ही है तथा जिस (मोक्ष) पद को योगीश्वर सदा ध्यान करते रहते हैं उस पद को भी देने वाला है इसलिये धर्म से बढ़कर कोई भी सच्चा मित्र नहीं है और धर्मात्मा पुरूष से अधिक कोई भी सुखी नहीं है।

भावार्थ — समस्त सुख तथा समस्त गुणों का कारण एक रक्षा किया हुवा धर्म ही है इसलिये जो पुरूष सुख के अभिलाषी हैं तथा गुणी बनना चाहते हैं उनको सबसे पहले धर्म की रक्षा करनी चाहिये।।१८२।।

और भी आचार्य उपदेश देते हैं—

नानायोनिजलौघलङ्घितदिशि क्लेशोर्मिजालाकुले प्रोद्भूताद्भुतभूरिकर्ममकरग्रासीकृतप्राणिनि।

दुष्पर्यन्तगंभीरभीषणतरे जन्माम्बुधौ मज्जतां नो धर्मादपरोऽस्ति तारक इहाश्रान्तं यतध्वं बुध:।।१८३।।

अर्थ —अनेक प्रकार की जो नरकादि योनि वे ही हुवाजल उससे जिसने समस्त दिशाओं को व्याप्तकर लिया है तथा नाना प्रकार के दु:खरूपी तरंगें जिसमें मौजूद हैं और उत्पन्न हुवे जो नाना प्रकार के शुभाशुभकर्म वे ही हुवे मगर उनके द्वारा जिसमे जीव खाये जा रहे हैं और न जिसका अंत है तथा जो गंभीर तथा भयंकर है ऐसे संसार रूपी समुद्र में डूबते हुवे जीवों को पार करने वाला एक धर्म ही है इसलिये विद्वानों को चाहिये कि वे सदा धर्मं के करने में ही प्रयत्न करें।

भावार्थ — जिस प्रकार जिस समुद्र का जल चारों दिशाओं में फैला हुवा है और जिसमें बड़ी—२ लहरें उठ रही हैं तथा भयंकर नाके जिसमें दीन प्राणियों को खारहे हैं और जिसका अंत नहीं है तथा गंभीर और भयंकर है ऐसे समुद्र के बीच में पड़ा हुवा मनुष्य बिना किसी जहाज आदि के नहीं तर सकता। उस ही प्रकार इस संसाररूपी समुद्र में डूबे प्राणी भी बिना धर्म के सहारे किसी प्रकार नहीं तर सकते क्योंकि यह संसाररूपी समुद्र भी नाना प्रकार की योनिरूपी जल से समस्त दिशाओं को व्याप्त करने वाला है तथा इसमें भी नाना प्रकार के दु:खरूपी तरंगें मौजूद हैं और कर्मरूपी मगरों से सदा इसमें भी जीव खाये जाते हैं तथा इस संसाररूपी समुद्र का अंत भी नहीं है तथा गंभीर और भयंकर भी है इसलिये विद्वानों को सदा धर्म में ही यत्न करना चाहिये।।१८३।।

और भी आचार्य धर्म की महिमा का वर्णन करते हैं—

जन्मोच्चै: कुल एव सम्पदधिके लावण्यवारां निधिर्नीरोगं वपुरायुरादि सकलं धर्माद्ध्रुवं जायते।

सा न श्रीरथवा जगत्सु न सुखं तत्तेन शुभ्रा गुणायैरुत्कण्ठितमानसैरिव नरो नाश्रीयते धार्मिक:।।

अर्थ —संपदाकर अधिक उत्तमकुल में जन्म तथा लावण्य और निरोग शरीर तथा आयु आदि समस्त बात निश्चय से धर्म के प्रताप से ही मिलती हैं। और वह कोई लक्ष्मी नहीं है जो एकदम आकर धर्मात्मा पुरूष का आश्रय न ले तथा वह उत्तम सुख तथा वे निर्मल गुण भी संसार के भीतर कोई नहीं है जो धर्मात्मा पुरूष को स्वयमेव आकर आश्रय न करें।

