गइपरिणयाण धम्मो, पुग्गलजीवाण गमणसहयारी।
तोयं जह मच्छाणं, अच्छंता णेव सो णेई।।१७।।
गति क्रियाशील जो जीव और, पुद्गल नित गमन करें जग में।
इन दोनों के ही चलने में, यह धर्म द्रव्य सहकारि बने।।
जैसे मछली को चलने में, जल सहकारी बन जाता है।
नहिं रुकी हुई को प्रेरक हो, वैसे यह द्रव्य कहाता है।।१७।।
अर्थ - गति क्रिया में परिणत हुये पुद्गल और जीवों को गमन करने मे जो सहकारी है वह धर्म द्रव्य है जैसे जल मछलियों को गमन में सहकारी है किन्तु वह नहीं चलते हुये को नहीं ले जाता है। अर्थात् जैसे जल प्रेरक नहीं है वैसे ही यह द्रव्य प्रेरक नहीं है।
प्रश्न - धर्मद्रव्य का लक्षण बताओ?
उत्तर - जो जीव और पुद्गलों को चलने में सहकारी होते हैं उसे धर्मद्रव्य कहते हैं।
प्रश्न - यह धर्मद्रव्य दिखता क्यों नहीं है?
उत्तर - क्योंकि धर्मद्रव्य अमूर्तिक होता है।
प्रश्न - फिर यह धर्मद्रव्य चलने में निमित्त कैसे बनता है?
उत्तर - यह नहीं दिखते हुए भी उदासीनरूप से जीव और पुद्गल के गमन में सहकारी होता है। इसके बिना जीव-पुद्गल का गमन नहीं हो सकता है।
प्रश्न - निमित्त कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर - दो प्रकार के—१-प्रेरक निमित्त, २-उदासीन निमित्त।
प्रश्न - धर्मद्रव्य जीव और पुद्गल के लिए कौन-सा निमित्त है?
उत्तर - धर्मद्रव्य जीव और पुद्गल के गमन में सहकारी उदासीन निमित्त है क्योंकि यह बलपूर्वक किसी को चलाता नहीं है। हाँ , कोई चलता है तो सहायक होता है।
प्रश्न - धर्मद्रव्य कहाँ पाया जाता है?
उत्तर - सम्पूर्ण लोकाकाश में धर्मद्रव्य पाया जाता है। धर्म द्रव्य की सहायता बिना जीव पुद्गल का चलना-फिरना, एक स्थान से दूसरे स्थान जाना आदि सारी क्रियाएँ नहीं बन सकती हैं।