🍇शास्त्र - गोम्मटसार जीवकाण्ड
🔅प्ररूपणा एवं गुणस्थान (प्रथम अधिकार)गुणस्थान
गुणस्थानसार
🍹१२. मोहनीय कर्म के सर्वथा नष्ट हो जाने से क्षीणकषाय मुनि निर्ग्रन्थ वीतराग कहलाते हैं। भावार्थ—सातिशय अप्रमत्त गुणस्थान वाले कोई मुनि उपशम श्रेणी में चढ़ते हुये २१ प्रकृतियों को उपशम करते हुए आठवें, नवमें, दशवें और ग्यारहवें तक जाते हैं वहाँ से गुणस्थान का अंतर्मुहूर्त काल पूर्ण कर नियम से नीचे गिरते हैं क्योंकि उपशम की गई २१ कषाय प्रकृतियों में से किसी का उदय आ जाता है अथवा मरण हो जाता है। जो मुनि २१ प्रकृतियों का नाश करते हुये क्षपक श्रेणी पर चढ़ते हैं वे नियम से ग्यारहवें में न जाकर बारहवें में जाते हैं और वहाँ अंत समय में ज्ञानावरणादि का नाश कर केवली बन जाते हैं।
🌻१३. यहाँ तेरहवें गुणस्थान में केवलज्ञान प्रगट हो जाता है और क्षायिक भावरूप नवकेवललब्धियाँ प्रकट हो जाती हैं। ये परमात्मा अर्हंत परमेष्ठी कहलाते हैं। कुछ अधिक आठ वर्ष कम एक कोटिपूर्व वर्ष तक इस गुणस्थान में केवली भगवान रह सकते हैं ।
🍁१४. सयोगकेवली योग निरोध कर चौदहवें गुणस्थान में अयोगी-केवली कहलाते हैं। पहले, दूसरे, तीसरे गुणस्थान तक बहिरात्मा, चौथे से बारहवें तक अंतरात्मा एवं तेरहवें, चौदहवें में परमात्मा कहलाते हैं। आयु कर्म के बिना शेष सात कर्मों की गुणश्रेणी निर्जरा का क्रम—सातिशयमिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि, श्रावक, विरत, अनंतानुबंधी के विसंयोजक, दर्शनमोह के क्षपक, कषायों के उपशामक, उपशांत कषाय, कषायों के क्षपक, क्षीणमोह, सयोगी और अयोगी इन ग्यारह स्थानों में कर्मों की निर्जरा क्रम से असंख्यातगुणी-असंख्यातगुणी अधिक-अधिक होती जाती है।
🔅चौदहवें गुणस्थान के अंत में सम्पूर्ण कर्मों से रहित होकर सिद्ध परमेष्ठी हो जाते हैं। वे नित्य, निरंजन, अष्टगुण सहित, कृतकृत्य हैं और लोक के अग्रभाग में विराजमान हो जाते हैं। आत्मा से सम्पूर्ण कर्मों का छूट जाना ही मोक्ष है। ये सिद्ध परमेष्ठी गुणस्थानातीत कहलाते हैं।
इनमें अविरत सम्यग्दृष्टि चतुर्थ गुणस्थानवर्ती, पहली प्रतिमा से लेकर ग्यारहवीं प्रतिमा तक अणुव्रतों का पालन करने वाले देशव्रती पंचमगुणस्थानवर्ती एवं सर्व आरंभ-परिग्रह त्यागी मुनिराज महाव्रती षष्ठ गुणस्थानवर्ती होते हैं।
🍓शास्त्र - गोम्मटसार जीवकाण्ड
🌻जीवसमास प्रकरण (द्वितीय अधिकार)
🍹जीव समास का लक्षण
जेहिं अणेया जीवा, णज्जंते बहुविहा वि तज्जादी।
ते पुण संगहिदत्था, जीवसमासा त्ति विण्णेया।।२७।।
यैरनेके जीवा नयन्ते, बहुविधा अपि तज्जातय:।
ते पुन: संगृहीतार्था, जीवसमासा इति विज्ञेया:।।२७।।
🌻अर्थ—जिनके द्वारा अनेक जीव तथा उनकी अनेक प्रकार की जाति जानी जाएँ, उन धर्मों को अनेक पदार्थों का संग्रह करने वाले होने से जीवसमास कहते हैं, ऐसा समझना चाहिए।