भावार्थ — धर्मात्मा पुरूष को उत्तम से उत्तम लक्ष्मी तथा श्रेष्ठ से श्रेष्ठ सुख और समस्त निर्मल गुणों की प्राप्ति होती है इसलिये जो पुरूष इन बातों को चाहते हैं उनको भलीभांति धर्म का आराधन करना चाहिये।।१८४।

और भी धर्म की महिमा ही का वर्णन किया जाता है।

भृङ्गा पुष्पितकेतकीमिव मृगा वन्यामिव स्वस्थलीं नद्य: सिन्धुमिवाम्बुजाकरमिव श्वेतच्छदा: पक्षिण:।

शौर्यत्यागविक्रमयश: सम्पत्सहायादय: सर्वे धार्मिकमाश्रयन्ति न हितं धर्मं विना किञ्चन।।१८५।।

अर्थ —जिस प्रकार भौंरा स्वयमेव आकर फूली हुई केतकी का आश्रय कर लेता है तथा जिस प्रकार मृग वन में अपने रहने के स्थान को स्वयमेव जाकर आश्रय कर लेते हैं तथा जिस प्रकार नदी स्वयमेव समुद्र को प्राप्त हो जाती है और जिस प्रकार हंस नामक पक्षी मानसरोवर को स्वयमेव प्राप्त कर लेते हैं उस ही प्रकार वीरत्व दान विवेक विक्रम कीर्ति सम्पत्ति सहाय आदिक वस्तु स्वयमेव धर्मात्मा को आकर आश्रय कर लेते हैं, किन्तु धर्म के बिना कोई भी वस्तु नहीं मिलती इसलिये जो मनुष्य वीरत्वादि वस्तुओं को चाहते हैं उनको चाहिये कि वे निरंतर धर्म करें जिसमेंं उनको बिना परिश्रम से वे वस्तु मिल जावें।।१८४।।

और भी आचार्य उपदेश देते हैं—

सौभागीयसि कामिनीयसि सुतश्रेणीयसि श्रीयसि प्रासादीयसि चेत्सुखीयसि सदा रूपीयसि प्रीयसि।

यद्वानन्तसुखामृताम्बुधिपरस्थानीयसीह ध्रुवं निर्धूताखिलदु:खदापदि सुहृद्धर्मे मतिर्धार्यताम् ।।१८६।।

अर्थ —जो तुम सौभाग्य की इच्छा करते हो और कामिनी की अभिलाषा करते हो तथा बहुत से पुत्रों के प्राप्त करने की इच्छा करते हो और जो यदि तुम्हारे उत्तम लक्ष्मी के प्राप्त करने की इच्छा है वा उत्तम मकान पाने की इच्छा है अथवा यदि तुम सुख चाहते हो तथा उत्तम रूप के मिलने की इच्छा करते हो और समस्त जगत के प्रिय बनना चाहते हो अथवा जहां पर सदा अविनाशी सुख की राशि मौजूद है ऐसे उत्तम मोक्षरूपी स्थान को चाहते हो तो तुम नाना प्रकार के दु:खों को देने वाले आपत्तियों के दूर करने वाले जिन भगवान के बताये हुवे धर्म में ही अपनी बुद्धि को स्थिर करो (धर्म का ही आराधना करो)।

भावार्थ — सर्व संपदा तथा सुख का देने वाला तथा समस्त आपदा तथा दु:खों को दूर करने वाला एक सच्चा धर्म ही है इसलिये भव्यजीवों को दृढ़ता से इसी को धारण करना चाहिये।।१८६।।

