"अतृप्त तृष्णा"*
"अतृप्त तृष्णा"*
"अतृप्त तृष्णा"*
पुराने समय की बात है। एक नगर में एक नाई रहता था। वह राजा के यहाँ नौकरी करता था। राजा के यहाँ से जो मिल जाता उसी में उसकी जिन्दगी व्यतीत होती। वह अपनी पत्नी के साथ एक छोटी-सी कुटिया में रहता था।
जैसी कि मनुष्य प्रकृति होती है कि हर मनुष्य धन पाना चाहता है, उसी तरह वह नाई भी धनी बनना चाहता था।
वह अक्सर अपनी पत्नी से कहता था–“भाग्यवान! बचत करना सीखो। बचत करोगी तो हमारे पास कुछ धन इकट्ठा होगा, जब धन होगा तो तुम्हारे लिये स्वर्ण हार लाऊँगा, मैं चाहता हूँ कि तुम एक धनी की पत्नी के समान दिखो।”
तब उसकी पत्नी ने बचत करनी शुरू कर दी। और जल्दी ही उनके पास कुछ धन इकट्ठा हो गया, तो दोनों सुनार के पास गये और उससे सोने का एक हार खरीद लाए।
हार को देखकर नाई की पत्नी बहुत खुश होती । तब नाई ने अपनी पत्नी से कहा-“इस हार को पहन कर तो तुम सचमुच ही किसी बड़े घर की बहू लग रही हो।”
यह सुनकर नाई की पत्नी लजा गई।
मगर फिर भी नाई को सन्तोष ना हुआ। वह और अधिक धन पाना चाहता था। एक दिन वह अपने किसी मित्र के पास गया था। वापस लौटते में एक जंगल पड़ता था। थकान के कारण वह आराम करने के लिए पेड़ के नीचे बैठ गया।
वह अभी भी धन के विषय में ही सोच रहा था। तभी एक आवाज आई-“नाई! ओ नाई! तुझे धन चाहिए?”
नाई ने ऊपर-नीचे देखा। वह आवाज उसने पेड़ पर से आती सुनी थी।
नाई ने आवाज के उत्तर में कहा-“हाँ मुझे धन चाहिए,खूब सारा धन ।”
“सात घड़े धन चाहिए?” आवाज ने पूछा
“हाँ-हाँ. .!” नाई ने उत्तर दिया।
“जाओ अपने घर चले जाओ। वहाँ पर सात घड़े धन से भरे हुए तुम्हारा इन्तजार कर रहे हैं।” आवाज ने कहा।
इतना सुनते ही नाई सरपट अपने घर की ओर दौड़ा चला गया।
घर पहुँचकर उसने देखा कि उसके घर में सात घड़े रखे , उसने एक घड़े का ढक्कन देखा तो उसकी आंखें
हटा कर चुंधिया गईं। घड़ा ऊपर तक सोने से भरा था। वह खुशी से चिल्ला पड़ा- “भाग्यवान, ओ भाग्यवान! जल्दी आ!”
“आई जी!” नाई की पत्नी जल्दी से उस कमरे में आई जिसमें सोने के घड़े रखे थे।
“यह देख भाग्यवान हम अमीर हो गये, हम अमीर हो गये, सात-सात घड़े सोने से भरे-सब हमारे हैं भाग्यवान” नाई खुशी के कारण नाचने लगा ।
“क्या सच?” नाई की पत्नी ने पूछा।
“बिल्कुल सच!” नाचते हुए नाई ने कहा।
नाई की पत्नी फुर्ती से एक-एक घड़े का ढक्कन हटाकर देखने लगी। साथ-ही-साथ वह गिनती जा रही थी-‘एक -दो-तीन- चार-पाँच-छ:सात… ।
“यह क्या? सातवाँ घड़ा तो आधा खाली है। इसका धन कहाँ गया ?” नाई की पत्नी ने नाई से कहा ।
“क्या कह रही है, सातवाँ घड़ा खाली कैसे है?” ,
नाई आश्चर्य से बोला। फिर कुछ देर सोचने के बाद पुनः बोला-“ भाग्यवान! लगता है यह ऐसे ही हमारे घर आया है, अब हमें यह चिन्ता करनी चाहिए कि यह घड़ा कैसे भरे, तुम ऐसा करो कि अब और ज्यादा खर्च में कमी कर दो, खाने-पीने पर हम ज्यादा ही खर्चा करने लगे हैं और अपने गहने भी मुझे दे दो।”
“गहने क्यों स्वामी?”
“उनको पिघलवा कर इस घड़े में भद्गा!”
“मगर स्वामी ?”
