रत्नत्रय पूजा

[ रत्नत्रय व्रत में ]

-अथ स्थापना (गीता छंद)-


वर रत्नत्रय जिनधर्म हैं, सम्यक्त्वरत्न प्रधान है।

अष्टांगयुत सम्यक्त्व है, सम्पूर्ण गुण की खान है।।

आचार आठ समेत सम्यग्ज्ञान रत्न महान है।

तेरह विधों युत रत्न सम्यक्-चरित पूज्य निधान है।।

-दोहा-


भरतैरावत क्षेत्र में, चौथे पाँचवें काल।

शाश्वत रहे विदेह में, धर्म जगत प्रतिपाल।।२।।


ॐ ह्रीं र्हं श्रीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मक धर्म! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।

ॐ ह्रीं र्हं श्रीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मक धर्म! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।

ॐ ह्रीं र्हं श्रीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मक धर्म! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।

-अष्टक-

चाल-नन्दीश्वर पूजा


रेवानदि को जल लाय, कंचन भृंग भरूँ।

त्रयधार करूँ सुखदाय, आतम शुद्ध करूँ।।

जिनधर्म विश्व का धर्म, सर्व सुखाकर है।

मैं जजूँ सार्वहित धर्म, गुण रत्नाकर है।।१।।

ॐ ह्रीं र्हं श्रीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकधर्माय जलं निर्वपामीति स्वाहा।


मलयागिरि चंदन गंध, घिस कर्पूर मिला।

जजते ही धर्म अमंद, निज मन कमल खिला।।

जिनधर्म विश्व का धर्म, सर्व सुखाकर है।

मैं जजूँ सार्वहित धर्म, गुण रत्नाकर है।।२।।

ॐ ह्रीं र्हं श्रीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकधर्माय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।


शशिकर सम तंदुल श्वेत, खंड विवर्जित हैं।

शिवरमणी परिणय हेत, पुंज समर्पित हैं।।

जिनधर्म विश्व का धर्म, सर्व सुखाकर है।

मैं जजूँ सार्वहित धर्म, गुण रत्नाकर है।।३।।

ॐ ह्रीं र्हं श्रीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकधर्माय अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।


सित कुमुद नील अरविंद, लाल कमल प्यारे।

मदनारि विजयहित धर्म, पूजूँ सुखकारे।।

जिनधर्म विश्व का धर्म, सर्व सुखाकर है।

मैं जजूँ सार्वहित धर्म, गुण रत्नाकर है।।४।।

ॐ ह्रीं र्हं श्रीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकधर्माय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।


पूरणपोली पयसार, पायस मालपुआ।

जिनधर्म अमृतसम पूज, आतम सौख्य हुआ।।

जिनधर्म विश्व का धर्म, सर्व सुखाकर है।

मैं जजूँ सार्वहित धर्म, गुण रत्नाकर है।।५।।

ॐ ह्रीं र्हं श्रीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकधर्माय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।


मणि दीप कपूर प्रजाल, ज्योति उद्योत करे।

अंतर में भेद विज्ञान, प्रगटे मोह हरे।।

जिनधर्म विश्व का धर्म, सर्व सुखाकर है।

मैं जजूँ सार्वहित धर्म, गुण रत्नाकर है।।६।।

ॐ ह्रीं र्हं श्रीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकधर्माय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।


दश गंध अग्नि में जार, सुरभित गंध करे।

नित आतम अनुभवसार, कर्म कलंक हरे।।

जिनधर्म विश्व का धर्म, सर्व सुखाकर है।

मैं जजूँ सार्वहित धर्म, गुण रत्नाकर है।।७।।

ॐ ह्रीं र्हं श्रीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकधर्माय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।


एला केला फल आम्र, जंबू निंबु हरे।

शिवकांता संगम हेतु, तुम ढिग भेंट करे।।

जिनधर्म विश्व का धर्म, सर्व सुखाकर है।

मैं जजूँ सार्वहित धर्म, गुण रत्नाकर है।।८।।

ॐ ह्रीं र्हं श्रीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकधर्माय फलं निर्वपामीति स्वाहा।


सलिलादिक द्रव्य मिलाय, कंचनपात्र भरें।

जिनवृष को अर्घ चढ़ाय, शिवसाम्राज्य वरें।।

जिनधर्म विश्व का धर्म, सर्व सुखाकर है।

मैं जजूँ सार्वहित धर्म, गुण रत्नाकर है।।९।।

ॐ ह्रीं र्हं श्रीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकधर्माय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।