🍁भावार्थ—उन धर्मविशेषों को जीवसमास कहते हैं कि जिनके द्वारा अनेक जीव अथवा जीव की अनेक जातियों का संग्रह किया जा सके क्योंकि केवलज्ञान के बिना जीवों का स्वरूप और भेद प्रत्यक्ष नहीं जाना जा सकता अतएव छद्मस्थों को उनका बोध कराना ही इस प्ररूपणा का प्रयोजन है। संग्रहनय से जिन पर्यायाश्रित अनेक जीवों में पाये जाने वाले समान धर्मों के द्वारा उनका संक्षेप में ज्ञान कराया जा सके उनको ही जीवसमास कहते हैं। टीकाकारों ने जीवसमास शब्द से एकेन्द्रियत्व आदि जातिधर्म अथवा उससे युक्त त्रस आदि अविरुद्ध धर्म तथा तद्वान् जीव इस तरह तीन अर्थ बताये हैं।
इसका कारण उन धर्मों में पाई जाने वाली सदृशता है जैसा कि आगे की गाथा में बताया गया। इस गाथा में प्रयुक्त ‘‘अणेय’’ शब्द का अर्थ ‘‘अज्ञेया’’ ऐसा भी होता है जिससे अभिप्राय यह बताया गया है कि यद्यपि संसारी प्राणियों को जीव द्रव्य अज्ञेय है, फिर भी जिन सदृश धर्मों के द्वारा उनका बोध हो सकता है उनको ही जीवसमास कहते हैं। इस शब्द की निरूक्ति इस तरह होती है कि जीवा: समस्यन्ते-संक्षिप्यन्ते-संगृहयन्ते यै: धर्मैस्ते जीवसमासा:’’। अर्थात् अज्ञेया होने पर भी जिन एकेन्द्रियत्व बादरत्व आदि धर्मों के द्वारा संग्रहरूप में अनेकों जीवों और उनकी विविध जातियों का निश्चय हो सके, उनको ही जीवसमास कहते हैं।
**पोस्ट नम्बर 192*
*भोगभूमिज मनुष्य की विशेषता*
1. भोगभूमियाँ जीवों की आवश्यकताओं की पूर्ति कल्पवृक्षों से होती हैं।
2. नर-नारी युगल रुप में जन्म-मरण करते हैं। माता-पिता अपनी संतान का मुख नहीं देख पाते।
3. छींक और जंभाई आते ही माता-पिता का मरण हो जाता है।
4. भोगभूमिज मनुष्य का परिवार या कुटुम्ब नहीं होता, कुल, जाति, स्वामी, सेवक, का भेद नहीं होता, परस्पर बैर विरोध नहीं होता है।
5. भोगभूमि के सभी जीव वज्रवृषभनाराच संहनन और समचतुरस्र संस्थान वाले होते हैं।
6. भोगभूमिज मनुष्यों का आहार होता है, निहार नहीं होता है।और पसीना भी नहीं आता है।
7. भोगभूमिज जीवों का केवल गर्भ जन्म होता है। मरण होने पर शरीर कपूर की भाँति उड़ जाता है।
8. भोगभूमिज मनुष्य मुकुट,कुण्डल, कटिमेखला, बाजुबंध, रत्नमयी, आदि आभूषण धारण करतें हैं, भोगभूमि में जिनमंदिर नहीं होते हैं।
9. भोगभूमि के सिंह आदि जीव भी शाखाहारी होते हैं , रोग, भय, चिंता, शारीरिक कष्ट आदि वहां के जीवों को नहीं होते हैं।
10. भोगभूमिज जीव निश्छल होते हैं, परस्पर अनुराग से सहित होतें हैं, सूर्य के समान दैदीप्यमान होते हैं, 64 कलाओं में निपुण होते हैं।
11. यहां के एक पुरुष में 9000 हाथियों का बल होता है।
12. भोगभूमि मिथ्यादृष्टि जीव भवनत्रिक में, एवं सम्यग्दृष्टि जीव सौधर्म,ईशान स्वर्ग में जन्म लेते हैं।
13. भोगभूमि के जीव जातिस्मरण से, देवों के प्रतिबोध से, ऋद्धिधारी मुनिराज के उपदेश से सम्यक्त्व ग्रहण कर सकतें हैं।