श्री नेमिनाथ विधान (लघु,)
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स्थापना
निज निग्रंथ निवास में, जो निरखें निजधाम ।
ऐसे नेमिजिनेश को, पूजें करें प्रणाम।
( लय: माता तू दया करके..... )
श्रद्धा की केशरिया, हम चार ओढ़ चले।
जब कुछ नहिं सूझा तो, हाथों को हि जोड़ चले ।।
हे! नेमिनाथ जिनवर, चैतन्य विरामी हो ।
रह के कण-कण में भी, प्रभु अंतरयामी हो ।।
तुम जीव दया करने, त्यागे अपनी खुशियाँ ।
हम भले उजड़ जायें, पर सुखी रहे दुनियाँ ।।
फिर राज-भोग छोड़े, राजुल भी ना भायी।
तो चेतन की खुशबू, झट मुक्ति वधू लायी ||
हे ! दयामूर्ति हम पर, प्रभु एक दया कर दो
हम करें नमोस्तु तो, मन - चिदानन्द भर दो ||
श्रद्धा की केशरिया....... ।
(दोहा)
भक्ति सुमन ये भेंटकर, नाँच उठे मन मोर |
हृदय वसो तो हम चलें, मोक्ष महल की ओर ।।
ॐ ह्रीं श्री नेमिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् इति आह्वानम् ।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् ।
ॐ ह्रीं श्री नेमिनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्
। ( पुष्पांजलिं........)
अपनों ने ही जन्म दिया, अपनों ने हि मार दिया ।
फिर भी अपनों से क्यों, हमने तो प्यार किया ।
अपनों का अपनापन, जल से हम भी हर लें ।
साँवरिया नेमिप्रभु, हम तुम्हें नमन कर लें ||
श्रद्धा की केशरिया...... ।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं...... ।
अपनों ने हि ईर्ष्या से, अपनों को जला दिए ।
फिर भी ना राख हुए, कितने भव गवाँ दिए ||
अपनों की यह ईर्ष्या, चन्दन से हम हर लें ।
साँवरिया नेमिप्रभु, हम तुम्हें नमन कर लें ||
श्रद्धा की केशरिया...... ।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं...... ।
अपनों ने हि घाव दिए, तो आँसू भी झलके ।
हम उन्हें मित्र मानें, जो साथी नहिं पल के ॥
अपनों की ये पीड़ा, अक्षत से हम हर लें ।
साँवरिया नेमिप्रभु, हम तुम्हें नमन कर लें ||
श्रद्धा की केशरिया.………………।
ॐ ह्रीं श्रोनेमिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान्..... ।
अपनों ने जो जाल रचे, उनमें अपने ही फँसे ।
काँटों से बच निकले, पर फूलों में उलझे ।।
अपनों की उलझ-सुलझ, पुष्पों से हम हर लें ।
साँवरिया नेमिप्रभु, हम तुम्हें नमन कर लें ||
श्रद्धा की केशरिया....... ।
ॐ ह्रीं श्री नेमिनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं..... ।
अपनों की तलाश में हम, नित भूख-प्यास सहते ।
हम जिनको अमृत दें, वे हमें जहर देते ।।
अपनों के विष- अमृत, नैवेद्य से हम हर लें
साँवरिया नेमिप्रभु, हम तुम्हें नमन कर लें ||
श्रद्धा की केशरिया...... ।
ॐ ह्रीं श्री नेमिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं......
अपनों ने ही भटका के, दर-दर की ठोकर दीं ।
हम रहें अँधेरे में, अपना सब खोकर भी ।।
अपनों की यह भटकन, दीपों से हम हर लें ।
साँवरिया नेमिप्रभु, हम तुम्हें नमन कर लें ||
श्रद्धा की केशरिया....... । *
ॐ ह्रीं श्री नेमिनाथजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं ....... ।
अपनों ने हि धोखे से, अपना सब कुछ छीना ।
जीने की आश न थी, फिर भी तो पड़ा जीना ।।
अपनों के ये धोखे, प्रभु धूप से हम हर लें ।
साँवरिया नेमिप्रभु, हम तुम्हें नमन कर लें ।।
श्रद्धा की केशरिया... । ......
ॐ ह्रीं श्री नेमिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं ........