“जल्दी करो, कहीं कोई आ ना जाए ।” नाई ने पत्नी की काट बात दी। उसकी पत्नी ने खामोशी से अपने सभी गहने नाई को दे दिये । गहने ले कर नाई सुनार के पास पहुंचा और उन्हें पिघलवा कर सातवें घड़े में डाल दिया। मगर इस पर भी घड़ा नहीं भरा ।
नाई ने कहा- “कुछ और खर्च कम करो ।”
इस प्रकार उसने खर्च में इतनी कमी की कि वे दोनों सूख कर आधे रह गये। जब राजा ने नाई की यह हालत देखी तो उन्होंने कहा-“नाई क्या बात है, आजकल तुम कुछ ज्यादा ही चिंतित और हारे हुए प्रतीत होते हो?”
“नहीं महाराज, ऐसी कोई बात नहीं है। बस घर के खर्चे के कारण कुछ परेशान हैं।”
“ओह! तो ठीक है। आज से हम आपकी तनख्वाह दुगुनी किये देते हैं।” राजा ने कहा और उसकी तनख्वाह दुगुनी कर दी।
मगर इस पर भी नाई का सातवाँ घड़ा नहीं भरा। वह और ज्यादा चिंतित रहने लगा।
एक दिन अचानक ही राजा ने कहा-“क्यों नाई, तुम्हारी परेशानी का कारण वह धन का सांतवाँ घड़ा है ना?”
“जी महाराज, आपको कैसे पता?” नाई ने आश्चर्य से पूछा।
“नाई वे सात घड़े एक बार मुझे भी दिये गये थे, मगर मुझे लगा कि जरूर कुछ गोलमाल है क्योंकि सातवाँ घड़ा खाली था। तब मैं वृक्ष की उस आवाज के पास गया। वहाँ जाकर मैंने कहा कि सातवाँ घड़ा तो खाली है। आवाज ने
बताया कि वह सदा खाली रहता है। फिर मैं वापिस आ गया। महल में आकर मैं सातों घड़ों के बारे में सोचने लगा। अचानक मुझे याद आया कि उस आवाज़ ने मुझे यह क्यों कहा कि सातवाँ घड़ा हमेशा खाली रहता है, तो समझ में यह आया कि आवाज की बात का तात्पर्य यह था कि उस घड़े को चाहे कितना भरा जाए, वह भरेगा नहीं। तब मुझे अनुभव हुआ कि वह मुझे फांसने का फंदा था, जिससे मुझमें अधिक से अधिक सोना पाने की लालसा बढ़े, चूंकि वह घड़ा कभी भरता नहीं, अतः मेरी सोना पाने की तृष्णा भी नहीं भरती। इसका मतलब यह है कि वह घड़ा तृष्णा का है। तुम स्वयं ही देखो नाई, तुम उस घड़े में चाहे कितना धन डाल लो मगर वह नहीं भरेगा।” राजा ने अपनी बात पूरी कर दी।
“तब तो सातवाँ घड़ा भरा ही नहीं जा सकता महाराज ?” नाई ने कहा।
“इसमें तो कोई सन्देह नहीं। अब तुम अधिक विलम्ब होने से पहले ही उन घड़ों को वापस कर दो।” राजा बोले।
“मगर कैसे महाराज?” नाई ने पूछा।
तुम फिर से उसी वृक्ष के नीचे जाओ और आवाज से घड़ों को वापस लेने को कहो, जिस तरह मेरे पास से घड़े चले गये उसी तरह तुम्हारे पास से भी चले जायेंगे। जाओ नाई, जल्दी करो वर्ना कहीं अधिक विपत्ति में ना पड़ जाओ ।”
राजा की बात सुनकर नाई बहुत डर गया। वह तुरन्त जंगल में उस वृक्ष की ओर दौड़ गया। वृक्ष के पास पहुंचकर उसने उस आवाज से सातों घड़े वापस लेने को कहा।
“ठीक है, मैं ले गूंगी ।” उस आवाज ने कहा।
आवाज से आश्वस्त होकर नाई वापस लौट गया। उसने घर जाकर देखा, उसकी पत्नी रो रही थी और सातों घड़े गायब थे, साथ ही उनकी मेहनत का धन भी जो उन्होंने घड़े में डाला था।
मगर अब रोने से क्या फायदा होना था, नाई की अतृप्त तृष्णा ने उसकी मेहनत भी मिट्टी में मिला दी थी। इसीलिए तो बड़ों का कहना सच ही है कि तृष्णा (या चाहत) इतनी होनी चाहिए कि पाँव या सिर उससे बाहर ना निकलें।।
मित्रों“ अधिक तृष्णा मनुष्य को व्याकुल कर देती है और एक दिन ऐसा भी आता है जब उस मनुष्य को उसी तृष्णा के हाथों अपनी जान गंवानी पड़ती है। इसलिये अच्छा यही है कि मनुष्य को किसी भी वस्तु की इतनी ‘चाह’ रखनी चाहिए जिससे उसे अपनी जान न गंवानी पड़े।”
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