-दोहा-


शांतिधारा मैं करूँ, जैनधर्म हितकार।

चउसंघ में शांति करो, हरो सर्व दुख भार।।१०।।

शांतये शांतिधारा।


पुष्पांजलि से पूजहूँ, श्री जिनधर्म महान्।

दुख दारिद संकट टले, बनूँ आत्मनिधिमान।।११।।

पुष्पांजलि:।

अथ प्रत्येक अर्घ्य

-सोरठा-


मंगल रूप महान्, जग में लोकोत्तम कहा।

श्री केवलि भगवान्, कथित धर्म सबको शरण।।१।।

इति पुष्पांजलिं क्षिपेत्।

-रोलाछंद-


सम्यग्दर्शन रत्न आठ अंग युत माना।

मोक्षमार्ग का मूल मुनियों ने है जाना।।

नि:शंकित है अंग जिन वच में नहिं शंका।

पूजूँ अर्घ चढ़ाय निज में हो दृढ़ श्रद्धा।।१।।

ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनस्य नि:शंकितअंगाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।


इह भव में विभवादि, आगे चक्री आदिक।

नाना सुख की चाह, अथवा अन्य मतादिक।।

जो नहिं करते भव्य, नि:कांक्षित है उनके।

पूजूँ अंग द्वितीय, मिले आत्म सुख जिससे।।२।।

ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनस्य नि:कांक्षितअंगाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।


रत्नत्रय से पूत, मुनियों का तन मानो।

मलमूत्रादिक वस्तु, भरित घिनावन जानो।।

ग्लानि न करके भव्य, गुण में प्रीत बढ़ावें।

निर्विचिकित्सा अंग, इसे जजत सुख पावें।।३।।

ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनस्य निर्विचिकित्साअंगाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।


कुत्सित मार्ग कुधर्म, कुपथ लीन जन बहुते।

इनको माने मूढ़, सम्यग्दृष्टी बचते।।

चौथा अंग अमूढ़-दृष्टि कहा जाता है।

इसे पूजते भव्य, उनने भव नाशा है।।४।।

ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनस्य अमूढ़दृष्टिअंगाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।


सदा शुद्ध शिव मार्ग, अज्ञानी जन आश्रय।

दोष कदाचित् होंय, उन्हें ढकें शुभ आशय।।

निज आत्मा के धर्म, मार्दव आदि बढ़ावें।

उपगूहन यह अंग, इसे जजत सुख पावें।।५।।

ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनस्य उपगूहनअंगाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।


सम्यक या चरित से, जो च्युत हो जावे।

उसमें सुस्थिर कर दे, युक्ति आदि उपाये।।

निज को भी शिव मार्ग, में ही दृढ़ रक्खे जो।

स्थितिकरण यह अंग, इसे जजें सुख लें वो।।६।।

ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनस्य स्थितिकरणअंगाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।


सह धर्मी जन संघ, कपट रहित हो प्रीती।

यथा योग्य सत्कार, यह वात्सल की रीती।।

गाय वत्सवत्प्रेम, वात्सल्य गुण माना।

सम्यग्दर्शन अंग, इसे जजत सुख पाना।।७।।

ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनस्य वात्सल्यअंगाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।


निज प्रभावना करे, निज गुण तेज बढ़ावे।

पूजा दान तपादिक, से जिनधर्म दिपावे।।

यह प्रभावना अंग, तम अज्ञान हटावे।

इनको पूजें भव्य, धर्म महात्म्य दिखावें।।८।।

ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनस्य प्रभावनाअंगाय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।

-दोहा (पूर्णार्घ्य)-


अष्ट अंगयुत दृष्टि यह, दोष पच्चीस विहीन।

परमानन्द अमृत भरे, करे दोष सब क्षीण।।९।।

ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा।

-दोहा-


समकित होते ही हुआ, सम्यग्ज्ञान अपूर्व।

फिर भी ज्ञानाराधना, करो अष्टविध पूर्व।।

-नरेन्द्र छंद-


स्वर व्यंजन से शुद्ध पूर्ण जो, करे प्रगट उच्चारण।

शब्दाचार करे वृद्धिंगत, शुद्ध ज्ञान आराधन।।

स्वपर भेद विज्ञान प्रकट हो, परमाल्हाद विधाता।

अर्घ चढ़ाकर मैं नित पूजूँ, मिले सर्वसुख साता।।१।।

ॐ ह्रीं सम्यग्ज्ञानस्य शब्दाचाराय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।