और भी आचार्य धर्म की महिमा को दिखाते हैं—

वसंततिलका छन्द

दूरादभीष्टमभिगच्छति पुण्ययोगात्पुण्याद्विना करतलस्थमपि प्रयाति।

अन्यत् परं प्रभवतीह निमित्तमात्रं पात्रं बुधा: भवत निर्मलपुण्यराशे: ।।१८८।।

अर्थ —पुण्य के उदय से दूर रही हुई भी वस्तु अपने आप आकर प्राप्त हो जाती है विंâतु जब पुण्य का उदय नहीं रहता तब हाथ में रक्खी हुई भी वस्तु नष्ट हो जाती है यदि पुण्य पाप से भिन्न कोई दूसरा पदार्थ सुख दु:ख का देने वाला है तो एक निमित्तमात्र है अर्थात् पुण्य—पाप ही सुख—दु:ख का देने वाला है इसलिये ग्रंथकार कहते हैं कि भव्यजीवों को चाहिये कि वे निर्मल पुण्य के पात्र बनें।

भावार्थ — संसार में यह बात बहुधा सुनने में आती है कि वह मनुष्य तथा वह देव मुझे सुख का देने वाला है तथा मेरा भला करने वाला है और वह मनुष्य मुझे दु:ख का देने वाला है तथा मेरा बुरा करने वाला है । आचार्य कहते हैं कि यह सब कहना व्यर्थ ही है क्योंकि सुख तथा दु:ख का देने वाला अथवा भला—बुरा करने वाला एक पुण्य तथा पाप ही है इसलिये यदि तुम सुख की इच्छा करते हो अथवा अपना भला चाहते हो तो तुमको विशेष रीति से पुण्य का आराधन करना चाहिये।।१८८।।

और भी पुण्य की महिमा का वर्णन करते हैं—

शार्दूलविक्रीडित छन्द

कोप्यंधोऽपि सुलोचनोऽपि जरसा ग्रस्तोऽपि लावण्यवान् निष्प्राणोऽपि हरिर्विरूपतनुरप्यापुष्यते मन्मथ :

उद्योगोज्झितचेष्टितोऽपि नितरामालिङ्ग्यते च श्रिया पुण्यादन्यदपि प्रशस्तमखिलं जायेत यद्दुर्घटम् ।।१८९।।।

अर्थ —पुण्य के उदय से अंधा भी सुलोचन कहलाता है तथा पुण्य के ही उदय से रोगी भी रूपवान कहलाता है और निर्बल भी पुण्य के उदय से सिंह के समान पराक्रमी कहा जाता है तथा पुण्य के ही उदय से बदसूरत भी कामदेव के समान सुन्दर कहा जाता है तथा पुण्य के ही उदय से आलसी को भी लक्ष्मी अपने आप आकर वर लेती है विशेष कहां तक कहा जाय जो उत्तम से उत्तम वस्तु संसार में दुर्लभ कही जाती हैं वे भी पुण्य के ही उदय से सब सुलभ हो जाती हैं अर्थात् वे बिना परिश्रम के ही प्राप्त हो जाती हैं इसलिये भव्यजीवों को सदा पुण्य का ही आराधन करना चाहिये।।१८९।।

==अब आचार्य इस बात को दिखाते हैं कि जो मनुष्य पुण्यरहित हैं उनको पाप के उदय से क्या—क्या दु:ख भोगने पड़ते हैं-==

वंधस्कन्धसमाश्रितं सृणिभिदामारोहकाणामरपृष्टे भारसमर्पणं कृतवतां संचालनं ताडनम् ।

दुर्वाचं वदतामपि प्रतिदिनं सर्वं सहन्ते गजा निर्धाम्नां वलिनोऽपि यत्तदखिलं दुष्टो विधिश्चेष्टते ।।१९०।।।