अपनों की मृग-तृष्णा, सपनों को दिखाकर के।
हमको लूटे तो हम, भागे मुँह छिपाकर के ।।
अपनों के ये सपने, फल से हम भी हर लें ।
साँवरिया नेमिप्रभु, हम तुम्हें नमन कर लें ||
श्रद्धा की केशरिया....... ।
ॐ ह्रीं श्री नेमिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं...... ।
अपनों ने हि साथ दिया, जब सुख से दिन गुजरे
सब छोड़ गए हम को, जब भाग्य कमल उजड़े।
फिर भी अपनों का यह, हम राग न छोड़ सके ।
प्रभु सामने हैं पर हम नाता न जोड़ सके ||
प्रभु के रंग में हम भी, अब रंगने को आये ।
जो है शाश्वत अपना, वह संग पाने आये ।।
अपनों की यह भ्रमणा, प्रभु अर्घ्य से हम हर लें ।
साँवरिया नेमिप्रभु, हम तुम्हें नमन कर लें ||
श्रद्धा की केशरिया, हम चादर ओढ़ चले।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं ...... ।
श्री पंचकल्याणक अर्घ्य
( लय: माता तू दया करके..... )
श्री नेमिप्रभु के पर्व, चढ़ा के अर्घ, सर्व कल्याणी ।
हम करें नमोस्तु स्वामी ।
जब हुआ गर्भ कल्याणक था, तब रत्न-दृश्य मनमोहक था ।
फिर शौर्यपुरी में आन पधारे नेमि-जिससे दुनियाँ हर्षानी ।
श्री नेमिप्रभु के पर्व, चढ़ा के अर्घ, सर्व कल्याणी ।।
(दोहा)
कार्तिक षष्ठी शुक्ल में, शिवदेवी के गर्भ |
नेमिप्रभु जी आ वसे, तजकर जयन्त स्वर्ग ||
ॐ ह्रीं कार्तिकशुक्लषष्ठयां गर्भमङ्गलमण्डिताय श्रीनेमिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं....... ।
प्रभु जन्म लिए तो सुर पहुँचे, नृप समुद्रविजय के घर नाँचे ।
अभिषेक मेरु पै देव करें वरदानी, प्रभु पाण्डुकशिला विरामी ।।
श्री नेमिप्रभु के पर्व, चढ़ा के अर्घ, सर्व कल्याणी....
श्रावण षष्ठी शुक्ल में, हुआ जनम का शोर ।
समुद्रविजय के आँगने, नेमि किए किलकोर ।।
ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लषठ्यां जन्ममङ्गलमण्डिताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं
प्रभु देख प्राणियों का क्रन्दन, झट तजे राज राजुल बंधन
फिर माँ-बाबुल का तज के दाना-पानी, प्रभु बने भेद विज्ञानी ।।
श्री नेमिप्रभु के पर्व, चढ़ा के अर्घ, सर्व कल्याणी.....
श्रावण षष्ठी शुक्ल में, पशुओं की सुन त्राण
नेमिप्रभु तप से सजे, हम तो करें प्रणाम ।।
ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लषव्यां तपोमङ्गलमण्डिताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्ध्य.......
प्रभु ध्यान लगाकर जब बैठे, तब घातिकर्म बंधन टूटे।
फिर समवसरण में, दिए देशना ज्ञानी, सबने पूजी जिनवाणी
। श्री नेमिप्रभु के पर्व, चढ़ा के अर्घ, सर्व कल्याणी...
शुक्ला एकम् क्वार को, घाति कर्म जयोस्तु
मोक्षमार्ग अध्यात्म-दा, नेमि प्रभु को नमोस्तु
ॐ ह्रीं अश्विनशुक्लप्रतिपदायां ज्ञानमङ्गलमण्डिताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य ...... ।
सब कर्म हरे गिरिनारी से, फिर मिले मुक्ति की नारी से।
देवों ने उत्सव करने की फिर ठानी, अब हम तो करें नमामि ।।
श्री नेमिप्रभु के पर्व, चढ़ा के अर्घ, सर्व कल्याणी....