सूत्र आदि का अर्थ शुद्ध हो, गुरु की परम्परा से।

पूर्वापर संबंध जुड़ा हो, नहिं अनर्थ हो जिससे।।

स्वपर भेद विज्ञान प्रकट हो, परमाल्हाद विधाता।

अर्घ चढ़ाकर मैं नित पूजूँ, मिले सर्वसुख साता।।२।।

ॐ ह्रीं सम्यग्ज्ञानस्य अर्थाचाराय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।


शब्द अर्थ की पूर्ण शुद्धि हो, उभयाचार कहावे।

उभय नयों से भी सापेक्षित, ज्ञान ज्योति प्रगटावे।।

स्वपर भेद विज्ञान प्रकट हो, परमाल्हाद विधाता।

अर्घ चढ़ाकर मैं नित पूजूँ, मिले सर्वसुख साता।।३।।

ॐ ह्रीं सम्यग्ज्ञानस्य उभयाचाराय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।


त्रय संध्या उल्का ग्रहणादिक, बहुत अकाल बखाने।

इन्हें छोड़ सिद्धान्त ग्रंथ को, पढ़े जिनाज्ञा मानें।।

स्वपर भेद विज्ञान प्रकट हो, परमाल्हाद विधाता।

अर्घ चढ़ाकर मैं नित पूजूँ, मिले सर्वसुख साता।।४।।

ॐ ह्रीं सम्यग्ज्ञानस्य कालाचाराय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।


हाथ पैर आदि धोकर के, शुभ स्थान में पढ़ते।

हाथ जोड़ श्रुत भक्ति आदिकर, विनय बहुत विध धरते।।

स्वपर भेद विज्ञान प्रकट हो, परमाल्हाद विधाता।

अर्घ चढ़ाकर मैं नित पूजूँ, मिले सर्वसुख साता।।५।।

ॐ ह्रीं सम्यग्ज्ञानस्य विनयाचाराय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।


कुछ रस आदि त्याग कर श्रुत को, पढ़े नियम धर रुचि से।

यह उपधान सहित आराधन, ज्ञान बढ़े नित इससे।।

स्वपर भेद विज्ञान प्रकट हो, परमाल्हाद विधाता।

अर्घ चढ़ाकर मैं नित पूजूँ, मिले सर्वसुख साता।।६।।

ॐ ह्रीं सम्यग्ज्ञानस्य उपधानाचाराय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।


ग्रंथ और गुरुजन का आदर, पूजा भक्ति करें जो।

यह बहुमान भावश्रुत करके, केवलज्ञान करे वो।।

स्वपर भेद विज्ञान प्रकट हो, परमाल्हाद विधाता।

अर्घ चढ़ाकर मैं नित पूजूँ, मिले सर्वसुख साता।।७।।


ॐ ह्रीं सम्यग्ज्ञानस्य बहुमानाचाराय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।


जिस गुरु से या जिन शास्त्रों से, ज्ञान प्राप्त हो जाता।

उनका नाम छिपावे नहिं, वह कहा अनिह्रव जाता।।

स्वपर भेद विज्ञान प्रकट हो, परमाल्हाद विधाता।

अर्घ चढ़ाकर मैं नित पूजूँ, मिले सर्वसुख साता।।८।।

ॐ ह्रीं सम्यग्ज्ञानस्य अनिन्हवाचाराय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।

-दोहा (पूर्णार्घ्य)-


ज्ञान अष्टविध धारते, प्रगटे केवलज्ञान।

अर्घ चढ़ाकर मैं करूँ, स्वात्म सुधारस पान।।९।।

ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा।

-दोहा-


सकल-विकल के भेद से, चारित द्विविध महान्।

विकल चरित श्रावक धरें, बनें शील गुणवान्।।

-पद्धड़ि छंद-


सम्यक्त्व सहित अणुव्रत सुपांच, गुणव्रत शिक्षाव्रत कहे सात।

ये बारहव्रत हैं गृहीधर्म, इनको पूजें वो लहें शर्म।।१।।


ॐ ह्रीं विकलचारित्रस्य सम्यक्त्वसहितअणुव्रतादि-द्वादशविधश्रावकधर्माय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।


जो दर्शन व्रत सामायिकादि, ग्यारह प्रतिमा व्रत हैं अनादि।

इनसे श्रावक बनते महान्, यह प्रथम धर्म पूजें सुजान।।२।।

ॐ ह्रीं विकलचारित्रस्य दर्शनव्रतादिएकादश-प्रतिमारूपश्रावकधर्मेभ्य: अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।

