श्री सुमतिनाथ जिनपूजा
(कवित्त रूपक मात्रा 31)
संजम रतन विभूषन भूषित, दूषन वर्जित श्रीजिनचंद।
सुमति रमा रंजन भव भंजन, संजयन्त तजि मेरु नरिंद।।
मातु मंगला सकल मंगला, नगर विनीता जये अमन्दा।
सो प्रभु दया सुधारस गर्भित, आय तिष्ठ इत हरि दुखदंद।।
ओं ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय! अत्रावतर अवतर संवौषट् आह्नाननम्।
ओं ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्।
ओं ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्।
अष्टक
(कवित्त तथा कुसुमलता)
पंचम उदधि तनों सम उज्ज्वल, जल लीनों वर गंध मिलाय।
कनक कटोरी मांहि धारि करि, धार देहु शुचि मन वच काय।।
हरिहर वंदित पाप निकन्दित, सुमतिनाथ त्रिभुवन के राय।
तुम पद पù पù शिवदायक, जजत मुदित उदित सुभाय।
ओं ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागर घनसार घसौं वर, केशर अर करपूर मिलाय।
भव तप हरन चरन पर वारों, भवाताप तुरत पलाय।। हरिहर.
ओं ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय भवतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
शशिसम उज्ज्वल सहित गंध तल, दोनों अनी शुद्ध सुखदास।
सो लै अखय संपदा कारन, पुंज धरो तुम चरणन पास।। हरिहर.
ओं ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
कमल केतकी बेल चमेली, करना अरु गुलाब महकाय।
सो ले समरशूल क्षय कारण, जजों चरन अति प्रीत लगाय।। हरिहर.
ओं ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
नव्य गव्य पकवान बनाऊँ, सुरस देखि दृग मन ललचाय।
सो लै खुधा रोग क्षय कारण, धरौं चरण ढिग मन हरषाय।। हरिहर.
ओं ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रतन जड़ित अथवा घृत पूरित, वा कपूरमय जोति जगाय।
दीप धरों तुम चरनन आगें, जातैं केवलज्ञान लहाय।। हरिहर.
ओं ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अगर तगर कृष्णागर चंदन, चूरि अगनि में देत जराय।
अष्ट करम ये दुष्ट जरतु हैं, घूम घूम यह तासु उड़ाय।। हरिहर.
ओं ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीफल मातुलिंग वर दाड़िम, आम निंबु फल प्रासुक लाय।
मोक्ष महाफल चाखन कारन, पूजत हों तुमरे जुग पाय।। हरिहर.
ओं ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चंदन तन्दुल प्रसून चरु, दीप धूप फल सकल मिलाय।
नाचि नाचि शिर नाय समरचों जय जय जय जय जिनराय।।
हरिहर वंदित पाप निकन्दित, सुमतिनाथ त्रिभुवन के राय।
तुम पद पù पù शिवदायक, जजत मुदित मन उदित सुभाय।।
ओं ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक
(रुप चैपाई)
संजयंत तजि गरभ पधारे, सावण सेत दुतिय सुखकारे।
रहे अलिप्त मुकुर जिमि छाया, जजौं चरण जय जय जिनराया।।