अर्थ —यद्यपि महावत की अपेक्षा हाथी बलवान होते हैं तो भी महावत उनको बांधते हैं तथा उनके ऊपर चढ़ते हैं और उनमें अंकुश भी मारते हैं तथा उनकी पीठ पर बोझा भी लादते हैं और उनको अपनी इच्छानुसार चलाते हैं तथा और भी ताड़ना करते हैं और प्रतिदिन उनको गाली भी देते है और उन हाथियों को ये सब बातें सहन भी करनी पड़ती हैं इस ही प्रकार उत्तम पुरूषों पर नीच पुरूष भी अपना प्रभाव डालते हैं इसलिये आचार्य कहते हैं ये समस्त चेष्टायें दुष्ट काम की हैं अर्थात् पाप के द्वारा ही ये सब बातें होती हैं इसलिये भव्यों को चाहिये कि वे सदा पुण्य का ही उपार्जन करें तथा पाप का नाश करें।।१९०।।

आचार्य और भी धर्म का महिमा का वर्णन करते हैं—

सर्पो हारलता भवत्यसिलता सत्पुष्पदामायते सम्पद्येत रसायनं विषमपि प्रीतिं विधत्ते रिपु:।

देवा यान्ति वशं प्रसन्नमनस: किं वा बहु ब्रूमहे धर्मो यस्य नमौऽपि तस्य सततं रत्ने: परैर्वर्षति।।१९१।।।

अर्थ —जो मनुष्य धर्मात्मा है उनके धर्म के प्रभाव से भयंकर सर्प भी मनोहर हार बन जाते हैं तथा पैनी तलवार भी उत्तम फूलों की माला बन जाती है और धर्म के प्रभाव से ही प्राणघातक विष भी उत्तम रसायन बन जाता है तथा धर्म के ही महात्म्य से वैरी भी प्रीति करने लग जाता है और प्रसन्नचित्त होकर देव धर्मात्मा पुरूष के आधीन हो जाते हैं। ग्रन्थकार कहते हैं कि विशेष कहां तक कहा जाय जिस मनुष्य के हृदय में धर्म है अर्थात् जो मनुष्य धर्मात्मा है उनके धर्म के प्रभाव से आकाश से भी उत्तम रत्नों की वर्षा होती है इसलिये भव्य जीवों को धर्म से कदापि विमुख नहीं होना चाहिये।।१९१।।

धर्म की महिमा का और भी वर्णन किया जाता है—

उग्रग्रीष्मरविप्रतापदहनज्वालाभितप्तश्चलन् य: पित्तप्रकृतिर्मरौ मृदुतर: पान्थो यथा पीडित:।

तद्राग्लब्धहिमाद्रिकुञ्जरचितप्रोद्दामयन्त्रोल्लसद्धारावेश्मसमो हि संसृतिपथे धम्मो भवेद्देहिनाम् ।।१९२।।।

अर्थ —जो वटोही ग्रीष्मकाल में भयंकर सूर्य की संतापरूपी अग्नि की ज्वालाओं से अत्यंत तप्तायमान है और पित्त प्रकृतिवाला है तथा कोमल शरीर का धारी है और मारवाड़ की भूमि में गमन करने वाला है अतएव जो अत्यन्त दु:खित है यदि वह दैवयोग से हिमालय पर्वत की गुफा में बने हुवे फुवारों सहित मनोहर धारागृह(फव्वारों सहित घर) को पा लेवे तो वह परमसुखी होता है उस ही प्रकार जो जीव अनादिकाल से इस संसार में जन्म मरण आदि दु:खों को सहता है तथा निरंतर नरकादि योनियों में भ्रमता है यदि वह भी धारागृह के समान इस धर्म को संसार में पा लेवे तो सुखी हो जाता है अर्थात् शान्ति का अनुभव करने लग जाता है इसलिये जो मनुष्य शान्ति को चाहने वाले हैं उनको अवश्य धर्म का ही आराधन करना चाहिये।।१९२।।

आचार्य और भी धर्म की महिमा का वर्णन करते हैं—

संहारोग्रसमीरसंहतिहतप्रोद्भूतनीरोल्लसत्तुङ्गोर्मिभ्रमितोरुनक्रमकरग्राहादिभिर्भीषणे।

अम्भोधौ विवुधोग्रवाडवशिखिज्वालाकराले पतञ्जन्तो:खेऽपिविमानमाशु कुरुते धर्म: समालम्बनम् ।।।

