🍍आगम स्वाध्याय भाग -१४३
शास्त्र:-पद्मनंदीपंञ्चविंशतिका भाग-८८
श्रावकाचारअधिकार-
तं देशं तं नरं तत्स्वं तत्कर्माण्यपि नाश्रयेत् ।
मलिनं दर्शनं येन येन च व्रतखण्डनम् ।।२६।।
अर्थ —सम्यग्दृष्टिश्रावक ऐसे देश को तथा ऐसे पुरूषों को और ऐसे धन को तथा ऐसी क्रिया को कदापि आश्रयण नहीं करते जहां पर उनका सम्यग्दर्शन मलिन होवे तथा व्रतों का खंडन होवे।।२६।।
भोगोपभोगसंख्यानं विधेयं विधिवत्सदा।
व्रतशून्या न कर्तव्या काचित्कालकला बुधै:।।२७।
अर्थ —आचार्य उपदेश देते हैं कि श्रावकों को भोगोपभोगपरिमाणव्रत सदा करना चाहिये और विद्वानों को एक क्षण भी बिना व्रत के नहीं रहना चाहिये।।२७।।
रत्नत्रयाश्रय: कार्यस्तथा भव्यैरतन्द्रितै:।
जन्मान्तरेऽपि यच्छ्रद्धा यथा संबर्धतेततराम्।।२८।।
अर्थ —आलस्यरहित होकर भव्य जीवों को उसी रीति से रत्नत्रय का आश्रय करना चाहिये जिससे दूसरे —२ जन्मों में भी उनकी श्रद्धा बढ़ती चली जावे।।२७।।
विनयश्च यथायोग्यं कर्तव्य: परमेष्ठिषु ।
दृष्टिवोधचरित्रेषु तद्वत्सु समयाश्रितै: ।।२९।।
अर्थ —जो जिनेन्द्र के सिद्धान्त के अनुयायी हैं उन भव्य जीवों को योग्यतानुसार, जो उत्कृष्टस्थान में रहने वाले हैं ऐसे परमेष्ठियों में विनय अवश्य करनी चाहिये तथा सम्यग्दर्शन , सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र में और इनके धारण करने वाले महात्माओं में भी अवश्य विनय करना चाहिये।
भावार्थ —जो मनुष्य जिनेन्द्र सिद्धान्त के भक्त हैं तथा धर्मात्मा हैं उनको समसरणलक्ष्मीकरयुक्त, और चारघातिया कर्मों को नाशकर केवलज्ञान आदि अनन्त चतुष्टय के धारी, श्री अर्हन्त परमेष्ठी में तथा समस्त कर्मों को नाशकर लोक के शिखर पर विराजमान और अनन्तज्ञानादि आठ गुणों कर सहित सिद्धपरमेष्ठी में तथा दर्शनाचार ज्ञानाचार आदि पांच आचारों को स्वयं आचरण करने वाले और अन्यों को भी आचरण कराने वाले ऐसे आचार्य परमेष्ठी में, तथा ग्यारह अंग चौदह पूर्व के पढ़ने पढ़ाने के अधिकारी ऐसे उपाध्याय परमेष्ठी में, और रत्नत्रय को धारण कर मोक्ष के अभिलाषी ऐसे साधु परमेष्ठी में, अवश्य विनय करनी चाहिये उसी प्रकार सम्यक्दर्शन सम्यग्ज्ञानादि रत्नत्रय तथा उस रत्नत्रय के धारण करने वालों में भी अवश्य विनय करनी चाहिये।।२९।।
दर्शनज्ञानचारित्रतप:प्रभृति सिध्द्यति।
विनयेनेति तं तेन मोक्षद्वारं प्रचक्षते।।३०।।
अर्थ —विनय से सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र तथा तप आदि की प्राप्ति होती है इसलिये उस विनय को गणधर आदि महापुरूष मोक्ष का द्वार कहते हैं अत: मोक्ष के अभिलाषी भव्यों को यह विनय अवश्य करनी चाहिये।।३०।।
सत्पात्रेषु यथाशक्ति दानं देयं गृहस्थितै: ।
दानहीना भवेत्तेषां निष्फलैव गृहस्थता।।३१।।
अर्थ —धर्मात्मा गृहस्थों को मुनि आदि उत्तम पात्रों में शक्ति के अनुकूल दान भी अवश्य देना चाहिये क्योंकि बिना दान के गृहस्थों का गृहस्थपना निष्फल ही है।।३१।।
दानं ये न प्रयच्छन्ति निर्ग्ंरथेषु चतुर्विधम् ।
पाशा एव गृहास्तेषां बन्धनायैव निर्मिता।।३२।।
अर्थ —जो पुरूष निर्ग्रंथ यतीश्वरों को आहार औषधि अभय तथा शास्त्र इस प्रकार चार प्रकार के दान को नहीं देते हैं उनके लिये घर जाल के समान केवल बांधने के लिये ही बनाये गये हैं ऐसा मालूम होता है।
भावार्थ — जिस घर में यतीश्वरों का आवागमन बना रहता है वे घर तथा उन घरों में रहने वाले श्रावक धन्य गिने जाते हैं किन्तु जो मनुष्य यतीश्वरों को दान नहीं देते इसलिये जिनके घर में यतीश्वर नहीं आते वे घर नहीं हैं किन्तु मनुष्यों के फाँसने के लिये जाल हैं इसलिये भव्यजीवों को चाहिये कि वे प्रतिदिन यथायोग्य यतीश्वरों को दान अवश्य दिया करें।।३२।।
अभयाहारभैषज्यशास्त्रदाने हि यत्कृते।
ऋषीणां जायते सौख्यं गृही श्र्लाघ्य: कथं न स:।।३३।।
अर्थ —जिस गृहस्थ के अभयदान आहारदान औषधिदान तथा शास्त्र दान के करने पर यतीश्वरों को सुख होता है वह गृहस्थ क्यों नहीं प्रशंसा के योग्य है ? अर्थात् उस गृहस्थ की सर्वलोक प्रशंसा करता है इसलिये ऐसा उत्तमदान गृहस्थों को अवश्य देना चाहिये।।३३।।
✋शुभाशीर्वाद