ओं ह्रीं श्रावणशुक्लाद्वितीयादिने गर्भमंगलमंडिताय श्री सुमतिनाथ - जिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
चैत शुकल ग्यारस कहं जानों, जनमें सुमति सहित त्रय ज्ञानों।
मानों धर्यो धरम अवतारा, जजों चरण जुग अष्ट प्रकारा।।
ओं ह्रीं चैत्रशुक्लैकादश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्री सुमतिनाथ-जिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
चैत शुकल ग्यारस तिथि भाखा, ता दिन तप धरि निजरस चाखा।।
पारण पù सùमय कीनों, जजत चरन हम समता भीनों।
ओं ह्रीं चैत्रशुक्लैकादश्यां तपोमंगलमंडिताय श्री सुमतिनाथ-जिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
शुकलचैत एकादशि हाने, घाति सकल जे जुगपति जाने।
समवसरन महँ करि वृषसारं, जजहूँ अनन्त चतुष्टय धारं।।
ओं ह्रीं चैत्रशुक्लैकादश्यां ज्ञानसाम्राज्यप्राप्ताय श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
चैत शुकल ग्यारस निरवानं, गिरि समेदतैं त्रिभुवन मानं।
गुन अनंत जिन निरमल धारी, जजौं देव सुधि लेहु हमारी।।
ओं ह्रीं चैत्रशुक्लैकादश्यां मोक्षमंगलप्राप्ताय श्री सुमतिनाथ-जिनेन्द्राय अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
जाप मंत्र
पुष्प से 9, 27 या 108 बार निम्न दो मंत्रों में से किसी एक मंत्र का जाप करें।
1. ओं ह्रीं सरस्वती, लक्ष्मी, सर्वाण्हयक्ष, सनत्कुमारयक्ष, अष्टप्रातिहार्य, अष्टमंगलद्रव्य, तुम्बरुयक्ष, पुष्पदत्तायक्षी, पंचदशतिथिदेवता, नवग्रहदेवता, पंचक्षेत्रपालादि सचित्ताचित्तमिश्र परिकरसहिताय शतेन्द्र पूजिताय श्रीपुष्पदन्तानाथजिनेन्द्राय नमः मम ऋद्धि;ं वृद्धिं सौख्यं कुरु कुरु स्वाहा।
2. ओं ह्रीं तुम्बरुयक्ष, पुरुषत्तायक्षी आदि सचित्त अचित्त मिश्र परिकरसहिताय श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय नमः मम ऋद्धिं वृद्धिं सौख्यं कुरु कुरु स्वाहा।
जयमाला
दोहा
सुमति तीनसौ छत्तिसो, सुमति भेद दरशाय।
सुमति देहु विनती करों, सुमति विलम्ब कराय।।
दया बेलि तरु सुगुन विधि, भविक मोद-गण चन्द।
सुमति सती पत्ति सुमति कों, ध्यावौं करि आनन्द।।
पंच परावरतन हरन, पंचसुमति सित दैन।
पंच लब्धि दातार के, गुन गाऊँ दिन रैन।।
छन्द भजंगप्रयात
पिता मेघराजा सबै सिद्धकाजा, जपै नाम जाकौ सबै दुःख भाजा।
महासूर इक्ष्वाकु वंशी विराजै, गुण-ग्राम जाको सबै ठौर छाजै।।
तिन्हों के महापुण्यसों आप जाये, तिहुँ लोक में जीव आनन्द पाये।
सुनासीर ताही धरी मेरु धायो, क्रिया जन्म की सर्व कीनी यथा यो।।
बहुरि तात कों सौंपि संगीत कीनों, नमें हाथ जोरें भलो भक्ति भीनों।
बिताई दशै लाख ही पूर्व बालै, प्रजा लाख उन्तीस ही पूर्व पालै।।
कछु हेतुतैं भावना बार भाये, तहां ब्रह्म लौकांत के देव आये।
गये बोधि ताही समै इन्द्र आयो, धरे पालकी में सु उद्यान ल्यायो।।