अर्थ —जो समुद्र प्रलयकाल में उठा हुवा जो भयंकर पवन का समूह उससे उछलता हुवा जो जल उसकी जो ऊंची—२ तरङ्गें उनमें भ्रमण करते हुवे जो नाके मगरमच्छ आदि जलजीव उनसे भयंकर हो रहा है तथा जो तीक्ष्ण बड़वानल की ज्वाला से भी भयंकर है ऐसे समुद्र में गिरते हुवे प्राणी को धर्म नहीं गिरने देता है तथा आकाश में भी विमान रचकर शीघ्र ही अवलंबन देता है।

भावार्थ — मनुष्य कैसी भी विपत्ति क्यों न आई होवे यदि वह धर्मात्मा है तो उसको धर्म के प्रभाव से सब विपत्ति पल भर में दूर हो जाती है इसलिये जो मनुष्य दु:खों से छूटना चाहते हैं उनको सदा धर्म का आराधन करना चाहिये।।१९३।।

और भी धर्म की महिमा को कहते हैं—

स्त्रग्धरा छन्द

उह्यन्ते ते शिरोभि: सुरपतिभिरपि स्तूयमाना: सुरौघैर्गीयन्ते किन्नरीभिर्ललितपदलसद्गीतिभिर्भक्तिरागात् ।।

बंभ्रम्यन्ते च तेषां दिशिदिशिविशदा: कीर्तय: कानवास्याल्लक्ष्मीस्तेषु प्रशस्ता विदधति मनुजा ये सदा धर्ममेकम् ।।।

अर्थ —जो मनुष्य सदा एक धर्म को ही धारण करते हैं अर्थात् जो धर्मात्मा हैं उनको इन्द्र भी मस्तक पर धारण करते हैं तथा बड़े—२ देव उनकी स्तुति करते हैं और उन धर्मात्मा पुरूषों के गुण बड़ी शांति से किन्नरीजाति की देवी गाती है तथा उन धर्मात्मापुरूषों की कीर्ति समस्त दिशाओं में फैल जाती है और उन धर्मात्मा पुरूषों को उत्तम-से-उत्तम लक्ष्मी की भी प्राप्ति होती है इसलिये भव्यजीवों को ऐसा महिमायुक्त धर्म अवश्य धारण करने योग्य है।।१९४।।

आचार्य और भी धर्म की महिमा दिखाते हैं—

शार्दूलविक्रीडित छन्द

धर्म: श्रीवशमन्त्र एष परमो धर्मश्चकल्पद्रुमो धर्म: कामगवीप्सितप्रदमणिर्धर्म: परं दैवतम् ।

धर्म: सौख्यपरं परामृतनदीसम्भूतिसत्पर्वतो धर्मो भ्रातरूपास्यतां किमपरै: क्षुद्रैरसत्कल्पनै:।।१९५।।।

अर्थ —समस्त प्रकार की लक्ष्मी को देने वाला होने के कारण यह धर्म लक्ष्मी के वश करने को मंत्र के समान है तथा यह धर्म वांछित चीजों का देने वाला कल्पवृक्ष है और धर्म ही कामधेनु है तथा धर्म ही समस्त चिन्ताओं को पूर्ण करने वाला चिंतामणि रत्न है और धर्म ही उत्कृष्ट देवता है और धर्म ही उत्कृष्ट सुखों की राशिरूपी जो अमृत नदी उसके उत्पन्न कराने में पर्वत के समान है अर्थात् जिस प्रकार हिमालय आदि पहाड़ों से नदियां उत्पन्न होती हैं उस ही प्रकार धर्म से भी सुखों की परंपरारूप नदी की उत्पत्ति होती है (सुख मिलता है)। इसलिये आचार्य उपदेश देते हैं कि अरे भाइयों व्यर्थ नीच कल्पनाएँ करके क्या ? केवल धर्म ही का सेवन करो जिससे तुम्हारे सर्वकार्य सिद्ध हो जावें।।१९५।।