आठें शुक्ल अषाढ़ को, प्राप्त किए निर्वाण ।
नेमिप्रभु, गिरनार को, बारम्बार प्रणाम ।।
ॐ ह्रीं आषाढ़शुक्ल अष्टम्यां मोक्षमङ्गलमण्डिताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं ...... ।
🌹जयमाला🌹
धार्मिक रथ की जो धुरी, धर्म चक्र की हाल ।
जिनवर नेमि दयेश की, अब कहते जयमाल ।।
( ज्ञानोदय)
जिनके तपश्चरण की चर्चा, तीन लोक में गूँज रही ।
जीवदया वैराग्य कथा को, सारी दुनियाँ पूज रही । ।
अन्य - सभी तीर्थंकर से भी, जिनके अतिशय भिन्न रहे ।
ऐसे नेमिनाथ जिनवर के, गुण गा हृदय प्रसन्न रहे ॥ 1 ॥
अतः करें गुणगान भक्त हम, आश्रय ले जयमाला का ।
जो पिछले भव अपराजित थे, ऐसे प्रभु जग-पाला का ||
अपराजित कर मृत्यु महोत्सव, सोलहवे सुर जन्म लिए ।
स्वर्ग त्यागकर सुप्रतिष्ठि बनकर, उल्कापातन देख लिए ॥ 2 ॥
धर वैराग्य लिए दीक्षा फिर, तीर्थंकर प्रकृति पाये ।
समाधिमरण कर स्वर्ग गए फिर, स्वर्ग त्याग भू पर आये ।।
शिवदेही को सोलह सपने, दिए गर्भ कल्याणक में ।
ऐरावत से चले मेरु पर, प्रभो ! जन्म कल्याणक में ॥3॥
धर्म चक्र की धुरा धरी सो, नेमिनाथ शुभ नाम पड़ा।
जिन्हें देख आनन्द बरसता, विश्व जोड़कर हाथ खड़ा ।।
बचपन बीता अणुव्रत जैसा, फिर जिन पर यौवन छाया ।
तभी मनोहर जलक्रीड़ा का, एक सुखद अवसर आया ॥ 4।।
वहाँ सत्यभामा के ऊपर, नेमिनाथ जल उछलाये ।
वस्त्र नहाने का तुम धो दो, यूँ कहकर कुछ इठलाये ||
क्या तुम काम श्याम के जैसे, कर सकते भामा बोली ।
अगर नहीं तो हुक्म करो क्यों?, ये बोली बन गई गोली ॥5॥
नेमिनाथ ने शंख फूँककर, नवयौवन की ध्वनि कर दी ।
राजीमति से विवाह बंधन करने को मँगनी कर ली ॥ "
तभी श्याम को हुई आशंका, कहीं कभी ना हो ऐसा ।
नेमिनाथ जी राज्य हमारा, ले ना लें तो हो कैसा ॥ 6 ॥
अतः उन्हें वैराग्य कराने को षड्यन्त्र रचा डाले ।
मृग पशुओं को शिकारियों को, बाड़ी में भरवा डाले ।।
जूनागढ़ बारात गयी तो, नेमि उन्हीं का दुख देखे ।
धर वैराग्य तजे राजुल को, विवाह बंधन भी फेंके ॥ 7 ॥
चले देवकुरु शिविका से ली, गिरिनारी में मुनिदीक्षा ।
पीछे-पीछे राजुल पहुँची, बनी आर्यिका ली दीक्षा ।।
द्वारावति के जो राजा थे, श्री वरदत्त महा न्यारे ।
वहीं पारणा दीक्षा की हुई, पंचााश्चर्य हुए प्यारे ॥ 8 ॥
छप्पन दिन छद्मस्थ बिता के, गिरिनारी पर्वत पर जा ।
बने बाँस के नीचे ध्यानी, केवलज्ञान तभी उपजा ।।
ज्ञान पर्व देवों ने करके, समवसरण भी सजा दिया ।
ग्यारह गणधर भी संसद को, नेमिनाथ ने जगा दिया ॥ 9 ॥
भव्यजनों के नेमिनाथ ने कहे भवांतर जैसे ही ।
सभी पाण्डवों ने दीक्षा ले, धारा संयम वैसे ही ।।
कुन्ती सुभद्रा और द्रौपदी, बनी आर्यिका सुर-वासी ।
विवाह करते शत्रुंजय पर, पाण्डव पहुँचे सन्यासी ॥10 ॥
दुर्योधन के भांजे ने फिर, वहाँ घोर उपसर्ग किए ।
दो पाण्डव तो स्वर्ग सिधार, तीन मोक्ष को गमन किए ||
इधर नेमिप्रभु गिरनारी पर, योग निरोध किए स्वामी ।
