*श्रुत पंचमी क्यों मनाते हैं?*
श्रुत पंचमी जैन धर्म का प्रमुख त्यौहार है एक कथा के अनुसार 2000 वर्ष पहले जैन धर्म के एक संत धरसेनाचार्य को अचानक यह अनुभव हुआ कि उनके द्वारा अर्जित जैन धर्म का ज्ञान केवल उनकी वाणी तक सीमित है उन्होंने सोचा कि शिष्यों की स्मरण शक्ति कम होने पर ज्ञान वाणी नहीं बचेगी।
धवला टीका के रचयिता आचार्य वीरसेन स्वामी के अनुसार भगवान महावीर के मुख से श्री इंद्र भूति( गौतम )गणधर ने श्रुत को धारण किया। उनसे सुधर्माचार्य ने और उनसे जम्बू नामक अंतिम केवली ने ग्रहण किया।
पश्चात 100 वर्ष में नंबर 1. विष्णु 2.नंदी मित्र 3.अपराजिता 4. गोवर्धन और5. भद्रबाहु ये पांच आचार्य पूर्ण द्वादशांग के ज्ञाता श्रुत केवली हुए ।
तदनंतर 11अंग और दश पर्वों के वेत्ता से 11 आचार्य हुए1. विशाखा चार्य2. प्रोष्ठन 3 छत्रिय 4.जय5. नाग 6.सिद्धार्थ 7 घरतिसेन 8. विजय9. बुद्धि ल10. गंगसेन और11. धर्म सेन इनका काल183 वर्ष है
तत्पश्चात 1.नक्षत्र2. जयपाल3. पांडु 4. धुव्र सेन5. कंस यह पांच आचार्य 11 अंगों के धारक हैं इनका काल 220 वर्ष है ।
तदनंतर 1. सुभद्र ,2.यशो भद्र, 3.यशोभद्रऔर 4. लोहर्य ये चार आचार्य एकमात्र अचरांग के धारक हुए ।इनका समय 11 वर्ष है इसके पश्चात अंग और पुर्बवेत्ताओं की परंपरा समाप्त हो गई और सभी अंगों और पूर्वो के एक देश का ज्ञान आचार्य परंपरा से धरसेना चार्य को प्राप्त हुए ।
आचार्य धरसेन कठियावाड़ में स्थित गिरनार की गुफा में रहते थे ।जब भी बहुत वृद्ध हो गए तब उन्होंने श्रुत ज्ञान परंपरा को सतत बनाए रखने हेतु दो मुनिराज 'पुष्पदंत' तथा भूतबलि श्रुत ज्ञान प्रदान किया ।इस ज्ञान के माध्यम से मुनिराजों ने छह खंडों (जीवस्थान स्वामित्व वेदना और महाबंध )की रचना की जिस दिन भूतबली आचार्य ने षठखंडागम सूत्रों को पूर्ण रूप से ग्रंथ रूप में किया और ज्येष्ठ सुदी पंचमी के दिन चतुर्बिध संघ सहित कृति कर्म पूर्वक महापूजा की। क्योंकि भगवान महावीर के दर्शन को पहली बार लिखित ग्रंथ के रूप में प्रस्तुत किया गया था इससे पूर्व भगवान महावीर की वाणी को लिखने की परंपरा नहीं थी उसे सुनकर ही स्मरण किया जाता था इसलिए उनका नाम ' श्रुत ' था। इसी दिन से शुद्ध परंपरा को लिपिबद्ध परंपरा के रूप में प्रारंभ किया गया
श्रुत पंचमी के दिन जैन धर्मावलंबी मंदिरों में प्राकृत, संस्कृत ,प्राचीन भाषाओं में हस्तलिखित प्राचीन मूल शास्त्रों को शास्त्र भंडारों की साफ सफाई करके प्राचीनतम शास्त्रों की सुरक्षा की दृष्टि से उन्हें नए बस्त्रों में लपेटकर सुरक्षित किया जाता हैसे बाहर निकाल कर उन्हें नए वस्त्रों में लपेटकर सुरक्षित किया जाता है तथा इन ग्रंथों को भगवान की बेदी के समीप विराजमान करके उनकी पूजा अर्चना करते हैं क्योंकि इसी दिन जैन शास्त्रों लिखकर उनकी पूजा की गई थी
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🌹 *श्रुतपंचमी-महापर्व* 🌹
डॉ रंजना जैन दिल्ली
*ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी का दिन जिनवाणी के लिपिबद्धरूप में प्राप्त होने से परमपावन 'श्रुतपंचमी-पर्व' के रूप में मनाया जाता है। वैसे तो श्रुत- परम्परा अनादि-अनंत है, ये जिनश्रुतरूपी गंगा तीर्थंकर- परमात्मा से निःसृत , गणधरदेव के द्वारा आत्मसात् होती हुई , सुदीर्घ आचार्य-परम्परा से प्रवाहित होती हुई भव्यजनों को प्राप्त हुई।*
🌹 *'श्रुत' शब्द का अर्थ*
*'श्रुत' शब्द के तीन अर्थ हैं -- पहला अर्थ सुनना , दूसरा अर्थ क्षयोपशमरूप श्रुतज्ञान और तीसरा सबसे महत्वपूर्ण अर्थ है -- "श्रुत्वा अवधारणं श्रुतम्" अर्थात् ज्ञानियों के वचनों को सुनकर उसे जीवन में अवधारण करना 'श्रुत' है। वास्तव में यही अर्थ सत्य और प्रयोजनभूत अर्थ प्रतीत होता है।*
*श्रुत 'द्रव्यश्रुत' और 'भावश्रुत' के भेद से दो प्रकार हैं।*
*द्रव्यश्रुत लिखितरूप या शब्दरूप को कहते हैं। और भावश्रुत अंतरंग में उस संबंधी बोध या ज्ञान को। जैसे आम का शब्दरूप में वाचन करना द्रव्यरूप और आम का वाचन होने पर उसके स्वाद आदि का बोध होना भावरूप।*
🌹 *श्रुतपंचमी-पर्व का इतिहास*
*'भगवान् महावीर स्वामी' के तीर्थंकर-काल के लगभग 683 वर्ष तक ये श्रुत-परम्परा मुख्यतः भावरूप से प्रवाहित होती रही। लेकिन काल के प्रभाव से जब जीवों की स्मरणशक्ति क्षीण होने लगी, तब 'धरसेनाचार्य' को विकल्प आया कि मेरे इस पर्याय के परिवर्तन के बाद जीवों को भगवान् के मूलवचन, आत्महितकारी-वचन सुनने को कैसे मिलेंगें ?*
*तब 'आंध्रप्रदेश' की 'महिमा' नगरी में हो रहे 'युग-प्रतिक्रमण' के प्रमुख 'अर्हद्बलि आचार्य' के पास दो सुयोग्य मुनिवर भेजने का समाचार भेजा। शीघ्र ही 'सुबुद्धि' और 'नरवाहन' नामक दो मुनिराज वहाँ से 'धरसेनाचार्य' के पास आये। तब 'धरसेनाचार्य' ने उनकी परीक्षा-हेतु दो मंत्र सिद्ध करने के लिये कहा। जिनमें एक मंत्र में एक मात्रा कम और एक मंत्र में एक मात्रा ज्यादा थी। साथ में ये भी कहा कि जब ये मंत्र सिद्ध होंगें, तो दो सुंदर देवियाँ प्रकट होंगी , और यदि ऐसा न हो तो अपना विवेक लगाना मेरे पास मत आना।*
*जब गिरनार पर्वत पर दोनों मुनिराजों ने मंत्र-सिद्धि की, तो दो देवियाँ तो प्रकट हुईं, पर उसमें से एक देवी कानी थी और एक देवी के दाँत बाहर निकले हुये थे। मुनिराज अपने तीक्ष्ण-ज्ञान से तुरंत समझ गये कि मंत्र में एक बिंदी/अनुस्वार कम है, और दूसरे मंत्र में एक मात्रा ज्यादा है, तुरंत मंत्रों को शुद्ध करके पुनः प्रयोग किया, तो दो सुंदर देवियाँ प्रकट हुई।*
*मंत्र की सफल-सिद्धि जानकर 'धरसेनाचार्य' बहुत प्रसन्न हुये और दोनों मुनिराजों को आगम का ज्ञान दिया। लेकिन 'धरसेनाचार्य' को ज्ञात था कि मेरी आयु पूर्ण होने वाली है , यदि ये दोनों मुनिराज मेरे पास रुके, तो कहीं गुरू-वियोग की विह्वलता से आगमज्ञान विस्मृत न हो जाये, अतः उन्हें वहाँ से बहुत दूर जाने की आज्ञा दी।*
*गुरू की आज्ञा शिरोधार्य करते हुये वे दोनों मुनिराज तीन दिन में गिरनार पर्वत से 500 किलोमीटर दूर 'अंकलेश्वर' पहुँचे। और गुरु की आज्ञा से जिनवाणी को लिपिबद्ध करना शुरू किया।*