और भी आचार्य धर्म की महिमा का वर्णन करते हैं—

आस्तामस्यविधानत: पथि गतिर्धर्मस्य वार्तापि यै: श्रुत्वा चेतसि धार्यते त्रिभुवने तेषां न का: सम्पद:।

दूरे सज्जलपानमज्जनसुखं शीतै: सरोमारुतै: प्राप्तं पद्मरज: सुगन्धिभिरपि श्रान्तं जनं मोदयेत् ।।१९६।।।

अर्थ —धर्म के मार्ग में विधिपूर्वक गमन करना तो दूर रहो किंतु जो धर्म की बातों के प्रेमी मनुष्य केवल उसको सुनकर धारण कर लेते हैं उनके भी तीन लोक में समस्त संपदाओं की प्राप्ति होती है जिस प्रकार शीतल जल के पीने का सुख तथा स्नान करने का सुख तो दूर ही रहो अर्थात् उससे तो शांति होती ही है किंतु जो तालाब की वायु कमलों की रजकर सुगन्धित हो रही है तथा शीतल है उससे उत्पन्न हुवा जो सुख वह भी थके हुवे मनुष्य को शान्त कर देता है इसलिये भव्य जीवों को सदा धर्म का ही आश्रय लेना चाहिये।।१९६।।

अब आचार्य अंत मंगल में अपने गुरू का स्मरण करते हैं—

वसंततिलका छन्द

यत्पादपंकजरजोभिरपि प्रणामाल्लग्नै: शिरस्यमलबोधकलावतार:।

भव्यात्मनां भवति तत्क्षणमेव मोक्षं स श्री गुरूर्दिशतु मे मुनि ‘‘वीरनन्दी‘‘।।१९७।।।

अर्थ —जिन वीरनंदी गुरु के प्रणामपूर्वक मस्तक में लगाये हुवे चरण कमलों के रजों से ही भव्य जीवों को बात—की बात में निर्मल ज्ञान की प्राप्ति होती है वे श्री वीरनन्दी मुनि मेरे गुरू मुझे मोक्ष देवो।

भावार्थ — उत्तम गुरु ही मोक्ष दे सकते हैं इसीलिये ग्रन्थकार ने वीरनन्दी मुनि से ही मोक्ष की याचना की है।।१९७।।

अधिकार को समाप्त करते हुवे आचार्य और भी उपदेश देते हैं—

दत्तानन्दमपारसंसृतिपथश्रान्तश्रमच्छेदकृत् प्रायो दुर्लभमत्रकर्णपुटकैर्भव्यात्मभि: पीयताम् ।

निर्यातं मुनिपद्मनन्दिवदनप्रालेयरश्मे: परं स्तोकं यद्यपि सारताधिकमिदं धर्मोपदेशामृतम् ।।१९८।।।

अर्थ —जो धर्मोपदेशरूपी अमृत पीने पर उत्तम आनंद का देने वाला है और जो संसाररूपी जो अपार मार्ग उसमें थके हुवे जो प्राणी उनकी थकावट को दूर करने वाला है तथा जो पुण्यहीन पुरूषों को अत्यन्त दुर्लभ है और जो पद्मनन्दि मुनि के मुखचन्द्रमा से निकला हुवा है ‘‘ अर्थात् जिस प्रकार चन्द्रमा से अमृत निकलता है उस ही प्रकार पद्मनन्दी मुनि के मुखचन्द्र से भी धर्मोपदेशरूपी अमृत निकला है’’ यद्यपि वह धर्मोपदेशामृत शब्दों से थोड़ा वर्णन किया गया है तो भी सार से अधिक है ऐसा वह धर्मोपदेशामृत भव्यों को अवश्य पीना चाहिये।।१९८।।

इस प्रकार पद्मनन्दी आचार्यकृत पद्मनन्दिपंचविंशतिका नामकग्रन्थ में धर्मोपदेशामृत नामक प्रथम अधिकार समाप्त हुवा।