-सोरठा-


मुनीधर्म के भेद, तेरह विध श्रुत में कहे।

उन्हें धरें बिन खेद, वे साधु भवदधि तिरें।।

-भुजंगप्रयात छंद-


महाव्रत अहिंसा प्रथम है जगत में।

सभी प्राणियों की दया है प्रगट में।।

दिगम्बर मुनी ही इसे पालते हैं।

जजें जो अहिंसा वो अघ टालते हैं।।१।।

ॐ ह्रीं सकलचारित्रस्य अहिंसामहाव्रताय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।


असत् अप्रशस्ते वचन जो न बोलें।

हितंकर मधुर मित सदा सत्य बोलें।।

यही सत्य व्रत दूसरा व्रत कहाता।

इसे पूजहूँ ये वचनसिद्धि दाता।।२।।

ॐ ह्रीं सकलचारित्रस्य सत्यमहाव्रताय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।


पराया धनं शिष्य आदी न लेना।

महाव्रत अचौर्य निधी वो बखाना।।

इसे पूजते स्वात्म संपत्ति मिलती।

जिसे प्राप्त करते महासाधु गण ही।।३।।

ॐ ह्रीं सम्यक्चारित्रस्य अचौर्यमहाव्रताय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।


सुता मात भगिनी सदृश सर्व महिला।

महाव्रत सुबह्मचर धरे कोई विरला।।

त्रिजग पूज्य इंद्रादिवंदित ये व्रत है।

इसी से परमब्रह्म होता प्रगट है।।४।।

ॐ ह्रीं सम्यक्चारित्रस्य ब्रह्मचर्यमहाव्रताय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।


परिग्रह सभी मुक्ति जाने में बाधे।

दिगम्बर मुनी ही सभी वस्तु त्यागें।।

जगत भार से छूटते ही विदेही।

जजूँ पाँचवाँ व्रत बनूँ मुक्तिगेही।।५।।

ॐ ह्रीं सम्यक्चारित्रस्य अपरिग्रहमहाव्रताय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।


चतुर्युग प्रमाणे धरा देख चलना।

बिना कार्य के एक भी पग न धरना।।

सुगुरुदेव तीर्थादिवंदन निमित्त से।

गमन हो समिति ईरिया को जजूँ मैं।।६।।

ॐ ह्रीं सम्यक्चारित्रस्य ईर्यासमित्यै अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।


स्वपर हित व मित मिष्ट वच नित्य भाषें।

सुभाषासमिति को मुनीगण प्रकाशें।।

इसे धारते मुक्तिकन्या भि हो वश।

जजूँ भक्ति से प्राप्त निर्दोष हों वच।।७।।

ॐ ह्रीं सम्यक्चारित्रस्य भाषासमित्यै अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।


कृतादी रहित अन्न प्रासुक स्वहितकर।

गृहस्थी के द्वारा दिया लेवें मुनिवर।।

स्वकर पात्र में लें खड़े एक बारे।

यही एषणा समिति क्षुध व्याधि टारे।।८।।

ॐ ह्रीं सम्यक्चारित्रस्य एषणासमित्यै अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।


कमंडलु व शास्त्रादि जो वस्तु धरना।

उठाना यदी प्राणियों पे हो करुणा।।

प्रथम चक्षु से देख पिच्छी से शोधें।

ये आदान निक्षेप समिति सपूजें।।९।।

ॐ ह्रीं सम्यक्चारित्रस्य आदाननिक्षेपणसमित्यै अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।


हरितकाय जंतू रहित भूमि पर जो।

स्वमलमूत्र आदी विकृति को तजें वो।।

विउत्सर्ग समिति धरें जैन साधू।

जजूँ मैं इसे फिर स्वशुद्धात्म साधूँ।।१०।।

ॐ ह्रीं सम्यक्चारित्रस्य व्युत्सर्गसमित्यै अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।


महादोष रागादि से चित्त दूरा।

मनोगुप्ति ये पालते साधु शूरा।।

पुन: शुभ अशुभ भाव दोनों निरोधें।

निजानंद रसलीन गुप्ती सूपूजें।।११।।

ॐ ह्रीं सम्यक्चारित्रस्य मनोगुप्त्यै अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।