*प्राप्त-आगमज्ञान को छह- खण्डों में विभाजित किया। अभी पहला खण्ड भी पूर्ण नहीं हो पाया था कि 'सुबुद्धि मुनिराज' की तबियत बिगड़ने लगी , तब 'नरवाहन' मुनिराज ने शेष पाँच खण्डों को पूर्ण किया। जिस दिन ये ग्रंथ पूर्ण हुआ, वह दिन था 'ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी' का और वो स्थान था 'अंकलेश्वर' और वह ग्रंथ था,"षट्खंडागम" ग्रंथ पूर्ण होते ही देवों ने आकाश से पुष्प वर्षा की और चारों ओर "जयदु सुद देवता" का जयघोष होने लगा।*
*ग्रंथ पूर्ण होने पर "सुबुद्धि मुनिराज" की विषम-दंतपंक्ति देवों के प्रभाव से सुंदर-दंतपंक्ति में बदल गई , इसलिये उनका नाम "पुष्पदंत" प्रचलित हुआ। और ग्रंथ पूर्ण करने से "नरवाहन मुनिराज" की 'भूतजाति' के व्यंतर- देवों ने 'बलि' यानि 'पूजा' की इसलिये उनका नाम "भूतबलि" प्रचलित हुआ।*
🌹 *श्रुतपंचमी-पर्व का महत्त्व*
*धन्य थी वह आचार्य-परम्परा , जो हम अज्ञानी जीवों पर इतना उपकार किया। हम कल्पना भी नहीं कर सकते , जब भयंकर जंगलों में सूखे ताड़पत्रों पर एक-एक शब्द उकेरतें होंगें। यदि आचार्यों ने ये करुणा न की होती , तो आज हम सब जीवों को ये जिनवाणी सुनने को नहीं मिलती। कैसे हम आत्महित का मार्ग प्रशस्त करते ? कौन हमें बताता कि मैं कौन हूँ ? कहाँ से आया हूँ ? मेरा स्वरूप क्या है ? सच्चा सुख क्या है ? कहाँ मिलेगा ? -- ऐसे अनगिनत सवालों के जबाब आज हमें माँ जिनवाणी से ही प्राप्त होते हैं।*
*परम सौभाग्य है हमारा कि आचार्यों ने माँ जिनवाणी को चार अनुयोगों में विभाजित कर अत्यंत सरलरूप में प्रस्तुत किया। जहाँ प्रथमानुयोग हमें महापुरुषों के जीवन से परिचित करवाता है , वहीं द्रव्यानुयोग वस्तु-व्यवस्था के ज्ञान के साथ स्वयं से परिचय करवाता है , सच्चे सुख का मार्ग बताकर सुख-प्राप्ति के लिये प्रेरित करता है। जहाँ करणानुयोग ऐक्सरे की भाँति अंदर के परिणामों का लेखा-जोखा प्रस्तुत करता है , अर्थात् किस परिणाम का क्या फल मिलेगा ? वहीं चरणानुयोग कैमरे की भाँति बाह्य-आचरण की पवित्रता की छवि प्रस्तुत करता है , और मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है।*
*श्रुतपंचमी का पावन पर्व हमें प्रेरणा देता है कि हमें माँ जिनवाणी के चारों अनुयोगों का स्वाध्याय करना चाहिये। क्योंकि चारों ही अनुयोग विविधप्रकार से मेरा स्वरूप ही बताते हैं।*
*आज का ये पावन दिन एक संकल्प लेने का दिन है , इस अमूल्य मनुष्यभव को सार्थक करने का दिन है। हमें प्रेरणा देता है कि हे आत्मन् ! यदि आज नहीं चेते तो , ये दुर्लभ मनुष्यभव , उत्तमकुल , जिनशासन का समागम यूँ ही व्यर्थ चला जायेगा। यानि हम सच्चे सुख से कोसों दूर चले जायेंगें।*
*आज हम एक संकल्प और करें कि जिनवाणी का बहुमान करते हुये , जीर्ण-शीर्ण जिनवाणी को संरक्षित और सुव्यवस्थित करेंगें। प्रतिदिन जिनवाणी का श्रवण करेंगें , मनन करेंगें , और जीवन में धारण करने का पुरूषार्थ करेंगें , तभी हमारा श्रुतपंचमी-पर्व मनाना सार्थक होगा।*
*अंत में 'बड़े पंड़ित जी' की लिखी हुई मार्मिक पंक्तियाँ कहकर विराम लेती हूँ --*
*"माँ जिनवाणी मुझ अंतर में ,*
*होकर मुझ रूप समा जाओ।*
*शांत शुद्ध निज ज्ञायक प्रभु की,*
*महिमा प्रतिक्षण दरशाओ।।"*