कर्मनष्ट कर मोक्ष पधारे, हम चरणों में प्रणमामि ॥11॥
ब्रह्मदत्त भी जरासंघ भी, पद्म कृष्ण भी तब जन्मे ।
तब ही हुआ महाभारत था, नेमिनाथ के शासन में ।।
द्वन्द - फन्द हर्त्ता को बाँधो, गुरु दिन राहु ग्रह में क्यों ।
रिद्धि-सिद्धि हों काम बनें सब, प्रभु की जय बस बोलो तो ॥12॥
- सजा - धजा था विवाह मण्डप, नेंग और दस्तूर हुए।
सजे बराती, शोभे दुल्हन, नेमि सभी से दूर हुए ||
राजुल जैसे हमें न छोड़ो, थामो नाजुक हाथों को । '
सुव्रत' की बस यही प्रार्थना, हर लो गम की रातों को ॥13॥
(सोरठा )
चरण शरण में शंख, नेमिनाथ का चिह्न है ।
मिले भक्ति के पंख, उड़कर भक्त प्रसन्न हैं ।।
परम शुद्ध अध्यात्म, लोक शिखर शिवधाम है।
नेमिनाथ दो दान, सादर अतः प्रणाम है ।।
ॐ ह्रीं श्री नेमिनाथजिनेन्द्राय जयमालापूर्णार्घ्यं..... ।
(दोहा)
नेमिनाथ स्वामी करें, विश्वशांति कल्याण |
प्रासुक जल की धार दे, हम पूजत भगवान् ॥
( शांतये शांतिधारा..... )
कल्पवृक्ष के पुष्प सम, पुष्पांजलि पद लाय |
भव दुःखों को मेंट दो, नेमिनाथ जिनराय ||
( पुष्पाञ्जलिं .... )
विधान अर्ध्यावली
(बाईस परिषह) (विष्णु)
तुम्हीं जिनालय तुम सिद्धालय, आतम तीरथ हो ।
नेमिप्रभु के चरण कमल में, अतः नमोस्तु हो
मिले न भोजन अल्प मिले तो, क्षुधा वेदन हो ।
फिर भी अयोग्य करें न भोजन, आत्म साधना को ॥
क्षुधा विजय हम करें आप सम, ऐसी शक्ति दो ।
नेमिप्रभु के चरण कमल में, अतः नमोस्तु हो ॥ 1 ॥
ॐ ह्रीं क्षुधाजन्यपीड़ानिवारणार्थं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं .... ।
असमय में यदि प्राण विदारक, लगे प्यास तो भी ।
पियें न जल लेकिन जो पीते, आत्म ध्यान जल ही ॥
तृषा विजय हम करे आप सम, ऐसी शक्ति दो ।
नेमिप्रभु के चरण कमल में, अतः नमोस्तु हो ॥ 2 ॥
ॐ ह्रीं तृषाजन्यपीड़ानिवारणार्थं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं .... ।
शीत लहर में खुली डगर में रहें दिगम्बर जो ।
फिर भी डरें न भागे ओढ़े, आतम कम्बल को ॥
शीत विजय हम करें आप सम, ऐसी शक्ति दो |
नेमिप्रभु के चरण कमल में, अतः नमोस्तु हो ॥ 3 ॥
ॐ ह्रीं शीतजन्यपीड़ानिवारणार्थं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं ... ।
महा ग्रीष्म में लू लपटों में, तालु कण्ठ सूखे ।
देह - विदारक दाह सहें पर, संयम ना छूटे ॥
उष्ण विजय हम करें आप सम, ऐसी शक्ति दो ।
नेमिप्रभु के चरण कमल में, अतः नमोस्तु हो ॥ 4 ॥
ॐ ह्रीं उष्णजन्यपीड़ानिवारणार्थं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं.... ।
मच्छर आदिक जो दें पीड़ा, सहन करें उनको ।
पर निर्वाण प्राप्ति के इच्छुक, कष्ट न दें उनको ॥
दंशमशक जय करें आप सम, ऐसी शक्ति दो।
नेमिप्रभु के चरण कमल में, अतः नमोस्तु हो ॥ 5 ॥
ॐ ह्रीं दंशमशक खटमल चींटी बिच्छू आदिक जन्यपीड़ानिवारणार्थं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं.... ।
