श्री उत्तम त्याग धर्म की जय हो।आज हम उत्तम त्याग धर्म पर स्वाध्याय करेंगे।वास्तव में जिसने आत्मा का अनुभव किया हैं, उसको ज्ञानानंद आत्मा के अलावा अपने चैतन्य स्वभाव में कुछ नही दिखा तो उस जीव ने ज्ञानस्वभाव से अन्य जितने भी पदार्थ हैं उससे अपना नाता तोड़ दिया। क्योंकि की उसको ख्याल में आ गया कि नाता तो मैंने बलात मान रखा था। नाता कोई हैं ही नहीं।क्योंकि अन्य पदार्थ मेरे स्वभाव में है ही नहीं।तो उसको अपना मानने का त्याग किया, उससे प्रीति का त्याग किया,उसमे कर्तत्व का त्याग किया,उसमे ममत्व का त्याग किया। इसप्रकार समस्त परद्रव्यों से भिन्न अपने चैतन्य स्वभाव में स्थित हुवा तो अपने आप पर से नाता टूट गया तो उसका त्याग किया ऐसा कहा जाता हैं।श्री समयसार जी गाथा 34 में भी आचार्य देव ने बताया था कि ज्ञान ही प्रत्याख्यान यांनी की त्याग हैं।जो अपनी आत्मा से भिन्न समस्त पर पदार्थो में यह पर हैं ऐसा जानता हैं और परपदार्थो का त्याग करता हैं, इसलिए ज्ञान ही प्रत्याख्यान है ऐसा कहा जाता हैं।

श्री प्रवचन सार जी गाथा 239 में भी त्याग की परिभाषा ऐसी बताई हैं कि निज शुद्धात्मा के ग्रहण पूर्वक बाह्य और आभ्यान्तर परिग्रह से निवृत्ति ही त्याग हैं।जब निज शुद्धात्मा का ग्रहण हुआ तो उसमें अन्य सर्व पदार्थ अपने से भिन्न दिखे और ऐसा देखते ही उसमें जो अपने पन का अनादि से इस जीव को आग्रह बना हुवा था उसका अभाव हुवा। उसको उत्तम त्याग धर्म कहेते हैं।

द्वादश अनुप्रेक्षा में भी त्याग की परिभाषा ऐसी बताई हैं कि जो जीव सम्पूर्ण परद्रव्यों से मोह छोड़कर संसार,देह,और भोगो से उदासीन परिणाम रखता हैं उसको त्यागधर्म कहेते हैं।बहुत ही सुंदर परिभाषा हैं यह भी,अपने स्वरूप से जो मोहित हो गया हैं, अपना चैतन्य ज्ञानानंद जिसको अनुभव में आगया हैं, उसको अब संसार के प्रति यांनी रागादिक भावों के प्रति ,देह जिसके कारण मूल रूप से यह रागादिक भावों की उत्पत्ति होती हैं उसके प्रति और उसके माध्यम से जो भोगदिक सामग्री हैं उसके प्रति उदासीन परिणाम हो गया हैं वह त्याग धर्म हैं। उदासीन का अर्थ निराशा नहीं हैं। उदासीन का अर्थ उपयोग अब उसमे आसीन नहीं रहा, उपयोग अपने स्वरूप में आसीन हुवा तो पर द्रव्य से उपयोग उठ गया।उसको उदासीन कहेते हैं।स्वरूप में जो उपयोग आसीन हुवा हैं वह अन्य सभी परद्रव्यों से उसके हेतु से उत्पन्न होने वाले रागादिक भावों से,देह से और भोगों से उदासीन हो जाता हैं। वह उत्तम त्याग धर्म हैं।

अधिकांश लोग त्याग को और दान को एक करके समझते हैं। लेकिन दोनों अलग अलग बात हैं। अधिकांश रूप से त्याग जिन वस्तुओं का किया जाता हैं, उन वस्तुओं का दान नहीं दिया जाता हैं। जैसे जब जीव मुनिदिक्षा लेता हैं तब पुर्र4,बीबी, माता पिता का त्याग करता हैं ,लेकिन उनका दान नहीं कर सकता हैं। यह तो वास्तव में व्यवहार कथन हैं। वास्तव में जीव उनके प्रति का मोहदिक भावों का त्याग करता हैं, लेकिन उन मोहदिक भावों का जीव दान नही कर सकता हैं। और जो धन  का भी त्याग करता हैं तो धन का दान नहीं होता हैं। दान के 4 प्रकार हैं उसमें आहार दान,अभयदान, ज्ञानदान, ओषध दान होता हैं तो उनमें धन दान ऐसा कहा ही नहीं हैं। और इन पदार्थों का त्याग नहीं किया जा सकता हैं। यांनी की आप ज्ञानत्याग नहीं कर सकते हो,ओषध त्याग नहीं कर सकते हो,अभय त्याग नहीं कर सकते हो। और त्याग बुरी वस्तु का किया जाता हैं और दान अच्छी वस्तुओं का दिया जाता हैं।त्याग स्वतंत्र क्रिया हैं, दान स्वतंत्र क्रिया नहीं हैं उसमें अन्य के हस्तक्षेप की जरूर हैं।त्याग में एक की ही बात हैं, दान में दो की बात हैं।त्याग करने वाला महान होता हैं, दान करने वाले कि अपेक्षा से। जैसे जिन मुनिराज को दान दिया जाता हैं, वह मुनिराज महान हैं और उसको दान करने वाला उतना महान नहीं हैं। इसतरह दान में और त्याग में बहुत अंतर हैं।

स्वरूप में मस्ती करते हुये अन्य पदार्थो से ममत्व,कृतत्व,भोक्तुत्व का अभाव हो जाता उसके प्रति अब मोह ही नही रहना उसका त्याग कहा जाता हैं। ऐसा जीव अब उन पदार्थों को संयोग में भी नहीं देखना चाहता होने से उनका संयोग से भी त्याग करता हैं यह उत्तम त्याग हैं। 

इसप्रकार हम बाह्य पदार्थों में अच्छी हैं उनको तो जरूरत जीवो को दान करके उसके प्रति के ममत्व का त्याग करके अपने स्वरूप में विश्रान्ति करे यही मूल रूप से त्याग धर्म हैं।

🙏 ॐ नमः सिद्धेभ्यः🙏