*लोककहानी :अहं ढपोलशंखोSस्मि ?*
*लोककहानी :अहं ढपोलशंखोSस्मि ?*
*लोककहानी :अहं ढपोलशंखोSस्मि ?*
एक गृहस्थ ने साधु-बाबा की बहुत सेवा की थी ।
साधुबाबा के पास पद्म नामका एक छोटा सा शंख था ,
जब गृहस्थ साधु के आश्रम से घर लौटने लगा तो साधु ने उसकी सेवा से प्रसन्न हो कर वह शंख उसे दे दिया ,कहा कि >>
इसकी पूजा करना , यह तुम्हारी जरूरत के मुताबिक
तुम्हें धन दे दिया करेगा !
जब वह गृहस्थ अपने घर लौट रहा था ,तब रास्ते में एक रात एक आदमी के घर पर रुका ।
जब वह सोने को हुआ तो उसके मन में कुतूहल हुआ कि देखूं कि यह शंख कुछ देता भी है या साधु की बात यों ही है ?
उसने शंख की पूजा की और एक स्वर्णमुद्रा मांगी !
शंख में से सचमुच एक स्वर्णमुद्रा निकल पड़ी , वह खुश हो गया !
यह घटना उस आदमी ने देख ली ,जिसके घर पर वह रुका हुआ था , उसके मन में लालच आया और उसने उसकी झोली में वैसा ही छोटा शंख रख दिया और वह पद्म नामका शंख चुरा लिया !
जब गृहस्थ अपने घर आया और शंख की पूजा करके एक स्वर्णमुद्रा मांगी तो कुछ भी नहीं निकला !
वह निराश हो कर पुन: साधु के पास गया >> महात्माजी , इस शंख ने एक बार तो स्वर्णमुद्रा दे दी थी , लेकिन अब कुछ भी नहीं देता !
साधुबाबा ने पूछा कि यहां से लौटते समय क्या तुम किसी के घर पर रुके थे ?
गृहस्थ ने कहा >> हां ,एक आदमी के यहां एक रात गुजारी थी !
साधुबाबा समझ गये !
अबकी बार उन्होंने एक बड़ा शंख दिया और कहा कि लौटते समय तुम फिर से उसी के यहां रुकना और शंख से स्वर्णमुद्रा मांगना !
गृहस्थ ने वैसा ही किया और रात को शंख की पूजा करके स्वर्णमुद्रा मांगी । शंख में से जोर की आवाज निकली >> वत्स ! तूने एक ही स्वर्णमुद्रा क्यों मांगी ? मैं दूसरे शंखों की तरह कृपण थोड़े ही हूं , कल मैं तुझे दस स्वर्णमुद्रा दूंगा ।
घर वाला वह आदमी यह देख रहा था , उसने सोचा कि कल दस स्वर्णमुद्रा मिलेंगी !
उसने पद्म नामका छोटा वाला शंख तो उसकी झोली में रख दिया और बड़ा वाला शंख चुरा लिया !
सबेरे गृहस्थ तो अपने घर चला गया . अब उस आदमी ने बड़े शंख की पूजा करके कल कही गयी बात के अनुसार दस स्वर्णमुद्रा मांगी >>
शंख में से जोर की आवाज निकली >> वत्स ! तूने केवल दस स्वर्णमुद्रा ही क्यों
मांगी ? मैं दूसरे शंखों की तरह कृपण थोड़े ही हूं , कल मैं तुझे एक सौ स्वर्णमुद्रा दूंगा ।
आदमी को बहुत खुशी हुई कि कल सौ स्वर्णमुद्रा मिलेंगी !
दूसरे दिन आदमी ने शंख की पूजा करके एक सौ स्वर्णमुद्रा मांगी तो
शंख में से जोर की आवाज निकली >> वत्स ! तूने केवल एक सौ स्वर्णमुद्रा
ही क्यों मांगी ? मैं दूसरे शंखों की तरह कृपण थोड़े ही हूं , कल मैं तुझे एक हजार स्वर्णमुद्रा दूंगा ।
इसी प्रकार शंख ने तीसरे दिन दस हजार स्वर्णमुद्रा देने को कह दिया और चौथे दिन एक लाख स्वर्णमुद्रा देने को कहा । आदमी बहुत खुश हो गया !
पांचवें दिन उस आदमी ने शंख की पूजा करके प्रार्थना की कि > हे प्रभो ! आपने मुझे कल एक लाख स्वर्णमुद्रा देने को कहा था , आज कृपा करिये ।
शंख में से जोर की आवाज निकली >> वत्स ! तूने केवल एक लाख स्वर्णमुद्रा ही क्यों मांगी ? मैं दूसरे शंखों की तरह कृपण थोड़े ही हूं , कल मैं तुझे दस लाख स्वर्णमुद्रा
दूंगा ।
आदमी ने कहा >> प्रभो ! आप कह तो देते हैं किन्तु देने का नंबर कब आयेगा ?
शंख में से जोर की आवाज निकली >
> वत्स ! तू जानता नहीं ,अहं ढपोलशंखोSस्मि ?
मेरा काम तो बस बोलना ही बोलना है , बोलना ही बोलना और बस !
ढपोलशंख तो बोल करके ही खुश करता है , देने से मेरा क्या काम ?
आदमी समझ गया ! आदमी समझ तो गया किन्तु उसके मन में पश्चात्ताप रहा कि समझने में देर बहुत हो गयी !
प्रश्न नही स्वाध्याय करे!!
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