यथाजात बालक के जैसा, जिसका रूप रहा ।
दोष रहित निर्वाण प्राप्ति को, ब्रह्म स्वरूप कहा ||
धरें नग्नता बनें आप सम, ऐसी शक्ति दो।
नेमिप्रभु के चरण कमल में, अतः नमोस्तु हो ॥ 6 ॥
ॐ ह्रीं नग्नताजन्यपीड़ानिवारणार्थं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं .... ।
पञ्चेन्द्री के शुभ-विषयों से, जिनने मुख मोड़ा ।
जीव दया के परिपालन को, अपना सुख छोड़ा ॥
अरति विजय हम करें आप सम, ऐसी शक्ति दो ।
नेमिप्रभु के चरण कमल में, अतः नमोस्तु हो ॥ 7 ॥
ॐ ह्रीं अरतिजन्यपीड़ानिवारणार्थं श्रीनेमिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं .... ।
ब्रह्म विनाशक अगर नारियाँ, हाव-भाव कर लें ।
कछुये सम मन-विकार जयकर, निज में संत रमें ॥
स्त्री विजय हम करें आप सम, ऐसी शक्ति दो।
नेमिप्रभु के चरण कमल में, अतः नमोस्तु हो ॥ 8 ॥
ॐ ह्रीं स्त्रीबाधाजन्यपीड़ानिवारणार्थं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं .... ।
कर - पात्री बन पग - यात्री बन, गमनागमन करें ।
लेकिन कण्कड़ काँटों में भी, पीड़ा सहन करें ।
चर्या जय हम करें आप सम, ऐसी शक्ति दो ।
नेमिप्रभु के चरण कमल में, अतः नमोस्तु हो ॥ १ ॥
ॐ ह्रीं चर्या आहारबाधा जन्यपीड़ानिवारणार्थं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं.... ।
निर्जन क्षेत्र गुफादिक में जो, आसन ध्यान करें।
भय उपसर्ग विजेता पथ से, कहाँ प्रयाण करें ॥
विजय निषद्या करें आप सम, ऐसी शक्ति दो ।
नेमिप्रभु के चरण कमल में, अतः नमोस्तु हो ॥10॥
ॐ ह्रीं निषद्या घुटिका कटि आसनबाधा जन्यपीड़ानिवारणार्थं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं .... ।
भले थके हों लेकिन विधिवत्, करवट से सोते ।
ज्ञान ध्यान में लीन रहें पर, दुखी नहीं होते ॥
शय्या जय हम करें आप सम, ऐसी शक्ति दो ।
नेमिप्रभु के चरण कमल में, अतः नमोस्तु हो ॥ 11 ॥
ॐ ह्रीं शय्या निद्राबाधा जन्यपीड़ानिवारणार्थं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं .... ।
कटु वचनों को सुनकर भी जो, क्रोध नहीं करते।
तपश्चरण में तत्पर रहकर, पाप ताप हरते ।।
विजय करें आक्रोश आप सम, ऐसी शक्ति दो।
नेमिप्रभु के चरण कमल में, अतः नमोस्तु हो ॥ 12 ॥
ॐ ह्रीं आक्रोश क्रोध आवेश जन्यपीड़ानिवारणार्थं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं....।
अस्त्रों-शस्त्रों की पीड़ा दे, जब कोई मारें।
तो भी चन्दन जैसे महकें, रत्नत्रय धारें ।।
हम भी वध जय करें आप सम, ऐसी शक्ति दो।
नेमिप्रभु के चरण कमल में, अतः नमोस्तु हो ॥13॥
ॐ ह्रीं वध अस्त्र शस्त्रप्रहार जन्यपीड़ानिवारणार्थं श्रीनेमिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्य .... ।
तप करके जो सूख चुके पर, दीन-हीन ना हों।
पथ न भटकें, कुछ नहिं माँगे, प्राण कण्ठगत हों ।