नमैं सिद्ध को केशलोंचे सबै ही, धर्यो ध्यान शुद्ध जु घाती हने ही।
लह्यो केवलं औ समोसर्न साजं, गणाधीश जू एकसौ सोल राजं।।
खिरैं शब्द तामैं छहों द्रव्य धारे, गुनौ पर्जय उत्पाद व्यय ध्रौव्य सारे।
तथा कर्म आठों तनी थित्ति गाजं, मिलै जासु के नाशतैं मोच्छराजं।।
धरै मोहिनी सत्तरं कोड़कोड़ी, सरित्पत्प्रमाणं थिति दीर्घ जोड़ी।
अवधिज्ञान दृग्वेदनी अंतरायं, धरैं तीस कोड़ाकोड़ी सिंधुकायं।।
तथा नामगोतं कुड़ाकोड़ि बीसं, समुद्रप्रमाणं धरैं सत्तईसं।
सु तैंतीस अब्धि धरें आयु लब्धि, कहे सर्व कर्मोतनी वृद्ध लब्धि।।
जघन्य प्रकारैं धरैं भेद ये ही, मुहूत्र्त वसू नामगोतं गने ही।
तथा ज्ञान दृग्मोह प्रत्यूह आयं, सुअन्तर्मुहूर्तं धरैं थित्ति गायं।।
तथा वेदनी बारहे ही मुहूत्र्त, धरैं थित्ति ऐसे भन्यो न्याय जुत्तं।
इन्हैं आदि तत्त्वार्थ भाख्यो अशेषा, लह्यो फेरि निर्वाण माहीं प्रवेशा।।
अनन्त महन्तं सुसन्तं सुतन्तं, अमन्दं अफन्दं अनन्दं अभन्तं।
अलक्षं विलक्षं सुलक्षं सुदक्षं, अनक्षं अवक्षं अभक्षं अतक्षं।।
अवर्ण अघर्ण अमर्ण अकर्ण, अभर्ण अतर्ण अशर्ण सुशर्ण।
अनेकं सदेकं चिदेकं, विवेकं, अखण्डं सुमण्डं प्रचण्डं तदेकं।।
सुपर्म सुधर्म सुशर्म अकर्म, अनन्तं गुनाराम जैवन्त धर्म।
नमैं दास ‘वृन्दावन’ शर्न आई, सबै दुःखतैं मोहि लीजै छुड़ाई।।
ओं ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय पूर्णाघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
तुव सुगुन अनन्ता, ध्यावत संता, भ्रमतप भंजन मार्तंडा।
सतमतकर चंडा भविकज मंडा, कुमति कुवलइन गन हंडा।।
।।इत्याशीर्वादः-शांतये त्रय शांतिधारा - परिपुष्पांजलिं क्षिपेत्।।
तंुबरु यक्ष का अर्घ
सुमतिनाथ के शासन रक्षक, तंबरु को आह्नानन है।
आओ तिष्ठो पास हमारे, करते यही निवेदन है।।
स्वीकारो स्वीकारो मेरा अर्घ देव तुम स्वीकारो।
जिनवर के मुझ श्रद्धानी को ले अपने संग में तारो।।
ओं आं क्रौं ह्रीं तुंबरुु यक्ष देवतेभ्यो जलादि अघ्र्य समर्पयामीति स्वाहा।
पुरुषदत्ता यक्षी का अर्घ
सुमतिनाथ की शासन रक्षक, पुरुषा को आह्नानन है।
आओ तिष्ठो पास हमारे, करते यही निवेदन है।।
स्वीकारो स्वीकारो मेरा अर्घ देव तुम स्वीकारो।
जिनवर के मुझ श्रद्धानी को ले अपने संग में तारो।।
ओं आं क्रौं ह्रीं पुरुषदत्ता यक्षिदेवतेभ्यो जलादि अघ्र्य समर्पयामीति स्वाहा।
क्षेत्रपालजी का अर्घ
सुमतिनाथ के क्षेत्रपालजी सुनो सुनो आह्नानन है।
आओ तिष्ठो पास हमारे, करते यही निवेदन है।।
स्वीकारो स्वीकारो मेरा अर्घ देव तुम स्वीकारो।
जिनवर के मुझ श्रद्धानी को ले अपने संग में तारो।।
ओं आं क्रौं ह्रीं अत्रस्थ सुमतिनाथ जिनस्य क्षेत्रपाल, भूमिपाल आदि सचित्त अचित्त मिश्र देवतेभ्यो जलादि अघ्र्य समर्पयामीति स्वाहा।
।। इति।।