वचनगुप्ति आगम के अनुकूल बोलें।

पुन: मौन धर मुक्ति का द्वार खोलें।।

इसी से वचनसिद्धि दिव्य ध्वनी भी।

मिलेगी अत: पूजहूँ धार भक्ती।।१२।।

ॐ ह्रीं सम्यक्चारित्रस्य वचोगुप्त्यै अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।


स्वतन की क्रिया सर्व शुभ ही करें जो।

पुन: काय से मोह तज सुस्थिरी हों।।

उभय कायगुप्ती शुकल ध्यान पूरे।

जजूँ मैं इसे नंतबल मुझ प्रपूरे।।१३।।

ॐ ह्रीं सम्यक्चारित्रस्य कायगुप्त्यै अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।

-चौबोल छंद (पूर्णार्घ्य)-


पाँच महाव्रत पाँच समिति औ, तीन गुप्ति ये तेरह विध।

सम्यक् चारित मुक्ति प्रदायक, अठबिस मूलगुुणों से युत।।

द्वादश तप बाईस परीषह, चौंतिस उत्तर गुण जानोें।

लाख चौरासी गुण सर्वाधिक, पूजत ही भव दुख हानो।।१४।।

ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसर्वोत्कृष्टचतुरशीतिलक्षगुणयुत-सम्यक्चारित्राय पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा।

जाप्य मंत्र-

ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्रेभ्यो नम:।

(९, २७ या १०८ बार)

जयमाला

-शंभु छंद-


तीर्थंकर प्रभु के श्रीविहार में, धर्मचक्र आगे-आगे।

चलता रहता जिससे भू पर, जीवों के दुख दारिद भागे।।

सर्वाण्ह यक्ष चारों दिशि में, यह धर्मचक्र शिर पर धारें।

जिनधर्म अनादी औ अनंत, इसकी जयमाला भव टारें।।१।।

-पंचचामर छंद-


जयो जिनेन्द्र धर्म जीव की दया प्रधानमय।

जयो जिनेन्द्र धर्म वस्तु का स्वभाव शुद्धमय।।

जयो जिनेन्द्र धर्म जो क्षमादि दश प्रकार है।

जाये जिनेन्द्र धर्म रत्न तीन रूप सार है।।१।।

इसे धरें स्वयंवरा अनंत ऋद्धियाँ वरें।

हितंकरा अनंत सिद्धियाँ स्वयं पगे परें।।

शुभंकरा ध्वनी अनंत भव्य को सुखी करे।

समस्त जीव राशि को प्रियंवदा सुखी करे।।२।।

गणेश धारते इसे महा प्रमोद भाव से।

मुनीश धारते इसे बचें विभाव भाव से।।

सुरेश नित्य चाहते मनुष्य जन्म में मिले।

नरेश नित्य गावते यही धरम हमें मिले।।३।।

महान धर्म इन्द्रवंद्य केवली प्रणीत है।

महान धर्म चक्रिवंद्य सर्व मंगलीक है।।

महान धर्म साधु पूज्य लोक में सुश्रेष्ठ है।

महान धर्म भव्य को सदैव शर्ण देत है।।४।।

अनादि जैन धर्म ये समस्त सौख्य खान ही।

अनादि जैनधर्म को मनीषि धारते यहीं।।

अनादि जैनधर्म से विनाशते करम सभी।

अनादि जैनधर्म के लिए नमोऽस्तु हो अभी।।५।।

अनादि जैनधर्म से बड़ा न कोई मित्र है।

अनादि जैनधर्म का दया हि मूल इष्ट है।

अनादि जैनधर्म में सदैव चित्त को धरो।

अहो अनादि जैनधर्म! मुझपे नित कृपा करो।।६।।


जिनेन्द्र धर्म से सुचक्रवर्ति संपदा मिले।

जिनेन्द्र धर्म से सुरें की भि संपदा मिले।।

जिनेन्द्र धर्म से हि तीर्थनाथ संपदा मिले।

जिनेन्द्र धर्म से हि शीघ्र मुक्ति वल्लभा मिले।।७।।

-दोहा-


जन्म मरण व्याधी महा, उसके नाशन हेत।

रत्नत्रय औषधि महा, नमूँ नमूँ शिव हेत।।८।।

ॐ ह्रीं र्हं श्रीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकधर्माय जयमाला पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा।

शांतये शांतिधारा।

दिव्य पुष्पांजलि:।

-दोहा-


रत्नत्रय वर धर्म है, मोक्षमार्ग जग वंद्य।

केवल ‘‘ज्ञानमती’’ करे, हरे सर्वदुख द्वंद।।

।।इत्याशीर्वाद:।।