विजय याचना करें आप सम, ऐसी शक्ति दो।
नेमिप्रभु के चरण कमल में, अतः नमोस्तु हो ॥ 14 ॥
ॐ ह्रीं याचना जन्यपीड़ानिवारणार्थं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं .... ।
बहुत दिनों तक मिले न भिक्षा, तो भी दुख न करे।
करें तपस्या हरें समस्या, आतम मनन करें ॥
अलाभ जय हम करें आप सम, ऐसी शक्ति दो ।
नेमिप्रभु के चरण कमल में, अतः नमोस्तु हो ॥15॥
ॐ ह्रीं अलाभ जन्यपीड़ानिवारणार्थं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं.... ।
कर्मोदय से रोग जन्म लें, फिर भी नहीं दुखी ।
प्रतीकार तो कर सकते पर, निज में रहे सुखी ॥
रोग विजय हम करें आप सम, ऐसी शक्ति दो
नेमिप्रभु के चरण कमल में, अतः नमोस्तु हो ॥16॥
ॐह्रीं रोग जन्यपीड़ानिवारणार्थं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं .... ।
कंकड़ काँटे चुभने पर भी मिले चेतना से
विजय निषद्या चर्या शय्या, करें साधना से
तृणस्पर्श जय करें आप सम, ऐसी शक्ति दो
नेमिप्रभु के चरण कमल में, अतः नमोस्तु हो ॥17॥
ॐ ह्रीं तृणस्पर्श शूल कण्टकादि जन्यपीड़ानिवारणार्थं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं....।
स्नान त्याग है अतः धूल से हुई खाज खुजली । वो चारित्र नीर
से धोकर, आतम हो उजली ॥
हम भी मल जय करें आप सम, ऐसी शक्ति दो ।
नेमिप्रभु के चरण कमल में, अतः नमोस्तु हो ॥18 ॥
ॐ ह्रीं मलजन्यपीड़ानिवारणार्थं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं .…...
ज्ञानी बनने पर भी मिलता आदर ना ।
तो भी खेल खिन्न ना हों यदि, मिले बड़प्पन ना ॥
जय सत्कार पुरस्कार करें हम, ऐसी शक्ति दो।
नेमिप्रभु के चरण कमल में, अतः नमोस्तु हो ॥19॥
ॐ ह्रीं सत्कार पुरस्कार मानापमान जन्यपीड़ानिवारणार्थं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं....
मैं अध्यात्म निपुण श्रुत ज्ञाता, मैं रवि, जग जुगनूँ।
यों विज्ञान गर्व को तजकर, मैं जिन दास बनूँ ॥
प्रज्ञा जय हम करें आप सम, ऐसी शक्ति दो । ।
नेमिप्रभु के चरण कमल में, अतः नमोस्तु हो ॥20॥
ॐ ह्रीं प्रज्ञा बुद्धिविकार जन्यपीड़ानिवारणार्थं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं....।
ज्ञान न हो तो अपमानों के कर्कश वचन सहें ।
किन्तु तपस्या भंग न करके, ज्ञानानंद चखें ॥
करें विजय अज्ञान आप सम, ऐसी शक्ति दो
नेमिप्रभु के चरण कमल में, अतः नमोस्तु हो ॥21॥
ॐ ह्रीं अज्ञानजन्यपीड़ानिवारणार्थं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं .... ।
मैं वैरागी त्यागी हूँ पर, चमत्कार नहिं हों।
अतः निरर्थक व्रत पालन हैं, ऐसे भाव न हों ॥
विजय अदर्शन करें आप सम, ऐसी शक्ति दो ।
नेमिप्रभु के चरण कमल में, अतः नमोस्तु हो ॥22॥
ॐ ह्रीं अदर्शन मतमतान्तरजन्यपीड़ानिवारणार्थं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं .... ।
(चार - भावना ) ( लय-माता तू दया.......)
श्रद्धा की केशरिया, हम चादर ओढ़ चले।
जब कुछ नहिं सूझा तो, हाथों को हि जोड़ चले ॥
प्रभु! अपने-परायों में, नित मैत्री भाव रहे ।
नहिं वैर भाव पनपे, आपस में प्रेम रहे ।
यह पूर्ण भावना हो, बस ऐसी शक्ति दो।
हे! नेमीनाथ स्वामी, अब तुम्हें नमोस्तु हो ॥23॥
ॐ ह्रीं मैत्री सुख शान्तिविकासनार्थं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं .... ।
गुणियों को देखें तो, अनुराग भक्ति उमड़े
जिया पुलक-पुलक जाये, निज-आत्म प्रमोद बड़े
यह पूर्ण भावना हो, बस ऐसी शक्ति दो।
हे! नेमिप्रभु स्वामी, अब तुम्हें नमोस्तु हो ॥ 24 ॥
ॐ ह्रीं प्रमोदभक्ति अनुराग भावविकासनार्थं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं.... ।
जो दीप- हीन दुखिया, हो दया भाव उन पर ।
उनका दुख मिट जावे, तो करुणा हो निज पर ॥
यह पूर्ण भावना हो, बस ऐसी शक्ति दो।
हे! नेमिप्रभु स्वामी, अब तुम्हें नमोस्तु हो ॥25॥
ॐ ह्रीं करुणयदयाभावविकासनार्थ श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं.... ।
जो विनय नहीं करते, उसमें माध्यस्थ रहें ।
नहिं पक्षपात होवे, निज आतम स्वस्थ रखें ॥
यह पूर्ण भावना हो, बस ऐसी शक्ति दो।
हे! नेमिनाथ स्वामी, अब तुम्हें नमोस्तु हो ॥26॥
ॐ ह्रीं माध्यम रागद्वेषपक्षपात भावविनाशनाश श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राथ अर्घ्यं.... ।
( चार-आराधना )
बहिरंग छहों कारण, दें सम्यग्दर्शन जो ।
व्यवहार और निश्चय, दर्शन - आराधन हो ॥
वह दोष रहित पायें, बस ऐसी शक्ति दो।
हे! नेमिनाथ स्वामी, अब तुम्हें नमोस्तु हो ॥27 ॥
ॐ ह्रीं दर्शन आराधना प्रदाता श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं.... ।
श्रुत बारह अंगों का, जो सम्यग्ज्ञान रहा ।
वह ज्ञानाराधन जो, तीर्थंकर कथित रहा ॥
वह ज्ञान पिण्ड पायें, बस ऐसी शक्ति दो।
हे! नेमिनाथ स्वामी, अब तुम्हें नमोस्तु हो ॥28॥
ॐ ह्रीं ज्ञान आराधना प्रदाता श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं .... ।
मुनि तेरह विध वाला, सम्यक्चारित्र धरें।
उन मुनि का आराधन, निज आत्म पवित्र करें ॥
चारित्र धरें हम भी, बस ऐसी शक्ति दो।
हे! नेमिनाथ स्वामी, अब तुम्हें नमोस्तु हो ॥29॥
ॐ ह्रीं चारित्र-आराधना-प्रदाता- श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं .... ।
जो मूलगुणों के साथ उत्तरगुण तप करते ।
उन महा तपस्वी का, हम आराधन करते ॥
हम कर्म हरें तप से, बस ऐसी शक्ति दो।
हे! नेमिनाथ स्वामी, अब तुम्हें नमोस्तु हो ॥26॥
ॐ ह्रीं तप-आराधना-प्रदाता - श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं .... । ।
हम जल बन जाएँ तो, तुम निर्मलता कर दो ।
हम चंदन बन जाएँ, तुम शीतलता भर दो ||
हम बनें अगर अक्षत, तुम अपना बना लेना ।
हम पुष्प बनें तो तुम, हमको भी खिला देना |
नैवेद्य बनें हम तो, दो आत्म स्वाद हमको ।
जब दीप बनें हम तो, तुम ज्योति बनो चमको ॥
यदि धूप बनें हम तो, तुम खुशबू बन महको ।
जब फल बन जाएँ हम, दो चिदानन्द रस को ॥
यह अर्घ्य चढ़ा के हम, दो चदिनान्द रस को ।
प्रभु कृपा करो हम भी, प्रभु में अनुरक्त रहें ।
हम भी गिरनार चढ़ें, बस ऐसी शक्ति दो।
हे! नेमिनाथ स्वामी, अब तुम्हें नमोस्तु हो |
ॐ ह्रीं माध्यम रागद्वेषपक्षपात भावविनाशनाश श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं....।
(दोहा)
आतम साधक सह रहे, परिषह अरु उपसर्ग |
नेमि प्रभु दो शक्तियाँ, करने कार्योत्सर्ग
ॐ ह्रीं समस्तविध उपसर्ग परिषह जन्यपीड़ानिवारणार्थं आत्मभावनाविकासक श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं.... ।
जाप्यमंत्र: ह्रीं णमो अरिहंताणं श्री नेमिनाथजिनेन्द्राय
समुच्चय जयमाला
🌹🌹🌹🌹🌹
(दोहा)
ऋषि मुनि की सेना रही, नायक प्रभु नेमीश ।
कर्म युद्ध जीता जिन्हें, हम भी टेकें शीश ||
जिनके चरण सरोज में, भक्त भ्रमर का शोर ।
हमें नेमिप्रभु ले चलो, गिरिनारी की ओर ॥
(त्रिभंगी)
हे! नेमि जिनेशा, हे! परमेशा, हे! सर्वेशा, दया करो ।
तुम जग के नायक, सब के पालक, आतम ज्ञायक, कृपा करो ॥
तुम संकटहारी, अतिशयकारी, ब्रह्म-विहारी, स्वामी हो ।
हे! सब-उपकारी, तुम्हे हमारी, बारी-बारी, नमामि हो ॥ 1 ॥
जब जन्म लिए तो, स्वप्न दिए तो, पर्व हुए तो, सभी खुशी ।
माँ-पिता खुशी, पर लोग खुशी, पर भक्त खुशी पर, आप दुखी ॥
क्या आप विचारे? कर्म हमारे, भर्म हमारे, सुखनाशी ।
तुम राज निवासी, बन सन्यासी, आत्म प्रकाशी, निजवासी ॥2॥
तुम परिषह सहकर, निज में रहकर, पर को तजकर, पूज्य बने ।
हम तुमको भजकर, प्रभु गुण गाकर, प्रभु में रमकर, धन्य बने ।
जब मंदिर आते, विघ्न सताते, संकट आते, हमको भी ।
प्रभु ! बहुत कष्ट क्यों, आप रुष्ट क्यों, किन्तु इष्ट हो, हमको भी ॥3॥
उपसर्ग भले अब, कष्ट भले अब, भ्रष्ट भले अब, हो जाएँ ।
पर धर्म न छूटे, भाग्य न फूटे, शपथ न टूटे, वर पाएँ । ।
नित मैत्री होवे, प्रमोद होवे, करुणा होवे, क्रम-क्रम में ।
माध्यस्थ सदा हों, व्यस्त सदा हों, मस्त सदा हों, आत्म में ॥4॥
छह कारण पाकर, लब्धि प्राप्त कर, सम्यग्दर्शन, निर्मल हो ।
सुन के गुरु वाणी, गुन प्रभु वाणी, चुन कल्याणी, मंजिल हो ।
चारित्र सँभाले, कर्म नशा लें, मोक्ष हि पालें, धर्मात्मा ।
है यही कामना, भक्त भावना, करे साधना, हर आत्मा ॥5॥
है जग का मेला, धर्म अकेला, प्रभु का चेला, धर न सके ।
प्रभु अतः साथ दो, हाथ पकड़लो, बाल भी बाँका, हो न सके ।
मत आप भुलाना, पास बुलाना, पाप छुड़ाना, ये इच्छा ।
या तो खुद आओ, हमें बुलाओ, किन्तु दिलाओ, जिनदीक्षा ॥ 6 ॥
हो आप दयालु, हम श्रद्धालु, हृदय हमारे, प्यार भरो |
ये भक्त सुदामा, के मुट्ठी भर, चावल तो, स्वीकार करो ॥
तन-मन-धन अर्पण, भक्त समर्पण, 'सुव्रत' पर, उपकार करो ।
कुछ दो न दो पर, वियोग न देना, अर्जी यह मंजूर करो ॥ 7 ॥